संदेश

मई, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

उज्जैन ज्योतिर्लिंग ( महाकालेश्वर)

उज्जैन नगरी में स्तिथ महाकाल ज्योतिर्लिंग, शिव जी का तीसरा ज्योतिर्लिंग कहलाता है।  यह एक मात्र ज्योतिर्लिंग है जो दक्षिणमुखी है। इस ज्योतिर्लिंग से सम्बंधित दो कहानियां पुराणों में वर्णित है जो इस प्रकार है। शिव पुराण की ‘कोटि-रुद्र संहिता’ के सोलहवें अध्याय में तृतीय ज्योतिर्लिंग भगवान महाकाल के संबंध में सूतजी द्वारा जिस कथा को वर्णित किया गया है, उसके अनुसार अवंती नगरी में एक वेद कर्मरत ब्राह्मण रहा करते थे। वे अपने घर में अग्नि की स्थापना कर प्रतिदिन अग्निहोत्र करते थे और वैदिक कर्मों के अनुष्ठान में लगे रहते थे। भगवान शंकर के परम भक्त वह ब्राह्मण प्रतिदिन पार्थिव लिंग का निर्माण कर शास्त्र विधि से उसकी पूजा करते थे। हमेशा उत्तम ज्ञान को प्राप्त करने में तत्पर उस ब्राह्मण देवता का नाम ‘वेदप्रिय’ था। वेदप्रिय स्वयं ही शिव जी के अनन्य भक्त थे, जिसके संस्कार के फलस्वरूप उनके शिव पूजा-परायण ही चार पुत्र हुए। वे तेजस्वी तथा माता-पिता के सद्गुणों के अनुरूप थे। उन चारों पुत्रों के नाम ‘देवप्रिय’, ‘प्रियमेधा’, ‘संस्कृत’ और ‘सुवृत’ थे। उन दिनों रत्नमाल पर्वत पर ‘दूषण’ नाम वाले धर्म

द्रौपदी के जन्म की कथा

अग्नि कुण्ड से हुआ था द्रोपदी का जन्म, शिवजी के वरदान से मिले थे पांच पति!!!!!!! महाभारत ग्रंथ के अनुसार एक बार राजा द्रुपद ने कौरवो और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य का अपमान कर दिया था। गुरु द्रोणाचार्य इस अपमान को भूल नहीं पाए। इसलिए जब पण्डवों और कौरवों ने शिक्षा समाप्ति के पश्चात गुरु द्रोणाचार्य से गुरु दक्षिणा माँगने को कहा तो उन्होंने उनसे गुरु दक्षिणा में राजा द्रुपद को बंदी बनाकर अपने समक्ष प्रस्तुत करने को कहाँ। पहले कौरव राजा द्रुपद को बंदी बनाने गए पर वो द्रुपद से हार गए। कौरवों के पराजित होने के बाद पांडव गए और उन्होंने द्रुपद को बंदी बनाकर द्रोणाचार्य के समक्ष प्रस्तुत किया। द्रोणाचार्य ने अपने अपमान का बदला लेते हुए द्रुपद का आधा राज्य स्वयं के पास रख लिया और शेष राज्य द्रुपद को देकर उसे रिहा कर दिया। गुरु द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे। इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुये कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट याज तथा उपयाज नामक महान कर्मकाण्डी ब्राह

नृसिंह भगवान

चित्र
भगवान विष्णु के चतुर्थ अवतार श्री नरसिंह भगवान के प्रकटोत्सव की शुभमंगलकामनाएं :- ------------------------------------------------------------------------------------------------ हिन्दू पंचांग के अनुसार नृसिंह प्रकटोत्सव वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है... अग्नि पुराण में वर्णित कथाओं के अनुसार इसी पावन दिवस को भक्त प्रहलाद की रक्षा करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप में अवतार लिया था..... जिस कारणवश यह दिन भगवान नृसिंह के प्रकटोत्सव के रूप में बड़े ही धूमधाम और हर्सोल्लास के साथ मनाया जाता है...  हिरण्याक्ष की मृत्यु का बदला लेने के लिए राक्षसराज हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या करके अजेय होने का वरदान प्राप्त कर लिया था... वरदान प्राप्त करते ही अहंकारवश वह प्रजा पर अत्याचार करने लगा और उन्हें तरह-तरह के यातनाएं और कष्ट देने लगा.... जिससे प्रजा अत्यंत दुखी रहती थी...  इन्हीं दिनों हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रह्लाद रखा गया... राक्षस कुल में जन्म लेने के बाद भी बचपन से ही श्रीहरि विष्णु भक्ति से प्रह्लाद को गहरा लगाव था

