सोमवार, 30 मार्च 2020

श्रीभगवती स्तोत्रम

श्रीभगवतीस्तोत्रम
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शक्ति रूपेण देवी भगवती दुर्गा की स्तुति में कहा गया स्तोत्र है। इसके अनेक उवाच हैं, जो कि निम्नलिखित हैं। यह एक धार्मिक पाठ है जिसकी रचना
व्यास मुनि ने की थी। ऐसा माना जाता है कि जो पवित्र भाव से नियमपूर्वक इस व्यासकृत स्तोत्र का पाठ करता है अथवा शुद्ध भाव से घर पर ही पाठ करता है, उसके ऊपर भगवती सदा ही प्रसन्न रहती हैं।

स्त्रोत्र
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जय भगवति देवि नमो वरदे, जय पापविनाशिनि बहुफलदे।
जय शुम्भनिशुम्भकपालधरे, प्रणमामि तु देवि नरार्तिहरे॥१॥

जय चन्द्रदिवाकरनेत्रधरे, जय पावकभूषितवक्त्रवरे।
जय भैरवदेहनिलीनपरे, जय अन्धकदैत्यविशोषकरे॥२॥

जय महिषविमर्दिनि शूलकरे, जय लोकसमस्तकपापहरे।
जय देवि पितामहविष्णुनते, जय भास्करशक्रशिरोऽवनते॥३॥

जय षण्मुखसायुधईशनुते, जय सागरगामिनि शम्भुनुते।
जय दुःखदरिद्रविनाशकरे, जय पुत्रकलत्रविवृद्धिकरे॥४॥

जय देवि समस्तशरीरधरे, जय नाकविदर्शिनि दुःखहरे।
जय व्याधिविनाशिनि मोक्ष करे, जय वाच्छितदायिनि सिद्धिवरे॥५॥

एतद्व्यासकृतं स्तोत्रं य: पठेन्नियतः शुचिः।
गृहे वा शुद्धभावेन प्रीता भगवती सदा॥६

भावार्थ
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हे वरदायिनी देवि! हे भगवति! तुम्हारी जय हो। हे पापों को नष्ट करने वाली और अनन्त फल देने वाली देवि। तुम्हारी जय हो! हे शुम्भनिशुम्भ के मुण्डों को धारण करने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। हे मुष्यों की पीडा हरने वाली देवि! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ ॥1॥

हे सूर्य-चन्द्रमारूपी नेत्रों को धारण करने वाली! तुम्हारी जय हो। हे अग्नि के समान देदीप्यामान मुख से शोभित होने वाली! तुम्हारी जय हो। हे भैरव-शरीर में लीन रहने वाली और अन्धकासुरका शोषण करने वाली देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥2॥

हे महिषसुर का मर्दन करने वाली, शूलधारिणी और लोक के समस्त पापों को दूर करने वाली भगवति! तुम्हारी जय हो। ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और इन्द्र से नमस्कृत होने वाली हे देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥3॥

सशस्त्र शङ्कर और कार्तिकेयजी के द्वारा वन्दित होने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। शिव के द्वारा प्रशंसित एवं सागर में मिलने वाली गङ्गारूपिणि देवि! तुम्हारी जय हो। दु:ख और दरिद्रता का नाश तथा पुत्र-कलत्र की वृद्धि करने वाली हे देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥4॥

हे देवि! तुम्हारी जय हो। तुम समस्त शरीरों को धारण करने वाली, स्वर्गलोक का दर्शन करानेवाली और दु:खहारिणी हो। हे व्यधिनाशिनी देवि! तुम्हारी जय हो। मोक्ष तुम्हारे करतलगत है, हे मनोवाच्छित फल देने वाली अष्ट सिद्धियों से सम्पन्न परा देवि! तुम्हारी जय हो॥5॥

रविवार, 29 मार्च 2020

महामृत्युंजय मंत्र की उत्पत्ति कैसे हुई?

महामृत्युंजय मंत्र की रचना कैसे हुई?
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शिवजी के अनन्य भक्त मृकण्ड ऋषि संतानहीन होने के कारण दुखी थे. विधाता ने उन्हें संतान योग नहीं दिया था.

मृकण्ड ने सोचा कि महादेव संसार के सारे विधान बदल सकते हैं. इसलिए क्यों न भोलेनाथ को प्रसन्नकर यह विधान बदलवाया जाए.

मृकण्ड ने घोर तप किया. भोलेनाथ मृकण्ड के तप का कारण जानते थे इसलिए उन्होंने शीघ्र दर्शन न दिया लेकिन भक्त की भक्ति के आगे भोले झुक ही जाते हैं.

महादेव प्रसन्न हुए. उन्होंने ऋषि को कहा कि मैं विधान को बदलकर तुम्हें पुत्र का वरदान दे रहा हूं लेकिन इस वरदान के साथ हर्ष के साथ विषाद भी होगा.

भोलेनाथ के वरदान से मृकण्ड को पुत्र हुआ जिसका नाम मार्कण्डेय पड़ा. ज्योतिषियों ने मृकण्ड को बताया कि यह विलक्ष्ण बालक अल्पायु है. इसकी उम्र केवल 12 वर्ष है.

ऋषि का हर्ष विषाद में बदल गया. मृकण्ड ने अपनी पत्नी को आश्वत किया- जिस ईश्वर की कृपा से संतान हुई है वही भोले इसकी रक्षा करेंगे. भाग्य को बदल देना उनके लिए सरल कार्य है.

मार्कण्डेय बड़े होने लगे तो पिता ने उन्हें शिवमंत्र की दीक्षा दी. मार्कण्डेय की माता बालक के उम्र बढ़ने से चिंतित रहती थी. उन्होंने मार्कण्डेय को अल्पायु होने की बात बता दी.

मार्कण्डेय ने निश्चय किया कि माता-पिता के सुख के लिए उसी सदाशिव भगवान से दीर्घायु होने का वरदान लेंगे जिन्होंने जीवन दिया है. बारह वर्ष पूरे होने को आए थे.

मार्कण्डेय ने शिवजी की आराधना के लिए महामृत्युंजय मंत्र की रचना की और शिव मंदिर में बैठकर इसका अखंड जाप करने लगे.

“ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥”

समय पूरा होने पर यमदूत उन्हें लेने आए. यमदूतों ने देखा कि बालक महाकाल की आराधना कर रहा है तो उन्होंने थोड़ी देर प्रतीक्षा की. मार्केण्डेय ने अखंड जप का संकल्प लिया था.

यमदूतों का मार्केण्डेय को छूने का साहस न हुआ और लौट गए. उन्होंने यमराज को बताया कि वे बालक तक पहुंचने का साहस नहीं कर पाए.

इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड के पुत्र को मैं स्वयं लेकर आऊंगा. यमराज मार्कण्डेय के पास पहुंच गए.

बालक मार्कण्डेय ने यमराज को देखा तो जोर-जोर से महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते हुए शिवलिंग से लिपट गया.

यमराज ने बालक को शिवलिंग से खींचकर ले जाने की चेष्टा की तभी जोरदार हुंकार से मंदिर कांपने लगा. एक प्रचण्ड प्रकाश से यमराज की आंखें चुंधिया गईं.

शिवलिंग से स्वयं महाकाल प्रकट हो गए. उन्होंने हाथों में त्रिशूल लेकर यमराज को सावधान किया और पूछा तुमने मेरी साधना में लीन भक्त को खींचने का साहस कैसे किया?

यमराज महाकाल के प्रचंड रूप से कांपने लगे. उन्होंने कहा- प्रभु मैं आप का सेवक हूं. आपने ही जीवों से प्राण हरने का निष्ठुर कार्य मुझे सौंपा है.

भगवान चंद्रशेखर का क्रोध कुछ शांत हुआ तो बोले- मैं अपने भक्त की स्तुति से प्रसन्न हूं और मैंने इसे दीर्घायु होने का वरदान दिया है. तुम इसे नहीं ले जा सकते.

यम ने कहा- प्रभु आपकी आज्ञा सर्वोपरि है. मैं आपके भक्त मार्कण्डेय द्वारा रचित महामृत्युंजय का पाठ करने वाले को त्रास नहीं दूंगा.

महाकाल की कृपा से मार्केण्डेय दीर्घायु हो गए. उनके द्वारा रचित महामृत्युंजय मंत्र काल को भी परास्त करता है. सोमवार को महामृत्युंजय का पाठ करने से शिवजी की कृपा होती है और कई असाध्य रोगों, मानसिक वेदना से राहत मिलती है।
   

शुक्रवार, 27 मार्च 2020

जानिए माता रानी के पवित्र शक्तिपीठों के बारे में

🌹  *माँ भगवती के 51 प्रमुख शक्तिपीठ*🌹

🌷1. *किरीट कात्यायनी*:-
पश्चिमी बंगाल में हुगली नदी के तट पर लालबाग कोट स्थित शक्तिपीठ, जहां सती का किरीट यानी *"मुकुट*" गिरा था।

🌷2. *कात्यायनी वृंदावन* : -
मथुरा के भूतेश्वर में स्थित है कात्यायनी वृंदावन शक्तिपीठ, जहां सती के *"केशपाश"* गिरे थे।

🌷3. *नैनादेवी* : -
पाकिस्तान के सक्खर स्टेशन के निकट शर्कररे और हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर स्थित नैनादेवी मन्दिर स्थलों पर सती के *नेत्र"*गिरे थे।

🌷4. *श्रीपर्वत शक्तिपीठ* : -
इस शक्तिपीठ को लेकर लोगों में मतांतर है। कुछ लोग मानते हैं कि इस पीठ का मूल स्थल लद्दाख है, जबकि कुछ कहते हैं कि यह असम के सिलहट में है जहां माता सती की *कनपटी गिरी* थी।

🌷5. *विशालाक्षी शक्तिपीठ* : -
वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर स्थित इस शक्तिपीठ पर माता सती के *दाहिने कान के मणि*  गिरे थे।

🌷6. *गोदावरी तट शक्तिपीठ*  : -
आन्ध्र प्रदेश के कब्बूर में गोदावरी तट पर स्थित इस शक्तिपीठ में माता का  *गाल"* गिरा था।

🌷7. *शुचीन्द्रम शक्तिपीठ* : -
कन्याकुमारी के त्रिसागर संगम स्थल पर है शुचि शक्तिपीठ, जहां सती के *"दांत"* गिरे थे।

🌷8. *पंच सागर शक्तिपीठ*: -
इस शक्तिपीठ का कोई तय स्थान ज्ञात नहीं है। यहां माता के *"नीचे के दांत गिरे"* थे।

🌷9. *ज्वालादेवी शक्तिपीठ*  :-
हिमाचल प्रदेश के कांगडा स्थित शक्तिपीठ, *"जिह्वा गिरी*" थी।

🌷10. *भैरव पर्वत शक्तिपीठ*: -
मध्य प्रदेश के उज्जैन के निकट क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित इस शक्तिपीठ में माता का " *ऊपर का होंठ गिरा* " था।

🌷11. *अट्टहास शक्तिपीठ*: -
यह शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के लाबपुर में स्थित है। यहां माता का *निचला होंठ"* गिरा था।

🌷12. *जनस्थान शक्तिपीठ*
महाराष्ट्र में नासिक स्थित पंचवटी के इस शक्तिपीठ में माता की *ठुड्डी"*गिरी थी।

🌷13. *कश्मीर शक्तिपीठ* :-
जम्मू कश्मीर के अमरनाथ स्थित इस शक्तिपीठ में माता का " *कंठ*" गिरा था।

🌷14. *नन्दीपुर शक्तिपीठ* :-
पश्चिम बंगाल के सैन्थया स्थित इस पीठ में देवी की देह का " *कंठहार गिरा*" था।

🌷15. *श्रीशैल शक्तिपीठ* : -
आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल के पास है श्रीशैल शक्तिपीठ, जहां माता का " *गाल गिरा"* था।

🌷16. *नलहरी शक्तिपीठ*  : -
पश्चिम बंगाल के बोलपुर में माता की " *उदरनली गिरी*" थी।

🌷17. *मिथिला शक्तिपीठ*  : -
भारत और नेपाल सीमा पर जनकपुर रेलवे स्टेशन के पास बने इस शक्तिपीठ में माता का "  *वाम स्कंध* " गिरा था।

🌷18. *रावली शक्तिपीठ* : -
चेन्नई में कहीं स्थित है रावली शक्तिपीठ, जहां माता का " *दक्षिण स्कंध* " गिरने का जिक्र आता है।

🌷19. *अम्बाजी शक्तिपीठ*
गुजरात जूनागढ के गिरनार पर्वत के प्रथत शिखर पर देवी अम्बिका का विशाल मन्दिर है, जहां माता का " *उदर* " गिरा था।

🌷20. *जालंधर शक्तिपीठ*: -
पंजाब के जालंधर में स्थित है माता का जालंधर शक्तिपीठ। यहां माता का " *बायां स्तन* " गिरा था।

🌷21. *रामागिरि शक्तिपीठ*: -
कुछ लोग इसे चित्रकूट तो कुछ मध्य प्रदेश के मैहर में मानते हैं, जहां माता का " *दाहिना स्तन गिरा"* था।

🌷22. *बैद्यनाथ हृदय  शक्तिपीठ*: -
झारखण्ड के देवघर स्थित शक्तिपीठ में माता का   *हृदय* गिरा था। मान्यता है कि यहीं पर सती का दाह-संस्कार भी हुआ था।

🌷23. *बक्रेश्वर*: -
बीरभूम, पश्चिम बंगाल के पापहर नदी से सात किलोमीटर दूर स्थित इस शक्तिपीठ में सती का " *भ्रूमध्य"* गिरा था।

🌷24. *कण्यकाश्रम*: -
तमिलनाडु के कन्याकुमारी के तीन सागरों- हिन्द महासागर, अरब सागर तथा बंगाल की खाडी के संगम पर स्थित है कण्यकाश्रम शक्तिपीठ, जहां माता की *"पीठ गिरी"* थी।

🌷25. *बहुला शक्तिपीठ*:-
पश्चिम बंगाल के कटवा जंक्शन के निकट केतुग्राम में स्थित है बहुला शक्तिपीठ, जहां माता की *"बायीं भुजा गिरी"* थी।

🌷26. *उज्जयिनी शक्तिपीठ*:-
उज्जैन की पावन क्षिप्रा के दोनों तटों पर स्थित है उज्जयिनी शक्तिपीठ, जहां माता की " *कुहनी* गिरी" थी।

🌷27. *मणिवेदिका शक्तिपीठ*:-
राजस्थान के पुष्कर में स्थित है यह शक्तिपीठ, इसे गायत्री मन्दिर के नाम से जाना जाता है। यहां माता की *"कलाईयां"* गिरी थीं।

🌷28. *ललितादेवी शक्तिपीठ*:-
प्रयाग (इलाहाबाद) स्थित ललितादेवी शक्तिपीठ में माता के *"हाथ की अंगुलियां"* गिरी थीं।

🌷29. *उत्कल पीठ*:-
उडीसा के पुरी में है, जहां माता की *"नाभि गिरी"* थी।

🌷30. *कांची शक्तिपीठ*:-
तमिलनाडु के कांचीवरम में माता का *"कंकाल"* गिरा था।

🌷31. *कमलाधव*: -
अमरकंटक, मध्य प्रदेश के सोन तट पर *"बायां नितम्ब गिरा"* था।

🌷32. *शोण शक्तिपीठ*: -
मध्य प्रदेश के अमरकंटक का नर्मदा मन्दिर ही शोण शक्तिपीठ है। यहां माता का *"दायाँ नितम्ब"* गिरा था।

