बुधवार, 25 अक्टूबर 2023

शमी वृक्ष की उपयोगिता)

 --------: शमी वृक्ष की उपयोगिता :------

* शमी वृक्ष,  जेठ के महीने में भी हरा रहता है। ऐसी गर्मी में , जब रेगिस्तान में जानवरों के लिए,  धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता है,  तब यह पेड़ छाया देता है। जब खाने को कुछ नहीं होता है,  तब यह चारा देता है, जो लूंग कहलाता है।

* इसका फूल मींझर कहलाता है। इसका फल सांगरी कहलाता है, जिसकी सब्जी बनाई जाती है। यह फल सूखने पर, खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है।

* इसकी लकडी मजबूत होती है , जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है। इसकी जड़ से,  हल बनता है।

* वराहमिहिर के अनुसार,  जिस साल शमी वृक्ष ज्यादा फूलता - फलता है । उस साल सूखे की स्थिति का निर्माण होता है। विजयादशमी के दिन,  इसकी पूजा करने का,  एक तात्पर्य यह भी है कि,  यह वृक्ष आने वाली कृषि विपत्ती का,  पहले से संकेत दे देता है । जिससे किसान पहले से भी,  ज्यादा पुरुषार्थ करके आनेवाली विपत्ती से निजात पा सकता है।

* अकाल के समय,  रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का , यही एक मात्र सहारा है। सन्  १८९९ में,  दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था। जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग,  इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे थे।

* इस पेड़ के नीचे,  अनाज की पैदावार ज्यादा होती है।

* पांडवों द्वारा,  अज्ञातवास के अंतिम वर्ष में , गांडीव धनुष इसी पेड़ में छुपाए जाने के उल्लेख मिलते हैं।

* शमी या खेजड़ी के वृक्ष की लकड़ी,  यज्ञ की समिधा के लिए पवित्र मानी जाती है। वसन्त ऋतु में,  समिधा के लिए, शमी की लकड़ी का प्रावधान किया गया है। इसी प्रकार वारों में , शनिवार को शमी की समिधा का विशेष महत्त्व है।

* शमी शनि ग्रह का पेड़ है। राजस्थान में , सबसे अधिक होता है। छोटे तथा मोटे काँटों वाला भारी पेड़ होता है।

* कृष्ण जन्मअष्टमी को,  इसकी पूजा की जाती है।बिस्नोई समाज ने , इस पेड़ के काटे जाने पर, कई लोगों ने अपनी जान दे दी थी।

* कहा जाता है कि , इसके लकड़ी के भीतर विशेष आग होती है,  जो रगड़ने पर निकलती है। इसे ' शिंबा ' सफेद कीकर भी कहते हैं।

* घर के ईशान में आंवला वृक्ष, उत्तर में शमी (खेजड़ी), वायव्य में बेल (बिल्व वृक्ष) तथा दक्षिण में गूलर वृक्ष लगाने को शुभ माना गया है।

* कवि कालिदास ने,  शमी के वृक्ष के नीचे बैठ कर ही, तपस्या कर के ज्ञान की प्राप्ति की थी।

* ऋग्वेद के अनुसार,  आदिम काल में,  सबसे पहली बार पुरुओं ने , शमी और पीपल की टहनियों को रगड़ कर ही,  आग पैदा की थी।

* कवियों और लेखकों के लिये,  शमी बड़ा महत्व रखता है। भगवान चित्रगुप्त को , शब्दों और लेखनी का देवता माना जाता है और शब्द-साधक,  यम-द्वितीया को यथा-संभव, शमी के पेड़ के नीचे,  उसकी पत्तियों से , उनकी पूजा करते हैं।

* नवरात्र में,  मां दुर्गा की पूजा भी,  शमी वृक्ष के पत्तों से करने का,  शास्त्र में विधान है। इस दिन,  शाम को वृक्ष का पूजन करने से,  आरोग्य व धन की प्राप्ति होती है।

* कहते है,  एक आक के फूल को,  शिवजी पर चढ़ाना से , सोने के दान के बराबर फल देता है। हज़ार आक के फूलों कि अपेक्षा,  एक कनेर का फूल। हज़ार कनेर के फूलों के चढाने कि अपेक्षा,  एक बिल्व-पत्र से मिल जाता है। हजार बिल्वपत्रों के बराबर,  एक द्रोण या गूमा फूल फलदायी। हजार गूमा के बराबर,  एक चिचिड़ा, हजार चिचिड़ा के बराबर है,  एक कुश का फूल। हजार कुश फूलों के बराबर,  एक शमी का पत्ता। हजार शमी के पत्तो के बराबर,  एक नीलकमल। हजार नीलकमल से ज्यादा एक धतूरा। हजार धतूरों से भी ज्यादा,  एक शमी का फूल, शुभ और पुण्य देने वाला होता है। इसलिए भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए,  एक शमी का पुष्प चढ़ाएं। क्योंकि,  यह फूल शुभ और पुण्य देने वाला होता है।

* इसमें औषधीय गुण भी है। यह कफनाशक ,मासिक धर्म की समस्याओं को दूर करने वाला और प्रसव पीड़ा का निवारण करने वाला पौधा है।

" शन्नोदेवीरभीष्टय आपो भवन्तु 

                        पीतये शन्नोदेवीरभीष्टय । "

सोमवार, 23 अक्टूबर 2023

मनसा देवी की कथा एवं स्तोत्र

 मनसा देवी की कथा एवं स्तोत्र 

〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️

इनके नाम-स्मरण से सर्पभय और सर्पविष से मिलती है मुक्ति


प्राचीनकाल में जब सृष्टि में नागों का भय हो गया तो उस समय नागों से रक्षा करने के लिए ब्रह्माजी ने अपने मन से एक देवी का प्राकट्य किया, मन से प्रकट होने के कारण ये ‘मनसा देवी’ के नाम से जानी जाती हैं, देवी मनसा दिव्य योगशक्ति से सम्पन्न होने के कारण कुमारावस्था में ही भगवान शंकर के धाम कैलास पहुंच गईं और वहां गहन तप किया, इससे प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें सामवेद का अध्ययन कराया और ‘मृतसंजीवनी विद्या’ प्रदान की इसीलिए देवी मनसा को ‘मृतसंजीवनी’ और ‘ब्रह्मज्ञानयुता’ कहते हैं।


भगवान शंकर ने देवी मनसा को भगवान श्रीकृष्ण के अष्टाक्षर ( 18 अक्षर का ) मन्त्र—‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय नम:’ का भी उपदेश किया साथ ही वैष्णवी दीक्षा दी, भगवान शिव से शिक्षा प्राप्त करने के कारण ये शिव की शिष्या हुईं इसलिए ये ‘शैवी’ कहलाती हैं, इन्होंने भगवान शिव से सिद्धयोग प्राप्त किया था, इसलिए वे ‘सिद्धयोगिनी’ के नाम से भी जानी जाती हैं।


इसके बाद देवी मनसा ने तीन युगों तक पुष्कर में तप करके परमात्मा श्रीकृष्ण का दर्शन प्राप्त किया, उस समय गोपीपति भगवान श्रीकृष्ण ने उनके वस्त्र और शरीर को जीर्ण देखकर उनका नाम ‘जरत्कारु’ रख दिया, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी पूजा कर उन्हें संसार में पूजित होने का वर प्रदान किया, फिर देवताओं ने भी इनकी पूजा की तब से देवी मनसा की ब्रह्मलोक, स्वर्गलोक, पृथ्वीलोक और नागलोक में पूजा होने लगी और ये ‘विश्वपूजिता’ कहलाईं।


देवी मनसा अत्यन्त गौरवर्ण, सुन्दरी व मनोहारिणी हैं, अत: ये ‘जगद्गौरी’ के नाम से भी पूजी जाती हैं, ये भगवान विष्णु की भक्ति में संलग्न रहती हैं और मन से परमब्रह्म परमात्मा का ध्यान करती हैं इसलिए ‘वैष्णवी’ कहलाती हैं यही कारण है कि इनकी आराधना से भगवान विष्णु की कृपा भी प्राप्त हो जाती है।


भगवान श्रीकृष्ण से वर और सिद्धि प्राप्त कर ये कश्यप ऋषि के पास चली आईं, देवी मनसा कश्यप ऋषि की मानसी कन्या हैं । कश्यप ऋषि ने देवी मनसा का विवाह श्रीकृष्ण के अंशरूप महर्षि जरत्कारु के साथ कर दिया।

 महर्षि जरत्कारु की पत्नी होने के कारण इन्हें ‘जरत्कारुप्रिया’ भी कहते हैं। महर्षि जरत्कारु से इन्हें ‘आस्तीक’ नाम का पुत्र हुआ, वे आस्तीक मुनि की माता हैं इसलिए ‘आस्तीकमाता’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। भगवान शंकर ने आस्तीक को ‘मृत्युंजय विद्या’ की दीक्षा दी थी।


देवी मनसा 

〰️〰️〰️〰️

इनके नाम-स्मरण से सर्पभय और सर्पविष से मिलती है मुक्ति

〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️

श्रृंगी मुनि ने राजा परीक्षित को शाप दिया कि ‘एक सप्ताह के बीतते तक्षक सर्प उन्हें काट लेगा, शाप के अनुसार तक्षक ने राजा परीक्षित को डस भी लिया, पिता की ऐसी मृत्यु देखकर परीक्षित के पुत्र जनमेजय को सर्पों पर बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने नागवंश को समाप्त कर देने के लिए सर्पयज्ञ का अनुष्ठान शुरु कर दिया। ब्राह्मणों की मन्त्र शक्ति के प्रभाव से प्रत्येक आहुति पर सैंकड़ों सर्प यज्ञकुण्ड में खिंचे चले आते और भस्म हो जाते, इससे डरकर तक्षक इन्द्र की शरण में चला गया, तब ब्राह्मणों ने इन्द्र सहित तक्षक की यज्ञ में आहुति देने का विचार किया।


