रविवार, 27 अक्टूबर 2024

रमा एकादशी विशेष

 रमा एकादशी विशेष

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रमा एकादशी कार्तिक माह की है, जिसका महत्व अधिक माना जाता हैं। यह एकादशी कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी हैं। इस वर्ष में रमा एकादशी व्रत आज 27 अक्टूबर रविवार के दिन स्मार्त (सन्यासी एवं गृहस्थ) एवं 28 अक्टूबर के दिन वैष्णव एवं निम्बार्क सम्प्रदाय द्वारा मनाई जाएगी। कार्तिक माह का विशेष महत्व होता है, इसलिए इस ग्यारस का महत्व भी अधिक माना जाता हैं।


क्यों कहते हैं इसे रमा एकादशी

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कार्तिक का महीना भगवान विष्णु को समर्पित होता है। हालांकि भगवान विष्णु इस समय शयन कर रहे होते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को ही वे चार मास बाद जागते हैं। लेकिन कृष्ण पक्ष में जितने भी त्यौहार आते हैं उनका संबंध किसी न किसी तरीके से माता लक्ष्मी से भी होता है। दिवाली पर तो विशेष रूप से लक्ष्मी पूजन तक किया जाता है। इसलिये माता लक्ष्मी की आराधना कार्तिक कृष्ण एकादशी से ही उनके उपवास से आरंभ हो जाती है। माता लक्ष्मी का एक अन्य नाम रमा भी होता है इसलिये इस एकादशी को रमा एकादशी भी कहा जाता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार जब युद्धिष्ठर ने भगवान श्री कृष्ण से कार्तिक मास की कृष्ण एकादशी के बारे में पूछा तो भगवन ने उन्हें बताया कि इस एकादशी को रमा एकादशी कहा जाता है। इसका व्रत करने से जीवन में सुख समृद्धि और अंत में बैकुंठ की प्राप्ति होती है।


रमा एकादशी व्रत तिथि व शुभ मुहूर्त

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एकादशी तिथि प्रारम्भ 👉 27 अक्टूबर को प्रातः 05:27 से।

एकादशी तिथि समाप्त 👉 28 अक्टूबर को प्रातः 07:50.


27 अक्टूबर के दिन व्रत रखने वालो के लिये एकादशी व्रत पारण👉 28 अक्टूबर प्रातः 06:36 से 07:50 तक।


28 अक्टूबर के दिन व्रत रखने वालो के लिये एकादशी व्रत पारण👉 29 अक्टूबर , प्रातः 06 बजकर 27 मिनट से 08 बजकर 40 मिनट तक।


रमा एकादशी व्रत कथा

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धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! कार्तिक कृष्ण एकादशी का क्या नाम है? इसकी विधि क्या है? इसके करने से क्या फल मिलता है। सो आप विस्तारपूर्वक बताइए। भगवान श्रीकृष्ण बोले कि कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम रमा है। यह बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली है। इसका माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।


हे राजन! प्राचीनकाल में मुचुकुंद नाम का एक राजा था। उसकी इंद्र के साथ मित्रता थी और साथ ही यम, कुबेर, वरुण और विभीषण भी उसके मित्र थे। यह राजा बड़ा धर्मात्मा, विष्णुभक्त और न्याय के साथ राज करता था। उस राजा की एक कन्या थी, जिसका नाम चंद्रभागा था। उस कन्या का विवाह चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ था। एक समय वह शोभन ससुराल आया। उन्हीं दिनों जल्दी ही पुण्यदायिनी एकादशी (रमा) भी आने वाली थी।


जब व्रत का दिन समीप आ गया तो चंद्रभागा के मन में अत्यंत सोच उत्पन्न हुआ कि मेरे पति अत्यंत दुर्बल हैं और मेरे पिता की आज्ञा अति कठोर है। दशमी को राजा ने ढोल बजवाकर सारे राज्य में यह घोषणा करवा दी कि एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए। ढोल की घोषणा सुनते ही शोभन को अत्यंत चिंता हुई औ अपनी पत्नी से कहा कि हे प्रिये! अब क्या करना चाहिए, मैं किसी प्रकार भी भूख सहन नहीं कर सकूँगा। ऐसा उपाय बतलाओ कि जिससे मेरे प्राण बच सकें, अन्यथा मेरे प्राण अवश्य चले जाएँगे।


चंद्रभागा कहने लगी कि हे स्वामी! मेरे पिता के राज में एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं करता। हाथी, घोड़ा, ऊँट, बिल्ली, गौ आदि भी तृण, अन्न, जल आदि ग्रहण नहीं कर सकते, फिर मनुष्य का तो कहना ही क्या है। यदि आप भोजन करना चाहते हैं तो किसी दूसरे स्थान पर चले जाइए, क्योंकि यदि आप यहीं रहना चाहते हैं तो आपको अवश्य व्रत करना पड़ेगा। ऐसा सुनकर शोभन कहने लगा कि हे प्रिये! मैं अवश्य व्रत करूँगा, जो भाग्य में होगा, वह देखा जाएगा।


इस प्रकार से विचार कर शोभन ने व्रत रख लिया और वह भूख व प्यास से अत्यंत पीडि़त होने लगा। जब सूर्य नारायण अस्त हो गए और रात्रि को जागरण का समय आया जो वैष्णवों को अत्यंत हर्ष देने वाला था, परंतु शोभन के लिए अत्यंत दु:खदायी हुआ। प्रात:काल होते शोभन के प्राण निकल गए। तब राजा ने सुगंधित काष्ठ से उसका दाह संस्कार करवाया। परंतु चंद्रभागा ने अपने पिता की आज्ञा से अपने शरीर को दग्ध नहीं किया और शोभन की अंत्येष्टि क्रिया के बाद अपने पिता के घर में ही रहने लगी।


रमा एकादशी के प्रभाव से शोभन को मंदराचल पर्वत पर धन-धान्य से युक्त तथा शत्रुओं से रहित एक सुंदर देवपुर प्राप्त हुआ। वह अत्यंत सुंदर रत्न और वैदुर्यमणि जटित स्वर्ण के खंभों पर निर्मित अनेक प्रकार की स्फटिक मणियों से सुशोभित भवन में बहुमूल्य वस्त्राभूषणों तथा छत्र व चँवर से विभूषित, गंधर्व और अप्सराअओं से युक्त सिंहासन पर आरूढ़ ऐसा शोभायमान होता था मानो दूसरा इंद्र विराजमान हो।