🌷33. *कामरूप कामाख्या*:-
असम, गुवाहाटी के कामगिरि पर *"योनि गिरी"* थी।

🌷34. *जयंती शक्तिपीठ*: -
मेघालय के जयंतिया पर वाम *"जंघा गिरी"* थी।

🌷35. *मगध शक्तिपीठ*: -
पटना में स्थित पटनेश्वरी देवी को ही शक्तिपीठ माना जाता है। यहां माता का *"दाहिनी जंघा*" गिरी थी।

🌷36. *त्रिस्तोता शक्तिपीठ*:-
पश्चिम बंगाल के जलपाईगुडी के शालवाडी गांव में तीस्ता नदी पर माता का *"वाम पाद"* गिरा था।

🌷37. *त्रिपुरा सुन्दरी शक्तिपीठ*:-
त्रिपुरा के राधकिशोर गांव में स्थित है त्रिपुरा सुन्दरी शक्तिपीठ, जहां माता का *"दक्षिण पाद"* गिरा था।

🌷38. *विभाष शक्तिपीठ*: -
पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के ताम्रलुक गांव में स्थित है विभाष शक्तिपीठ, जहां माता का " *वाम टखना*" गिरा था।

🌷39. *देवीकूप पीठ कुरुक्षेत्र* -
हरियाणा के कुरुक्षेत्र जंक्शन के निकट द्वैपायन सरोवर के पास स्थित है यह शक्तिपीठ। इसे श्रीदेवीकूप
(भद्रकाली पीठ) भी कहा जाता है। यहां माता का " *दाहिना चरण"*गिरा था।

🌷40. *युगाद्या शक्तिपीठ* (क्षीरग्राम शक्तिपीठ): -
पश्चिम बंगाल के बर्दमान में क्षीरग्राम स्थित शक्तिपीठ, जहां सती के " *दाहिने चरण का अंगूठा"* गिरा था।

🌷41. *विराट का अम्बिका शक्तिपीठ*: -
जयपुर के वैराट ग्राम में स्थित है विराट शक्तिपीठ, जहां माता की *"बायें पैर की अंगुलियां"* गिरी थीं।

🌷42. *काली शक्तिपीठ*:-
कोलकाता के कालीघाट नाम से यह शक्तिपीठ, जहां माता के " *दायें पांव का अंगूठा छोडकर चार अन्य अंगुलियां* गिरी थीं।

*43. *मानस शक्तिपीठ*: -
तिब्बत के मानसरोवर तट पर स्थित है मानस शक्तिपीठ, जहां माता की *"दाहिनी हथेली*" गिरी थी।

🌷44. *लंका शक्तिपीठ*:-
लंका शक्तिपीठ, जहां माता की *"पायल"*गिरी थी।

🌷45. *गंडकी शक्तिपीठ*: -
नेपाल में गंडक नदी के किनारे *"कपोल"*गिरा था.

🌷46. *गुहेश्वरी शक्तिपीठ*:-
नेपाल के काठमांडू में पशुपतिनाथ मन्दिर के पास ही स्थित है गुहेश्वरी शक्तिपीठ, जहां माता सती के *"दोनों घुटने"* गिरे थे।

🌷47. *हिंगलाज शक्तिपीठ*: -
पाकिस्तान के बलूचिस्तान में माता का *"सिर"* गिरा था।

🌷48. *सुगंध शक्तिपीठ*:-
बांग्लादेश के खुलना में " *नासिका"* गिरी थी।

🌷49. *करतोयतत शक्तिपीठ*: -
बांग्लादेश भवानीपुर के बेगडा में करतोयतत के तट पर माता की *"बायीं पायल"* गिरी थी।

🌷50. *चट्टल शक्तिपीठ*:-
बांग्लादेश के चटगांव में स्थित है चट्टल का भवानी शक्तिपीठ, जहां माता की " *दाहिनी भुजा* " गिरी थी।

🌷51. *यशोरेवरी शक्तिपीठ*:-
बांग्लादेश के जैसोर खुलना में स्थित है माता का प्रसिद्ध यशोरेवरी शक्तिपीठ, जहां माता की " *बायीं हथेली*" गिरी थी।।

********* जय माता दी *********

बुधवार, 25 मार्च 2020

गरुड़ पुराण में वर्णित नरकों की कथा

गरुड़ पुराण में वर्णित 36 नर्क

जानिए किसमें कैसे दी जाती है सजा
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हिंदू धर्म ग्रंथों में लिखी अनेक कथाओं में स्वर्ग और नर्क के बारे में बताया गया है। पुराणों के अनुसार स्वर्ग वह स्थान होता है जहां देवता रहते हैं और अच्छे कर्म करने वाले इंसान की आत्मा को भी वहां स्थान मिलता है, इसके विपरीत बुरे काम करने वाले लोगों को नर्क भेजा जाता है, जहां उन्हें सजा के तौर पर गर्म तेल में तला जाता है और अंगारों पर सुलाया जाता है।

हिंदू धर्म के पौराणिक ग्रंथों में 36 तरह के मुख्य नर्कों का वर्णन किया गया है। अलग-अलग कर्मों के लिए इन नर्कों में सजा का प्रावधान भी माना गया है। गरूड़ पुराण, अग्रिपुराण, कठोपनिषद जैसे प्रामाणिक ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है।

1. महावीचि- यह नर्क पूरी तरह रक्त यानी खून से भरा है और इसमें लोहे के बड़े-बड़े कांटे हैं। जो लोग गाय की हत्या करते हैं, उन्हें इस नर्क में यातना भुगतनी पड़ती है।

2. कुंभीपाक- इस नर्क की जमीन गरम बालू और अंगारों से भरी है। जो लोग किसी की भूमि हड़पते हैं या ब्राह्मण की हत्या करते हैं। उन्हें इस नर्क में आना पड़ता है।

3. रौरव- यहां लोहे के जलते हुए तीर होते हैं। जो लोग झूठी गवाही देते हैं उन्हें इन तीरों से बींधा जाता है।

4. मंजूष- यह जलते हुए लोहे जैसी धरती वाला नर्क है। यहां उनको सजा मिलती है, जो दूसरों को निरपराध बंदी बनाते हैं या कैद में रखते हैं।

5. अप्रतिष्ठ- यह पीब, मूत्र और उल्टी से भरा नर्क है। यहां वे लोग यातना पाते हैं, जो ब्राह्मणों को पीड़ा देते हैं या सताते हैं।

6. विलेपक- यह लाख की आग से जलने वाला नर्क है। यहां उन ब्राह्मणों को जलाया जाता है, जो शराब पीते हैं।

7. महाप्रभ- इस नर्क में एक बहुत बड़ा लोहे का नुकीला तीर है। जो लोग पति-पत्नी में फूट डालते हैं, पति-पत्नी के रिश्ते तुड़वाते हैं वे यहां इस तीर में पिरोए जाते हैं।

8. जयंती- यहां जीवात्माओं को लोहे की बड़ी चट्टान के नीचे दबाकर सजा दी जाती है। जो लोग पराई औरतों के साथ संभोग करते हैं, वे यहां लाए जाते हैं।

9. शाल्मलि- यह जलते हुए कांटों से भरा नर्क है। जो औरत कई पुरुषों से संभोग करती है व जो व्यक्ति हमेशा झूठ व कड़वा बोलता है, दूसरों के धन और स्त्री पर नजर डालता है। पुत्रवधू, पुत्री, बहन आदि से शारीरिक संबंध बनाता है व वृद्ध की हत्या करता है, ऐसे लोगों को यहां लाया जाता है।

10. महारौरव- इस नर्क में चारों तरफ आग ही आग होती है। जैसे किसी भट्टी में होती है। जो लोग दूसरों के घर, खेत, खलिहान या गोदाम में आग लगाते हैं, उन्हें यहां जलाया जाता है।

11. तामिस्र- इस नर्क में लोहे की पट्टियों और मुग्दरों से पिटाई की जाती है। यहां चोरों को यातना मिलती है।

12. महातामिस्र- इस नर्क में जौंके भरी हुई हैं, जो इंसान का रक्त चूसती हैं। माता, पिता और मित्र की हत्या करने वाले को इस नर्क में जाना पड़ता है।

13. असिपत्रवन- यह नर्क एक जंगल की तरह है, जिसके पेड़ों पर पत्तों की जगह तीखी तलवारें और खड्ग हैं। मित्रों से दगा करने वाला इंसान इस नर्क में गिराया जाता है।

14. करम्भ बालुका- यह नर्क एक कुएं की तरह है, जिसमें गर्म बालू रेत और अंगारे भरे हुए हैं। जो लोग दूसरे जीवों को जलाते हैं, वे इस कुएं में गिराए जाते हैं।

15. काकोल- यह पीब और कीड़ों से भरा नर्क है। जो लोग छुप-छुप कर अकेले ही मिठाई खाते हैं, दूसरों को नहीं देते, वे इस नर्क में लाए जाते हैं।

16. कुड्मल- यह मूत्र, पीब और विष्ठा (उल्टी) से भरा है। जो लोग दैनिक जीवन में पंचयज्ञों ( ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ, मनुष्य यज्ञ) का अनुष्ठान नहीं करते वे इस नर्क में आते हैं।

17. महाभीम- यह नर्क बदबूदार मांस और रक्त से भरा है। जो लोग ऐसी चीजें खाते हैं, जिनका शास्त्रों ने निषेध बताया है, वो लोग इस नर्क में गिरते हैं।

18. महावट- इस नर्क में मुर्दे और कीड़े भरे हैं, जो लोग अपनी लड़कियों को बेचते हैं, वे यहां लाए जाते हैं।

19. तिलपाक- यहां दूसरों को सताने, पीड़ा देने वाले लोगों को तिल की तरह पेरा जाता है। जैसे तिल का तेल निकाला जाता है, ठीक उसी तरह।

20. तैलपाक- इस नर्क में खौलता हुआ तेल भरा है। जो लोग मित्रों या शरणागतों की हत्या करते हैं, वे यहां इस तेल में तले जाते हैं।

21. वज्रकपाट- यहां वज्रों की पूरी श्रंखला बनी है। जो लोग दूध बेचने का व्यवसाय करते है, वे यहां प्रताड़ना पाते हैं।

22. निरुच्छवास- इस नर्क में अंधेरा है, यहां वायु नहीं होती। जो लोग दिए जा रहे दान में विघ्न डालते हैं वे यहां फेंके जाते हैं।

23. अंगारोपच्य- यह नर्क अंगारों से भरा है। जो लोग दान देने का वादा करके भी दान देने से मुकर जाते हैं। वे यहां जलाए जाते हैं।

24. महापायी- यह नर्क हर तरह की गंदगी से भरा है। हमेशा असत्य बोलने वाले यहां औंधे मुंह गिराए जाते हैं।

25. महाज्वाल- इस नर्क में हर तरफ आग है। जो लोग हमेशा ही पाप में लगे रहते हैं वे इसमें जलाए जाते हैं।

26. गुड़पाक- यहां चारों ओर गरम गुड़ के कुंड हैं। जो लोग समाज में वर्ण संकरता फैलाते हैं, वे इस गुड़ में पकाए जाते हैं।

27. क्रकच- इस नर्क में तीखे आरे लगे हैं। जो लोग ऐसी महिलाओं से संभोग करते हैं, जिसके लिए शास्त्रों ने निषेध किया है, वे लोग इन्हीं आरों से चीरे जाते हैं।

28. क्षुरधार- यह नर्क तीखे उस्तरों से भरा है। ब्राह्मणों की भूमि हड़पने वाले यहां काटे जाते हैं।

29. अम्बरीष- यहां प्रलय अग्रि के समान आग जलती है। जो लोग सोने की चोरी करते हैं, वे इस आग में जलाए जाते हैं।

30. वज्रकुठार- यह नर्क वज्रों से भरा है। जो लोग पेड़ काटते हैं वे यहां लंबे समय तक वज्रों से पीटे जाते हैं।

31. परिताप- यह नर्क भी आग से जल रहा है। जो लोग दूसरों को जहर देते हैं या मधु (शहद) की चोरी करते हैं, वे यहां जलाए जाते हैं।

32. काल सूत्र- यह वज्र के समान सूत से बना है। जो लोग दूसरों की खेती नष्ट करते हैं। वे यहां सजा पाते हैं।

33. कश्मल- यह नर्क नाक और मुंह की गंदगी से भरा होता है। जो लोग मांसाहार में ज्यादा रुचि रखते हैं, वे यहां गिराए जाते हैं।

34. उग्रगंध- यह लार, मूत्र, विष्ठा और अन्य गंदगियों से भरा नर्क है। जो लोग पितरों को पिंडदान नहीं करते, वे यहां लाए जाते हैं।

35. दुर्धर- यह नर्क जौक और बिच्छुओं से भरा है। सूदखोर और ब्याज का धंधा करने वाले इस नर्क में भेजे जाते हैं।

36. वज्रमहापीड- यहां लोहे के भारी वज्र से मारा जाता है। जो लोग सोने की चोरी करते हैं, किसी प्राणी की हत्या कर उसे खाते हैं, दूसरों के आसन, शय्या और वस्त्र चुराते हैं, जो दूसरों के फल चुराते हैं, धर्म को नहीं मानते ऐसे सारे लोग यहां लाए जाते हैं।

सोमवार, 23 मार्च 2020

राम चरित मानस की सिद्ध चौपाइयां

अत्यंत उपयोगी है श्री रामचरित मानस के ये सिद्ध मंत्र।श्री रामचरित मानस के सिद्ध ‘मन्त्र’!

