सोमवार, 28 सितंबर 2020

पंच-कन्या

 *💐 पवित्र कन्याओं का रहस्य 💐*



अहल्या द्रौपदी तारा कुंती मंदोदरी तथा। 

पंचकन्या: स्मरेतन्नित्यं महापातकनाशम्॥


पुराणानुसार पांच स्त्रियां विवाहिता होने पर भी कन्याओं के समान ही पवित्र मानी गई है। अहिल्या, द्रौपदी, कुन्ती, तारा और मंदोदरी। 


हिन्दू धर्म से जुड़ी पौराणिक कथाओं में ज्यादातर प्रसिद्ध पात्र पुरुषों के ही हैं। पुरुषों को ही महायोद्धा, अवतार आदि का दर्जा दिया गया और उन्हीं से जुड़े चमत्कारों का भी वर्णन हुआ। लेकिन उनके जीवन से जुड़ी महिलाएं, जिनके बिना उनका अपने उद्देश्यों को प्राप्त करना तक मुश्किल था, उन्हें मात्र एक भूमिका में लाकर छोड़ दिया गया।

 

यही वजह है कि पौराणिक स्त्रियां जैसे मंदोदरी रावण की अर्धांगिनी के तौर पर, तारा को बाली की पत्नी के बतौर, अहिल्या को गौतम ऋषि की पत्नी के रूप में, कुंती और द्रौपदी को पांडवों की माता और पत्नी के रूप में ही जाना जाता है।

 

पंचकन्या : हिन्दू धर्म में इन पांचों स्त्रियों को पंचकन्याओं का दर्जा दिया गया है। जिस स्वरूप में हम अपने पौराणिक इतिहास को देखते हैं, उसे विशिष्ट स्वरूप को गढ़ने का श्रेय इन स्त्रियों को देना शायद अतिश्योक्ति नहीं कहा जाएगा।

 

पंचकन्याओं का जीवन : मंदोदरी, अहिल्या और तारा का संबंध रामायण काल से है, वहीं द्रौपदी और कुंती, महाभारत से संबंधित हैं। ये पांचों स्त्रियां दिव्य थीं, एक से ज्यादा पुरुषों के साथ संबंध होने के बाद भी इन्हें बेहद पवित्र माना गया। आइए जानते हैं पंचकन्याओं के बारे में, क्या था इनका जीवन।

 

पहली पंचकन्या अहिल्या : - पद्मपुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार देवराज इन्द्र स्वर्गलोक में अप्सराओं से घिरे रहने के बाद भी कामवासना से घिरे रहते थे। एक दिन वो धरती पर विचरण कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि एक कुटिया के बाहर गौतम ऋषि की पत्नी देवी अहिल्या दैनिक कार्यों में व्यस्त हैं। अहिल्या इतनी सुंदर और रूपवती थी कि इन्द्र उन्हें देखकर मोहित हो गए। इस तरह इन्द्र रोजाना देवी अहिल्या को देखने के लिए कुटिया के बाहर आने लगे। धीरे-धीरे उन्हें गौतम ऋषि की दिनचर्या के बारे में पता चलने लगा। इन्द्र को अहिल्या के रूप को पाने की एक युक्ति सूझी। उन्होंने सुबह गौतम ऋषि के वेश में आकर अहिल्या के साथ कामक्रीडा करने की योजना बनाई क्योंकि सूर्य उदय होने से पूर्व ही गौतम ऋषि नदी में स्नान करने के लिए चले जाते थे।

 

इसके बाद करीब 2-3 घंटे बाद पूजा करने के बाद आते थे। इन्द्र आधी रात से ही कुटिया के बाहर छिपकर ऋषि के जाने की प्रतीक्षा करने लगे। इस दौरान इन्द्र की कामेच्छा उनपर इतनी हावी हो गई कि उन्हें एक और योजना सूझी। उन्होंने अपनी माया से ऐसा वातावरण बनाया जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि सुबह हो गई हो। ये देखकर गौतम ऋषि कुटिया से बाहर चले गए। उनके जाने के कुछ समय बाद इन्द्र ने गौतम ऋषि का वेश बनाकर कुटिया में प्रवेश किया। उन्होंने आते ही कहा अहिल्या से प्रणय निवेदन किया.।

 

अपने पति द्वारा इस तरह के विचित्र व्यवहार को देखकर पहले तो देवी अहिल्या को शंका हुई लेकिन इन्द्र के छल-कपट से सराबोर मीठी बातों को सुनकर अहिल्या भी अपने पति के स्नेह में सबकुछ भूल बैठी। दूसरी तरफ नदी के पास जाने पर गौतम ऋषि ने आसपास का वातावरण देखा जिससे उन्हें अनुभव हुआ कि अभी भोर नहीं हुई है। वो किसी अनहोनी की कल्पना करके अपने घर पहुंचे। वहां जाकर उन्होंने देखा कि उनके वेश में कोई दूसरा पुरुष उनकी पत्नी के साथ रति क्रियाएं कर रहा है।

 

ये देखते ही वो क्रोध से व्याकुल हो उठे। वहीं दूसरी ओर उनकी पत्नी ने जब अपने पति को अपने सामने खड़ा पाया तो उन्हें सारी बात समझ में आने लगी। अंजाने में किए गए अपराध को सोचकर उनका चेहरा पीला पड़ गया। इन्द्र भी भयभीत हो गए। क्रोध से भरकर गौतम ऋषि ने इन्द्र से कहा ‘मूर्ख, तूने मेरी पत्नी का स्त्रीत्व भंग किया है। उसकी योनि को पाने की इच्छा मात्र के लिए तूने इतना बड़ा अपराध कर दिया। यदि तुझे स्त्री योनि को पाने की इतनी ही लालसा है तो मैं तुझे श्राप देता हूं कि अभी इसी समय तेरे पूरे शरीर पर हजार योनियां उत्पन्न हो जाएगी’। 

 

कुछ ही पलों में श्राप का प्रभाव इन्द्र के शरीर पर पड़ने लगा और उनके पूरे शरीर पर स्त्री योनियां निकल आई। ये देखकर इन्द्र आत्मग्लानिता से भर उठे। उन्होंने हाथ जोड़कर गौतम ऋषि से श्राप मुक्ति की प्रार्थना की। ऋषि ने इन्द्र पर दया करते हुए हजार योनियों को हजार आंखों में बदल दिया। वहीं दूसरी ओर अपनी पत्नी को शिला में बदल दिया। बाद में प्रभु श्रीराम ने उनका पैरों से स्पर्श कर उद्धार किया।  


 इन्द्र को ‘देवराज’ की उपाधि देने के साथ ही उन्हें देवताओं का राजा भी माना जाता है लेकिन उनकी पूजा एक भगवान के तौर पर नहीं की जाती। इन्द्र द्वारा ऐसे ही अपराधों के कारण उन्हें दूसरे देवताओं की तुलना में ज्यादा आदर- सत्कार नहीं दिया जाता। 


दूसरी पंचकन्या तारा  : - किष्किंधा की महारानी और बाली की पत्नी तारा का पंचकन्याओं में दूसरा स्थान है। कुछ ग्रंथों के अनुसार तारा, बृहस्पति की पौत्री थीं तो कुछ के अनुसार समुद्र मंथन के समय निकली मणियों में से एक मणि तारा थी। तारा इतनी खूबसूरत थी कि देवता और असुर सभी उनसे विवाह करना चाहते थे।

 

बाली की पत्नी : बाली और सुषेण, मंथन में देवताओं के सहायक के तौर पर मौजूद थे। जब तारा क्षीर सागर से निकली तब दोनों ने ही उनसे विवाह करने की इच्छा प्रकट की। बाली, तारा के दाहिनी तरफ खड़ा था और सुषेण उनकी बाईं ओर। तब विष्णु ने इस समस्या का हल किया कि जो व्यक्ति कन्या की दाहिनी ओर खड़ा होता है वह उसका पति और बाईं ओर खड़ा होने वाला उसका पिता होता है। ऐसे में बालि को तारा का पति घोषित किया गया।

 

सुग्रीव के साथ युद्ध :  - असुरों के साथ युद्ध के दौरान बाली की मृत्यु को प्राप्त जैसी अफवाह उड़ने पर सुग्रीव ने बाली की पत्नी के साथ विवाह कर खुद को किष्किंधा का सम्राट घोषित कर दिया। लेकिन जब बाली वापस आया तब उसने अपने भाई से राज्य और अपनी पत्नी को हासिल करने के लिए आक्रमण कर दिया।

 

बाली ने सुग्रीव को अपने राज्य से बाहर कर दिया और साथ ही उसकी प्रिय पत्नी रुमा को अपने पास ही रखा। जब सुग्रीव को राम का साथ प्राप्त हुआ तब उसने वापस आकर फिर बाली को युद्ध के लिए ललकारा।

 

तारा का सुझाव : तारा समझ गई कि सुग्रीव के पास अकेले बाली का सामना करने की ताकत नहीं है इसलिए हो ना हो उसे राम का समर्थन प्राप्त हुआ है। उसने बाली को समझाने की कोशिश भी की लेकिन बाली ने समझा कि सुग्रीव को बचाने के लिए तारा उसका पक्ष ले रही है। बाली ने तारा का त्याग कर दिया और सुग्रीव से युद्ध करने चला गया।