एक समय मुचुकुंद नगर में रहने वाले एक सोम शर्मा नामक ब्राह्मण तीर्थयात्रा करता हुआ घूमता-घूमता उधर जा निकला और उसने शोभन को पहचान कर कि यह तो राजा का जमाई शोभन है, उसके निकट गया। शोभन भी उसे पहचान कर अपने आसन से उठकर उसके पास आया और प्रणामादि करके कुशल प्रश्न किया। ब्राह्मण ने कहा कि राजा मुचुकुंद और आपकी पत्नी कुशल से हैं। नगर में भी सब प्रकार से कुशल हैं, परंतु हे राजन! हमें आश्चर्य हो रहा है। आप अपना वृत्तांत कहिए कि ऐसा सुंदर नगर जो न कभी देखा, न सुना, आपको कैसे प्राप्त हुआ।


तब शोभन बोला कि कार्तिक कृष्ण की रमा एकादशी का व्रत करने से मुझे यह नगर प्राप्त हुआ, परंतु यह अस्थिर है। यह स्थिर हो जाए ऐसा उपाय कीजिए। ब्राह्मण कहने लगा कि हे राजन! यह स्थिर क्यों नहीं है और कैसे स्थिर हो सकता है आप बताइए, फिर मैं अवश्यमेव वह उपाय करूँगा। मेरी इस बात को आप मिथ्या न समझिए। शोभन ने कहा कि मैंने इस व्रत को श्रद्धारहित होकर किया है। अत: यह सब कुछ अस्थिर है। यदि आप मुचुकुंद की कन्या चंद्रभागा को यह सब वृत्तांत कहें तो यह स्थिर हो सकता है।


ऐसा सुनकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने अपने नगर लौटकर चंद्रभागा से सब वृत्तांत कह सुनाया। ब्राह्मण के वचन सुनकर चंद्रभागा बड़ी प्रसन्नता से ब्राह्मण से कहने लगी कि हे ब्राह्मण! ये सब बातें आपने प्रत्यक्ष देखी हैं या स्वप्न की बातें कर रहे हैं। ब्राह्मण कहने लगा कि हे पुत्री! मैंने महावन में तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा है। साथ ही किसी से विजय न हो ऐसा देवताओं के नगर के समान उनका नगर भी देखा है। उन्होंने यह भी कहा कि यह स्थिर नहीं है। जिस प्रकार वह स्थिर रह सके सो उपाय करना चाहिए।


चंद्रभागा कहने लगी हे विप्र! तुम मुझे वहाँ ले चलो, मुझे पतिदेव के दर्शन की तीव्र लालसा है। मैं अपने किए हुए पुण्य से उस नगर को स्थिर बना दूँगी। आप ऐसा कार्य कीजिए जिससे उनका हमारा संयोग हो क्योंकि वियोगी को मिला देना महान पु्ण्य है। सोम शर्मा यह बात सुनकर चंद्रभागा को लेकर मंदराचल पर्वत के समीप वामदेव ऋषि के आश्रम पर गया। वामदेवजी ने सारी बात सुनकर वेद मंत्रों के उच्चारण से चंद्रभागा का अभिषेक कर दिया। तब ऋषि के मंत्र के प्रभाव और एकादशी के व्रत से चंद्रभागा का शरीर दिव्य हो गया और वह दिव्य गति को प्राप्त हुई।


इसके बाद बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने पति के निकट गई। अपनी प्रिय पत्नी को आते देखकर शोभन अति प्रसन्न हुआ। और उसे बुलाकर अपनी बाईं तरफ बिठा लिया। चंद्रभागा कहने लगी कि हे प्राणनाथ! आप मेरे पुण्य को ग्रहण कीजिए। अपने पिता के घर जब मैं आठ वर्ष की थी तब से विधिपूर्वक एकादशी के व्रत को श्रद्धापूर्वक करती आ रही हूँ। इस पुण्य के प्रताप से आपका यह नगर स्थिर हो जाएगा तथा समस्त कर्मों से युक्त होकर प्रलय के अंत तक रहेगा। इस प्रकार चंद्रभागा ने दिव्य आभू‍षणों और वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने पति के साथ आनंदपूर्वक रहने लगी।


हे राजन! यह मैंने रमा एकादशी का माहात्म्य कहा है, जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं, उनके ब्रह्महत्यादि समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों की एका‍दशियाँ समान हैं, इनमें कोई भेदभाव नहीं है। दोनों समान फल देती हैं। जो मनुष्य इस माहात्म्य को पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे समस्त पापों से छूटकर विष्णुलोक को प्राप्त होता हैं। इति शुभम्। == उद्देश्य ==कार्तिक मास में तो प्रात: सूर्योदय से पूर्व उठने, स्नान करने और दानादि करने का विधान है। इसी कारण प्रात: उठकर केवल स्नान करने मात्र से ही मनुष्य को जहां कई हजार यज्ञ करने का फल मिलता है, वहीं इस मास में किए गए किसी भी व्रत का पुण्यफल हजारों गुणा अधिक है। रमा एकादशी व्रत में भगवान विष्णु के पूर्णावतार भगवान जी के केशव रूप की विधिवत धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प एवं मौसम के फलों से पूजा की जाती है।


व्रत में एक समय फलाहार करना चाहिए तथा अपना अधिक से अधिक समय प्रभु भक्ति एवं हरिनाम संकीर्तन में बिताना चाहिए। शास्त्रों में विष्णुप्रिया तुलसी की महिमा अधिक है इसलिए व्रत में तुलसी पूजन करना और तुलसी की परिक्रमा करना अति उत्तम है। ऐसा करने वाले भक्तों पर प्रभु अपार कृपा करते हैं जिससे उनकी सभी मनोकामनाएं सहज ही पूरी हो जाती हैं।