नियम- मानस के दोहे-चौपाईयों को सिद्ध करने का विधान यह है कि किसी भी शुभ दिन की रात्रि को दस बजे के बाद अष्टांग हवन के द्वारा मन्त्र सिद्ध करना चाहिये। फिर जिस कार्य के लिये मन्त्र-जप की आवश्यकता हो, उसके लिये नित्य जप करना चाहिये। वाराणसी में भगवान् शंकरजी ने मानस की चौपाइयों को मन्त्र-शक्ति प्रदान की है-इसलिये वाराणसी की ओर मुख करके शंकरजी को साक्षी बनाकर श्रद्धा से जप करना चाहिये।

अष्टांग हवन सामग्री :- १॰ चन्दन का बुरादा, २॰ तिल, ३॰ शुद्ध घी, ४॰ चीनी, ५॰ अगर, ६॰ तगर, ७॰ कपूर, ८॰ शुद्ध केसर, ९॰ नागरमोथा, १०॰ पञ्चमेवा, ११॰ जौ और १२॰ चावल।

जानने की बातें :- जिस उद्देश्य के लिये जो चौपाई, दोहा या सोरठा जप करना बताया गया है, उसको सिद्ध करने के लिये एक दिन हवन की सामग्री से उसके द्वारा (चौपाई, दोहा या सोरठा) १०८ बार हवन करना चाहिये। यह हवन केवल एक दिन करना है। मामूली शुद्ध मिट्टी की वेदी बनाकर उस पर अग्नि रखकर उसमें आहुति दे देनी चाहिये। प्रत्येक आहुति में चौपाई आदि के अन्त में ‘स्वाहा’ बोल देना चाहिये।

प्रत्येक आहुति लगभग पौन तोले की (सब चीजें मिलाकर) होनी चाहिये। इस हिसाब से १०८ आहुति के लिये एक सेर (८० तोला) सामग्री बना लेनी चाहिये। कोई चीज कम-ज्यादा हो तो कोई आपत्ति नहीं। पञ्चमेवा में पिश्ता, बादाम, किशमिश (द्राक्षा), अखरोट और काजू ले सकते हैं। इनमें से कोई चीज न मिले तो उसके बदले नौजा या मिश्री मिला सकते हैं। केसर शुद्ध ४ आने भर ही डालने से काम चल जायेगा।

हवन करते समय माला रखने की आवश्यकता १०८ की संख्या गिनने के लिये है। बैठने के लिये आसन ऊन का या कुश का होना चाहिये। सूती कपड़े का हो तो वह धोया हुआ पवित्र होना चाहिये।

मन्त्र सिद्ध करने के लिये यदि लंकाकाण्ड की चौपाई या दोहा हो तो उसे शनिवार को हवन करके करना चाहिये। दूसरे काण्डों के चौपाई-दोहे किसी भी दिन हवन करके सिद्ध किये जा सकते हैं।

सिद्ध की हुई रक्षा-रेखा की चौपाई एक बार बोलकर जहाँ बैठे हों, वहाँ अपने आसन के चारों ओर चौकोर रेखा जल या कोयले से खींच लेनी चाहिये। फिर उस चौपाई को भी ऊपर लिखे अनुसार १०८ आहुतियाँ देकर सिद्ध करना चाहिये। रक्षा-रेखा न भी खींची जाये तो भी आपत्ति नहीं है।

दूसरे काम के लिये दूसरा मन्त्र सिद्ध करना हो तो उसके लिये अलग हवन करके करना होगा।
एक दिन हवन करने से वह मन्त्र सिद्ध हो गया। इसके बाद जब तक कार्य सफल न हो, तब तक उस मन्त्र (चौपाई, दोहा) आदि का प्रतिदिन कम-से-कम १०८ बार प्रातःकाल या रात्रि को, जब सुविधा हो, जप करते रहना चाहिये।

कोई दो-तीन कार्यों के लिये दो-तीन चौपाइयों का अनुष्ठान एक साथ करना चाहें तो कर सकते हैं। पर उन चौपाइयों को पहले अलग-अलग हवन करके सिद्ध कर लेना चाहिये।

१॰ विपत्ति-नाश के लिये
“राजिव नयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक।।”

२॰ संकट-नाश के लिये
“जौं प्रभु दीन दयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा।।
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।

दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।”
३॰ कठिन क्लेश नाश के लिये
“हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू॥”

४॰ विघ्न शांति के लिये
“सकल विघ्न व्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥”

५॰ खेद नाश के लिये
“जब तें राम ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥”

६॰ चिन्ता की समाप्ति के लिये
“जय रघुवंश बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृशानू॥”

७॰ विविध रोगों तथा उपद्रवों की शान्ति के लिये
“दैहिक दैविक भौतिक तापा।राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥”

८॰ मस्तिष्क की पीड़ा दूर करने के लिये
“हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।”

९॰ विष नाश के लिये
“नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।”

१०॰ अकाल मृत्यु निवारण के लिये
“नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।”

११॰ सभी तरह की आपत्ति के विनाश के लिये / भूत भगाने के लिये
“प्रनवउँ पवन कुमार,खल बन पावक ग्यान घन।
जासु ह्रदयँ आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥”

१२॰ नजर झाड़ने के लिये
“स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।”

१३॰ खोयी हुई वस्तु पुनः प्राप्त करने के लिए
“गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।।”

१४॰ जीविका प्राप्ति केलिये
“बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।”

१५॰ दरिद्रता मिटाने के लिये
“अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद धन दारिद दवारि के।।”

१६॰ लक्ष्मी प्राप्ति के लिये
“जिमि सरिता सागर महुँ जाही। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।”

१७॰ पुत्र प्राप्ति के लिये
“प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।’

१८॰ सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये
“जे सकाम नर सुनहि जे गावहि।सुख संपत्ति नाना विधि पावहि।।”

१९॰ ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिये
“साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ।।”
२०॰ सर्व-सुख-प्राप्ति के लिये
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई।।

२१॰ मनोरथ-सिद्धि के लिये
“भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।”

२२॰ कुशल-क्षेम के लिये
“भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू।।”
२३॰ मुकदमा जीतने के लिये
“पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।”

२४॰ शत्रु के सामने जाने के लिये
“कर सारंग साजि कटि भाथा। अरिदल दलन चले रघुनाथा॥”

२५॰ शत्रु को मित्र बनाने के लिये
“गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।”

२६॰ शत्रुतानाश के लिये
“बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥”
२७॰ वार्तालाप में सफ़लता के लिये
“तेहि अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥”

२८॰ विवाह के लिये
“तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला, कुँअरि लई हँकारि कै॥”
२९॰ यात्रा सफ़ल होने के लिये
“प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥”

३०॰ परीक्षा / शिक्षा की सफ़लता के लिये
“जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥”

३१॰ आकर्षण के लिये
“जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥”

३२॰ स्नान से पुण्य-लाभ के लिये
“सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।।”

३३॰ निन्दा की निवृत्ति के लिये
“राम कृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।

३४॰ विद्या प्राप्ति के लिये
गुरु गृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल विद्या सब आई॥

३५॰ उत्सव होने के लिये
“सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।

३६॰ यज्ञोपवीत धारण करके उसे सुरक्षित रखने के लिये
“जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।”

३७॰ प्रेम बढाने के लिये
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥

३८॰ कातर की रक्षा के लिये
“मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहिं अवसर सहाय सोइ होऊ।।”

३९॰ भगवत्स्मरण करते हुए आराम से मरने के लिये
रामचरन दृढ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग ।
सुमन माल जिमि कंठ तें गिरत न जानइ नाग ॥

४०॰ विचार शुद्ध करने के लिये
“ताके जुग पद कमल मनाउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ।।”

४१॰ संशय-निवृत्ति के लिये
“राम कथा सुंदर करतारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी।।”

४२॰ ईश्वर से अपराध क्षमा कराने के लिये
” अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता।।”

४३॰ विरक्ति के लिये
“भरत चरित करि नेमु तुलसी जे सादर सुनहिं।
सीय राम पद प्रेमु अवसि होइ भव रस बिरति।।”

४४॰ ज्ञान-प्राप्ति के लिये
“छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।”

४५॰ भक्ति की प्राप्ति के लिये
“भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपासिंधु सुखधाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम।।”

४६॰ श्रीहनुमान् जी को प्रसन्न करने के लिये
“सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपनें बस करि राखे रामू।।”

४७॰ मोक्ष-प्राप्ति के लिये
“सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। काल सर्प जनु चले सपच्छा।।

४८॰ श्री सीताराम के दर्शन के लिये
“नील सरोरुह नील मनि नील नीलधर श्याम ।
लाजहि तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥

४९॰ श्रीजानकीजी के दर्शन के लिये
“जनकसुता जगजननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की।।”

५०॰ श्रीरामचन्द्रजी को वश में करने के लिये
“केहरि कटि पट पीतधर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुल भूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।”

५१॰ सहज स्वरुप दर्शन के लिये
“भगत बछल प्रभु कृपा निधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना।।”


रविवार, 22 मार्च 2020

पंचक के बारे में विशेष जानकारी

पंचक विशेष
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भारतीय ज्योतिष में पंचक को अशुभ माना गया है। इसके अंतर्गत धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तरा भाद्रपद, पूर्वा भाद्रपद व रेवती नक्षत्र आते हैं। पंचक के दौरान कुछ विशेष काम वर्जित किये गए है।

पंचक के प्रकार

1👉 रोग पंचक

रविवार को शुरू होने वाला पंचक रोग पंचक कहलाता है। इसके प्रभाव से ये पांच दिन शारीरिक और मानसिक परेशानियों वाले होते हैं। इस पंचक में किसी भी तरह के शुभ काम नहीं करने चाहिए। हर तरह के मांगलिक कार्यों में ये पंचक अशुभ माना गया है।

2👉 राज पंचक

सोमवार को शुरू होने वाला पंचक राज पंचक कहलाता है। ये पंचक शुभ माना जाता है। इसके प्रभाव से इन पांच दिनों में सरकारी कामों में सफलता मिलती है। राज पंचक में संपत्ति से जुड़े काम करना भी शुभ रहता है।*

3👉 अग्नि पंचक

मंगलवार को शुरू होने वाला पंचक अग्नि पंचक कहलाता है। इन पांच दिनों में कोर्ट कचहरी और विवाद आदि के फैसले, अपना हक प्राप्त करने वाले काम किए जा सकते हैं। इस पंचक में अग्नि का भय होता है। इस पंचक में किसी भी तरह का निर्माण कार्य, औजार और मशीनरी कामों की शुरुआत करना अशुभ माना गया है। इनसे नुकसान हो सकता है।*

4👉 मृत्यु पंचक

शनिवार को शुरू होने वाला पंचक मृत्यु पंचक कहलाता है। नाम से ही पता चलता है कि अशुभ दिन से शुरू होने वाला ये पंचक मृत्यु के बराबर परेशानी देने वाला होता है। इन पांच दिनों में किसी भी तरह के जोखिम भरे काम नहीं करना चाहिए। इसके प्रभाव से विवाद, चोट, दुर्घटना आदि होने का खतरा रहता है।

5👉  चोर पंचक

शुक्रवार को शुरू होने वाला पंचक चोर पंचक कहलाता है। विद्वानों के अनुसार, इस पंचक में यात्रा करने की मनाही है। इस पंचक में लेन-देन, व्यापार और किसी भी तरह के सौदे भी नहीं करने चाहिए। मना किए गए कार्य करने से धन हानि हो सकती है।

6👉  इसके अलावा बुधवार और गुरुवार को शुरू होने वाले पंचक में ऊपर दी गई बातों का पालन करना जरूरी नहीं माना गया है। इन दो दिनों में शुरू होने वाले दिनों में पंचक के पांच कामों के अलावा किसी भी तरह के शुभ काम किए जा सकते हैं।

पंचक में वर्जित कर्म
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1👉 पंचक में चारपाई बनवाना भी अच्छा नहीं माना जाता। विद्वानों के अनुसार ऐसा करने से कोई बड़ा संकट खड़ा हो सकता है।

2👉 पंचक के दौरान जिस समय घनिष्ठा नक्षत्र हो उस समय घास, लकड़ी आदि जलने वाली वस्तुएं इकट्ठी नहीं करना चाहिए, इससे आग लगने का भय हैं।

3👉 पंचक के दौरान दक्षिण दिशा में यात्रा नही करनी चाहिए, क्योंकि दक्षिण दिशा, यम की दिशा मानी गई है। इन नक्षत्रों में दक्षिण दिशा की यात्रा करना हानिकारक माना गया है।

4👉 पंचक के दौरान जब रेवती नक्षत्र चल रहा हो, उस समय घर की छत नहीं बनाना चाहिए, ऐसा विद्वानों का कहना है। इससे धन हानि और घर में क्लेश होता है।

5👉 पंचक में शव का अंतिम संस्कार करने से पहले किसी योग्य पंडित की सलाह अवश्य लेनी चाहिए। यदि ऐसा न हो पाए तो शव के साथ पांच पुतले आटे या कुश (एक प्रकार की घास) से बनाकर अर्थी पर रखना चाहिए और इन पांचों का भी शव की तरह पूर्ण विधि-विधान से अंतिम संस्कार करना चाहिए, तो पंचक दोष समाप्त हो जाता है। ऐसा गरुड़ पुराण में लिखा है।

पंचक में करने योग्य शुभ कार्य
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पंचक में आने वाले नक्षत्रों में शुभ कार्य हो भी किये जा सकते हैं। पंचक में आने वाला उत्तराभाद्रपद नक्षत्र वार के साथ मिलकर सर्वार्थसिद्धि योग बनाता है, वहीं धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद व रेवती नक्षत्र यात्रा, व्यापार, मुंडन आदि शुभ कार्यों में श्रेष्ठ माने गए हैं।

मेरे अनुसार, पंचक को भले ही अशुभ माना जाता है, लेकिन इस दौरान सगाई, विवाह आदि शुभ कार्य भी किए जाते हैं।

पंचक में आने वाले तीन नक्षत्र पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद व रेवती रविवार को होने से आनंद आदि 28 योगों में से 3 शुभ योग बनाते हैं, ये शुभ योग इस प्रकार हैं- चर, स्थिर व प्रवर्ध। इन शुभ योगों से सफलता व धन लाभ का विचार किया जाता है।

मुहूर्त चिंतामणि ग्रंथ के अनुसार पंचक के नक्षत्रों का शुभ फल
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1👉 घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र चल संज्ञक माने जाते हैं। इनमें चलित काम करना शुभ माना गया है जैसे- यात्रा करना, वाहन खरीदना, मशीनरी संबंधित काम शुरू करना शुभ माना गया है।

2👉 उत्तराभाद्रपद नक्षत्र स्थिर संज्ञक नक्षत्र माना गया है। इसमें स्थिरता वाले काम करने चाहिए जैसे- बीज बोना, गृह प्रवेश, शांति पूजन और जमीन से जुड़े स्थिर कार्य करने में सफलता मिलती है।

3👉  रेवती नक्षत्र मैत्री संज्ञक होने से इस नक्षत्र में कपड़े, व्यापार से संबंधित सौदे करना, किसी विवाद का निपटारा करना, गहने खरीदना आदि काम शुभ माने गए हैं।

पंचक के नक्षत्रों का संभावित अशुभ प्रभाव
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1👉 धनिष्ठा नक्षत्र में आग लगने का भय रहता है।

2👉 शतभिषा नक्षत्र में वाद-विवाद होने के योग बनते हैं।

3👉 पूर्वाभाद्रपद रोग कारक नक्षत्र है यानी इस नक्षत्र में बीमारी होने की संभावना सबसे अधिक होती है।

4👉 उत्तरा भाद्रपद में धन हानि के योग बनते हहै।

5👉 रेवती नक्षत्र में नुकसान व मानसिक तनाव होने की संभावना होती है।

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शुक्रवार, 20 मार्च 2020

घर में धन-धान्य की पूर्ति हेतु सरल उपाय

घर मे अन्न धन धान्य की निर्विघ्न प्राप्ति और भंडारे परिपूर्ण करने के लिए माँ अन्नपूर्णा स्तोत्र के नित्य पठन का बहुत फल बताया गया है  जो व्यक्ति अन्नपूर्णा स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करता है उसके जीवन मे अनवरत खाद्य पदार्थ और सुख समृद्धि की प्राप्ति बनी रहती है।

श्री माँ अन्नपूर्णा स्तोत्र

नित्यानन्दकरी वराभयकरी सौन्दर्य रत्नाकरी
निर्धूताखिल घोर पावनकरी प्रत्यक्ष माहेश्वरी ।
प्रालेयाचल वंश पावनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥ 1 ॥

नाना रत्न विचित्र भूषणकरि हेमाम्बराडम्बरी
मुक्ताहार विलम्बमान विलसत्-वक्षोज कुम्भान्तरी ।
काश्मीरागरु वासिता रुचिकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥ 2 ॥

