रविवार, 28 अप्रैल 2019

शुभ और अशुभ शकुन

कुछ शुभ और अशुभ शकुन एक रोचक प्रस्तुति!!!!! 


प्रभुश्रीराम की बरात जब अयोध्या से प्रस्थान करती है उस समय क्या क्या शुभ शकुन होते हैं?

*मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।
जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार॥

भावार्थ:-सभी मंगलमय, कल्याणमय और मनोवांछित फल देने वाले शकुन मानो सच्चे होने के लिए एक ही साथ हो गए॥

*बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता॥
चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई॥

भावार्थ:-बारात ऐसी बनी है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता। सुंदर शुभदायक शकुन हो रहे हैं। नीलकंठ पक्षी बाईं ओर चारा ले रहा है, मानो सम्पूर्ण मंगलों की सूचना दे रहा हो॥।

*दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा॥
सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सबाल आव बर नारी॥

भावार्थ:-दाहिनी ओर कौआ सुंदर खेत में शोभा पा रहा है। नेवले का दर्शन भी सब किसी ने पाया। तीनों प्रकार की (शीतल, मंद, सुगंधित) हवा अनुकूल दिशा में चल रही है। श्रेष्ठ (सुहागिनी) स्त्रियाँ भरे हुए घड़े और गोद में बालक लिए आ रही हैं॥

*लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा॥
मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि देखाई॥

भावार्थ:-लोमड़ी फिर-फिरकर (बार-बार) दिखाई दे जाती है। गायें सामने खड़ी बछड़ों को दूध पिलाती हैं। हरिनों की टोली (बाईं ओर से) घूमकर दाहिनी ओर को आई, मानो सभी मंगलों का समूह दिखाई दिया॥

*छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी॥
सनमुख आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना॥

भावार्थ:-क्षेमकरी (सफेद सिरवाली चील) विशेष रूप से क्षेम (कल्याण) कह रही है। श्यामा बाईं ओर सुंदर पेड़ पर दिखाई पड़ी। दही, मछली और दो विद्वान ब्राह्मण हाथ में पुस्तक लिए हुए सामने आए॥

1. प्रातः काल जागते ही यदि शंख, घंटा, भक्ति संगीत आदि का स्वर सुनाई दे तो अत्यंत शुभ होता है। आपका पूरा दिन हर्षपूर्ण बीतेगा।

2. यदि जागने पर सबसे पहले दही या दूध से भरे पात्र पर निगाह पड़े तो भी शुभ समझा जाता है।

3. यदि सुबह सुबहघर में कोई भिखारी माँगने आ जाए तो यह समझिये कि आपका फंसा हुआ या उधार दिया हुआ धन आपको शीघ्र ही वापस मिलेगा ।

4. यदि घर से किसी कार्य से बाहर जाते हुए तो आपके सामने सुहागन स्त्री अथवा गाय आ जाए तो कार्य में पूर्ण सफलता मिले का योग बनता है ।

5. किसी कार्य से जाते हुए आपके सामने कोई व्यक्ति गुड़ ले जाता हुआ दिखे तो बहुत अधिक लाभ होता है।

6. यदि रास्ते में कोई प्राणी सुन्दर फूल या हरी घास लेकर जाता मिले या आपको किसी दुकान में यह नज़र आ जाये तो बहुत शुभ होता है ।

7. यदि जाते समय मार्ग में कोई भी स्त्री/पुरुष दूध या पानी से भरा बर्तन लेकर दिख जाये तो यह बहुत ही शुभ शकुन होता है ।

8. यात्रा में जाते समय यदि प्रभु की आरती ,भजन आदि सुनाई दे तो यह बहुत ही शुभ माना जाता है , आपकी यात्रा के सफल होने के पुरे योग है ।

9. यदि मार्ग में हसंता खेलता हुआ बालक और फल फूल बेचने वाला कोई नज़र आ जाये तो आपको निसंदेह लाभ की प्राप्ति होगी ।

10. किसी भी कार्य के लिए जाते समय जब आप कपड़े पहने और आपकी जेब से पैसे गिर जाएँ तो यह धन प्राप्ति का संकेत है। और यदि कपड़े उतारते समय भी ऐसा ही हो तो भी यह शुभ शकुन होता है।

11. यदि आपके शरीर पर चिड़िया बीट कर दे तो यह समझिये की आपकी दरिद्रता दूर होने वाली है। ये बहुत ही शुभ शकुन हैं ।

12. यदि घर से बाहर निकलते ही आप वर्षा से भीग जाएँ तो यह बहुत ही शुभ शकुन है।

13. यदि घर से बाहर किसी भी कार्य के लिए जाते समय आपको राह में साधू,सन्यासी आदि दिखाई पद जाएँ तो यह भी आपकी यात्रा के लिए अति शुभ शकुन होता है ।

14. ब्राह्मण, घोड़ा, हाथी, नेवला , बाज, मोर, दूध, दही, फल, फूल, कमल, भक्ति संगीत, अन्न, जल से भरा कलश, बंधा हुआ एक पशु, मछली, प्रज्वलित अग्नि, छाता, वैश्या, कोई भी शस्त्र, कोई भी रत्न, स्त्री, कन्या, धुले हुए वस्त्र सहित धोबी, घी, मिट्टी, सरसों, गन्ना, शव यात्रा, पालकी, ध्वजा, बकरा, अपना प्रिय मित्र, बच्चे के सहित स्त्री, गाय बछड़ा सहित, सफेद बैल, साधु, कल्पवृक्ष, शहद, शराब, या कूड़े से भरी टोकरी,सामान से लदा वाहन यदि यात्रा के वक्त यह कुछ भी राह में पड़ जाए तो निश्चय हीआपको सफलता प्राप्त होगी।,

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

महासती सुलोचना

रावण पुत्र मेघनाद की पत्नी महासती सुलोचना की कथा!!!!!!!

सुलोचना वासुकी नाग की पुत्री और लंका के राजा रावण के पुत्र मेघनाद की पत्नी थी। लक्ष्मण के साथ हुए एक भयंकर युद्ध में मेघनाद का वध हुआ। उसके कटे हुए शीश को भगवान श्रीराम के शिविर में लाया गया था। अपने पती की मृत्यु का समाचार पाकर सुलोचना ने अपने ससुर रावण से राम के पास जाकर पति का शीश लाने की प्रार्थना की।

 किंतु रावण इसके लिए तैयार नहीं हुआ। उसने सुलोचना से कहा कि वह स्वयं राम के पास जाकर मेघनाद का शीश ले आये। क्योंकि राम पुरुषोत्तम हैं, इसीलिए उनके पास जाने में तुम्हें किसी भी प्रकार का भय नहीं करना चाहिए।

रावण के महापराक्रमी पुत्र इन्द्रजीत (मेघनाद) का वध करने की प्रतिज्ञा लेकर लक्ष्मण जिस समय युद्ध भूमि में जाने के लिये प्रस्तुत हुए, तब राम उनसे कहते हैं- "लक्ष्मण, रण में जाकर तुम अपनी वीरता और रणकौशल से रावण-पुत्र मेघनाद का वध कर दोगे, इसमें मुझे कोर्इ संदह नहीं है। परंतु एक बात का विशेष ध्यान रखना कि मेघनाद का मस्तक भूमि पर किसी भी प्रकार न गिरे।

 क्योंकि मेघनाद एकनारी-व्रत का पालक है और उसकी पत्नी परम पतिव्रता है। ऐसी साध्वी के पति का मस्तक अगर पृथ्वी पर गिर पड़ा तो हमारी सारी सेना का ध्वंस हो जाएगा और हमें युद्ध में विजय की आशा त्याग देनी पड़ेगी। लक्ष्मण अपनी सैना लेकर चल पड़े। समरभूमि में उन्होंने वैसा ही किया। युद्ध में अपने बाणों से उन्होंने मेघनाद का मस्तक उतार लिया, पर उसे पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया। हनुमान उस मस्तक को रघुनंदन के पास ले आये।

मेघनाद की दाहिनी भुजा आकाश में उड़ती हुर्इ उसकी पत्नी सुलोचना के पास जाकर गिरी। सुलोचना चकित हो गयी। दूसरे ही क्षण अन्यंत दु:ख से कातर होकर विलाप करने लगी। पर उसने भुजा को स्पर्श नहीं किया। उसने सोचा, सम्भव है यह भुजा किसी अन्य व्यकित की हो। ऐसी दशा में पर-पुरुष के स्पर्श का दोष मुझे लगेगा। निर्णय करने के लिये उसने भुजा से कहा- "यदि तू मेरे स्वामी की भुजा है, तो मेरे पतिव्रत की शक्ति से युद्ध का सारा वृत्तांत लिख दे। भुजा में दासी ने लेखनी पकड़ा दी।

 लेखिनी ने लिख दिया- "प्राणप्रिये, यह भुजा मेरी ही है। युद्ध भूमि में श्रीराम के भार्इ लक्ष्मण से मेरा युद्ध हुआ। लक्ष्मण ने कर्इ वर्षों से पत्नी, अन्न और निद्रा छोड़ रखी है। वे तेजस्वी तथा समस्त दैवी गुणों से सम्पन्न है। संग्राम में उनके साथ मेरी एक नहीं चली। अन्त में उन्हीं के बाणों से विद्ध होने से मेरा प्राणान्त हो गया। मेरा शीश श्रीराम के पास है।

पति की भुजा-लिखित पंकितयां पढ़ते ही सुलोचना व्याकुल हो गयी। पुत्र-वधु के विलाप को सुनकर लंकापति रावणने आकर कहा- 'शोक न कर पुत्री।

 प्रात: होते ही सहस्त्रों मस्तक मेरे बाणों से कट-कट कर पृथ्वी पर लोट जाऐंगे। मैं रक्त की नदियां बहा दूंगा। करुण चीत्कार करती हुर्इ सुलोचना बोली- "पर इससे मेरा क्या लाभ होगा, पिताजी। सहस्त्रों नहीं करोड़ों शीश भी मेरे स्वामी के शीश के आभाव की पूर्ती नहीं कर सकेंगे। सुलोचना ने निश्चय किया कि 'मुझे अब सती हो जाना चाहिए।' किंतु पति का शव तो राम-दल में पड़ा हुआ था। फिर वह कैसे सती होती?

जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा, तब रावण ने उत्तर दिया- "देवी ! तुम स्वयं ही राम-दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो। जिस समाज में बालब्रह्मचारी हनुमान, परम जितेन्द्रिय लक्ष्मण तथा एकपत्नीव्रती भगवान श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटायी जाओगी।"

सुलोचना के आने का समाचार सुनते ही श्रीराम खड़े हो गये और स्वयं चलकर सुलोचना के पास आये और बोले- "देवी, तुम्हारे पति विश्व के अन्यतम योद्धा और पराक्रमी थे। उनमें बहुत-से सदगुण थे; किंतु विधी की लिखी को कौन बदल सकता है। आज तुम्हें इस तरह देखकर मेरे मन में पीड़ा हो रही है। सुलोचना भगवान की स्तुति करने लगी। श्रीराम ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा- "देवी, मुझे लज्जित न करो। पतिव्रता की महिमा अपार है, उसकी शक्ति की तुलना नहीं है।

 मैं जानता हूँ कि तुम परम सती हो। तुम्हारे सतित्व से तो विश्व भी थर्राता है। अपने स्वयं यहाँ आने का कारण बताओ, बताओ कि मैं तुम्हारी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ? सुलोचना ने अश्रुपूरित नयनों से प्रभु की ओर देखा और बोली- "राघवेन्द्र, मैं सती होने के लिये अपने पति का मस्तक लेने के लिये यहाँ पर आर्इ हूँ। श्रीराम ने शीघ्र ही ससम्मान मेघनाद का शीश मंगवाया और सुलोचना को दे दिया।

पति का छिन्न शीश देखते ही सुलोचना का हृदय अत्यधिक द्रवित हो गया। उसकी आंखें बड़े जोरों से बरसने लगीं। रोते-रोते उसने पास खड़े लक्ष्मण की ओर देखा और कहा- "सुमित्रानन्दन, तुम भूलकर भी गर्व मत करना की मेघनाथ का वध मैंने किया है। मेघनाद को धराशायी करने की शक्ति विश्व में किसी के पास नहीं थी। यह तो दो पतिव्रता नारियों का भाग्य था। आपकी पत्नी भी पतिव्रता हैं और मैं भी पति चरणों में अनुरक्ती रखने वाली उनकी अनन्य उपसिका हूँ। पर मेरे पति देव पतिव्रता नारी का अपहरण करने वाले पिता का अन्न खाते थे और उन्हीं के लिये युद्ध में उतरे थे, इसी से मेरे जीवन धन परलोक सिधारे।

सभी योद्धा सुलोचना को राम शिविर में देखकर चकित थे। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि सुलोचना को यह कैसे पता चला कि उसके पति का शीश भगवान राम के पास है। जिज्ञासा शान्त करने के लिये सुग्रीव ने पूछ ही लिया कि यह बात उन्हें कैसे ज्ञात हुर्इ कि मेघनाद का शीश श्रीराम के शिविर में है।

सुलोचना ने स्पष्टता से बता दिया- "मेरे पति की भुजा युद्ध भूमि से उड़ती हुर्इ मेरे पास चली गयी थी। उसी ने लिखकर मुझे बता दिया। व्यंग्य भरे शब्दों में सुग्रीव बोल उठे- "निष्प्राण भुजा यदि लिख सकती है फिर तो यह कटा हुआ सिर भी हंस सकता है। श्रीराम ने कहा- "व्यर्थ बातें मन करो मित्र। पतिव्रता के महाम्तय को तुम नहीं जानते। यदि वह चाहे तो यह कटा हुआ सिर भी हंस सकता है।

श्रीराम की मुखकृति देखकर सुलोचना उनके भावों को समझ गयी। उसने कहा- "यदि मैं मन, वचन और कर्म से पति को देवता मानती हूँ, तो मेरे पति का यह निर्जीव मस्तक हंस उठे।

सुलोचना की बात पूरी भी नहीं हुर्इ थी कि कटा हुआ मस्तक जोरों से हंसने लगा। यह देखकर सभी दंग रह गये। सभी ने पतिव्रता सुलोचना को प्रणाम किया। सभी पतिव्रता की महिमा से परिचित हो गये थे। चलते समय सुलोचना ने श्रीराम से प्रार्थना की- "भगवन, आज मेरे पति की अन्त्येष्टि क्रिया है और मैं उनकी सहचरी उनसे मिलने जा रही हूँ। अत: आज युद्ध बंद रहे।

 श्रीराम ने सुलोचना की प्रार्थना स्वीकार कर ली। सुलोचना पति का सिर लेकर वापस लंका आ गर्इ। लंका में समुद्र के तट पर एक चंदन की चिता तैयार की गयी। पति का शीश गोद में लेकर सुलोचना चिता पर बैठी और धधकती हुई अग्नि में कुछ ही क्षणों में सती हो गई।

मां सरस्वती



*पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥

भावार्थ:-फिर मैं सरस्वती और देवनदी गंगाजी की वंदना करता हूँ। दोनों पवित्र और मनोहर चरित्र वाली हैं। एक (गंगाजी) स्नान करने और जल पीने से पापों को हरती है और दूसरी (सरस्वतीजी) गुण और यश कहने और सुनने से अज्ञान का नाश कर देती है॥

प्रतिभा की अधिष्ठात्री देवी भगवती सरस्वती हैं। समस्त वाङ्मय, सम्पूर्ण कला और पूरा ज्ञान-विज्ञान माँ शारदा का ही वरदान है। बुधवार को त्रयोदशी तिथि को एवं शारदीय नवरात्रों में ज्ञानदायिनी भगवती शारदा की पूजा-अर्चना-उपासना की जाती है। हमारे हिन्दू धर्मग्रंथों में माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी अर्थात् वसंत पंचमी को भगवती सरस्वती की जयंती का पावन दिन कहा गया है।

बसन्त पंचमी के दिन माता शारदा की विशेष आराधना की जाती है, पूजन में पीले व सफेद पुष्प भगवती सरस्वती को अर्पित किये जाते हैं। वसन्त पञ्चमी के दिन भगवती सरस्वती के मंत्रों , पवित्र स्तोत्रों का पाठ किया जाता है, सफेद या पीले वस्त्र/रुमाल का दान किया जाता है।

 पूर्वकाल में वागीश्वरी देवी के द्वारा नदी रूप धारण करने के सम्बन्ध में प्रचलित यह अवतार कथा प्रस्तुत है-

भगवान नारायण की तीन पत्नियाँ थीं- देवी लक्ष्मी, देवी गङ्गा और देवी सरस्वती। तीनों ही बहुत प्रेम से रहतीं और अनन्य भाव से भगवान् का पूजन किया करती थीं। एक दिन भगवान् की ही इच्छा से ऐसी घटना हो गयी, जिससे लक्ष्मीजी, गंगाजी और सरस्वतीजी को भगवान् के चरणों से कुछ काल के लिये दूर हट जाना पड़ा।

भगवान् जब अन्तःपुर में पधारे, उस समय तीनों देवियाँ एक ही स्थान पर बैठी हुईं परस्पर प्रेमालाप कर रही थीं, भगवान् को आया देखकर तीनों उनके स्वागत के लिये खड़ी हो गयीं। उस समय गङ्गाजी ने विशेष प्रेमपूर्ण दृष्टि से भगवान् की ओर देखा। भगवान् ने भी उनकी दृष्टि का उत्तर वैसी ही स्नेहपूर्ण दृष्टि में हँसकर दिया, फिर वे किसी आवश्यकतावश अन्तःपुर से बाहर निकल गये।

तब देवी सरस्वतीजी ने देवी गंगा के उस बर्ताव को अनुचित बताकर उनके प्रति आक्षेप किया। गंगाजी ने भी कठोर शब्दों में उनका प्रतिवाद किया। उनका विवाद बढ़ता देखकर लक्ष्मीजी ने दोनों को शान्त करने की चेष्टा की। सरस्वतीजी ने लक्ष्मीजी के इस बर्ताव को गंगाजी के प्रति पक्षपात माना और उन्हें शाप दे दिया, "तुम वृक्ष और नदी के रूप में परिणत हो जाओगी।

" यह देख गंगाजी ने भी सरस्वतीजी को शाप दिया, "तुम भी नदी हो जाओगी।" यही शाप सरस्वतीजी की ओर से गंगाजी को भी मिला। इतने ही में भगवान् पुनः अन्तःपुर में लौट आये। अब देवियाँ प्रकृतिस्थ हो चुकी थीं। उन्हें अपनी भूल मालूम हुई तथा भगवान् के चरणों से विलग होने के भय से दुखी होकर रोने लगीं।

इस प्रकार गंगाजी, सरस्वतीजी, लक्ष्मीजी का सब हाल सुनकर भगवान् नारायण को खेद हुआ। उनकी आकुलता देखकर वे दया से द्रवीभूत हो उठे। उन्होंने कहा-"तुम तीनों एक अंश से ही नदी होओगी, अन्य अंशों से तुम्हारा निवास मेरे ही पास रहेगा।

सरस्वती एक अंश से नदी होंगी। एक अंश से इन्हें ब्रह्माजी की सेवा में रहना पड़ेगा तथा शेष अंशों से वे मेरे ही पास निवास करेंगी। कलियुग के पाँच हजार वर्ष बीतने के बाद तुम सबके शाप का उद्धार हो जाएगा।

" इसके अनुसार माँ सरस्वतीजी भारत भूमि में अंशतः अवतीर्ण होकर 'भारती' कहलायीं। उसी शरीर से ब्रह्माजी की प्रियतमा पत्नी होने के कारण उनकी 'ब्राह्मी' नाम से प्रसिद्धि हुई। किसी-किसी कल्प मेँ सरस्वतीजी ब्रह्माजी की कन्या के रूप में अवतीर्ण होती हैं और आजीवन कुमारी व्रत का पालन करती हुई उनकी सेवा में रहती हैं।

एक बार ब्रह्माजी ने यह विचार किया कि इस पृथ्वी पर सभी देवताओं के तीर्थ हैं, केवल मेरा ही तीर्थ नहीं है। ऐसा सोचकर उन्होंने अपने नाम से एक तीर्थ स्थापित करने का निश्चय किया और इसी उद्देश्य से ब्रह्माजी ने एक रत्नमयी शिला पृथ्वी पर गिरायी। वह शिला चमत्कारपुर के समीप गिरी, अत: ब्रह्माजी ने उसी क्षेत्र मेँ अपना तीर्थ स्थापित किया।

एकार्णव में शयन करने वाले भगवान् विष्णु की नाभि से जो कमल निकला, जिससे ब्रहमाजी का प्राकट्य हुआ, वह स्थान भी वही तीर्थ माना गया है। वही तीर्थ पुष्करतीर्थ के नाम से विख्यात हुआ। पुराणों में इस तीर्थ की बड़ी महिमा गायी गयी है। तीर्थ स्थापित होने के बाद ब्रह्माजीने वहाँ पवित्र जल से पूर्ण एक सरोवर बनाने का विचार किया। इसके लिये उन्होंने सरस्वती देवी का स्मरण किया।

सरस्वती देवी नदीरूप मेँ परिणत होकर भी पापीजनों के स्पर्श के भय से छिपी-छिपी पाताल में बहती थीं। ब्रह्माजी के स्मरण करने पर वे भूतल और पूर्वोक्त शिला को भी भेदकर वहाँ प्रकट हुईं। उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा,"तुम सदा यहाँ मेरे समीप ही रहो, मैं प्रतिदिन तुम्हारे जल में तर्पण करूँगा।'

ब्रहमाजी का ऐसा आदेश सुनकर सरस्वतीजी को बड़ा भय हुआ कि इससे कहीं कोई पापी जल का स्पर्श न कर ले। वे हाथ छोड़कर बोलीं-"भगवन्! मैं जन-सम्पर्क के भय से पाताल मेँ रहती हूँ। कभी प्रकट नहीं होती, किंतु आपकी आज्ञा का उल्लङ्घन करना भी मेरी शक्ति के बाहर है; अत: आप इस विषय पर भलीभाँति सोच-विचारकर जो उचित हो, वैसी व्यवस्था कीजिये।'

तब ब्रह्माजी ने सरस्वतीजी के निवास के लिये वहाँ एक विशाल सरोवर खुदवाया। सरस्वतीजी ने उसी सरोवर में आश्रय लिया।

 तत्पश्चात् ब्रह्माजी ने बड़े-बड़े भयानक सर्पों को बुलाकर कहा-"तुम लोग सावधानी के साथ सब ओर से इस सरोवर की रक्षा करते रहना; जिससे कोई भी सरस्वती के जल का स्पर्श न कर सके।'

एक बार भगवान् विष्णु ने सरस्वतीजी को यह आदेश दिया कि 'तुम बडवानल को अपने प्रवाह मेँ ले जाकर समुद्र में छोड़ दो।'

 सरस्वतीजी ने इसके लिये ब्रह्माजी की भी अनुमति चाही। लोकहित का विचार करके ब्रह्माजी ने भी वाग्देवी को उस कार्य के लिये सम्मति दे दी। तब देवी सरस्वती ने कहा- "भगवन्! यदि मैं भूतल पर नदी रूप में प्रकट होती हूँ तो पापी जनों के सम्पर्क का भय है और यदि पातालमार्ग से इस अग्नि को ले जाती हूँ तो स्वयं अपने शरीर के जलने का डर है।"

