देवव्रत भीष्म
एक बार आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभाष आदि अष्ट वसु अपनी पत्नियों के साथ महर्षि वशिष्ठ के आश्रम के समीप घूम रहे थे। प्रभाष की पत्नी की नजर आश्रम में कामधेनु गाय पर पड़ी, वह कामधेनु को देखकर ललचा गईं। उन्होंने अपने पति से कहा कि आप स्वयं वसु है, ऐसी दिव्य गाय का किसी मुनि के पास क्या काम, मुझे यह गाय चाहिए। आपको चाहे चोरी ही क्यों न करनी पड़ें परंतु यह गाय लाकर दीजिए। प्रभास ने अन्य वसुओं के बात की और अपनी पत्नी के हठ की बात बताई। प्रभाष की जिद पर सातों वसु चोरी के लिए राजी हो गए, सबने मिलकर वशिष्ठ के आश्रम से कामधेनु गाय चुरा ली। महर्षि वशिष्ठ ने दिव्य दृष्टि से पता लगा लिया कि चोरी किसने की है। देवतुल्य वसु अब चोरी करने लगे हैं, इस बात से वशिष्ठ बड़े क्रोधित हुए। वशिष्ठ ने वसुओं को शाप दिया कि वह वसु का पद त्यागकर मानव रूप में धरती पर चले जाएंगे। मनुष्य के रूप में पैदा होकर और मनुष्य के भाति कष्ट सहना पड़ेगा। ॠषि का शाप सुनकर सभी वसु उनके पैरों में गिर कर माफी मांगने लगे, उन्होंने बताया कि प्रभास की पत्नी के दबाव में उन्हें चोरी करनी पड़ी। ॠषि ने कहा कि शाप वापस न