योगानन्दकरी रिपुक्षयकरी धर्मैक्य निष्ठाकरी
चन्द्रार्कानल भासमान लहरी त्रैलोक्य रक्षाकरी ।
सर्वैश्वर्यकरी तपः फलकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥ 3 ॥

कैलासाचल कन्दरालयकरी गौरी-ह्युमाशाङ्करी
कौमारी निगमार्थ-गोचरकरी-ह्योङ्कार-बीजाक्षरी ।
मोक्षद्वार-कवाटपाटनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥ 4 ॥

दृश्यादृश्य-विभूति-वाहनकरी ब्रह्माण्ड-भाण्डोदरी
लीला-नाटक-सूत्र-खेलनकरी विज्ञान-दीपाङ्कुरी ।
श्रीविश्वेशमनः-प्रसादनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥ 5 ॥

उर्वीसर्वजयेश्वरी जयकरी माता कृपासागरी
वेणी-नीलसमान-कुन्तलधरी नित्यान्न-दानेश्वरी ।
साक्षान्मोक्षकरी सदा शुभकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥ 6 ॥

आदिक्षान्त-समस्तवर्णनकरी शम्भोस्त्रिभावाकरी
काश्मीरा त्रिपुरेश्वरी त्रिनयनि विश्वेश्वरी शर्वरी ।
स्वर्गद्वार-कपाट-पाटनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥ 7 ॥

देवी सर्वविचित्र-रत्नरुचिता दाक्षायिणी सुन्दरी
वामा-स्वादुपयोधरा प्रियकरी सौभाग्यमाहेश्वरी ।
भक्ताभीष्टकरी सदा शुभकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥ 8 ॥

चन्द्रार्कानल-कोटिकोटि-सदृशी चन्द्रांशु-बिम्बाधरी
चन्द्रार्काग्नि-समान-कुण्डल-धरी चन्द्रार्क-वर्णेश्वरी
माला-पुस्तक-पाशसाङ्कुशधरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥ 9 ॥

क्षत्रत्राणकरी महाभयकरी माता कृपासागरी
सर्वानन्दकरी सदा शिवकरी विश्वेश्वरी श्रीधरी ।
दक्षाक्रन्दकरी निरामयकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥ 10 ॥

अन्नपूर्णे सादापूर्णे शङ्कर-प्राणवल्लभे ।
ज्ञान-वैराग्य-सिद्धयर्थं बिक्बिं देहि च पार्वती ॥ 11 ॥

माता च पार्वतीदेवी पितादेवो महेश्वरः ।
बान्धवा: शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम् ॥ 12 ॥

गुरुवार, 19 मार्च 2020

यमराज के बारे में जानकारी

मृत्यु के देवता यमराज जी के चौंकाने वाले रहस्य!!!!!!!!!!

कहते हैं कि विधाता लिखता है, चित्रगुप्त बांचता है, यमदूत पकड़कर लाते हैं और यमराज दंड देते हैं। मृत्य का समय ही नहीं, स्थान भी निश्चित है जिसे कोई टाल नहीं सकता। हिन्दू धर्म में तीन देवताओं को दंड नायक माना गया है- यमराज, शनिदेव और भैरव। यमराज को दंड देने का अधिकार प्रदान है। वही आत्माओं को उनके कर्म अनुसार नरक, स्वर्ग, पितृलोक आदि लोकों में भेज देते हैं।
 उनमें से कुछ को पुन: धरती पर फेंक दिया जाता है।

मृत्यु के देवता और दक्षिण के दिक्पाल : - 'मार्कण्डेय पुराण' के अनुसार दक्षिण दिशा के दिक्पाल और मृत्यु के देवता को यम कहा जाता है। दस दिशाओं के दिकपाल ये हैं- इंद्र, अग्नि, यम, नऋति, वरुण, वायु, कुबेर, ईश्व, अनंत और ब्रह्मा।

यमराज का परिवार : -  विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा के गर्भ से उत्पन्न सूर्य के पुत्र को यम कहा गया है। इनकी पत्नी का नाम यमी है। शस्त्र दंड और वाहन भैंसा है। चित्रगुप्त इनका सहयोगी है। इनके पिता का नाम सूर्य और बहन का नाम यमुना और भाई का नाम श्राद्धदेव मनु है।

यमराज का रूप : - यमराज का पुराणों में विचित्र विवरण मिलता है। पुराणों के अनुसार यमराज का रंग हरा है और वे लाल वस्त्र पहनते हैं। यमराज भैंसे की सवारी करते हैं और उनके हाथ में गदा होती है।

यम के मुंशी : -  यमराज के मुंशी 'चित्रगुप्त' हैं जिनके माध्यम से वे सभी प्राणियों के कर्मों और पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखते हैं। चित्रगुप्त की बही 'अग्रसन्धानी' में प्रत्येक जीव के पाप-पुण्य का हिसाब है।

यमराज के नाम :  यम का अर्थ होता है नियंत्रण और संयम। मृत्यु के देवता यमराज को धर्मराज भी कहा जाता है। यम के लिए पितृपति, कृतांत, शमन, काल, दंडधर, श्राद्धदेव, धर्म, जीवितेश, महिषध्वज, महिषवाहन, शीर्णपाद, हरि और कर्मकर विशेषणों का प्रयोग होता है। अंग्रेजी में यम को प्लूटो कहते हैं। एक धर्मशास्त्र का नाम भी यम है। 

14 यमराज हैं : -  स्मृतियों के अनुसार 14 यम माने गए हैं- यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, औदुम्बर, दध्न, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त। 'धर्मशास्त्र संग्रह' के अनुसार 14 यमों को उनके नाम से 3-3 अंजलि जल तर्पण में देते हैं।

यम त्योहार : -  स्कन्दपुराण' में कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी को दीये जलाकर यम को प्रसन्न किया जाता है। इनका संसार 'यमलोक' के नाम से जाना जाता है।

पुराणों के अनुसार जब भी कोई मनुष्य मरता है या आत्मा शरीर को त्यागकर यात्रा प्रारंभ करती है तो इस दौरान उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं। उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर करता है।

ये तीन मार्ग हैं- अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग। अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है।

हालांकि सभी मार्ग से गई आत्माओं को कुछ काल भिन्न-भिन्न लोक में रहने के बाद पुन: मृत्युलोक में आना पड़ता है। अधिकतर आत्माओं को यहीं जन्म लेना और यहीं मरकर पुन: जन्म लेना होता है।

यजुर्वेद में कहा गया है कि जिन्होंने तप-ध्यान किया है वे शरीर छोड़ने के पश्चात ब्रह्मलोक चले जाते हैं अर्थात ब्रह्मलीन हो जाते हैं। कुछ सत्कर्म करने वाले भक्तजन स्वर्ग चले जाते हैं। स्वर्ग अर्थात वे देव बन जाते हैं। राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेतयोनि में अनंतकाल तक भटकते रहते हैं और कुछ पुन: धरती पर जन्म ले लेते हैं। जन्म लेने वालों में भी जरूरी नहीं कि वे मनुष्य योनि में ही जन्म लें। इससे पूर्व ये सभी यमलोक में रहते हैं वहीं उनका न्याय होता है।

यमलोक :  - आत्मा सत्रह दिन तक यात्रा करने के पश्चात अठारहवें दिन यमपुरी पहुंचती है। यमपुरी या यमलोक का उल्लेख गरूड़ पुराण और कठोपनिषद ग्रंथ में मिलता है। मृत्यु के 12 दिनों के बाद मानव की आत्मा यमलोक का सफर प्रारंभ कर देती है। पुराणों अनुसार यमलोक को 'मृत्युलोक' के ऊपर दक्षिण में 86,000 योजन दूरी पर माना गया है। एक योजन में करीब 4 किमी होते हैं।

गरूड़ पुराण में यमलोक के इस रास्ते में वैतरणी नदी का उल्लेख मिलता है। वैतरणी नदी विष्ठा और रक्त से भरी हुई है। जिसने गाय को दान किया है वह इस वैतरणी नदी को आसानी से पार कर यमलोक पहुंच जाता है अन्यथा इस नदी में वे डूबते रहते हैं और यमदूत उन्हें निकालकर धक्का देते रहते हैं।

यमपुरी पहुंचने के बाद आत्मा 'पुष्पोदका' नामक एक और नदी के पास पहुंच जाती है जिसका जल स्वच्छ होता है और जिसमें कमल के फूल खिले रहते हैं। इसी नदी के किनारे छायादार बड़ का एक वृक्ष है, जहां आत्मा थोड़ी देर विश्राम करती है। यहीं पर उसे उसके पुत्रों या परिजनों द्वारा किए गए पिंडदान और तर्पण का भोजन मिलता है जिससे उसमें पुन: शक्ति का संचार हो जाता है।

पुराणों के अनुसार यमलोक एक लाख योजन क्षेत्र में फैला और इसके चार मुख्य द्वार हैं। यमलोक में आने के बाद आत्मा को चार प्रमुख द्वारों में से किसी एक में कर्मों के अनुसार प्रवेश मिलता है।

दक्षिण का द्वार : -  चार मुख्य द्वारों में से दक्षिण के द्वार से पापियों का प्रवेश होता है। यह घोर अंधकार और भयानक सांप, सिंह और भेड़िये आदि तरह के भयानक जीव और राक्षसों से घिरा रहता है। यहां से प्रवेश करने वाली पापी आत्माओं के लिए यह अत्यंत कष्टकर होता है। इसे नरक का द्वार कहा जाता है। यम-नियम का पालन नहीं करने वाले निश्चित ही इस द्वार में प्रवेश करके कम से कम 100 वर्षों तक कष्ट झेलते हैं।

पश्चिम का द्वार : -  पश्चिम का द्वार रत्नों से जड़ित है। इस द्वार से ऐसे जीवों का प्रवेश होता है जिन्होंने दान-पुण्य किया हो, धर्म की रक्षा की हो और तीर्थों में प्राण त्यागे हो।

उत्तर का द्वार :  उत्तर का द्वार भिन्न-भिन्न स्वर्णजड़ित रत्नों से सजा होता है, जहां से वही आत्मा प्रवेश करती है जिसने जीवन में माता-पिता की खूब सेवा की हो, हमेशा सत्य बोलता रहा हो और हमेशा मन-वचन-कर्म से अहिंसक हो।

पूर्व का द्वार : -  पूर्व का द्वार हीरे, मोती, नीलम और पुखराज जैसे रत्नों से सजा होता है। इस द्वार से उस आत्मा का प्रवेश होता है, जो योगी, ऋषि, सिद्ध और संबुद्ध है। इसे स्वर्ग का द्वार कहते हैं। इस द्वार में प्रवेश करते ही आत्मा का गंधर्व, देव, अप्सराएं स्वागत करती हैं।

पितरों का पितृलोक (यमलोक) : धर्मशास्त्रों के अनुसार पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है। ये आत्माएं मृत्यु के बाद 1 से लेकर 100 वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म की मध्य की स्थिति में रहती हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है।

अन्न से शरीर तृप्त होता है। अग्नि को दान किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर और मन तृप्त होता है। इसी अग्निहोत्र से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं। पक्षियों के लोक को भी पितृलोक कहा जाता है।

पितरों का आगमन : -  सूर्य की सहस्र किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम 'अमा' है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को चन्द्र (वस्य) का भ्रमण होता है तब उक्त किरण के माध्यम से चंद्रमा के उर्ध्वभाग से पितर धरती पर उतर आते हैं इसीलिए श्राद्धपक्ष की अवावस्या तिथि का महत्व भी है। अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांतिकाल व्यतीपात, गजच्दाया, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इन समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है।

पितरों का परिचय :  पुराण अनुसार मुख्यत: पितरों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है- दिव्य पितर और मनुष्य पितर। दिव्य पितर उस जमात का नाम है, जो जीवधारियों के कर्मों को देखकर मृत्यु के बाद उसे क्या गति दी जाए, इसका निर्णय करता है। इस जमात का प्रधान यमराज है।

चार व्यवस्थापक :  - यमराज की गणना भी पितरों में होती है। काव्यवाडनल, सोम, अर्यमा और यम- ये चार इस जमात के मुख्य गण प्रधान हैं। अर्यमा को पितरों का प्रधान माना गया है और यमराज को न्यायाधीश।

इन चारों के अलावा प्रत्येक वर्ग की ओर से सुनवाई करने वाले हैं, यथा- अग्निष्व, देवताओं के प्रतिनिधि, सोमसद या सोमपा-साध्यों के प्रतिनिधि तथा बहिर्पद-गंधर्व, राक्षस, किन्नर सुपर्ण, सर्प तथा यक्षों के प्रतिनिधि हैं। इन सबसे गठित जो जमात है, वही पितर हैं। यही मृत्यु के बाद न्याय करती है।

दिव्य पितर की जमात के सदस्यगण : - अग्रिष्वात्त, बहिर्पद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये नौ दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं।

अर्यमा का परिचय :  -आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। पितरों में श्रेष्ठ है अर्यमा। अर्यमा पितरों के देव हैं। ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इंद्रादि देवताओं के भाई। पुराण अनुसार उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है।

इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है जड़-चेतन मयी सृष्टि में, शरीर का निर्माण नित्य पितृ ही करते हैं। इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है। श्राद्ध के समय इनके नाम से जलदान दिया जाता है। यज्ञ में मित्र (सूर्य) तथा वरुण (जल) देवता के साथ स्वाहा का 'हव्य' और श्राद्ध में स्वधा का 'कव्य' दोनों स्वीकार करते हैं।

सूर्य किरण का नाम अर्यमा : -  देसी महीनों के हिसाब से सूर्य के नाम हैं- चैत्र मास में धाता, वैशाख में अर्यमा, ज्येष्ठ में मित्र, आषाढ़ में वरुण, श्रावण में इंद्र, भाद्रपद में विवस्वान, आश्विन में पूषा, कार्तिक में पर्जन्य, मार्गशीर्ष में अंशु, पौष में भग, माघ में त्वष्टा एवं फाल्गुन में विष्णु। इन नामों का स्मरण करते हुए सूर्य को अर्घ्य देने का विधान है।

अंत में यमराज का सबसे जाग्रत मंदिर कहां है जानिए...