 ब्रह्माजी ने कहा-"तुम्हें जैसे सुगमता हो, उसी प्रकार कर लो। यदि पापियों के सम्पर्क से बचना चाहो तो पाताल के ही मार्ग से जाओ; भूतल पर प्रकट न होना, साथ ही जहाँ भी तुम्हें बडवानल का ताप असह्य हो जाय, वहाँ पृथ्वी पर नदीरूप में प्रकट भी हो जाना। इससे तुम्हें शरीर पर उसके ताप का प्रभाव नहीं पड़ेगा।"

ब्रह्माजी का यह उत्तर पाकर भगवती सरस्वती अपनी सखियों- गायत्री, सावित्री और यमुना आदि से मिलकर हिमालय पर्वत चली गयीं और वहाँ से नदीरूप होकर धरती पर प्रवाहित हुईं। उनकी जलराशि मेँ कच्छप और ग्राह आदि जल-जन्तु भी प्रकट हो गये।

 बडवानल को लेकर वे सागर की ओर उपस्थित हुईं। जाते समय वे धरती को भेदकर पाताल मार्ग से ही यात्रा करने लगीं। जब वे अग्नि के ताप से संतप्त हो जातीं तो कहीं-कहीं भूतल पर प्रकट भी हो जाया करती थीं। इस प्रकार जाते-जाते वे प्रभासक्षेत्र में पहुँचीं।

वहाँ चार तपस्वी मुनि कठोर तपस्या में लगे थे। इन्होंने पृथक पृथक अपने-अपने आश्रम के पास सरस्वती नदी को बुलाया। इसी समय समुद्र ने भी प्रकट होकर सरस्वती जी का आवाहन किया।

सरस्वती जी को नदी रूप में समुद्र तक तो जाना ही था, ऋषियों की अवहेलना करने से भी शाप का भय था; अत: माँ सरस्वती ने अपनी पाँच धाराएँ कर लीं। एक से वो सीधे समुद्र की ओर चलीं और चार से पूर्वोक्त चारों ऋषियों को स्नान की सुविधा देती गयीं। इस प्रकार वे 'पञ्चस्रोता' सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुईं और मार्ग के अन्य विघ्नों को दूर करती हुई अन्त मेँ समुद्र से जा मिलीं।

एक समय की बात है, ब्रह्माजी ने सरस्वती जी से कहा-"तुम किसी योग्य पुरुष के मुख में कवित्वशक्ति होकर निवास करो।' ब्रह्माजी की आज्ञा मानकर भगवती सरस्वती योग्य पात्र की खोज में बाहर निकलीं। उन्होंने ऊपर के सत्य आदि लोकों मेँ भ्रमण करके देवताओ में पता लगाया तथा नीचे के सातों पातालो में घूमकर वहाँ के निवासियों में खोज की किंतु कहीं भी उनको सुयोग्य पात्र नहीं मिला। इसी अनुसंधान में पूरा एक सत्ययुग बीत गया।

तदनन्तर त्रेतायुग के आरम्भ में सरस्वती देवी भारतवर्ष में भ्रमण करने लगीं। घूमते-घूमते वाग्देवी तमसा नदी के तीर पर पहुँचीं।

 वहाँ महातपस्वी महर्षि वाल्मीकि अपने शिष्यों के साथ रहते थे। वाल्मीकि उस समय अपने आश्रम के इधर-उधर घूम रहे थे। इतने में ही उनकी दृष्टि एक क्रौञ्च पक्षी पर पड़ी, जो तत्काल ही एक व्याध(शिकारी) के बाण से घायल हो पंख फड़फड़ाता हुआ गिरा था। पक्षी का सारा शरीर लहूलुहान था। वह पीड़ा से तड़प रहा था और उसकी पत्नी क्रौञ्ची उसके पास ही गिरकर बड़े आर्तस्वर में 'चें-चें' कर रही थी।

पक्षी के उस जोड़े की यह दयनीय दशा देखकर दयालु महर्षि अपनी सहज करुणा से द्रवीभूत हो उठे। उनके मुख से तुरन्त ही एक श्लोक निकल पड़ा; जो इस प्रकार है-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:।
यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्॥

यह श्लोक माता वागीश्वरी की कृपा का प्रसाद था। माँ वाग्देवी ने महर्षि वाल्मीकि को देखते ही उनकी असाधारण योग्यता और प्रतिभा का परिचय पा लिया था; उन्हीं महर्षि के मुख में सरस्वतीजी ने सर्वप्रथम प्रवेश किया।

 कवित्वशक्तिमयी सरस्वतीजी की प्रेरणा से ही उनके मुख की वह वाणी जो उन्होंने क्रौञ्ची की सान्त्वना देने के लिये कही थी, छन्दोमयी बन गयी। उनके हृदय का शोक ही श्लोक बनकर निकला था-'शोकः श्लोकत्वमागतः।' मां सररस्वती के कृपापात्र होकर महर्षि बाल्मीकि ही 'आदिकवि' के नाम से संसार में विख्यात हुए।

इस तरह सरस्वती देवी अनेक प्रकार की लीलाओं से जगत् का कल्याण करती हैं। बुद्धि, ज्ञान और विद्या रूप से सारा जगत् इन वाग्देवी की कृपा-लीला का अनुभव किया करता है। ये भगवती सरस्वती मूलत: भगवान् नारायण की पत्नी हैं तथा अंशत: नदी और ब्रह्माजी की शक्ति ब्राह्मी के रूप में रहती हैं।

ये मातंगी महाविद्या स्वरुपिणी सरस्वती देवी ही भगवती गौरी के शरीर से प्रकट होकर 'कौशिकी' नामसे प्रसिद्ध हुईं और शुम्भ-निशुम्भ आदि असुरों का वध करके इन्होंने संसार में सुख-शान्ति की स्थापना की।

काकभुशुण्डि

श्रीरामचरितमानस,जानिए काकभुशुण्डि और उनके पूर्वजन्म के बारे मे!!!!!!

काकभुशुण्डि रामचरितमानस के एक पात्र हैं। संत तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में लिखा है कि काकभुशुण्डि परमज्ञानी रामभक्त हैं। रावण के पुत्र मेघनाथ ने राम से युद्ध करते हुये राम को नागपाश से बाँध दिया था।

देवर्षि नारद के कहने पर गरूड़, जो कि सर्पभक्षी थे, ने नागपाश के समस्त नागों को खाकर राम को नागपाश के बंधन से छुड़ाया। राम के इस तरह नागपाश में बँध जाने पर राम के परमब्रह्म होने पर गरुड़ को सन्देह हो गया। गरुड़ का सन्देह दूर करने के लिये देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्मा जी के पास भेजा। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि तुम्हारा सन्देह भगवान शंकर दूर कर सकते हैं।

 भगवान शंकर ने भी गरुड़ को उनका सन्देह मिटाने के लिये काकभुशुण्डि जी के पास भेज दिया। अन्त में काकभुशुण्डि जी राम के चरित्र की पवित्र कथा सुना कर गरुड़ के सन्देह को दूर किया। गरुड़ के सन्देह समाप्त हो जाने के पश्चात् काकभुशुण्डि जी गरुड़ को स्वयं की कथा सुनाया जो इस प्रकार हैः

पूर्व के एक कल्प में कलियुग का समय चल रहा था। उसी समय काकभुशुण्डि जी का प्रथम जन्म अयोध्या पुरी में एक शूद्र के घर में हुआ। उस जन्म में वे भगवान शिव के भक्त थे किन्तु अभिमानपूर्वक अन्य देवताओं की निन्दा करते थे। एक बार अयोध्या में अकाल पड़ जाने पर वे उज्जैन चले गये। वहाँ वे एक दयालु ब्राह्मण की सेवा करते हुये उन्हीं के साथ रहने लगे।

वे ब्राह्मण भगवान शंकर के बहुत बड़े भक्त थे किन्तु भगवानविष्णु की निन्दा कभी नहीं करते थे। उन्होंने उस शूद्र को शिव जी का मन्त्र दिया। मन्त्र पाकर उसका अभिमान और भी बढ़ गया। वह अन्य द्विजों से ईर्ष्या और भगवान विष्णु से द्रोह करने लगा। उसके इस व्यवहार से उनके गुरु (वे ब्राह्मण) अत्यन्त दुःखी होकर उसे श्री राम की भक्ति का उपदेश दिया करते थे।

एक बार उस शूद्र ने भगवान शंकर के मन्दिर में अपने गुरु, अर्थात् जिस ब्राह्मण के साथ वह रहता था, का अपमान कर दिया। इस पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके उसे शाप दे दिया कि रे पापी! तूने गुरु का निरादर किया है इसलिये तू सर्प की अधम योनि में चला जा और सर्प योनि के बाद तुझे 1000 बार अनेक योनि में जन्म लेना पड़े। गुरु बड़े दयालु थे इसलिये उन्होंने शिव जी की स्तुति करके अपने शिष्य के लिये क्षमा प्रार्थना की।

गुरु के द्वारा क्षमा याचना करने पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके कहा, "हे ब्राह्मण! मेरा शाप व्यर्थ नहीं जायेगा। इस शूद्र को 1000 बार जन्म अवश्य ही लेना पड़ेगा किन्तु जन्मने और मरने में जो दुःसह दुःख होता है वह इसे नहीं होगा और किसी भी जन्म में इसका ज्ञान नहीं मिटेगा। इसे अपने प्रत्येक जन्म का स्मरण बना रहेगा जगत् में इसे कुछ भी दुर्लभ न होगा और इसकी सर्वत्र अबाध गति होगी मेरी कृपा से इसे भगवान श्री राम के चरणों के प्रति भक्ति भी प्राप्त होगी।"

इसके पश्चात् उस शूद्र ने विन्ध्याचल में जाकर सर्प योनि प्राप्त किया। कुछ काल बीतने पर उसने उस शरीर को बिना किसी कष्ट के त्याग दिया वह जो भी शरीर धारण करता था उसे बिना कष्ट के सुखपूर्वक त्याग देता था, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर नया वस्त्र पहन लेता है। प्रत्येक जन्म की याद उसे बनी रहती थी।

श्री रामचन्द्र जी के प्रति भक्ति भी उसमें उत्पन्न हो गई। अन्तिम शरीर उसने ब्राह्मण का पाया। ब्राह्मण हो जाने पर ज्ञानप्राप्ति के लिये वह लोमश ऋषि के पास गया। जब लोमश ऋषि उसे ज्ञान देते थे तो वह उनसे अनेक प्रकार के तर्क-कुतर्क करता था।

उसके इस व्यवहार से कुपित होकर लोमश ऋषि ने उसे शाप दे दिया कि जा तू चाण्डाल पक्षी (कौआ) हो जा। वह तत्काल कौआ बनकर उड़ गया। शाप देने के पश्चात् लोमश ऋषि को अपने इस शाप पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने उस कौए को वापस बुला कर राममन्त्र दिया तथा इच्छा मृत्यु का वरदान भी दिया। कौए का शरीर पाने के बाद ही राममन्त्र मिलने के कारण उस शरीर से उन्हें प्रेम हो गया और वे कौए के रूप में ही रहने लगे तथा काकभुशुण्डि के नाम से विख्यात हुये।

गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

सत्यनारायण व्रत कथा

मित्रोआज गुरुवार है, आज हम आपको भगवान सत्यनारायण की कथा बतायेंगे!!!!!!!

सत्यनारायण व्रत की सम्पूर्ण कथा पांच अध्यायों में। हम अपने पाठकों के लिए पाँचों अध्याय प्रस्तुत कर रहे है।

सत्यनारायण कथा का,पहला अध्याय!!!!!!!!

