*कार्तिक माहात्म्य (स्कनदपुराण के अनुसार) अध्याय – ०३:--*
*(कार्तिक व्रत एवं नियम)*
*(१) ब्रह्मा जी कहते हैं - व्रत करने वाले पुरुष को उचित है कि वह सदा एक पहर रात बाकी रहते ही सोकर उठ जाय।*
*(२) फिर नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा भगवान् विष्णु की स्तुति करके दिन के कार्य का विचार करे।*
*(३) गाँव से नैर्ऋत्य कोण में जाकर विधिपूर्वक मल-मूत्र का त्याग करे। यज्ञोपवीत को दाहिने कान पर रखकर उत्तराभिमुख होकर बैठे।*
*(४) पृथ्वी पर तिनका बिछा दे और अपने मस्तक को वस्त्र से भलीभाँति ढक ले,*
*(५) मुख पर भी वस्त्र लपेट ले, अकेला रहे तथा साथ जल से भरा हुआ पात्र रखे।*
*(६) इस प्रकार दिन में मल-मूत्र का त्याग करे।*
*(७) यदि रात में करना हो तो दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके बैठे।*
*(८) मलत्याग के पश्चात् गुदा में पाँच (५) या सात (७) बार मिट्टी लगाकर धोवे, बायें हाथ में दस (१०) बार मिट्टी लगावे, फिर दोनों हाथों में सात (७) बार और दोनों पैरों में तीन (३) बार मिट्टी लगानी चाहिये। - यह गृहस्थ के लिये शौच का नियम बताया गया है।*
*(९) ब्रह्मचारी के लिये, इससे दूगुना (२), वानप्रस्थ के लिये तीन (३) गुना और, संन्यासी के लिये चौगुना (४) शौच कहा गया है। यह दिन में शौच का नियम है।*
*(१०) रात में इससे आधा ही पालन करे। यात्रा में गये हुए मनुष्य के लिये उससे भी आधे शौच का विधान है, तथा स्त्रियों और शूद्रों के लिये उससे भी आधा शौच बताया गया है। शौचकर्म से हीन पुरुष की समस्त क्रियाएँ निष्फल होती हैं।*
*(११) तदनन्तर दाँत और जिह्वा की शुद्धि के लिये वृक्ष के पास जाकर यह मन्त्र पढ़े :--*
"*आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च। ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते।"*
*'हे वनस्पते ! आप मुझे आयु, बल, यश, तेज, सन्तति, पशु, धन, वैदिक ज्ञान, प्रज्ञा और धारणा शक्ति प्रदान करें।'*
*(१२) ऐसा कहकर वृक्ष से बारह (१२) अंगुल की दाँतुन ले,*
*(१३) दूध वाले वृक्षों से दाँतुन नहीं लेनी चाहिये।*
*(१४) इसी प्रकार कपास, काँटेदार वृक्ष, तथा जले हुए पेड़ से भी दाँतन लेना मना है।*
*(१५) जिससे उत्तम गन्ध आती हो और जिसकी टहनी कोमल हो, ऐसे ही वृक्ष से दन्तधावन ग्रहण करना चाहिये।*
*(१६) उपवास के दिन, नवमी, और षष्ठी तिथि को, श्राद्ध के दिन, रविवार को, ग्रहण में, प्रतिपदा को तथा अमावास्या को भी काष्ठ से दाँतन नहीं करनी चाहिये [*]।*
*[ ] उपवासे नवम्यां च षष्ठयां श्राद्धदिने रवौ । ग्रहणे प्रतिपद्दशैं न कुर्यादन्तधावनम् ।।* (स्क० पु० वै० का० मा० ५। १५)
*(१७) जिस दिन दाँतन का विधान नहीं है, उस दिन बारह (१२) कुल्ले कर लेने चाहिये।*
*(१८) विधिपूर्वक दाँतों को शुद्ध करके मुँह को जल से धो डाले और भगवान् विष्णु के नामों का उच्चारण करते हुए दो घड़ी रात रहते ही स्नान के लिये जलाशय पर जाय।*
*(१९) कार्तिक के व्रत का पालन करने वाला पुरुष विधि से स्नान करे।*
*(२०) फिर धोती निचोड़कर अपनी रुचि के अनुसार तिलक करे।*
*(२१) तत्पश्चात् अपनी शाखा के अनुकूल आह्निकसूत्र की बतायी हुई पद्धति से सन्ध्योपासन करे।*