 

बाली का कथन : जब राम की सहायता से सुग्रीव ने बाली का वध किया तो मृत्यु शैया पर रहते हुए बाली ने अपने भाई सुग्रीव से कहा कि वे हर मामले में तारा का सुझाव अवश्य लें, तारा के परामर्श के बिना कोई भी कदम उठाना भारी पड़ सकता है।


तीसरी पंचकन्या मंदोदरी  : - मंदोदरी तीसरा नाम है असुर सम्राट रावण की पत्नी मंदोदरी का, जिसने रावण की हर बुरे कदम पर खेद प्रकट किया और उसे हर बुरा काम करने से रोका। हिन्दू पौराणिक ग्रंथों में मंदोदरी को एक ऐसी स्त्री के रूप में दर्शाया गया है जो हमेशा सत्य के मार्ग पर चली। मंदोदरी, असुर राजा मयासुर और हेमा नामक अप्सरा की पुत्री थी। मंदोदरी की सुंदरता पर मुग्ध होकर रावण ने उससे विवाह किया था।

 

पंच कन्याओं में से एक मंदोदरी को चिर कुमारी के नाम से भी जाना जाता है। मंदोदरी अपने पति द्वारा किए गए बुरे कार्यों से अच्छी तरह वाकिफ थी, वह हमेशा रावण को यही सलाह देती थी कि बुराई के मार्ग को त्याग कर सत्य की शरण में आ जाए, लेकिन अपनी ताकत पर गुमान करने वाले रावण ने कभी मंदोदरी की बात को गंभीरता से नहीं लिया।

 

रावण की मृत्यु के पश्चात, भगवान राम के कहने पर विभीषण ने मंदोदरी से विवाह किया था। 

 

चौथी पंचकन्या कुंती : -  रामायण काल के बाद चौथा नाम आता है कुंती का। हस्तिनापुर के राजा पांडु की पत्नी और तीन ज्येष्ठ पांडवों की माता, कुंती को ऋषि दुर्वासा ने एक ऐसा मंत्र दिया था, जिसके अनुसार वह जिस भी देवता का ध्यान कर उस मंत्र का जाप करेंगी, वह देवता उन्हें पुत्र रत्न प्रदान करेगा।

 

मंत्र का प्रभाव : कुंती को इस मंत्र के प्रभावों को जानना था इसलिए एक दिन उन्होंने भगवान सूर्य का ध्यान कर उस मंत्र का जाप आरंभ किया। सूर्य देव ने प्रकट हुए और उन्हें एक पुत्र प्रदान किया। वह पुत्र कर्ण था, लेकिन उस समय कुंती अविवाहित थी इसलिए उन्हें कर्ण का त्याग करना पड़ा।

 

स्वयंवर में कुंती और पांडु का विवाह हुआ। पांडु को एक ऋषि द्वारा यह श्राप मिला हुआ था कि जब भी वह किसी स्त्री का स्पर्श करेगा, उसकी मृत्यु हो जाएगी। पांडु की मृत्यु के पश्चात कुंती ने धर्म देव को याद कर उनसे युधिष्ठिर, वायु देव से भीम और इन्द्र देव से अर्जुन को प्राप्त किया।

 

माद्री की प्रार्थना :  - पांडु की दूसरी पत्नी माद्री  ने कुंती से इस मंत्र का जाप कर पुत्र प्राप्त करने की अनुमति मांगी, जिसे कुंती ने स्वीकार कर लिया। अश्विनी कुमार को याद कर माद्री ने उनसे नकुल और सहदेव को प्राप्त किया।

 

पांचवीं पंच कन्या द्रौपदी : -  महाभारत की नायिका द्रौपदी भी पंच कन्याओं में से एक हैं। पांच पतियों की पत्नी बनने वाली द्रौपदी का व्यक्तित्व काफी मजबूत था। स्वयंवर  के दौरान अर्जुन को अपना पति स्वीकार करने वाली द्रौपदी को कुंती के कहने पर पांचों भाइयों की पत्नी बनकर रहना पड़ा।

 

काली का अवतार : द्रौपदी को वेद व्यास ने यह वरदान दिया था कि पांचों भाइयों की पत्नी होने के बाद भी उसका कौमार्य कायम रहेगा।


 प्रत्येक पांडव से द्रौपदी को एक-एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। चौपड़ के खेल में हारने के बाद जब पांडवों को अज्ञातवास और वनवास की सजा हुई, तब द्रौपदी ने भी उनके साथ सजा का पालन किया। कुरुक्षेत्र के युद्ध में अपने पुत्र, पिता और भाई को खोने वाली द्रौपदी को कुछ ग्रंथों में मां काली तो कुछ में धन की देवी लक्ष्मी का अवतार भी कहा जाता है।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

पुरुषोत्तम मास - विशेष

 .                             "पुरुषोत्तम मास व्रत"



           पुरुषोत्तम व्रत करने वाले को क्या भोजन करना चाहिए और क्या नहीं, क्या वर्ज्य है और क्या अवर्ज्य इसके संबंध में श्रीवाल्मीकि ऋषि ने कहा है :- 

          पुरुषोत्तम मास में एक समय हविष्यान्न भोजन करना चाहिए। भोजन में गेहूँ, चावल, सफेद धान, जौ, मूंग, तिल, बथुआ, मटर, चौलाई, ककड़ी, केला, आंवला, दही, दूध, घी, आम, हर्रे, पीपल, जीरा, सोंठ, सेंधा नमक, इमली, पान-सुपारी, कटहल, शहतूत, सामक, मेथी आदि का सेवन करना चाहिए। केवल सावां या केवल जौ पर रहना अधिक हितकर है। माखन-मिस्री पथ्य है। गुड़ नहीं खाना चाहिए, लेकिन ऊख का या ऊख के रस का सेवन करना चाहिए। मांस, शहद, चावल का मांड़, उड़द, राई, मसूर की दाल, बकरी, भैंस और भेड़ का दूध ये सब त्याज्य कहा हैं। काशीफल (कुम्हड़ा), मूली, प्याज, लहसुन, गाजर, बैगन, नालिका आदि का सेवन वर्जित है। तिलका तेल, दूषित अन्न, बासी अन्न आदि भी ग्रहण न करें। अभक्ष्य और नशे की चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए। फलाहार पर रहें और संभव हो तो कृच्छ-चांद्रायण व्रत करें। इस मास ब्रह्मचर्य का पालन और पृथ्वी पर शयन करना करें। थाली में भोजन न करें, बल्कि पलाश के बने पत्तल पर भोजन करें। रजस्वला स्त्री और धर्मभ्रष्ट तथा संस्कार रहित लोगों से दूर रहें। परस्त्री का भूलकर भी स्पर्श नहीं करें। इस मास वैष्णव की सेवा करनी चाहिए। वैष्णवों को भोजन कराना बहुत पुण्यप्रद होता है। पुरुषोत्तम मास के व्रती को शिव या अन्य देवी-देवता, ब्राह्मण, वेद, गुरु, गौ, साधु-संन्यासी, स्त्री, धर्म और प्राज्ञगणों की निंदा भूलकर भी न तो करनी और न ही सुननी चाहिए। तांबे के पात्र में दूध, चमड़े के पात्र में पानी तथा केवल अपने लिए पकाया हुआ अन्न ये सब दूषित माने गए हैं। अतएव इनका परित्याग करना चाहिए। दिन में सोना नहीं चाहिए। 

         यदि संभव हो, तो मास के अंत में उद्यापन के लिए एक मंडप की व्यवस्था कर योग्य पंडित द्वारा भगवान की षोडशोपचार पूजा कराकर चार-पांच वेदविद् ब्राह्मणों द्वारा चतुर्व्यूह का जप कराना चाहिए। फिर दशांश हवन कराकर नारियल का होम करना चाहिए। गौओं को घास तथा दाना देना चाहिए। ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। वैष्णवों को यथाशक्ति वसु-सोना, चांदी आदि एवं गाय, घी, अन्न, वस्त्र, पात्र, जूता, छाता आदि और गीता-भागवत आदि पुस्तकों का दान करना चाहिए। कांसे के बर्तन में तीस पूए रखकर संपुट करके ब्राह्मण-वैष्णव को दान करने वाला अक्षय पुण्य का भागी होता है।

        पुरुषोत्तम मास में भक्ति पूर्वक अध्यात्म विद्या का श्रवण करने से ब्रह्म-हत्यादि जनित पाप नष्ट होते हैं। पितृगण मोक्ष को प्राप्त होते हैं तथा दिन-प्रतिदिन अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। यह व्रत निष्काम भाव से किया जाए, तो व्यक्ति पापमुक्त हो जाता है।

                      

जय जय श्री हरि"

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

वैभव-लक्ष्मी व्रत कथा , विधि और महात्म्य

 श्री वैभव लक्ष्मी व्रत विधि, कथा और महात्मय


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सुख, शांति, वैभव और लक्ष्मी प्राप्ति के लिए वैभव लक्ष्मी व्रत करने का नियम

