मंगलवार, 19 जून 2018

विनोद खन्ना द्वारा लिखी गई आत्मकथा की खूबसूरत पंक्तियां



"जब मुझे पर्याप्त आत्मविश्वास मिला.... तो मंच खत्म हो चुका था.... जब मुझे हार का यकीन हो गया तब मैं जीता...... जब मुझे लोगों की जरूरत थी... उन्होंने मुझे छोड़ दिया.... जब रोते हुये मेरे आँसू सूख गए.... तो मुझे सहारे के लिए कंधा मिल गया.... जब मैंने नफरत की दुनिया में जीना सीख लिया... किसी ने मुझे दिल की गहराई से प्यार करना शुरु कर दिया.... जब सुबह का इंतजार करते करते मे सोने लगा... सूर्य निकल आया..... यही जिंदगी है... कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप क्या योजना बना रहे हैं आप कभी भी नहीं जान पाते हैं कि जीवन आपके लिए क्या योजना बना रहा है... सफलता आपका दुनिया से परिचय कराती है और असफलता आप को दुनिया का....! इसलिए हमेशा खुश रहो!!
अक्सर जब हम आशा खो देते हैं और लगता है कि यह अंत है भगवान ऊपर से मुस्कराते हैं और कहते हैं कि...शांत रहो वत्स...यह सिर्फ एक मोड़ है अंत नहीं...!!!

​श्री हरि के वाहन गरुड़जी की रोचक कथा!!!!!!

​श्री हरि के वाहन गरुड़जी की रोचक कथा!!!!!!

गरूड़ भगवान के बारे में सभी जानते होंगे। यह भगवान विष्णु का वाहन हैं। भगवान गरूड़ को विनायक, गरुत्मत्, तार्क्ष्य, वैनतेय, नागान्तक, विष्णुरथ, खगेश्वर, सुपर्ण और पन्नगाशन नाम से भी जाना जाता है। गरूड़ हिन्दू धर्म के साथ ही बौद्ध धर्म में भी महत्वपूर्ण पक्षी माना गया है। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार गरूड़ को सुपर्ण (अच्छे पंख वाला) कहा गया है। जातक कथाओं में भी गरूड़ के बारे में कई कहानियां हैं।

माना जाता है कि गरूड़ की एक ऐसी प्रजाति थी, जो बुद्धिमान मानी जाती थी और उसका काम संदेश और व्यक्तियों को इधर से उधर ले जाना होता था। कहते हैं कि यह इतना विशालकाय पक्षी होता था जो कि अपनी चोंच से हाथी को उठाकर उड़ जाता था।

गरूढ़ जैसे ही दो पक्षी रामायण काल में भी थे जिन्हें जटायु और सम्पाती कहा जाता था। ये दोनों भी दंडकारण्य क्षेत्र में रहते विचरण करते रहते थे। इनके लिए दूरियों का कोई महत्व नहीं था। स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे इसीलिए यहां एक मंदिर है।

पक्षियों में गरुड़ को सबसे श्रेष्ठ माना गया है। यह समझदार और बुद्धिमान होने के साथ-साथ तेज गति से उड़ने की क्षमता रखता है। गिद्ध और गरुड़ में फर्क होता है। संपूर्ण भारत में गरुड़ का ज्यादा प्रचार और प्रसार किसलिए है यह जानना जरूरी है। गरुड़ के बारे में पुराणों में अनेक कथाएं मिलती है। रामायण में तो गरुड़ का सबसे महत्वपूर्ण पात्र है।

आखिरकार भगवान विष्णु के वाहन गरूढ़ का क्या रहस्य है?

पक्षी तीर्थ :चेन्नई से 60 किलोमीटर दूर एक तीर्थस्थल है जिसे 'पक्षी तीर्थ' कहा जाता है। यह तीर्थस्थल वेदगिरि पर्वत के ऊपर है। कई सदियों से दोपहर के वक्त गरूड़ का जोड़ा सुदूर आकाश से उतर आता है और फिर मंदिर के पुजारी द्वारा दिए गए खाद्यान्न को ग्रहण करके आकाश में लौट जाता है।

सैकड़ों लोग उनका दर्शन करने के लिए वहां पहले से ही उपस्थित रहते हैं। वहां के पुजारी के मुताबिक सतयुग में ब्रह्मा के 8 मानसपुत्र शिव के शाप से गरूड़ बन गए थे। उनमें से 2 सतयुग के अंत में, 2 त्रेता के अंत में, 2 द्वापर के अंत में शाप से मुक्त हो चुके हैं। कहा जाता है कि अब जो 2 बचे हैं, वे कलयुग के अंत में मुक्त होंगे।

गरुड़ हैं देव पक्षी :गरूड़ का जन्म सतयुग में हुआ था, लेकिन वे त्रेता और द्वापर में भी देखे गए थे। दक्ष प्रजापति की विनिता या विनता नामक कन्या का विवाह कश्यप ऋषि के साथ हुआ। विनिता ने प्रसव के दौरान दो अंडे दिए। एक से अरुण का और दूसरे से गरुढ़ का जन्म हुआ। अरुण तो सूर्य के रथ के सारथी बन गए तो गरुड़ ने भगवान विष्णु का वाहन होना स्वीकार किया।

सम्पाती और जटायु इन्हीं अरुण के पुत्र थे। बचपन में सम्पाती और जटायु ने सूर्य-मंडल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लंबी उड़ान भरी। सूर्य के असह्य तेज से व्याकुल होकर जटायु तो बीच से लौट आए, किंतु सम्पाती उड़ते ही गए।

सूर्य के निकट पहुंचने पर सूर्य के ताप से सम्पाती के पंख जल गए और वे समुद्र तट पर गिरकर चेतनाशून्य हो गए। चन्द्रमा नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका उपचार किया और त्रेता में श्री सीताजी की खोज करने वाले वानरों के दर्शन से पुन: उनके पंख जमने का आशीर्वाद दिया।

सतयुग में देवताओं से युद्ध  :पुराणों में भगवान गरूड़ के पराक्रम के बारे में कई कथाओं का वर्णन मिलता है। कहते हैं कि उन्होंने देवताओं से युद्ध करके उनसे अमृत कलश छीन लिया था। दरअस्ल, ऋषि कश्यप की कई पत्नियां थीं जिनमें से दो वनिता और कद्रू थी।

ये दोनों ही बहने थी, जो एक दूसरे से ईर्ष्या रखती थी। दोनों के पुत्र नहीं थे तो पति कश्यप ने दोनों को पुत्र के लिए एक वरदान दे दिया। वनिता ने दो बलशाली पुत्र मांगे जबकि कद्रू ने हजार सर्प पुत्र रूप में मांगे जो कि अंडे के रूप में जन्म लेने वाले थे। सर्प होने के कारण कद्रू के हजार बेटे अंडे से उत्पन्न हुए और अपनी मां के कहे अनुसार काम करने लगे।

दोनों बहनों में शर्त लग गई थी कि जिसके पुत्र बलशाली होंगे हारने वाले को उसकी दासता स्वीकार करनी होगी। इधर सर्प ने जो जन्म ले लिया था लेकिन वनिता के अंडों से अभी कोई पुत्र नहीं निकला था। इसी जल्दबाजी में वनिता ने एक अंडे को पकने से पहले ही फोड़ दिया। अंडे से अर्धविकसित बच्चा निकला जिसका ऊपर का शरीर तो इंसानों जैसा था लेकिन नीचे का शरीर अर्धपक्व था। इसका नाम अरुण था।

अरुण ने अपनी मां से कहा कि 'पिता के कहने के बाद भी आपने धैर्य खो दिया और मेरे शरीर का विस्तार नहीं होने दिया। इसलिए मैं आपको श्राप देता हूं कि आपको अपना जीवन एक सेवक के तौर पर बिताना होगा। अगर दूसरे अंडे में से निकला उनका पुत्र उन्हें इस श्राप से मुक्त ना करवा सका तो वह आजीवन दासी बनकर रहेंगी।'

भय से विनता ने दूसरा अंडा नहीं फोड़ा और पुत्र के शाप देने के कारण शर्त हार गई और अपनी छोटी बहन की दासी बनकर रहने लगी।

बहुत लंबे काल के बाद दूसरा अंडा फूटा और उसमें से विशालकाय गरुड़ निकाला जिसका मुख पक्षी की तरह और बाकी शरीर इंसानों की तरह था। हालांकि उनकी पसलियों से जुड़े उनके विशालकाय पंक्ष भी थे। जब गरुड़ को यह पता चला कि उनकी माता तो उनकी ही बहन की दासी है और क्यों है यह भी पता चला, तो उन्होंने अपनी मौसी और सर्पों से इस दासत्व से मुक्ति के लिए उन्होंने शर्त पूछी।

सर्पो ने विनता की दासता की मुक्ति के लिए अमृत मंथन ने निकला अमृत मांग। अमृत लेने के लिए गरुड़ स्वर्ग लोक की तरफ तुरंत निकल पड़े। देवताओं ने अमृत की सुरक्षा के लिए तीन चरणों की सुरक्षा कर रखी थी, पहले चरण में आग की बड़े परदे बिछा ररखे थे। दूसरे में घातक हथियारों की आपस में घर्षण करती दीवार थी और अंत में दो विषैले सर्पो का पहरा।

वहां तक भी पहुंचाने से पहले देवताओं से मुकाबला करना था। गरुड़ सब से भीड़ गए और देवताओं को बिखेर दिया। तब गरुड़ ने कई नदियों का जल मुख में ले पहले चरण की आग को बुझा दिया, अगले पथ में गरुड़ ने अपना रूप इतना छोटा कर लिया के कोई भी हथियार उनका कुछ न बिगाड़ सका और सांपों को अपने दोनों पंजो में पकड़कर उन्होंने अपने मुंह से अमृत कलश उठा लिया और धरती की ओर चल पड़े।

लेकिन तभी रास्ते में भगवान विष्णु प्रकट हुए और गरुड़ के मुंह में अमृत कलश होने के बाद भी उसके प्रति मन में लालच न होने से खुश होकर गरुड़ को वरदान दिया की वो आजीवन अमर हो जाएंगे। तब गरुड़ ने भी भगवान को एक वरदान मांगने के लिए बोला तो भगवान ने उन्हें अपनी सवारी बनने का वरदान मांगा। इंद्र ने भी गरुड़ को वरदान दिया की वो सांपों को भोजन रूप में खा सकेगा इस पर गरुड़ ने भी अमृत सकुशल वापसी का वादा किया।

अंत में गरुड़ ने सर्पों को अमृत सौंप दिया और भूमि पर रख कर कहा कि यह रहा अमृत कलश। मैंने यहां इसे लाने का अपना वादा पूरी किया और अब यह आपके सुपूर्द हुआ, लेकिन इसे पीने के आप सभी स्नान करें तो अच्छा होगा।

जब वे सभी सर्प स्नान करने गए तभी वहां अचानक से भगवान इंद्र पहुंचे और अमृत कलश को वापस ले गए। लेकिन कुछ बूंदे भूमि पर गिर गई जो घांस पर ठहर गई थी। सर्प उन बूंदों पर झपट पड़े, लेकिन उनके हाथ कुछ न लगा। इस तरह गरुड़ की शर्त भी पूरी हो गई और सर्पों को अमृत भी नहीं मिला।

त्रेता युग में :जब रावण के पुत्र मेघनाथ ने श्रीराम से युद्ध करते हुए श्रीराम को नागपाश से बांध दिया था, तब देवर्षि नारद के कहने पर गरूड़ ने नागपाश के समस्त नागों को खाकर श्रीराम को नागपाश के बंधन से मुक्त कर दिया था। भगवान राम के इस तरह नागपाश में बंध जाने पर श्रीराम के भगवान होने पर गरूड़ को संदेह हो गया था।

गरूड़ का संदेह दूर करने के लिए देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्माजी के पास भेज देते हैं। ब्रह्माजी उनको शंकरजी के पास भेज देते हैं। भगवान शंकर ने भी गरूड़ को उनका संदेह मिटाने के लिए काकभुशुण्डिजी नाम के एक कौवे के पास भेज दिया। अंत में काकभुशुण्डिजी ने राम के चरित्र की पवित्र कथा सुनाकर गरूड़ के संदेह को दूर किया।

लोमश ऋषि के शाप के चलते काकभुशुण्डि कौवा बन गए थे। लोमश ऋषि ने शाप से मु‍क्त होने के लिए उन्हें राम मंत्र और इच्छामृत्यु का वरदान दिया। कौवे के रूप में ही उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत किया। वाल्मीकि से पहले ही काकभुशुण्डि ने रामायण गरूड़ को सुना दी थी। इससे पूर्व हनुमानजी ने संपूर्ण रामायण पाठ लिखकर समुद्र में फेंक दी थी। वाल्मीकि श्रीराम के समकालीन थे और उन्होंने रामायण तब लिखी, जब रावण-वध के बाद राम का राज्याभिषेक हो चुका था।

हनुमानजी ने तोड़ दिया था गरुड़ का अभिमान :

भगवान श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार माना जाता है। विष्णु ने ही राम के रूप में अवतार लिया और विष्णु ने ही श्रीकृष्ण के रूप में। श्रीकृष्ण की 8 पत्नियां थीं- रुक्मणि, जाम्बवंती, सत्यभामा, कालिंदी, मित्रबिंदा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा। इसमें से सत्यभामा को अपनी सुंदरता और महारानी होने का घमंड हो चला था तो दूसरी ओर सुदर्शन चक्र खुद को सबसे शक्तिशाली समझता था और विष्णु वाहन गरूड़ को भी अपने सबसे तेज उड़ान भरने का घमंड था।

एक दिन श्रीकृष्ण अपनी द्वारिका में रानी सत्यभामा के साथ सिंहासन पर विराजमान थे और उनके निकट ही गरूड़ और सुदर्शन चक्र भी उनकी सेवा में विराजमान थे। बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने व्यंग्यपूर्ण लहजे में पूछा- हे प्रभु, आपने त्रेतायुग में राम के रूप में अवतार लिया था, सीता आपकी पत्नी थीं। क्या वे मुझसे भी ज्यादा सुंदर थीं?

भगवान सत्यभामा की बातों का जवाब देते उससे पहले ही गरूड़ ने कहा- भगवान क्या दुनिया में मुझसे भी ज्यादा तेज गति से कोई उड़ सकता है। तभी सुदर्शन से भी रहा नहीं गया और वह भी बोल उठा कि भगवान, मैंने बड़े-बड़े युद्धों में आपको विजयश्री दिलवाई है। क्या संसार में मुझसे भी शक्तिशाली कोई है? द्वारकाधीश समझ गए कि तीनों में अभिमान आ गया है। भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे और सोचने लगे कि इनका अहंकार कैसे नष्ट किया जाए, तभी उनको एक युक्ति सूझी...

