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देवव्रत भीष्म

एक बार आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभाष आदि अष्ट वसु अपनी पत्नियों के साथ महर्षि वशिष्ठ के आश्रम के समीप घूम रहे थे। प्रभाष की पत्नी की नजर आश्रम में कामधेनु गाय पर पड़ी, वह कामधेनु को देखकर ललचा गईं। उन्होंने अपने पति से कहा कि आप स्वयं वसु है, ऐसी दिव्य गाय का किसी मुनि के पास क्या काम, मुझे यह गाय चाहिए। आपको चाहे चोरी ही क्यों न करनी पड़ें परंतु यह गाय लाकर दीजिए। प्रभास ने अन्य वसुओं के बात की और अपनी पत्नी के हठ की बात बताई। प्रभाष की जिद पर सातों वसु चोरी के लिए राजी हो गए, सबने मिलकर वशिष्ठ के आश्रम से कामधेनु गाय चुरा ली। महर्षि वशिष्ठ ने दिव्य दृष्टि से पता लगा लिया कि चोरी किसने की है। देवतुल्य वसु अब चोरी करने लगे हैं, इस बात से वशिष्ठ बड़े क्रोधित हुए। वशिष्ठ ने वसुओं को शाप दिया कि वह वसु का पद त्यागकर मानव रूप में धरती पर चले जाएंगे। मनुष्य के रूप में पैदा होकर और मनुष्य के भाति कष्ट सहना पड़ेगा। ॠषि का शाप सुनकर सभी वसु उनके पैरों में गिर कर माफी मांगने लगे, उन्होंने बताया कि प्रभास की पत्नी के दबाव में उन्हें चोरी करनी पड़ी। ॠषि ने कहा कि शाप वापस न

तुलसी दास का 'प्रणामकौशल'

राधे राधे       वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि। मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।1।। भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ। याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्।।2।। वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्। यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।।3।। सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ। वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ।।4।। उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्। सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।5।। यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः। यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।।6।। नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि। स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा- भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति।।7।।सो0-जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन। करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन।।1।। मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन। जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन।।2।। नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन। करउ सो मम उर धाम सदा

दुर्गा मां के चमत्कारिक मंत्र

 ध्यान मंत्रः देवी प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोsखिलस्य। प्रसीद विश्वेतरि पाहि विश्वं त्वमीश्चरी देवी चराचरस्य। इस प्रकार भगवती से प्रार्थना कर भगवती के शरणागत हो जाएं। देवी कई जन्मों के पापों का संहार कर भक्त को तार देती है। वही जननी सृष्टि की आदि, अंत और मध्य है। देवी से प्रार्थना करें: शरणागत-दीनार्त-परित्राण-परायणे! सर्वस्यार्तिंहरे देवि! नारायणि! नमोऽस्तुते॥ सर्वकल्याण एवं शुभार्थ प्रभावशाली माना गया हैः सर्व मंगलं मांगल्ये शिवे सर्वाथ साधिके। शरण्येत्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुऽते॥ बाधा मुक्ति एवं धन-पुत्रादि प्राप्ति के लिएः सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो धन-धान्य सुतान्वितः। मनुष्यों मत्प्रसादेन भवष्यति न संशय॥ सर्वबाधा शांति के लिएः सर्वाबाधा प्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि। एवमेव त्वया कार्यमस्मद्दैरिविनाशनम्।।  आरोग्य एवं सौभाग्य प्राप्ति के लिए इस चमत्कारिक फल देने वाले मंत्र को स्वयं देवी दुर्गा ने देवताओं को दिया हैः देहि सौभाग्यं आरोग्यं देहि में परमं सुखम्‌। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषोजहि॥ अर्थातः शरण में आए हुए दीनों एवं पीडि़तों की रक्षा में