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👉 यह व्रत सौभाग्यशाली स्त्रियां करें तो उनका अति उत्तम फल मिलता है, पर घर में यदि सौभाग्यशाली स्त्रियां न हों तो कोई भी स्त्री एवं कुमारिका भी यह व्रत कर सकती है। स्त्री के बदले पुरुष भी यह व्रत करें तो उसे भी उत्तम फल अवश्य मिलता है। खिन्न होकर या बिना भाव से यह व्रत नहीं करना चाहिए। 


👉 यह व्रत किसी भी मास के शुल्क पक्ष प्रथम शुक्रवार से आरम्भ किया जाता है। व्रत शुरु करते वक्त 11 या 21 शुक्रवार का  संकल्प करना चाहिये और बताई गई शास्त्रीय विधि अनुसार ही व्रत करना चाहिए। संकल्प के शुक्रवार पूरे होने पर विधिपूर्वक और बताई गई शास्त्रीय रीति के अनुसार उद्यापन करना चाहिए। 


👉  माता लक्ष्मी देवी के अनेक स्वरूप हैं। उनमें उनका ‘धनलक्ष्मी’ स्वरूप ही ‘वैभवलक्ष्मी’ है और माता लक्ष्मी को श्रीयंत्र अति प्रिय है। व्रत करते समय माता लक्ष्मी के विविध स्वरूप यथा श्रीगजलक्ष्मी, श्री अधिलक्ष्मी, श्री विजयलक्ष्मी, श्री ऐश्वर्यलक्ष्मी, श्री वीरलक्ष्मी, श्री धान्यलक्ष्मी एवं श्री संतानलक्ष्मी तथा श्रीयंत्र को प्रणाम करना चाहिए।


👉 व्रत के दिन अधिक से अधिक ‘जय माँ लक्ष्मी’, ‘जय माँ लक्ष्मी’ का मन ही मन उच्चारण (अजपाजाप) करना चाहिए और माँ का पूरे भाव से स्मरण करना चाहिए।


👉 शुक्रवार के दिन यदि आप प्रवास या यात्रा पर गये हों तो वह शुक्रवार छोड़कर उनके बाद के शुक्रवार को व्रत करना चाहिए अर्थात् व्रत अपने ही घर में करना चाहिए। कुल मिलाकर जितने शुक्रवार का संकल्प किया हो, उतने शुक्रवार पूरे करने चाहिए।


👉 घर में सोना न हो तो चाँदी की चीज पूजा में रखनी चाहिए। अगर वह भी न हो तो नगद रुपया रखना चाहिए।


👉 व्रत पूरा होने पर कम से कम सात स्त्रियों को या आपकी इच्छा अनुसार जैसे 11, 21, 51 या 101 स्त्रियों को वैभवलक्ष्मी व्रत की पुस्तक कुमकुम का तिलक करके भेंट के रूप में देनी चाहिए। जितनी ज्यादा पुस्तक आप देंगे उतनी माँ लक्ष्मी की ज्यादा कृपा होगी और माँ लक्ष्मी जी के इस अद्भुत व्रत का ज्यादा प्रचार होगा।


👉 व्रत के शुक्रवार को स्त्री रजस्वला हो या सूतकी हो तो वह शुक्रवार छोड़ देना चाहिए और बाद के शुक्रवार से व्रत शुरु करना चाहिए। पर जितने शुक्रवार की मन्नत मानी हो, उतने शुक्रवार पूरे करने चाहिए।


👉 व्रत के दिन हो सके तो उपवास करना चाहिए और शाम को व्रत की विधि करके माँ का प्रसाद लेकर व्रत करना चाहिए। अगर न हो सके तो फलाहार या एक बार भोजन कर के शुक्रवार का व्रत रखना चाहिए। अगर व्रतधारी का शरीर बहुत कमजोर हो तो ही दो बार भोजन ले सकते हैं। सबसे महत्व की बात यही है कि व्रतधारी माँ लक्ष्मी जी पर पूरी-पूरी श्रद्धा और भावना रखे और ‘मेरी मनोकामना माँ पूरी करेंगी ही’, ऐसा दृढ़ विश्वास रखकर व्रत करे।


पूजा विधि

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व्रत वाले दिन सूर्योदय से पूर्व स्नान करके लाल वस्त्र पहनें और अपने घर की पूर्व दिशा में माता वैभव लक्ष्मी जी की मूर्ति या चित्र और साथ ही श्री यन्त्र भी स्थापित करें। 


इस दिन माता लक्ष्मी के विविध स्वरूपों श्री वीरलक्ष्मी, श्री विजयलक्ष्मी, श्रीगजलक्ष्मी, श्री अधिलक्ष्मी, श्री ऐश्वर्यलक्ष्मी, श्री धान्यलक्ष्मी एवं श्री संतानलक्ष्मी तथा श्रीयंत्र की पूजा करनी चाहिए इसलिए चौकी पर लाल वस्त्र बिछाकर सभी रूपों के चित्र लगाएँ। 


चौकी पर ही अक्षत रखें और उन पर जल से भरा हुआ ताँबे का कलश रखें। 


कलश के उपर कटोरी में सोने या चाँदी या कोई सिक्का रखकर कलश को ढक दें। 


अब एक देसी घी का दीपक जलाएं और माता को फूल माला, रोली, मौली, सिंदूर आदि चढ़ाएं और सोना, चांदी पर हल्दी कुमकुम लगाएँ और चावल चढ़ाएं। 


माता वैभव लक्ष्मी व्रत की कथा पढ़ें और श्री सूक्त, ललिता सहस्त्रनाम अथवा लक्ष्मी स्तवन का पाठ करें। अष्ट लक्ष्मी माताओ के चित्र उपलब्ध ना हो तो श्रीयंत्र के पूजन से भी व्रत के पूजन का लाभ मिल जाता है।संभव हो तो इस दिन श्रीयंत्र पर सहस्त्रार्चन (अक्षत और कुमकुम छोड़ते हुए माता के 1000 नामो का उच्चारण) करना चाहिये।


उसके बाद अंत में माता जी की आरती करें। 


इसके बाद फल तथा खीर प्रसाद का भोग लगाएँ। 


व्रत के उपरांत सोना, चांदी अपने पास रख लें और अक्षत पक्षियों को डाल दें तथा कलश का जल किसी पवित्र पौधे में दाल दें। 


वैभव लक्ष्मी व्रत की पूजा सामग्री 

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हल्दी, कुमकुम, बैठने के लिये आसन, अक्षत, सोना या चाँदी या रुपया, धूप, दीपक, लाल फूल, श्री वैभव लक्ष्मी का चित्र, श्री अधिलक्ष्मी का चित्र, श्री विजयलक्ष्मी या अष्टलक्ष्मी का चित्र, श्री ऐशवर्यलक्ष्मी का चित्र, श्री वीर लक्ष्मी का चित्रश्री , श्री धान्य लक्ष्मी का चित्र, श्री गज लक्ष्मी का चित्र, श्री धन लक्ष्मी का चित्र, श्री संतान लक्ष्मी का चित्र, श्री यंत्र अथवा उसका चित्र, लकड़ी की चौकी, लाल कपड़ा, ताँबे का कलश, शुद्ध देसी घी, कटोरी (कलश को ढ़कने के लिये), नैवेद्य (खीर), फल।


वैभव लक्ष्मी एवं उद्यापन की वैदिक पूजा विस्तृत विधि

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वैभव लक्ष्मी व्रत का उद्यापन 

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जब आपके द्वारा संकल्प किए गए व्रतों की संख्या पूरी हो जाए तो व्रत के अंतिम शुक्रवार को व्रत का उद्यापन करें। यदि संभव हो तो शुक्ल पक्ष में ही उद्यापन कराए। उद्यापन करने के बाद यदि आप कोई और मन्नत माँगना चाहते हैं या आप दोबारा यह व्रत करना चाहते हैं तो कुछ समय बाद पुनः इसी प्रकार व्रत रखना प्रारंभ कर सकते हैं। इस व्रत के उद्यापन में व्रत की सामग्री के अतिरिक्त निम्नलिखित सामग्री की आवश्यकता मुख्य रूप से होती है।


नारियल, 7 या 11 या 21 या 51, सौभाग्यवती स्त्रियाँ, वैभव लक्ष्मी व्रत कथा की पुस्तक (जितनी स्त्रियों को अपने निमंत्रित किया है)


वैभव लक्ष्मी व्रत उद्यापन विधि 

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उद्यापन वाले दिन सुबह जल्दी उठे और स्नान कर पवित्र हो जाएँ। 


पूजा स्थल को साफ कर गंगा जल से उसे शुद्ध कर लें। 


सभी पूजन सामग्री एकत्रित कर लें। 


लाल आसन पर पूर्व की ओर मुँह करके बैठ जायें।


चौकी पर लाल वस्त्र बिछायें। 


व्रत के दिनों की तरह ही इस दिन भी पूजा करें। 


इसके पश्चात माताजी के विभिन्न स्वरूपों को प्रणाम करते हुए उनसे संपर्क कृपा करने की प्रार्थना करें