भगवान मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। वे जान रहे थे कि उनके इन तीनों भक्तों को अहंकार हो गया है और इनका अहंकार नष्ट होने का समय आ गया है। ऐसा सोचकर उन्होंने गरूड़ से कहा कि हे गरूड़! तुम हनुमान के पास जाओ और कहना कि भगवान राम, माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। गरूड़ भगवान की आज्ञा लेकर हनुमान को लाने चले गए।

इधर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि देवी, आप सीता के रूप में तैयार हो जाएं और स्वयं द्वारकाधीश ने राम का रूप धारण कर लिया।

तब श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र को आज्ञा देते हुए कहा कि तुम महल के प्रवेश द्वार पर पहरा दो और ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई भी प्रवेश न करने पाए। सुदर्शन चक्र ने कहा, जो आज्ञा भगवान और भगवान की आज्ञा पाकर चक्र महल के प्रवेश द्वार पर तैनात हो गया।

गरूड़ ने हनुमान के पास पहुंचकर कहा कि हे वानरश्रेष्ठ! भगवान राम, माता सीता के साथ द्वारका में आपसे मिलने के लिए पधारे हैं। आपको बुला लाने की आज्ञा है। आप मेरे साथ चलिए। मैं आपको अपनी पीठ पर बैठाकर शीघ्र ही वहां ले जाऊंगा।

हनुमान ने विनयपूर्वक गरूड़ से कहा, आप चलिए बंधु, मैं आता हूं। गरूड़ ने सोचा, पता नहीं यह बूढ़ा वानर कब पहुंचेगा। खैर मुझे क्या कभी भी पहुंचे, मेरा कार्य तो पूरा हो गया। मैं भगवान के पास चलता हूं। यह सोचकर गरूड़ शीघ्रता से द्वारका की ओर उड़ चले।

लेकिन यह क्या? महल में पहुंचकर गरूड़ देखते हैं कि हनुमान तो उनसे पहले ही महल में प्रभु के सामने बैठे हैं। गरूड़ का सिर लज्जा से झुक गया। तभी श्रीराम के रूप में श्रीकृष्ण ने हनुमान से कहा कि पवनपुत्र तुम बिना आज्ञा के महल में कैसे प्रवेश कर गए? क्या तुम्हें किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं?

हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए सिर झुकाकर अपने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकालकर प्रभु के सामने रख दिया। हनुमान ने कहा कि प्रभु आपसे मिलने से मुझे क्या कोई रोक सकता है? इस चक्र ने रोकने का तनिक प्रयास किया था इसलिए इसे मुंह में रख मैं आपसे मिलने आ गया। मुझे क्षमा करें। भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे।

अंत में हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए श्रीराम से प्रश्न किया, हे प्रभु! मैं आपको तो पहचानता हूं आप ही श्रीकृष्ण के रूप में मेरे राम हैं, लेकिन आज आपने माता सीता के स्थान पर किस दासी को इतना सम्मान दे दिया कि वह आपके साथ सिंहासन पर विराजमान है।

अब रानी सत्यभामा का अहंकार भंग होने की बारी थी। उन्हें सुंदरता का अहंकार था, जो पलभर में चूर हो गया था। रानी सत्यभामा, सुदर्शन चक्र व गरूड़ तीनों का गर्व चूर-चूर हो गया था। वे भगवान की लीला समझ रहे थे। तीनों की आंखों से आंसू बहने लगे और वे भगवान के चरणों में झुक गए। भगवान ने अपने भक्तों के अंहकार को अपने भक्त हनुमान द्वारा ही दूर किया। अद्भुत लीला है प्रभु की।

गरूड़ घंटी का महत्व है :मंदिर के द्वार पर और विशेष स्थानों पर घंटी या घंटे लगाने का प्रचलन प्राचीन काल से ही रहा है। यह घंटे या घंटियां 4 प्रकार की होती हैं:- 1.गरूड़ घंटी, 2.द्वार घंटी, 3.हाथ घंटी और 4.घंटा।

1. गरूड़ घंटी :गरूड़ घंटी छोटी-सी होती है जिसे एक हाथ से बजाया जा सकता है।

2. द्वार घंटी :यह द्वार पर लटकी होती है। यह बड़ी और छोटी दोनों ही आकार की होती है।

3. हाथ घंटी: पीतल की ठोस एक गोल प्लेट की तरह होती है जिसको लकड़ी के एक गद्दे से ठोककर बजाते हैं।

4. घंटा :यह बहुत बड़ा होता है। कम से कम 5 फुट लंबा और चौड़ा। इसको बजाने के बाद आवाज कई किलोमीटर तक चली जाती है।

हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख घरों में आपको गरूढ़ घंटी मिल जाएगी। हिन्दू और जैन घरों में तो यह विशेष तौर पर गरूड़ के आकार की ही होती है। छोटी और बड़ी सभी आकार की यह घंटी मिल जाएगी।

गरूड़ ध्वज :महाभारत में गरूड़ ध्वज था। प्राचीन मंदिरों के द्वार पर एक ओर गरूड़, तो दूसरी ओर हनुमानजी की मूर्ति आवेष्‍ठित की जाती रही है। घर में रखे मंदिर में गरूड़ घंटी और मंदिर के शिखर पर गरूड़ ध्वज होता है।
गरुड़ भारत का धार्मिक और अमेरिका का राष्ट्रीय पक्षी है। भारत के इतिहास में स्वर्ण युग के रूप में जाना जाने वाले गुप्त शासकों का प्रतीक चिन्ह गरुड़ ही था। कर्नाटक के होयसल शासकों का भी प्रतीक गरुड़ था। गरुड़ इंडोनेशिया, थाईलैंड और मंगोलिया आदि में भी सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में लोकप्रिय है।

इंडोनेसिया का राष्ट्रिय प्रतीक गरुड़ है। वहां की राष्ट्रिय एयरलाइन्स का नाम भी गरुड़ है। इंडोनेशिया की सेनाएं संयुक्त राष्ट्र मिशन पर गरुड़ नाम से जाती है। इंडोनेशिया पहले एक हिन्दू राष्ट्र ही था। थाईलैंड का शाही परिवार भी प्रतीक के रूप में गरुड़ का प्रयोग करता है। थाईलैंड के कई बौद्ध मंदिर में गरुड़ की मूर्तियाँ और चित्र बने हैं। मंगोलिया की राजधानी उलनबटोर का प्रतीक गरुड़ है।

गरूड़ पुराण :गरूड़ नाम से एक व्रत भी है। गरूड़ नाम से एक पुराण भी है। गरुण पुराण में, मृत्यु के पहले और बाद की स्थिति के बारे में बताया गया है। हिन्दू धर्मानुसार जब किसी के घर में किसी की मौत हो जाती है तो गरूड़ पुराण का पाठ रखा जाता है। गरूड़ पुराण में उन्नीस हजार श्लोक कहे जाते हैं, किन्तु वर्तमान समय में कुल सात हजार श्लोक ही उपलब्ध हैं।

गरूड़ पुराण में ज्ञान, धर्म, नीति, रहस्य, व्यावहारिक जीवन, आत्म, स्वर्ग, नर्क और अन्य लोकों का वर्णन मिलता है। इसमें भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार, निष्काम कर्म की महिमा के साथ यज्ञ, दान, तप तीर्थ आदि शुभ कर्मों में सर्व साधारणको प्रवृत्त करने के लिए अनेक लौकिक और पारलौकिक फलों का वर्णन किया गया है।

 इसके अतिरिक्त इसमें आयुर्वेद, नीतिसार आदि विषयों के वर्णनके साथ मृत जीव के अन्तिम समय में किए जाने वाले कृत्यों का विस्तार से निरूपण किया गया है।

बुधवार, 13 जून 2018

जानिए पौराणिक काल के 24 चर्चित श्राप और उनके पीछे की कहानी

जानिए पौराणिक काल के 24 चर्चित श्राप और उनके पीछे की कहानी
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हिन्दू पौराणिक ग्रंथो में अनेको अनेक श्रापों का वर्णन मिलता है। हर श्राप के पीछे कोई न कोई कहानी जरूर मिलती है। आज हम आपको हिन्दू धर्म ग्रंथो में उल्लेखित 24 ऐसे ही प्रसिद्ध श्राप और उनके पीछे की कहानी बताएँगे।

1. युधिष्ठिर का स्त्री जाति को श्राप👇
महाभारत के शांति पर्व के अनुसार युद्ध समाप्त होने के बाद जब कुंती ने युधिष्ठिर को बताया कि कर्ण तुम्हारा बड़ा भाई था तो पांडवों को बहुत दुख हुआ। तब युधिष्ठिर ने विधि-विधान पूर्वक कर्ण का भी अंतिम संस्कार किया। माता कुंती ने जब पांडवों को कर्ण के जन्म का रहस्य बताया तो शोक में आकर युधिष्ठिर ने संपूर्ण स्त्री जाति को श्राप दिया कि - आज से कोई भी स्त्री गुप्त बात छिपा कर नहीं रख सकेगी।

2. ऋषि किंदम का राजा पांडु को श्राप👇
महाभारत के अनुसार एक बार राजा पांडु शिकार खेलने वन में गए। उन्होंने वहां हिरण के जोड़े को मैथुन करते देखा और उन पर बाण चला दिया। वास्तव में वो हिरण व हिरणी ऋषि किंदम व उनकी पत्नी थी। तब ऋषि किंदम ने राजा पांडु को श्राप दिया कि जब भी आप किसी स्त्री से मिलन करेंगे। उसी समय आपकी मृत्यु हो जाएगी। इसी श्राप के चलते जब राजा पांडु अपनी पत्नी माद्री के साथ मिलन कर रहे थे, उसी समय उनकी मृत्यु हो गई।

3. माण्डव्य ऋषि का यमराज को श्राप👇
महाभारत के अनुसार माण्डव्य नाम के एक ऋषि थे। राजा ने भूलवश उन्हें चोरी का दोषी मानकर सूली पर चढ़ाने की सजा दी। सूली पर कुछ दिनों तक चढ़े रहने के बाद भी जब उनके प्राण नहीं निकले, तो राजा को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने ऋषि माण्डव्य से क्षमा मांगकर उन्हें छोड़ दिया।
तब ऋषि यमराज के पास पहुंचे और उनसे पूछा कि मैंने अपने जीवन में ऐसा कौन सा अपराध किया था कि मुझे इस प्रकार झूठे आरोप की सजा मिली। तब यमराज ने बताया कि जब आप 12 वर्ष के थे, तब आपने एक फतींगे की पूंछ में सींक चुभाई थी, उसी के फलस्वरूप आपको यह कष्ट सहना पड़ा।
तब ऋषि माण्डव्य ने यमराज से कहा कि 12 वर्ष की उम्र में किसी को भी धर्म-अधर्म का ज्ञान नहीं होता। तुमने छोटे अपराध का बड़ा दण्ड दिया है। इसलिए मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि तुम्हें शुद्र योनि में एक दासी पुत्र के रूप में जन्म लेना पड़ेगा। ऋषि माण्डव्य के इसी श्राप के कारण यमराज ने महात्मा विदुर के रूप में जन्म लिया।

4. नंदी का रावण को श्राप👇
वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक बार रावण भगवान शंकर से मिलने कैलाश गया। वहां उसने नंदीजी को देखकर उनके स्वरूप की हंसी उड़ाई और उन्हें बंदर के समान मुख वाला कहा। तब नंदीजी ने रावण को श्राप दिया कि बंदरों के कारण ही तेरा सर्वनाश होगा।

5. कद्रू का अपने पुत्रों को श्राप👇
महाभारत के अनुसार ऋषि कश्यप की कद्रू व विनता नाम की दो पत्नियां थीं। कद्रू सर्पों की माता थी व विनता गरुड़ की। एक बार कद्रू व विनता ने एक सफेद रंग का घोड़ा देखा और शर्त लगाई। विनता ने कहा कि ये घोड़ा पूरी तरह सफेद है और कद्रू ने कहा कि घोड़ा तो सफेद हैं, लेकिन इसकी पूंछ काली है।
कद्रू ने अपनी बात को सही साबित करने के लिए अपने सर्प पुत्रों से कहा कि तुम सभी सूक्ष्म रूप में जाकर घोड़े की पूंछ से चिपक जाओ, जिससे उसकी पूंछ काली दिखाई दे और मैं शर्त जीत जाऊं। कुछ सर्पों ने कद्रू की बात नहीं मानी। तब कद्रू ने अपने उन पुत्रों को श्राप दिया कि तुम सभी जनमजेय के सर्प यज्ञ में भस्म हो जाओगे।

6. उर्वशी का अर्जुन को श्राप👇
महाभारत के युद्ध से पहले जब अर्जुन दिव्यास्त्र प्राप्त करने स्वर्ग गए, तो वहां उर्वशी नाम की अप्सरा उन पर मोहित हो गई। यह देख अर्जुन ने उन्हें अपनी माता के समान बताया। यह सुनकर क्रोधित उर्वशी ने अर्जुन को श्राप दिया कि तुम नपुंसक की भांति बात कर रहे हो। इसलिए तुम नपुंसक हो जाओगे, तुम्हें स्त्रियों में नर्तक बनकर रहना पड़ेगा। यह बात जब अर्जुन ने देवराज इंद्र को बताई तो उन्होंने कहा कि अज्ञातवास के दौरान यह श्राप तुम्हारी मदद करेगा और तुम्हें कोई पहचान नहीं पाएगा।

7. तुलसी का भगवान विष्णु को श्राप👇
शिवपुराण के अनुसार शंखचूड़ नाम का एक राक्षस था। उसकी पत्नी का नाम तुलसी था। तुलसी पतिव्रता थी, जिसके कारण देवता भी शंखचूड़ का वध करने में असमर्थ थे। देवताओं के उद्धार के लिए भगवान विष्णु ने शंखचूड़ का रूप लेकर तुलसी का शील भंग कर दिया। तब भगवान शंकर ने शंखचूड़ का वध कर दिया। यह बात जब तुलसी को पता चली तो उसने भगवान विष्णु को पत्थर हो जाने का श्राप दिया। इसी श्राप के कारण भगवान विष्णु की पूजा शालीग्राम शिला के रूप में की जाती है।

8. श्रृंगी ऋषि का परीक्षित को श्राप👇
पाण्डवों के स्वर्गारोहण के बाद अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित ने शासन किया। उसके राज्य में सभी सुखी और संपन्न थे। एक बार राजा परीक्षित शिकार खेलते-खेलते बहुत दूर निकल गए। तब उन्हें वहां शमीक नाम के ऋषि दिखाई दिए, जो मौन अवस्था में थे। राजा परीक्षित ने उनसे बात करनी चाहिए, लेकिन ध्यान में होने के कारण ऋषि ने कोई जबाव नहीं दिया।
ये देखकर परीक्षित बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने एक मरा हुआ सांप उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया। यह बात जब शमीक ऋषि के पुत्र श्रृंगी को पता चली तो उन्होंने श्राप दिया कि आज से सात दिन बात तक्षक नाग राजा परीक्षित को डंस लेगा, जिससे उनकी मृत्यु हो जाएगी।