श्रीव्यास जी ने कहा – एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनक आदि सभी ऋषियों तथा मुनियों ने पुराणशास्त्र के वेत्ता श्रीसूत जी महाराज से पूछा – महामुने! किस व्रत अथवा तपस्या से मनोवांछित फल प्राप्त होता है, उसे हम सब सुनना चाहते हैं, आप कहें।

श्री सूतजी बोले – इसी प्रकार देवर्षि नारदजी के द्वारा भी पूछे जाने पर भगवान कमलापति ने उनसे जैसा कहा था, उसे कह रहा हूं, आप लोग सावधान होकर सुनें। एक समय योगी नारदजी लोगों के कल्याण की कामना से विविध लोकों में भ्रमण करते हुए मृत्युलोक में आये और यहां उन्होंने अपने कर्मफल के अनुसार नाना योनियों में उत्पन्न सभी प्राणियों को अनेक प्रकार के क्लेश दुख भोगते हुए देखा तथा ‘किस उपाय से इनके दुखों का सुनिश्चित रूप से नाश हो सकता है’, ऐसा मन में विचार करके वे विष्णुलोक गये। वहां चार भुजाओं वाले शंख, चक्र, गदा, पद्म तथा वनमाला से विभूषित शुक्लवर्ण भगवान श्री नारायण का दर्शन कर उन देवाधिदेव की वे स्तुति करने लगे।

नारद जी बोले – हे वाणी और मन से परे स्वरूप वाले, अनन्तशक्तिसम्पन्न, आदि-मध्य और अन्त से रहित, निर्गुण और सकल कल्याणमय गुणगणों से सम्पन्न, स्थावर-जंगमात्मक निखिल सृष्टिप्रपंच के कारणभूत तथा भक्तों की पीड़ा नष्ट करने वाले परमात्मन! आपको नमस्कार है।

स्तुति सुनने के अनन्तर भगवान श्रीविष्णु जी ने नारद जी से कहा- महाभाग! आप किस प्रयोजन से यहां आये हैं, आपके मन में क्या है? कहिये, वह सब कुछ मैं आपको बताउंगा।

नारद जी बोले – भगवन! मृत्युलोक में अपने पापकर्मों के द्वारा विभिन्न योनियों में उत्पन्न सभी लोग बहुत प्रकार के क्लेशों से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ! किस लघु उपाय से उनके कष्टों का निवारण हो सकेगा, यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा हो तो वह सब मैं सुनना चाहता हूं। उसे बतायें।

श्री भगवान ने कहा – हे वत्स! संसार के ऊपर अनुग्रह करने की इच्छा से आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस व्रत के करने से प्राणी मोह से मुक्त हो जाता है, उसे आपको बताता हूं, सुनें।

 हे वत्स! स्वर्ग और मृत्युलोक में दुर्लभ भगवान सत्यनारायण का एक महान पुण्यप्रद व्रत है। आपके स्नेह के कारण इस समय मैं उसे कह रहा हूं। अच्छी प्रकार विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण व्रत करके मनुष्य शीघ्र ही सुख प्राप्त कर परलोक में मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

भगवान की ऐसी वाणी सनुकर नारद मुनि ने कहा -प्रभो इस व्रत को करने का फल क्या है? इसका विधान क्या है? इस व्रत को किसने किया और इसे कब करना चाहिए? यह सब विस्तारपूर्वक बतलाइये।

श्री भगवान ने कहा – यह सत्यनारायण व्रत दुख-शोक आदि का शमन करने वाला, धन-धान्य की वृद्धि करने वाला, सौभाग्य और संतान देने वाला तथा सर्वत्र विजय प्रदान करने वाला है।

जिस-किसी भी दिन भक्ति और श्रद्धा से समन्वित होकर मनुष्य ब्राह्मणों और बन्धुबान्धवों के साथ धर्म में तत्पर होकर सायंकाल भगवान सत्यनारायण की पूजा करे। नैवेद्य के रूप में उत्तम कोटि के भोजनीय पदार्थ को सवाया मात्रा में भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिए। केले के फल, घी, दूध, गेहूं का चूर्ण अथवा गेहूं के चूर्ण के अभाव में साठी चावल का चूर्ण, शक्कर या गुड़ – यह सब भक्ष्य सामग्री सवाया मात्रा में एकत्र कर निवेदित करनी चाहिए।

बन्धु-बान्धवों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सुनकर ब्राह्मणों को दक्षिणा देनी चाहिए। तदनन्तर बन्धु-बान्धवों के साथ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।

भक्तिपूर्वक प्रसाद ग्रहण करके नृत्य-गीत आदि का आयोजन करना चाहिए। तदनन्तर भगवान सत्यनारायण का स्मरण करते हुए अपने घर जाना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्यों की अभिलाषा अवश्य पूर्ण होती है। विशेष रूप से कलियुग में, पृथ्वीलोक में यह सबसे छोटा सा उपाय है।

सत्यनारायण कथा का, दूसरा अध्याय!!!!!!!

श्रीसूतजी बोले – हे द्विजों! अब मैं पुनः पूर्वकाल में जिसने इस सत्यनारायण व्रत को किया था, उसे भलीभांति विस्तारपूर्वक कहूंगा। रमणीय काशी नामक नगर में कोई अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण रहता था। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह प्रतिदिन पृथ्वी पर भटकता रहता था। ब्राह्मण प्रिय भगवान ने उस दुखी ब्राह्मण को देखकर वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके उस द्विज से आदरपूर्वक पूछा – हे विप्र! प्रतिदिन अत्यन्त दुखी होकर तुम किसलिए पृथ्वीपर भ्रमण करते रहते हो। हे द्विजश्रेष्ठ! यह सब बतलाओ, मैं सुनना चाहता हूं।

ब्राह्मण बोला – प्रभो! मैं अत्यन्त दरिद्र ब्राह्मण हूं और भिक्षा के लिए ही पृथ्वी पर घूमा करता हूं। यदि मेरी इस दरिद्रता को दूर करने का आप कोई उपाय जानते हों तो कृपापूर्वक बतलाइये।

वृद्ध ब्राह्मण बोला – हे ब्राह्मणदेव! सत्यनारायण भगवान् विष्णु अभीष्ट फल को देने वाले हैं। हे विप्र! तुम उनका उत्तम व्रत करो, जिसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।

व्रत के विधान को भी ब्राह्मण से यत्नपूर्वक कहकर वृद्ध ब्राह्मणरूपधारी भगवान् विष्णु वहीं पर अन्तर्धान हो गये। ‘वृद्ध ब्राह्मण ने जैसा कहा है, उस व्रत को अच्छी प्रकार से वैसे ही करूंगा’ – यह सोचते हुए उस ब्राह्मण को रात में नींद नहीं आयी।

अगले दिन प्रातःकाल उठकर ‘सत्यनारायण का व्रत करूंगा’ ऐसा संकल्प करके वह ब्राह्मण भिक्षा के लिए चल पड़ा। उस दिन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत सा धन प्राप्त हुआ। उसी धन से उसने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान सत्यनारायण का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी दुखों से मुक्त होकर समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न हो गया। उस दिन से लेकर प्रत्येक महीने उसने यह व्रत किया। इस प्रकार भगवान् सत्यनारायण के इस व्रत को करके वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी पापों से मुक्त हो गया और उसने दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त किया।

हे विप्र! पृथ्वी पर जब भी कोई मनुष्य श्री सत्यनारायण का व्रत करेगा, उसी समय उसके समस्त दुख नष्ट हो जायेंगे। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार भगवान नारायण ने महात्मा नारदजी से जो कुछ कहा, मैंने वह सब आप लोगों से कह दिया, आगे अब और क्या कहूं?

हे मुने! इस पृथ्वी पर उस ब्राह्मण से सुने हुए इस व्रत को किसने किया? हम वह सब सुनना चाहते हैं, उस व्रत पर हमारी श्रद्धा हो रही है।

श्री सूत जी बोले – मुनियों! पृथ्वी पर जिसने यह व्रत किया, उसे आप लोग सुनें। एक बार वह द्विजश्रेष्ठ अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार बन्धु-बान्धवों तथा परिवारजनों के साथ व्रत करने के लिए उद्यत हुआ। इसी बीच एक लकड़हारा वहां आया और लकड़ी बाहर रखकर उस ब्राह्मण के घर गया। प्यास से व्याकुल वह उस ब्राह्मण को व्रत करता हुआ देख प्रणाम करके उससे बोला – प्रभो! आप यह क्या कर रहे हैं, इसके करने से किस फल की प्राप्ति होती है, विस्तारपूर्वक मुझसे कहिये।

विप्र ने कहा – यह सत्यनारायण का व्रत है, जो सभी मनोरथों को प्रदान करने वाला है। उसी के प्रभाव से मुझे यह सब महान धन-धान्य आदि प्राप्त हुआ है। जल पीकर तथा प्रसाद ग्रहण करके वह नगर चला गया। सत्यनारायण देव के लिए मन से ऐसा सोचने लगा कि ‘आज लकड़ी बेचने से जो धन प्राप्त होगा, उसी धन से भगवान सत्यनारायण का श्रेष्ठ व्रत करूंगा।’ इस प्रकार मन से चिन्तन करता हुआ लकड़ी को मस्तक पर रख कर उस सुन्दर नगर में गया, जहां धन-सम्पन्न लोग रहते थे। उस दिन उसने लकड़ी का दुगुना मूल्य प्राप्त किया।

इसके बाद प्रसन्न हृदय होकर वह पके हुए केले का फल, शर्करा, घी, दूध और गेहूं का चूर्ण सवाया मात्रा में लेकर अपने घर आया। तत्पश्चात उसने अपने बान्धवों को बुलाकर विधि-विधान से भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह धन-पुत्र से सम्पन्न हो गया और इस लोक में अनेक सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर अर्थात् बैकुण्ठलोक चला गया।

सत्यनारायण कथा का,तीसरा अध्याय!!!!!!!

श्री सूतजी बोले – श्रेष्ठ मुनियों! अब मैं पुनः आगे की कथा कहूंगा, आप लोग सुनें। प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक राजा था। वह जितेन्द्रिय, सत्यवादी तथा अत्यन्त बुद्धिमान था। वह विद्वान राजा प्रतिदिन देवालय जाता और ब्राह्मणों को धन देकर सन्तुष्ट करता था।

 कमल के समान मुख वाली उसकी धर्मपत्नी शील, विनय एवं सौन्दर्य आदि गुणों से सम्पन्न तथा पतिपरायणा थी। राजा एक दिन अपनी धर्मपत्नी के साथ भद्रशीला नदी के तट पर श्रीसत्यनारायण का व्रत कर रहा था। उसी समय व्यापार के लिए अनेक प्रकार की पुष्कल धनराशि से सम्पन्न एक साधु नाम का बनिया वहां आया। भद्रशीला नदी के तट पर नाव को स्थापित कर वह राजा के समीप गया और राजा को उस व्रत में दीक्षित देखकर विनयपूर्वक पूछने लगा।

साधु ने कहा – राजन्! आप भक्तियुक्त चित्त से यह क्या कर रहे हैं? कृपया वह सब बताइये, इस समय मैं सुनना चाहता हूं।

राजा बोले – हे साधो! पुत्र आदि की प्राप्ति की कामना से अपने बन्धु-बान्धवों के साथ मैं अतुल तेज सम्पन्न भगवान् विष्णु का व्रत एवं पूजन कर रहा हूं।

राजा की बात सुनकर साधु ने आदरपूर्वक कहा – राजन् ! इस विषय में आप मुझे सब कुछ विस्तार से बतलाइये, आपके कथनानुसार मैं व्रत एवं पूजन करूंगा। मुझे भी संतति नहीं है।

 ‘इससे अवश्य ही संतति प्राप्त होगी।’ ऐसा विचार कर वह व्यापार से निवृत्त हो आनन्दपूर्वक अपने घर आया। उसने अपनी भार्या से संतति प्रदान करने वाले इस सत्यव्रत को विस्तार पूर्वक बताया तथा – ‘जब मुझे संतति प्राप्त होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा’ – इस प्रकार उस साधु ने अपनी भार्या लीलावती से कहा।

एक दिन उसकी लीलावती नाम की सती-साध्वी भार्या पति के साथ आनन्द चित्त से ऋतुकालीन धर्माचरण में प्रवृत्त हुई और भगवान् श्रीसत्यनारायण की कृपा से उसकी वह भार्या गर्भिणी हुई। दसवें महीने में उससे कन्यारत्न की उत्पत्ति हुई और वह शुक्लपक्ष के चन्द्रम की भांति दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। उस कन्या का ‘कलावती’ यह नाम रखा गया। इसके बाद एक दिन लीलावती ने अपने स्वामी से मधुर वाणी में कहा – आप पूर्व में संकल्पित श्री सत्यनारायण के व्रत को क्यों नहीं कर रहे हैं?