सती अनुसुया जी

चित्र
मित्रों, आज हम माता अनुसूयाजी के बारे में जानने की कोशिश करेंगे, अत्रि ऋषि की पत्नी और सती अनुसूयाजी की पौराणिक कथा से अधिकांश पाठक परिचित हैं, सती अनुसूइयाजी  की पति भक्ति से त्रिदेव (ब्रह्माजी, विष्णुजी और शिवजी) को भी नन्हे बालक बनना पड़ा, सज्जनों! आज उन्हीं माता अनुसूयाजी ने त्रिदेव को नन्हे शिशु बनने की पवित्र कथा को संक्षेप में समझने की कोशिश करेंगे। एक बार नारदजी आकाश मार्ग से विचरण कर रहे थे तभी तीनों देवियां माँ लक्ष्मीजी, माँ सविताजी और माँ पार्वतीजी को परस्पर विचार विमर्श करते देखा, तीनों देवियाँ अपने सतीत्व और पवित्रता की चर्चा कर रही थी, नारदजी उनके पास पहुँचे और उन्हें अत्रि महामुनि की पत्नी अनुसूयाजी के असाधारण पातिव्रत्य के बारे में बताया। नारदजी तीनों देवियों से बोले कि अनुसूयाजी के समान पवित्र और पतिव्रता नारी तीनों लोकों में नहीं है, तीनों देवियों को मन में अनुसूयाजी के प्रति ईर्ष्या होने लगी, तीनों देवियों ने सती अनसूयाजी के पातिव्रत्य को खंडित के लियें अपने पतियों से कहा, तीनों देवों ने उन्हें बहुत समझाया पर पर वे राजी नहीं हुयीं।  तीनों देवियों के विशेष आ

कामदेव

चित्र
कामदेव के तेरह तथ्य जानकर चौंक जाएंगे आप!!!!! हिन्दू धर्म में कामदेव, कामसूत्र, कामशास्त्र और चार पुरुषर्थों में से एक काम की बहुत चर्चा होती है। खजुराहो में कामसूत्र से संबंधित कई मूर्तियां हैं। अब सवाल यह उठता है कि क्या काम का अर्थ सेक्स ही होता है? नहीं, काम का अर्थ होता है कार्य, कामना और कामेच्छा से। वह सारे कार्य जिससे जीवन आनंददायक, सुखी, शुभ और सुंदर बनता है काम के अंतर्गत ही आते हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। आपने कामदेव के बारे में सुना या पढ़ा होगा। पौराणिक काल की कई कहानियों में कामदेव का उल्लेख मिलता है। जितनी भी कहानियों में कामदेव के बारे में जहां कहीं भी उल्लेख हुआ है, उन्हें पढ़कर एक बात जो समझ में आती है वह यह कि कि कामदेव का संबंध प्रेम और कामेच्छा से है। लेकिन असल में कामदेव हैं कौन? क्या वह एक काल्पनिक भाव है जो देव और ऋषियों को सताता रहता था या कि वह भी किसी देवता की तरह एक देवता थे?आजो जानते हैं कामदेव के बारे में 13 रहस्य... कामदेव का परिवार :पौराणिक कथाओं के अनुसार कामदेव भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी के पुत्र हैं। उनका विवाह रति नाम की देवी से हुआ थ

