रविवार, 31 दिसंबर 2023

देवीपार्वती के 108 नाम और इनका अर्थ

                             देवीपार्वती के 108 नाम और इनका अर्थ

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देवी पार्वती विभिन्न नामों से जानी जाता है और उनमें से हर एक नाम का एक निश्चित अर्थ और महत्व है। देवी पार्वती से 108 नाम जुड़े हुए है । भक्त बालिकाओं के नाम के लिए इस नाम का उपयोग करते है। 


1 . आद्य - इस नाम का मतलब प्रारंभिक वास्तविकता है।

2 . आर्या - यह देवी का नाम है

3 . अभव्या - यह भय का प्रतीक है।

4 . अएंदरी - भगवान इंद्र की शक्ति।

5 . अग्निज्वाला - यह आग का प्रतीक है।

6 . अहंकारा - यह गौरव का प्रतिक है ।

7 . अमेया - नाम उपाय से परे का प्रतीक है।

8 . अनंता - यह अनंत का एक प्रतीक है।

9 . अनंता - अनंत

10 अनेकशस्त्रहस्ता - इसका मतलब है कई हतियारो को रखने वाला ।

11 . अनेकास्त्रधारिणी - इसका मतलब है कई हतियारो को रखने वाला ।

12 . अनेकावारना - कई रंगों का व्यक्ति ।

13 . अपर्णा – एक व्यक्ति जो उपवास के दौरान कुछ नहि कहता है यह उसका प्रतिक है ।

14 . अप्रौधा – जो व्यक्ति उम्र नहि करता यह उसका प्रतिक है ।

15 . बहुला - विभिन्न रूपों ।

16 . बहुलप्रेमा - हर किसी से प्यार ।

17 . बलप्रदा - यह ताकत का दाता का प्रतीक है ।

18 . भाविनी - खूबसूरत औरत ।

19 . भव्य – भविष्य ।

20 . भद्राकाली - काली देवी के रूपों में से एक ।

21 . भवानी - यह ब्रह्मांड की निवासी है ।

22 . भवमोचनी - ब्रह्मांड की समीक्षक ।

23 . भवप्रीता - ब्रह्मांड में हर किसी से प्यार पाने वाली ।

24 . भव्य - यह भव्यता का प्रति है ।

25 . ब्राह्मी - भगवान ब्रह्मा की शक्ति ।

26 . ब्रह्मवादिनी – हर जगह उपस्तित ।

27 . बुद्धि - ज्ञानी

28 . बुध्हिदा - ज्ञान की दातरि ।

29 . चामुंडा - राक्षसों चंदा और मुंडा की हत्या करने वलि देवि ।

30 . चंद्रघंटा - ताकतवर घंटी

31 . चंदामुन्दा विनाशिनी - देवी जिसने चंदा और मुंडा की हत्या की ।

32 . चिन्ता - तनाव ।

33 . चिता - मृत्यु - बिस्तर ।

34 . चिति - सोच मन ।

35 . चित्रा - सुरम्य ।

36 . चित्तरूपा - सोच या विचारशील राज्य ।

37 . दक्शाकन्या - यह दक्षा की बेटी का नाम है ।

38 . दक्शायाज्नाविनाशिनी - दक्षा के बलिदान को टोकनेवाला ।

39 . देवमाता - देवी माँ ।

40 . दुर्गा - अपराजेय ।

41 . एककन्या - बालिका ।

42 . घोररूपा - भयंकर रूप ।

43 . ज्ञाना - ज्ञान ।

44 . जलोदरी - ब्रह्मांड मेइन वास करने वाली ।

45 . जया - विजयी

46 कालरात्रि - देवी जो कालि है और रात के समान है ।

47 . किशोरी - किशोर

48 . कलामंजिराराजिनी - संगीत पायल ।

49 . कराली - हिंसक

50 . कात्यायनी - बाबा कत्यानन इस नाम को पूजते है ।

51 . कौमारी - किशोर ।

52 . कोमारी - सुंदर किशोर ।

53 . क्रिया - लड़ाई ।

54 . क्र्रूना - क्रूर ।

55 . लक्ष्मी - धन की देवी ।

56 . महेश्वारी - भगवान शिव की शक्ति ।

57 . मातंगी - मतंगा की देवी ।

58 . मधुकैताभाहंत्री - देवी जिसने राक्षसों मधु और कैताभा को आर दिया ।

59 . महाबला - शक्ति ।

60 . महातपा - तपस्या ।

61 . महोदरी - एक विशाल पेट में ब्रह्मांड में रखते हुए ।

62 . मनः - मन ।

63 . मतंगामुनिपुजिता - बाबा मतंगा द्वारा पूजी जाती है ।

64 . मुक्ताकेशा - खुले बाल ।

65 . नारायणी - भगवान नारायण विनाशकारी विशेषताएँ ।

66 . निशुम्भाशुम्भाहनानी - देवी जिसने भाइयो शुम्भा निशुम्भा को मारा ।