9. राजा अनरण्य का रावण को श्राप👇
वाल्मीकि रामायण के अनुसार रघुवंश में एक परम प्रतापी राजा हुए थे, जिनका नाम अनरण्य था। जब रावण विश्वविजय करने निकला तो राजा अनरण्य से उसका भयंकर युद्ध हुई। उस युद्ध में राजा अनरण्य की मृत्यु हो गई। मरने से पहले उन्होंने रावण को श्राप दिया कि मेरे ही वंश में उत्पन्न एक युवक तेरी मृत्यु का कारण बनेगा। इन्हीं के वंश में आगे जाकर भगवान श्रीराम ने जन्म लिया और रावण का वध किया।

10. परशुराम का कर्ण को श्राप👇
महाभारत के अनुसार परशुराम भगवान विष्णु के ही अंशावतार थे। सूर्यपुत्र कर्ण उन्हीं का शिष्य था। कर्ण ने परशुराम को अपना परिचय एक सूतपुत्र के रूप में दिया था। एक बार जब परशुराम कर्ण की गोद में सिर रखकर सो रहे थे, उसी समय कर्ण को एक भयंकर कीड़े ने काट लिया। गुरु की नींद में विघ्न न आए, ये सोचकर कर्ण दर्द सहते रहे, लेकिन उन्होंने परशुराम को नींद से नहीं उठाया।
नींद से उठने पर जब परशुराम ने ये देखा तो वे समझ गए कि कर्ण सूतपुत्र नहीं बल्कि क्षत्रिय है। तब क्रोधित होकर परशुराम ने कर्ण को श्राप दिया कि मेरी सिखाई हुई शस्त्र विद्या की जब तुम्हें सबसे अधिक आवश्यकता होगी, उस समय तुम वह विद्या भूल जाओगे।

11. तपस्विनी का रावण को श्राप👇
वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक बार रावण अपने पुष्पक विमान से कहीं जा रहा था। तभी उसे एक सुंदर स्त्री दिखाई दी, जो भगवान विष्णु को पति रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही थी। रावण ने उसके बाल पकड़े और अपने साथ चलने को कहा। उस तपस्विनी ने उसी क्षण अपनी देह त्याग दी और रावण को श्राप दिया कि एक स्त्री के कारण ही तेरी मृत्यु होगी।

12. गांधारी का श्रीकृष्ण को श्राप👇
महाभारत के युद्ध के बाद जब भगवान श्रीकृष्ण गांधारी को सांत्वना देने पहुंचे तो अपने पुत्रों का विनाश देखकर गांधारी ने श्रीकृष्ण को श्राप दिया कि जिस प्रकार पांडव और कौरव आपसी फूट के कारण नष्ट हुए हैं, उसी प्रकार तुम भी अपने बंधु-बांधवों का वध करोगे। आज से छत्तीसवें वर्ष तुम अपने बंधु-बांधवों व पुत्रों का नाश हो जाने पर एक साधारण कारण से अनाथ की तरह मारे जाओगे। गांधारी के श्राप के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण के परिवार का अंत हुआ।

13. महर्षि वशिष्ठ का वसुओं को श्राप👇
महाभारत के अनुसार भीष्म पितामह पूर्व जन्म में अष्ट वसुओं में से एक थे। एक बार इन अष्ट वसुओं ने ऋषि वशिष्ठ की गाय का बलपूर्वक अपहरण कर लिया। जब ऋषि को इस बात का पता चला तो उन्होंने अष्ट वसुओं को श्राप दिया कि तुम आठों वसुओं को मृत्यु लोक में मानव रूप में जन्म लेना होगा और आठवें वसु को राज, स्त्री आदि सुखों की प्राप्ति नहीं होगी। यही आठवें वसु भीष्म पितामह थे।

14. शूर्पणखा का रावण को श्राप👇
वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण की बहन शूर्पणखा के पति का नाम विद्युतजिव्ह था। वो कालकेय नाम के राजा का सेनापति था। रावण जब विश्वयुद्ध पर निकला तो कालकेय से उसका युद्ध हुआ। उस युद्ध में रावण ने विद्युतजिव्ह का वध कर दिया। तब शूर्पणखा ने मन ही मन रावण को श्राप दिया कि मेरे ही कारण तेरा सर्वनाश होगा।

15. ऋषियों का साम्ब को श्राप👇
महाभारत के मौसल पर्व के अनुसार एक बार महर्षि विश्वामित्र, कण्व आदि ऋषि द्वारका गए। तब उन ऋषियों का परिहास करने के उद्देश्य से सारण आदि वीर कृष्ण पुत्र साम्ब को स्त्री वेष में उनके पास ले गए और पूछा कि इस स्त्री के गर्भ से क्या उत्पन्न होगा। क्रोधित होकर ऋषियों ने श्राप दिया कि श्रीकृष्ण का ये पुत्र वृष्णि और अंधकवंशी पुरुषों का नाश करने के लिए लोहे का एक भयंकर मूसल उत्पन्न करेगा, जिसके द्वारा समस्त यादव कुल का नाश हो जाएगा।

16. दक्ष का चंद्रमा को श्राप👇
शिवपुराण के अनुसार प्रजापति दक्ष ने अपनी 27 पुत्रियों का विवाह चंद्रमा से करवाया था। उन सभी पत्नियों में रोहिणी नाम की पत्नी चंद्रमा को सबसे अधिक प्रिय थी। यह बात अन्य पत्नियों को अच्छी नहीं लगती थी। ये बात उन्होंने अपने पिता दक्ष को बताई तो वे बहुत क्रोधित हुए और चंद्रमा को सभी के प्रति समान भाव रखने को कहा, लेकिन चंद्रमा नहीं माने। तब क्रोधित होकर दक्ष ने चंद्रमा को क्षय रोग होने का श्राप दिया।

17. माया का रावण को श्राप👇
रावण ने अपनी पत्नी की बड़ी बहन माया के साथ भी छल किया था। माया के पति वैजयंतपुर के शंभर राजा थे। एक दिन रावण शंभर के यहां गया। वहां रावण ने माया को अपनी बातों में फंसा लिया। इस बात का पता लगते ही शंभर ने रावण को बंदी बना लिया। उसी समय शंभर पर राजा दशरथ ने आक्रमण कर दिया।
इस युद्ध में शंभर की मृत्यु हो गई। जब माया सती होने लगी तो रावण ने उसे अपने साथ चलने को कहा। तब माया ने कहा कि तुमने वासना युक्त होकर मेरा सतित्व भंग करने का प्रयास किया। इसलिए मेरे पति की मृत्यु हो गई, अत: तुम्हारी मृत्यु भी इसी कारण होगी।

18. शुक्राचार्य का राजा ययाति को श्राप👇
महाभारत के एक प्रसंग के अनुसार राजा ययाति का विवाह शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के साथ हुआ था। देवयानी की शर्मिष्ठा नाम की एक दासी थी। एक बार जब ययाति और देवयानी बगीचे में घूम रहे थे, तब उसे पता चला कि शर्मिष्ठा के पुत्रों के पिता भी राजा ययाति ही हैं, तो वह क्रोधित होकर अपने पिता शुक्राचार्य के पास चली गई और उन्हें पूरी बात बता दी। तब दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने ययाति को बूढ़े होने का श्राप दे दिया था।

19. ब्राह्मण दंपत्ति का राजा दशरथ को श्राप👇
वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक बार जब राजा दशरथ शिकार करने वन में गए तो गलती से उन्होंने एक ब्राह्मण पुत्र का वध कर दिया। उस ब्राह्मण पुत्र के माता-पिता अंधे थे। जब उन्हें अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार मिला तो उन्होंने राजा दशरथ को श्राप दिया कि जिस प्रकार हम पुत्र वियोग में अपने प्राणों का त्याग कर रहे हैं, उसी प्रकार तुम्हारी मृत्यु भी पुत्र वियोग के कारण ही होगी।

20. नंदी का ब्राह्मण कुल को श्राप👇
शिवपुराण के अनुसार एक बार जब सभी ऋषिगण, देवता, प्रजापति, महात्मा आदि प्रयाग में एकत्रित हुए तब वहां दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर का तिरस्कार किया। यह देखकर बहुत से ऋषियों ने भी दक्ष का साथ दिया। तब नंदी ने श्राप दिया कि दुष्ट ब्राह्मण स्वर्ग को ही सबसे श्रेष्ठ मानेंगे तथा क्रोध, मोह, लोभ से युक्त हो निर्लज्ज ब्राह्मण बने रहेंगे। शूद्रों का यज्ञ करवाने वाले व दरिद्र होंगे।

21. नलकुबेर का रावण को श्राप👇
वाल्मीकि रामायण के अनुसार विश्व विजय करने के लिए जब रावण स्वर्ग लोक पहुंचा तो उसे वहां रंभा नाम की अप्सरा दिखाई दी। अपनी वासना पूरी करने के लिए रावण ने उसे पकड़ लिया। तब उस अप्सरा ने कहा कि आप मुझे इस तरह से स्पर्श न करें, मैं आपके बड़े भाई कुबेर के बेटे नलकुबेर के लिए आरक्षित हूं। इसलिए मैं आपकी पुत्रवधू के समान हूं।
लेकिन रावण ने उसकी बात नहीं मानी और रंभा से दुराचार किया। यह बात जब नलकुबेर को पता चली तो उसने रावण को श्राप दिया कि आज के बाद रावण बिना किसी स्त्री की इच्छा के उसको स्पर्श करेगा तो उसका मस्तक सौ टुकड़ों में बंट जाएगा।

22. श्रीकृष्ण का अश्वत्थामा को श्राप👇
महाभारत युद्ध के अंत समय में जब अश्वत्थामा ने धोखे से पाण्डव पुत्रों का वध कर दिया, तब पाण्डव भगवान श्रीकृष्ण के साथ अश्वत्थामा का पीछा करते हुए महर्षि वेदव्यास के आश्रम तक पहुंच गए। तब अश्वत्थामा ने पाण्डवों पर ब्रह्मास्त्र का वार किया। ये देख अर्जुन ने भी अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ा।
महर्षि व्यास ने दोनों अस्त्रों को टकराने से रोक लिया और अश्वत्थामा और अर्जुन से अपने-अपने ब्रह्मास्त्र वापस लेने को कहा। तब अर्जुन ने अपना ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया, लेकिन अश्वत्थामा ये विद्या नहीं जानता था। इसलिए उसने अपने अस्त्र की दिशा बदलकर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर कर दी।
यह देख भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप दिया कि तुम तीन हजार वर्ष तक इस पृथ्वी पर भटकते रहोगे और किसी भी जगह, किसी पुरुष के साथ तुम्हारी बातचीत नहीं हो सकेगी। तुम्हारे शरीर से पीब और लहू की गंध निकलेगी। इसलिए तुम मनुष्यों के बीच नहीं रह सकोगे। दुर्गम वन में ही पड़े रहोगे।

23. तुलसी का श्रीगणेश को श्राप👇
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार एक बार तुलसीदेवी गंगा तट से गुजर रही थीं, उस समय वहां श्रीगणेश तप कर रहे थे। श्रीगणेश को देखकर तुलसी का मन उनकी ओर आकर्षित हो गया। तब तुलसी ने श्रीगणेश से कहा कि आप मेरे स्वामी हो जाइए, लेकिन श्रीगणेश ने तुलसी से विवाह करने से इंकार कर दिया। क्रोधवश तुलसी ने श्रीगणेश को विवाह करने का श्राप दे दिया और श्रीगणेश ने तुलसी को वृक्ष बनने का।

24. नारद का भगवान विष्णु को श्राप👇
शिवपुराण के अनुसार एक बार देवऋषि नारद एक युवती पर मोहित हो गए। उस कन्या के स्वयंवर में वे भगवान विष्णु के रूप में पहुंचे, लेकिन भगवान की माया से उनका मुंह वानर के समान हो गया। भगवान विष्णु भी स्वयंवर में पहुंचे। उन्हें देखकर उस युवती ने भगवान का वरण कर लिया। यह देखकर नारद मुनि बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने भगवान विष्णु को श्राप दिया कि जिस प्रकार तुमने मुझे स्त्री के लिए व्याकुल किया है। उसी प्रकार तुम भी स्त्री विरह का दु:ख भोगोगे। भगवान विष्णु ने राम अवतार में नारद मुनि के इस श्राप को पूरा किया ।
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शुक्रवार, 8 जून 2018

खाटू श्याम बाबा की सम्पूर्ण एवम विस्तृत कथा

🌹🌹((खाटू श्याम बाबा की सम्पूर्ण एवम  विस्तृत कथा,,,,,)),🌹🌹

हिन्दू धर्म के अनुसार, खाटू श्याम जी कलियुग में कृष्ण के अवतार हैं, जिन्होंने श्री कृष्ण से वरदान प्राप्त किया था कि वे कलियुग में उनके नाम श्याम से पूजे जाएँगे। श्री कृष्ण बर्बरीक के महान बलिदान से काफ़ी प्रसन्न हुए और वरदान दिया कि जैसे-जैसे कलियुग का अवतरण होगा, तुम श्याम के नाम से पूजे जाओगे। तुम्हारे भक्तों का केवल तुम्हारे नाम का सच्चे दिल से उच्चारण मात्र से ही उद्धार होगा। यदि वे तुम्हारी सच्चे मन और प्रेम-भाव से पूजा करेंगे तो उनकी सभी मनोकामना पूर्ण होगी और सभी कार्य सफ़ल होंगे।

श्री श्याम बाबा की अपूर्व कहानी मध्यकालीन महाभारत से आरम्भ होती है। वे पहले बर्बरीक के नाम से जाने जाते थे। वे अति बलशाली गदाधारी भीम के पुत्र घटोत्कच और नाग कन्या मौरवी के पुत्र हैं। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान योद्धा थे। उन्होंने युद्ध कला अपनी माँ तथा श्री कृष्ण से सीखी। भगवान् शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और तीन अमोघ बाण प्राप्त किये; इस प्रकार तीन बाणधारी के नाम से प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। अग्निदेव प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो उन्हें तीनों लोकों में विजयी बनाने में समर्थ थे।

महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुए तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जागृत हुई। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुँचे तब माँ को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने नीले रंग के घोड़े पर सवार होकर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभूमि की ओर चल पड़े।

सर्वव्यापी श्री कृष्ण ने ब्राह्मण भेष धारण कर बर्बरीक के बारे में जानने के लिए उन्हें रोका और यह जानकर उनकी हँसी उड़ायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है; ऐसा सुनकर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को परास्त करने के लिए पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापस तूणीर में ही आएगा।