साधु बोला – ‘प्रिये! इसके विवाह के समय व्रत करूंगा।’ इस प्रकार अपनी पत्नी को भली-भांति आश्वस्त कर वह व्यापार करने के लिए नगर की ओर चला गया। इधर कन्या कलावती पिता के घर में बढ़ने लगी। तदनन्तर धर्मज्ञ साधु ने नगर में सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुई अपनी कन्या को विवाह योग्य देखकर आपस में मन्त्रणा करके ‘कन्या विवाह के लिए श्रेष्ठ वर का अन्वेषण करो’ – ऐसा दूत से कहकर शीघ्र ही उसे भेज दिया।

 उसकी आज्ञा प्राप्त करके दूत कांचन नामक नगर में गया और वहां से एक वणिक का पुत्र लेकर आया। उस साधु ने उस वणिक के पुत्र को सुन्दर और गुणों से सम्पन्न देखकर अपनी जाति के लोगों तथा बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्टचित्त हो विधि-विधान से वणिकपुत्र के हाथ में कन्या का दान कर दिया।

उस समय वह साधु बनिया दुर्भाग्यवश भगवान् का वह उत्तम व्रत भूल गया। पूर्व संकल्प के अनुसार विवाह के समय में व्रत न करने के कारण भगवान उस पर रुष्ट हो गये। कुछ समय के पश्चात अपने व्यापारकर्म में कुशल वह साधु बनिया काल की प्रेरणा से अपने दामाद के साथ व्यापार करने के लिए समुद्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नामक सुन्दर नगर में गया और पअने श्रीसम्पन्न दामाद के साथ वहां व्यापार करने लगा। उसके बाद वे दोों राजा चन्द्रकेतु के रमणीय उस नगर में गये। उसी समय भगवान् श्रीसत्यनारायण ने उसे भ्रष्टप्रतिज्ञ देखकर ‘इसे दारुण, कठिन और महान् दुख प्राप्त होगा’ – यह शाप दे दिया।

एक दिन एक चोर राजा चन्द्रकेतु के धन को चुराकर वहीं आया, जहां दोनों वणिक स्थित थे। वह अपने पीछे दौड़ते हुए दूतों को देखकर भयभीतचित्त से धन वहीं छोड़कर शीघ्र ही छिप गया। इसके बाद राजा के दूत वहां आ गये जहां वह साधु वणिक था।

वहां राजा के धन को देखकर वे दूत उन दोनों वणिकपुत्रों को बांधकर ले आये और हर्षपूर्वक दौड़ते हुए राजा से बोले – ‘प्रभो! हम दो चोर पकड़ लाए हैं, इन्हें देखकर आप आज्ञा दें’। राजा की आज्ञा से दोनों शीघ्र ही दृढ़तापूर्वक बांधकर बिना विचार किये महान कारागार में डाल दिये गये। भगवान् सत्यदेव की माया से किसी ने उन दोनों की बात नहीं सुनी और राजा चन्द्रकेतु ने उन दोनों का धन भी ले लिया।

भगवान के शाप से वणिक के घर में उसकी भार्या भी अत्यन्त दुखित हो गयी और उनके घर में सारा-का-सारा जो धन था, वह चोर ने चुरा लिया। लीलावती शारीरिक तथा मानसिक पीड़ाओं से युक्त, भूख और प्यास से दुखी हो अन्न की चिन्ता से दर-दर भटकने लगी।

 कलावती कन्या भी भोजन के लिए इधर-उधर प्रतिदिन घूमने लगी। एक दिन भूख से पीडि़त कलावती एक ब्राह्मण के घर गयी। वहां जाकर उसने श्रीसत्यनारायण के व्रत-पूजन को देखा। वहां बैठकर उसने कथा सुनी और वरदान मांगा। उसके बाद प्रसाद ग्रहण करके वह कुछ रात होने पर घर गयी।

माता ने कलावती कन्या से प्रेमपूर्वक पूछा – पुत्री ! रात में तू कहां रुक गयी थी? तुम्हारे मन में क्या है? कलावती कन्या ने तुरन्त माता से कहा – मां! मैंने एक ब्राह्मण के घर में मनोरथ प्रदान करने वाला व्रत देखा है। कन्या की उस बात को सुनकर वह वणिक की भार्या व्रत करने को उद्यत हुई और प्रसन्न मन से उस साध्वी ने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान् श्रीसत्यनारायण का व्रत किया तथा इस प्रकार प्रार्थना की – ‘भगवन! आप हमारे पति एवं जामाता के अपराध को क्षमा करें। वे दोनों अपने घर शीघ्र आ जायं।’ इस व्रत से भगवान सत्यनारायण पुनः संतुष्ट हो गये तथा उन्होंने नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को स्वप्न दिखाया और स्वप्न में कहा – ‘नृपश्रेष्ठ! प्रातः काल दोनों वणिकों को छोड़ दो और वह सारा धन भी दे दो, जो तुमने उनसे इस समय ले लिया है, अन्यथा राज्य, धन एवं पुत्रसहित तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा।’

राजा से स्वप्न में ऐसा कहकर भगवान सत्यनारायण अन्तर्धान हो गये। इसके बाद प्रातः काल राजा ने अपने सभासदों के साथ सभा में बैठकर अपना स्वप्न लोगों को बताया और कहा – ‘दोनों बंदी वणिकपुत्रों को शीघ्र ही मुक्त कर दो।’ राजा की ऐसी बात सुनकर वे राजपुरुष दोनों महाजनों को बन्धनमुक्त करके राजा के सामने लाकर विनयपूर्वक बोले – ‘महाराज! बेड़ी-बन्धन से मुक्त करके दोनों वणिक पुत्र लाये गये हैं। इसके बाद दोनों महाजन नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को प्रणाम करके अपने पूर्व-वृतान्त का स्मरण करते हुए भयविह्वन हो गये और कुछ बोल न सके।

राजा ने वणिक पुत्रों को देखकर आदरपूर्वक कहा -‘आप लोगों को प्रारब्धवश यह महान दुख प्राप्त हुआ है, इस समय अब कोई भय नहीं है।’, ऐसा कहकर उनकी बेड़ी खुलवाकर क्षौरकर्म आदि कराया। राजा ने वस्त्र, अलंकार देकर उन दोनों वणिकपुत्रों को संतुष्ट किया तथा सामने बुलाकर वाणी द्वारा अत्यधिक आनन्दित किया। पहले जो धन लिया था, उसे दूना करके दिया, उसके बाद राजा ने पुनः उनसे कहा – ‘साधो! अब आप अपने घर को जायं।’ राजा को प्रणाम करके ‘आप की कृपा से हम जा रहे हैं।’ – ऐसा कहकर उन दोनों महावैश्यों ने अपने घर की ओर प्रस्थान किया।

सत्यनारायण कथा का चौथा अध्याय !!!!!!!

श्रीसूत जी बोले – साधु बनिया मंगलाचरण कर और ब्राह्मणों को धन देकर अपने नगर के लिए चल पड़ा। साधु के कुछ दूर जाने पर भगवान सत्यनारायण की उसकी सत्यता की परीक्षा के विषय में जिज्ञासा हुई – ‘साधो! तुम्हारी नाव में क्या भरा है?’ तब धन के मद में चूर दोनों महाजनों ने अवहेलनापूर्वक हंसते हुए कहा – ‘दण्डिन! क्यों पूछ रहे हो? क्या कुछ द्रव्य लेने की इच्छा है? हमारी नाव में तो लता और पत्ते आदि भरे हैं।’ ऐसी निष्ठुर वाणी सुनकर – ‘तुम्हारी बात सच हो जाय’ – ऐसा कहकर दण्डी संन्यासी को रूप धारण किये हुए भगवान कुछ दूर जाकर समुद्र के समीप बैठ गये।

दण्डी के चले जाने पर नित्यक्रिया करने के पश्चात उतराई हुई अर्थात जल में उपर की ओर उठी हुई नौका को देखकर साधु अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया और नाव में लता और पत्ते आदि देखकर मुर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। सचेत होने पर वणिकपुत्र चिन्तित हो गया। तब उसके दामाद ने इस प्रकार कहा – ‘आप शोक क्यों करते हैं? दण्डी ने शाप दे दिया है, इस स्थिति में वे ही चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं।

अतः उन्हीं की शरण में हम चलें, वहीं मन की इच्छा पूर्ण होगी।’ दामाद की बात सुनकर वह साधु बनिया उनके पास गया और वहां दण्डी को देखकर उसने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया तथा आदरपूर्वक कहने लगा – आपके सम्मुख मैंने जो कुछ कहा है, असत्यभाषण रूप अपराध किया है, आप मेरे उस अपराध को क्षमा करें – ऐसा कहकर बारम्बार प्रणाम करके वह महान शोक से आकुल हो गया।

दण्डी ने उसे रोता हुआ देखकर कहा – ‘हे मूर्ख! रोओ मत, मेरी बात सुनो। मेरी पूजा से उदासीन होने के कारण तथा मेरी आज्ञा से ही तुमने बारम्बार दुख प्राप्त किया है।’ भगवान की ऐसी वाणी सुनकर वह उनकी स्तुति करने लगा।

साधु ने कहा – ‘हे प्रभो! यह आश्चर्य की बात है कि आपकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मा आदि देवता भी आपके गुणों और रूपों को यथावत रूप से नहीं जान पाते, फिर मैं मूर्ख आपकी माया से मोहित होने के कारण कैसे जान सकता हूं! आप प्रसन्न हों। मैं अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार आपकी पूजा करूंगा। मैं आपकी शरण में आया हूं। मेरा जो नौका में स्थित पुराा धन था, उसकी तथा मेरी रक्षा करें।’ उस बनिया की भक्तियुक्त वाणी सुनकर भगवान जनार्दन संतुष्ट हो गये।

भगवान हरि उसे अभीष्ट वर प्रदान करके वहीं अन्तर्धान हो गये। उसके बाद वह साधु अपनी नौका में चढ़ा और उसे धन-धान्य से परिपूर्ण देखकर ‘भगवान सत्यदेव की कृपा से हमारा मनोरथ सफल हो गया’ – ऐसा कहकर स्वजनों के साथ उसने भगवान की विधिवत पूजा की।

 भगवान श्री सत्यनारायण की कृपा से वह आनन्द से परिपूर्ण हो गया और नाव को प्रयत्नपूर्वक संभालकर उसने अपने देश के लिए प्रस्थान किया। साधु बनिया ने अपने दामाद से कहा – ‘वह देखो मेरी रत्नपुरी नगरी दिखायी दे रही है’। इसके बाद उसने अपने धन के रक्षक दूत कोअपने आगमन का समाचार देने के लिए अपनी नगरी में भेजा।

उसके बाद उस दूत ने नगर में जाकर साधु की भार्या को देख हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा उसके लिए अभीष्ट बात कही -‘सेठ जी अपने दामाद तथा बन्धुवर्गों के साथ बहुत सारे धन-धान्य से सम्पन्न होकर नगर के निकट पधार गये हैं।

’ दूत के मुख से यह बात सुनकर वह महान आनन्द से विह्वल हो गयी और उस साध्वी ने श्री सत्यनारायण की पूजा करके अपनी पुत्री से कहा -‘मैं साधु के दर्शन के लिए जा रही हूं, तुम शीघ्र आओ।’ माता का ऐसा वचन सुनकर व्रत को समाप्त करके प्रसाद का परित्याग कर वह कलावती भी अपने पति का दर्शन करने के लिए चल पड़ी। इससे भगवान सत्यनारायण रुष्ट हो गये और उन्होंने उसके पति को तथा नौका को धन के साथ हरण करके जल में डुबो दिया।

