गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

तुलसी दास का 'प्रणामकौशल'

राधे राधे      
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि। मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।1।। भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ। याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्।।2।। वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्। यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।।3।। सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ। वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ।।4।। उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्। सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।5।। यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः। यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।।6।। नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि। स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा- भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति।।7।।सो0-जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन। करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन।।1।। मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन। जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन।।2।। नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन। करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन।।3।। कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन। जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन।।4।। बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि। महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।।5।। बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।। अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।। सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती।। जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी।। श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँ होती।। दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू।। उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के।। सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक।। दो0-जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान। कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान।।1।। –*–*– एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा।। मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी।। भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ।। बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोन न बसन बिना बर नारी।। सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी।। सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही।। जदपि कबित रस एकउ नाही। राम प्रताप प्रकट एहि माहीं।। सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बडप्पनु पावा।। धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई।। भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी।। छं0-मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।। गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की।। प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी।। भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी।। दो0-प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग। दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग।।10(क)।। स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान। गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान।।10(ख)।। –*–*– गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन।। तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन।। बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना।। सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी।। साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू।। जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा।। मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू।। राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा।। बिधि निषेधमय कलि मल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी।। हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी।। बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा।। सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा।। अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ।। दो0-सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग। लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।।2।। –*–*– मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला।। सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई।। बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी।। जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना।। मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई।। सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।। बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।। सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला।। सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई।। बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं।। बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी।। सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें।। दो0-बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ। अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ।।3(क)।। संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु। बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु।।3(ख)ll

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