 यदि तीनों बाणों को प्रयोग में लिया गया तो पूरे ब्रह्माण्ड का विनाश हो जाएगा। यह जानकर भगवान् कृष्ण ने उन्हें चुनौती दी की इस वृक्ष के सभी पत्तों को वेधकर दिखलाओ। वे दोनों पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े थे।

 बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तूणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया। बाण ने क्षणभर में पेड़ के सभी पत्तों को वेध दिया और श्री कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपने पैर के नीचे छुपा लिया था; बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिए अन्यथा ये बाण आपके पैर को भी वेध देगा।

 तत्पश्चात, श्री कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस ओर से सम्मिलित होगा; बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन को दोहराया और कहा युद्ध में जो पक्ष निर्बल और हार रहा होगा उसी को अपना साथ देगा। श्री कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की निश्चित है और इस कारण अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम गलत पक्ष में चला जाएगा।

अत: ब्राह्मणरूपी श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक से दान की अभिलाषा व्यक्त की। बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया और दान माँगने को कहा। ब्राह्मण ने उनसे शीश का दान माँगा। वीर बर्बरीक क्षण भर के लिए अचम्भित हुए, परन्तु अपने वचन से अडिग नहीं हो सकते थे। वीर बर्बरीक बोले एक साधारण ब्राह्मण इस तरह का दान नहीं माँग सकता है, अत: ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की।

 ब्राह्मणरूपी श्री कृष्ण अपने वास्तविक रूप में आ गये। श्री कृष्ण ने बर्बरीक को शीश दान माँगने का कारण समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पूर्व युद्धभूमि पूजन के लिए तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय के शीश की आहुति देनी होती है; इसलिए ऐसा करने के लिए वे विवश थे। बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वे अन्त तक युद्ध देखना चाहते हैं।

 श्री कृष्ण ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। श्री कृष्ण इस बलिदान से प्रसन्न होकर बर्बरीक को युद्ध में सर्वश्रेष्ठ वीर की उपाधि से अलंकृत किया। उनके शीश को युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया; जहाँ से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया था इस प्रकार वे शीश के दानी कहलाये।

महाभारत युद्ध की समाप्ति पर पाण्डवों में ही आपसी विवाद होने लगा कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है? श्री कृष्ण ने उनसे कहा बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, अतएव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है? सभी इस बात से सहमत हो गये और पहाड़ी की ओर चल पड़े, वहाँ पहुँचकर बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि श्री कृष्ण ही युद्ध में विजय प्राप्त कराने में सबसे महान पात्र हैं, उनकी शिक्षा, उपस्थिति, युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभूमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो शत्रु सेना को काट रहा था। महाकाली, कृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।

श्री कृष्ण वीर बर्बरीक के महान बलिदान से काफी प्रसन्न हुए और वरदान दिया कि कलियुग में तुम श्याम नाम से जाने जाओगे, क्योंकि उस युग में हारे हुए का साथ देने वाला ही श्याम नाम धारण करने में समर्थ है।

उनका शीश खाटू नगर (वर्तमान राजस्थान राज्य के सीकर जिला) में दफ़नाया गया इसलिए उन्हें खाटू श्याम बाबा कहा जाता है। एक गाय उस स्थान पर आकर रोज अपने स्तनों से दुग्ध की धारा स्वतः ही बहा रही थी। बाद में खुदाई के बाद वह शीश प्रकट हुआ, जिसे कुछ दिनों के लिए एक ब्राह्मण को सूपुर्द कर दिया गया। एक बार खाटू नगर के राजा को स्वप्न में मन्दिर निर्माण के लिए और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने के लिए प्रेरित किया गया।

 तदन्तर उस स्थान पर मन्दिर का निर्माण किया गया और कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसे बाबा श्याम के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। मूल मंदिर 1027 ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कँवर द्वारा बनाया गया था।

 मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर १७२० ई. में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। मंदिर इस समय अपने वर्तमान आकार ले लिया और मूर्ति गर्भगृह में प्रतिस्थापित किया गया था। मूर्ति दुर्लभ पत्थर से बना है। खाटूश्याम परिवारों की एक बड़ी संख्या के परिवार देवता है।

श्री खाटू श्याम जी का बाल्यकाल में नाम बर्बरीक था। उनकी माता, गुरुजन एवं रिश्तेदार उन्हें इसी नाम से जानते थे। श्याम नाम उन्हें कृष्ण ने दिया था। इनका यह नाम इनके घुंघराले बाल होने के कारण पड़ा।

श्री मोरवीनंदन खाटूश्यामजी ,,,ऋषि वेदव्यास द्वारा रचित स्कन्द पुराण के अनुसार महाबली भीम एवं हिडिम्बा के पुत्र वीर घटोत्कच के शास्त्रार्थ की प्रतियोगिता जीतने पर इनका विवाह प्रागज्योतिषपुर (वर्तमान आसाम) के राजा दैत्यराज मूर की पुत्री कामकटंककटा से हुआ।

 कामकटंककटा को "मोरवी" नाम से भी जाना जाता है। घटोत्कच व माता मोरवी को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसके बाल बब्बर शेर की तरह होने के कारण इनका नाम बर्बरीक रखा गया। ये वही वीर बर्बरीक हैं जिन्हें आज लोग खाटू के श्री श्याम, कलयुग के अवतार, श्याम सरकार, तीन बाणधारी, शीश के दानी, खाटू नरेश व अन्य अनगिनत नामों से जाने जाते हैं।
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बर्बरीक के जन्म के पश्चात् महाबली घटोत्कच इन्हें भगवान् श्री कृष्ण के पास द्वारका ले गये और उन्हें देखते ही श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक से कहा— हे पुत्र मोर्वेय! जिस प्रकार मुझे घटोत्कच प्यारा है, उसी प्रकार तुम भी मुझे प्यारे हो। तत्पश्चात् वीर बर्बरीक ने श्री कृष्ण से पूछा— हे प्रभु! इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग क्या है?

 वीर बर्बरीक के इस निश्छ्ल प्रश्न को सुनते ही श्री कृष्ण ने कहा— हे पुत्र, इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग, परोपकार व निर्बल का साथी बनकर सदैव धर्म का साथ देने से है। जिसके लिए तुम्हें बल एवं शक्तियाँ अर्जित करनी पड़ेगी।

 अतएव तुम महीसागर क्षेत्र (गुप्त क्षेत्र) में नवदुर्गा की आराधना कर शक्तियाँ अर्जन करो। श्री कृष्ण के कहने पर बालक बर्बरीक ने भगवान् को प्रणाम किया। श्री कृष्ण ने उनके सरल हृदय को देखकर वीर बर्बरीक को "सुहृदय" नाम से अलंकृत किया।

तत्पश्चात् बर्बरीक ने समस्त अस्त्र-शस्त्र, विद्या हासिल कर, महीसागर क्षेत्र में ३ वर्ष तक नवदुर्गा की आराधना की, सच्ची निष्ठा एवं तप से प्रसन्न होकर भगवती जगदम्बा ने वीर बर्बरीक के सम्मुख प्रकट होकर तीन बाण एवं कई शक्तियाँ प्रदान कीं, जिससे तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की जा सकती थी। यहाँ उन्हें "चण्डील" नाम मिला। माँ जगदम्बा ने वीर बर्बरीक को उसी क्षेत्र में अपने परम भक्त विजय नामक एक ब्राह्मण की सिद्धि को सम्पूर्ण करवाने का निर्देश देकर अंतर्ध्यान हो गयीं।

जब विजय ब्राह्मण का आगमन हुआ तो वीर बर्बरीक ने पिंगल, रेपलेंद्र, दुहद्रुहा तथा नौ कोटि मांसभक्षी पलासी राक्षसों के जंगलरूपी समूह को अग्नि की भाँति भस्म करके उनका यज्ञ सम्पूर्ण कराया। उस ब्राह्मण का यज्ञ सम्पूर्ण करवाने पर देवी-देवता वीर बर्बरीक से अति प्रसन्न हुए और प्रकट होकर यज्ञ की भस्मरूपी शक्तियाँ प्रदान कीं।

एक बार की बात है बर्बरीक ने पृथ्वी और पाताल के बीच रास्ते में नाग कन्याओं का वरण प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया है।

महाभारत युद्ध प्रारम्भ होने पर वीर बर्बरीक ने अपनी माता मोरवी के सम्मुख युद्ध में भाग लेने की इच्छा प्रकट की। तब माता ने इन्हें युद्ध में भाग लेने की आज्ञा इस वचन के साथ दी की तुम युद्ध में हारने वाले पक्ष का साथ निभाओगे। जब वीर बर्बरीक युद्ध में भाग लेने चले तब भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत युद्ध के पहले ही इनको पूर्व जन्म (यक्षराज सूर्यवर्चा) के ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त अल्प श्राप के कारण एवं यह सोचकर कि यदि वीर बर्बरीक युद्ध में भाग लेंगे तो कौरवों की समाप्ति केवल १८ दिनों में महाभारत युद्ध में नहीं हो सकती और पाण्डवों की हार निश्चित हो जाएगी।

 ऐसा सोचकर श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक का शिरोच्छेदन कर महाभारत युद्ध से वंचित कर दिया। उनके ऐसा करते ही रणभूमि में शोक की लहर दौड़ गयी, तत्क्षण रणभूमि में १४ देवियाँ प्रकट हो गयीं। देवियों ने वीर बर्बरीक के पूर्व जन्म (यक्षराज सूर्यवर्चा) को ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त श्राप का रहस्योद्घाटन सभी उपस्थित योद्धाओं के समक्ष निम्न प्रकार किया—

देवियों ने कहा: "द्वापरयुग के आरम्भ होने से पूर्व मूर दैत्य के अत्याचारों से व्यथित होकर पृथ्वी अपने गौस्वरुप में देव सभा में उपस्थित होकर बोलीं— “हे देवगण! मैं सभी प्रकार का संताप सहन करने में सक्षम हूँ। पहाड़, नदी, नाले एवं समस्त मानव जाति का भार मैं सहर्ष सहन करती हुई अपनी दैनिक क्रियाओं का संचालन भली भाँति करती रहती हूँ, पर मूर दैत्य के अत्याचारों से अति दु:खी हूँ। आपलोग इस दुराचारी से मेरी रक्षा कीजिए, मैं आपके शरण में आयी हूँ।”

गौस्वरुपा धरा की करूण पुकार सुनकर सारी देवसभा में एकदम सन्नाटा-सा छा गया। थोड़ी देर के मौन के पश्चात् ब्रह्मा जी ने कहा— “अब तो इससे छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय यही है कि हम सभी को भगवान् विष्णु की शरण में चलना चाहिए और पृथ्वी के इस संकट निवारण हेतु उनसे प्रार्थना करनी चाहिए।”

तभी देवसभा में विराजमान यक्षराज सूर्यवर्चा ने अपनी ओजस्वी वाणी में कहा— "हे देवगण! मूर दैत्य इतना प्रतापी नहीं, जिसका संहार केवल विष्णु जी ही कर सकें। हर एक बात के लिए हमें उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए। आपलोग यदि मुझे आज्ञा दें तो मैं ही उसका वध कर सकता हूँ।”

इतना सुनते ही ब्रह्मा जी बोले— “नादान! मैं तेरा पराक्रम जानता हूँ, तुम्हारे अहंकार ने इस देवसभा को चुनौती दी है। इसका दण्ड तुम्हें अवश्य मिलेगा। अपने आप को विष्णु जी से श्रेष्ठ समझने वाले अज्ञानी! तुम इस देवसभा से अभी पृथ्वी पर जा गिरोगे। तुम्हारा जन्म राक्षस योनि में होगा और जब द्वापरयुग के अंतिम चरण में पृथ्वी पर एक भीषण धर्मयुद्ध होगा तभी तुम्हारा शिरोछेदन स्वयं भगवान विष्णु द्वारा होगा और तुम सदा के लिए राक्षस बने रहोगे।"

ब्रह्माजी के इस अभिशाप के साथ ही यक्षराज सूर्यवर्चा का मिथ्या गर्व भी चूर-चूर हो गया। वह तत्काल ब्रह्मा जी के चरणों में गिर पड़ा और विनम्र भाव से बोला— “भगवन! भूलवश निकले इन शब्दों के लिए मुझे क्षमा कर दीजिए मैं आपके शरणागत हूँ। त्राहिमाम! त्राहिमाम! रक्षा कीजिए प्रभु!”

यह सुनकर ब्रह्मा जी में करुण भाव उमड़ पड़े, वह बोले— “वत्स! तुने अभिमानवश देवसभा का अपमान किया है, इसलिए मैं इस अभिशाप को वापस नहीं ले सकता हूँ। हाँ, इसमें संसोधन अवश्य कर सकता हूँ कि स्वयं भगवान् श्री कृष्ण तुम्हारा शिरोच्छेदन अपने सुदर्शन चक्र से करेंगे, देवियों द्वारा तुम्हारे शीश का अभिसिंचन होगा। फलतः तुम्हें कलयुग में देवताओं के समान पूजनीय होने का वरदान स्वयं भगवान् श्री कृष्ण भगवान से प्राप्त होगा।”

तत्पश्चात् भगवान् श्री हरि ने भी इस प्रकार यक्षराज सूर्यवर्चा से कहा—

तत्सतथेती तं प्राह केशवो देवसंसदि !
शिरस्ते पूजयिषयन्ति देव्याः पूज्यो भविष्यसि !!
(स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.६५)

भावार्थ: "उस समय देवताओं की सभा में श्री हरि ने कहा— हे वीर! ठीक है, तुम्हारे शीश की पूजा होगी और तुम देवरूप में पूजित होकर प्रसिद्धि पाओगे।"

वहाँ उपस्थित सभी लोगों को इतना वृत्तान्त सुनाकर देवी चण्डिका ने पुनः कहा— "अपने अभिशाप को वरदान में परिणति देख यक्षराज सूर्यवर्चा उस देवसभा से अदृश्य हो गये और कालान्तर में इस पृथ्वी लोक में महाबली भीम के पुत्र घटोत्कच एवं मोरवी के संसर्ग से बर्बरीक के रूप में जन्म लिया। इसलिए आप सभी को इस बात पर कोई शोक नहीं करना चाहिए और इसमें श्री कृष्ण का कोई दोष नहीं है।"

इत्युक्ते चण्डिका देवी तदा भक्त शिरस्तिव्दम !
अभ्युक्ष्य सुधया शीघ्र मजरं चामरं व्याधात !!
यथा राहू शिरस्त्द्वत तच्छिरः प्रणामम तान !
उवाच च दिदृक्षामि तदनुमन्यताम !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७१,७२)