वैसे तो किसी भी व्रत में श्रद्धा और आस्था का होना अति आवश्यक है परंतु भगवान सदा ही अपने भक्तों के पापों का नाश करने वाले हैं इसलिए कोई भी भक्त यदि अनायास ही कोई शुभ कर्म करता है तो प्रभु उससे भी प्रसन्न होकर उसके किए पापों से उसे मुक्त करके उसका उद्धार कर देते हैं। जो भक्त प्रभु की भक्ति श्रद्धा और आस्था के साथ करते हैं उनके सभी कष्टों का निवारण प्रभु अवश्य करते हैं क्योंकि इस दिन किए गए पुण्य कर्म में श्रद्धा, भक्ति एवं आस्था से ही मनुष्य को स्थिर पुण्य फल की प्राप्ति हो सकेगी।


भगवान जगदीश्वर जी की आरती

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ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी! जय जगदीश हरे।

भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करे॥

 

जो ध्यावै फल पावै, दुख बिनसे मन का।

सुख-संपत्ति घर आवै, कष्ट मिटे तन का॥ ॐ जय…॥


मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूं किसकी।

तुम बिनु और न दूजा, आस करूं जिसकी॥ ॐ जय…॥

 

तुम पूरन परमात्मा, तुम अंतरयामी॥

पारब्रह्म परेमश्वर, तुम सबके स्वामी॥ ॐ जय…॥

 

तुम करुणा के सागर तुम पालनकर्ता।

मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥ ॐ जय…॥

 

तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।

किस विधि मिलूं दयामय! तुमको मैं कुमति॥ ॐ जय…॥

 

दीनबंधु दुखहर्ता, तुम ठाकुर मेरे।

अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे॥ ॐ जय…॥

 

विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।

श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा॥ ॐ जय…॥

 

तन-मन-धन और संपत्ति, सब कुछ है तेरा।

तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा॥ ॐ जय…॥

 

जगदीश्वरजी की आरती जो कोई नर गावे।

कहतत फल पावे॥ ॐ जय।।


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कार्तिक मास में तुलसी की महिमा

 कार्तिक मास में तुलसी की महिमा

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ब्रह्मा जी कहे हैं कि कार्तिक मास में जो भक्त प्रातः काल स्नान करके पवित्र हो कोमल तुलसी दल से भगवान् दामोदर की पूजा करते हैं, वह निश्चय ही मोक्ष पाते हैं। पूर्वकाल में भक्त विष्णुदास भक्तिपूर्वक तुलसी पूजन से शीघ्र ही भगवान् के धाम को चला गया और राजा चोल उसकी तुलना में गौण हो गए। तुलसी से भगवान् की पूजा, पाप का नाश और पुण्य की वृद्धि करने वाली है। अपनी लगाई हुई तुलसी जितना ही अपने मूल का विस्तार करती है, उतने ही सहस्रयुगों तक मनुष्य ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित रहता है। यदि कोई तुलसी संयुत जल में स्नान करता है तो वह पापमुक्त हो आनन्द का अनुभव करता है। जिसके घर में तुलसी का पौधा विद्यमान है, उसका घर तीर्थ के समान है, वहाँ यमराज के दूत नहीं जाते। जो मनुष्य तुलसी काष्ठ संयुक्त गंध धारण करता है, क्रियामाण पाप उसके शरीर का स्पर्श नहीं करते। जहाँ तुलसी वन की छाया हो वहीं पर पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध करना चाहिए। जिसके कान में, मुख में और मस्तक पर तुलसी का पत्ता दिखाई देता है, उसके ऊपर यमराज दृष्टि नहीं डाल सकते।


          प्राचीन काल में हरिमेधा और सुमेधा नामक दो ब्राह्मण थे। वह जाते-जाते किसी दुर्गम वन में परिश्रम से व्याकुल हो गए, वहाँ उन्होंने एक स्थान पर तुलसी दल देखा। सुमेधा ने तुलसी का महान् वन देखकर उसकी परिक्रमा की और भक्ति पूर्वक प्रणाम किया। यह देख हरिमेधा ने पूछा कि 'तुमने अन्य सभी देवताओं व तीर्थ-व्रतों के रहते तुलसी वन को प्रणाम क्यों किया ?' तो सुमेधा ने बताया कि 'प्राचीन काल में जब दुर्वासा के शाप से इन्द्र का ऐश्वर्य छिन गया तब देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया तो धनवंतरि रूप भगवान् श्री हरि और दिव्य औषधियाँ प्रकट हुईं। उन दिव्य औषधियों में मण्डलाकार तुलसी उत्पन्न हुई, जिसे ब्रह्मा आदि देवताओं ने श्री हरि को समर्पित किया और भगवान् ने उसे ग्रहण कर लिया। भगवान् नारायण संसार के रक्षक और तुलसी उनकी प्रियतमा है। इसलिए मैंने उन्हें प्रणाम किया है।'


          सुमेधा इस प्रकार कह ही रहे थे कि सूर्य के समान अत्यंत तेजस्वी विशाल विमान उनके निकट उतरा। उन दोनों के समक्ष वहाँ एक बरगद का वृक्ष गिर पड़ा और उसमें से दो दिव्य पुरुष प्रकट हुए। उन दोनों ने हरिमेधा और सुमेधा को प्रणाम किया। दोनों ब्राह्मणों ने उनसे पूछा कि आप कौन हैं ? तब उनमें से जो बड़ा था वह बोला, मेरा नाम आस्तिक है। एक दिन मैं नन्दन वन में पर्वत पर क्रीड़ा करने गया था तो देवांगनाओं ने मेरे साथ इच्छानुसार विहार किया। उस समय उन युवतियों के हार के मोती टूटकर तपस्या करते हुए लोमश ऋषि पर गिर पड़े। यह देखकर मुनि को क्रोध आया। उन्होंने सोचा कि स्त्रियाँ तो परतंत्र होती हैं। अत: यह उनका अपराध नहीं, दुराचारी आस्तिक ही शाप के योग्य है। ऐसा सोचकर उन्होंने मुझे शापित किया - "अरे तू ब्रह्म राक्षस होकर बरगद के पेड़ पर निवास कर।" जब मैंने विनती से उन्हें प्रसन्न किया तो उन्होंने शाप से मुक्ति की विधि सुनिश्चित कर दी कि जब तू किसी ब्राह्मण के मुख से तुलसी दल की महिमा सुनेगा तो तत्काल तुझे उत्तम मोक्ष प्राप्त होगा। इस प्रकार मुक्ति का शाप पाकर मैं चिरकाल से इस वट वृक्ष पर निवास कर रहा था। आज दैववश आपके दर्शन से मेरा छुटकारा हुआ है।