इसके बाद कलावती कन्या अपने पति को न देख महान शोक से रुदन करती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। नाव का अदर्शन तथा कन्या को अत्यन्त दुखी देख भयभीत मन से साधु बनिया से सोचा – यह क्या आश्चर्य हो गया? नाव का संचालन करने वाले भी सभी चिन्तित हो गये।

 तदनन्तर वह लीलावती भी कन्या को देखकर विह्वल हो गयी और अत्यन्त दुख से विलाप करती हुई अपने पति से इस प्रकार बोली -‘ अभी-अभी नौका के साथ वह कैसे अलक्षित हो गया, न जाने किस देवता की उपेक्षा से वह नौका हरण कर ली गयी अथवा श्रीसत्यनारायण का माहात्म्य कौन जान सकता है!’ ऐसा कहकर वह स्वजनों के साथ विलाप करने लगी और कलावती कन्या को गोद में लेकर रोने लगी।

कलावती कन्या भी अपने पति के नष्ट हो जाने पर दुखी हो गयी और पति की पादुका लेकर उनका अनुगमन करने के लिए उसने मन में निश्चय किया। कन्या के इस प्रकार के आचरण को देख भार्यासहित वह धर्मज्ञ साधु बनिया अत्यन्त शोक-संतप्त हो गया और सोचने लगा – या तो भगवान सत्यनारायण ने यह अपहरण किया है अथवा हम सभी भगवान सत्यदेव की माया से मोहित हो गये हैं।

अपनी धन शक्ति के अनुसार मैं भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा करूंगा। सभी को बुलाकर इस प्रकार कहकर उसने अपने मन की इच्छा प्रकट की और बारम्बार भगवान सत्यदेव को दण्डवत प्रणाम किया। इससे दीनों के परिपालक भगवान सत्यदेव प्रसन्न हो गये।

भक्तवत्सल भगवान ने कृपापूर्वक कहा – ‘तुम्हारी कन्या प्रसाद छोड़कर अपने पति को देखने चली आयी है, निश्चय ही इसी कारण उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि घर जाकर प्रसाद ग्रहण करके वह पुनः आये तो हे साधु बनिया तुम्हारी पुत्री पति को प्राप्त करेगी, इसमें संशय नहीं।

कन्या कलावती भी आकाशमण्डल से ऐसी वाणी सुनकर शीघ्र ही घर गयी और उसने प्रसाद ग्रहण किया। पुनः आकर स्वजनों तथा अपने पति को देखा। तब कलावती कन्या ने अपने पिता से कहा – ‘अब तो घर चलें, विलम्ब क्यों कर रहे हैं?’ कन्या की वह बात सुनकर वणिकपुत्र संतुष्ट हो गया और विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण का पूजन करके धन तथा बन्धु-बान्धवों के साथ अपने घर गया। तदनन्तर पूर्णिमा तथा संक्रान्ति पर्वों पर भगवान सत्यनारायण का पूजन करते हुए इस लोक में सुख भोगकर अन्त में वह सत्यपुर बैकुण्ठलोक में चला गया।

सत्यनारायण कथा का पांचवा अध्याय !!!!!!

श्रीसूत जी बोले – श्रेष्ठ मुनियों! अब इसके बाद मैं दूसरी कथा कहूंगा, आप लोग सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर तुंगध्वज नामक एक राजा था। उसने सत्यदेव के प्रसाद का परित्याग करके दुख प्राप्त किया। एक बाद वह वन में जाकर और वहां बहुत से पशुओं को मारकर वटवृक्ष के नीचे आया। वहां उसने देखा कि गोपगण बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा कर रहे हैं।

राजा यह देखकर भी अहंकारवश न तो वहां गया और न उसे भगवान सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। पूजन के बाद सभी गोपगण भगवान का प्रसाद राजा के समीप रखकर वहां से लौट आये और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसाद का परित्याग करने से बहुत दुख हुआ।

उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य ही भगवान सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है। इसलिए मुझे वहां जाना चाहिए जहां श्री सत्यनारायण का पूजन हो रहा था।

 ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों के समीप गया और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा की। भगवान सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुआ।

श्रीसूत जी कहते हैं – जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्री सत्यनारायण के व्रत को करता है और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी भगवान की कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है, उसे भगवान सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है।

दरिद्र धनवान हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धन से मुक्त हो जाता है, डरा हुआ व्यक्ति भय मुक्त हो जाता है – यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। इस लोक में वह सभी ईप्सित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को जाता है। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।

कलियुग में तो भगवान सत्यदेव की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। भगवान विष्णु को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं। कलियुग में सनातन भगवान विष्णु ही सत्यव्रत रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करने वाले होंगे।

 हे श्रेष्ठ मुनियों! जो व्यक्ति नित्य भगवान सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान सत्यारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। हे मुनीश्वरों! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान सत्यनारायण का व्रत किया था, उसके अगले जन्म का वृतान्त कहता हूं, आप लोग सुनें।

महान प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नाम के ब्राह्मण सत्यनारायण व्रत करने के प्रभाव से दूसे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। लकड़हारा भिल्ल गुहों का राजा हुआ और अगले जन्म में उसने भगवान श्रीराम की सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया।

 महाराज उल्कामुख दूसरे जन्म में राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरंगनाथजी की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया। इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में मोरध्वज नामक राजा हुआ। उसने आरे सेचीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान विष्णु को अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया।

महाराजा तुंगध्वज जन्मान्तर में स्वायम्भुव मनु हुए और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए। जो गोपगण थे, वे सब जन्मान्तर में व्रजमण्डल में निवास करने वाले गोप हुए और सभी राक्षसों का संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वत धाम गोलोक प्राप्त किया।

श्री सत्यनारायण व्रत कथा सम्पूर्ण

सत्यनारायण पूजन सामग्री !!!!!

सत्यनारायण पूजा में केले के पत्ते व फल के अलावा पंचामृत, पंचगव्य, सुपारी, पान, तिल, मोली, रोली, कुमकुम, दूर्वा की आवश्यकता होती जिनसे भगवान की पूजा होती है। सत्यनारायण की पूजा के लिए दूध, मधु, केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार किया जाता है जो भगवान को काफी पसंद है। इन्हें प्रसाद के तर पर फल, मिष्टान के अलावा आटे को भून कर उसमें चीनी मिलाकर एक प्रसाद बनता है, वह भी भोग लगता है।

सत्यनारायणकथा की पूजन विधि !!!!!!!

जो व्यक्ति सत्यनारायण की पूजा का संकल्प लेते हैं उन्हें दिन भर व्रत रखना चाहिए। पूजन स्थल को गाय के गोबर से पवित्र करके वहां एक अल्पना बनाएं और उस पर पूजा की चौकी रखें। इस चौकी के चारों पाये के पास केले का वृक्ष लगाएं। इस चौकी पर ठाकुर जी और श्री सत्यनारायण की प्रतिमा स्थापित करें।

 पूजा करते समय सबसे पहले गणपति की पूजा करें फिर इन्द्रादि दशदिक्पाल की और क्रमश: पंच लोकपाल, सीता सहित राम, लक्ष्मण की, राधा कृष्ण की। इनकी पूजा के पश्चात ठाकुर जी व सत्यनारायण की पूजा करें।

 इसके बाद लक्ष्मी माता की और अंत में महादेव और ब्रह्मा जी की पूजा करें। पूजा के बाद सभी देवों की आरती करें और चरणामृत लेकर प्रसाद वितरण करें। पुरोहित जी को दक्षिणा एवं वस्त्र दे व भोजन कराएं। पुराहित जी के भोजन के पश्चात उनसे आशीर्वाद लेकर आप स्वयं भोजन करें।

बुधवार, 24 अप्रैल 2019

हिन्दू देवी-देवताओं का समूह और उनके कार्य



सर्वोच्च शक्ति परमेश्वर के बाद हिन्दू धर्म में देवी और देवताओं का क्रम आता है। देवताओं जैसे को देवगण कहते हैं। देवगण भी देवताओं के लिए कार्य करते हैं। देवताओं के देवता अर्थात देवाधिदेव महादेव हैं तो देवगणों के अधिपति भगवान गणेशजी हैं। जैसे शिव के गण होते हैं उसी तरह देवों के भी गण होते हैं। गण का अर्थ है वर्ग, समूह, समुदाय। जहां राजा वहीं मंत्री इसी प्रकार जहां देवता वहां देवगण भी। देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं, तो दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य।

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्याविश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च॥
गंधर्वयक्षासुरसिद्धसङ्‍घावीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥॥11-22॥

अर्थात : जो 11 रुद्र और 12 आदित्य तथा 8 वसु, साध्यगण, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार तथा मरुद्गण और पितरों का समुदाय तथा गंधर्व, यक्ष, राक्षस और सिद्धों के समुदाय हैं, वे सब ही विस्मित होकर आपको देखते हैं।

आदित्य-विश्व-वसवस् तुषिताभास्वरानिलाः
महाराजिक-साध्याश् च रुद्राश् च गणदेवताः ॥10॥-नामलिङ्गानुशासनम्

कुल 424 देवता और देवगण हैं : - वेदों के अनुसार प्रमुख 33 देवता हैं, 36 तुषित, 10 विश्वेदेवा, 12 साध्यदेव, 64 आभास्वर, 49 मरुत्, 220 महाराजिक मिलाकर कुल 424 देवता और देवगण हैं। देवगण अर्थात देवताओं के गण, जो उनके लिए कार्य करते हैं। हालांकि गणों की संख्या अनंत है, लेकिन 3 देव के अलावा देवताओं की संख्या 33 ही है। इसके अलावा प्रमुख 10 आंगिरसदेव और 9 देवगणों की संख्या भी बताई गई है। महाराजिकों की कहीं कहीं संख्या 236 और 226 भी मिलती है।

त्रिदेव : - हिन्दू धर्म में सर्वप्रथम त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश महत्वपूर्ण हैं। उक्त त्रिदेव के जनक हैं सदाशिव और दुर्गा। उक्त त्रिदेव की पत्नियां हैं- सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती। पार्वती अपने पूर्व जन्म में सती थीं। उल्लेखनीय है कि राम, कृष्ण और बुद्ध आदि को देवता नहीं, भगवान विष्णु का अवतार कहा गया है।

देवकुल :  - देवकुल में मुख्‍यत: 33 देवता हैं। इन 33 देवताओं के अलावा मरुद्गणों और यक्षों को भी देवताओं के समूह में शामिल किया गया है। त्रिदेवों ने सभी देवताओं को अलग-अलग कार्य पर नियुक्त किया है। वर्तमान मन्वन्तर में ब्रह्मा के पौत्र कश्यप से ही देवता और दैत्यों के कुल का निर्माण हुआ। ऋषि कश्यप ब्रह्माजी के मानस-पुत्र मरीची के विद्वान पुत्र थे। इनकी माता 'कला' कर्दम ऋषि की पुत्री और कपिल देव की बहन थीं। महर्षि कश्यप की अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सुरसा, तिमि, विनता, कद्रू, पतांगी और यामिनी आदि पत्नियां बनीं।

ऋषि कश्यप का कुल?