*(२२) जब तक सूर्योदय न हो जाय तब तक गायत्री मन्त्र का जप करता रहे। यह रात्रि के अन्त का कृत्य बताया गया है।*
*(२३) अब दिन का कार्य बताया जाता है। सन्ध्योपासना के अन्त में विष्णुसहस्त्रनाम आदि का पाठ करे, फिर देवालय में आकर पूजन प्रारम्भ करे।*
*(२४) भगवत्सम्बन्धी पदों के गान, कीर्तन और नृत्य आदि कार्यों में दिन का प्रथम प्रहर व्यतीत करे। तत्पश्चात् आधे पहर तक भली भाँति पुराण-कथा का श्रवण करे।*
*(२५) उसके बाद पुराण बाँचने वाले विद्वान् की और तुलसी की पूजा करके मध्याह्न का कर्म करने के पश्चात् दाल के सिवा शेष अन्न का भोजन करे।*
*(२६) बलिवैश्वदेव करके अतिथियों को भोजन करा कर जो मनुष्य स्वयं भोजन करता है, उसका वह भोजन केवल अमृत है। मुख शुद्धि के लिये तीर्थ*
*(२७) जल (भगवच्चरणामृत) से तुलसी-भक्षण करे। फिर शेष दिन सांसारिक व्यवहार में व्यतीत करे।*
*(२८) सायंकाल में पुन: भगवान् विष्णु के मन्दिर में जाय और सन्ध्या करके शक्ति के अनुसार दीपदान करे।*
*(२९) भगवान् विष्णु को प्रणाम करके उनकी आरती उतारे और स्तोत्र पाठ आदि करते हुए प्रथम प्रहर में जागरण करे।*
*(३०) प्रथम प्रहर बीत जाने पर शयन करे।*
*(३१) ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करे।*
*(३२) इस प्रकार एक मास तक प्रतिदिन शास्त्रोक्त विधि का पालन करे। जो कार्तिकमास में उत्तम व्रत का पालन करता है, वह सब पापों से मुक्त हो भगवान् विष्णु के सालोक्य को प्राप्त होता है।*
*(३३) कार्तिक मास आने पर निषिद्ध वस्तुओं का त्याग करना चाहिये। तेल लगाना, परान्न भोजन करना, तेल खाना, जिस में बहुत से बीज हों ऐसे फलों का सेवन तथा चावल और दाल - ये सभी कार्तिक मास में त्याज्य हैं।*
*(३४) लौकी, गाजर, बैगन, वनभंटा (ऊंटकटारा), बासी अन्न, भैंसीड़, मसूर, दुबारा भोजन, मदिरा, पराया अन्न, काँसी के पात्र में भोजन, छत्राक, काँजी, दुर्गन्धित पदार्थ, समुदाय (संस्था आदि) का अन्न, वेश्या का अन्न, ग्रामपुरोहित और शूद्र का अन्न और सूतक का अन्न - ये सभी त्याग देने योग्य हैं।*
*(३५) श्राद्ध का अन्न, रजस्वला का दिया हुआ अन्न, जननाशौच का अन्न और लसोड़े का फल - इन्हें कार्तिक व्रत का पालन करने वाला पुरुष अवश्य त्याग दे।*
*(३६) निषिद्ध पत्तलों में भोजन न करे। महुआ, केला, जामुन और पकड़ी - इनके पत्तों में भोजन करना चाहिये। कमल के पत्ते पर कदापि भोजन न करे।*
*(३७) कार्तिक मास आने पर जो वनवासी मुनियों के अनुसार नियमित भोजन करता है, वह चक्रपाणि भगवान् विष्णु के परम धाम में जाता है। कार्तिक में प्रात:काल स्नान और भगवान् की पूजा करनी चाहिये। उस समय कथा श्रवण उत्तम माना गया है।*
*(३८) कार्तिक में केला और आँवले के फल का दान करे और शीत से कष्ट पाने वाले ब्राह्मण को कपड़ा दे।*
*(३९) जो कार्तिक में भक्ति पूर्वक भगवान् विष्णु को तुलसी दल समर्पित करता है, वह संसार से मुक्त हो भगवान् विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है।*
*(४०) श्रीहरि के परम प्रिय कार्तिकमास में जो नित्य गीता पाठ करता है, उसके पुण्यफल का वर्णन सैकड़ों वर्षों में भी नहीं किया जा सकता।*