वैसे तो यमराज के खास चार मंदिर है। एक मथुरा में विश्राम घाट पर, दूसरा ऋषिकेश में लक्ष्मण झूला पर, तीसरा तमिलनाडु के तंजावुर जिले में ऐमा धर्मराज मंदिर। लेकिन इन सबसे जाग्रत है हिमाचल में भरमौर में स्थित धर्मराज यमराज का मंदिर।

भरमौर (हिमाचल) :- यम देवता को समर्पित यह मंदिर हिमाचल के चम्बा जिले में भरमौर नामक स्थान पर स्तिथ है। यह मंदिर देखने में एक घर की तरह दिखाई देता है। इस मंदिर में एक खाली कक्ष भी है जिसे चित्रगुप्त का कक्ष कहा जाता है।

इस मंदिर से जुड़ी मान्यता है कि जब किसी प्राणी की मृत्यु होती है तब यमराज के दूत उस व्यक्ति की आत्मा को पकड़कर सबसे पहले इस मंदिर में चित्रगुप्त के सामने प्रस्तुत करते हैं। चित्रगुप्त जीवात्मा को उनके कर्मो का पूरा ब्योरा देते हैं। इसके बाद चित्रगुप्त के सामने के कक्ष में आत्मा को ले जाया जाता है। इस कमरे को यमराज की कचहरी कहा जाता है। यहां पर यमराज कर्मों के अनुसार आत्मा को अपना फैसला सुनाते हैं।

 यह भी मान्यता है इस मंदिर में चार अदृश्य द्वार हैं जो स्वर्ण, रजत, तांबा और लोहे के बने हैं। यमराज का फैसला आने के बाद यमदूत आत्मा को कर्मों के अनुसार इन्हीं द्वारों से स्वर्ग या नर्क में ले जाते हैं। गरूड़ पुराण में भी यमराज के दरबार में चार दिशाओं में चार द्वार का उल्लेख किया गया है।

बुधवार, 18 मार्च 2020

छप्पन भोग की पूरी जानकारी

56 (छप्पन) भोग क्यों लगाते है...
🔸🔸🔹🔸🔸🔸🔸🔹🔸🔸
भगवान को लगाए जाने वाले भोग की बड़ी महिमा है |
इनके लिए 56 प्रकार के व्यंजन परोसे जाते हैं, जिसे
छप्पन भोग कहा जाता है |

यह भोग रसगुल्ले से शुरू होकर दही, चावल, पूरी,पापड़ आदि से होते हुए
इलायची पर जाकर खत्म होता है |
अष्ट पहर भोजन करने
वाले बालकृष्ण भगवान को अर्पित किए जाने वाले
छप्पन भोग के पीछे कई रोचक कथाएं हैं |
ऐसा भी कहा जाता है कि यशोदाजी बालकृष्ण
को एक दिन में अष्ट पहर भोजन कराती थी |
अर्थात्...बालकृष्ण आठ बार भोजन करते थे |
जब इंद्र के प्रकोप से सारे  व्रज को बचाने के लिए
भगवान श्रीकृष्ण ने  गोवर्धन पर्वत
को उठाया था, तब लगातार सात दिन तक
भगवान ने अन्न जल ग्रहण नहीं किया |
आठवे दिन जब भगवान ने देखा कि अब इंद्र
की वर्षा बंद हो गई है, सभी व्रजवासियो को
गोवर्धन पर्वत से बाहर निकल जाने को कहा,
तब दिन में आठ प्रहर  भोजन करने वाले व्रज के
नंदलाल कन्हैया का  लगातार सात दिन तक भूखा रहना उनके व्रज वासियों और मया यशोदा के लिए बड़ा कष्टप्रद हुआ. भगवान के प्रति अपनी अन्न्य श्रद्धा
भक्ति दिखाते हुए सभी व्रजवासियो सहित यशोदा जी ने 7 दिन और अष्ट पहर के हिसाब से 7X8= 56
व्यंजनो का भोग बालकृष्ण को लगाया |
गोपिकाओं ने भेंट किए छप्पन भोग...
श्रीमद्भागवत के अनुसार, गोपिकाओं ने एक माह
तक यमुना में भोर में ही न केवल स्नान किया,
अपितु कुलदेवी जगदम्बा कात्यायनी मां की अर्चना भी इस
मनोकामना से की, कि उन्हें नंदकुमार ही पति रूप
में प्राप्त हों | श्रीकृष्ण ने उनकी मनोकामना पूर्ति की सहमति दे दी | व्रत समाप्ति और मनोकामना पूर्ण होने के
उपलक्ष्य में ही उद्यापन स्वरूप गोपिकाओं ने छप्पन
भोग का आयोजन किया |छप्पन भोग हैं छप्पन सखियां...ऐसा भी कहा जाता है कि गौलोक में भगवान
श्रीकृष्ण राधिका जी के साथ एक दिव्य कमल पर
विराजते हैं |उस कमल की तीन परतें होती हैं...
प्रथम परत में "आठ",दूसरी में "सोलह"और
तीसरी में "बत्तीस पंखुड़िया" होती हैं |
प्रत्येक पंखुड़ी पर एक प्रमुख सखी और मध्य में
भगवान विराजते हैं |इस तरह कुल पंखुड़ियों
संख्या छप्पन होती है | 56 संख्या का यही अर्थ है |

 छप्पन भोग इस प्रकार है
1. भक्त (भात),
2. सूप्पिका (दाल),
3. प्रलेह (चटनी),
4. सदिका (कढ़ी),
5. दधिशाकजा (दही
शाक की कढ़ी),
6. सिखरिणी (श्रीखंड),
7. अवलेह (चटनिया ),
8. बालका (बाटी),
9. इक्षु खेरिणी (मुरब्बा),
10. त्रिकोण (शरक्करपारा),
11. बटक (बड़ा),
12. मधु शीर्षक (मख्खन बडा),
13. फेणिका (फेनी),
14. परिष्टïश्च (पूरी),
15. शतपत्र (खाजा),
16. सधिद्रक (घेवर),
17. चक्राम (मालपुआ),
18. चिल्डिका (चिलडे ),
19. सुधाकुंडलिका (जलेबी),
20. धृतपूर (मेसूर पाक ),
21. वायुपूर (रसगुल्ला),
22. चन्द्रकला (चांदी की बरक वाली मिठाई ),
23. दधि (महारायता),
24. स्थूली (थूली),
25. कर्पूरनाड़ी (लौंगपूरी),
26. खंड मंडल (खुरमा),
27. गोधूम (दलिया),
28. परिखा, ( रोट )
29. सुफलाढय़ा (सौंफ युक्त),
30. दधिरूप (फलो से बना रायता ),
31. मोदक (लड्डू),
32. शाक (साग),
33. सौधान (अधानौ अचार),
34. मंडका (मोठ),
35. पायस (खीर)
36. दधि (दही),
37. गोघृत,
38. हैयंगपीनम (मक्खन),
39. मंडूरी (मलाई),
40. कूपिका (रबड़ी)
41. पर्पट (पापड़),
42. शक्तिका (बादाम का सीरा),

43. लसिका (लस्सी),
44. सुवत,( शरबत)
45. संघाय (मोहन),
46. सुफला (सुपारी),
47. सिता (इलायची),
48. फल,
49. तांबूल, (पान)
50. मोहन भोग, (मूंग दाल की चक्कि)
51. लवण, (नमकीन व्यंजन)

🌼मुखवास🌼
52. कषाय, (आंवला )
53. मधुर, ( गुलुकंद)
54. तिक्त, (अदरक )
55. कटु, (मैथी दाना )
56. अम्ल ( निम्बू )

मंगलवार, 17 मार्च 2020

टाइफाइड का इलाज

🌹टाइफाइड -आयुर्वेदिक उपाय 🌹 :

🌹गिलोय का काढ़ा 1 तोला को आधा तोला शहद में मिलाकर दिन में 2-3 बार पिलाना लाभकारी है । 

🌹अजमोद का चूर्ण 2 से 4 ग्राम तक शहद के साथ सुबह शाम चाटने से लाभ होता है।

🌹मोथा, पित्त पापड़ा, मुलहठी, मुनक्का चारों को समभाग लेकर अष्टावशेष क्वाथ करें। इसे शहद डालकर पिलाने से ज्वर, दाह, भ्रम व वमन आदि नष्ट होते हैं।

🌹नीम के बीज पीसकर 2-2 घंटे के बाद पिलाने से आन्त्रिक ज्वर उतर जाता है । यह योग मल निकालता है। शरीर में ताजा खून बनाता है, नयी शक्ति का संचार करता है । यदि मलेरिया बुखार से टायफाइड बना हो तो नीम जैसी औषधि के अतिरिक्त अन्य कोई सस्ता और सहज शर्तिया उपचार नहीं है ।

🌹 जीरे को जल के साथ महीन पीसकर 4-4 घंटे के अंतर से ओष्ठों (होंठ के किनारों पर लेप करने से ज्वर उतरने के पश्चात् ज्वरजन्य ओष्ठ-प्रकोप बुखार का मूतना) अर्थात् होठों का पकना व फूटना ठीक हो जाता है ।

🌹जीरा सफेद 3 ग्राम 100 मि. ली. उबलते जल में डाल दें । इसे 15-20 मिनट के बाद छानकर थोड़ी शक्कर मिलाकर रोगी को दें। 10-15 दिनों तक निरन्तर प्रात:काल में पीने से ज्वर उतरने के पश्चात् आने वाली कमजोरी व अग्निमान्द्य नष्ट होकर भूख खुलकर लगने लगती है।

🌹टाइफाइड के बाद सावधानी :

1- पहले लक्षण दिखलायी देने के 8 सप्ताह तक रोगी को दूसरे स्वस्थ एवं निरोगी व्यक्तियों से अलग रखना चाहिए।

2- रोगी के सम्पर्क में आने वालों को टीका लगवायें, दूध और पानी उबाल कर दें, कच्चे फल एवं शाक आदि न दें तथा रोगी द्वारा छुई हुई (पकड़ी या प्रयोग में लाई गई) प्रत्येक वस्तु का शुद्ध करना चाहिए।

3- रोगी को पूर्ण विश्राम दें। 2-घूमने-फिरने न दें।

4- रोगी के बिस्तर एवं कमरे में स्वच्छता बनाये रखें। विशेषतः रोगी का बिस्तर 1-1 दिन बाद बदलवा दें तथा रोगी द्वारा प्रयोग में लाया गया बिस्तर को पूरे दिन की धूप दिखला दें। रोगी के कमरे में सूर्य का प्रकाश (रोशनी) एवं शुद्ध वायु आनी जरूरी है।

5-रोगी को अकेला न छोड़ें किन्तु उसके कमरे में अधिक भीड़-भाड़ भी न हो ।

6- रोगी के पेट, मल-मूत्र, पीठ, नाड़ी, तापमान तथा दिन में पिये जल की मात्रा का पूर्ण विवरण बनाये रखें। 7-रोगी का मुख खूब अच्छी तरह कुल्ले करवाकर शुद्ध रखना चाहिए।

8- मुँह आने और होंठ पकने पर ‘बोरो गिलेसरीन’ लगावें। रोगी की अन्तड़ियों का वायु से बहुत अधिक फूल जाना इस रोग का बुरा लक्षण है।

9- तारपीन का तेल 5 मि.ली. सवा किलो गरम पानी में मिला कर इसमें फलालेन का कपड़ा (टुकड़ा) भिगो एवं निचोड़कर गद्दी बनाकर पेट पर बाँध दें। रोगी को आराम मिलेगा।

10- दालचीनी का तेल 2-3 बूंद पेट फूलने, पेट में दर्द तथा पेट में वायु पैदा होने के लिए अत्यन्त लाभकारी है।

11- केओलिन पाउडर (चीनी मिट्टी का पिसा छना बारीक चूर्ण) या एन्टी फ्लोजेस्टिन की गर्म-गर्म पुल्टिस पूरे पेट पर फैलाकर ढंक देने से भी पेट फूलने को आराम आ जाता है।

12- घर के दरवाजे एवं खिड़कियाँ बन्द करवाकर रोगी का शरीर खौले हुए मामूली गर्म पानी से पोंछवा दें। अधिक दिनों तक लगातार शैय्या पर रहने के कारण रोगी को जो ‘शैय्या क्षत’ (बिस्तर के घाव) कमर, पीठ, कूल्हों आदि में हो जाते हैं, वे न होने पायें, इसका ध्यान रखें।

🌹टाइफाइड में क्या खाएं क्या न खाए :

1- रोगी को तरल, पुष्टिकर, लघुपाकी, आहार जैसे गाय के दूध में ग्लूकोज मिलाकर दें।

2- पेट बहुत अधिक फूल जाने पर तथा समय से सही चिकित्सा न करने पर रक्त में विषैले प्रभाव फैल जाने या अन्तड़ियों में छेद हो जाने का डर उत्पन्न हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में-कम मात्रा में भोजन खिलायें। 3-दही का मट्ठा पानी में घोलकर दूध के स्थान पर दें।

4- मीठे सेव का रस पिलायें।

5- दूध के स्थान पर दही का मट्ठा थोड़ी मात्रा में बार-बार पिलाते रहने से दस्तों में भी आराम आ जाता है।

6- तीन-चार बूंद दालचीनी का तेल’ ग्लूकोज आदि में मिलाकर रोगी को 2-2 घन्टे बाद खिलाते रहने से दस्तों की बदबू, पेट की वायु और कई दूसरे कष्ट दूर हो जाते है।

7- रोगी को रोग की प्रथमावस्था में सादा सुपाच्य भोजन दें।

8- यदि पतले दस्त न हों तो दूध दें।

9- अफारा हो तो ग्लूकोज दें।

10-रोगी को किसी भी कड़ी वस्तु का पथ्य न दे।
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Note- कृपया कोई प्रयोग करने से पहले योग्य चिकित्सक से परामर्श जरुर करें।

सोमवार, 16 मार्च 2020

हिंदू धर्म में दस पवित्र पक्षी

हिंदू धर्म के दस पवित्र पक्षी, जानिए उनका रहस्य!!!!!!!!!

हिंदू धर्म संपूर्ण पशु-पक्षी और वृक्षों को मानव अस्तित्व की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण घटक मानता है। उनमें से भी कुछ वृक्ष, पशु और पक्षी ऐसे हैं ‍जिनके नहीं होने से मानव का अस्तित्व भी संकट में पड़ सकता है। इसके अलावा हिंदू धर्म के ऋषियों और मुनियों ने यह जाना कि कौन से पक्षी में क्या रहस्य छिपा हुआ है।

आओ जानने हैं ऐसे दस दिव्य और पवित्र पक्षी जिनका हिंदू धर्म में बहुत ही महत्व माना गया है और जिनका सम्मान और आदर करना प्रत्येक हिंदू का कर्तव्य है।

 पहला पक्षी, हंस : - जब कोई व्यक्ति सिद्ध हो जाता है तो उसे कहते हैं कि इसने हंस पद प्राप्त कर लिया और जब कोई समाधिस्थ हो जाता है, तो कहते हैं कि वह परमहंस हो गया। परमहंस सबसे बड़ा पद माना गया है।

पक्षियों में हंस एक ऐसा पक्षी है जहां देव आत्माएं आश्रय लेती हैं। यह उन आत्माओं का ठिकाना हैं जिन्होंने अपने ‍जीवन में पुण्यकर्म किए हैं और जिन्होंने यम-नियम का पालन किया है। कुछ काल तक हंस योनि में रहकर आत्मा अच्छे समय का इंतजार कर पुन: मनुष्य योनि में लौट आती है या फिर वह देवलोक चली जाती है।

हंस पक्षी प्यार और पवित्रता का प्रतीक है। यह बहुत ही विवेकी पक्षी माना गया है। आध्यात्मिक दृष्टि मनुष्य के नि:श्वास में 'हं' और श्वास में 'स' ध्वनि सुनाई पड़ती है। मनुष्य का जीवन क्रम ही 'हंस' है क्योंकि उसमें ज्ञान का अर्जन संभव है। अत: हंस 'ज्ञान' विवेक, कला की देवी सरस्वती का वाहन है। यह पक्षी अपना ज्यादातर समय मानसरोवर में रहकर ही बिताते हैं या फिर किसी एकांत झील और समुद्र के किनारे।

यह पक्षी दांप‍त्य जीवन के लिए आदर्श है। यह जीवन भर एक ही पार्टनर के साथ रहते हैं। यदि दोनों में से किसी भी एक पार्टनर की मौत हो जाए तो दूसरा अपना पूरा जीवन अकेले ही गुजार या गुजार देती है। जंगल के कानून की तरह इनमें मादा पक्षियों के लिए लड़ाई नहीं होती। आपसी समझबूझ के बल पर ये अपने साथी का चयन करते हैं। इनमें पारिवारिक और सामाजिक भावनाएं पाई जाती है।