आखिरी शुक्रवार को प्रसाद के लिए खी‍र बनानी चाहिए। जिस प्रकार हर शुक्रवार को हम पूजन करते हैं, वैसे ही करना चाहिए। पूजन के बाद माँ के सामने एक श्रीफल फोड़ें फिर कम से कम सात‍ कुंआरी कन्याओं या सौभाग्यशाली स्त्रियों को कुमकुम का तिलक लगाकर मां वैभवलक्ष्मी व्रत कथा की पुस्तक की एक-एक प्रति उपहार में देनी चाहिए और सबको खीर का प्रसाद देना चाहिए. इसके बाद माँ लक्ष्मीजी को श्रद्धा सहित प्रणाम करना चाहिए। फिर माताजी के 'धनलक्ष्मी स्वरूप' की छबि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करें।


वैभव लक्ष्मी पूजन 

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पवित्रीकरण

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सर्वप्रथम हाथ में जल लेकर मंत्र के द्वारा अपने ऊपर जल छिड़कें:


ॐ पवित्रः अपवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपिवा।

यः स्मरेत्‌ पुण्डरीकाक्षं स वाह्यभ्यन्तर शुचिः॥


इसके पश्चात् पूजा कि सामग्री और आसन को भी मंत्र उच्चारण के साथ जल छिड़क कर शुद्ध कर लें:


पृथ्विति मंत्रस्य मेरुपृष्ठः ग षिः सुतलं छन्दः कूर्मोदेवता आसने विनियोगः॥


अब आचमन करें

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पुष्प से एक –एक करके तीन बूंद पानी अपने मुंह में छोड़िए और बोलिए-

ॐ केशवाय नमः

ॐ नारायणाय नमः

ॐ वासुदेवाय नमः

फिर ॐ हृषिकेशाय नमः कहते हुए हाथों को खोलें और अंगूठे के मूल से होंठों को पोंछकर हाथों को धो लें।


गणेश पूजन

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इसके बाद सबसे पहले गणेश जी का पूजन पंचोपचार विधि (धूप, दीप, पूष्प, गंध, एवं नैवेद्य) से करें। चौकी के पास हीं किसी पात्र में गणेश जी के विग्रह को रखकर पूजन करें। यदि गणेश जी की मूर्ति उपलब्ध न हो तो सुपारी पर मौली लपेट कर गणेश जी बनायें।


संकल्प :

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हाथ में जल, अक्षत, पान का पत्ता, सुपारी और कुछ सिक्के लेकर निम्न मंत्र के साथ उद्यापन का संकल्प करें:‌ 


ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः। श्री मद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तैकदेशे पुण्यप्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमाने यथानामसंवत्सरे अमुकामने महामांगल्यप्रदे मासानाम्‌ उत्तमे अमुकमासे (जिस माह में व्रत अथवा उद्यापन कर रहे हों, उसका नाम) अमुकपक्षे (जिस पक्ष में व्रत अथवा उद्यापन कर रहे हों, उसका नाम) अमुकतिथौ (जिस तिथि में व्रत अथवा उद्यापन कर रहे हों, उसका नाम) शुक्रवासरान्वितायाम्‌ अमुकनक्षत्रे (व्रत अथवा उद्यापन के दिन, जिस नक्षत्र में सुर्य हो उसका नाम) अमुकराशिस्थिते सूर्ये (व्रत अथवा उद्यापन के दिन, जिस राशिमें सुर्य हो उसका नाम) अमुकामुकराशिस्थितेषु (व्रत अथवा उद्यापन के दिन, जिस –जिस राशि में चंद्र, मंगल,बुध, गुरु शुक, शनि हो उसका नाम) चन्द्रभौमबुधगुरुशुक्रशनिषु सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एवं गुणविशेषणविशिष्टायां शुभ पुण्यतिथौ सकलशास्त्र श्रुति स्मृति पुराणोक्त फलप्राप्तिकामः अमुकगोत्रोत्पन्नः (अपने गोत्र का नाम) अमुक नाम (अपना नाम) अहं वॉभाव लक्ष्मी व्रत अथवा उद्यापन करिष्ये ।


  ध्यान 

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पद्मासनां पद्मकरां       पद्ममालाविभूषिताम् क्षीरसागर संभूतां    हेमवर्ण - समप्रभाम् ।

क्षीरवर्णसमं वस्त्रं दधानां हरिवल्लभाम्

भावेय भक्तियोगेन भार्गवीं कमलां शुभाम्

सर्वमंगलमांगल्ये विष्णुवक्षःस्थलालये

आवाहयामि देवी त्वां क्षीरसागरसम्भवे

पद्मासने पद्मकरे सर्वलोकैकपूजिते

नारायणप्रिये देवी सुप्रीता भव सर्वदा।


 आवाहन 

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सर्वलोकस्य  जननीं  सर्वसौख्यप्रदायिनीम् 

सर्वदेवमयीमीशां  देविमावाहयाम्यम्

ॐ तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्  

यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् 

ॐ वैभवलक्ष्म्यै नमः वैभवलक्ष्मीमावाहयामि , आवाहनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि 


 आसन

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अनेकरत्नसंयुक्तं नानामणिगणान्वितम्  । इदं हेममयं दिव्यमासनं परिगृह्यताम ॥ 

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः आसनार्थे  पुष्पं समर्पयाम ।


 पाद्य 

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गङ्गादिसर्वतीर्थेभ्य आनीतं तोयमुत्तमम्  । पाद्यार्थं ते प्रदास्यामि गृहाण परमेश्वरी ॥ 

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः पादयोः पाद्यं  समर्पयामि। ( जल चढ़ाये )


 अर्ध्य 

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गन्धपुष्पाक्षतैर्युक्तमर्ध्यं  सम्पादितं मया ।  गृहाण त्वं महादेवि प्रसन्ना भव सर्वदा ॥ 


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः हस्तयोः अर्ध्यं  समर्पयामि। 

( चन्दन , पुष्प , अक्षत , जल से युक्त अर्ध्य दे )


आचमन 

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कर्पूरेण सुगन्धेन वासितं स्वादु शीतलम्।  तोयमाचमनीयार्थं गृहाण परमेश्वरी॥ 


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः आचमनं   समर्पयामि। 

( कर्पुर मिला हुआ शीतल जल चढ़ाये )


स्नान

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मन्दाकिन्यास्तु  यद्वारि सर्वपापहरं शुभम्।  तदिदं कल्पितं देवी स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥

श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः स्नानार्थम जलं  समर्पयामि। ( जल चढ़ाये )


 वस्त्र

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सर्वभूषादिके सौम्ये  लोक  लज्जानिवारणे। मयोपपादिते तुभ्यं गृह्यतां वसिसे शुभे ॥


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि, आचमनीयं जलं समर्पयामि  ।

( दो मौलि के टुकड़े अर्पित करें एवं एक आचमनी जल अर्पित करें ) 


चन्दन

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श्रीखण्डं  चन्दनं  दिव्यं गन्धाढयं सुमनोहरं। विलेपनं सुरश्रेष्ठे चन्दनं प्रतिगृह्यताम् ॥


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः चन्दनं समर्पयामि । ( मलय चन्दन लगाये )


कुङ्कुम 

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कुङ्कुमं कामदं दिव्यं कामिनीकामसम्भवम्  । कुङ्कुमेनार्चिता देवी कुङ्कुमं                             प्रतिगृह्यताम् ॥ 


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः कुङ्कुमं समर्पयामि ।  ( कुङ्कुम चढ़ाये )


 सिन्दूर 

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सिन्दूरमरुणाभासं जपाकुसुमसन्निभम् ।  अर्पितं ते मया भक्त्या प्रसीद परमेश्वरी ॥  


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः सिन्दूरं समर्पयामि ।  ( सिन्दूर चढ़ाये )


 अक्षत

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अक्षताश्च सुरश्रेष्ठ कुङ्कुमाक्ताः सुशोभिताः। 

मया निवेदिता भक्त्या गृहाण परमेश्वरी॥


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः अक्षतान् समर्पयामि । 

( साबुत चावल चढ़ाये )


 आभूषण 

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हारकङकणकेयूरमेखलाकुण्डलादिभिः । रत्नाढ्यं हीरकोपेतं भूषणं प्रतिगृह्यताम् ॥ 


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः  आभूषणानि  समर्पयामि।  (  आभूषण  चढ़ाये ) 


पुष्प

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माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि भक्तितः। मयाऽह्रतानि पुष्पाणि पूजार्थं प्रतिगृह्यतां।


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः पुष्पं समर्पयामि । ( पुष्प चढ़ाये )


 दुर्वाङकुर 

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तृणकान्तमणिप्रख्यहरिताभिः  सुजातिभिः।  दुर्वाभिराभिर्भवतीं पूजयामि महेश्वरी ॥ 


श्री वैभव लक्ष्मी देव्यै  नमः दुर्वाङ्कुरान  समर्पयामि।  (  दूब  चढ़ाये )