भावार्थ: "ऐसा कहने के बाद चण्डिका देवी ने उस भक्त (श्री वीर बर्बरीक) के शीश को जल्दी से अमृत से अभ्युक्ष्य (छिड़क) कर राहू के शीश की तरह अजर और अमर बना दिया और इस नविन जागृत शीश ने उन सबको प्रणाम किया और कहा— "मैं युद्ध देखना चाहता हूँ, आपलोग इसकी स्वीकृति दीजिए।"

ततः कृष्णो वच: प्राह मेघगम्भीरवाक् प्रभु: !
यावन्मही स नक्षत्र याव्च्चंद्रदिवाकरौ !
तावत्वं सर्वलोकानां वत्स! पूज्यो भविष्यसि !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७३,७४)

भावार्थ: तत्पश्चात् मेघ के समान गम्भीरभाषी प्रभु श्री कृष्ण ने कहा— " हे वत्स! जबतक यह पृथ्वी, नक्षत्र है और जबतक सूर्य, चन्द्रमा है, तबतक तुम सभी के लिए पूजनीय होओगे।

देवी लोकेषु सर्वेषु देवी वद विचरिष्यसि !
स्वभक्तानां च लोकेषु देवीनां दास्यसे स्थितिम !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७५,७६)

भावार्थ: "तुम सैदव देवियों के स्थानों में देवियों के समान विचरते रहोगे और अपने भक्तगणों के समुदाय में कुल देवियों की मर्यादा जैसी है वैसी ही बनाए रखोगे"

बालानां ये भविष्यन्ति वातपित्त क्फोद्बवा: !
पिटकास्ता: सूखेनैव शमयिष्यसि पूजनात !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७७)
भावार्थ: "तुम्हारे बालरुपी भक्तों के जो वात, पित्त, कफ से पीड़ित रोगी होंगे, उनका रोग बड़ी सरलता से मिटाओगे"

इदं च श्रृंग मारुह्य पश्य युद्धं यथा भवेत !
इत्युक्ते वासुदेवन देव्योथाम्बरमा विशन !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७८)

भावार्थ: "और इस पर्वत की चोटी पर चढ़कर जैसे युद्ध होता है, उसे देखो, इस भाँती वासुदेव श्री कृष्ण के कहने पर सब देवियाँ आकाश में अंतर्ध्यान कर गयीं।"

बर्बरीक शिरश्चैव गिरीश्रृंगमबाप तत् !
देहस्य भूमि संस्काराश्चाभवशिरसो नहि !
ततो युद्धं म्हाद्भुत कुरु पाण्डव सेनयो: !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७९,८०)

भावार्थ: "वीर बर्बरीक का शीश पर्वत की चोटी पर पहुँच गया एवं उनके धड़ को शास्त्रीय विधि से अंतिम संस्कार कर दिया गया पर शीश की नहीं किया गया (क्योंकि शीश देव रूप में परिणत हो गया था) उसके बाद कौरव और पाण्डव सेना में भयंकर युद्ध हुआ।"

योगेश्वर भगवान् श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को रणभूमि में प्रकट हुईं १४ देवियों (सिद्ध, अम्बिका, कपाली, तारा, भानेश्वरी, चर्ची, एकबीरा, भूताम्बिका, सिद्धि, त्रेपुरा, चण्डी, योगेश्वरी, त्रिलोकी, जेत्रा) के द्वारा अमृत से सिंचित करवाकर उस शीश को देवत्व प्रदान करके अजर-अमर कर दिया एवं भगवान् श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को कलियुग में देव रूप में पूजित होकर भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने का वरदान दिया।

 वीर बर्बरीक ने भगवान् श्री कृष्ण के समक्ष महाभारत के युद्ध देखने की अपनी प्रबल इच्छा को बताया, जिसे श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के देवत्व प्राप्त शीश को ऊँचे पर्वत पर रखकर पूर्ण की एवं उनके धड़ का अंतिम संस्कार शास्त्रोक्त विधि से सम्पूर्ण करवाया...

महाभारत युद्ध की समाप्ति पर पाण्डवों में ही आपसी बहस छिड़ गयी कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है। श्री कृष्ण ने कहा बर्बरीक के शीश से पूछा जाए कि उसने इस युद्ध में किसका पराक्रम देखा है। तब वीर बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि यह युद्ध केवल भगवान श्री कृष्ण की निति के कारण जीता गया है और इस युद्ध में केवल भगवान् श्री कृष्ण का सुदर्शन चक्र चल रहा था।

 वीर बर्बरीक के द्वारा ऐसा कहते ही समस्त नभमंडल उद्भाषित हो उठा एवं उस देव स्वरुप शीश पर पूष्प की वर्षा होने लगी और देवताओं ने शंखनाद किया। तत्पश्चात् भगवान् श्री कृष्ण ने पुनः वीर बर्बरीक के शीश को प्रणाम करते हुए कहा— "हे वीर बर्बरीक आप कलियुग में सर्वत्र पूजित होकर अपने सभी भक्तों के अभीष्ट कार्य को पूर्ण करोगे। अतएव, आपको इस क्षेत्र का त्याग नहीं करना चाहिए, हमलोगों से जो अपराध हो गये हैं, उन्हें कृपा कर क्षमा कीजिए।"

इतना सुनते ही पाण्डव सेना में हर्ष की लहर दौड़ गयी। सैनिकों ने पवित्र तीर्थों के जल से शीश को पुनः सिंचित किया और अपनी विजय ध्वजा शीश के समीप फहराये। इस दिन सभी ने महाभारत का विजय-पर्व धूमधाम से मनाया।

वीरवर मोरवीनंदन श्री बर्बरीक का चरित्र स्कन्द पुराण के "माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड 'कौमारिक खंड'" में सुविस्तारपूर्वक दिया हुआ है। ऋषि वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण में "माहेश्वर खंड के द्वितीय उपखंड कौमरिका खंड" के ६६ वें अध्याय के ११५वे एवं ११६वे श्लोक में इनकी स्तुति इस आलौकिक स्त्रोत्र से भी की है।

शीश के दानी ,,,,,जब श्री कृष्ण ने उनसे उनके शीश की मांग की तो उन्होंने अपना शीश बिना किसी झिझक के उनको अर्पित कर दिया और भक्त उन्हें शीश के दानी के नाम से पुकारने लगे। श्री कृष्ण पाण्डवों को युद्ध में विजयी बनाना चाहते थे। बर्बरीक पहले ही अपनी माँ को हारे हुए का साथ देने का वचन दे चुके थे और युद्ध के पहले एक वीर पुरुष के सिर की भेंट युद्धभूमिपूजन के लिए करनी थी इसलिए श्री कृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा।

लखदातार ,,,भक्तों की मान्यता रही है कि बाबा से अगर कोई वस्तु मांगी जाती है तो बाबा लाखों-बार  देते हैं इसीलिए उन्हें लखदातार के नाम से भी जाना जाता है।

हारे का सहारा ,,,जैसा कि इस आलेख मे बताया गया है बाबा ने हारने वाले पक्ष का साथ देने का प्रण लिया था, इसीलिए बाबा को हारे का सहारा भी कहा जाता है।

हारे हुए की तरफ से युद्ध करने की प्रतिज्ञा व् दादी माँ हिडिम्बा से मिले आदेश के कारण ही। भगवान श्री कृष्ण की मन में उठी समस्या के कारण ही बर्बरीक व बाबा के शीश को भगवान वासुदेव द्वारा माँगा गया। क्योंकि एक तो कुरु सेना अठारह दिनों से पहले खत्म नही हो सकती थी।

 तथा अन्य तथ्य यह था कि महाबली बर्बरीक हारे हुए कमजोर की तरफ से युद्ध करते इस लिए अंत में महाबली बर्बरीक के अलावा कोई नही बचता। क्योंकि जिस तरफ से वह युद्ध करते तो सामने वाला कमजोर हो जाता। फिर अपनी प्रतिज्ञा अनुसार उन्हें हारे हुए की तरफ से युद्ध करना होता। अतः अंत में केवल महाबली बर्बरीक ही जीवित रहते।

बाबा हमेशा मयूर के पंखों की बनी हुई छड़ी रखते हैं, इसलिए इन्हें मोरछड़ी वाला भी कहते हैं।