          तत्पश्चात् वे दोनों श्रेष्ठ ब्राह्मण परस्पर पुण्यमयी तुलसी की प्रशंसा करते हुए तीर्थ यात्रा को चल दिए। इसलिए भगवान् विष्णु को प्रसन्नता देने वाले इस कार्तिक मास में तुलसी की पूजा अवश्य करनी चाहिए।

                          

                  *तुलसी विवाह की विधि व महत्व*


कार्तिक शुक्ला नवमी को द्वापर युग का प्रारंभ हुआ था। इस तिथि को नवमी से एकादशी तक मनुष्य शास्त्रोक्त विधि से तुलसी विवाह का उत्सव करें तो उसे कन्यादान का फल होता है। पूर्वकाल में कनक की पुत्री किशोरी ने एकादशी के दिन संध्या के समय तुलसी की वैवाहिक विधि संपन्न की थी इससे वह वैधव्य दोष से मुक्त हो गई थी। अब तुलसी विवाह की विधि सुनिये-


एक तोला स्वर्ण की भगवान् विष्णु की प्रतिमा बनवाएँ या अपनी शक्ति के अनुसार आधे या चौथाई तोले की बनवाएँ अथवा यह भी न होने पर उसे अन्य धातुओं के सम्मिश्रण से ही बनवाएँ। फिर तुलसी और भगवान् विष्णु की प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा करके स्तुति आदि के द्वारा भगवान् को निन्द्रा से जगावें। फिर पुरुष सूक्त से व घोडशोपचार से पूजा करें। पहले देशकाल स्मरण करके गणेश पूजन करे, फिर पुण्याह वाचन करके वेद मंत्रों का उच्चारण करते हुए बाजे आदि की ध्वनि से भगवान् विष्णु की प्रतिमा को तुलसी के निकट लाकर रख दें। प्रतिमा को सुंदर वस्त्रों व अलंकारों सजाए रहें उसी समय भगवान् का आह्वान इस मंत्र से करें-


              आगच्छ भगवत् देव अर्चयिष्यामि केशव।

              तुभ्यं दासयामि तुलसीं सर्वकामप्रदो भव॥


अर्थात्-हे भगवान् केशव ! आइए देव, मैं आपकी पूजा करूँगा, आपकी सेवा में तुलसी को समर्पित करूँगा आप मेरे सब मनोरथों को पूर्ण करें।


          इस प्रकार आह्वान के बाद तीन-तीन बार अर्ध्य, पाद्य और विष्टर का उच्चारण करके इन्हें भी भगवान् को समर्पित कर दे। तत्पश्चात् काँसे के पात्र में दही, घी और शहद रखकर उसे कांसे के ढक्कन से ढककर भगवान् को अर्पण करते हुए इस प्रकार कहें- 'हे वासुदेव, आपको नमस्कार है। यह मधुपर्क ग्रहण कीजिए।' तब दोनों को एक-दूसरे के समक्ष रखकर मंगल पाठ करें। इस प्रकार गोधूलि बेला में जब भगवान् सूर्य कुछ-कुछ दिखाई दे रहे हों, तब कन्यादान का संकल्प करें और भगवान् से यह प्रार्थना करें- "आदि, मध्य और अंत से रहित त्रिभुवन प्रतिपालक परमेश्वर ! इस तुलसी को आप विवाह की विधि से ग्रहण करें। यह पार्वती के बीज से प्रकट हुई है, वृंदावन की भस्म में स्थित रही है तथा आदि, मध्य और अंत में शून्य है। आपको तुलसी अत्यंत प्रिय है अतः इसे मैं आपकी सेवा में अर्पित करता हूँ। मैंने जल के घड़ों से सींचकर और अन्य सभी प्रकार की सेवाएँ करके, अपनी पुत्री की भाँति इसे पाला-पोसा है, बढ़ाया है और आपकी तुलसी आपको ही दे रहा हूँ। हे प्रभो ! कृपा करके इसे ग्रहण करें।"


          इस प्रकार तुलसी का दान करके फिर उन दोनों (तुलसी और विष्णु) की पूजा करें। अगले दिन प्रातः काल में पुनः पूजा करें। अग्नि की स्थापना करके उसमें द्वादशाक्षर मंत्र से खीर, घी, मधु और तिल मिश्रित द्रव्य की 108 आहुति दें। आप चाहें तो आचार्य से होम की शेष पूजा करवा सकते हैं। तब भगवान् से प्रार्थना करके कहें- "प्रभो ! आपकी प्रसन्नता के लिए मैंने यह व्रत किया, इसमें जो कमी रह गई हो, वह आपके प्रसाद से पूर्णताः को प्राप्त हो जाए। अब आप तुलसी के साथ बैकुण्ठ धाम में पधारें। आप मेरे द्वारा की गई पूजा से सदा संतुष्ट रहकर मुझे कृतार्थ करें।"


          इस प्रकार तुलसी विवाह का परायण करके भोजन करें, और भोजन के बाद तुलसी के स्वत: गिरे हुए पत्तों को खाऐं, यह प्रसाद सब पापों से मुक्त होकर भगवान् के धाम को प्राप्त होता है। भोजन में आँवला और बेर का फल खाने से उच्छिष्ट-दोष मिट जाता है।

                         

                            *तुलसी दल चयन*


स्कन्द पुराण का वचन है कि जो हाथ पूजार्थ तुलसी चुनते हैं, वे धन्य हैं-


             तुलसी ये विचिन्वन्ति धन्यास्ते करपल्लवाः।


तुलसी का एक-एक पत्ता न तोड़कर पत्तियों के साथ अग्रभाग को तोड़ना चाहिए। तुलसी की मंजरी सब फूलों से बढ़कर मानी जाती है। मंजरी तोड़ते समय उसमें पत्तियों का रहना भी आवश्यक माना जाता है। निम्नलिखित मंत्र पढ़कर पूज्यभाव से पौधे को हिलाए बिना तुलसी के अग्रभाग को तोड़े। इससे पूजा का फल लाख गुना बढ़ जाता है।