अङ्ग - पूजा 

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कुङ्कुम, अक्षत, पुष्प से निम्नलिखित मंत्र पढ़ते हुए अङ्ग - पूजा करे।


ॐ चपलायै नमः , पादौ पूजयामि 

ॐ चञ्चलायै नमः , जानुनी पूजयामि

ॐ कमलायै नमः , कटिं पूजयामि

ॐ कात्यायन्यै नमः , नाभिं पूजयामि

ॐ जगन्मात्रे नमः , जठरं पूजयामि 

ॐ विश्ववल्लभायै नमः, वक्षः स्थलं पूजयामि

ॐ कमलवासिन्यै नमः, हस्तौ पूजयामि 

ॐ पद्माननायै नमः, मुखं पूजयामि 

ॐ कमलपत्राक्ष्यै नमः, नेत्रत्रयं पूजयामि 

ॐ श्रियै नमः, शिरः पूजयामि 

ॐ महालक्ष्मै नम:, सर्वाङ्गं पूजयामि


 अष्टसिद्धि - पूजन 

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कुङ्कुम, अक्षत, पुष्प से निम्नलिखित मंत्र पढ़ते हुए आठों दिशाओं में आठों सिद्धियों की पूजा करे।


१ -  ॐ अणिम्ने  नमः  ( पूर्वे  )   

२- ॐ महिम्ने नमः  ( अग्निकोणे  ) 

३ - ॐ  गरिम्णे नमः  ( दक्षिणे )    

४ - ॐ लघिम्णे नमः  ( नैर्ॠत्ये ) 

५ - ॐ प्राप्त्यै नमः  ( पश्चिमे  )    

६ - ॐ  प्राकाम्यै नमः  ( वायव्ये ) 

७ - ॐ ईशितायै  नमः  ( उत्तरे )   

८ -  ॐ वशितायै नमः  ( ऐशान्याम् ) 


 अष्टलक्ष्मी  पूजन 

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कुङ्कुम , अक्षत , पुष्प से निम्नलिखित   नाम - मंत्र पढ़ते हुए आठ   लक्ष्मियों  की पूजा करे 


ॐ आद्यलक्ष्म्यै नमः ,  

ॐ विद्यालक्ष्म्यै नमः , 

ॐ सौभाग्यलक्ष्म्यै नमः , 

ॐ अमृतलक्ष्म्यै   ,

ॐ कामलक्ष्म्यै  नमः , 

ॐ सत्यलक्ष्म्यै नमः , 

ॐ भोगलक्ष्म्यै नमः ,  

ॐ योगलक्ष्म्यै नमः 


 धूप

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वनस्पति रसोद् भूतो गन्धाढ्यो  सुमनोहरः। आघ्रेयः सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥ 


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः धूपं आघ्रापयामि  । ( धूप दिखाये ) 


 दीप

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साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया । दीपं गृहाण देवेशि त्रैलोक्यतिमिरापहम् ॥  


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः दीपं दर्शयामि । 


 नैवैद्य

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शर्कराखण्डखाद्यानि दधिक्षीरघृतानि च ।  आहारं भक्ष्यभोज्यं च नैवैद्यं प्रतिगृह्यताम् ॥


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः नैवैद्यं निवेदयामि। पुनः आचमनीयं जलं समर्पयामि। 


( प्रसाद चढ़ाये एवं इसके बाद आचमनी से जल चढ़ाये )


 ऋतुफल 

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इदं फलं मया देवी स्थापितं पुरतस्तव। तेन मे सफलावाप्तिर्भवेज्जन्मनि जन्मनि ॥ 


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः ॠतुफलानि समर्पयामि  ( फल चढ़ाये )


 ताम्बूल

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पूगीफलं महद्दिव्यम् नागवल्लीदलैर्युतम् । एलालवङ्ग संयुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम् ॥ 


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः ताम्बूलं समर्पयामि ।  (पान चढ़ाये )


दक्षिणा 

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हिरण्यगर्भगर्भस्थं हेमबीजं विभावसोः ।  अनन्तपुण्यफलदमतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः दक्षिणां समर्पयामि ।  ( दक्षिणा चढ़ाये )


कर्पूरआरती

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॥ कदलीगर्भसम्भूतं कर्पूरं तु प्रदीपितम् ।  आरार्तिकमहं  कुर्वे पश्य मां वरदो  भव ॥


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः आरार्तिकं समर्पयामि। (कर्पूर की आरती करें )


जल शीतलीकरण

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ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष  ( गूं ) शान्ति: ,    पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय:   शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: , सर्व ( गूं ) शान्ति: , शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥


मन्त्रपुष्पाञ्जलि

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नानासुगन्धिपुष्पाणि यथाकालोद् भवानि च  पुष्पाञ्जलिर्मया दत्तो गृहान परमेश्वरि  ॥


श्री वैभवलक्ष्म्यै नमः मन्त्रपुष्पाञ्जलिम्  समर्पयामि।


नमस्कार मंत्र 

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सुरासुरेन्द्रादिकिरीटमौक्तिकैर्युक्तं सदा  यत्तव पादपङ्कजम् परावरं पातु वरं  सुमङ्गलं नमामि भक्त्याखिलकामसिद्धये 

भवानि त्वं महालक्ष्मीः सर्वकामप्रदायिनी सुपूजिता प्रसन्ना स्यान्महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते 

नमस्ते सर्वदेवानां वरदासि हरिप्रिये 

या गतिस्त्वत्प्रपन्नानां सा मे भूयात् त्वदर्चनात् श्री महालक्ष्म्यै नम:, प्रार्थनापूर्वकं  नमस्कारान् समर्पयामि


लक्ष्मी मन्त्र का जाप अपनी सुविधनुसार करे


॥ ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नमः  ॥ 


जप समर्पण👉 (दाहिने हाथ में जल लेकर मंत्र बोलें एवं जमीन पर छोड़ दें) 


॥ ॐ गुह्यातिगुह्य गोप्ता त्वं गृहाणास्मत्कृतं  जपं, सिद्धिर्भवतु मं देवी त्वत् प्रसादान्महेश्वरि॥ 


इसके बाद व्रत की कथा पढ़े।


वैभवलक्ष्मी व्रत की कथा

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एक बड़ा शहर था। इस शहर में लाखों लोग रहते थे। पहले के जमाने के लोग साथ-साथ रहते थे और एक दूसरे के काम आते थे। पर नये जमाने के लोगों का स्वरूप ही अलग सा है। सब अपने अपने काम में रत रहते हैं। किसी को किसी की परवाह नहीं। घर के सदस्यों को भी एक-दूसरे की परवाह नहीं होती। भजन-कीर्तन, भक्ति-भाव, दया-माया, परोपकार जैसे संस्कार कम हो गये हैं। शहर में बुराइयाँ बढ़ गई थी। शराब, जुआ, रेस, व्यभिचार, चोरी-डकैती आदि बहुत से अपराध शहर में होते थे।


कहावत है कि ‘हजारों निराशा में एक अमर आशा छिपी हुई है’ इसी तरह इतनी सारी बुराइयों के बावजूद शहर में कुछ अच्छे लोग भी रहते थे। ऐसे अच्छे लोगों में शीला और उनके पति की गृहस्थी मानी जाती थी। शीला धार्मिक प्रकृति की और संतोषी थी। उनका पति भी विवेकी और सुशील था। शीला और उनका पति ईमानदारी से जीते थे। वे किसी की बुराई न करते थे और प्रभु भजन में अच्छी तरह समय व्यतीत कर रहे थे। उनकी गृहस्थी आदर्श गृहस्थी थी और शहर के लोग उनकी गृहस्थी की सराहना करते थे।


शीला की गृहस्थी इसी तरह खुशी-खुशी चल रही थी। पर कहा जाता है कि ‘कर्म की गति अकल है’, विधाता के लिखे लेख कोई नहीं समझ सकता है। इन्सान का नसीब पल भर में राजा को रंक बना देता है और रंक को राजा। शीला के पति के अगले जन्म के कर्म भोगने बाकी रह गये होंगे कि वह बुरे लोगों से दोस्ती कर बैठा। वह जल्द से जल्द करोड़पति होने के ख्वाब देखने लगा। इसलिए वह गलत रास्ते पर चल निकला और करोड़पति के बजाय रोड़पति बन गया। याने रास्ते पर भटकते भिखारी जैसी उसकी स्थिति हो गयी थी।


शहर में शराब, जुआ, रेस, चरस-गांजा आदि बदियां फैली हुई थीं। उसमें शीला का पति भी फँस गया। दोस्तों के साथ उसे भी शराब की आदत हो गई। जल्द से जल्द पैसे वाला बनने की लालच में दोस्तों के साथ रेस जुआ भी खेलने लगा। इस तरह बचाई हुई धनराशि, पत्नी के गहने, सब कुछ रेस-जुए में गँवा दिया था। समय के परिवर्तन के साथ घर में दरिद्रता और भुखमरी फैल गई। सुख से खाने के बजाय दो वक्त के भोजन के लाले पड़ गये और शीला को पति की गालियाँ खाने का वक्त आ गया था। शीला सुशील और संस्कारी स्त्री थी। उसको पति के बर्ताव से बहुत दुख हुआ। किन्तु वह भगवान पर भरोसा करके बड़ा दिल रख कर दुख सहने लगी। कहा जाता है कि ‘सुख के पीछे दुख और दुख के पीछे सुख आता ही है। इसलिए दुख के बाद सुख आयेगा ही, ऐसी श्रद्धा के साथ शीला प्रभु भक्ति में लीन रहने लगी। इस तरह शीला असह्य दुख सहते-सहते प्रभुभक्ति में वक्त बिताने लगी। 