गुरुवार, 7 जून 2018

श्री चैतन्य महाप्रभु

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‘यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत’ का संदेश भगवान कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में अर्जुन को दिया था ।
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इसका तात्पर्य यह था कि जब-जब धर्म की अवनति होती है तब-तब ईश्वर किसी योगी महात्मा के रूप में अवतार लेते हैं और संदेश प्रचार आदि से धर्म की रक्षा करते हैं ।
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चौदहवीं विक्रमी संवत् के समय पश्चिम बगाल में अंधविश्वासों और रुढ़िवादियों का बोल बाला था ।
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नवद्वीप नाम के ग्राम में धारणा थी कि जब कोई नवजात शिशु जन्म लेता है तो शाकिनी डाकिनी नाम की चुड़ैल उस बालक का अनिष्ट करती हैं
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परंतु यदि बालक का नाम निमाई रख दिया जाए तो उसका कोई अनिष्ट नहीं होता ।
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संवत् 1407 में फास्तुन मास की शुक्ल पूर्णिमा को एक ब्राह्मण परिवार में एक बालक का जन्म हुआ ।
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पंडित जगन्नाथ मिश्र की पत्नी शुचि देवी ने इस बालक को जन्म दिया जिसका नाम लोकधारणा के अनुसार निमाई रखा गया ।
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बाल्यकाल में निमाई बड़े नटखट और क्रोधी थे । मनचाहा न होने पर ये रो-रोकर घर सिर पर उठा लेते थे । यद्यपि भगवद्भक्ति के संस्कार भी इनके अंदर थे ।
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इनका रोना सुन कर इनकी माताश्री मधुर स्वर में हरिगान गातीं और यह रोना छोड़कर बड़े ध्यान से उसे सुनते ।
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एक दिन एक अतिथि जगन्नाथ मिश्र के घर आए जो गोपाल मत्र से दीक्षित थे । जब उन्हें भोजन परोसा गया तो उन्होंने अपने इष्ट के सुमिरन में नेत्र बंद कर लिए ।
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तभी बालक निमाई ने उनके भोजन में से एक कौर खा लिया ।
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निमाई के माता-पिता ने निमाई को धमकाया और दोबारा भोजन परोसा परंतु निमाई ने फिर भोजन जूठा कर दिया । अतिथि भी बालक की धृष्टता पर रुष्ट हो उठे ।
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निमाई ने तीसरी बार भी यही क्रिया दोहराई और जब पिता इन्हें मारने के लिए दौड़े तो निमाई ने मुरलीमनोहर का सुंदर स्वरूप दिखाकर उन्हें दर्शन दिए ।
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विद्यार्थी काल में निमाई ने असाध्य परिश्रम से शिक्षा प्राप्त की । निमाई के बड़े भाई विश्वरूप उच्च शिक्षा प्राप्त कर संन्यासी हो गए थे ।
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इसी भय से जगन्नाथ मिश्र ने निमाई की शिक्षा रोक दी । निमाई ने विरोध किया तो विवश पिता ने इन्हें पढ़ने की आज्ञा दे दी ।
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कुछ समय बाद जगन्नाथ मिश्र का निधन हो गया । शुचि देवी को गहरा आघात तो लगा ही वे आर्थिक संकट में आ गईं ।
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निमाई को इन बातों से क्या लेना था । ये उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अपने ध्येय मार्ग पर बढ़ते जा रहे थे।
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न्यायशास्त्र इनका प्रिय विषय था । इसी विषय को पढ़ने हेतु यह वासुदेव सार्वभौम की चतुष्पाठी में पहुंचे ।
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वहीं उन दिनों प्रसिद्ध न्यायवेत्ता रघुनाथ शिरोमणि भी शिक्षा ले रहे थे । उस समय रघुनाथ जी, अपना शोधपत्र ‘दीधिति ‘ लिख रहे थे ।
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चैतन्य जो निमाई का ही नाम था भी न्यायिक विषय पर कोई ग्रंथ लिख रहे थे ।
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एक दिन दोनों विद्वान नदी में सैर कर रहे थे । चैतन्य ने अपने ग्रथ के बारे में बताना शुरू किया।
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रघुनाथ जी सुनते-सुनते चिंतातुर हो उठे । ”क्या हुआ मित्र ?” चैतन्य ने पूछा ।
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मित्र, नि:संदेह तुम्हारा लेखन मेरे लेखन से अधिक श्रेष्ठ है । जो तुम्हारा लिखा ग्रंथ पढ़ लेगा, वह मेरा ग्रंथ क्योंकर पढ़ेगा । रघुनाथ बोले ।
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यदि ऐसी बात है तो आज मैं संकल्प करता हूं कि सिर्फ तुम्हारा ग्रथ ही लोग पड़ेंगे । मैं अपना ग्रंथ नहीं लिखूंगा ।
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और चैतन्य ने अपना लिखा ग्रंथ नदी में प्रवाहित कर दिया और तभी से उनका न्यायशास्त्र पढ़ना भी बद हो गया ।
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फिर इन्होंने चंडीमंडप में स्वयॅ की चतुष्पाठी खोली । 16 वर्ष की अवस्था में ही इनका शास्त्र ज्ञान अपार था । अत: इनकी चतुष्पाठी में शिक्षा प्राप्त करने के लिए सैकड़ों छात्र आने लगे ।
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फिर पितृपक्ष में श्राद्ध हेतु चैतन्य पवित्र तीर्थ गया गए । इनके साथ इनके कुछ शिष्य भी थे और ईश्वरपुरी नाम के ब्राह्मण भी थे ।
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गया में चैतन्य विष्णु पदचिन्हों के दर्शन हेतु पहुंचे । जब वहां के पुजारी ने पदचिन्हों का आवरण हटाकर विष्णु की महिमा का गान किया तो चैतन्य अपनी सुध-बुध खो बैठे ।
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इनके शरीर से स्वेद बह उठा । इनके इस भाव को देखकर अन्य लोग अचम्भित रह गए ।
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ईश्वरपुरी ने इन्हें संभाला और जब इन्हें बास्प ज्ञान हुआ तो इन्होंने ईश्वरपुरी से ही दीक्षा मंत्र लिया और स्वयं को उनके प्रति ही समर्पित कर दिया । वे कृष्ण के प्रेम में डूब गए ।
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कुछ समय पश्चात ईश्वरपुरी अदृश्य हो गए । गुरु वियोग ने चैतन्य के हृदय को अधीर कर दिया । इनकी चंचलता कहीं विलीन हो गई और ये धीर-गम्भीर बन गए ।
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कुछ दिन बाद तो ये मौन ही हो गए । बहुत आवश्यक होने पर ही ये कुछ कहते-सुनते थे । जब भी बोलते अपने नटवरनागर का ही वर्णन करते ।
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कीर्तन करते । भजन गाते । कृष्ण प्रेम में मस्त हो जाते । चैतन्य ने अपनी एक कीर्तन मंडली बनाई और कृष्ण नाम की महिमा गाने लगे ।
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इनकी माता चिंतित थीं । एक पुत्र पूर्व में योगी हो गया था और दूसरा भी उसी मार्ग पर चल पड़ा था।
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माता ने पुत्र से बात की तो पुत्र ने भक्ति का ऐसा व्याख्यान दिया कि माता अपने पुत्र पर गर्व कर उठीं ।
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चैतन्य के एक निकट आत्मीय श्रीवास चैतन्य की आध्यात्मिक शक्तियों का तब आभास कर चुके थे जब चैतन्य ने एक आम की गुठली बोई जो देखते-ही-देखते वृक्ष बन गई और उस पर फल लगकर पकने लगे थे ।
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श्रीवास भी विद्वान थे । वह चैतन्य को कृष्ण की लीलाओं का वर्णन सुनाते। चैतन्य ने एक दिन कृष्ण लीला करने का विचार किया।
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वैष्णव मंडली के सहयोग से कृष्प लीला का मंचन हुआ जिसमें चैतन्य ने राधारानी की ऐसी सजीव जीवंत भूमिका, निभाई कि सब भावविभोर हो गए ।
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फिर एक दिन चैतन्य ने स्वप्न में एक दिव्य मूर्ति देखी । ”तुम ईश्वर के जिस कार्य से आए हो, उसे स्मरण करो और शीघ्र ही सन्यास की दीक्षा लेकर जनकल्याण करो ।” दिव्यमूर्ति ने कहा ।
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चैतन्य अपनी पत्नी और माता के कारण सन्यास नहीं चाहते थे परतु एक दिन इन्हें साक्षात उस महानमूर्ति के दर्शन हुए जिसने स्वप्न में इन्हें सन्यास लेने की राय दी थी ।
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यह महापुरुष कश्मीरी दिग्विजयी विद्वान केशव भारती थे । अत में उत्तरायण संक्रांति के दिन चैतन्य को केशव भारती ने दीक्षा देकर इनका नाम श्रीकृष्ण चैतन्य रखा ।
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दीक्षा के पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य अपने गुरु के दंड कमंडल लेकर अपने प्राण प्यारे मदनमोहन के धाम वृदावन चल पडे ।
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जाने से पूर्व इन्होंने अपने परिवारजन और शिष्यों को समझाया । मैं अपने प्राणवल्लभ के धाम जा रहा हूं ।
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मेरी माता को धैर्य बधाना और कहना कि निमाई संभवत: उन्हें कष्ट देने के लिए ही जन्मा था ।
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लोगों ने इन्हें रोकने का प्रयास किया । बल पूर्वक इन्हें रोका गया तो ये बंधन छुड़ाकर ‘हाय कृष्ण-हाय कृष्ण’ कहते दौड़ पड़े । लोग इनके पीछे दौड़े तो ये घने वन में प्रवेश कर गए ।
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चैतन्य की स्मृति तो कृष्ण में समा गई थी । किसी भी बात का इन्हें भान न रहा । रात्रि हो गई तो ये अश्वत्थ के वृक्ष के नीचे बैठकर कृष्प नाम जपने लगे । आखों से प्रेमाश्रु गिर रहे थे ।
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भक्तगण इन्हें खोजते वहा आ गए तो चैतन्य वहां से भी दौड़ पड़े । वहां से चैतन्य शांतिपुर पहुंचे और कुछ दिन आचार्य अद्वैताचार्य के सान्निध्य में रहे ।
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माता सहित इनके भक्तगण इन्हें लेने आए । मैं अब सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर केवल श्रीकृष्ण का होकर रह गया हूं । आप सब मेरे मार्ग को कठिनतम न करें । चैतन्य ने कहा ।
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अंतत: माता ने प्रारब्ध मानकर निमाई को नीलांचल में रहने की अनुमति दे दी । चैतन्य ने माता को धन्यवाद किया और कमलपुर में कपोतेश्वर के दर्शनों के पश्चात जगन्नाथ धाम चल दिए ।
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धाम की छटा और जगन्नाथजी का मंदिर देखकर ये विभोर हो गए और नृत्य करने लगे ।
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प्रात: होने पर इन्होंने जगन्नाथजी के दर्शन किए और प्रसाद लेकर वेदांताचार्य पंडित सार्वभौम भट्टाचार्य के घर आए जो चिर भक्ति के विरोधी थे परंतु चैतन्य की भक्ति और प्रेम के समक्ष सार्वभौम भी उन्हीं के रंग में रंग गए ।
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सार्वभौम जी ने ताड़पत्र पर चैतन्य की प्रशसा में दो श्लोक लिखे तो चैतन्य ने उसे अस्वीकार कर दिया ।
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चैतन्य के शिष्यों ने उन दोनों श्लोकों को कंठस्थ कर लिया और यही श्लोक वैष्णवों में ‘भक्तकंठ मणिहार’ कहे जाने लगे ।
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फिर चैतन्य दक्षिण यात्रा को चल पड़े । ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे’ का महामंत्र जपते हुए चैतन्य और इनके परम शिष्य कृष्णदास ने गौतमी गंगा में स्नान करके मल्लिकार्जुन देव के दर्शन किए ।
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चैतन्य की ख्याति दूर-दूर तक पहुंच रही थी । तत्कालीन भक्त समाज इनके दर्शनों को आकुल रहता था और स्वयं चैतन्य अपने गिरधर गोपाल के लिए आकुल रहते ।
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जिस प्रकार गोपियां अपने वृजलाल के दर्शनों को व्याकुल होती थीं और विरह गीत गाया करती थीं उसी प्रकार चैतन्य की दशा थी । ये ‘कृष्प कृष्ण’ करते गाते-नाचते और रोने लगते ।
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यह प्रेम की वेदना थी जो ये रात्रि में भी अपने कन्हैया को पुकारते रहते । इनका कृष्ण प्रेम अंतिम सोपान पर आ गया था तभी तो इनके नेत्रों से हर समय प्रेममयी अश्रु बरसते थे ।
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इनके शिष्यगण इनकी सेवा करते और हर क्षण इनके पास ही रहते । क्या पता प्रेम में चैतन्य के पग किधर चल पड़े ।
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अचानक एक दिन चैतन्य अर्धरात्रि को पागलों की तरह रोने लगे । भक्तगण घबरा गए । भक्तगणों ने कारण जानना चाहा । मेरे कृष्ण मुझे दर्शन देकर लुप्त हो गए हैं ।
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भक्त इन्हें बलपूर्वक ले जाने लगे । मुझे जाने दो । मुझे मत रोको । कन्हैया गोवर्धन पर्वत पर बांसुरी बजा रहे हैं।
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एक दिन शारदीय रात्रि में अपने भक्तगणों को लेकर चैतन्य भ्रमण करते हुए आईटोटा पहुंच गए। वहां समुद्र की अनत जलराशि देखकर इन्हें यमुना का भास हुआ और ये उसमें कूद पड़े ।
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जब भक्तों ने इन्हें अपने बीच से गायब पाया तो विचलित होकर खोजने लगे । जाते-जाते इन्हें समुद्र के किनारे मछेरा जाति का व्यक्ति नाचते-गाते हुए मिला ।
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भाई, प्रसन्नता का क्या कारण है ? भक्तों ने पूछा । आज मैंने मछली पकड़ने के लिए समुद्र में जाल लगाया । जब मैंने जाल खींचा तो उसमें मछली के स्थान पर एक शव को फंसे पाया ।
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मैं आश्चर्यचकित था । मैंने उस शव को जाल से बाहर निकाला । जैसे ही मैंने शव को स्पर्श किया मेरी यह दशा हो गई ।
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लोकमत है कि चैतन्य ही समुद्र में कूदकर कृष्ण के प्रेम में प्राण दे बैठे । जबकि कुछ धारणाएं ऐसी भी हैं कि धीवर के जाल में यह अचेत थे । इसके पश्चात भी यह कई मास जीवित रहे ।
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तत्पश्चात कुछ दिन बाद फिर इन्हें समुद्र की जलराशि में यमुना का भास हुआ । यह उसमें कूद गए और कभी न लौटे ।
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श्रीकृष्ण चैतन्य ने ‘चैतन्य सम्प्रदाय’ का प्रवर्तन किया । इन्होंने नित्यानंद और अद्वैताचार्य को अपना प्रमुख शिष्य बनाया जिन्होंने धर्म प्रचार के लिए भ्रमण किया । नाम संकीर्तन ही इस सम्प्रदाय का प्रधान साध्य साधन है ।
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यद्यपि यह लोक नश्वर है और आत्माए इस लोक में कुछ समय के लिए ही आती हैं परंतु कुछ महान आत्माएं अपने कार्यों से सदैव और सनातन काल तक लोगों की स्मृति में जीवित रहती हैं ।
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इसी प्रकार चैतन्य महाप्रभु भी अपनी प्रबल भक्ति भावना और अद्वितीय कृष्ण प्रेम के कारण युगों-युगों तक जनमानस की स्मृतियों में जीवित रहेंगे l
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 ((((((( जय जय श्री राधे )))))))
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मंगलवार, 5 जून 2018

भगवान भोलेनाथ के रहस्य

भगवान शिव अर्थात पार्वती के पति शंकर जिन्हें महादेव, भोलेनाथ, आदिनाथ आदि कहा जाता है, उनके बारे में यहां प्रस्तुत हैं 35 रहस्य।
1. आदिनाथ शिव….
सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें ‘आदिदेव’ भी कहा जाता है। ‘आदि’ का अर्थ प्रारंभ। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम ‘आदिश’ भी है।
2. शिव के अस्त्र-शस्त्र….
शिव का धनुष पिनाक, चक्र भवरेंदु और सुदर्शन, अस्त्र पाशुपतास्त्र और शस्त्र त्रिशूल है। उक्त सभी का उन्होंने ही निर्माण किया था।
3. शिव का नाग….
शिव के गले में जो नाग लिपटा रहता है उसका नाम वासुकि है। वासुकि के बड़े भाई का नाम शेषनाग है।
4. शिव की अर्द्धांगिनी…..
शिव की पहली पत्नी सती ने ही अगले जन्म में पार्वती के रूप में जन्म लिया और वही उमा, उर्मि, काली कही गई हैं।
5. शिव के पुत्र

शिव के प्रमुख 6 पुत्र हैं- गणेश, कार्तिकेय, सुकेश, जलंधर, अयप्पा और भूमा। सभी के जन्म की कथा रोचक है।
6. शिव के शिष्य…..
शिव के 7 शिष्य हैं जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है। इन ऋषियों ने ही शिव के ज्ञान को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया जिसके चलते भिन्न-भिन्न धर्म और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी। शिव के शिष्य हैं- बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे।

7. शिव के गण….
शिव के गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय प्रमुख हैं। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। शिवगण नंदी ने ही ‘कामशास्त्र’ की रचना की थी। ‘कामशास्त्र’ के आधार पर ही ‘कामसूत्र’ लिखा गया।
8. शिव पंचायत…..
भगवान सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।
9. शिव के द्वारपाल….
नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल।
10. शिव पार्षद….
जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं।
11. सभी धर्मों का केंद्र शिव….
शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक ढूंढ सकते हैं। मुशरिक, यजीदी, साबिईन, सुबी, इब्राहीमी धर्मों में शिव के होने की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। शिव के शिष्यों से एक ऐसी परंपरा की शुरुआत हुई, जो आगे चलकर शैव, सिद्ध, नाथ, दिगंबर और सूफी संप्रदाय में विभक्त हो गई।
12. बौद्ध साहित्य के मर्मज्ञ अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान प्रोफेसर उपासक का मानना है कि शंकर ने ही बुद्ध के रूप में जन्म लिया था। उन्होंने पालि ग्रंथों में वर्णित 27 बुद्धों का उल्लेख करते हुए बताया कि इनमें बुद्ध के 3 नाम अतिप्राचीन हैं- तणंकर, शणंकर और मेघंकर।
13. देवता और असुर दोनों के प्रिय शिव…..
भगवान शिव को देवों के साथ असुर, दानव, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, यक्ष आदि सभी पूजते हैं। वे रावण को भी वरदान देते हैं और राम को भी। उन्होंने भस्मासुर, शुक्राचार्य आदि कई असुरों को वरदान दिया था। शिव, सभी आदिवासी, वनवासी जाति, वर्ण, धर्म और समाज के सर्वोच्च देवता हैं।
14. शिव चिह्न…..
वनवासी से लेकर सभी साधारण व्यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्द्ध चन्द्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं, हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं।
15. शिव की गुफा….
शिव ने भस्मासुर से बचने के लिए एक पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। दूसरी ओर भगवान शिव ने जहां पार्वती को अमृत ज्ञान दिया था वह गुफा ‘अमरनाथ गुफा’ के नाम से प्रसिद्ध है।
16. शिव के पैरों के निशान….
श्रीपद- श्रीलंका में रतन द्वीप पहाड़ की चोटी पर स्थित श्रीपद नामक मंदिर में शिव के पैरों के निशान हैं। ये पदचिह्न 5 फुट 7 इंच लंबे और 2 फुट 6 इंच चौड़े हैं। इस स्थान को सिवानोलीपदम कहते हैं। कुछ लोग इसे आदम पीक कहते हैं।
रुद्र पद- तमिलनाडु के नागपट्टीनम जिले के थिरुवेंगडू क्षेत्र में श्रीस्वेदारण्येश्वर का मंदिर में शिव के पदचिह्न हैं जिसे ‘रुद्र पदम’ कहा जाता है। इसके अलावा थिरुवन्नामलाई में भी एक स्थान पर शिव के पदचिह्न हैं।
तेजपुर- असम के तेजपुर में ब्रह्मपुत्र नदी के पास स्थित रुद्रपद मंदिर में शिव के दाएं पैर का निशान है।
जागेश्वर- उत्तराखंड के अल्मोड़ा से 36 किलोमीटर दूर जागेश्वर मंदिर की पहाड़ी से लगभग साढ़े 4 किलोमीटर दूर जंगल में भीम के मंदिर के पास शिव के पदचिह्न हैं। पांडवों को दर्शन देने से बचने के लिए उन्होंने अपना एक पैर यहां और दूसरा कैलाश में रखा था।
रांची- झारखंड के रांची रेलवे स्टेशन से 7 किलोमीटर की दूरी पर ‘रांची हिल’ पर शिवजी के पैरों के निशान हैं। इस स्थान को ‘पहाड़ी बाबा मंदिर’ कहा जाता है।
17. शिव के अवतार…..
वीरभद्र, पिप्पलाद, नंदी, भैरव, महेश, अश्वत्थामा, शरभावतार, गृहपति, दुर्वासा, हनुमान, वृषभ, यतिनाथ, कृष्णदर्शन, अवधूत, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, किरात, सुनटनर्तक, ब्रह्मचारी, यक्ष, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, द्विज, नतेश्वर आदि हुए हैं। वेदों में रुद्रों का जिक्र है। रुद्र 11 बताए जाते हैं- कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शंभू, चण्ड तथा भव।
18. शिव का विरोधाभासिक परिवार
शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, जबकि शिव के गले में वासुकि नाग है। स्वभाव से मयूर और नाग आपस में दुश्मन हैं। इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि सांप मूषकभक्षी जीव है। पार्वती का वाहन शेर है, लेकिन शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। इस विरोधाभास या वैचारिक भिन्नता के बावजूद परिवार में एकता है।
19. तिब्बत स्थित कैलाश पर्वत पर उनका निवास है। जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है जो भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है।