सफदे रंग के अलावा काले रंग के हंस ऑस्ट्रेलिया में पाए जाते हैं। हिंदू धर्म में हंस को मारना अर्थात पिता, देवता और गुरु को मारने के समान है। ऐसे व्यक्ति को तीन जन्म तक नर्क में रहना होता है।

 दूसरा पक्षी, मोर : - मोर को पक्षियों का राजा माना जाता है। यह शिव पुत्र कार्तिकेय का वाहन है। भगवान कृष्ण के मुकुट में लगा मोर का पंख इस पक्षी के महत्व को दर्शाता है। यह भारत का राष्ट्रीय पक्षी है।

इसकी दो प्रजातियां हैं- नीला या भारतीय मोर (पैवो क्रिस्टेटस), जो भारत और श्रीलंका (भूतपूर्व सीलोन) में पाया जाता है। हरा या जावा का मोर (पैवो म्यूटिकस), जो म्यांमार (भूतपूर्व बर्मा) से जावा तक पाया जाता है।

अनेक धार्मिक कथाओं में मोर को बहुत ऊंचा दर्जा दिया गया है। हिन्दू धर्म में मोर को मार कर खाना महापाप समझा जाता है। मोर की उम्र 25 से 30 वर्ष तक होती है।

 तीसरा पक्षी, कौआ : - कौए को अतिथि-आगमन का सूचक और पितरों का आश्रम स्थल माना जाता है। कौआ लगभग 20 इंच लंबा, गहरे काले रंग का पक्षी है, जिसके नर और मादा एक ही जैसे होते हैं।

जिस दिन किसी कौए की मृत्यु हो जाती है उस दिन उसका कोई साथी भोजन नहीं करता है। कौआ अकेले में भी भोजन कभी नहीं खाता वह किसी साथी को साथ ही मिल बांटकर भोजन ग्रहण करता है। कौआ बगैर थके मीलों उड़ सकता है। कौए को भविष्य में घटने वाली घटनाओं का पहले से ही आभास हो जाता है।

श्राद्ध पक्ष में कौओं का बहुत महत्व माना गया है। इस पक्ष में कौओं को भोजना कराना अर्थात अपने पितरों को भोजन कराना माना गया है।

 चौथा पक्षी,उल्लू : - उल्लू को लोग अच्छा नहीं मानते और उससे डरते हैं, लेकिन यह गलत धारणा है। उल्लू लक्ष्मी का वाहन है। उल्लू का अपमान करने से लक्ष्मी का अपमान माना जाता है। हिन्दू संस्कृति में माना जाता है कि उल्लू समृद्धि और धन लाता है। डरावने लुक के कारण कुछ लोग उल्लू से डरते भी हैं और कुछ लोग उन लोगों को मूर्ख कहते हैं जिनके उल्लू जैसे मुंह होते हैं, लेकिन यह धारणा गलत है।

भारत वर्ष में प्रचलित लोक विश्वासों के अनुसार भी उल्लू का घर के ऊपर छत पर स्थि‍त होना तथा शब्दोच्चारण निकट संबंधी की अथवा परिवार के सदस्य की मृत्यु का सूचक समझा जाता है। सचमुच उल्लू को भूत-भविष्य और वर्तमान में घट रही घटनाओं का पहले से ही ज्ञान हो जाता है।

उल्लू नीरव उड़ान भरने में पारंगत है। अर्थात पंखों की फड़फड़ाहट या आवाज किए बगैर ही यह मीलों उड़ सकता है। उल्लू की आंखे रात में दूर तक देखने की क्षमता रखती है। यह प्राणी दिन में सोता और रात में जागता है। उल्लू की श्रवण-शक्ति भी तीव्र होती है। यह उपर उड़ान भरते वक्त नीचे चूहे की आवाज सुन लेता है। उल्लू की सिर घुमाने की योग्यता भी अद्वितीय हैं क्योंकि वे लगभग 170 अंश तक अपना सिर घुमा सकते हैं। अर्थात मात्र सिर घुमाकर वे ठीक अपने पीछे देख सकते हैं।

लिंगपुराण में नारद मुनि को मानसरोवर वासी उलूक से संगीत शिक्षा ग्रहण करने के लिए उपदेश दिया गया था। इस उलूक की हू हू हू हू सांगीतिक स्वरों में निकलती है। वाल्मीकि रामायण में उल्लू को मूर्ख के स्थान पर अत्यन्त चतुर कहा गया। रामचंद्र जी जब रावण को मारने में असफल होते हैं और जब विभीषण उनके पास जाते हैं, तब सुग्रीव राम से कहते हैं कि उन्हें शत्रु की उलूक-चतुराई से बचकर रहना चाहिए। ऋषियों ने गहरे अवलोकन तथा समझ के बाद ही उलूक को श्रीलक्ष्मी का वाहन बनाया था।

पांचवां पक्षी,गरूड़ :  - पक्षियों में गरूढ़ को सबसे श्रेष्ठ माना गया है। यह समझदार और बुद्धिमान होने के साथ-साथ तेज गति से उड़ने की क्षमता रखता है। गरूड़ के नाम पर एक पुराण भी है गरूड़ पुराण। यह भारत का धार्मिक और अमेरिका का राष्ट्रीय पक्षी है।

गरूड़ के बारे में पुराणों में अनेक कथाएं मिलती है। रामायण में तो गरूढ़ का सबसे महत्वपूर्ण पार्ट है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान विष्णु की सवारी और भगवान राम को मेघनाथ के नागपाश से मुक्ति दिलाने वाले गरूड़ के बारे में कहा जाता है कि यह सौ वर्ष तक जीने की क्षमता रखता है। लेकिन आज कल गरूढ़ के अस्तित्व पर संकट गहरा रहा है।

छटा पक्षी,नीलकंठ : - नीलकंड को देखने मात्र से भाग्य का दरवाजा खुल जाता है। यह पवित्र पक्षी माना जाता है। दशहरा पर लोग इसका दर्शन करने के लिए बहुत ललायित रहते हैं।

इससका आकार मैना के बराबर होता है। इसकी चोंच भारी होती है, वक्षस्थल लाल भूरा, उदर, तथा पुच्छ क अधोतल नीला होता है। पंख पर गहरे और धूमिल नीले रंग के भाग उड़ान के समय चमकीली पट्टियों के रूप मे दिखाई पड़ते हैं। त्रावणकोर के दक्षिण भाग को छोड़कर शेष भारत में यह पक्षी पाया जाता है।

सांतवां पक्षी,तोता : -  इसे मिट्ठू भी कहते हैं। तोते का हरा रंग बुध ग्रह के साथ जोड़कर देखा जाता है। अतः घर में तोता पालने से बुध की कुदृष्टि का प्रभाव दूर होता है। घर में तोते का चित्र लगाने से बच्चों का पढ़ाई में मन लगता है। वास्तुशास्त्र के अनुसार उत्तर दिशा में तोते की तस्वीर को लगाने से पढ़ाई में बच्चों की रुचि बढ़ती है साथ ही उनकी स्मरण क्षमता में भी इजाफा होता है। इसके अलावा आपने बहुत से तोता पंडित देखें होंगे जो भविष्यवाणी करते हैं।

तोते के बारे में बहुत सारी कथाएं पुराणों में मिलती है। इसके अलवा, जातक कथाओं, पंचतंत्र की कथाओं में भी तोते को किसी न किसी कथा में शामिल किया गया है। तोता अक्सर तमाशा दिखाने वाले और जादूगरों के पास देखा जाता है।

यह हरे रंग का 10-12 इंच लंबा पक्षी है, जिसके गले पर लाल कंठ होता है। तोता बहुत प्रिय व सुंदर पक्षी है। यह सबका मनोरंजन करता है। तोता एक लोकप्रिय पक्षी हैं। इसकी आवाज़ छोटे बच्चे भी पहचानते हैं। यह मनुष्यों की बोली की नक़ल बखूबी कर लेता है। तोता एक बार में 4-6 अण्डे देते हैं और ज्यादातर पक्षियों की तरह नर व मादा अपनी घरेलू जिम्मेदारी मिल-जुल कर निभाते हैं। अधिकांश प्रजातियां पेड़ की खोह में एक बार में चार से आठ अंडे देती हैं।

आठवां पक्षी,कबूतर : इसे कपोत कहते हैं। यह शांति का प्रतीक माना गया है। भगवान शिव ने जब अमरनाथ में पार्वती को अजर अमर होने के वचन सुनाए थे तो कबतरों के एक जोड़े ने यह वचन सुन लिए थे तभी से वे अजर-अमर हो गए। आज भी अमरनाथ की गुफा के पास ये कबूतर के जोड़े आपको दिखाई दे जाएंगे। कहते हैं कि सावन की पूर्णिमा को ये कबूतर गुफा में दिखाई पड़ते हैं। इसलिए कबूतर को महत्व दिया जाता है।

पहले के जमाने में कबूतर ही डाकिये का काम करता था। पुराने समय में ही नहीं, बल्कि 19वीं सदी की शुरुआत में होने वाले पहले विश्वयुद्ध तक कबूतर के माध्यम से संदेश भेजा जाता था। अजीब है कि कबूतर मिलों तक जाकर यह संदेश देकर पुन: कैसे लौट आते होंगे।

बताया जाता है कि होमिंग प्रजाति के कबूतर अपनी जगह से 1600 किमी आगे उड़कर जाने पर भी रास्ता भटके बिना वापस लौट आते थे। उनके उड़ने की रफ्तार भी 60 मील प्रति घंटा होती थी, जोकि संदेश एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने के लिए पर्याप्त थी।

पक्षी-विज्ञानी बताते हैं कि ये कबूतर सूर्य की दिशा, गंध और पृथ्वी के चुम्बकत्व से वापस लौटने की दिशा तय करते थे। टेलीग्राफ, टेलीफोन और संदेश पहुंचाने की नई व्यवस्थाओं के साथ कबूतर संदेश भेजना खत्म हो गया।

न्यूजीलैंड की ओटागो यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में पाया कि कबूतरों में शानदार गणितीय क्षमता होती है और वे नंबर जैसी चीजों तथा क्रम व्यवस्था को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं।

 नौवां पक्षी,बगुला : - आपने कहावत सुनी होगी बगुला भगत। अर्थात ढोंगी साधु। धार्मिक ग्रंथों में बगुले से जुड़ी अनेक कथाओं का उल्लेख मिलता है। पंत्रतंत्र में एक कहानी है बगुला भगत। बगुला भगत पंचतंत्र की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसके रचयिता आचार्य विष्णु शर्मा हैं।

बगुला के नाम पर एक देवी का नाम भी है जिसे बगुलामुखी कहते हैं। बगुला ध्यान भी होता है अर्थात बगुले की तरह एकटक ध्यान लगाना। बगुले के संबंध में कहा जाता है कि ये जिस भी घर के पास ‍के किसी वृक्ष आदि पर रहते हैं वहां शांति रहती है और किसी प्रकार की अकाल मृत्यु नहीं होती।

 दसवां पक्षी,गोरैया :  - गोरैया एक छोटी चिड़िया है। यह हल्की भूरे रंग या सफेद रंग में होती है। इसके शरीर पर छोटे-छोटे पंख और पीली चोंच व पैरों का रंग पीला होता है। नर गोरैया का पहचान उसके गले के पास काले धब्बे से होता है। 14 से 16 से.मी. लंबी यह चिड़िया मनुष्य के बनाए हुए घरों के आसपास रहना पसंद करती है।

भारतीय पौराणिक मान्यताओं अनुसार यह चिड़ियां जिस भी घर में या उसके आंगन में रहती है वहां सुख और शांति बनी रहती है। खुशियां उनके द्वार पर हमेशा खड़ी रहती है और वह घर दिनोदिन तरक्की करता रहता है।

इसके अलावा भी हिंदू धर्म में ऐसे और भी पक्षी हैं जिनका धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व माना गया है। पक्षियों को हिंदू धर्म में देवता और पितर माना गया है। कहते हैं जिस दिन आकाश से पक्षी लुप्त हो जाएंगे उस दिन धरती से मनुष्य भी लुप्त हो जाएगा। किसी भी पक्षी को मारना अपने पितरों को मारना माना गया है।

रविवार, 15 मार्च 2020

पुजा पाठ से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

पूजा से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी!

★ एक हाथ से प्रणाम नही करना चाहिए।

★ सोए हुए व्यक्ति का चरण स्पर्श नहीं करना चाहिए।

★ बड़ों को प्रणाम करते समय उनके दाहिने पैर पर दाहिने हाथ से और उनके बांये पैर को बांये हाथ से छूकर प्रणाम करें।

★ मन्दिर में किसी व्यक्ति के चरण नहीं छूने (गुरु को छोड़कर ) चाहिए।

★ जप करते समय जीभ या होंठ को नहीं हिलाना चाहिए। इसे मानसिक जप कहते हैं। इसका फल सौगुणा फलदायक होता हैं।

★ जप करते समय माला को कपड़े या गौमुखी से ढककर रखना चाहिए।

★ जप के बाद आसन के नीचे की भूमि को स्पर्श कर नेत्रों से लगाना चाहिए।

★ संक्रान्ति, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, रविवार और सन्ध्या के समय तुलसी तोड़ना निषिद्ध हैं।

★ दीपक से दीपक को नही जलाना चाहिए।

★ यज्ञ, श्राद्ध आदि में काले तिल का प्रयोग करना चाहिए, सफेद तिल का नहीं।

★ शनिवार को पीपल पर जल चढ़ाना चाहिए। पीपल की सात परिक्रमा करनी चाहिए। परिक्रमा करना श्रेष्ठ है,

★ कूमड़ा-मतीरा-नारियल आदि को स्त्रियां नहीं तोड़े या चाकू आदि से नहीं काटें। यह उत्तम नही माना गया हैं।

★ भोजन प्रसाद को लाघंना नहीं चाहिए।

★  देव प्रतिमा देखकर अवश्य प्रणाम करें।

★  किसी को भी कोई वस्तु या दान-दक्षिणा दाहिने हाथ से देना चाहिए।

★  एकादशी, अमावस्या, कृृष्ण चतुर्दशी, पूर्णिमा व्रत तथा श्राद्ध के दिन क्षौर-कर्म (दाढ़ी) नहीं बनाना चाहिए ।

★ बिना यज्ञोपवित या शिखा बंधन के जो भी कार्य, कर्म किया जाता है, वह निष्फल हो जाता हैं।

★ शंकर जी को बिल्वपत्र, विष्णु जी को तुलसी, गणेश जी को दूर्वा, लक्ष्मी जी को कमल प्रिय हैं।

★ शंकर जी को शिवरात्रि के सिवाय कुंकुम नहीं चढ़ती।

★ शिवलिंग पर हल्दी नही चढ़ावे।

★ शिवजी को कुंद, विष्णु जी को धतूरा, देवी जी को आक तथा मदार और सूर्य भगवानको तगर के फूल नहीं चढ़ावे।

★ अक्षत देवताओं को तीन बार तथा पितरों को एक बार धोकर चढ़ावे।

★ नये बिल्व पत्र नहीं मिले तो चढ़ाये हुए बिल्व पत्र धोकर फिर चढ़ाए जा सकते हैं।

★ विष्णु भगवान को चावल गणेश जी  को तुलसी, दुर्गा जी और सूर्य नारायण  को बिल्व पत्र नहीं चढ़ावें।