इससे भयभीत होकर इन्द्र देवी मनसा की शरण में जाकर अपनी रक्षा की प्रार्थना करने लगे, तब देवी मनसा में अपने पुत्र आस्तीक मुनि को राजा जनमेजय के पास भेजा आस्तीक मुनि के प्रयत्न से राजा जनमेजय ने सर्पयज्ञ समाप्त करवा दिया। 


इस प्रकार देवी मनसा और आस्तीक मुनि के कारण नागवंश की रक्षा हुई अत: वे ‘नागेश्वरी’ व ‘नागमाता’ के नाम से भी जानी जाती हैं। तभी से नाग देवी मनसा की विशेष पूजा करने लगे और नागराज शेष ने उन्हें अपनी बहिन बना लिया इसलिए इन्हें ‘नागभगिनी’ कहते हैं नाग ही इनके वाहन और शय्या बन गये। देवी मनसा सर्पविष का हरण करने में समर्थ हैं इसलिए ‘विषहरी’ कहलाती हैं।


देवी मनसा के बारह नाम का स्तोत्र

जरत्कारु जगद्गौरी मनसा सिद्धयोगिनी । 

वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा ।। 

जरत्कारुप्रिया आस्तीकमाता, विषहरीति च । 

महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता ।। 

द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले तु य: पठेत् । 

तस्य नागभयं नास्ति तस्य वंशोद्भवस्य च ।। 

(ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड ४५।१५-१७)


स्तोत्र पाठ का फल

〰️〰️〰️〰️〰️〰️

जरत्कारु, जगद्गौरी, मनसा, सिद्धयोगिनी, वैष्णवी, नागभगिनी, शैवी, नागेश्वरी, जरत्कारुप्रिया, आस्तीकमाता, विषहरा और महाज्ञानयुता—जो मनुष्य देवी मनसा के इन बारह नामों का पाठ पूजा के समय करता है, उसे तथा उसके वंशजों को नागों/सर्पों का भय नहीं रहता।


जिस भवन, घर या स्थान पर सर्प रहते हों वहां इस स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य सर्पभय से मुक्त हो जाता है।

जो मनुष्य इस स्तोत्र को नित्य पढ़ता है उसे देखकर नाग भाग जाते हैं।


दस लाख पाठ करने से यह स्तोत्र सिद्ध हो जाता है। जिस मनुष्य को यह स्तोत्र सिद्ध हो जाता है उस पर विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वह नागों को आभूषण बनाकर धारण कर सकता है।


अत्यन्त करुणा और दयामयी देवी मनसा को भक्त बहुत प्रिय हैं। आराधना करने पर वह मनुष्य को सभी प्रकार के अभ्युदय प्रदान कर देती है।


〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️

रविवार, 22 अक्टूबर 2023

दुर्गाष्टमी पूजा एवं कन्या पूजन विधान विशेष

दुर्गाष्टमी पूजा एवं कन्या पूजन विधान विशेष

〰〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️
आश्विन शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन माँ दुर्गा के भवानी स्वरूप का व्रत करने का विधान है। इस वर्ष 2023 में यह व्रत 22 अक्टूबर को किया जाएगा। इस दिन मां भवानी प्रकट हुई थी। इस दिन विधि-विधान से पूजा करनी चाहिए. दुर्गा अष्टमी के दिन माता दुर्गा के लिये व्रत किया जाता है।नवरात्रे में नौ रात्रि पूरी होने पर नौ व्रत पूरे होते है।इन दिनों में देवी की पूजा के अलावा दूर्गा पाठ, पुराण पाठ, रामायण, सुखसागर, गीता, दुर्गा सप्तशती की आदि पाठ श्रद्वा सहित करने चाहिए।

दूर्गा अष्टमी व्रत विधि
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
इस व्रत को करने वाले उपवासक को इस दिन प्रात: सुबह उठना चाहिए।और नित्यक्रमों से निवृ्त होने के बाद सारे घर की सफाई कर, घर को शुद्ध करना चाहिए, इसके बाद साधारणत: इस दिन खीर, चूरमा, दाल, हलवा आदि बनाये जाते है. व्रत संकल्प लेने के बाद घर के किसी एकान्त कोने में किसी पवित्र स्थान पर देवी जी का फोटो तथा अपने ईष्ट देव का फोटो लगाया जाता है।

यदि संभव हो तो किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा ही पूजन हवन का कार्य संपन्न कराया जाए परिस्तिथि वश ऐसा ना कर सके तो भाव से माँ का पूजन करना चाहिए।

सर्व प्रथम जिस स्थान पर यह पूजन किया जा रहा है, उसके दोनों और सिंदूर घोल कर, त्रिशुल व यम का चित्र बनाया जाता है. ठिक इसके नीचे चौकी बनावें. त्रिशुल व यम के चित्र के साथ ही एक और 52 व दूसरी और 64 लिखें। 52 से अभिप्राय 52 भैरव है, तथा 64 से अभिप्रात 64 योगिनियां है।साथ ही एक ओर सुर्य व दूसरी और चन्द्रमा बनायें।

किसी मिट्टी के बर्तन या जमीन को शुद्ध कर वेदी बनायें. उसमें जौ तथा गेंहूं बोया जाता है. कलश अपने सामर्थ्य के अनुसर सोना, चांदी, तांबा या मिट्टी का होना चाहिए। कलश पर नारियल रखा जाता है। नारियल रखने से पहले नीचे किनारे पर आम आदि के पत्ते भी लगाने चाहिए।

कलश में मोली लपेटकर सतिया बनाना चाहिए. पूर्व दिशा की ओर मुख करके पूजा करनी चाहिए।पूजा करने वाले का मुंह दक्षिण दिशा की ओर नहीं होना चाहिए। दीपक घी से जलाना चाहिए।नवरात्र व्रत का संकल्प हाथ में पानी, चावल, फूल तथा पैसे लेकर किया जाता है। इसके बाद श्री गणेश जी को चार बार चल के छींटे देकर अर्ध्य, आचमन और मोली चढाकर वस्त्र दिये जाते है. रोली से तिलक कर, चावल छोडे जाते है. पुष्प चढायें जाते है, धूप, दीप या अगरबत्ती जलाई जाती है।

भोग बनाने के लिये सबसे पहले चावल छोडे जाते है। इसके बाद नैवेद्ध भोग चढाया जाता है।जमीन पर थोडा पानी छोडकर आचमन करावें, पान-सुपारी एवं लौंग, इलायची भी चढायें।इसी प्रकर देवी जी का पूजन भी करें। और फूल छोडे, और सामर्थ्य के अनुसार नौ, सात, पांच,तीन या एक कन्या को भोजन करायें।इस व्रत में अपनी शक्ति के अनुसार उपवास किया जा सकता है। एक समय दोपहर के बाद अथवा रात को भोजन किया जा सकता है। पूरे नौ दिन तक व्रत न हों, तो सात, पांच या तीन करें, या फिर एक पहला और एक आखिरी भी किया जा सकता है।

व्रत की अवधि में धरती पर शुद्ध विछावन करके सोवें, शुद्धता से रहें, वैवाहिक जीवन में संयम का पालन करें, क्षमा, दया, उदारता और साहस बनाये रखें. साथ ही लोभ, मोह का त्याग करें. सायंकाल में दीपक जलाकर रखना चाहिए। नवरात्र व्रत कर कथा का पाठ अवश्य करना चाहिए।

देवी जी को वस्त्र, सामान इत्यादि चढाने चाहिए जिसमें चूडी, आभूषण, ओढना या घाघरा, धोती, काजल, बिन्दी इत्यादि और जो भी सौभाग्य द्रव्य हो, वे सभी माता को दान करने चाहिए।

देवी की सहस्त्रनाम द्वारा आराधना
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
देवी की प्रसन्नता के लिए पंचांग साधन का प्रयोग करना चाहिए। पंचांग साधन में पटल, पद्धति, कवच, सहस्त्रनाम और स्रोत हैं। पटल का शरीर, पद्धति को शिर, कवच को नेत्र, सहस्त्रनाम को मुख तथा स्रोत को जिह्वा कहा जाता है।

इन सब की साधना से साधक देव तुल्य हो जाता है। सहस्त्रनाम में देवी के एक हजार नामों की सूची है। इसमें उनके गुण हैं व कार्य के अनुसार नाम दिए गए हैं। सहस्त्रनाम के पाठ करने का फल भी महत्वपूर्ण है। इन नामों से हवन करने का भी विधान है। इसके अंतर्गत नाम के पश्चात नमः लगाकर स्वाहा लगाया जाता है।

हवन की सामग्री के अनुसार उस फल की प्राप्ति होती है। सर्व कल्याण व कामना पूर्ति हेतु इन नामों से अर्चन करने का प्रयोग अत्यधिक प्रभावशाली है। जिसे सहस्त्रार्चन के नाम से जाना जाता है। सहस्त्रार्चन के लिए देवी की सहस्त्र नामावली जो कि बाजार में आसानी से मिल जाती है कि आवश्यकता पड़ती है।

इस नामावली के एक-एक नाम का उच्चारण करके देवी की प्रतिमा पर, उनके चित्र पर, उनके यंत्र पर या देवी का आह्वान किसी सुपारी पर करके प्रत्येक नाम के उच्चारण के पश्चात नमः बोलकर भी देवी की प्रिय वस्तु चढ़ाना चाहिए। जिस वस्तु से अर्चन करना हो वह शुद्ध, पवित्र, दोष रहित व एक हजार होना चाहिए।