20.शिव भक्त : ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवी-देवताओं सहित भगवान राम और कृष्ण भी शिव भक्त है। हरिवंश पुराण के अनुसार, कैलास पर्वत पर कृष्ण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। भगवान राम ने रामेश्वरम में शिवलिंग स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की थी।
21.शिव ध्यान : शिव की भक्ति हेतु शिव का ध्यान-पूजन किया जाता है। शिवलिंग को बिल्वपत्र चढ़ाकर शिवलिंग के समीप मंत्र जाप या ध्यान करने से मोक्ष का मार्ग पुष्ट होता है।
22.शिव मंत्र : दो ही शिव के मंत्र हैं पहला- ॐ नम: शिवाय। दूसरा महामृत्युंजय मंत्र- ॐ ह्रौं जू सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जू ह्रौं ॐ ॥ है।
23.शिव व्रत और त्योहार : सोमवार, प्रदोष और श्रावण मास में शिव व्रत रखे जाते हैं। शिवरात्रि और महाशिवरात्रि शिव का प्रमुख पर्व त्योहार है।
24.शिव प्रचारक : भगवान शंकर की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया। इसके अलावा वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, बाण, रावण, जय और विजय ने भी शैवपंथ का प्रचार किया। इस परंपरा में सबसे बड़ा नाम आदिगुरु भगवान दत्तात्रेय का आता है। दत्तात्रेय के बाद आदि शंकराचार्य, मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गुरुगोरखनाथ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
25.शिव महिमा : शिव ने कालकूट नामक विष पिया था जो अमृत मंथन के दौरान निकला था। शिव ने भस्मासुर जैसे कई असुरों को वरदान दिया था। शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। शिव ने गणेश और राजा दक्ष के सिर को जोड़ दिया था। ब्रह्मा द्वारा छल किए जाने पर शिव ने ब्रह्मा का पांचवां सिर काट दिया था।
26.शैव परम्परा : दसनामी, शाक्त, सिद्ध, दिगंबर, नाथ, लिंगायत, तमिल शैव, कालमुख शैव, कश्मीरी शैव, वीरशैव, नाग, लकुलीश, पाशुपत, कापालिक, कालदमन और महेश्वर सभी शैव परंपरा से हैं। चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी शिव की परंपरा से ही माने जाते हैं। भारत की असुर, रक्ष और आदिवासी जाति के आराध्य देव शिव ही हैं। शैव धर्म भारत के आदिवासियों का धर्म है।
27.शिव के प्रमुख नाम : शिव के वैसे तो अनेक नाम हैं जिनमें 108 नामों का उल्लेख पुराणों में मिलता है लेकिन यहां प्रचलित नाम जानें- महेश, नीलकंठ, महादेव, महाकाल, शंकर, पशुपतिनाथ, गंगाधर, नटराज, त्रिनेत्र, भोलेनाथ, आदिदेव, आदिनाथ, त्रियंबक, त्रिलोकेश, जटाशंकर, जगदीश, प्रलयंकर, विश्वनाथ, विश्वेश्वर, हर, शिवशंभु, भूतनाथ और रुद्र।
28.अमरनाथ के अमृत वचन : शिव ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।
29.शिव ग्रंथ : वेद और उपनिषद सहित विज्ञान भैरव तंत्र, शिव पुराण और शिव संहिता में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है।
30.शिवलिंग : वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है, उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि। यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना है।
31.बारह ज्योतिर्लिंग : सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ॐकारेश्वर, वैद्यनाथ, भीमशंकर, रामेश्वर, नागेश्वर, विश्वनाथजी, त्र्यम्बकेश्वर, केदारनाथ, घृष्णेश्वर। ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में अनेकों मान्यताएं प्रचलित है। ज्योतिर्लिंग यानी ‘व्यापक ब्रह्मात्मलिंग’ जिसका अर्थ है ‘व्यापक प्रकाश’। जो शिवलिंग के बारह खंड हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है। दूसरी मान्यता अनुसार शिव पुराण के अनुसार प्राचीनकाल में आकाश से ज्योति पिंड पृथ्वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेकों उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। भारत में गिरे अनेकों पिंडों में से प्रमुख बारह पिंड को ही ज्योतिर्लिंग में शामिल किया गया।
32.शिव का दर्शन : शिव के जीवन और दर्शन को जो लोग यथार्थ दृष्टि से देखते हैं वे सही बुद्धि वाले और यथार्थ को पकड़ने वाले शिवभक्त हैं, क्योंकि शिव का दर्शन कहता है कि यथार्थ में जियो, वर्तमान में जियो, अपनी चित्तवृत्तियों से लड़ो मत, उन्हें अजनबी बनकर देखो और कल्पना का भी यथार्थ के लिए उपयोग करो। आइंस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कि कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
33.शिव और शंकर : शिव का नाम शंकर के साथ जोड़ा जाता है। लोग कहते हैं– शिव, शंकर, भोलेनाथ। इस तरह अनजाने ही कई लोग शिव और शंकर को एक ही सत्ता के दो नाम बताते हैं। असल में, दोनों की प्रतिमाएं अलग-अलग आकृति की हैं। शंकर को हमेशा तपस्वी रूप में दिखाया जाता है। कई जगह तो शंकर को शिवलिंग का ध्यान करते हुए दिखाया गया है। अत: शिव और शंकर दो अलग अलग सत्ताएं है। हालांकि शंकर को भी शिवरूप माना गया है। माना जाता है कि महेष (नंदी) और महाकाल भगवान शंकर के द्वारपाल हैं। रुद्र देवता शंकर की पंचायत के सदस्य हैं।
34.देवों के देव महादेव : देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं। वे राम को भी वरदान देते हैं और रावण को भी।
35.शिव हर काल में : भगवान शिव ने हर काल में लोगों को दर्शन दिए हैं। राम के समय भी शिव थे। महाभारत काल में भी शिव थे और विक्रमादित्य के काल में भी शिव के दर्शन होने का उल्लेख मिलता है। भविष्य पुराण अनुसार राजा हर्षवर्धन को भी भगवान शिव ने दर्शन दिए थे।
जय श्री महाकाल

सोमवार, 4 जून 2018

महापंडित लंकाधीश रावण रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना के समय पुरोहित कैसे बने ????

बाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामायण में इस कथा का वर्णन नहीं है, पर तमिल भाषा में लिखी महर्षि कम्बन की 'इरामावतारम्' मे यह कथा है।

रावण केवल शिवभक्त, विद्वान एवं वीर ही नहीं, अति-मानववादी भी था..। उसे भविष्य का पता था..। वह जानता था कि श्रीराम से जीत पाना उसके लिए असंभव था..।
जामवंत जी को आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा गया..। जामवन्त जी दीर्घाकार थे, वे आकार में कुम्भकर्ण से तनिक ही छोटे थे। लंका में प्रहरी भी हाथ जोड़कर मार्ग दिखा रहे थे। इस प्रकार जामवन्त को किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ा। स्वयं रावण को उन्हें राजद्वार पर अभिवादन का उपक्रम करते देख जामवन्त ने मुस्कराते हुए कहा कि मैं अभिनंदन का पात्र नहीं हूँ। मैं वनवासी राम का दूत बनकर आया हूँ। उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है।
रावण ने सविनय कहा– आप हमारे पितामह के भाई हैं। इस नाते आप हमारे पूज्य हैं। आप कृपया आसन ग्रहण करें। यदि आप मेरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे, तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन सकूंगा।
जामवन्त ने कोई आपत्ति नहीं की। उन्होंने आसन ग्रहण किया। रावण ने भी अपना स्थान ग्रहण किया। तदुपरान्त जामवन्त ने पुनः सुनाया कि वनवासी राम ने सागर-सेतु निर्माण उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्व-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं। इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होंने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचर्य पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है। मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ।
प्रणाम प्रतिक्रिया, अभिव्यक्ति उपरान्त रावण ने मुस्कान भरे स्वर में पूछ ही लिया कि क्या राम द्वारा महेश्व-लिंग-विग्रह स्थापना लंका-विजय की कामना से किया जा रहा है ?
बिल्कुल ठीक। श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है.  जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना है और आचार्य बनने योग्य जाना है। क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद अस्वीकार कर दे?
लेकिन हाँ। यह जाँच तो नितांत आवश्यक है ही कि जब वनवासी राम ने इतना बड़े आचार्य पद पर पदस्थ होने हेतु आमंत्रित किया है तब वह भी यजमान पद हेतु उचित अधिकारी हैं भी अथवा नहीं।
जामवंत जी ! आप जानते ही हैं कि त्रिभुवन विजयी अपने इस शत्रु की लंकापुरी में आप पधारे हैं। यदि हम आपको यहाँ बंदी बना लें और आपको यहाँ से लौटने न दें तो आप क्या करेंगे ?
             जामवंत खुलकर हँसे...
मुझे निरुद्ध करने की शक्ति समस्त लंका के दानवों के संयुक्त प्रयास में नहीं है, किन्तु मुझे किसी भी प्रकार की कोई विद्वत्ता प्रकट करने की न तो अनुमति है और न ही आवश्यकता।
ध्यान रहे, मैं अभी एक ऐसे उपकरण के साथ यहां विद्यमान हूँ, जिसके माध्यम से धनुर्धारी लक्ष्मण यह दृश्यवार्ता स्पष्ट रूप से देख-सुन रहे हैं। जब मैं वहाँ से चलने लगा था तभी स धनुर्वीर लक्ष्मण वीरासन में बैठे हुए हैं। उन्होंने आचमन करके अपने त्रोण से पाशुपतास्त्र निकाल कर संधान कर लिया है और मुझसे कहा है कि जामवन्त! रावण से कह देना कि यदि आप में से किसी ने भी मेरा विरोध प्रकट करने की चेष्टा की तो यह पाशुपतास्त्र समस्त दानव कुल के संहार का संकल्प लेकर तुरन्त छूट जाएगा। इस कारण भलाई इसी में है कि आप मुझे अविलम्ब वांछित प्रत्युत्तर के साथ सकुशल और आदर सहित धनुर्धर लक्ष्मण के दृष्टिपथ तक वापस पहुँचने की व्यवस्था करें।

उपस्थित दानवगण भयभीत हो गए। लंकेश तक काँप उठे। पाशुपतास्त्र ! महेश्वर का यह अमोघ अस्त्र तो सृष्टि में एक साथ दो धनुर्धर प्रयोग ही नहीं कर सकते। अब भले ही वह रावण मेघनाथ के त्रोण में भी हो। जब लक्ष्मण ने उसे संधान स्थिति में ला ही दिया है, तब स्वयं भगवान शिव भी अब उसे उठा नहीं सकते। उसका तो कोई प्रतिकार है ही नहीं।

रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा – आप पधारें। यजमान उचित अधिकारी है। उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है। राम से कहिएगा कि मैंने उसका आचार्यत्व स्वीकार किया।

जामवन्त को विदा करने के तत्काल उपरान्त लंकेश ने सेवकों को आवश्यक सामग्री संग्रह करने हेतु आदेश दिया और स्वयं अशोक वाटिका पहुँचे, जो आवश्यक उपकरण यजमान उपलब्ध न कर सके जुटाना आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है। रावण जानता है कि वनवासी राम के पास क्या है और क्या होना चाहिए।

अशोक उद्यान पहुँचते ही रावण ने सीता से कहा कि राम लंका विजय की कामना से समुद्रतट पर महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने जा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है। यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व आचार्य का भी होता है। तुम्हें विदित है कि अर्द्धांगिनी के बिना गृहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं। विमान आ रहा है, उस पर बैठ जाना। ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के अधीन ही रहोगी। अनुष्ठान समापन उपरान्त यहाँ आने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना। स्वामी का आचार्य अर्थात स्वयं का आचार्य। यह जान जानकी जी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया। स्वस्थ कण्ठ से सौभाग्यवती भव कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया।
सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतरे । आदेश मिलने पर आना कहकर सीता को उन्होंने  विमान में ही छोड़ा और स्वयं राम के सम्मुख पहुँचे । जामवन्त से संदेश पाकर भाई, मित्र और सेना सहित श्रीराम स्वागत सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे। सम्मुख होते ही वनवासी राम आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया।
"दीर्घायु भव ! लंका विजयी भव !" दशग्रीव के आशीर्वचन के शब्द ने सबको चौंका दिया ।
 सुग्रीव ही नहीं विभीषण की भी उन्होंने उपेक्षा कर दी। जैसे वे वहाँ हों ही नहीं।
भूमि शोधन के उपरान्त रावणाचार्य ने कहा कि यजमान ! अर्द्धांगिनी कहाँ है ? उन्हें यथास्थान आसन दें।
श्रीराम ने मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र स्वर से प्रार्थना की कि यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्याचार्य सर्वोत्कृष्ट विकल्प के अभाव में अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान सम्पादन कर सकते हैं।
अवश्य-अवश्य, किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा संभव है, प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं। यदि तुम अविवाहित, विधुर अथवा परित्यक्त होते तो संभव था। इन सबके अतिरिक्त तुम संन्यासी भी नहीं हो और पत्नीहीन वानप्रस्थ का भी तुमने व्रत नहीं लिया है। इन परिस्थितियों में पत्नीरहित अनुष्ठान तुम कैसे कर सकते हो ?
कोई उपाय आचार्य ?
                            आचार्य आवश्यक साधन, उपकरण अनुष्ठान उपरान्त वापस ले जाते हैं। स्वीकार हो तो किसी को भेज दो, सागर सन्निकट पुष्पक विमान में यजमान पत्नी विराजमान हैं।
श्रीराम ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए मौन भाव से इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार किया। श्री रामादेश के परिपालन में विभीषण मंत्रियों सहित पुष्पक विमान तक गए और सीता सहित लौटे।
            अर्द्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्द्ध यजमान।
आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया।
गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त आचार्य ने पूछा - लिंग विग्रह ?
            यजमान ने निवेदन किया कि उसे लेने गत रात्रि के प्रथम प्रहर से पवनपुत्र कैलाश गए हुए हैं। अभी तक लौटे नहीं हैं। आते ही होंगे।

आचार्य ने आदेश दे दिया - विलम्ब नहीं किया जा सकता। उत्तम मुहूर्त उपस्थित है। इसलिए अविलम्ब यजमान-पत्नी बालू का लिंग-विग्रह स्वयं बना ले।
                      जनक नंदिनी ने स्वयं के कर-कमलों से समुद्र तट की आर्द्र रेणुकाओं से आचार्य के निर्देशानुसार यथेष्ट लिंग-विग्रह निर्मित किया ।
यजमान द्वारा रेणुकाओं का आधार पीठ बनाया गया। श्री सीताराम ने वही महेश्वर लिंग-विग्रह स्थापित किया। आचार्य ने परिपूर्ण विधि-विधान के साथ अनुष्ठान सम्पन्न कराया।
अब आती है बारी आचार्य की दक्षिणा की......
श्रीराम ने पूछा - आपकी दक्षिणा ?
पुनः एक बार सभी को चौंकाया। आचार्य के शब्दों ने।
घबराओ नहीं यजमान। स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति नहीं हो सकती। आचार्य जानते हैं कि उनका यजमान वर्तमान में वनवासी है, लेकिन फिर भी राम अपने आचार्य की जो भी माँग हो उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता है।
आचार्य जब मृत्यु शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहे।
आचार्य ने अपनी दक्षिणा मांगी।
           ऐसा ही होगा आचार्य। यजमान ने वचन दिया और समय आने पर निभाया भी।
“रघुकुल रीति सदा चली आई ।
प्राण जाई पर वचन न जाई ।”
                       यह दृश्य वार्ता देख सुनकर उपस्थित समस्त जन समुदाय के नयनाभिराम प्रेमाश्रुजल से भर गए। सभी ने एक साथ एक स्वर से सच्ची श्रद्धा के साथ इस अद्भुत आचार्य को प्रणाम किया ।
                  रावण जैसे भविष्यदृष्टा ने जो दक्षिणा माँगी, उससे बड़ी दक्षिणा क्या हो सकती थी? जो रावण यज्ञ-कार्य पूरा करने हेतु राम की बंदी पत्नी को शत्रु के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, वह राम से लौट जाने की दक्षिणा कैसे मांग सकता है ?