अचानक एक दिन दोपहर में उनके द्वार पर किसी ने दस्तक दी। शीला सोच में पड़ गयी कि मुझ जैसे गरीब के घर इस वक्त कौन आया होगा? फिर भी द्वार पर आये हुए अतिथि का आदर करना चाहिए, ऐसे आर्य धर्म के संस्कार वाली शीला ने खड़े होकर द्वार खोला। देखा तो एक माँ जी खड़ी थी। वे बड़ी उम्र की लगती थीं। किन्तु उनके चेहरे पर अलौकिक तेज निखर रहा था। उनकी आँखों में से मानो अमृत बह रहा था। उनका भव्य चेहरा करुणा और प्यार से छलकता था। उनको देखते ही शीला के मन में अपार शांति छा गई। वैसे शीला इस माँ जी को पहचानती न थी, फिर भी उनको देखकर शीला के रोम-रोम में आनन्द छा गया। शीला माँ जी को आदर के साथ घर में ले आयी। घर में बिठाने के लिए कुछ भी नहीं था। अतः शीला ने सकुचा कर एक फटी हुई चादर पर उनको बिठाया।


माँ जी ने कहा: ‘क्यों शीला! मुझे पहचाना नहीं?’


शीला ने सकुचा कर कहा: ‘माँ! आपको देखते ही बहुत खुशी हो रही है। बहुत शांति हो रही है। ऐसा लगता है कि मैं बहुत दिनों से जिसे ढूढ़ रही थी वे आप ही हैं, पर मैं आपको पहचान नहीं सकती।’


माँ जी ने हँसकर कहा: ‘क्यों? भूल गई? हर शुक्रवार को लक्ष्मी जी के मंदिर में भजन-कीर्तन होते हैं, तब मैं भी वहाँ आती हूँ। वहाँ हर शुक्रवार को हम मिलते हैं।’


पति गलत रास्ते पर चढ़ गया, तब से शीला बहुत दुखी हो गई थी और दुख की मारी वह लक्ष्मीजी के मंदिर में भी नहीं जाती थी। बाहर के लोगों के साथ नजर मिलाते भी उसे शर्म लगती थी। उसने याददाश्त पर जोर दिया पर वह माँ जी याद नहीं आ रही थीं।


तभी माँ जी ने कहा: ‘तू लक्ष्मी जी के मंदिर में कितने मधुर भजन गाती थी। अभी-अभी तू दिखाई नहीं देती थी, इसलिए मुझे हुआ कि तू क्यों नहीं आती है? कहीं बीमार तो नहीं हो गई है न? ऐसा सोचकर मैं तुझसे मिलने चली आई हूँ।’


माँ जी के अति प्रेम भरे शब्दों से शीला का हृदय पिघल गया। उसकी आँखों में आँसू आ गये। माँ जी के सामने वह बिलख-बिलख कर रोने लगी। यह देख कर माँ जी शीला के नजदीक आयीं और उसकी सिसकती पीठ पर प्यार भरा हाथ फेर कर सांत्वना देने लगीं।


माँ जी ने कहा: ‘बेटी! सुख और दुख तो धूप छांव जैसे होते हैं। धैर्य रखो बेटी! और तुझे परेशानी क्या है? तेरे दुख की बात मुझे सुना। तेरा मन हलका हो जायेगा और तेरे दुख का कोई उपाय भी मिल जायेगा।’


माँ जी की बात सुनकर शीला के मन को शांति मिली। उसने माँ जी से कहा: ‘माँ! मेरी गृहस्थी में भरपूर सुख और खुशियाँ थीं, मेरे पति भी सुशील थे। अचानक हमारा भाग्य हमसे रूठ गया। मेरे पति बुरी संगति में फँस गये और बुरी आदतों के शिकार हो गये तथा अपना सब-कुछ गवाँ बैठे हैं तथा हम रास्ते के भिखारी जैसे बन गये हैं।’


यह सुन कर माँ जी ने कहा: ‘ऐसा कहा जाता है कि , ‘कर्म की गति न्यारी होती है’, हर इंसान को अपने कर्म भुगतने ही पड़ते हैं। इसलिए तू चिंता मत कर। अब तू कर्म भुगत चुकी है। अब तुम्हारे सुख के दिन अवश्य आयेंगे। तू तो माँ लक्ष्मी जी की भक्त है। माँ लक्ष्मी जी तो प्रेम और करुणा की अवतार हैं। वे अपने भक्तों पर हमेशा ममता रखती हैं। इसलिए तू धैर्य रख कर माँ लक्ष्मी जी का व्रत कर। इससे सब कुछ ठीक हो जायेगा।


‘माँ लक्ष्मी जी का व्रत’ करने की बात सुनकर शीला के चेहरे पर चमक आ गई। उसने पूछा: ‘माँ! लक्ष्मी जी का व्रत कैसे किया जाता है, वह मुझे समझाइये। मैं यह व्रत अवश्य करूँगी।’


माँ जी ने कहा: ‘बेटी! माँ लक्ष्मी जी का व्रत बहुत सरल है। उसे ‘वरदलक्ष्मी व्रत’ या ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ भी कहा जाता है। यह व्रत करने वाले की सब मनोकामना पूर्ण होती है। वह सुख-सम्पत्ति और यश प्राप्त करता है। ऐसा कहकर माँ जी ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ की विधि कहने लगी।


‘बेटी! वैभवलक्ष्मी व्रत वैसे तो सीधा-सादा व्रत है। किन्तु कई लोग यह व्रत गलत तरीके से करते हैं, अतः उसका फल नहीं मिलता। कई लोग कहते हैं कि सोने के गहने की हलदी-कुमकुम से पूजा करो बस व्रत हो गया। पर ऐसा नहीं है। कोई भी व्रत शास्त्रीय विधि से करना चाहिए। तभी उसका फल मिलता है। सच्ची बात यह है कि सोने के गहनों का विधि से पूजन करना चाहिए। व्रत की उद्यापन विधि भी शास्त्रीय विधि से करना चाहिए।


यह व्रत शुक्रवार को करना चाहिए। प्रातःकाल स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहनो और सारा दिन ‘जय माँ लक्ष्मी’  का रटन करते रहो। किसी की चुगली नहीं करनी चाहिए। शाम को पूर्व दिशा में मुँह करके आसन पर बैठ जाओ। सामने पाटा रखकर उस पर रुमाल रखो। रुमाल पर चावल का छोटा सा ढेर करो। उस ढेर पर पानी से भरा तांबे का कलश रख कर, कलश पर एक कटोरी रखो। उस कटोरी में एक सोने का गहना रखो। सोने का न हो तो चांदी का भी चलेगा। चांदी का न  हो तो नकद रुपया भी चलेगा। बाद में घी का दीपक जला कर अगरबत्ती सुलगा कर रखो।


माँ लक्ष्मी जी के बहुत स्वरूप हैं। और माँ लक्ष्मी जी को ‘श्रीयंत्र’ अति प्रिय है। अतः ‘वैभवलक्ष्मी’ में पूजन विधि करते वक्त सर्वप्रथम ‘श्रीयंत्र’ और लक्ष्मी जी के विविध स्वरूपों का सच्चे दिल से दर्शन करो। उसके बाद ‘लक्ष्मी स्तवन’ का पाठ करो। बाद में कटोरी में रखे हुए गहने या रुपये को हल्दी-कुमकुम और चावल चढ़ाकर पूजा करो और लाल रंग का फूल चढ़ाओ। शाम को कोई मीठी चीज बना कर उसका प्रसाद रखो। न हो सके तो शक्कर या गुड़ भी चल सकता है। फिर आरती करके ग्यारह बार सच्चे हृदय से ‘जय माँ लक्ष्मी’ बोलो। बाद में ग्यारह या इक्कीस शुक्रवार यह व्रत करने का दृढ़ संकल्प माँ के सामने करो और आपकी जो मनोकामना हो वह पूरी करने को माँ लक्ष्मी जी से विनती करो। फिर माँ का प्रसाद बाँट दो। और थोड़ा प्रसाद अपने लिए रख लो। अगर आप में शक्ति हो तो सारा दिन उपवास रखो और सिर्फ प्रसाद खा कर शुक्रवार का व्रत करो। न शक्ति हो तो एक बार शाम को प्रसाद ग्रहण करते समय खाना खा लो। अगर थोड़ी शक्ति भी न हो तो दो बार भोजन कर सकते हैं। बाद में कटोरी में रखा गहना या रुपया ले लो। कलश का पानी तुलसी की क्यारी में डाल दो और चावल पक्षियों को डाल दो। इसी तरह शास्त्रीय विधि से व्रत करने से उसका फल अवश्य मिलता है। इस व्रत के प्रभाव से सब प्रकार की विपत्ति दूर हो कर आदमी मालामाल हो जाता हैं संतान न हो तो संतान प्राप्ति होती है। सौभाग्वती स्त्री का सौभाग्य अखण्ड रहता है। कुमारी लड़की को मनभावन पति मिलता है।