                         

                        *तुलसी दल तोड़ने का मंत्र*


             तुलस्यमृतजन्मासि  सदा  त्वं  केशवप्रिया।

             चिनोमी  केशवस्यार्थे  वरदा  भव  शोभने॥

             त्वदङ्गसम्भवैः  पत्रैः  पूजयामि यथा हरिम्।

             तथा कुरु पवित्राङ्गि! कलौ मलविनाशिनि॥

                         

                   *तुलसी दल चयन में निषेध समय*


वैधृति और व्यतीपात-इन दो योगों में, मंगल, शुक्र और रवि, इन तीन वारों में, द्वादशी, अमावस्या एवं पूर्णिमा, इन तीन तिथियों में, संक्रान्ति और जननाशौच तथा मरणाशौच में तुलसीदल तोड़ना मना है। संक्रान्ति, अमावस्या, द्वादशी, रात्रि और दोनों संध्यायों में भी तुलसीदल न तोड़ें, किंतु तुलसी के बिना भगवान् पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती, अत: निषेध समय में तुलसी वृक्ष से स्वयं गिरी हुई पत्ती से पूजा करें (पहले दिन के पवित्र स्थान पर रखे हुए तुलसीदल से भी भगवान् की पूजा की जा सकती है)। शालिग्राम की पूजा  के लिए वर्जित तिथियों में भी तुलसी तोड़ी जा सकती है। बिना स्नान के और जूता पहनकर भी तुलसी न तोड़ें।

                                                 

।। "जय जय तुलसी माता" ।।

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कार्तिक माह महात्म्य – पांचवाँ अध्याय 

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प्रभु मुझे सहारा है तेरा, 

जग के पालनहार।

कार्तिक मास माहात्म की, 

कथा करूँ विस्तार।।


राजा पृथु बोले – हे नारद जी! आपने कार्तिक मास में स्नान का फल कहा, अब अन्य मासों में विधिपूर्वक स्नान करने की विधि, नियम और उद्यापन की विधि भी बतलाइये।


देवर्षि नारद ने कहा – हे राजन्! आप भगवान विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए हैं, अत: यह बात आपको ज्ञात ही है फिर भी आपको यथाचित विधान बतलाता हूँ.


आश्विन माह में शुक्लपक्ष की एकादशी से कार्तिक के व्रत करने चाहिए. ब्रह्ममुहूर्त में उठकर जल का पात्र लेकर गाँव से बाहर पूर्व अथवा उत्तर दिशा में जाना चाहिए. दिन में या सांयकाल में कान में जनेऊ चढ़ाकर पृथ्वी पर घास बिछाकर सिर को वस्त्र से ढककर मुंह को भली-भाँति बन्द कर के थूक व सांस को रोककर मल व मूत्र का त्याग करना चाहिए. तत्पश्चात मिट्टी व जल से भली-भाँति अपने गुप्ताँगों को धोना चाहिए. उसके बाद जो मनुष्य मुख शुद्धि नहीं करता, उसे किसी भी मन्त्र का फल प्राप्त नहीं होता है. अत: दाँत और जीभ को पूर्ण रूप से शुद्ध करना चाहिए और निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए दातुन तोड़नी चाहिए।


‘हे वनस्पतये! आप मुझे आयु, कीर्ति, तेज, प्रज्ञा, पशु, सम्पत्ति, महाज्ञान, बुद्धि और विद्या प्रदान करो’. इस प्रकार उच्चारण करके वृक्ष से बारह अंगुल की दांतुन ले, दूध वाले वृक्षों से दांतुन नहीं लेनी चाहिए. इसी प्रकार कपास, कांटेदार वृक्ष तथा जले हुए वृक्ष से भी दांतुन लेना मना है. जिससे उत्तम गन्ध आती हो और जिसकी टहनी कोमल हो, ऎसे ही वृक्ष से दन्तधावन ग्रहण करना चाहिए।


प्रतिपदा, अमावस्या, नवमी, छठी, रविवार को, चन्द्र तथा सूर्यग्रहण में दांतुन नहीं तोड़नी चाहिए. तत्पश्चात भली-भाँति स्नान कर के फूलमाला, चन्दन और पान आदि पूजा की सामग्री लेकर प्रसन्नचित्त व भक्तिपूर्वक शिवालय में जाकर सभी देवी-देवताओं की अर्ध्य, आचमनीय आदि वस्तुओं से पृथक-पृथक पूजा करके प्रार्थना एवं प्रणाम करना चाहिए फिर भक्तों के स्वर में स्वर मिलाकर श्रीहरि का कीर्तन करना चाहिए।


मन्दिर में जो गायक भगवान श्रीहरि का कीर्तन करने आये हों उनका माला, चन्दन, ताम्बूल आदि से पूजन करना चाहिए क्योंकि देवालयों में भगवान विष्णु को अपनी तपस्या, योग और दान द्वारा प्रसन्न करते थे परन्तु कलयुग में भगवद गुणगान को ही भगवान श्रीहरि को प्रसन्न करने का एकमात्र साधन माना गया है।


नारद जी राजा पृथु से बोले – हे राजन! एक बार मैंने भगवान से पूछा कि हे प्रभु! आप सबसे अधिक कहां निवास करते हैं? इसका उत्तर देते हुए भगवान ने कहा – हे नारद! मैं वैकुण्ठ या योगियों के हृदय में ही निवास नहीं करता अपितु जहां मेरे भक्त मेरा कीर्तन करते हैं, मैं वहां अवश्य निवास करता हूँ. जो मनुष्य चन्दन, माला आदि से मेरे भक्तों का पूजन करते हैं उनसे मेरी ऎसी प्रीति होती है जैसी कि मेरे पूजन से भी नहीं हो सकती।