SHIVTANDAV STOTRA WITH HINDI MEANINGS

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जटाटवी-गलज्जल-प्रवाह-पावित-स्थले गलेऽव-लम्ब्य-लम्बितां-भुजङ्ग-तुङ्ग-मालिकाम्  डमड्डमड्डमड्डम-न्निनादव-ड्डमर्वयं चकार-चण्ड्ताण्डवं-तनोतु-नः शिवः शिवम् .. १.. जिन शिव जी की सघन जटारूप वन से प्रवाहित हो गंगा जी की धारायं उनके कंठ को प्रक्षालित क होती हैं, जिनके गले में बडे एवं लम्बे सर्पों की मालाएं लटक रहीं हैं, तथा जो शिव जी डम-डम डमरू बजा कर प्रचण्ड ताण्डव करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्यान करें जटा-कटा-हसं-भ्रमभ्रमन्नि-लिम्प-निर्झरी- -विलोलवी-चिवल्लरी-विराजमान-मूर्धनि . धगद्धगद्धग-ज्ज्वल-ल्ललाट-पट्ट-पावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम .. २.. जिन शिव जी के जटाओं में अतिवेग से विलास पुर्वक भ्रमण कर रही देवी गंगा की लहरे उनके शिश पर लहरा रहीं हैं, जिनके मस्तक पर अग्नि की प्रचण्ड ज्वालायें धधक-धधक करके प्रज्वलित हो रहीं हैं, उन बाल चंद्रमा से विभूषित शिवजी में मेरा अंनुराग प्रतिक्षण बढता रहे। धरा-धरेन्द्र-नंदिनीविलास-बन्धु-बन्धुर स्फुर-द्दिगन्त-सन्ततिप्रमोद-मान-मानसे . कृपा-कटाक्ष-धोरणी-निरुद्ध-दुर्धरापदि क्वचि-द्दिगम्बरे-मनो विनोदमे

GOPIGEET

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॥ गोपीगीतम् ॥ गोप्य ऊचुः । जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि । दयित दृश्यतां दिक्षु तावका- स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १॥ शरदुदाशये साधुजातस- त्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा । सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥ २॥ विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा- द्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् । वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया- दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३॥ न खलु गोपिकानन्दनो भवा- नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् । विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥ ४॥ विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् । करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५॥ व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित । भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय ॥ ६॥ प्रणतदेहिनां पापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् । फणिफणार्पितं ते पदांबुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥ ७॥ मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण । विधिकरीरिमा वीर मुह्यती- रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥ ८॥ तव कथामृतं तप्तजीवन

HANUKAVACHAM

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HANUMANKAVACHAM श्री   गणेशाय   नम : | ओम अस्य श्रीपंचमुख  हनुम्त्कवचमंत्रस्य ब्रह्मा  रूषि:| गायत्री   छंद्:  | पंचमुख विराट हनुमान देवता|  र्हीं बीजम्| श्रीं शक्ति:| क्रौ कीलकम्| क्रूं  कवचम्| क्रै अस्त्राय फ़ट्| इति  दिग्बंध्:| श्री गरूड उवाच्|| अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि| श्रुणु सर्वांगसुंदर| यत्कृतं  देवदेवेन ध्यानं हनुमत्:  प्रियम्||१|| पंचकक्त्रं महाभीमं  त्रिपंचनयनैर्युतम्|  बाहुभिर्दशभिर्युक्तं  सर्वकामार्थसिध्दिदम्||२|| पूर्वतु वानरं वक्त्रं  कोटिसूर्यसमप्रभम्|  दंष्ट्राकरालवदनं  भ्रुकुटीकुटिलेक्षणम्||३|| अस्यैव दक्षिणं वक्त्रं  नारसिंहं महाद्भुतम्|  अत्युग्रतेजोवपुष्पंभीषणम  भयनाशनम्||४|| पश्चिमं गारुडं वक्त्रं  वक्रतुण्डं महाबलम्|  सर्वनागप्रशमनं  विषभूतादिकृन्तनम्||५|| उत्तरं सौकरं वक्त्रं कृष्णं  दिप्तं नभोपमम्|  पातालसिंहवेतालज्वररोगादिकृन्त नम्| ऊर्ध्वं हयाननं घोरं  दानवान्तकरं परम्| येन वक्त्रेण  विप्रेन्द्र तारकाख्यमं  महासुरम्||७|| जघानशरणं तस्यात्सर्वशत्रुहरं  परम्| ध्यात्वा पंचमुखं रुद्रं  हनुमन्तं दयानिधिम्||८|| खड्गं त्रिशुलं खट्वांगं  पाशमंकुशपर्वतम्