अर्चन में बिल्वपत्र, हल्दी, केसर या कुंकुम से रंग चावल, इलायची, लौंग, काजू, पिस्ता, बादाम, गुलाब के फूल की पंखुड़ी, मोगरे का फूल, चारौली, किसमिस, सिक्का आदि का प्रयोग शुभ व देवी को प्रिय है। यदि अर्चन एक से अधिक व्यक्ति एक साथ करें तो नाम का उच्चारण एक व्यक्ति को तथा अन्य व्यक्तियों को नमः का उच्चारण अवश्य करना चाहिए।

अर्चन की सामग्री प्रत्येक नाम के पश्चात, प्रत्येक व्यक्ति को अर्पित करना चाहिए। अर्चन के पूर्व पुष्प, धूप, दीपक व नैवेद्य लगाना चाहिए। दीपक इस तरह होना चाहिए कि पूरी अर्चन प्रक्रिया तक प्रज्वलित रहे। अर्चनकर्ता को स्नानादि आदि से शुद्ध होकर धुले कपड़े पहनकर मौन रहकर अर्चन करना चाहिए।

इस साधना काल में लाल ऊनी आसन पर बैठना चाहिए तथा पूर्ण होने के पूर्व उसका त्याग किसी भी स्थिति में नहीं करना चाहिए। अर्चन के उपयोग में प्रयुक्त सामग्री अर्चन उपरांत किसी साधन, ब्राह्मण, मंदिर में देना चाहिए। कुंकुम से भी अर्चन किए जा सकते हैं। इसमें नमः के पश्चात बहुत थोड़ा कुंकुम देवी पर अनामिका-मध्यमा व अंगूठे का उपयोग करके चुटकी से चढ़ाना चाहिए।

बाद में उस कुंकुम से स्वयं को या मित्र भक्तों को तिलक के लिए प्रसाद के रूप में दे सकते हैं। सहस्त्रार्चन नवरात्र काल में एक बार कम से कम अवश्य करना चाहिए। इस अर्चन में आपकी आराध्य देवी का अर्चन अधिक लाभकारी है। अर्चन प्रयोग बहुत प्रभावशाली, सात्विक व सिद्धिदायक होने से इसे पूर्ण श्रद्धा व विश्वास से करना चाहिए।

कन्यापूजन विधि निर्देश
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
नवरात्र पर्व  के दौरान कन्या पूजन का बडा महत्व है। नौ कन्याओं को नौ देवियों के प्रतिविंब के रूप में पूजने के बाद ही भक्त का नवरात्र व्रत पूरा होता है। अपने सामर्थ्य के अनुसार उन्हें भोग लगाकर दक्षिणा देने मात्र से ही मां दुर्गा प्रसन्न हो जाती हैं और भक्तों को उनका मनचाहा वरदान देती हैं।

कन्या पूजन के लिए निर्दिष्ट दिन
〰〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰
कुछ लोग नवमी के दिन भी कन्या पूजन करते हैं लेकिन अष्टमी के दिन कन्या पूजन करना श्रेष्ठ रहता है। कन्याओं की संख्या 9 हो तो अति उत्तम नहीं तो दो कन्याओं से भी काम चल सकता है।

इस वर्ष अष्टमी तिथि को लेकर लोगो के मन मे कई भ्रांतियां है इसके समाधान हेतु दोबारा अष्टमी तिथी का शात्रोक्त निर्णय प्रेषित कर रहे है 

"चैत्र शुक्लाष्टमयां भावान्या उत्पत्ति:,
तत्र नावमीयुता अष्टमी ग्राह्या।"

यदि दूसरे दिन अष्टमी नवमीविधा ना मिले, यानी यह वहां त्रिमुहूर्ताल्प हो तो दुर्गाष्टमी पहले दिन होगी। इस वर्ष दुर्गाष्टमी 9 अप्रैल तथा दुर्गानवमी 10 अप्रैल के दिन मनाई जाएगी अतः अष्टमी के दिन कन्या पूजन करने वाले 9 एवं नवमी के दिन करने वाले 10 अप्रैल के दिन निसंकोच होकर अपने कर्म कर सकते है मन से किसी भी प्रकार के संशय भय की हटा दें माता केवल अपनी संतानों का कल्याण ही करती है। पूजा पाठ में शुद्धि के साथ भाव को प्रधान माना गया है। 

कन्या पूजन विधि
〰〰️〰️〰️〰️〰
सबसे पहले कन्याओं के दूध से पैर पूजने चाहिए. पैरों पर अक्षत, फूल और कुंकुम लगाना चाहिए। इसके बाद भगवती का ध्यान करते हुए सबको भोग अर्पित करना चाहिए अर्थात सबको खाने के लिए प्रसाद देना चाहिए। अधिकतर लोग इस दिन प्रसाद के रूप में हलवा-पूरी देते हैं। जब सभी कन्याएं खाना खा लें तो उन्हें दक्षिणा अर्थात उपहार स्वरूप कुछ देना चाहिए फिर सभी के पैर को छूकर आशीर्वाद ले। इसके बाद इन्हें ससम्मान विदा करना चाहिए।

कितनी हो कन्याओं की उम्र
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
ऐसा माना जाता है कि दो से दस वर्ष तक की कन्या देवी के शक्ति स्वरूप की प्रतीक होती हैं. कन्याओं की आयु 2 वर्ष से ऊपर तथा 10 वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिए।  दो वर्ष की कन्या कुमारी , तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति , चार वर्ष की कन्या कल्याणी , पांच वर्ष की कन्या रोहिणी, छह वर्ष की कन्या कालिका , सात वर्ष की चंडिका , आठ वर्ष की कन्या शांभवी , नौ वर्ष की कन्या दुर्गा तथा दस वर्ष की कन्या सुभद्रा मानी जाती है।  इनको नमस्कार करने के मंत्र निम्नलिखित हैं।

1. कौमाटर्यै नम: 2. त्रिमूर्त्यै नम: 3. कल्याण्यै नम: 4. रोहिर्ण्य नम: 5. कालिकायै नम: 6. चण्डिकार्य नम: 7. शम्भव्यै नम: 8. दुर्गायै नम: 9. सुभद्रायै नम:।

नौ देवियों का रूप और महत्व 
〰〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰
1.  हिंदू धर्म में दो वर्ष की कन्या को कुमारी कहा जाता है. ऐसी मान्यता है कि इसके पूजन से दुख और दरिद्रता समाप्त हो जाती है।

2.  तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति मानी जाती है. त्रिमूर्ति के पूजन से धन-धान्य का आगमन और संपूर्ण परिवार का कल्याण होता है।

3.  चार वर्ष की कन्या कल्याणी के नाम से संबोधित की जाती है. कल्याणी की पूजा से सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।

4.  पांच वर्ष की कन्या रोहिणी कही जाती है, रोहिणी के पूजन से व्यक्ति रोग-मुक्त होता है।

5.  छ:वर्ष की कन्या कालिका की अर्चना से विद्या, विजय, राजयोग की प्राप्ति होती है।

6.  सात वर्ष की कन्या चण्डिका के पूजन से ऐश्वर्य मिलता है।

7.  आठ वर्ष की कन्या शाम्भवी की पूजा से वाद-विवाद में विजय होती है।

8.  नौ वर्ष की कन्या को दुर्गा कहा जाता है. किसी कठिन कार्य को सिद्धि करने तथा दुष्ट का दमन करने के उद्देश्य से दुर्गा की पूजा की जाती है।

9.  दस वर्ष की कन्या को सुभद्रा कहते हैं. इनकी पूजा से लोक-परलोक दोनों में सुख प्राप्त होता है।

नवरात्र पर्व पर कन्या पूजन के लिए कन्याओं की 7, 9 या 11 की संख्या मन्नत के मुताबिक पूरी करने में ही पसीना आ जाता है. सीधी सी बात है जब तक समाज कन्या को इस संसार में आने ही नहीं देगा तो फिर पूजन करने के लिये वे कहां से मिलेंगी।

जिस भारतवर्ष में कन्या को देवी के रूप में पूजा जाता है, वहां आज सर्वाधिक अपराध कन्याओं के प्रति ही हो रहे हैं. यूं तो जिस समाज में कन्याओं को संरक्षण, समुचित सम्मान और पुत्रों के बराबर स्थान नहीं हो उसे कन्या पूजन का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. लेकिन यह हमारी पुरानी परंपरा है जिसे हम निभा रहे हैं और कुछ लोग शायद ढो रहे हैं. जब तक हम कन्याओं को यथार्थ में महाशक्ति, यानि देवी का प्रसाद नहीं मानेंगे, तब तक कन्या-पूजन नितान्त ढोंग ही रहेगा. सच तो यह है कि शास्त्रों में कन्या-पूजन का विधान समाज में उसकी महत्ता को स्थापित करने के लिये ही बनाया गया है।

〰〰🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️

रविवार, 15 अक्टूबर 2023

इन ९ औषधियों में विराजती है माँ नवदुर्गा

 

*इन ९ औषधियों में विराजती है माँ नवदुर्गा


माँ दुर्गा नौ रूपों में अपने भक्तों का कल्याण कर उनके सारे संकट हर लेती हैं। इस बात का जीता जागता प्रमाण है, संसार में उपलब्ध वे औषधियां,

जिन्हें माँ दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों के रूप में जाना जाता है।


नवदुर्गा के नौ औषधि स्वरूपों को सर्वप्रथम मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के रूप में दर्शाया गया और चिकित्सा प्रणाली के इस रहस्य को ब्रह्माजी

द्वारा उपदेश में दुर्गा कवच कहा गया है।


ऐसा माना जाता है कि यह औषधियां समस्त प्राणियों के रोगों को हरने वाली और उनसे बचा रखने के लिए एक कवच का कार्य करती हैं, इसलिए इसे दुर्गा कवच कहा गया। 


इनके प्रयोग से मनुष्य अकाल मृत्यु से बचकर सौ वर्ष जीवन जी सकता है।

आइए जानते हैं दिव्य गुणों वाली नौ औषधियों को जिन्हें नवदुर्गा कहा गया है।


(1) प्रथम शैलपुत्री (हरड़) : 

कई प्रकार के रोगों में काम आने वाली औषधि हरड़ हिमावती है जो देवी शैलपुत्री का ही एक रूप है.यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है यह पथया, हरीतिका, अमृता, हेमवती, कायस्थ, चेतकी और श्रेयसी सात प्रकार की होती है. इसका प्रयोग करने से पेट की सभी समस्‍याएं दूर रहती हैं।


(2) ब्रह्मचारिणी (ब्राह्मी) : 

ब्राह्मी आयु व याददाश्त बढ़ाकर, रक्तविकारों को दूर कर स्वर को मधुर बनाती है. इसलिए इसे सरस्वती भी कहा जाता है.