नारद जी ने फिर कहा – शिरीष, धतूरा, गिरजा, चमेली, केसर, कन्दार और कटहल के फूलों व चावलों से भगवान विष्णु की पूजा नहीं करनी चाहिए. अढ़हल,कन्द, गिरीष, जूही, मालती और केवड़ा के पुष्पों से भगवान शंकर की पूजा नहीं करनी चाहिए. जिन देवताओं की पूजा में जो फूल निर्दिष्ट हैं उन्हीं से उनका पूजन करना चाहिए. पूजन समाप्ति के बाद भगवान से क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए. यथा – ‘हे सुरेश्वर, हे देव! न मैं मन्त्र जानता हूँ, न क्रिया, मैं भक्ति से भी हीन हूँ, मैंने जो कुछ भी आपकी पूजा की है उसे पूरा करें’।


ऎसी प्रार्थना करने के पश्चात साष्टांग प्रणाम कर के भगवद कीर्तन करना चाहिए। श्रीहरि की कथा सुननी चाहिए और प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।


जो मनुष्य उपरोक्त विधि के अनुसार कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करते हैं वह जगत के सभी सुखों को भोगते हुए अन्त में मुक्ति को प्राप्त करते हैं।



शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2024

मिलावट के जहर से ऐसे बचे जानिए आप भी

 मिलावट के जहर से ऐसे बचे जानिए आप भी


1. जीरा (Cumin seeds)


जीरे की परख करने के ल‍िए थोड़ा सा जीरा हाथ में लीजि‍ए और दोनों हथेल‍ियों के बीच रगड़‍िए। अगर हथेली में रंग छूटे तो समझ जाइए क‍ि जीरा म‍िलावटी है क्‍योंक‍ि जीरा रंग नही छोड़ता।


2. हींग (Hing)


हींग की गुणवत्‍ता जांचने के ल‍िए उसे पानी में घोल‍िए।


अगर घोल दूध‍िया रंग का हो जाए तो समझ‍िए क‍ि हींग असली है। दूसरा तरीका है हींग का एक टुकड़ा जीभ पर रखें अगर हींग असली होगी तो कड़वापन या चरपराहट का अहसास होगा।


3. लाल मि‍र्च पाउडर (Red chilli powder)


लाल म‍िर्च पाउडर में सबसे ज्‍यादा म‍िलावट की जाती है।


इसकी जांच करने के ल‍िए पाउडर को पानी में डालिए, अगर रंग पानी में घुले और बुरादा जैसा तैरने लगे तो मान ल‍ीज‍िए की म‍िर्च पाउडर नकली है।


4. सौंफ और धन‍िया (Fennel & Coriander)


इन द‍िनों मार्केट में ऐसी सौंफ और धन‍िया म‍िलता है जिस पर हरे रंग की पॉल‍िश होती है ये नकली पदार्थ होते हैं, इसकी जांच करने के ल‍िए धन‍िए में आयोडीन म‍िलाएं, अगर रंग काला हो जाए तो समझ जाइए क‍ि धन‍िया नकली है।


5. काली म‍िर्च (Black pepper)


काली म‍िर्च पपीते के बीज जैसी ही द‍िखती है इसल‍िए कई बार म‍िलावटी काली म‍िर्च में पपीते के बीज भी होते हैं।इसको परखने के ल‍िए एक ग‍िलास पानी में काली म‍िर्च के दानें डालें।अगर दानें तैरते हैं तो मतलब वो दानें पपीते के हैं और काली म‍िर्च असली नहीं है


6. शहद (Honey)


शहद में भी खूब म‍िलावट होती है।


शहद में चीनी म‍िला दी जाती है, इसकी गुणवत्‍ता जांचने के ल‍िए शहद की बूंदों को ग‍िलास में डालें, अगर शहद तली पर बैठ रहा है तो इसका मतलब वो असली है नहीं तो नकली है।


7. देसी घी (Ghee)


घी में म‍िलावट की जांच करने के लिए दो चम्‍मच हाइट्रोक्‍लोर‍िक एस‍िड और दो चम्‍मच चीनी लें और उसमें एक चम्‍मच घी म‍िलाएं। अगर म‍िश्रण लाल रंग का हो जाता है तो समझ जाइए क‍ि घी में म‍िलावट है।


8. दूध (Milk)


दूध में पानी, म‍िल्‍क पाउडर, कैम‍िकल की म‍िलावट की जाती है। जांच करने के ल‍िए दूध में उंगली डालकर बाहर न‍िकाल‍ लीज‍िए। अगर उंगली में दूध च‍िपकता है तो समझ जाइए दूध शुद्ध है। अगर दूध न च‍िपके तो मतलब दूध में म‍िलावट है।


9. चाय की पत्‍ती (Tea)


चाय की जांच करने के ल‍िए सफेद कागज को हल्‍का भ‍िगोकर उस पर चाय के दाने ब‍िखेर दीज‍िए। अगर कागज में रंग लग जाए तो समझ जाइए चाय नकली है क्‍योंक‍ि असली चाय की पत्‍ती ब‍िना गरम पानी के रंग नहीं छोड़ती।


10. कॉफी (Coffee)


कॉफी की शुद्धता जांचने के ल‍िए उसे पानी में घोल‍िए।


शुद्ध कॉफी पानी में घुल जाती है, अगर घुलने के बाद कॉफी तली में चिपक जाए तो वो नकली है।

Suhana Safar

सोमवार, 21 अक्टूबर 2024

कार्तिक माहात्म्य (स्कनदपुराण के अनुसार)

 *कार्तिक माहात्म्य (स्कनदपुराण के अनुसार) अध्याय – ०३:--*



*(कार्तिक व्रत एवं नियम)*


*(१) ब्रह्मा जी कहते हैं - व्रत करने वाले पुरुष को उचित है कि वह सदा एक पहर रात बाकी रहते ही सोकर उठ जाय।* 


*(२) फिर नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा भगवान् विष्णु की स्तुति करके दिन के कार्य का विचार करे।* 


*(३) गाँव से नैर्ऋत्य कोण में जाकर विधिपूर्वक मल-मूत्र का त्याग करे। यज्ञोपवीत को दाहिने कान पर रखकर उत्तराभिमुख होकर बैठे।* 