★ पत्र-पुष्प-फल का मुख नीचे करके नहीं चढ़ावें, जैसे उत्पन्न होते हों वैसे ही चढ़ावें।

★ किंतु बिल्वपत्र उलटा करके डंडी तोड़कर शंकर पर चढ़ावें।

★पान की डंडी का अग्रभाग तोड़कर चढ़ावें।

★ सड़ा हुआ पान या पुष्प नहीं चढ़ावे।

★ गणेश को तुलसी भाद्र शुक्ल चतुर्थी को ही चढ़ती हैं।

★ पांच रात्रि तक कमल का फूल बासी नहीं होता है।

★ दस रात्रि तक तुलसी पत्र बासी नहीं होते हैं।

★ सभी धार्मिक कार्यो में पत्नी को दाहिने भाग में बिठाकर धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न करनी चाहिए।

★ पूजन करनेवाला ललाट पर तिलक लगाकर ही पूजा करें।

★ पूर्वाभिमुख बैठकर अपने बांयी ओर घंटा, धूप तथा दाहिनी ओर शंख, जलपात्र एवं पूजन सामग्री रखें।

★ घी का दीपक अपने बांयी ओर तथा देवता को दाहिने ओर रखें एवं चांवल पर दीपक रखकर प्रज्वलित करें।

शुक्रवार, 13 मार्च 2020

रोगानुसार देसी गाय के घी का उपयोग

*रोगानुसार देसी गाय के शुद्ध घी के उपयोग :-*

१. गाय का घी नाक में डालने से पागलपन दूर होता है।

२. गाय का घी नाक में डालने से एलर्जी खत्म हो जाती है।

३. गाय का घी नाक में डालने से लकवा का रोग में भी उपचार होता है।

४. 20-25 ग्राम गाय का घी व मिश्री खिलाने से शराब, भांग व गांजे का नशा कम हो जाता है। 

५. गाय का घी नाक में डालने से कान का पर्दा बिना ओपरेशन के ही ठीक हो जाता है।

६. नाक में घी डालने से नाक की खुश्की दूर होती है और दिमाग तरोताजा हो जाता है।

७. गाय का घी नाक में डालने से कोमा से बाहर निकल कर चेतना वापस लोट आती है।

८. गाय का घी नाक में डालने से बाल झडना समाप्त होकर नए बाल भी आने लगते है।

९. गाय के घी को नाक में डालने से मानसिक शांति मिलती है, याददाश्त तेज होती है।

१०. हाथ-पॉँव मे जलन होने पर गाय के घी को तलवो में मालिश करें जलन ठीक होता है।

११. हिचकी के न रुकने पर खाली गाय का आधा चम्मच घी खाए, हिचकी स्वयं रुक जाएगी । 

१२. गाय के घी का नियमित सेवन करने से एसिडिटी व कब्ज की शिकायत कम हो जाती है।

१३. गाय के घी से बल और वीर्य बढ़ता है और शारीरिक व मानसिक ताकत में भी इजाफा होता है। 

१४. गाय के पुराने घी से बच्चों को छाती और पीठ पर मालिश करने से कफ की शिकायत दूर हो जाती है।

१५. अगर अधिक कमजोरी लगे, तो एक गिलास दूध में एक चम्मच गाय का घी और मिश्री डालकर पी लें।

१६. हथेली और पांव के तलवो में जलन होने पर गाय के घी की मालिश करने से जलन में आराम आयेगा। 

१७. गाय का घी न सिर्फ कैंसर को पैदा होने से रोकता है और इस बीमारी के फैलने को भी आश्चर्यजनक ढंग से रोकता है।

१८. जिस व्यक्ति को हार्ट अटैक की तकलीफ है और चिकनाई खाने की मनाही है तो गाय का घी खाएं, इससे ह्रदय मज़बूत होता है।

१९. देसी गाय के घी में कैंसर से लड़ने की अचूक क्षमता होती है। इसके सेवन से स्तन तथा आंत के खतरनाक कैंसर से बचा जा सकता है।

२०. गाय का घी, छिलका सहित पिसा हुआ काला चना और पिसी हुई देसी खाण्ड, तीनों को समान मात्रा में मिलाकर लड्डू बाँध लें। प्रतिदिन प्रातः खाली पेट एक लड्डू खूब चबा-चबाकर खाते हुए एक गिलास मीठा गुनगुना दूध घूँट-घूँट करके पीने से स्त्रियों के प्रदर रोग में आराम होता है, पुरुषों का शरीर मोटा ताजा यानी सुडौल और बलवान बनता है।

२१. फफोलों पर गाय का देसी घी लगाने से आराम मिलता है।

२२. गाय के घी की छाती पर मालिश करने से बच्चो के बलगम को बहार निकालने मे सहायता मिलती है।

२३. सांप के काटने पर 100 -150 ग्राम गाय का घी पिलायें, उपर से जितना गुनगुना पानी पिला सके पिलायें, जिससे उलटी और दस्त तो लगेंगे ही लेकिन सांप का विष भी कम हो जायेगा।

२४. दो बूंद देसी गाय का घी नाक में सुबह शाम डालने से माइग्रेन दर्द ठीक होता है।

२५. सिर दर्द होने पर शरीर में गर्मी लगती हो, तो गाय के घी की पैरों के तलवे पर मालिश करे, इससे सिरदर्द दर्द ठीक हो जायेगा।

२६. यह स्मरण रहे कि गाय के घी के सेवन से कॉलेस्ट्रॉल नहीं बढ़ता है । वजन भी नही बढ़ता, बल्कि यह वजन को संतुलित करता है। यानी के कमजोर व्यक्ति का वजन बढ़ता है तथा मोटे व्यक्ति का मोटापा (वजन) कम होता है।

२७. एक चम्मच गाय के शुद्ध घी में एक चम्मच बूरा और 1/4 चम्मच पिसी काली मिर्च इन तीनों को मिलाकर सुबह खाली पेट और रात को सोते समय चाट कर ऊपर से गर्म मीठा दूध पीने से आँखों की ज्योति बढ़ती है।

२८. गाय के घी को ठन्डे जल में फेंट ले और फिर घी को पानी से अलग कर ले यह प्रक्रिया लगभग सौ बार करे और इसमें थोड़ा सा कपूर डालकर मिला दें। इस विधि द्वारा प्राप्त घी एक असर कारक औषधि में परिवर्तित हो जाता है जिसे जिसे त्वचा सम्बन्धी हर चर्म रोगों में चमत्कारिक कि तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं। यह सौराइसिस के लिए भी कारगर है।

२९. गाय का घी एक अच्छा (LDL) कोलेस्ट्रॉल है। उच्च कोलेस्ट्रॉल के रोगियों को गाय का घी ही खाना चाहिए। यह एक बहुत अच्छा टॉनिक भी है। 

३०. अगर आप गाय के घी की कुछ बूँदें दिन में तीन बार, नाक में प्रयोग करेंगे तो यह त्रिदोष (वात पित्त और कफ) को सन्तुलित करता है।

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*वंदे गौ मातरम 🙏🇮🇳🚩*

गुरुवार, 12 मार्च 2020

विभिन्न कार्यों को करते समय भगवान के विभिन्न नामों का स्मरण

विभिन्न कार्यों को करते समय भगवान के विभिन्न नामों का स्मरण!!!!!!!!!

भगवान ने सृष्टि रचना के साथ ही मनुष्य के मन, बुद्धि व हृदय के भीतर भगवन्भावना को बनाए रखने के लिए उसकी जिह्वा पर अपने-आप ही भगवन्नाम को प्रकट किया है । जब प्राणी पर विपत्ति आती है, दु:ख पड़ता है या अमंगल आता हुआ दिखाई देता है तो स्वत: ही मुख से ‘हे राम !’ या ‘हाय राम !’ की करुण ध्वनि निकल जाती है; आत्मा अनायास ही उस मंगलकर्ता भगवान के पावन मधुर नाम को पुकार उठती है । भगवान मनुष्य के चित्त को सदा आकर्षित करते हैं और वह सदा अंत:करण से भगवान को चाहता है । अत: भगवान का नाम उसकी रसना में अपने-आप स्फुरित होता है । यह भगवान की अहैतुकी कृपा का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है । नाम में भगवान ने अपनी समस्त शक्ति और प्रकाश रख दिया है जिससे मनुष्य निर्भय होकर इस संसार की यात्रा कर सकता है ।

विभिन्न रुचि, प्रकृति और संस्कारों के मनुष्यों के लिए भगवान ने स्वयं को अनेक नामों से व्यक्त किया है—ब्रह्म, परमात्मा, भगवान, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, नारायण, हरि, दुर्गा, काली, तारा, अन्नपूर्णा, गॉड, इन्द्र, चन्द्र, वायु, वरुण, सूर्य, अग्नि, प्रजापति–ये सब उन्हीं के नाम हैं । प्रत्येक नाम का अर्थ वह परमात्मा ही है। यों तो प्रभु के अनन्त नाम हैं परन्तु उनका एक नाम है–’अनामी’। सचमुच उनका कोई एक नाम नहीं है, इसलिए जिस नाम से आप पुकारेंगे, उसी नाम से वह बोल उठेगें क्योंकि वह अंतस्तल की परा वाणी के भी प्रकाशक हैं । पुराणों में मनुष्य को विभिन्न कार्यों को करते समय भगवान के अलग-अलग नाम-स्मरण करने के लिए कहा गया है, जैसे–

–सोकर उठते ही ‘विष्णु’ का स्मरण करें–उत्तिष्ठन् कीर्तयेद् विष्णुम् ।

–निद्राकाल में मनुष्य ‘माधव’ व ‘पद्मनाभ’ का स्मरण करे–प्रस्वपन् माधवं नर: ।

–स्नान, देवार्चन, हवन, प्रणाम तथा प्रदक्षिणा करते समय मनुष्य को ‘वासुदेव’ नाम का जप करना चाहिए–कीर्तयेद् भगवन्नाम वासुदेवेति तत्पर: ।

–भोजन करते समय ‘गोविन्द’ व ‘जनार्दन’ का स्मरण करें–भोजने चैव गोविन्दं ।

–औषधि-सेवन करते समय ‘अच्युत’, ‘अमृत’ व ‘विष्णु’ नामों का जप करना चाहिए ।

–संतान की प्राप्ति के लिए भक्तिपूर्वक ‘जगत्पति’ (जगदीश या जगन्नाथ) की स्तुति करने वाला कभी दु:खी नहीं होता–जगत्पतिमपत्यार्थं स्तुवन् भक्त्या न सीदति ।

–विद्यार्थी को प्रतिदिन ‘पुरुषोत्तम’ नाम का स्मरण करना चाहिए ।

–सभी प्रकार की नेत्र बाधाओं में नित्य-निरन्तर ‘केशव’ तथा ‘पुण्डरीकाक्ष’ नामों का जप करना चाहिए ।

–जल को पार करते समय भगवान ‘कूर्म’ (कच्छप), ‘वराह’अथवा ‘मत्स्य’ का स्मरण करना चाहिए–कूर्मं वराहं मत्स्यं वा जलप्रतरणे स्मरेत् ।

–कही आग लग गयी हो उसकी शान्ति के लिए ‘भ्राजिष्णु’ इस नाम का लगातार जप करना चाहिए । घर या गांव में आग लग जाने पर ‘जलशायी’ का स्मरण करना चाहिए–अग्निदाहे समुत्पन्ने संस्मरेज्जलशायिनम् ।

–अत्यन्त घोर अंधकार में डाकू तथा शत्रुओं की संभावना होने पर मनुष्य को बारम्बार ’नरसिंह’ नाम का स्मरण करना चाहिए ।

–‘गरुणध्वज’ नाम के बारम्बार स्मरण से मनुष्य से सर्पविष का प्रभाव दूर हो जाता है ।

–युद्ध के लिए जाते समय ‘अपराजित’ नाम का स्मरण करना चाहिए–संग्रामाभिमुखे गच्छन् संस्मरेदपराजितम् ।

–सम्पूर्ण अरिष्टों के निवारण के लिए सदा ‘विशोक’ नाम का जप करना चाहिए–अरिष्टेषु ह्यशेषेषु विशोकं च सदा जपेत् ।

–बंधन में पड़ा हुआ मनुष्य नित्य ही’ दामोदर’ नाम का जप करे–दामोदरं बन्धगतो नित्यमेव जपेन्नर: ।

–भय-नाश के लिए ‘हृषीकेश’ नाम का स्मरण करना चाहिए–हृषीकेशं भयेषु च ।

–सब प्रकार के अभ्युदय के लिए ‘श्रीश’ व ’श्रीपति’ नाम का बार-बार उच्चारण करना चाहिए–श्रीशं सर्वाभ्युदयिके कर्मण्याशु प्रकीर्तयेत् ।

–धन-धान्यादि की स्थापना के समय मनुष्य को श्रद्धापूर्वक ‘अनन्त’ व ‘अच्युत’ इन नामों का स्मरण करना चाहिए ।

–परदेश जाते समय या परदेश में रहते समय कल्याण चाहने वाले व्यक्ति को ‘चक्री’ (चक्रपाणि), ‘गदी’ (गदाधर), ‘शांर्गी’ (शांर्गधर) तथा ‘खंगी’ (खंगधर)–इन नामों का स्मरण करना चाहिए ।

–मांगलिक कार्यों में मंगलकारी ‘श्रीविष्णु’ का स्मरण करें–मंगल्यं मंगले विष्णुं मंगल्येषु च कीर्तयेत् ।

–युद्ध के समय युद्धार्थी मनुष्य ‘बलभद्र’ का स्मरण करे–बलभद्रं तु युद्धार्थी ।

–खेती के आरम्भ में किसान ‘हलायुध’ का स्मरण करे–कृष्यारम्भे हलायुधम् ।

–व्यापार करने वाले वैश्य ‘उत्तारण’ का चिन्तन करें व अभ्युदय की इच्छा रखने वाला ‘राम’ का स्मरण करे–उत्तारणं वणिज्यार्थी राममभ्युदये नृप ।

–अभीष्ट कामना की सिद्धि के लिए ‘काम’, ‘कामप्रद’, ‘कान्त’, ‘कामपाल’, ‘हरि’, ‘आनन्द’ और ‘माधव’–इन नामों का जप करना चाहिए–काम: कामप्रद: कान्त: कामपालस्तथा हरि: । आनन्दो माधवश्चैव कामसंसिद्धये जपेत् ।।

–शत्रुओं पर विजय पाने की इच्छा वाले लोगों को ‘राम’, ‘परशुराम’, ‘नृसिंह’, ‘विष्णु’ तथा ‘विक्रम’ इन भगवन्नामों का जप करना चाहिए ।

–स्वेच्छा या परइच्छावश किसी निर्जन स्थान में पहुंचने पर, आंधी-तूफान, अग्नि (दावानल), अगाध जलराशि में फंसने पर जब प्राण संकट में हों तो बुद्धिमान मनुष्य को ‘वासुदेव’ नाम का जप करना चाहिए ।

–समस्त व्यवहारों में सदा मनुष्य ‘अजित’, ‘अधिप’, ‘सर्व’ तथा‘सर्वेश्वर’–इन नामों का स्मरण करे ।

–हर समय मानव  ‘मधुसूदन’ का चिन्तन करें ।

—आर्त, दु:खी, शिथिल व घोर वन में सिंह आदि से भयभीत मनुष्य को ‘नारायण’ नाम का स्मरण करना चाहिए —