यह मन एवं मस्तिष्क में शक्ति प्रदान करती है और गैस व मूत्र संबंधी रोगों की प्रमुख दवा है। यह मूत्र द्वारा रक्त विकारों को बाहर निकालने में समर्थ औषधि है। 

अत: इन रोगों से पीड़ित व्यक्ति को ब्रह्मचारिणी की आराधना करना चाहिए।


(3) चंद्रघंटा (चंदुसूर) : 

यह एक ऎसा पौधा है जो धनिए के समान है। इस पौधे की पत्तियों की सब्जी बनाई जाती है, जो लाभदायक होती है।


यह औषधि मोटापा दूर करने में लाभप्रद है, इसलिए इसे चर्महन्ती भी कहते हैं। शक्ति को बढ़ाने वाली, हृदय रोग को ठीक करने वाली चंद्रिका औषधि है।


(4) कूष्मांडा (पेठा) : 

नवदुर्गा का चौथा रूप कुष्मांडा है। इस औषधि से पेठा मिठाई बनती है, इसे कुम्हड़ा भी कहते हैं जो पुष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक व रक्त के विकार को ठीक कर पेट को साफ करने में सहायक है।


मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति के लिए यह अमृत समान है। यह शरीर के समस्त दोष को दूर कर हृदय रोग को ठीक करता है। कुम्हड़ा रक्त पित्त एवं गैस को दूर करता है। इन बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को पेठे के उपयोग करना चाहिए।


(5) स्कंदमाता (अलसी) : 

देवी स्कंदमाता औषधि के रूप में अलसी में विद्यमान हैं. यह वात, पित्त व कफ रोगों की नाशक औषधि है.इसमे फाइबर की मात्रा ज्यादा होने से इसे सभी को भोजन के पश्चात काले नमक से भूंजकर प्रतिदिन सुबह शाम लेना चाहिए यह खून भी साफ करता है।


(6) कात्यायनी (मोइया) : 

देवी कात्यायनी को आयुर्वेद में कई नामों से जाना जाता है जैसे अम्बा, अम्बालिका व अम्बिका, इसके अलावा इन्हें मोइया भी कहते हैं.यह औषधि कफ, पित्त व गले के रोगों का नाश करती है।


(7) कालरात्रि (नागदौन) : 

यह देवी नागदौन औषधि के रूप में जानी जाती हैं.यह सभी प्रकार के रोगों में लाभकारी और मन एवं मस्तिष्क के विकारों को दूर करने वाली औषधि है.यह पाइल्स के लिये भी रामबाण औषधि है इसे स्थानीय भाषा जबलपुर में दूधी कहा जाता है।


(8) महागौरी (तुलसी) : 

तुलसी सात प्रकार की होती है सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरूता, दवना, कुढेरक, अर्जक और षटपत्र. ये रक्त को साफ कर ह्वदय रोगों का नाश करती है. एकादशी को छोडकर प्रतिदिन सुबह ग्रहण करना चाहिए।


नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता


(9) सिद्धिदात्री (शतावरी) : 

दुर्गा का नौवां रूप सिद्धिदात्री है जिसे नारायणी शतावरी कहते हैं. यह बल, बुद्धि एवं विवेक के लिए उपयोगी है.


विशेषकर प्रसूताओं (जिन माताओं को ऑपरेशन के पश्चात अथवा कम दूध आता है) उनके लिए यह रामबाण औषधि है को इसका सेवन करना चाहिए।


इस प्रकार प्रत्येक देवी आयुर्वेद की भाषा में मार्कण्डेय पुराण के अनुसार नौ औषधि के रूप में मनुष्य की प्रत्येक बीमारी को ठीक कर रक्त का संचालन उचित एवं साफ कर मनुष्य को स्वस्थ करती है।


अत: मनुष्य को इनकी आराधना एवं सेवन करना चाहिए।


🌺🙏 *जय माता दी* 🙏🌺

नवरात्री के नौ दिन माँ के अलग-अलग भोग

 नवरात्री के नौ दिन माँ के अलग-अलग भोग

🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸

१👉 प्रथम नवरात्रि पर मां को गाय का शुद्ध घी या फिर सफेद मिठाई अर्पित की जाती है।


२👉 दूसरे नवरात्रि के दिन मां को शक्कर का भोग लगाएं और भोग लगाने के बाद इसे घर में सभी सदस्यों को दें। इससे उम्र में वृद्धि होती है।


३👉 तृतीय नवरात्रि के दिन दूध या दूध से बनी मिठाई, खीर का भोग मां को लगाएं एवं इसे ब्राह्मण को दान करें। इससे दुखों से मुक्ति होकर परम आनंद की प्राप्ति होती है। 


४👉 चतुर्थ नवरात्र पर मां भगवती को मालपुए का भोग लगाएं और ब्राह्मण को दान दें। इससे बुद्धि का विकास होने के साथ निर्णय लेने की शक्ति बढ़ती है। 


५ 👉नवरात्रि के पांचवें दिन मां को केले का नैवेद्य अर्पित करने से शरीर स्वस्थ रहता है। 


६ 👉नवरात्रि के छठे दिन मां को शहद का भोग लगाएं, इससे आकर्षण शक्ति में वृद्धि होती है। 


७ 👉सप्तमी पर मां को गुड़ का नैवेद्य अर्पित करने और इसे ब्राह्मण को दान करने से शोक से मुक्ति मिलती है एवं अचानक आने वाले संकटों से रक्षा भी होती है।


८ 👉अष्टमी व नवमी पर मां को नारियल का भोग लगाएं और नारियल का दान करें। इससे संतान संबंधी परेशानियों से मुक्ति मिलती है।


🙏🙏🙏

🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸

शनिवार, 14 अक्टूबर 2023

शनैश्चरी सर्वपितृ अमावस्या विशेष

 शनैश्चरी सर्वपितृ अमावस्या विशेष

〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️

शनिवार, 14 अक्टूबर को आश्विम मास की अमावस्या तिथि है। इस दिन पितृ पक्ष समाप्त हो जाएगा। इसे सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या कहा जाता है। अगले दिन यानी रविवार, 15 अक्टूबर से शारदीय नवरात्रि शुरू हो जाएगी। इस साल पितृ पक्ष में शनिवार और अमावस्या को योग बना है। 


यह पितरों की शान्ति के लिए सर्वश्रेष्ठ तिथि है। इसलिए यह सर्वपितृकार्येषु अमावस्या के रुप में भी जानी जाती है।


जो व्यक्ति पितृ पक्ष के पन्द्रह दिनों तक श्राद्ध-तर्पण आदि नहीं करते हैं, वे अपने पितरों के लिए श्राद्ध आदि सर्वपितृ अमावस्या को करते हैं। जिनको अपने पितरों की तिथि याद नहीं हो, उनके निमित्त भी श्राद्ध, तर्पण, दान आदि पितृ पक्ष की अमावस्या को किया जाता है इसलिए इसे सर्वपितृ अमावस्या कहते हैं। पितृ पक्ष की अमावस्या के दिन सभी पितरों का विसर्जन होता है इसलिए इसे पितृविसर्जनी अमावस्या भी कहते हैं।


सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितृगण अपने पुत्रादि के घर के द्वार पर पिण्डदान एवं श्राद्ध आदि की आशा में आते हैं, यदि वहां उन्हें अन्न-जल नहीं मिलता तो वे शाप देकर चले जाते हैं।


श्राद्ध के द्वारा पितृ-ऋण उतारना आवश्यक है। क्योंकि जिन माता-पिता ने हमारी आयु, आरोग्य और सुख-सौभाग्य आदि के लिए अनेक प्रयास किए, उनके ऋण से मुक्त न होने पर हमारा जन्म ग्रहण करना निरर्थक होता है । पितृ ऋण उतारने में कोई ज्यादा खर्चा भी नहीं है । केवल वर्ष में एक बार पितृ पक्ष में उनकी मृत्यु तिथि पर या अमावस्या को, आसानी से सुलभ जल, तिल, जौ, कुशा और पुष्प आदि से उनका श्राद्ध और तर्पण करें और गो-ग्रास देकर अपनी सामर्थ्यानुसार ब्राह्मणों को भोजन करा देने मात्र से पितृ ऋण उतर जाता है । 


कैसे करें सर्वपितृ अमावस्या का श्राद्ध ?

〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️

अपने पितरों का श्राद्ध पूर्ण श्रद्धा भाव से करना चाहिए । श्राद्ध में अपनी सामर्थ्यानुसार अच्छे-से-अच्छा पकवान खीर, पूरी, इमरती, दही बड़े, केसरिया दूध आदि पितरों के लिए बनाने चाहिए । ऐसे पकवानों से पितर बहुत तृप्त होते हैं और उनकी आत्मा सुख पाती है । इसी से पुत्र को उनका आशीर्वाद मिलता है और हमारा सौभाग्य और वंश परम्परा बढ़ती है । घर में सुख-शांति और धर्म-कर्म में रुचि बढ़ती है । परिवार में संतान हृष्ट-पुष्ट, आयुष्मान व सौभाग्यशाली होती है ।


आयु: पुत्रान् यश: स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम् । 

पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृ पूजनात् ।।


अर्थात्—पितरों का पूजन (पिण्डदान) करने वाला मनुष्य दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य की प्राप्ति करता है ।


पितरों को श्राद्ध का अन्न अमृत के रूप में मिलता है । जो पितर जिस योनि में होता है, उसे वहीं पर मंत्रों द्वारा श्राद्धान्न पहुंचता है । श्राद्ध कर्म में पंचबलि निकाल कर ही ब्राह्मण भोजन करायें । पंचबलि के लिए पांच जगह थोड़ा-थोड़ा सभी प्रकार का भोजन परोस कर हाथ में जल, रोली, चावल, पुष्प लेकर पंचबलि दान का संकल्प करें । पंचबलि में ये पांच बलि होती हैं—


गोबलि👉 गाय पितरों को भूलोक से भुव लोक तक पहुंचाती है और वैतरणी नदी पार कराती है । 


काकबलि👉 कौवा यम पक्षी है इसलिए श्राद्ध के अन्न का एक अंश इसे भी दिया जाता है ।


श्वानबलि👉 कुत्ता भी यम पशु है । यह दूरदर्शी भी है और रक्षक भी है ।


भिक्षुक👉 किसी भूखे भिखारी को भी श्राद्ध का अन्न अवश्य दिया जाता है।


पिपीलिकादिबलि👉 चीटीं आदि कीट पतंगों के लिए भी श्राद्ध के अन्न की व्यवस्था की गयी है, ताकि किसी भी अवस्था में हमारे पितरों को शांति और मोक्ष मिले ।


पंचबलि निकालकर कौवों के निमित्त निकाला गया अन्न कौवे को, कुत्ता का अन्न कुत्ते को और भिक्षुक का भाग भिखारी को देने के बाद बाकी सब भोजन गाय को खिला दें । 


फिर ब्राह्मणों के चरणों पर जल के छींटें लगाकर रक्षक मन्त्र बोलकर भूमि पर काले तिल बिखेर दें और ब्राह्मणों के रूप में अपने पितरों का ध्यान करना चाहिए । रक्षक मन्त्र का अर्थ है—‘यहां सम्पूर्ण हव्य-कव्य के भोक्ता यज्ञेश्वर भगवान श्रीहरि विराजमान हैं, अत: उनकी उपस्थिति के कारण राक्षस यहां से तुरन्त भाग जाएं ।’ इसके बाद ब्राह्मणों को गरम-गरम भोजन करायें ।


यदि किसी पुरुष का श्राद्ध हो तो ब्राह्मण को धोती, कुर्ता, गमछा व दक्षिणा देकर तिलक लगाकर विदा करना चाहिए और यदि स्त्री का श्राद्ध हो तो ब्राह्मणी को भोजन कराकर साड़ी, ब्लाउज और दक्षिणा देकर विदा करें । विदा करते समय उनके चरण-स्पर्श अवश्य करने चाहिए ।


श्राद्ध कर्म की पूर्णता के लिए करें ये प्रार्थना


अन्नहीनं क्रियाहीनं विधिहीनं च यद् भवेत् । 

अच्छिद्रमस्तु तत्सर्वं पित्रादीनां प्रसादत: ।।


तथा इसके बाद दक्षिण की ओर मुख करके पितरों से इस प्रकार प्रार्थना करें—‘हमारे कुल में दान देने वालों की, ज्ञान की और संतानों की वृद्धि हो । शास्त्रों, ब्राह्मणों, पितरों और देवताओं में हमारी श्रद्धा बढ़े । मेरे पास दान देने के लिए बहुत-से पदार्थ हों ।’


पितरों की शान्ति के लिए विशेष उपाय

〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️

👉 सर्वपितृ श्राद्ध के दिन श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय का माहात्म्य पढ़कर फिर पूरा सातवां अध्याय पढ़ें । उसका पुण्यफल पितरों को अर्पित करने का महान पुण्य बताया गया है।


👉 पितृविसर्जनी अमावस्या के दिन शाम को सूर्यास्त के समय एक तेल का दीपक जलाकर घर के दरवाजे के बाहर रखा जाता है। इसका भाव यह है कि पितृगण विदा होकर जब अपने लोक को वापिस लौटें तो उन्हें रास्ता साफ दिखाई दे और वे प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थान को चले जाएं । साथ ही यह प्रार्थना करें—


सेवा कछु कीन्हीं नहीं, दिया न कुछ भी ध्यान । 

गलती सब माफी करो, हमें जान अज्ञान ।। 

दीप ज्योति हमने करी, लीजों पंथ निहार । 

जो कुछ भी हमसे बनो, दीनों तुम्हें अाहार ।। 

नमस्कार पुनि पुनि करुं, रखियों वंश को ध्यान । 

आशीश सदा देते रहो फूले फले तव बगियान ।।


सर्वपितृ अमावस्या श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन कराते समय रखें इन बातों का ध्यान

〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️

👉 श्राद्ध कर्म में शरीर, द्रव्य, स्त्री, भूमि, मन, मन्त्र और ब्राह्मण—ये सात चीजें विशेष रूप से शुद्ध होनी चाहिए ।


👉 श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को रोना नहीं चाहिए, न ही क्रोध करना चाहिए । आंसू गिराने से श्राद्ध का अन्न भूतों को, क्रोध करने से शत्रुओं को, झूठ बोलने से कुत्तों को और श्राद्ध के अन्न से पैर छुआने से वह भोजन राक्षसों को प्राप्त होता है ।


👉 श्राद्ध कर्म में उतावलापन और जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए ।


👉 जहां श्राद्ध कर्म किया जा रहा है, वहां से पक्षियों, कौओं, चींटिओं आदि को हटाना नहीं चाहिए क्योंकि संभव है इनके ही रूप में पितरगण वहां खाने की इच्छा से आये हों ।


👉 श्राद्ध में नमक कभी नहीं देना चाहिए ।


👉 श्राद्ध में ब्राह्मण की जगह मित्र को भोजन कराकर दक्षिणा नहीं देनी चाहिए। इसका परलोक में कोई फल नहीं मिलता है।


👉 श्राद्ध करने वाला व्यक्ति यदि कोई कामना के लिए नित्य जप करता है को श्राद्ध के दिन उसे जप नहीं करना चाहिए ।


👉 श्राद्ध स्थल से सेवक, लंगड़े, काने या ऐसे व्यक्ति को जिसके ज्यादा या कम अंग हों, हटा देना चाहिए ।


👉 श्राद्ध कर्म में जूठा बचा हुआ भोजन किसी को नहीं देना चाहिए ।


👉 श्राद्ध में ब्राह्मणों से यह नहीं पूछना चाहिए कि भोजन कैसा बना है । जब तक ब्राह्मण मौन होकर भोजन करते हैं और भोजन के गुण नहीं बतलाते तब तक ही पितर भोजन करते हैं ।


सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितृ दोष शांति के साथ ही कालसर्प योग, ढैय्या तथा साढ़ेसाती सहित शनि संबंधी अनेक बाधाओं से मुक्ति पाने का यह दुर्लभ समय होता है जब शनिवार के दिन अमावस्या का समय हो जिस कारण इसे शनि अमावस्या कहा जाता है।


श्री शनिदेव भाग्यविधाता हैं, यदि निश्छल भाव से शनिदेव का नाम लिया जाये तो व्यक्ति के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। श्री शनिदेव तो इस चराचर जगत में कर्मफल दाता हैं जो व्यक्ति के कर्म के आधार पर उसके भाग्य का फैसला करते हैं। इस दिन शनिदेव का पूजन सफलता प्राप्त करने एवं दुष्परिणामों से छुटकारा पाने हेतु बहुत उत्तम होता है। इस दिन शनि देव का पूजन सभी मनोकामनाएं पूरी करता है।


शनिश्चरी अमावस्या पर शनिदेव का विधिवत पूजन कर सभी लोग पर्याप्त लाभ उठा सकते हैं। इस दिन विशेष अनुष्ठान द्वारा पितृदोष और कालसर्प दोषों से मुक्ति पाई जा सकती है. इसके अलावा शनि का पूजन और तैलाभिषेक कर शनि की साढेसाती, ढैय्या और महादशा जनित संकट और आपदाओं से भी मुक्ति पाई जा सकती है,


शनैश्चरी अमावस्या महत्व 

〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️

शनि अमावस्या ज्योतिषशास्त्र के अनुसार साढ़ेसाती एवं ढ़ैय्या के दौरान शनि व्यक्ति को अपना शुभाशुभ फल प्रदान करता है. शनि अमावस्या बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है. इस दिन शनि देव को प्रसन्न करके व्यक्ति शनि के कोप से अपना बचाव कर सकते हैं. पुराणों के अनुसार शनि अमावस्या के दिन शनि देव को प्रसन्न करना बहुत आसान होता है. शनि अमावस्या के दिन शनि दोष की शांति बहुत ही सरलता कर सकते हैं।


इस दिन महाराज दशरथ द्वारा लिखा गया शनि स्तोत्र का पाठ करके शनि की कोई भी वस्तु जैसे काला तिल, लोहे की वस्तु, काला चना, कंबल, नीला फूल दान करने से शनि साल भर कष्टों से बचाए रखते हैं. जो लोग इस दिन यात्रा में जा रहे हैं और उनके पास समय की कमी है वह सफर में शनि नवाक्षरी मंत्र अथवा “कोणस्थ: पिंगलो बभ्रु: कृष्णौ रौद्रोंतको यम:। सौरी: शनिश्चरो मंद:पिप्पलादेन संस्तुत:।।” मंत्र का जप करने का प्रयास करते हैं करें तो शनि देव की पूर्ण कृपा प्राप्त होती है।