*(४१) जो श्रीमद्भागवत का भी श्रवण करता है वह सब पापों से मुक्त हो परम शान्ति को प्राप्त होता है [*]।*
*[ ] गीतापाठं तु यः कुर्यात् कार्तिके विष्णुवल्लभे । तस्य पुण्यफलं वक्तुं नालं वर्षशतैरपि । श्रीमद्भागवतस्यापि श्रवणं य: समाचरेत् ।सर्वपापविनिर्मुक्तः परं निर्वाणमृच्छति ।।* (स्क० पु. वै० का० मा० ६६ १९-२०)
*(४२) जो कार्तिक की एकादशी को निराहार रहकर व्रत करता है, वह नि:सन्देह पूर्वजन्म के पापों से मुक्त हो जाता है।*
*(४३) जो कार्तिक में भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये दूसरे के अन्न का त्याग करता है, वह भगवान् विष्णु के प्रेम को भलीभाँति प्राप्त करता है।*
*(४४) जो राह चल कर थके-माँदै और भोजन के समय पर घर पर आये हुए अतिथि का भक्तिपूर्वक पूजन करता है वह सहस्रों जन्मों के पाप का नाश कर डालता है।*
*(४५) जो मूढ़ मानव वैष्णव महात्माओं की निन्दा करते हैं, वे अपने पितरों के साथ महारौरव नरक में गिरते हैं।*
*(४६) जो भगवान् की और भगवद्भक्तों की निन्दा सुनते हुए भी वहाँ से दूर नहीं हट जाता वह भगवान् का प्रिय भक्त नहीं है।*
*(४७) जो कार्तिकमास में भगवान् विष्णु की परिक्रमा करता है उसे पग-पग पर अश्वमेध-यज्ञ का फल प्राप्त होता है।*
*(४८) जो कार्तिकमास में परायी स्त्री के साथ सङ्गम करता है, उसके पाप की शान्ति कैसे होगी, यह बताना असम्भव है।*
*(४९) जिसके ललाट में तुलसी की मृत्तिका का तिलक दिखायी देता है, उसकी ओर देखने में यमराज भी समर्थ नहीं हैं; फिर उनके भयानक दूतों की तो बात ही क्या ?*
*(५०) कार्तिक में भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये धर्म का अनुष्ठान करना चाहिये। मासव्रत की समाप्ति होने पर उस व्रत की पूर्णता के लिये श्रेष्ठ ब्राह्मण को दान देना चाहिये।*
*(५१) जो कार्तिक में भगवान् विष्णु के मन्दिर में चूना आदि का लेप कराता है या तसवीर आदि लिखता है, वह भगवान् विष्णु के समीप आनन्द का अनुभव करता है।*
*(५२) जो ब्राह्मण कार्तिकमास में गभस्तीश्वर के समीप शतरुद्री का जप करता है, उसके मन्त्र को सिद्धि होती है।*
*(५३) जिन्होंने तीन (३) वर्षां तक काशी में रहकर भक्ति पूर्वक साङ्गोपाङ्ग कार्तिक वत का अनुष्ठान किया है, उन्हें सम्पत्ति, सन्तति, यश तथा धर्मबुद्धि को प्राप्ति के द्वारा इस लोक में ही उस व्रत का प्रत्यक्ष फल दिखायी देता है।*
*(५४) कार्तिक में प्याज, शृंग (सिंघाड़ा), सेज, बेर, राई, नशीली वस्तु, चिउड़ा - इन सबका उपयोग न करे।*
*(५५) कार्तिक का व्रत करने वाला मनुष्य देवता, वेद, ब्राह्मण, गुरु, गौ, व्रती, स्त्री, राजा और महात्माओं की निन्दा न करे।*
*(५६) कार्तिक में केवल नरकचतुर्दशी (दिवाली के एक रोज पहले) को शरीर में तेल लगाना चाहिये। उसके सिवा और किसी दिन व्रती मनुष्य तेल न लगावे।*
*(५७) नालिका, मूली, कुम्हड़ा, कैथ इनका भी त्याग करे।*
*(५८) रजस्वला, चाण्डाल, म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मणद्वेषी और वेद-बहिष्कृत लोगों से व्रती मनुष्य बातचीत न करे।*
*जय जय श्री सीताराम*
*जय जय श्री राधेश्याम*
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