उच्छिष्टभोजन- भगवान् ने गीताजी में कहा हैं ---> उच्छिष्टमपि_चामेध्यं_भोजनं_तामसप्रियम् ॥ १७/१० ॥ जो भोजन उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुषों को प्रिय होते हैं । *महाभारत* में भी जगह-जगह आहार के सम्बन्ध में कठोर नियमों का उल्लेख हैं। ----> शूद्रस्य_तु_कुलं_हन्ति_वैश्यस्य_पशुबान्धवम्।क्षत्रियस्य_श्रियं_हन्ति_ब्राह्मणस्य_सुवर्चसम्।।तथोच्छिष्टमथान्योन्यं_संप्राशेन्नात्र_संशयः।।महा०अ०१३६/२३-२६।। अर्थात् शूद्र का शूद्र के साथ एक पात्र में भोजन करने से उसका कुलक्षय, वैश्य का वैश्य के साथ एक पात्र में भोजन करने से उसके पशु और बान्धव का, क्षत्रिय का क्षत्रिय के साथ एक पात्र में भोजन करने से श्री का नाश एवं ब्राह्मण का ब्राह्मण के साथ एक पात्र में भोजन करने से उनका तेज का नाश होता हैं। अतएव एक दूसरे का जूठा खाना यानी कई लोगों का का एक पात्र में भोजन करना अत्यन्त अवाञ्छनीय हैं। आजकल तो एक-दूसरे का जूठा खाने में लोग गौरव समझतें हैं। यही नहीं परंतु ब्राह्मण पति-पत्नी को भी परस्पर जूठा खाने में कहा हैं कि - "स्त्रिया सह भोजनेऽपि न दोष इत्याह-> *(एकयानसमार...
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