      बहुत कुछ हो सकता था। काश राम को वनवास न होता, काश सीता वन न जाती, किन्तु ये धरती तो है ही पाप भुगतने वालों के लिए और जो यहाँ आया है, उसे अपने पाप भुगतने होंगे और इसलिए रावण जैसा पापी लंका का स्वामी तो हो सकता है देवलोक का नहीं। वह तपस्वी रावण जिसे मिला था ब्रह्मा से विद्वता और अमरता का वरदान, शिव भक्ति से पाया शक्ति का वरदान.... चारों वेदों का ज्ञाता, ज्योतिष विद्या का पारंगत, अपने घर की वास्तु शांति हेतु आचार्य रूप में जिसे, भगवन शंकर ने किया आमंत्रित..., शिव भक्त रावण, रामेश्वरम में शिवलिंग पूजा हेतु, अपने शत्रु प्रभु राम का, जिसने स्वीकार किया निमंत्रण। आयुर्वेद, रसायन और कई प्रकार की जानता जो विधियां, अस्त्र शास्त्र, तंत्र-मन्त्र की सिद्धियाँ..। शिव तांडव स्तोत्र का महान कवि, अग्नि-बाण ब्रह्मास्त्र का ही नहि, बेला या वायलिन का आविष्कर्ता, जिसे देखते ही दरबार में राम भक्त हनुमान भी एक बार मुग्ध हो, बोल उठे थे -
"राक्षस राजश्य सर्व लक्षणयुक्ता"।
काश रामानुज लक्ष्मण ने सुर्पणखा की नाक न कटी होती, काश रावण के मन में सुर्पणखा के प्रति अगाध प्रेम न होता, गर बदला लेने के लिए सुर्पणखा ने रावण को न उकसाया होता, रावण के मन में सीता हरण का ख्याल कभी न आया होता...।
इस तरह रावण में, अधर्म बलवान न होता, तो देव लोक का भी स्वामी रावण ही होता..।।

(रामेश्वरम् देवस्थान में लिखा हुआ है कि इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्रीराम ने रावण द्वारा करवाई थी।)

रविवार, 3 जून 2018

इन कामों से बचें

    *💎💎दूसरे के पहने हुए वस्त्र और जूते कभी नहीं पहनना चाहिए।*

*💎💎दूसरे की सवारी, शय्या,आसन, घर, बिना कुछ दिये उपयोग करने वाला पापी हो जाता है।*

*💎💎जो अमावस्या के दिन किसी के यहाँ भोजन करता है, उसका एक माह का पुण्य अन्नदाता को, जो उत्तरायण, या दक्षिणायन के दिन किसी का अन्न ग्रहण करें, तो छः महीने के, तथा जो सूर्य के मेष और तुला राशि में आने पर भोजन करें, वह तीन माह का, एवं चन्द्र ग्रहण व सूर्य ग्रहण के दिन जो दूसरे का अन्न ले, वह बारह वर्षों का, तथा संक्रांति के दिन दूसरे का अन्न खाता है, वह एक माह के पुण्य से वञ्चित हो जाता है।*

*💎💎बिना निमन्त्रण के भी भोजन नहीं करना चाहिए, दूसरे के पकाये भोजन की रूचि नहीं रखनी चाहिए।*

*💎💎किसी के घर या तो बहुत प्रेम के कारण, या आपत्ति होने पर ही भोजन करना चाहिए*।

*💎💎जो बिना बुद्धि वाला केवल अतिथि सत्कार के लोभ से किसी का अन्न खाता है, वह अन्नदाता का पशु बनता है।*

*💎💎दूसरे की कोई भी वस्तु चाहे सरसों के दाने के बराबर ही क्यों न हो, उसका अपहरण करने पर मनुष्य पापी और नरकगामी होता है।*

*💎💎दूसरे की स्त्री का सेवन इन्द्र के  ऐश्वर्य को भी नष्ट कर देता है, औरों की तो बात ही क्या है।*😊👇🏻👇🏻

*परान्नेन दग्धा जिह्वा, करौ दग्धा प्रतिग्रहात्*।
 *मनो दग्धं परस्त्रीभिः, कार्यसिद्धिः कथं भवेत् ।।*

*भावार्थ 👉🏻दूसरों का अन्न खाकर जिनकी जिह्वा जल चुकी है, दान लेते -2 हाथ जल चुके, दूसरे की स्त्रियों के चिन्तन करके जिनका मन जल चुका हो, वह कैसे अपना या दूसरे के कार्य को सिद्ध कर सकते हैं।*

*कुलमिलाकर कार्य सिद्धि, विद्या सिद्धि के लिए परान्न से बचना चाहिए।*

*सियावर रामचंद्र की जय*🙏🏻🙏🏻🚩

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शिवलिंग स्थापित करने में इतनी सावधानी जरूर रखें

आप अपने घर में शिवलिंग स्थापित करने के बारे में सोच रहे हैं तो रखें कुछ बातों का ध्यान, फायदे में रहेंगे!
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भगवन शिव के बारे में तो आप जानते ही हैं, वह बहुत ही दयालु भी हैं और क्रोधी स्वाभाव के भी हैं। जो उन्हें सच्चे मन से याद करता है, उसकी पुकार वह तुरंत सुन लेते हैं। अगर आपने भी अपने घर में शिवलिंग स्थापित किया हुआ है या करने के बारे में सोच रहे हैं, तो कुछ बातों का ध्यान रखना बहुत ही जरुरी है। आप तो जानते ही हैं कि भगवन शिव जब क्रोधित हो जाते हैं, तो वह पूरी पृथ्वी का विनाश करने की क्षमता रखते हैं। ऐसे में कोई ऐसा काम ना करें या कोई ऐसी चीज चढ़ावे के रूप में ना चढ़ाएँ जो उन्हें पसंद ना हो। आज हम आपको कुछ ऐसी बातें बताने जा रहे हैं, जो शिवलिंग के साथ नहीं करनी चाहिए।

शिवलिंग के साथ ऐसा भूलकर भी ना करें.....

कोने में ना रखें:-

शिवलिंग अगर घर में स्थापित कर रहे हैं तो उसे भूलकर भी कोने में या किसी ऐसी जगह ना रखें जहाँ आप उसकी पूजा ना कर पायें। ऐसा करने से भगवन शिव क्रोधित हो जाते हैं, और उनके क्रोध से बचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होता है।

 हल्दी ना चढ़ाएँ:-

जैसा की सभी जानते हैं हल्दी का इस्तेमाल औरतें अपनी खूबसूरती को बढ़ाने के लिए करती हैं। भगवान शिव को खुबसूरत दिखने की कोई इच्छा नहीं है, भगवन शिव एक पुरुष देवता हैं, इसलिए उन्हें हल्दी बिलकुल भी पसंद नहीं है। तो याद रखें उन्हें कभी भी हल्दी ना चढ़ाएँ।

सिंदूर के दूरी रखें:-

आप तो जानते ही हैं कि सिंदूर महिलाएँ लगाती हैं ताकि उनके पति की आयु लम्बी हो सके, और भगवन शिव विनाश के देवता हैं। इसलिए उन्हें सिंदूर बिलकुल भी पसंद नहीं है, तो इस बात का ध्यान रखें कि उन्हें भूलकर भी सिंदूर ना चढ़ाएँ।

 स्थान ना बदलें:-

शिवलिंग का स्थान ना बदलें, अगर किन्ही विपरीत कारणों से ऐसा करना पड़ रहा है तो इस बात का ध्यान रखें की शिवलिंग को हटाने से पहले उसे गंगाजल और ठंढे दूध से स्नान करायें फिर उसकी जगह को बदलें। ऐसा ना करने से भगवन शिव क्रोधित हो जाते हैं।

 बिना किसी बर्तन के दूध ना चढ़ाएँ:-

कुछ लोग होते हैं जो सोचते हैं कि सीधे दुकान से पैकेट वाला दूध ख़रीदा और चढ़ा दिया, ऐसा करने से बचना चाहिए। बिना किसी बर्तन के दूध कभी भी नहीं चढ़ाना चाहिए। दूध चढ़ाते वक़्त एक बात का और ध्यान रखें दूध बिलकुल ठंढा होना चाहिए, भले ही बाहर कोई भी मौसम हो।

शिवलिंग की बनावट का रखें ध्यान:-

शिवलिंग स्थापित करने से पहले इस बात का अवश्य ध्यान रखें कि शिवलिंग सोने, चाँदी या पीतल का बना होना चाहिए। एक बात और ध्यान रखनी चाहिए कि बिना साँप वाला शिवलिंग भूलकर भी घर नहीं लाना चाहिए।

 पानी का रखें ख़ास ध्यान:-

आप जब भी किसी शिव मंदिर में जाते होंगे तो आपने देखा होगा कि शिवलिंग के ऊपर एक पानी से भरा पात्र लटका रहता है, जिससे हर समय पानी टपकता रहता है। इसलिए जब आप भी अपने घर पर शिवलिंग स्थापित करें तो पानी की व्यवस्था ठीक तरह से करें। दिन हो या रात हो हर समय शिवलिंग के ऊपर पानी गिरना चाहिए।

शिवलिंग को अकेले ना रखें:-

जब आप अपने घर पर शिवलिंग स्थापित कर रहे हों तो इस बात का खासतौर पर ध्यान रखें कि शिवलिंग को कभी भी अकेले ना रखें। इसके साथ माँ पार्वती और गणेश की मूर्तियाँ भी रखें।

 चन्दन का टिका लगायें:-

हर रोज स्नान करने के बाद शिवलिंग पर चन्दन का टिका लगायें, ऐसा माना जाता है कि इससे शिवलिंग पवित्र और ठंढा रहता है।

 कभी ना चढ़ाएँ नारियल पानी:-

आपको इस बात का हमेशा ध्यान रखना होगा कि शिवलिंग पर कभी भी नारियल पानी नहीं चढ़ाना है। ऐसा करने से भगवान शिव क्रोधित हो सकते हैं। हालांकि आप इसकी जगह पर कच्चा नारियल चढ़ा सकते हैं।

कभी न चढ़ाएँ तुलसी की पत्ती:-

शिवलिंग पर भूलकर भी तुलसी की पत्तियाँ नहीं चढ़ानी चाहिए, शिवलिंग पर हमेशा बेलपत्र ही चढ़ाना चाहिए। बेलपत्र बहुत ही शुभ माना जाता है।

 बेल चढ़ाएँ:-

बेल भगवन शिव को बहुत पसंद है, ऐसा माना जाता है कि यह फल चढ़ाने से इंसान की उम्र लम्बी होती है। इसलिए आप भी सुबह स्नान करने के बाद बेल के फल को भगवन शिव को चढ़ा सकते हैं, इससे आपकी उम्र और लम्बी हो जाएगी।

 पंचामृत चढ़ाएँ:-

कोई भी पूजा शुरू करने से पहले शिवलिंग पर पंचामृत चढ़ाएँ। पंचामृत दूध, गंगाजल और चीनी जैसे पाँच चीजों से मिलाकर बनाया जाता है।

 केवल सफ़ेद फूल चढ़ाएँ:-

जब बात फूलों की हो तो हमेशा शिवलिंग पर सफ़ेद फूल ही चढ़ाने चाहिए, यह कहा जाता है कि सफ़ेद फूल भगवान शिव को बहुत ज्यादा पसंद हैं। यह भी कहा जाता है कि भगवन शिव को भूलकर भी केवड़ा और चंपा के फूल नहीं चढ़ाने चाहिए। ऐसा माना जाता है कि इन फूलों को भगवन शिव ने अभिशाप दिया था।

अभिषेक:-

जब भी शिवलिंग का अभिषेक करें इस बात का ध्यान रखें कि हमेशा शिवलिंग का अभिषेक चाँदी, सोने या पीतल से बने नाग योनी जैसे किसी पात्र में करना चाहिए। अभिषेक करते समय इस बात का भी ध्यान रखें की अभिषेक कभी भी स्टील के स्टैंड में नहीं करना चाहिए।

शिवलिंग पर चढ़ाया कभी ना खाएं:-

यह कहा जाता है कि जो भी शिवलिंग पर चढ़ाएँ उसे खुद कभी भी ना खाएं, हमेशा शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ दूसरों को बाँट देना चाहिए। जो शिवलिंग पर चढ़ाये हुए को खुद ही खा लेते हैं, ऐसा माना जाता है कि उनका भाग्य बुरा हो जाता है।

 सौन्दर्य की कोई भी वस्तु ना चढ़ाएँ:-

सिंदूर की तरह ही भूलकर कोई भी सौन्दर्य प्रसाधन की वस्तु को शिवलिंग पर नहीं चढ़ाना चाहिए। ऐसी चीजें केवल आप माँ पार्वती की मूर्ति पर चढ़ा सकते हैं।
ऊँ नम: शिवाय //

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...