पितृदोष से मुक्ति

〰️〰️〰️〰️〰️

शनि अमावस्या पितृदोष मुक्ति के लिये उत्तम दिन है। पितृ शांति के लिये अमावस्या तिथि का विशेष महत्व है और अमावस्या अगर शनिवार के दिन पड़े तो इसका महत्व और अधिक बढ़ जाता है. शनिदेव को अमावस्या अधिक प्रिय है. शनि देव की कृपा का पात्र बनने के लिए शनिश्चरी अमावस्या को सभी को विधिवत आराधना करनी चाहिए. भविष्यपुराण के अनुसार शनिश्चरी अमावस्या शनिदेव को अधिक प्रिय रहती है।


शनैश्चरी अमावस्या के दिन पितरों का श्राद्ध अवश्य करना चाहिए. जिन व्यक्तियों की कुण्डली में पितृदोष या जो भी कोई पितृ दोष की पिडा़ को भोग रहे होते हैं उन्हें इस दिन दान इत्यादि विशेष कर्म करने चाहिए. यदि पितरों का प्रकोप न हो तो भी इस दिन किया गया श्राद्ध आने वाले समय में मनुष्य को हर क्षेत्र में सफलता प्रदान करता है, क्योंकि शनिदेव की अनुकंपा से पितरों का उद्धार बडी सहजता से हो जाता है।


शनि अमावस्या पूजन

〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️

पवित्र नदी के जल से या नदी में स्नान कर शनि देव का आवाहन और दर्शन करना चाहिए. शनिदेव का पर नीले पुष्प, बेल पत्र, अक्षत अर्पण करें. शनिदेव को प्रसन्न करने हेतु शनि मंत्र “ॐ शं शनैश्चराय नम:”, अथवा “ॐ प्रां प्रीं प्रौं शं शनैश्चराय नम:” मंत्र का जाप करना चाहिए. इस दिन सरसों के तेल, उडद, काले तिल, कुलथी, गुड शनियंत्र और शनि संबंधी समस्त पूजन सामग्री को शनिदेव पर अर्पित करना चाहिए और शनि देव का तैलाभिषेक करना चाहिए. शनि अमावस्या के दिन शनि चालीसा, हनुमान चालीसा या बजरंग बाण का पाठ अवश्य करना चाहिए. जिनकी कुंडली या राशि पर शनि की साढ़ेसाती व ढैया का प्रभाव हो उन्हें शनि अमावस्या के दिन पर शनिदेव का विधिवत पूजन करना चाहिए।


शनैश्चरी अमावस्या पर शनि मंत्र- स्रोत्र द्वारा उपाय

〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️

शनैश्चरी अमावस्या के दिन शनि मंत्र का अधिक से अधिक जाप करना परम कल्याणकारक माना गया है जप से पहले शरीर और आसान शुद्धि के बाद निम्न विनियोग करे इसके बाद जप आरम्भ करें।


विनियोग👉 शन्नो देवीति मंत्रस्य सिन्धुद्वीप ऋषि: गायत्री छंद:, आपो देवता, शनि प्रीत्यर्थे जपे विनियोग:.नीचे लिखे गये कोष्ठकों के अन्गों को उंगलियों से छुयें. अथ देहान्गन्यास:-शन्नो शिरसि (सिर), देवी: ललाटे (माथा).अभिषटय मुखे (मुख), आपो कण्ठे (कण्ठ), भवन्तु ह्रदये (ह्रदय), पीतये नाभौ (नाभि), शं कट्याम (कमर), यो: ऊर्वो: (छाती), अभि जान्वो: (घुटने), स्त्रवन्तु गुल्फ़यो: (गुल्फ़), न: पादयो: (पैर).अथ करन्यास:-शन्नो देवी: अंगुष्ठाभ्याम नम:.अभिष्टये तर्ज्जनीभ्याम नम:.आपो भवन्तु मध्यमाभ्याम नम:.पीतये अनामिकाभ्याम नम:.शंय्योरभि कनिष्ठिकाभ्याम नम:.स्त्रवन्तु न: करतलकरपृष्ठाभ्याम नम:.अथ ह्रदयादिन्यास:-शन्नो देवी ह्रदयाय नम:.अभिष्टये शिरसे स्वाहा.आपो भवन्तु शिखायै वषट.पीतये कवचाय हुँ.(दोनो कन्धे).शंय्योरभि नेत्रत्राय वौषट.स्त्रवन्तु न: अस्त्राय फ़ट.ध्यानम:-नीलाम्बर: शूलधर: किरीटी गृद्ध्स्थितस्त्रासकरो धनुश्मान.चतुर्भुज: सूर्यसुत: प्रशान्त: सदाअस्तु मह्यं वरदोअल्पगामी..शनि गायत्री:-औम कृष्णांगाय विद्य्महे रविपुत्राय धीमहि तन्न: सौरि: प्रचोदयात.वेद मंत्र:- औम प्राँ प्रीँ प्रौँ स: भूर्भुव: स्व: औम शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये शंय्योरभिस्त्रवन्तु न:.औम स्व: भुव: भू: प्रौं प्रीं प्रां औम शनिश्चराय नम:.


शनि बीज जप मंत्र 👉 ऊँ प्रां प्रीं प्रौं स: शनिश्चराय नम:। संख्या 23000 जाप ।


शनि स्तोत्रम

〰️〰️〰️〰️

शनि अष्टोत्तरशतनामावलि 

ॐ शनैश्चराय नमः ॥ ॐ शान्ताय नमः ॥ ॐ सर्वाभीष्टप्रदायिने नमः ॥ ॐ शरण्याय नमः ॥ ॐ वरेण्याय नमः ॥ ॐ सर्वेशाय नमः ॥ ॐ सौम्याय नमः ॥ ॐ सुरवन्द्याय नमः ॥ ॐ सुरलोकविहारिणे नमः ॥ ॐ सुखासनोपविष्टाय नमः ॥ ॐ सुन्दराय नमः ॥ ॐ घनाय नमः ॥ ॐ घनरूपाय नमः ॥ ॐ घनाभरणधारिणे नमः ॥ ॐ घनसारविलेपाय न मः ॥ ॐ खद्योताय नमः ॥ ॐ मन्दाय नमः ॥ ॐ मन्दचेष्टाय नमः ॥ ॐ महनीयगुणात्मने नमः ॥ ॐ मर्त्यपावनपदाय नमः ॥ ॐ महेशाय नमः ॥ ॐ छायापुत्राय नमः ॥ ॐ शर्वाय नमः ॥ ॐ शततूणीरधारिणे नमः ॥ ॐ चरस्थिरस्वभा वाय नमः ॥ ॐ अचञ्चलाय नमः ॥ ॐ नीलवर्णाय नमः ॥ ॐ नित्याय नमः ॥ ॐ नीलाञ्जननिभाय नमः ॥ ॐ नीलाम्बरविभूशणाय नमः ॥ ॐ निश्चलाय नमः ॥ ॐ वेद्याय नमः ॥ ॐ विधिरूपाय नमः ॥ ॐ विरोधाधारभूमये नमः ॥ ॐ भेदास्पदस्वभावाय नमः ॥ ॐ वज्रदेहाय नमः ॥ ॐ वैराग्यदाय नमः ॥ ॐ वीराय नमः ॥ ॐ वीतरोगभयाय नमः ॥ ॐ विपत्परम्परेशाय नमः ॥ ॐ विश्ववन्द्याय नमः ॥ ॐ गृध्नवाहाय नमः ॥ ॐ गूढाय नमः ॥ ॐ कूर्माङ्गाय नमः ॥ ॐ कुरूपिणे नमः ॥ ॐ कुत्सिताय नमः ॥ ॐ गुणाढ्याय नमः ॥ ॐ गोचराय नमः ॥ ॐ अविद्यामूलनाशाय नमः ॥ ॐ विद्याविद्यास्वरूपिणे नमः ॥ ॐ आयुष्यकारणाय नमः ॥ ॐ आपदुद्धर्त्रे नमः ॥ ॐ विष्णुभक्ताय नमः ॥ ॐ वशिने नमः ॥ ॐ विविधागमवेदिने नमः ॥ ॐ विधिस्तुत्याय नमः ॥ ॐ वन्द्याय नमः ॥ ॐ विरूपाक्षाय नमः ॥ ॐ वरिष्ठाय नमः ॥ ॐ गरिष्ठाय नमः ॥ ॐ वज्राङ्कुशधराय नमः ॥ ॐ वरदाभयहस्ताय नमः ॥ ॐ वामनाय नमः ॥ ॐ ज्येष्ठापत्नीसमेताय नमः ॥ ॐ श्रेष्ठाय नमः ॥ ॐ मितभाषिणे नमः ॥ ॐ कष्टौघनाशकर्त्रे नमः ॥ ॐ पुष्टिदाय नमः ॥ ॐ स्तुत्याय नमः ॥ ॐ स्तोत्रगम्याय नमः ॥ ॐ भक्तिवश्याय नमः ॥ ॐ भानवे नमः ॥ ॐ भानुपुत्राय नमः ॥ ॐ भव्याय नमः ॥ ॐ पावनाय नमः ॥ ॐ धनुर्मण्डलसंस्थाय नमः ॥ ॐ धनदाय नमः ॥ ॐ धनुष्मते नमः ॥ ॐ तनुप्रकाशदेहाय नमः ॥ ॐ तामसाय नमः ॥ ॐ अशेषजनवन्द्याय नमः ॥ ॐ विशेशफलदायिने नमः ॥ ॐ वशीकृतजनेशाय नमः ॥ ॐ पशूनां पतये नमः ॥ ॐ खेचराय नमः ॥ ॐ खगेशाय नमः ॥ ॐ घननीलाम्बराय नमः ॥ ॐ काठिन्यमानसाय नमः ॥ ॐ आर्यगणस्तुत्याय नमः ॥ ॐ नीलच्छत्राय नमः ॥ ॐ नित्याय नमः ॥ ॐ निर्गुणाय नमः ॥ ॐ गुणात्मने नमः ॥ ॐ निरामयाय नमः ॥ ॐ निन्द्याय नमः ॥ ॐ वन्दनीयाय नमः ॥ ॐ धीराय नमः ॥ ॐ दिव्यदेहाय नमः ॥ ॐ दीनार्तिहरणाय नमः ॥ ॐ दैन्यनाशकराय नमः ॥ ॐ आर्यजनगण्याय नमः ॥ ॐ क्रूराय नमः ॥ ॐ क्रूरचेष्टाय नमः ॥ ॐ कामक्रोधकराय नमः ॥ ॐ कलत्रपुत्रशत्रुत्वकारणाय नमः ॥ ॐ परिपोषितभक्ताय नमः ॥ ॐ परभीतिहराय न मः ॥ ॐ भक्तसंघमनोऽभीष्टफलदाय नमः ॥