त्रिदेव : ब्रह्मा, विष्णु और महेश।
त्रिदेवी : सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती।

पार्वती ही पिछले जन्म में सती थीं। सती के ही 10 रूप 10 महाविद्या के नाम से विख्यात हुए और उन्हीं को 9 दुर्गा कहा गया है। आदिशक्ति मां दुर्गा और पार्वती अलग-अलग हैं। दुर्गा सर्वोच्च शक्ति हैं, लेकिन उन्हें कहीं कहीं पार्वती के रूप में भी दर्शाया गया है।

*प्रमुख 33 देवता:- 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवता होते हैं। कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं, रुद्र ही शिव और आदित्यों में एक विष्णु हैं।

*देवताओं के गण:- 33 देवताओं के अतिरिक्त ये गण और माने गए हैं- 36 तुषित, 10 विश्वेदेवा, 12 साध्य, 64 आभास्वर, 49 मरुत, 220 महाराजिक। इस प्रकार वैदिक देवताओं के गण और परवर्ती देवगणों को मिलाकर कुल संख्या 424 होती है। उक्त सभी गणों के अधिपति भगवान गणेश हैं। गणाधि‍पति गजानन गणेश। गणेश की आराधना करने से सभी की आराधना हो जाती है।

*12 आदित्य- 1. अंशुमान, 2. अर्यमन, 3. इन्द्र, 4. त्वष्टा, 5. धातु, 6. पर्जन्य, 7. पूषा, 8. भग, 9. मित्र, 10. वरुण, 11. विवस्वान और 12. विष्णु।

*8 वसु : 1. आप, 2. ध्रुव, 3. सोम, 4. धर, 5. अनिल, 6. अनल, 7. प्रत्युष और 8. प्रभाष।

*11 रुद्र- 1. शम्भू, 2. पिनाकी, 3. गिरीश, 4. स्थाणु, 5. भर्ग, 6. भव, 7. सदाशिव, 8. शिव, 9. हर, 10. शर्व और 11. कपाली। इन 11 रुद्र देवताओं को यक्ष और दस्युजनों का देवता माना गया है।

अन्य पुराणों में रुद्रों के अलग-अलग नाम हैं- मनु, मन्यु, शिव, महत, ऋतुध्वज, महिनस, उम्रतेरस, काल, वामदेव, भव और धृत-ध्वज ये 11 रुद्र देव हैं। इनके पुराणों में अलग-अलग नाम मिलते हैं।

*2 अश्विनी कुमार : 1. नासत्य और 2. दस्त्र। अश्विनीकुमार त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के 2 पुत्र हैं। ये आयुर्वेद के आदि आचार्य माने जाते हैं।

12 साध्यदेव : - अनुमन्ता, प्राण, नर, वीर्य्य, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभव और विभु ये 12 साध्य देव हैं, जो दक्षपुत्री और धर्म की पत्नी साध्या से उत्पन्न हुए हैं। इनके नाम कहीं कहीं इस तरह भी मिलते हैं:- मनस, अनुमन्ता, विष्णु, मनु, नारायण, तापस, निधि, निमि, हंस, धर्म, विभु और प्रभु।

64 अभास्वर : - तमोलोक में 3 देवनिकाय हैं- अभास्वर, महाभास्वर और सत्यमहाभास्वर। ये देव भूत, इंद्रिय और अंत:करण को वश में रखने वाले होते हैं।

12 यामदेव :  - यदु ययाति देव तथा ऋतु, प्रजापति आदि यामदेव कहलाते हैं।
10 विश्वदेव : पुराणों में दस विश्‍वदेवों को उल्लेख मिलता है जिनका अंतरिक्ष में एक अलग ही लोक है।

49 मरुतगण : - मरुतगण देवता नहीं हैं, लेकिन वे देवताओं के सैनिक हैं। वेदों में इन्हें रुद्र और वृश्नि का पुत्र कहा गया है तो पुराणों में कश्यप और दिति का पुत्र माना गया है। मरुतों का एक संघ है जिसमें कुल 180 से अधिक मरुतगण सदस्य हैं, लेकिन उनमें 49 प्रमुख हैं। उनमें भी 7 सैन्य प्रमुख हैं। मरुत देवों के सैनिक हैं और इन सभी के गणवेश समान हैं। वेदों में मरुतगण का स्थान अंतरिक्ष लिखा है। उनके घोड़े का नाम 'पृशित' बतलाया गया है तथा उन्हें इंद्र का सखा लिखा है।-(ऋ. 1.85.4)। पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है। अस्त्र-शस्त्र से लैस मरुतों के पास विमान भी होते थे। ये फूलों और अंतरिक्ष में निवास करते हैं।

7 मरुतों के नाम निम्न हैं- 1. आवह, 2. प्रवह, 3. संवह, 4. उद्वह, 5. विवह, 6. परिवह और 7. परावह। इनके 7-7 गण निम्न जगह विचरण करते हैं- ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह से कुल 49 मरुत हो जाते हैं, जो देव रूप में देवों के लिए विचरण करते हैं।

30 तुषित : -  30 देवताओं का एक ऐसा समूह है जिन्होंने अलग-अलग मन्वंतरों में जन्म लिया था। स्वारोचिष नामक ‍द्वितीय मन्वंतर में देवतागण पर्वत और तुषित कहलाते थे। देवताओं का नरेश विपश्‍चित था और इस काल के सप्त ऋषि थे- उर्ज, स्तंभ, प्रज्ञ, दत्तोली, ऋषभ, निशाचर, अखरिवत, चैत्र, किम्पुरुष और दूसरे कई मनु के पुत्र थे।

बौद्ध धर्मग्रंथों में भी वसुबंधु बोधिसत्व तुषित के नाम का उल्लेख मिलता है। तुषित नामक एक स्वर्ग और एक ब्रह्मांड भी है। पौराणिक संदर्भों के अनुसार चाक्षुष मन्वंतर में तुषित नामक 12 श्रेष्ठगणों ने 12 आदित्यों के रूप में महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से जन्म लिया। पुराणों में स्वारोचिष मन्वंतर में तुषिता से उत्पन्न तुषित देवगण के पूर्व व अपर मन्वंतरों में जन्मों का वृत्तांत मिलता है। स्वायम्भुव मन्वंतर में यज्ञपुरुष व दक्षिणा से उत्पन्न तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शांति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव व रोचन नामक 12 पुत्रों के तुषित नामक देव होने का उल्लेख मिलता है।

अन्य देव- गणाधिपति गणेश, कार्तिकेय, धर्मराज, चित्रगुप्त, अर्यमा, हनुमान, भैरव, वन, अग्निदेव, कामदेव, चंद्र, यम, शनि, सोम, ऋभुः, द्यौः, सूर्य, बृहस्पति, वाक, काल, अन्न, वनस्पति, पर्वत, धेनु, सनकादि, गरूड़, अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कार्कोटक, पिंगला, जय, विजय आदि।

अन्य देवी- भैरवी, यमी, पृथ्वी, पूषा, आपः सविता, उषा, औषधि, अरण्य, ऋतु त्वष्टा, सावित्री, गायत्री, श्री, भूदेवी, श्रद्धा, शचि, दिति, अदिति आदि।

गायत्री मंत्र अनुसर 24 देवताओं के नाम दर्ज हैं:
1-अग्नि, 2-वायु, 3-सूर्य, 4-कुबेर, 5-यम, 6-वरुण, 7-बृहस्पति, 8-पर्जन्य, 9-इन्द्र, 10-गंधर्व, 11-प्रोष्ठ, 12-मित्रावरुण, 13-त्वष्टा, 14-वासव, 15-मरुत, 16-सोम, 17- अंगिरा, 18- विश्वेदेवा, 19-अश्विनीकुमार, 20-पूषा, 21-रुद्र, 22-विद्युत, 23-ब्रह्मा, 24-अदिति।

देवताओं का वर्गीकरण कई प्रकार से हुआ है, इनमें 4 प्रकार मुख्य हैं-

1. पहला स्थान क्रम से : - द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करने वाले देवता, मध्य स्थानीय यानी अंतरिक्ष में निवास करने वाले देवता और तीसरे पृथ्वी स्थानीय यानी पृथ्वी पर रहने वाले देवता माने जाते हैं।

2. दूसरा परिवार क्रम से : - इन देवताओं में आदित्य, वसु, रुद्र आदि को गिना जाता है।

3. तीसरा वर्ग क्रम से : - इन देवताओं में इन्द्रावरुण, मित्रावरुण आदि देवता आते हैं।

4. चौथे समूह क्रम से : -  इन देवताओं में सर्व देवा आदि की गिनती की जाती है।
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1. स्व: (स्वर्ग) लोक के देवता- सूर्य, वरुण, मित्र

2. भूव: (अंतरिक्ष) लोक के देवता- पर्जन्य, वायु, इंद्र और मरुत

3. भू: (धरती) लोक- पृथ्वी, उषा, अग्नि और सोम आदि।
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1. आकाश के देवता अर्थात स्व: (स्वर्ग)- सूर्य, वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत, आदित्यगण, अश्विनद्वय आदि।

2. अंतरिक्ष के देवता अर्थात भूव: (अंतरिक्ष)- पर्जन्य, वायु, इंद्र, मरुत, रुद्र, मातरिश्वन, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहितर्बुध्न्य।

3. पृथ्वी के देवता अर्थात भू: (धरती)- पृथ्वी, ऊषा, अग्नि, सोम, बृहस्पति, नद‍ियां आदि।

4. पाताल लोक के देवता- उक्त 3 लोक के अलावा पितृलोक और पाताल के भी देवता नियुक्त हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है। पितरों के देवता अर्यमा हैं। पाताल के देवाता शेष और वासुकि हैं।

5. पितृलोक के देवता:- दिव्य पितर की जमात के सदस्यगण : अग्रिष्वात्त, बर्हिषद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये 9 दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं। पुराण के अनुसार दिव्य पितरों के अधिपति अर्यमा का उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र निवास लोक है।

6. नक्षत्र के अधिपति : - चैत्र मास में धाता, वैशाख में अर्यमा, ज्येष्ठ में मित्र, आषाढ़ में वरुण, श्रावण में इंद्र, भाद्रपद में विवस्वान, आश्विन में पूषा, कार्तिक में पर्जन्य, मार्गशीर्ष में अंशु, पौष में भग, माघ में त्वष्टा एवं फाल्गुन में विष्णु। इन नामों का स्मरण करते हुए सूर्य को अर्घ्य देने का विधान है।

10 दिशा के 10 दिग्पाल : -  ऊर्ध्व के ब्रह्मा, ईशान के शिव व ईश, पूर्व के इंद्र, आग्नेय के अग्नि या वह्रि, दक्षिण के यम, नैऋत्य के नऋति, पश्चिम के वरुण, वायव्य के वायु और मारुत, उत्तर के कुबेर और अधो के अनंत।

किस देवता का कौन सा है कार्य ??????