आर्ता विषण्णा: शिथिलाश्च भीता,
घोरेषु च व्याघ्रादिषु वर्तमाना: ।
संकीर्त्य नारायण शब्दमात्रं,
विमुक्तदु:खा: सुखिनो भवन्ति ।। (पाण्डव-गीता)

—श्रीमद्भागवत (३।९।१५) में ब्रह्माजी कहते हैं–’जो लोग प्राण जाते समय आपके अवतार, गुण और कर्मों को बताने वाले देवकीनन्दन, भक्तवत्सल, गोवर्धनधारी आदि नामों का विवश होकर भी उच्चारण करते हैं, वे अनेक जन्मों के पापों से अमृत ब्रह्मपद को प्राप्त करते हैं ।’

—जैसे आग बुझा देने के लिए जल और अन्धकार को नष्ट कर देने के लिए सूर्योदय समर्थ है, उसी प्रकार कलियुग की पापराशि का शमन में ‘श्रीहरि’  और ‘गोविन्द’ नाम का कीर्तन समर्थ है ।

—श्रीमद्भागवत (१२।१२।४६) के अनुसार–’जो मनुष्य गिरते-पड़ते, फिसलते, दु:ख भोगते अथवा छींकते समय विवशता से भी ऊंचे स्वर में ‘हरये नम:’ बोल उठता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है ।’

—भगवत्प्राप्ति के लिए—

पुरानन को पार नहिं बेदन को अंत नहिं,
बानी तो अपार कहाँ-कहाँ चित्त दीजिए।
लाखन की एक कहूँ, कहूँ एक करोड़न की,
बही को सार एक रामनाम लीजिए ।।

भगवान के सभी नाम समान महत्त्व रखते हैं, किसी भी नाम में ऊंच-नीच का भाव नहीं रखना चाहिए क्योंकि भगवान के नाम मनुष्य के पथ-प्रदर्शक, प्रकाश-स्तम्भ, अपार शक्ति-सम्पन्न और भवसागर से पार उतारने वाले हैं ।

रविवार, 8 मार्च 2020

हरसिंगार का औषधीय गुण

हरसिंगार : हर बीमारी में असरदार, जानें 10 लाभ

नारंगी डंडी वाले सफेद खूबसूरत और महकते हरसिंगार के फूलों को आपने जरूर देखा होगा। लेकिन क्या आपने कभी हरसिंगार की पत्तियों से बनी चाय पी है? या फि‍र इसके फूल, बीज या छाल का प्रयोग स्वास्थ्य एवं सौंदर्य उपचार के लिए क्या है?  आप नहीं जानते तो, जरूर जान लीजिए इसके चमत्कारी औषधीय गुणों के बारे में। इसे जानने के बाद आप हैरान हो जाएंगे...

हरसिंगार के फूलों से लेकर पत्त‍ियां, छाल एवं बीज भी बेहद उपयोगी हैं। इसकी चाय, न केवल स्वाद में बेहतरीन होती है बल्कि सेहत के गुणों से भी भरपूर है। इस चाय को आप अलग-अलग तरीकों से बना सकते हैं और सेहत व सौंदर्य के कई फायदे पा सकते हैं। जानिए विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं के लिए इसके लाभ और चाय बनाने का तरीका -

वि‍धि 1 : हरसिंगार की चाय बनाने के लिए इसकी दो पत्तियां और एक फूल के साथ तुलसी की कुछ पत्त‍ियां लीजिए और इन्हें 1 गिलास पानी में उबालें। जब यह अच्छी तरह से उबल जाए तो इसे छानकर गुनबुना या ठंडा करके पी लें। आप चाहें तो स्वाद के लिए शहद या मिश्री भी डाल सकते हैं। यह खांसी में फायदेमंद है।

वि‍धि 2 : हरसिंगार के दो पत्ते और चार फूलों को पांच से 6 कप पानी में उबालकर, 5 कप चाय आसानी से बनाई जा सकती है। इसमें दूध का इस्तेमाल नहीं होता। यह स्फूर्तिदायक होती है।

चाय के अलावा भी हरसिंगार के वृक्ष के कई औषधीय लाभ हैं। जानिए कौन-कौन सी बीमारियों में कैसे करें इसका इस्तेमाल -

1 जोड़ों में दर्द - हरसिंगार के 6 से 7 पत्ते तोड़कर इन्हें पीस लें। पीसने के बाद इस पेस्ट को पानी में डालकर तब तक उबालें जब तक कि इसकी मात्रा आधी न हो जाए। अब इसे ठंडा करके प्रतिदिन सुबह खालीपेट पिएं। नियमित रूप से इसका सेवन करने से जोड़ों से संबंधित अन्य समस्याएं भी समाप्त हो जाएगी।

2 खांसी - खांसी हो या सूखी खांसी, हरसिंगार के पत्तों को पानी में उबालकर पीने से बिल्कुल खत्म की जा सकती है। आप चाहें तो इसे सामान्य चाय में उबालकर पी सकते हैं या फिर पीसकर शहद के साथ भी प्रयोग कर सकते हैं।

3 बुखार - किसी भी प्रकार के बुखार में हरसिंगार की पत्तियों की चाय पीना बेहद लाभप्रद होता है। डेंगू से लेकर मलेरिया या फिर चिकनगुनिया तक, हर तरह के बूखार को खत्म करने की क्षमता इसमें होती है।

4 साइटिका - दो कप पानी में हरसिंगार के लगभग 8 से 10 पत्तों को धीमी आंच पर उबालें और आधा रह जाने पर इसे अंच से उतार लें। ठंडा हो जाने पर इसे सुबह शाम खाली पेट पिएं। एक सप्ताह में आप फर्क महसूस करेंगे।

5 बवासीर - हरसिंगार को बवासीर या पाइल्स के लिए बेहद उपयोगी औषधि माना गया है। इसके लिए हरसिंगार के बीज का सेवन या फिर उनका लेप बनाकर संबंधित स्थान पर लगाना फायदेमंद है।

6 त्वचा के लिए - हरसिंगार की पत्त‍ियों को पीसकर लगाने से त्वचा संबंधी समस्याएं समाप्त होती हैं। इसके फूल का पेस्ट बनाकर चेहरे पर लगाने से चेहरा उजला और चमकदार हो जाता है।

7 हृदय रोग - हृदय रोगों के लिए हरसिंगार का प्रयोग बेहद लाभकारी है। इस के 15 से 20 फूलों या इसके रस का सेवन करना हृदय रोग से बचाने में कारगर है।

8 दर्द - हाथ-पैरों व मांसपेशियों में दर्द व खिंचाव होने पर हरसिंगार के पत्तों के रस में बराबर मात्रा में अदरक का रस मिलाकर पीने से फायदा होता है।

9 अस्थमा - सांस संबंधी रोगों में हरसिंगार की छाल का चूर्ण बनाकर पान के पत्ते में डालकर खाने से लाभ होता है। इसका प्रयोग सुबह और शाम को किया जा सकता है।

10 प्रतिरोधक क्षमता - हरसिंगार के पत्तों का रस या फिर इसकी चाय बनाकर नियमित रूप से पीने पर शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और शरीर हर प्रकार के रोग से लड़ने में सक्षम होता है। इसके अलावा पेट में कीड़े होना, गंजापन, स्त्री रोगों में भी बेहद फायदेमंद है।

गुरुवार, 5 मार्च 2020

घर में पूजा अर्चना करने का सही तरीका

घर पर पूजा-पाठ करने का क्या है सही विधि!!!!!!!

कोई भी शुभ काम शुरू करने से पहले या फिर किसी काम में सफलता प्राप्त करने के लिए सभी लोग अक्सर घर में पूजा पाठ करवाते हैं, ताकि उन्हें अपने लक्ष्य में सफलता मिल सके।

अपनी मनोकामना जल्दी पूरी हो सके, इसके लिए घर में पूजा-पाठ और मांगलिक उत्सव करने का सही तरीका इस प्रकार हैं :- और उसके लिए पूजा-पाठ करते समय इन बातों का ध्यान रखना चाहिए..

*घर में पूजा-पाठ का सही स्थान क्या हो..??*
:
-घर में हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा में ही मंदिर का स्थान रखें।

-घर का मंदिर हमेशा लकड़ी का बना होना चाहिए।
-घर के मंदिर के आसपास कोई गंदगी न हो। उसे हमेशा साफ-सुथरा ही रखें।
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*घर के मंदिर का मुख्य रंग क्या हो..??*
:
-मंदिर का सही रंग हल्का पीला या नारंगी होना चाहिए।

-घर के मंदिर में हमेशा हल्की पीली लाइट का प्रयोग करना चाहिए।

-मंदिर में गहरे नीले रंग का प्रयोग नहीं करें।
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*घर के मंदिर में क्या-क्या रखना चाहिए..??*
:
-घर के मंदिर में हलके पीले रंग का या लाल रंग का वस्त्र बिछाएं।

-भगवान गणपति और महालक्ष्मी का स्वरूप रखें।

-अपने इष्ट और अपने कुल गुरु का चित्र अवश्य रखें।

-एक तांबे के लोटे में गंगाजल भरकर रखें।
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*घर का मंदिर बनाते समय क्या-क्या सावधानी बरते..??*
:
-घर का मंदिर दक्षिण-पश्चिम दिशा में न बनाएं।
-मंदिर के आसपास कोई गंदगी न हो।
-मंदिर शौचालय के पास बिल्कुल न बनाएं।
-मंदिर के आसपास जूते-चप्पल कभी भी न रखें।
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*कौन-सी दिशा में बैठकर भजन कीर्तन जाप किया जाए..??*
:
-हमेशा भजन कीर्तन पूर्व या उत्तर दिशा में मुंह करके किया जाए तो सर्वोत्तम रहता है। अन्य किसी दिशा में किया गया भजन कीर्तन मन में उत्साह नहीं ला पाता।

-भजन कीर्तन करने से पहले भगवान मंगल मूर्ति के चित्र को हमेशा स्थापित करें उसके बाद ही भजन कीर्तन शुरू करें।

-जिस देवी-देवता का भजन किया जा रहा है उसके चित्र के सामने गाय के घी का दीपक और धूप अवश्य जलाएं व जल का पात्र भी रखें।
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*भजन कीर्तन में बरतें ये सावधानियां..*
:
-भजन कीर्तन करते समय इधर-उधर की बातों में ध्यान न दें।

-हमेशा शुद्ध और साफ वस्त्र पहनकर ही भजन कीर्तन करें।

-भजन कीर्तन में शुद्ध मिठाई और साफ-सुथरे फलों का प्रयोग करें।

-हमेशा भजन कीर्तन में गाय के घी का दीपक और कलावे की बाती का प्रयोग करें।
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*घर में पूजा पाठ और जाप का पूरा फल पाने के लिए करें उपाय..*
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-घर में पूजा-पाठ करते समय श्वेत गुलाबी या हल्के पीले वस्त्र पहनकर ही पूजा करें।

-हमेशा लाल या पीले आसन पर बैठकर ही मंत्र जाप करें।

-जाप हमेशा लाल चंदन की माला या रुद्राक्ष की माला से करें।

-जाप शुरू करने से पहले भगवान गणपति व गुरु और अपने इष्ट का ध्यान करना चाहिए। उसके बाद ही जाप शुरू करें।
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*सभी तरह की परेशानियों को दूर करने के उपाय..*
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-घर में अकारण कलह रहती हो तो प्रतिदिन सुबह गायत्री मंत्र का 108 बार जाप करें।

-घर में यदि कोई बीमार रहता हो तो महामृत्युंजय मंत्र का जाप करें और शिवलिंग पर कच्चा दूध चढ़ाएं।

-घर में धन की कमी हो तो श्री नारायण भगवान को पीले पुष्प चढ़ाएं।

-घर में नकारात्मक ऊर्जा के प्रवेश को रोकने के लिए घर के मुख्य द्वार पर आम के पत्तों की बंदनवार लगाएं..!!
 जय श्री राम

रविवार, 1 मार्च 2020

विवाहिता स्त्री को गुरू बनाना चाहिये या नहीं

*हरि🕉विवाहिता स्त्री को गुरू  बनाना  चाहिये या नहीं ?*
🕉🙏🏻🕉🙏🏻🕉🙏🏻🕉🙏🏻
आइए इसके बारे में हमारे शास्त्र क्या कहते हैं
जरा वह देखें ।

1-  _*गुरूग्निद्विर्जातिनां वर्णाणां ब्रह्मणो गुरूः।*_
_*पतिरेकोगुरू स्त्रीणां सर्वस्याम्यगतो गुरूः।।*_
_(पदम पुं . स्वर्ग खं 40-75)_

अर्थ : *अग्नि ब्राह्मणो का गुरू है।*
*अन्य वर्णो का ब्राह्मण गुरू है।*
*एक मात्र उनका पति ही स्त्रीयों का गुरू है*
*तथा अतिथि सब का गुरू है।*

2-  _*पतिर्बन्धु गतिर्भर्ता दैवतं गुरूरेव च।*_
_*सर्वस्याच्च परः स्वामी न गुरू स्वामीनः परः।।*_
_(ब्रह्मवैवतं पु. कृष्ण जन्म खं 57-11)_

अर्थ > *स्त्रीयों का सच्चा बन्धु पति है, पति ही उसकी गति है। पति ही उसका एक मात्र देवता है। पति ही उसका स्वामी है और स्वामी से ऊपर उसका कोई गुरू नहीं।।*

3-  _*भर्ता देवो गुरूर्भता धर्मतीर्थव्रतानी च।*_
_*तस्मात सर्वं परित्यज्य पतिमेकं समर्चयेत्।।*_
(स्कन्द पु. काशी खण्ड पूर्व 30-48)

अर्थ > *स्त्रीयों के लिए पति ही इष्ट देवता है। पति ही गुरू है। पति ही धर्म है, तीर्थ और व्रत आदि है। स्त्री को पृथक कुछ करना अपेक्षित नहीं है।*

4-  _*दुःशीलो दुर्भगो वृध्दो जड़ो रोग्यधनोSपि वा।*_
_*पतिः स्त्रीभिर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरपातकी।।*_
(श्रीमद् भा. 10-29-25)

अर्थ > *पतिव्रता स्त्री को पति के अलावा और किसी को पूजना नहीं चाहिए, चाहे पति बुरे स्वभाव वाला हो, भाग्यहीन, वृध्द, मुर्ख, रोगी या निर्धन हो। पर वह पातकी न होना चाहिए।*

वेदों, पुराणों, भागवत आदि शास्त्रो ने स्त्री को बाहर का गुरू न करने के लिए कहा यह शास्त्रों के उपरोक्त श्लोकों से ज्ञात होता है। *आज हर स्त्री बाहर के गुरूओं के पीछे पागलों की तरह पड जाती हैं तथा उनके पीछे अपने पति की कड़े परिश्रम की कमाई लुटाती फिरती हैं।*

*आज सत्संग* *आध्यात्मिक ज्ञान की जगह न होकर व्यापारिक स्थल* बन गया है।

इसलिए सावधान हो जाइये.

*गुरू करने से पहले देख लो कि वह गुरू जिन शास्त्रों का सहारा लेकर हमें ज्ञान दे रहा है, वह स्वयं उस पर कितना चल रहा है?*

हिन्दू धर्म में पति के रहते किसी को गुरु बनाने की इजाजत नहीं है।

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...