इसका 108 पाठ करने से शनि सम्बन्धी सभी पीडायें समाप्त हो जाती हैं। तथा पाठ कर्ता धन धान्य समृद्धि वैभव से पूर्ण हो जाता है। और उसके सभी बिगडे कार्य बनने लगते है। यह सौ प्रतिशत अनुभूत है।

इसके अतिरिक्त दशरथकृत शनि स्तोत्र का यथा सामर्थ्य पाठ भी शनि जनित अरिष्ट से शांति दिलाता है।


दशरथकृत शनि स्तोत्र

〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️

नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च।

नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम:।


नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।

नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते। 2


नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम:।

नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते। 3


नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: ।

नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने। 4


नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते।

सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च। 5


अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते।

नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते। 6


तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च ।

नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम:।7


ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे ।

तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात्। 8


देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा:।

त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:। 9


प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे।

एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ।10


शनैश्चरी अमावस्या पर शनि देव को प्रसन्न करने के शास्त्रोक्त उपाय।

〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सभी व्यक्ति की कुंडली में 9 ग्रह होते है जो अपना प्रभाव दिखाते है।


इन ग्रहों की स्थिति परिवर्तन के वजह से मनुष्य को समय समय पर अच्छे व बुरे दोनों परिणाम प्राप्त होते है।


इन 9 ग्रह में से केवल शनि देव ऐसे है जिनके प्रभाव से मनुष्य घबरा जाता है। 


हिन्दू धर्मशास्‍त्रों में भी शनिदेव का चरित्र भी दण्डाधिकारी के रूप में माना गया है जो कि कर्म और सत्य को जीवन में अपनाने की ही प्रेरणा देता है।


लेकिन अगर आप शनिदेव को प्रसन्न करना चाहते हैं तो शास्‍त्रों में बहुत सारे उपाय बताए गए हैं जिससे शनिदेव प्रसन्‍न हो जाएंगे।


शनिदेव के प्रसन्‍न होने से आपका जीवन सफल हो जाएगा। तो आइए जानते हैं उन उपायों को


अगर आप शनि को प्रसन्न करना चाहते हैं तो शनैश्चरी अमावस्या के दिन पीपल के वृक्ष के नीचे दीपक जलाएं और दोनों हाथों से पीपल के पेड़ को स्‍पर्श करें।


इस दौरान पीपल के पेड़ की परिक्रमा करें और शनि मंत्र ‘ऊं शं शनैश्‍चराय नम:’ का जाप करते रहना चाहिए, यह आपकी साढ़ेसाती की सभी परेशानियों को दूर ले जाता है।


साढ़ेसाती के प्रकोप से बचने के लिए इस दिन उपवास रखने वाले व्यक्ति को दिन में एक बार नमक विहीन भोजन करना चाहिए।


   उपाय

〰🌼〰

अगर आपकी कोई विशेष मनोकामना है तो शनैश्चरी अमावस्या के दिन आप अपने लंबाई का लाल रंग का धागा लेकर इसे आम के पत्‍ते पर लपेट दें।


इस पत्‍ते और लपेटे हुए धागे को लेकर अपनी मनोकामना को मन में आवाहन करें और उसके बाद इस पत्‍ते और धागे को बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें। इससे आपकी मनोकामना जल्‍द पूरी होगी।


   उपाय

〰🌼〰

अक्‍सर ऐसा होता है कि लोग बहुत संघर्ष व मेहनत करते हैं लेकिन उन्‍हें सफलता हाथ नहीं लगती या लोग जो सोचते हैं वो हो नहीं पाता ऐसे में लोग न चाहते हुए भी अपने भाग्‍य को कोसने लगते हैं।


कहते हैं कि भाग्य बिल्कुल भी साथ नहीं देता और दुर्भाग्य निरन्तर पीछा कर रहा है।


कहा जाता है कि इंसान के पिछले कर्मों के अच्छे-बुरे परिणामों का फल भी आपके भाग्‍य का निर्धारण करता है इसलिए आपको इन सभी बातों को छोड़कर निष्काम भाव से सच्चे मन से प्रयास करना चाहिए।


लेकिन आज एक उपाय जो हम आपको बताने जा रहे हैं उसे करने से आपका सोया हुआ भाग्‍य जाग जाएगा।


शनैचरी अमावस्या से आरंभ कर लगातार 41 दिन रोज सुबह गाय का दुध लेकर नहाने से पहले इसे अपने सिर पर थोड़ा सा रख लें।


और फिर नहा लें अगर आप ऐसा रोज करेंगे तो आपका सोया हुआ भाग्‍य जाग जाएगा।


इतना ही नहीं आप जो भी काम सोचेंगे वो पूरा हो जाएगा। आपकी जीवन में आ रही रूकावटें खत्‍म हो जाएगी। बस अधिक से अधिक संयम रखने का प्रयास करें।


〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️

शुक्रवार, 6 अक्टूबर 2023

अजामिल कथा श्रीमद भागवत पुराण

 अजामिल कथा श्रीमद भागवत पुराण

🔹🔸🔹🔸🔹🔸🔹🔸🔹🔸🔹


कान्यकुब्ज (कन्नौज) में एक दासी पति ब्राम्हण रहता था। उसका नाम अजामिल था। यह अजामिल बड़ा शास्त्रज्ञ था। शील, सदाचार और सद्गुणों का तो यह खजाना ही था। ब्रम्हचारी, विनयी, जितेन्द्रिय, सत्यनिष्ठ, मन्त्रवेत्ता और पवित्र भी था। इसने गुरु, संत-महात्माओं सबकी सेवा की थी। एक बार अपने पिता के आदेशानुसार वन में गया और वहाँ से फल-फूल, समिधा तथा कुश लेकर घर के लिये लौटा। लौटते समय इसने देखा की एक व्यक्ति मदिरा पीकर किसी वेश्या के साथ विहार कर रहा है। वेश्या भी शराब पीकर मतवाली हो रही है। अजामिल ने पाप किया नहीं केवल आँखों से देखा और काम के वश हो गया । अजामिल ने अपने मन को रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन नाकाम रहा। अब यह मन-ही-मन उसी वेश्या का चिन्तन करने लगा और अपने धर्म से विमुख हो गया ।


अजामिल सुन्दर-सुन्दर वस्त्र-आभूषण आदि वस्तुएँ, जिनसे वह प्रसन्न होती, ले आता। यहाँ तक कि इसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति देकर भी उसी कुलटा को रिझाया। यह ब्राम्हण उसी प्रकार की चेष्टा करता, जिससे वह वेश्या प्रसन्न हो।


इस वेश्या के चक्कर में इसने अपने कुलीन नवयुवती और विवाहिता पत्नी तक का परित्याग कर दिया और उस वैश्या के साथ रहने लगा। इसने बहुत दिनों तक वेश्या के मल-समान अपवित्र अन्न से अपना जीवन व्यतीत किया और अपना सारा जीवन ही पापमय कर लिया। यह कुबुद्धि न्याय से, अन्याय से जैसे भी जहाँ कहीं भी धन मिलता, वहीं से उठा लाता। उस वेश्या के बड़े कुटुम्ब का पालन करने में ही यह व्यस्त रहता। चोरी से, जुए से और धोखा-धड़ी से अपने परिवार का पेट पलटा था।

 

एक बार कुछ संत इसके गांव में आये। गाँव के बाहर संतों ने कुछ लोगों से पूछा की भैया, किसी ब्राह्मण का घर बताइए हमें वहां पर रात गुजारनी है। इन लोगों ने संतों के साथ मजाक किया और कहा- संतों- हमारे गाँव में तो एक ही श्रेष्ठ ब्राह्मण है जिसका नाम है अजामिल। और इतना बड़ा भगवान का भक्त है की  गाँव के अंदर नहीं रहता गाँव के बाहर ही रहता है।


अब संत जन अजामिल के घर पहुंचे और दरवाजा खटखटाया- भक्त अजामिल दरवाजा खोलो। जैसे ही अजामिल ने आज दरवाजा खोला तो संतों के दर्शन करते ही मानो आज अपने पुराने अच्छे कर्म उसे याद आ गए।

 

संतों ने कहा की भैया- रात बहुत हो गई है आप हमारे लिए भोजन और सोने का प्रबंध कीजिये।अजामिल ने सुंदर भोजन तैयार करवाया और संतो को करवाया। जब अजामिल ने संतों से सोने के लिए कहा तो संत कहते हैं भैया- हम प्रतिदिन सोने से पहले कीर्तन करते हैं। यदि आपको समस्या न हो तो हम कीर्तन करलें?