67 . महिषासुर मर्दिनी - महिषासुर राक्षस को मार डाला जो देवी ने ।

68 नित्या - अनन्त ।

69 . पाताला - रंग लाल ।

70 . पातालावती - लाल और सफ़द पहेने वाली ।

71 . परमेश्वरी - अंतिम देवी ।

72 . पत्ताम्बरापरिधान्ना - चमड़े से बना हुआ कपडा ।

73 . पिनाकधारिणी - शिव का त्रिशूल ।

74 . प्रत्यक्ष – असली ।

75 . प्रौढ़ा - पुराना ।

76 . पुरुषाकृति - आदमी का रूप लेने वाला ।

77 . रत्नप्रिया - सजी

78 . रौद्रमुखी - विनाशक रुद्र की तरह भयंकर चेहरा ।

79 . साध्वी - आशावादी ।

80 . सदगति - मोक्ष कन्यादान ।

81 . सर्वास्त्रधारिणी - मिसाइल हथियारों के स्वामी ।

82 . सर्वदाना वाघातिनी - सभी राक्षसों को मारने के लिए योग्यता है जिसमें ।

83 . सर्वमंत्रमयी - सोच के उपकरण ।

84 . सर्वशास्त्रमयी - चतुर सभी सिद्धांतों में ।

85 . सर्ववाहना - सभी वाहनों की सवारी ।

86 . सर्वविद्या - जानकार ।

87 . सती - जो महिला जिसने अपने पति के अपमान पर अपने आप को जला दिया ।

89 . सत्ता - सब से ऊपर ।

90 . सत्य - सत्य ।

91 . सत्यानादास वरुपिनी - शाश्वत आनंद ।

92 . सावित्री - सूर्य भगवान सवित्र की बेटी ।

93 . शाम्भवी - शंभू की पत्नी ।

94 . शिवदूती - भगवान शिव के राजदूत ।

95 . शूलधारिणी – व्यक्ति जो त्र्सिहुल धारण करता है ।

96 . सुंदरी - भव्य ।

97 . सुरसुन्दरी - बहुत सुंदर ।

98 . तपस्विनी - तपस्या में लगी हुई ।

99 . त्रिनेत्र - तीन आँखों का व्यक्ति ।

100 . वाराही – जो व्यक्ति वाराह पर सवारी करता हियो ।

101 . वैष्णवी - अपराजेय ।

102 . वनदुर्गा - जंगलों की देवी ।

103 . विक्रम - हिंसक ।

104 . विमलौत्त्त्कार्शिनी - प्रदान करना खुशी ।

105 . विष्णुमाया - भगवान विष्णु का मंत्र ।

106 . वृधामत्ता - पुराना है , जो माँ ।

107 . यति - दुनिया त्याग जो व्यक्ति एक ।

108 . युवती - औरत ।

देवी पार्वती यह सभी नाम पूजा करने के लिए और उनके आशीर्वाद पाने के लिए , लिए जाते है।


श्रीजगन्नाथ जी की आँखे बड़ी क्यों है...?

                               श्रीजगन्नाथ जी की आँखे बड़ी क्यों है?

 इसके मूल में भगवान् के प्रगाढ़ प्रेम को प्रकट करने वाली एक अद्भुत गाथा है।


एक बार द्वारिका में रुक्मणी आदि रानियों ने माता रोहिणी से प्रार्थना की कि वे श्रीकृष्ण व गोपियों की बचपन वाली प्रेम लीलाएँ सुनना चाहतीं हैं।


पहले तो माता रोहिणी ने अपने पुत्र की अंतरंग लीलाओं को सुनाने से मना कर दिया।


किन्तु रानियों के बार-बार आग्रह करने पर मैया मान गईं और उन्होंने सुभद्रा जी को महल के बाहर पहरे पर खड़ा कर दिया और महल का दरवाजा भीतर से बंद कर लिया ताकि कोई अनधिकारी जन विशुद्ध प्रेम के उन परम गोपनीय प्रसंगों को सुन न सके।


बहुत देर तक भीतर कथा प्रसंग चलते रहे और सुभद्रा जी बाहर पहरे पर सतर्क होकर खड़ी रहीं।


इतने में द्वारिका के राज दरबार का कार्य निपटाकर श्रीकृष्ण और बलराम जी वहाँ आ पहुँचे।


उन्होंने महल के भीतर जाना चाहा लेकिन सुभद्रा जी ने माता रोहिणी की आज्ञा बताकर उनको भीतर प्रवेश न करने दिया।


वे दोनों भी सुभद्रा जी के पास बाहर ही बैठ गए और महल के द्वार खुलने की प्रतीक्षा करने लगे।


उत्सुकता वश श्रीकृष्ण भीतर चल रही वार्ता के प्रसंगों को कान लगाकर सुनने लगे।


माता रोहिणी ने जब द्वारिका की रानियों को गोपियों के निष्काम प्रेम के भावपूर्ण प्रसंग सुनाए, तो उन्हें सुनकर श्रीकृष्ण अत्यंत रोमांचित हो उठे।