*(४) पृथ्वी पर तिनका बिछा दे और अपने मस्तक को वस्त्र से भलीभाँति ढक ले,* 


*(५) मुख पर भी वस्त्र लपेट ले, अकेला रहे तथा साथ जल से भरा हुआ पात्र रखे।* 


*(६) इस प्रकार दिन में मल-मूत्र का त्याग करे।* 


*(७) यदि रात में करना हो तो दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके बैठे।* 


*(८) मलत्याग के पश्चात् गुदा में पाँच (५) या सात (७) बार मिट्टी लगाकर धोवे, बायें हाथ में दस (१०) बार मिट्टी लगावे, फिर दोनों हाथों में सात (७) बार और दोनों पैरों में तीन (३) बार मिट्टी लगानी चाहिये। - यह गृहस्थ के लिये शौच का नियम बताया गया है।* 


*(९) ब्रह्मचारी के लिये, इससे दूगुना (२), वानप्रस्थ के लिये तीन (३) गुना और, संन्यासी के लिये चौगुना (४) शौच कहा गया है। यह दिन में शौच का नियम है।* 


*(१०) रात में इससे आधा ही पालन करे। यात्रा में गये हुए मनुष्य के लिये उससे भी आधे शौच का विधान है, तथा स्त्रियों और शूद्रों के लिये उससे भी आधा शौच बताया गया है। शौचकर्म से हीन पुरुष की समस्त क्रियाएँ निष्फल होती हैं।* 


*(११) तदनन्तर दाँत और जिह्वा की शुद्धि के लिये वृक्ष के पास जाकर यह मन्त्र पढ़े :--* 


"*आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च। ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते।"* 


*'हे वनस्पते ! आप मुझे आयु, बल, यश, तेज, सन्तति, पशु, धन, वैदिक ज्ञान, प्रज्ञा और धारणा शक्ति प्रदान करें।'* 


*(१२) ऐसा कहकर वृक्ष से बारह (१२) अंगुल की दाँतुन ले,*


*(१३) दूध वाले वृक्षों से दाँतुन नहीं लेनी चाहिये।* 


*(१४) इसी प्रकार कपास, काँटेदार वृक्ष, तथा जले हुए पेड़ से भी दाँतन लेना मना है।* 


*(१५) जिससे उत्तम गन्ध आती हो और जिसकी टहनी कोमल हो, ऐसे ही वृक्ष से दन्तधावन ग्रहण करना चाहिये।* 


*(१६) उपवास के दिन, नवमी, और षष्ठी तिथि को, श्राद्ध के दिन, रविवार को, ग्रहण में, प्रतिपदा को तथा अमावास्या को भी काष्ठ से दाँतन नहीं करनी चाहिये [*]।*


*[ ]  उपवासे नवम्यां च षष्ठयां श्राद्धदिने रवौ । ग्रहणे प्रतिपद्दशैं न कुर्यादन्तधावनम् ।।* (स्क० पु० वै० का० मा० ५। १५) 


*(१७) जिस दिन दाँतन का विधान नहीं है, उस दिन बारह (१२) कुल्ले कर लेने चाहिये।* 


*(१८) विधिपूर्वक दाँतों को शुद्ध करके मुँह को जल से धो डाले और भगवान् विष्णु के नामों का उच्चारण करते हुए दो घड़ी रात रहते ही स्नान के लिये जलाशय पर जाय।*


*(१९) कार्तिक के व्रत का पालन करने वाला पुरुष विधि से स्नान करे।* 


*(२०) फिर धोती निचोड़कर अपनी रुचि के अनुसार तिलक करे।*


*(२१) तत्पश्चात् अपनी शाखा के अनुकूल आह्निकसूत्र की बतायी हुई पद्धति से सन्ध्योपासन करे।* 


*(२२) जब तक सूर्योदय न हो जाय तब तक गायत्री मन्त्र का जप करता रहे। यह रात्रि के अन्त का कृत्य बताया गया है।* 


*(२३) अब दिन का कार्य बताया जाता है। सन्ध्योपासना के अन्त में विष्णुसहस्त्रनाम आदि का पाठ करे, फिर देवालय में आकर पूजन प्रारम्भ करे।* 


*(२४) भगवत्सम्बन्धी पदों के गान, कीर्तन और नृत्य आदि कार्यों में दिन का प्रथम प्रहर व्यतीत करे। तत्पश्चात् आधे पहर तक भली भाँति पुराण-कथा का श्रवण करे।* 


*(२५) उसके बाद पुराण बाँचने वाले विद्वान् की और तुलसी की पूजा करके मध्याह्न का कर्म करने के पश्चात् दाल के सिवा शेष अन्न का भोजन करे।* 


*(२६) बलिवैश्वदेव करके अतिथियों को भोजन करा कर जो मनुष्य स्वयं भोजन करता है, उसका वह भोजन केवल अमृत है। मुख शुद्धि के लिये तीर्थ* 


*(२७) जल (भगवच्चरणामृत) से तुलसी-भक्षण करे। फिर शेष दिन सांसारिक व्यवहार में व्यतीत करे।* 


*(२८) सायंकाल में पुन: भगवान् विष्णु के मन्दिर में जाय और सन्ध्या करके शक्ति के अनुसार दीपदान करे।* 


*(२९) भगवान् विष्णु को प्रणाम करके उनकी आरती उतारे और स्तोत्र पाठ आदि करते हुए प्रथम प्रहर में जागरण करे।*


*(३०) प्रथम प्रहर बीत जाने पर शयन करे।* 


*(३१) ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करे।* 


*(३२) इस प्रकार एक मास तक प्रतिदिन शास्त्रोक्त विधि का पालन करे। जो कार्तिकमास में उत्तम व्रत का पालन करता है, वह सब पापों से मुक्त हो भगवान् विष्णु के सालोक्य को प्राप्त होता है।* 


*(३३) कार्तिक मास आने पर निषिद्ध वस्तुओं का त्याग करना चाहिये। तेल लगाना, परान्न भोजन करना, तेल खाना, जिस में बहुत से बीज हों ऐसे फलों का सेवन तथा चावल और दाल - ये सभी कार्तिक मास में त्याज्य हैं।*