शीला यह सुनकर आनन्दित हो गई। फिर पूछा: ‘माँ! आपने वैभवलक्ष्मी व्रत की जो शास्त्रीय विधि बताई है, वैसे मैं अवश्य करूंगी। किन्तु उसकी उद्यापन विधि किस तरह करनी चाहिए? यह भी कृपा करके सुनाइये।’


माँ जी ने कहा: ‘ग्यारह या इक्कीस जो मन्नत मानी हो उतने शुक्रवार यह वैभवलक्ष्मी व्रत पूरी श्रद्धा और भावना से करना चाहिए। व्रत के आखिरी शुक्रवार को खीर का नैवेद्य रखो। पूजन विधि हर शुक्रवार को करते हैं वैसे ही करनी चाहिए। पूजन विधि के बाद श्रीफल फोड़ो और कम से कम सात कुंवारी या सौभाग्यशाली स्त्रियों को कुमकुम का तिलक करके ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ की एक-एक पुस्तक उपहार में देनी चाहिए और सब को खीर का प्रसाद देना चाहिए। फिर धनलक्ष्मी स्वरूप, वैभवलक्ष्मी स्वरूप, माँ लक्ष्मी जी की छवि को प्रणाम करें। माँ लक्ष्मी जी का यह स्वरूप वैभव देने वाला है। प्रणाम करके मन ही मन भावुकता से माँ की प्रार्थना करते वक्त कहें कि , ‘हे माँ धनलक्ष्मी! हे माँ वैभवलक्ष्मी! मैंने सच्चे हृदय से आपका व्रत पूर्ण किया है। तो हे माँ! हमारी मनोकामना पूर्ण कीजिए। हमारा सबका कल्याण कीजिए। जिसे संतान न हो उसे संतान देना। सौभाग्यशाली स्त्री का सौभाग्य अखण्ड रखना। कुंवारी लड़की को मनभावन पति देना। आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत जो करे उसकी सब विपत्ति दूर करना। सब को सुखी करना। हे माँ! आपकी महिमा अपरम्पार है।’


माँ जी के पास से वैभवलक्ष्मी व्रत की शास्त्रीय विधि सुनकर शीला भावविभोर हो उठी। उसे लगा मानो सुख का रास्ता मिल गया। उसने आँखें बंद करके मन ही मन उसी क्षण संकल्प लिया कि, ‘हे वैभवलक्ष्मी माँ! मैं भी माँ जी के कहे अनुसार श्रद्धापूर्वक शास्त्रीय विधि से वैभवलक्ष्मी व्रत इक्कीस शुक्रवार तक करूँगी और व्रत की शास्त्रीय रीति के अनुसार उद्यापन भी करूँगी।


शीला ने संकल्प करके आँखें खोली तो सामने कोई न था। वह विस्मित हो गई कि माँ जी कहां गयी? यह माँ जी कोई दूसरा नहीं साक्षात लक्ष्मी जी ही थीं। शीला लक्ष्मी जी की भक्त थी इसलिए अपने भक्त को रास्ता दिखाने के लिए माँ लक्ष्मी देवी माँ जी का स्वरूप धारण करके शीला के पास आई थीं।


दूसरे दिन शुक्रवार था। प्रातःकाल स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहन कर शीला मन ही मन श्रद्धा और पूरे भाव से ‘जय माँ लक्ष्मी’ का मन ही मन रटन करने लगी। सारा दिन किसी की चुगली नहीं की। शाम हुई तब हाथ-पांव-मुंह धो कर शीला पूर्व दिशा में मुंह करके बैठी। घर में पहले तो सोने के बहुत से गहने थे पर पति ने गलत रास्ते पर चलकर सब गिरवी रख दिये। पर नाक की कील (पुल्ली) बच गई थी। नाक की कील निकाल कर, उसे धोकर शीला ने कटोरी में रख दी। सामने पाटे पर रुमाल रख कर मुठ्ठी भर चावल का ढेर किया। उस पर तांबे का कलश पानी भरकर रखा। उसके ऊपर कील वाली कटोरी रखी। फिर विधिपूर्वक वंदन, स्तवन, पूजन वगैरह किया और घर में थोड़ी शक्कर थी, वह प्रसाद में रख कर वैभवलक्ष्मी व्रत किया।


यह प्रसाद पहले पति को खिलाया। प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में फर्क पड़ गया। उस दिन उसने शीला को मारा नहीं, सताया भी नहीं। शीला को बहुत आनन्द हुआ। उसके मन में वैभवलक्ष्मी व्रत के लिए श्रद्ध बढ़ गई।


शीला ने पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से इक्कीस शुक्रवार तक व्रत किया। इक्कीसवें शुक्रवार को विधिपूर्वक उद्यापन विधि करके सात स्त्रियों को वैभवलक्ष्मी व्रत की सात पुस्तकें उपहार में दीं। फिर माता जी के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ की छवि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करने लगी: ‘हे माँ धनलक्ष्मी! मैंने आपका वैभवलक्ष्मी व्रत करने की मन्नत मानी थी वह व्रत आज पूर्ण किया है। हे माँ! मेरी हर विपत्ति दूर करो। हमारा सबका कल्याण करो। जिसे संतान न हो, उसे संतान देना। सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखण्ड रखना। कुंवारी लड़की को मनभावन पति देना। जो कोई आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत करे, उसकी सब विपत्ति दूर करना। सब को सुखी करना। हे माँ! आपकी महिमा अपार है।’ ऐसा बोलकर लक्ष्मीजी के धनलक्ष्मी स्वरूप की छवि को प्रणाम किया।


इस तरह शास्त्रीय विधि से शीला ने श्रद्धा से व्रत किया और तुरन्त ही उसे फल मिला। उसका पति सही रास्ते पर चलने लगा और अच्छा आदमी बन गया तथा कड़ी मेहनत से व्यवसाय करने लगा। धीरे धीरे समय परिवर्तित हुआ और उसने शीला के गिरवी रखे गहने छुड़ा लिए। घर में धन की बाढ़ सी आ गई। घर में पहले जैसी सुख-शांति छा गई।


वैभवलक्ष्मी व्रत का प्रभाव देखकर मोहल्ले की दूसरी स्त्रियाँ भी शास्त्रीय विधि से वैभवलक्ष्मी का व्रत करने लगीं। हे माँ धनलक्ष्मी! आप जैसे शीला पर प्रसन्न हुईं, उसी तरह आपका व्रत करने वाले सब पर प्रसन्न होना। सबको सुख-शांति देना। जय धनलक्ष्मी माँ! जय वैभवलक्ष्मी माँ!


बोलो भगवती महालक्ष्मी की जय! कथा सुनने के बाद माता जी की आरती करें।


श्री लक्ष्मी जी की आरती

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ॐ जय लक्ष्मी माता , मैया जय लक्ष्मी माता । 

तुमको  निसिदिन  सेवत हर - विष्णू - धाता  ॥  ॐ जय  ॥ 

उमा , रमा , ब्रह्माणी , तुम ही जग - माता  

सूर्य - चन्द्रमा ध्यावत ,  नारद ऋषि गाता ॥  ॐ जय  ॥

दुर्गारुप  निरञ्जनि  , सुख - सम्पति - दाता 

जो कोइ तुमको ध्यावत , ऋधि - सिधि - धन पाता ॥  ॐ जय  ॥

तुम पाताल - निवासिनि , तुम ही शुभदाता 

कर्म - प्रभाव -प्रकाशिनि  ,  भवनिधिकी  त्राता  ॥  ॐ जय  ॥

जिस घर तुम रहती , तहँ  सब   सद् गुण   आता 

सब सम्भव हो जाता , मन नहिं  घबराता  ॥  ॐ जय  ॥

तुम बिन यज्ञ न होते , वस्त्र न हो पाता 

खान – पान का वैभव सब तुमसे  आता ॥  ॐ जय  ॥

शुभ – गुण – मन्दिर  सुन्दर , क्षीरोदधि – जाता 

रत्न चतुर्दश तुम बिन कोइ नहि पाता  ॥  ॐ जय  ॥

महालक्ष्मी जी कि आरति , जो कोई नर गाता 

उर आनन्द समाता , पाप उतर जाता    ॥  ॐ जय  ॥


क्षमा - याचना👉 मन्त्रहीनं  क्रियाहीनं  भक्तिहीनं सुरेश्वरि। यत्युजितं मया देवी   परिपूर्ण तदस्तु मे॥ श्री महालक्ष्म्यै नमः क्षमायाचनां  समर्पयामि 