उन्हें स्मरण हो आया कि किस-किस प्रकार गोपियाँ अपनी प्रिया व प्रियतम (राधा-कृष्ण) को थोड़ा-सा सुख देने के लिए ही अपने बड़े से बड़े सुख का त्याग कर देतीं थीं। 


कैसे-कैसे गोपियों ने मेरे प्रेम के लिए न लोकलाज की तनिक भी परवाह की और न वेद-शास्त्र का डर रखते हुए नरकादि की ही कोई चिंता की।


गोपियों के परम प्रेम के दिव्य भावों की वार्ता सुन-सुनकर श्रीकृष्ण भावावेश में संकुचित होने लगे।


मधुर भाव की सब लीलाएँ मानो साकार होकर उनके समक्ष घूमने लगीं थीं।


गोपियों के परम त्याग की बातें सुन-सुनकर उनकी आँखें आश्चर्य युक्त मधुर भाव के आवेश में फैलतीं ही चलीं गयीं।


और अंततः श्रीकृष्ण महाभाव की परम उच्चावस्था में प्रवेश कर गए।


उनका सारा शरीर सिकुड़ चुका था, शरीर के शेष अंग शिथिल होकर छोटे पड़ गए परंतु उनका चेहरा दमकता ही जा रहा था, आँखें लगातार फैलती ही चलीं गयीं।


श्री दाऊ जी ने जब श्रीकृष्ण की अपूर्वदृष्ट उस दशा को देखा, तो बाल सखाओं की स्मृतियों में भगवान् का इतना प्रगाढ़ लगाव देखकर वे भी परमानंद दशा से महाभाव में प्रवेश कर गए।


उनका भी चिंतन भगवान् से एकाकार हो जाने से उनकी शारीरिक दशा भी श्रीकृष्ण जैसी ही हो गयी।


अपने ही चिंतन में खोई सुभद्रा जी ने जब अनायास ही अपने दोनों भाइयों को परम प्रेम की अवर्णनीय अवस्था में देखा तो उनके भक्त वत्सल व प्रेमानुरक्ति के भाव का चिंतन करके सुभद्रा जी भी तल्लीन होने लगीं और देखते ही देखते वे भी तदारूप हो गईं।


उनकी भी शारीरिक दशा दोनों भाइयों जैसी ही हो गयी।

भगवान् की अंतः प्रेरणा से तभी वहाँ पर श्री नारद जी आ पहुँचे।


महल के भीतर और बाहर की सारी परिस्थिति को भली प्रकार देख-समझकर नारद जी श्रीकृष्ण के प्रेम में गदगद् होकर अश्रुपूरित नेत्रों से भगवान् की स्तुति करने लगे।


श्री नारद जी ने जब देखा कि गोपियों के विशुद्ध निष्काम प्रेम के चिंतन मात्र से श्रीकृष्ण, बलराम व सुभद्रा की अपूर्व, अवर्णनीय महाभाव दशा हो गयी है,


 तो वे भी भगवान् के प्रेम में पागल से हो उठे।

भाँति-भाँति की स्तुति करते हुए बड़े प्रयत्नों से नारद जी ने भगवान् को अपने सामान्य स्वरूप में लाने का यत्न किया और भगवान् को सहज हुआ जानकर भक्त वत्सल नारद जी अपने अश्रुपूरित नेत्रों से भगवान् से प्रार्थना करने लगे-


"हे श्रीकृष्ण! मैंने परम आनंदमग्न हुए, महाभाव में निमग्न हुए, विस्फरित नेत्रों वाले आपके जिस अति विशेष विग्रह के दर्शन किए हैं, आपका वह रूप विश्व इतिहास में बड़े से बड़े पुण्यात्माओं व आपके भक्तों ने भी कभी नहीं देखा होगा।


अब आप कोई ऐसी कृपा कीजिए जिससे कि आने वाले इस कलियुग में जो पापात्मा जीव होंगे, 


वे आपके परम प्रेम में रूपांतरित हुए इसी श्री विग्रह के दर्शन कर पाएँ और परम प्रेम स्वरूपा गोपियों में आपके प्रति और आपमें गोपियों के प्रति कैसा अनन्य भक्ति का विशुद्ध भाव था, 


इसका सब लोग चिंतन करते हुए निष्काम भक्ति के पथ पर आगे बढ़ते हुए अपना कल्याण कर सकें तथा आपका दिव्य प्रेम पाने के पात्र बन सकें।


भगवान् ने नारद जी के जीव कल्याण हित दया भाव की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उन्हें वरदान देते हुए कहा, 


"नारद जी! कलियुग में मुझे भगवान् जगन्नाथ के रूप में जाना जाएगा और मेरे विशेष कृपापात्र भक्त उत्कल क्षेत्र के पुरी धाम में हम तीनों के इसी महाभाव रूप के विग्रह स्थापित करेंगे।


 कलियुग में मैं अपनी परम प्रेम की महाभाव दशा में ही बलराम और सुभद्रा के साथ सदा जगन्नाथ पुरी में विराजूँगा।"


जय जगन्नाथJI

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