*(३४) लौकी, गाजर, बैगन, वनभंटा (ऊंटकटारा), बासी अन्न, भैंसीड़, मसूर, दुबारा भोजन, मदिरा, पराया अन्न, काँसी के पात्र में भोजन, छत्राक, काँजी, दुर्गन्धित पदार्थ, समुदाय (संस्था आदि) का अन्न, वेश्या का अन्न, ग्रामपुरोहित और शूद्र का अन्न और सूतक का अन्न - ये सभी त्याग देने योग्य हैं।*


*(३५) श्राद्ध का अन्न, रजस्वला का दिया हुआ अन्न, जननाशौच का अन्न और लसोड़े का फल - इन्हें कार्तिक व्रत का पालन करने वाला पुरुष अवश्य त्याग दे।*


*(३६) निषिद्ध पत्तलों में भोजन न करे। महुआ, केला, जामुन और पकड़ी - इनके पत्तों में भोजन करना चाहिये। कमल के पत्ते पर कदापि भोजन न करे।* 


*(३७) कार्तिक मास आने पर जो वनवासी मुनियों के अनुसार नियमित भोजन करता है, वह चक्रपाणि भगवान् विष्णु के परम धाम में जाता है। कार्तिक में प्रात:काल स्नान और भगवान् की पूजा करनी चाहिये। उस समय कथा श्रवण उत्तम माना गया है।*


*(३८) कार्तिक में केला और आँवले के फल का दान करे और शीत से कष्ट पाने वाले ब्राह्मण को कपड़ा दे।* 


*(३९) जो कार्तिक में भक्ति पूर्वक भगवान् विष्णु को तुलसी दल समर्पित करता है, वह संसार से मुक्त हो भगवान् विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है।* 


*(४०) श्रीहरि के परम प्रिय कार्तिकमास में जो नित्य गीता पाठ करता है, उसके पुण्यफल का वर्णन सैकड़ों वर्षों में भी नहीं किया जा सकता।* 


*(४१) जो श्रीमद्भागवत का भी श्रवण करता है वह सब पापों से मुक्त हो परम शान्ति को प्राप्त होता है [*]।*


*[ ] गीतापाठं तु यः कुर्यात् कार्तिके विष्णुवल्लभे । तस्य पुण्यफलं वक्तुं नालं वर्षशतैरपि । श्रीमद्भागवतस्यापि श्रवणं य: समाचरेत् ।सर्वपापविनिर्मुक्तः परं निर्वाणमृच्छति ।।* (स्क० पु. वै० का० मा० ६६ १९-२०) 


*(४२) जो कार्तिक की एकादशी को निराहार रहकर व्रत करता है, वह नि:सन्देह पूर्वजन्म के पापों से मुक्त हो जाता है।*


*(४३) जो कार्तिक में भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये दूसरे के अन्न का त्याग करता है, वह भगवान् विष्णु के प्रेम को भलीभाँति प्राप्त करता है।* 


*(४४) जो राह चल कर थके-माँदै और भोजन के समय पर घर पर आये हुए अतिथि का भक्तिपूर्वक पूजन करता है वह सहस्रों जन्मों के पाप का नाश कर डालता है।* 


*(४५) जो मूढ़ मानव वैष्णव महात्माओं की निन्दा करते हैं, वे अपने पितरों के साथ महारौरव नरक में गिरते हैं।* 


*(४६) जो भगवान् की और भगवद्भक्तों की निन्दा सुनते हुए भी वहाँ से दूर नहीं हट जाता वह भगवान् का प्रिय भक्त नहीं है।* 


*(४७) जो कार्तिकमास में भगवान् विष्णु की परिक्रमा करता है उसे पग-पग पर अश्वमेध-यज्ञ का फल प्राप्त होता है।* 


*(४८) जो कार्तिकमास में परायी स्त्री के साथ सङ्गम करता है, उसके पाप की शान्ति कैसे होगी, यह बताना असम्भव है।* 


*(४९) जिसके ललाट में तुलसी की मृत्तिका का तिलक दिखायी देता है, उसकी ओर देखने में यमराज भी समर्थ नहीं हैं; फिर उनके भयानक दूतों की तो बात ही क्या ?* 


*(५०) कार्तिक में भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये धर्म का अनुष्ठान करना चाहिये। मासव्रत की समाप्ति होने पर उस व्रत की पूर्णता के लिये श्रेष्ठ ब्राह्मण को दान देना चाहिये।* 


*(५१) जो कार्तिक में भगवान् विष्णु के मन्दिर में चूना आदि का लेप कराता है या तसवीर आदि लिखता है, वह भगवान् विष्णु के समीप आनन्द का अनुभव करता है।* 


*(५२) जो ब्राह्मण कार्तिकमास में गभस्तीश्वर के समीप शतरुद्री का जप करता है, उसके मन्त्र को सिद्धि होती है।* 


*(५३) जिन्होंने तीन (३) वर्षां तक काशी में रहकर भक्ति पूर्वक साङ्गोपाङ्ग कार्तिक वत का अनुष्ठान किया है, उन्हें सम्पत्ति, सन्तति, यश तथा धर्मबुद्धि को प्राप्ति के द्वारा इस लोक में ही उस व्रत का प्रत्यक्ष फल दिखायी देता है।* 


*(५४) कार्तिक में प्याज, शृंग (सिंघाड़ा), सेज, बेर, राई, नशीली वस्तु, चिउड़ा - इन सबका उपयोग न करे।* 


*(५५) कार्तिक का व्रत करने वाला मनुष्य देवता, वेद, ब्राह्मण, गुरु, गौ, व्रती, स्त्री, राजा और महात्माओं की निन्दा न करे।* 


*(५६) कार्तिक में केवल नरकचतुर्दशी (दिवाली के एक रोज पहले) को शरीर में तेल लगाना चाहिये। उसके सिवा और किसी दिन व्रती मनुष्य तेल न लगावे।* 


*(५७) नालिका, मूली, कुम्हड़ा, कैथ इनका भी त्याग करे।* 


*(५८) रजस्वला, चाण्डाल, म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मणद्वेषी और वेद-बहिष्कृत लोगों से व्रती मनुष्य बातचीत न करे।*


*जय जय श्री सीताराम*

*जय जय श्री राधेश्याम*


कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...