ना तो मैं आवाहन करना जानता हूँ , ना विसर्जन करना जानता हूँ और ना पूजा करना हीं जानता हूँ । हे परमेश्वरी  क्षमा करें । हे परमेश्वरी  मैंने जो मंत्रहीन , क्रियाहीन और भक्तिहीन पूजन किया है , वह सब आपकी दया से पूर्ण हो । 


  ॐ  तत्सद्  ब्रह्मार्पणमस्तु।


शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

पितृदोष - क्या है, लक्षण, कारण और निवारण

 पित्र दोष का प्रभाव ,कारण और निवारण


घर में पितृ दोष होगा तो घर के बच्चे की शिक्षा , दिमाग , व्यवहार पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। जिन जातकों को पितृ दोष होता है उनके बहुत से कारण होते है की हमारे अपने पितरों से सम्बन्ध अच्छे नहीं हो पाते , कारण , आपके जीवन में रुकावटें , परेशानियाँ और क्या नहीं होता* पितृ दोष कही न कही अनेको दोषों को उत्पन्न करने वाला होता है जैसे की वंश न बढ़ने का दोष , असफलता मिलने का दोष , बाधा दोष और भी बहुत कुछ । तो पित्र पक्ष में की गयी पूजा और तर्पण अगर विधि विधान और मन लगाकर किया जाए तो अच्छे फल देने वाली सिद्ध होती है ।


हर कार्य में नाकामी हाथ लगाना , घर में हमेशा कलह रहना , बीमारी घर के सदस्यों को चाहे छोटी हो या बड़ी घेरे रखती है , यह सब लक्षण पितृ दोषघर में है इसको बताते है । और अगर घर में पितृ दोष है तो किसी भी सदस्य को सफलता आसानी से हाथ नहीं लगती । पितृ दोष कुंडली में है अगर , तो कुंडली के अच्छे ग्रह उतना अच्छा फल जितना उन्हें देना चाहिए ।  घर के सभी लोग आपस में झगड़ते है , घर के बच्चों के विवाह देरी से होते है , और काफी दिक्कतों का सामना भी करना पड़ता है विवाह करने में , घर में धन ना के बराबर रुकेगा अगर पितृ दोष हावी है तो , बीमारीया फिर क़र्ज़ देने में धन चला जायेगा जुडा हुआ धन , पुरानी चीजे ठीक कराने में धन निकल जायेगा पर रुकेगा नहीं।


परिवार की मान और प्रतिष्ठा में गिरावट आती है , पितृ दोष के कारण घर में पेड़-पौधे या फिर जानवर नहीं पनप पाते । घर में शाम आते आते अजीब सा सूनापन हो जायेगा जैसे की उदासी भरा माहौल , घर का कोई हिसा बनते बनते रह जायेगा या फिर बने हुए हिस्से में टूट-फुट होगी , उस हिस्से में दरारे आ जाती है । घर का मुखिया बीमार रहता है , रसोई घर के अस - पास वाली दीवारों मेंदरार आ जाते है।


जिस घर में पितृ दोष हावी होता है उस घर से कभी भी मेहमान संतुष्ट होकर नहीं जायेंगे चाहे आप कुछ भी क्यूँ न कर ले या फिर कितनी ही खातिरदारी कर ले , मेहमान हमेशा नुक्स निकाल कर रख देंगे यानी की मोटे तौर पर आपकी इज्ज़त नहीं करेंगे ।


घर में चीजे और साधन होते हुए भी घर के लोग खुश नहीं रहते । जब पैसे की जरुरत पड़ती है तो पैसा मिल नहीं पाता । ऐसे घर के बच्चों को उनकी नौकरी या फिर कारोबार में स्थायित्व लम्बे समय बाद ही हो पाता है , बच्चा तेज़ होते हुए भी कुछ जल्दी से हासिल नहीं कर पायेगा ऐसी परिस्थितियाँ हो जायेंगी । जिस घर में पितृ दोष होता है उस घर में भाई-बहन में मन-मुटाव रहता ही रहता है , कभी कभी तो परिस्थितियाँ ऐसी हो जाती है की कोई एक दूसरे की शकल तक देखना पसंद नहीं करता । पति-पत्नी में बिना बात के झगडा होना भी ऐसे घर में स्वाभाविक है जिस घर में पितृ दोष हो । ऐसे घर के लोग जब एक दूसरे के साथ रहेंगे तो हमेशा कलेश करके रखेंगे परन्तु जैसे ही एक दुसरे से दूर जायेंगे तो प्रेम से बात करेंगे ।


पितृ दोष के कारण - 


घर में स्त्रियों के साथ दुराचार करना , उन्हें नीचा दिखाना , उनका सम्मान न करने से शुक्र ग्रह बहुत बुरा फल देता है जिसका असर आने वाली चार पीड़ियों तक रहता है । जिस घर में जानवरों के साथ बुरा सुलूक किया जाता है उस घर में पितृ दोष आना स्वाभाविक है । और जो जानवरों के साथ बुरा सुलूक करते है वह ही नहीं अपितु उनका पूरा परिवार और उनकी संतान पर पितृ दोष के बुरे प्रभाव के हिस्सेदार जाने-अनजाने में बन जाते है । जिस घर में विनम्र रहने वाले व्यक्ति का अपमान होता है वह घर पितृदोष से पीड़ित होगा , साथ में जो लोग कमजोर व्यक्ति का अपमान करेंगे वह भी पितृ दोष से प्रभावित होंगे । जमीन हथियाने से , हत्या करने से पित्र दोष लगेगा । जो लोग समाज-विरॊधि काम काम करेंगे उनका बृहस्पति खराब होकर उनकी कई पीड़ियों तक पितृ दोष देता रहता है । बुजुर्गों का अपमान जहा हुआ वह समझिये पितृ दोष आया ही आया । मित्र या प्रेमी को धोखा देने से पितृ दोष लगता है। 


ज्योतिष में पितृदोष का बहुत महत्व माना जाता। इससे पीड़ित व्यक्ति का जीवन अत्यंत कष्टमय हो जाता है। जिस जातक की कुंडली में यह दोष होता है उसे धन अभाव से लेकर मानसिक क्लेश तक का सामना करना पड़ता है। पितृदोष से पीड़ित जातक की उन्नति में बाधा रहती है। 


पितृ दोष का उपाय कुंडली के ग्रहों की स्थिति अनुसार करके ही इसका पूर्ण रूप से निवारण किया जा सकता है। फिर भी पितृदोष का प्रभाव कम करने के लिए कुछ आसान व सरल उपाय दिए जा रहे हैं जिनसे इसका प्रभाव कम किया जा सकता है।


निवारण - 


1. कुंडली में पितृ दोष बन रहा हो तब जातक को घर की दक्षिण दिशा की दीवार पर अपने स्वर्गीय परिजनों का फोटो लगाकर उस पर हार चढ़ाकर रोजाना उनकी पूजा स्तुति करना चाहिए। उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने से पितृदोष से मुक्ति मिलती है।


2. अपने स्वर्गीय परिजनों की निर्वाण तिथि पर जरूरतमंदों अथवा गुणी ब्राह्मणों को भोजन कराए। भोजन में मृतात्मा की कम से कम एक पसंद की वस्तु अवश्य बनाएं।


3. इसी दिन अगर हो सके तो अपनी सामर्थ्यानुसार गरीबों को वस्त्र और अन्न आदि दान करने से भी यह दोष मिटता है।


4. पीपल के वृक्ष पर दोपहर में जल, पुष्प, अक्षत, दूध, गंगाजल, काले तिल चढ़ाएं और स्वर्गीय परिजनों का स्मरण कर उनसे आशीर्वाद मांगें।


5. शाम के समय में दीप जलाएं और नाग स्तोत्र, महामृत्युंजय मंत्र या रुद्र सूक्त या पितृ स्तोत्र व नवग्रह स्तोत्र का पाठ करें। इससे भी पितृ दोष की शांति होती है।


6. सोमवार प्रात:काल में स्नान कर नंगे पैर शिव मंदिर में जाकर आक के 21 पुष्प, कच्ची लस्सी, बिल्वपत्र के साथ शिवजी की पूजा करें। 21 सोमवार करने से पितृदोष का प्रभाव कम होता है।


7. प्रतिदिन इष्ट देवता व कुल देवता की पूजा करने से भी पितृ दोष का शमन होता है।


8. कुंडली में पितृदोष होने से किसी गरीब कन्या का विवाह या किसी बीमार व्यक्ति की सहायता करने पर भी लाभ मिलता है।


9. ब्राह्मणों को प्रतीकात्मक गोदान, गर्मी में राहगीरों को शीतल जल पिलाने से भी पितृदोष से छुटकारा मिलता है।


10. पवित्र पीपल तथा बरगद के पेड़ लगाएं। विष्णु भगवान के मंत्र जाप, श्रीमद्भागवत गीता का पाठ करने से भी पित्तरों को शांति मिलती है और दोष में कमी आती है।


11. पितरों के नाम पर गरीब विद्यार्थियों की मदद करने तथा दिवंगत परिजनों के नाम से अस्पताल, मंदिर, विद्यालय, धर्मशाला आदि का निर्माण करवाने या दान देने से भी अत्यंत लाभ मिलता है।

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