अजामिल ने कहा- आप ही का घर है महाराज! जो दिल में आये सो करो।


संतों ने सुंदर कीर्तन प्रारम्भ किया और उस कीर्तन में अजामिल बैठा। सारी रात कीर्तन चला और अजामिल की आँखों से खूब आसूं गिरे हैं। मानो आज आँखों से आंसू नहीं पाप धूल गए हैं। सारी रात भगवान का नाम लिया ।


जब सुबह हुई संत जन चलने लगे तो अजामिल ने कहा- महात्माओं, मुझे क्षमा कर दीजिये। मैं कोई भक्त वक्त नहीं हूँ। मैं तो एक मह पापी हूँ। मैं वैश्या के साथ रहता हूँ। और मुझे गाँव से बाहर निकाल दिया गया है। केवल आपकी सेवा के लिए मैंने आपको भोजन करवाया। नहीं तो मुझसे बड़ा पापी कोई नहीं है।


संतों ने कहा- अरे अजामिल! तूने ये बात हमें कल क्यों नहीं बताई, हम तेरे घर में रुकते ही नहीं।


अब तूने हमें आश्रय दिया है तो चिंता मत कर। ये बता तेरे घर में कितने बालक हैं। अजामिल ने बता दिया की महाराज 9 बच्चे हैं और अभी ये गर्भवती है।


संतों ने कहा की अबके जो तेरे संतान होंगी वो तेरे पुत्र होगा। और तू उसका नाम “नारायण” रखना। जा तेरा कल्याण हो जायेगा।

 

संत जन आशीर्वाद देकर चले गए। समय बिता उसके पुत्र हुआ। नाम रखा नारायण। अजामिल अपने नारायण पुत्र में बहुत आशक्त था। अजामिल ने अपना सम्पूर्ण हृदय अपने बच्चे नारायण को सौंप दिया था। हर समय अजामिल कहता था- नारायण भोजन करलो।


नारायण पानी पी लो। नारायण तुम्हारा खेलने का समय है तुम खेल लो। हर समय नारायण नारायण करता था।

 

इस तरह अट्ठासी वर्ष बीत गए। वह अतिशय मूढ़ हो गया था, उसे इस बात का पता ही न चला कि मृत्यु मेरे सिर पर आ पहुँची है ।


अब वह अपने पुत्र बालक नारायण के सम्बन्ध में ही सोचने-विचारने लगा। इतने में ही अजामिल ने देखा कि उसे ले जाने के लिये अत्यन्त भयावने तीन यमदूत आये हैं। उनके हाथों में फाँसी है, मुँह टेढ़े-टेढ़े हैं और शरीर के रोएँ खड़े हुए हैं । उस समय बालक नारायण वहाँ से कुछ दूरी पर खेल रहा था।


यमदूतों को देखकर अजामिल डर गया और अपने पुत्र को कहता हैं-नारायण! नारायण मेरी रक्षा करो! नारायण मुझे बचाओ!


भगवान् के पार्षदों ने देखा कि यह मरते समय हमारे स्वामी भगवान् नारायण का नाम ले रहा है, उनके नाम का कीर्तन कर रहा है; अतः वे बड़े वेग से झटपट वहाँ आ पहुँचे । उस समय यमराज के दूर दासीपति अजामिल के शरीर में से उसके सूक्ष्म शरीर को खींच रहे थे। विष्णु दूतों ने बलपूर्वक रोक दिया ।


उनके रोकने पर यमराज के दूतों ने उनसे कहा‘अरे, धर्मराज की आज्ञा का निषेध करने वाले तुम लोग हो कौन ? तुम किसके दूत हो, कहाँ से आये हो और इसे ले जाने से हमें क्यों रोक रहे हो।

 

जब यमदूतों ने इस प्रकार कहा, तब भगवान् नारायण के आज्ञाकारी पार्षदों ने हँसकर कहा—यमदूतों! यदि तुम लोग सचमुच धर्मराज के आज्ञाकारी हो तो हमें धर्म का लक्षण और धर्म का तत्व सुनाओ । दण्ड का पात्र कौन है ?

 

यमदूतों ने कहा—वेदों ने जिन कर्मों का विधान किया है, वे धर्म हैं और जिनका निषेध किया है, वे अधर्म हैं। वेद स्वयं भगवान् के स्वरुप हैं। वे उनके स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास एवं स्वयं प्रकाश ज्ञान हैं—ऐसा हमने सुना है । पाप कर्म करने वाले सभी मनुष्य अपने-अपने कर्मों के अनुसार दण्डनीय होते हैं ।

 

भगवान् के पार्षदों ने कहा—यमदूतों! यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि धर्मज्ञों की सभा में अधर्म प्रवेश कर रह है, क्योंकि वहाँ निरपराध और अदण्डनीय व्यक्तियों को व्यर्थ ही दण्ड दिया जाता है । यमदूतों! इसने कोटि-कोटि जन्मों की पाप-राशि का पूरा-पूरा प्रायश्चित कर लिया है। क्योंकि इसने विवश होकर ही सही, भगवान् के परम कल्याणमय (मोक्षप्रद) नाम का उच्चारण तो किया है । जिस समय इसने ‘नारायण’ इन चार अक्षरों का उच्चारण किया, उसी समय केवल उतने से ही इस पापी के समस्त पापों का प्रायश्चित हो गया । चोर, शराबी, मित्रद्रोही, ब्रम्हघाती, गुरुपत्नीगामी, ऐसे लोगों का संसर्गी; स्त्री, राजा, पिता और गाय को मारने वाला, चाहे जैसा और चाहे जितना बड़ा पापी हो, सभी के लिये यही—इतना ही सबसे बड़ा प्रायश्चित है कि भगवान् के नामों का उच्चारण किया जाय; क्योंकि भगवन्नामों के उच्चारण से मनुष्य की बुद्धि भगवान् के गुण, लीला और स्वरुप में रम जाती है और स्वयं भगवान् की उसके प्रति आत्मीय बुद्धि हो जाती है ।


 

तुम लोग अजामिल को मत ले जाओ। इसने सारे पापों का प्रायश्चित कर लिया है, क्योंकि इसने मरते समय भगवान् के नाम का उच्चारण किया है।


इस प्रकार भगवान् के पार्षदों ने भागवत-धर्म का पूरा-पूरा निर्णय सुना दिया और अजामिल को यमदूतों के पाश से छुड़ाकर मृत्यु के मुख से बचा लिया भगवान् की महिमा सुनने से अजामिल के हृदय में शीघ्र ही भक्ति का उदय हो गया। अब उसे अपने पापों को याद करके बड़ा पश्चाताप होने लगा । (अजामिल मन-ही-मन सोचने लगा—) ‘अरे, मैं कैसा इन्द्रियों का दास हूँ! मैंने एक दासी के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करके अपना ब्राम्हणत्व नष्ट कर दिया। यह बड़े दुःख की बात है। धिक्कार है! मुझे बार-बार धिक्कार है! मैं संतों के द्वारा निन्दित हूँ, पापात्मा हूँ! मैंने अपने कुल में कलंक का टीका लगा दिया!  मेरे माँ-बाप बूढ़े और तपस्वी थे। मैंने उनका भी परित्याग कर दिया। ओह! मैं कितना कृतघ्न हूँ। मैं अब अवश्य ही अत्यन्त भयावने नरक में गिरूँगा, जिसमें गिरकर धर्मघाती पापात्मा कामी पुरुष अनेकों प्रकार की यमयातना भोगते हैं। कहाँ तो मैं महाकपटी, पापी, निर्लज्ज और ब्रम्हतेज को नष्ट करने वाला तथा कहाँ भगवान् का वह परम मंगलमय ‘नारायण’ नाम! (सचमुच मैं तो कृतार्थ हो गया)। अब मैं अपने मन, इन्द्रिय और प्राणों को वश में करके ऐसा प्रयत्न करूँगा कि फिर अपने को घोर अन्धकारमय नरक में न डालूँ । मैंने यमदूतों के डर अपने पुत्र “नारायण” को पुकारा। और भगवान के पार्षद प्रकट हो गए यदि मैं वास्तव में नारायण को पुकारता तो क्या आज श्री नारायण मेरे सामने प्रकट नहीं हो जाते?


अब अजामिल के चित्त में संसार के प्रति तीव्र वैराग्य हो गया। वे सबसे सम्बन्ध और मोह को छोड़कर हरिद्वार चले गये। उस देवस्थान में जाकर वे भगवान् के मन्दिर में आसन से बैठ गये और उन्होंने योग मार्ग का आश्रय लेकर अपनी सारी इन्द्रियों को विषयों से हटाकर मन में लीन कर लिया और मन को बुद्धि में मिला दिया। इसके बाद आत्मचिन्तन के द्वारा उन्होंने बुद्धि को विषयों से पृथक् कर लिया तथा भगवान् के धाम अनुभव स्वरुप परब्रम्ह में जोड़ दिया । इस प्रकार जब अजामिल की बुद्धि त्रिगुणमयी प्रकृति से ऊपर उठकर भगवान् के स्वरुप में स्थित हो गयी, तब उन्होंने देखा कि उनके सामने वे ही चारों पार्षद, जिन्हें उन्होंने पहले देखा था, खड़े हैं। अजामिल ने सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया। उनका दर्शन पाने के बाद उन्होंने उस तीर्थस्थान में गंगा के तट पर अपना शरीर त्याग दिया और तत्काल भगवान् के पार्षदों का स्वरुप प्राप्त कर दिया ।

 

अजामिल भगवान् के पार्षदों के साथ स्वर्णमय विमान पर आरूढ़ होकर आकाश मार्ग से भगवान् लक्ष्मीपति के निवास स्थान वैकुण्ठ को चले गये।

🔹🔸🔹🔸🔹🔸🔹🔸🔹🔸🔹🔸🔹🔸🔹

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...