जप करने की माला में 108 ही दाने क्यों

जप करने की माला में 108 ही दाने क्यों? क्या है इस संख्या का रहस्य!!!!!!! प्राचीनकाल से ही जप करना भारतीय पूजा-उपासना पद्धति का एक अभिन्न अंग रहा है। जप के लिए माला की जरूरत होती है, जो रुद्राक्ष, तुलसी, वैजयंती, स्फटिक, मोतियों या नगों से बनी हो सकती है। इनमें से रुद्राक्ष की माला को जप के लिए सर्वश्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि इसमें कीटाणुनाशक शक्ति के अलावा विद्युतीय और चुंबकीय शक्ति भी पाई जाती है। अंगिरा स्मृति में माला का महत्त्व इस प्रकार बताया गया है- विना दमैश्चयकृत्यं सच्चदानं विनोदकम्। असंख्यता तु यजप्तं तत्सर्व निष्फल भवेत्।। अर्थात बिना कुश के अनुष्ठान, बिना माला के संख्याहीन जप निष्फल होता है। माला में 108 ही दाने क्यों होते हैं, उस विषय में योगचूड़ामणि उपनिषद में कहा गया है- पद्शतानि दिवारात्रि सहस्त्राण्येकं विंशति। एतत् संख्यान्तिंत मंत्र जीवो जपति सर्वदा।। हमारी सांसों की संख्या के आधार पर 108 दानों की माला स्वीकृत की गई है। 24 घंटों में एक व्यक्ति 21,600 बार सांस लेता है। चूंकि 12 घंटे दिनचर्या में निकल जाते हैं, तो शेष 12 घंटे देव-आराधना के लिए बचते हैं अर

देवी विंध्यवासिनी और कृष्ण के बीच क्या था संबंध

देवी विंध्यवासिनी और कृष्ण के बीच क्या था संबंध???? भगवान शंकर प्रथम तो भगवान श्रीकृष्ण अंतिम हैं। संपूर्ण हिन्दू धर्म इन दोनों के ही इर्द-गिर्द घुमता है। भगवान श्रीकृष्ण को पूर्णावतार माना जाता है। अर्थात जो हर तरह से पूर्ण हैं और जो पूर्णत: विष्णु ही है। भगवान श्रीकृष्ण के संबंध में सैंकड़ों रहस्य है लेकिन बहुत कम लोग ही उन सभी रहस्यों को जानते होंगे। एक रहस्य यह भी है कि माता विंध्यवासिनी भगवान श्रीकृष्ण की क्या लगती थीं? भगवान् श्रीकृष्ण की परदादी मारिषा एवं सौतेली मां रोहिणी (बलराम की मां) दोनों ही नाग जनजाति की थीं। भगवान श्री कृष्ण की माता का नाम देवकी था। भगवान श्री कृष्ण से जेल में बदली गई यशोदापुत्री का नाम एकानंशा था, जो आज विंध्यवासिनी देवी के नाम से पूजी जातीं हैं। श्रीमद्भागवत में नंदजा देवी कहा गया है इसीलिए उनका अन्य नाम कृष्णानुजा है। इसका अर्थ यह की वे भगवान श्रीकृष्ण की बहन थीं। इस बहन ने श्रीकृष्ण की जीवनभर रक्षा की थी। श्रीमद्भागवत पुराण की कथा अनुसार देवकी के आठवें गर्भ से जन्में श्रीकृष्ण को वसुदेवजी ने कंस से बचाने के लिए रातोंरात यमुना नदी को पार गोकु

कैसे करे पितृ दोष को दूर और पितृ शांति

कैसे करे पितृ दोष को दूर  और पितृ शांति : पितृ दोष को दूर करने का सबसे सीधा तरीका तो यही है की आप अपने पितरो को अच्छे से मनाये , उनकी नाराजगी को दूर करे और उन्हें उनका सम्मान दे | श्राद्ध पक्ष में पूजा विधि सेपितरो का तर्पण किया जाना चाहिए |  इसके लिए यह जरुर करे पितृ शांति के उपाय | पितर आदर सम्मान चाहते है | किसी भी शुभ कार्य , मांगलिक कार्य , पूजा पाठ में हमें उनको जरुर याद करना चाहिए । उन्हें पूर्ण सम्मान और श्रद्दा भाव से पूजना चाहिए | जब भी आप पूजा करे तब पूजा के बाद ईश्वर से अपने ज्ञात और अज्ञात पितरो के हित के लिए भगवान से कामना करे | अपने पितरो से भूलवश कोई भी अपराध हुआ हो तो उसकी क्षमा मांगे | अमावस्या के दिन हलवा और खीर का भोग अपने ज्ञात पितरो को लगाये | अमावस्या के दिन स्टील के लोटे में कच्चा दूध , दो लौंग , दो बतासे , घी, काले तील लेकर संध्या के समय पीपल के पेड़ पर चढ़ा दे फिर एक जनेऊ चढ़ाये | इससे पितृ देव खुश होते है | 5.प्रत्येक अमावस्या को गाय को पांच फल भी खिलाने चाहिए अमावस्या के दिन किसी बबूल के पेड़ के निचे संध्या को पितरो को समर्पित करते हुए भोजन रखे |

घर में कुत्ते पालें या नहीं शास्त्रीय मत

प्रश्न‒घरमें कुत्ता पालना चाहिये या नहीं ? उत्तर‒घरमें कुत्ता नहीं रखना चाहिये । कुत्तेका पालन करनेवाला नरकोंमें जाता है । महाभारतमें आया है कि जब पाँचों पाण्डव और द्रौपदी वीरसंन्यास लेकर उत्तरकी ओर चले तो चलते-चलते भीमसेन आदि सभी गिर गये । अन्तमें जब युधिष्ठिर भी लड़खड़ा गये, तब इन्द्रकी आज्ञासे मातलि रथ लेकर वहाँ आया और युधिष्ठिरसे कहा कि आप इसी शरीरसे स्वर्ग पधारी । युधिष्ठिरने देखा कि एक कुत्ता उनके पास खड़ा है । उन्होंने कहा कि यह कुत्ता मेरी शरणमें आया है; अतः यह भी मेरे साथ स्वर्गमें चलेगा । इन्द्रने युधिष्ठिरसे कहा‒ स्वर्गे लोके श्ववतां नास्ति धिष्ण्यमिष्टापूर्तं क्रोधवशा हरन्ति । ततो विचार्य क्रियतां धर्मराज त्यज श्वानं नात्र नृशंसमस्ति ॥                                                                      (महाभारत, महाप्र॰ ३ । १०) ‘धर्मराज ! कुत्ता रखनेवालोंके लिये स्वर्गलोकमें स्थान नहीं है । उनके यज्ञ करने और कुआँ, बावड़ी आदि बनवानेका जो पुण्य होता है, उसे क्रोधवश नामक राक्षस हर लेते हैं । इसलिये सोच-विचारकर काम करो और इस कुत्तेको छोड़ दो । ऐसा करनेमें कोई निर्दयता नही

कुलदेवता और कुलदेवी की पूजा क्यों आवश्यक

चित्र
कुलदेवता,कुलदेवी की पूजा करना क्यों जरूरी है ??????? भारत में हिन्दू पारिवारिक आराध्य व्यवस्था में कुलदेवता / कुलदेवी का स्थान सदैव से रहा है। प्रत्येक हिन्दू परिवार किसी न किसी ऋषि के वंशज हैं। जिनसे उनके गोत्र का पता चलता है, बाद में कर्मानुसार इनका विभाजन वर्णों में हो गया। विभिन्न कर्म करने के लिए, जो बाद में उनकी विशिष्टता बन गया और जाति कहा जाने लगा। हर जाति वर्ग, किसी न किसी ऋषि की संतान है और उन मूल ऋषि से उत्पन्न संतान के लिए वे ऋषि या ऋषि पत्नी कुलदेव / कुलदेवी के रूप में पूज्य भी हैं। जीवन में कुलदेवता का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। आर्थिक सुबत्ता, कौटुंबिक सौख्य और शांती तथा आरोग्य के विषय में कुलदेवी की कृपा का निकटतम संबंध पाया गया है। पूर्व के हमारे कुलों अर्थात पूर्वजों के खानदान के वरिष्ठों ने अपने लिए उपयुक्त कुल देवता अथवा कुलदेवी का चुनाव कर उन्हें पूजित करना शुरू किया था, ताकि एक आध्यात्मिक और पारलौकिक शक्ति कुलों की रक्षा करती रहे जिससे उनकी नकारात्मक शक्तियों - ऊर्जाओं और वायव्य बाधाओं से रक्षा होती रहे तथा वे निर्विघ्न अपने कर्म पथ पर अग्रसर रह उन्नति करते रह