ब्रह्मा : ब्रह्मा को जन्म देने वाला कहा गया है।
विष्णु : विष्णु को पालन करने वाला कहा गया है।
महेश : महेश को संसार से ले जाने वाला कहा गया है।

त्रिमूर्ति:- भगवान ब्रह्मा-सरस्वती (सर्जन तथा ज्ञान), विष्णु-लक्ष्मी (पालन तथा साधन) और शिव-पार्वती (विसर्जन तथा शक्ति)। कार्य विभाजन अनुसार पत्नियां ही पतियों की शक्तियां हैं।

इंद्र :- बारिश और विद्युत को संचालित करते हैं। प्रत्येक मन्वंतर में एक इंद्र हुए हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं- यज्न, विपस्चित, शीबि, विधु, मनोजव, पुरंदर, बाली, अद्भुत, शांति, विश, रितुधाम, देवास्पति और सुचि।

अग्नि :- अग्नि का दर्जा इन्द्र से दूसरे स्थान पर है। देवताओं को दी जाने वाली सभी आहूतियां अग्नि के द्वारा ही देवताओं को प्राप्त होती हैं। बहुत सी ऐसी आत्माएं है जिनका शरीर अग्निरूप में है, प्रकाश रूप में नहीं।

सूर्य:- प्रत्यक्ष सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है तो इस नाम से एक देवता भी हैं। दोनों ही देवता हैं। कर्ण सूर्य पुत्र ही था। सूर्य का कार्य मुख्य सचिव जैसा है। सूर्यदेव जगत के समस्त प्राणियों को जीवनदान देते हैं।

वायु:- वायु को पवनदेव भी कहा जाता है। वे सर्वव्यापक हैं। उनके बगैर एक पत्ता तक नहीं हिल सकता और बिना वायु के सृष्टि का समस्त जीवन क्षणभर में नष्ट हो जाएगा। पवनदेव के अधीन रहती है जगत की समस्त वायु।

वरुण :- वरुणदेव का जल जगत पर शासन है। उनकी गणना देवों और दैत्यों दोनों में की जाती है। वरुण को बर्फ के रूप में रिजर्व स्टॉक रखना पड़ता है और बादल के रूप में सभी जगहों पर आपूर्ति भी करना पड़ती है।

यमराज- यमराज सृष्टि में मृत्यु के विभागाध्यक्ष हैं। सृष्टि के प्राणियों के भौतिक शरीरों के नष्ट हो जाने के बाद उनकी आत्माओं को उचित स्थान पर पहुंचाने और शरीर के हिस्सों को पांचों तत्व में विलीन कर देते हैं। वे मृत्यु के देवता हैं।

कुबेर:- कुबेर धन के अधिपति और देवताओं के कोषाध्यक्ष हैं।

मित्र:- मित्रःदेव देव और देवगणों के बीच संपर्क का कार्य करते हैं। वे ईमानदारी, मित्रता तथा व्यावहारिक संबंधों के प्रतीक देवता हैं।

कामदेव:- कामदेव और रति सृष्टि में समस्त प्रजनन क्रिया के निदेशक हैं। उनके बिना सृष्टि की कल्पना ही नहीं की जा सकती। पौराणिक कथानुसार कामदेव का शरीर भगवान शिव ने भस्म कर दिया था अतः उन्हें अनंग (बिना शरीर) भी कहा जाता है। इसका अर्थ यह है कि काम एक भाव मात्र है जिसका भौतिक वजूद नहीं होता।

अदिति और दिति को भूत, भविष्य, चेतना तथा उपजाऊपन की देवी माना जाता है।

धर्मराज और चित्रगुप्त:- संसार के लेखा-जोखा कार्यालय को संभालते हैं और यमराज, स्वर्ग तथा नरक के मुख्यालयों में तालमेल भी कराते रहते हैं।

अर्यमा या अर्यमन:- यह आदित्यों में से एक हैं और देह छोड़ चुकी आत्माओं के अधिपति हैं अर्थात पितरों के देव।

गणेश:- शिवपुत्र गणेशजी को देवगणों का अधिपति नियुक्त किया गया है। वे बुद्धिमत्ता और समृद्धि के देवता हैं। विघ्ननाशक की ऋद्धि और सिद्धि नामक दो पत्नियां हैं।

कार्तिकेय:- कार्तिकेय वीरता के देव हैं तथा वे देवताओं के सेनापति हैं। उनका एक नाम स्कंद भी है। उनका वाहन मोर है तथा वे भगवान शिव के पुत्र हैं। दक्षिण भारत में उनकी पूजा का प्रचलन है। इराक, सीरिया आदि जगहों पर रह रहे यजीदियों को उनकी ही कौम का माना जाता है, जो आज दरबदर हैं।

देवऋषि नारद:- नारद देवताओं के ऋषि हैं तथा चिरंजीवी हैं। वे तीनों लोकों में विचरने में समर्थ हैं। वे देवताओं के संदेशवाहक और गुप्तचर हैं। सृष्टि में घटित होने वाली सभी घटनाओं की जानकारी देवऋषि नारद के पास होती है।

हनुमान- देवताओं में सबसे शक्तिशाली देव रामदूत हनुमानजी अभी भी सशरीर हैं और उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त है। वे पवनदेव के पुत्र हैं। बुद्धि और बल देने वाले देवता हैं। उनका नाम मात्र लेने से सभी तरह की बुरी शक्तियां और संकटों का खात्मा हो जाता है।

देवताओं के नाम का अर्थ!!!!!

ईश्वर का उनके गुणों के आधार पर देववाची नामकरण किया गया है, जैसे अग्नि- तेजस्वी। प्रजापति- प्रजा का पालन करने वाला। इन्द्र- ऐश्वर्यवान। ब्रह्मा- बनाने वाला। विष्णु- व्यापक। रुद्र- भयंकर। शिव- कल्याण चाहने वाला। मातरिश्वा- अत्यंत बलवान। वायु- वेगवान। आदित्य- अविनाशी। मित्र- मित्रता रखने वाला। वरुण- ग्रहण करने योग्य। अर्यमा- न्यायवान। सविता- उत्पादक।

कुबेर- व्यापक। वसु- सब में बसने वाला। चंद्र- आनंद देने वाला। मंगल- कल्याणकारी। बुध- ज्ञानस्वरूप। बृहस्पति- समस्त ब्रह्माण्डों का स्वामी। शुक्र- पवित्र। शनिश्चर- सहज में प्राप्त होने वाला। राहु- निर्लिप्त। केतु- निर्दोष। निरंजन- कामनारहित। गणेश- प्रजा का स्वामी। धर्मराज- धर्म का स्वामी। यम- फलदाता। काल- समय रूप। शेष- उत्पत्ति और प्रलय से बचा हुआ। शंकर- कल्याण करने वाला।

सोमवार, 22 अप्रैल 2019

शिव तांडव स्तोत्र अर्थ सहित


रावण द्वारा रचित शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करने से होती है हर प्रकार की सिद्धि…… शिव तांडव स्‍त्रोत भावार्थ सहित,,

मंत्र व स्तोत्र में बड़ी शक्ति होती है | स्तोत्र में अभीष्ट आराध्य की विशेष रूप में स्तुति होती है जो मानव के लिए शुभ फलप्रद मानी जाती है | प्रत्येक देवी देवताओं के विभिन्न मंत्र व स्तोत्र वेदों व पुराणों में उल्लेखित हैं।

ऐसा ही एक स्तोत्र है शिवतांडव स्तोत्र जिसके माध्यम से आप न केवल धन सम्पति पा सकते हैं बल्कि जीवन में आने वाली समस्त बाधाओं को दूर भी किया जा सकता है।शिवतांडव स्तोत्र लंकाधिपति रावण द्वारा रचा गया है, इसकी कठिन शब्दावली और अद्वितीय काव्य रचना इसे अन्य स्तोत्रों से अलग बनाती है |

मान्यता है की रावण ने कैलाश पर्वत ही उठा लिया था और जब पूरे पर्वत को ही लंका ले चलने को हठी हुआ तो भगवान शिव ने अपने अंगूठे से तनिक सा दबाया तो कैलाश पर्वत पुन: वही अवस्थित हो गया।

जिससे शिव के अनन्य भक्त रावण का हाथ दब गया और वह पीड़ित हो उठा और भगवान शंकर से क्षमा करें क्षमा करें बोल स्तुति करने लग गया जो कालांतर में शिवतांडव स्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई | जिसमें 17 श्लोक हैं।

रावण द्वारा रचित शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करने से होती है हर प्रकार की सिद्धि…… शिव तांडव स्‍त्रोत

जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥

सघन जटामंडल रूप वन से प्रवाहित होकर श्री गंगाजी की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ प्रदेश को प्रक्षालित (धोती) करती हैं, और जिनके गले में लंबे-लंबे बड़े-बड़े सर्पों की मालाएँ लटक रही हैं तथा जो शिवजी डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्याण करें।

जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥

अति अम्भीर कटाहरूप जटाओं में अतिवेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की चंचल लहरें जिन शिवजी के शीश पर लहरा रही हैं तथा जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालाएँ धधक कर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल चंद्रमा से विभूषित मस्तक वाले शिवजी में मेरा अनुराग (प्रेम) प्रतिक्षण बढ़ता रहे।

धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर-
स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे ।
कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥

पर्वतराजसुता के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परम आनंदित चित्त वाले (माहेश्वर) तथा जिनकी कृपादृष्टि से भक्तों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, ऐसे (दिशा ही हैं वस्त्र जिसके) दिगम्बर शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा।

जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।
मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥

जटाओं में लिपटे सर्प के फण के मणियों के प्रकाशमान पीले प्रभा-समूह रूप केसर कांति से दिशा बंधुओं के मुखमंडल को चमकाने वाले, मतवाले, गजासुर के चर्मरूप उपरने से विभूषित, प्राणियों की रक्षा करने वाले शिवजी में मेरा मन विनोद को प्राप्त हो।

सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-
प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः
श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥

इंद्रादि समस्त देवताओं के सिर से सुसज्जित पुष्पों की धूलिराशि से धूसरित पादपृष्ठ वाले सर्पराजों की मालाओं से विभूषित जटा वाले प्रभु हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।

ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-
निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्‌ ।
सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं
महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः ॥6॥

इंद्रादि देवताओं का गर्व नाश करते हुए जिन शिवजी ने अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से कामदेव को भस्म कर दिया, वे अमृत किरणों वाले चंद्रमा की कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटा वाले, तेज रूप नर मुंडधारी शिवजीहमको अक्षय सम्पत्ति दें।

कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके ।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥7॥

जलती हुई अपने मस्तक की भयंकर ज्वाला से प्रचंड कामदेव को भस्म करने वाले तथा पर्वत राजसुता के स्तन के अग्रभाग पर विविध भांति की चित्रकारी करने में अति चतुर त्रिलोचन में मेरी प्रीति अटल हो।

नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः ।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥

नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण अमावस्याओं की रात्रि के घने अंधकार की तरह अति गूढ़ कंठ वाले, देव नदी गंगा को धारण करने वाले, जगचर्म से सुशोभित, बालचंद्र की कलाओं के बोझ से विनम, जगत के बोझ को धारण करने वाले शिवजी हमको सब प्रकार की सम्पत्ति दें।

प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-
विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥

फूले हुए नीलकमल की फैली हुई सुंदर श्याम प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कंधे वाले, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों के काटने वाले, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुरहंता, अंधकारसुरनाशक और मृत्यु के नष्ट करने वाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।

अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-
रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌ ।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥

कल्याणमय, नाश न होने वाली समस्त कलाओं की कलियों से बहते हुए रस की मधुरता का आस्वादन करने में भ्रमररूप, कामदेव को भस्म करने वाले, त्रिपुरासुर, विनाशक, संसार दुःखहारी, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुर तथा अंधकासुर को मारनेवाले और यमराज के भी यमराज श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।

जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर-
द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥

अत्यंत शीघ्र वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से क्रमशः ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्नि वाले मृदंग की धिम-धिम मंगलकारी उधा ध्वनि के क्रमारोह से चंड तांडव नृत्य में लीन होने वाले शिवजी सब भाँति से सुशोभित हो रहे हैं।

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥

कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शय्या में सर्प और मोतियों की मालाओं में मिट्टी के टुकड़ों और बहुमूल्य रत्नों में, शत्रु और मित्र में, तिनके और कमललोचननियों में, प्रजा और महाराजाधिकराजाओं के समान दृष्टि रखते हुए कब मैं शिवजी का भजन करूँगा।

कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌कदा सुखी भवाम्यहम्‌॥13॥

कब मैं श्री गंगाजी के कछारकुंज में निवास करता हुआ, निष्कपटी होकर सिर पर अंजलि धारण किए हुए चंचल नेत्रों वाली ललनाओं में परम सुंदरी पार्वतीजी के मस्तक में अंकित शिव मंत्र उच्चारण करते हुए परम सुख को प्राप्त करूँगा।

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥

देवांगनाओं के सिर में गूँथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानंदयुक्त हमारेमन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें।

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥15॥

प्रचंड बड़वानल की भाँति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देवकन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पाएँ।

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं
पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं
विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥16॥

इस परम उत्तम शिवतांडव श्लोक को नित्य प्रति मुक्तकंठ सेपढ़ने से या श्रवण करने से संतति वगैरह से पूर्ण हरि और गुरु मेंभक्ति बनी रहती है। जिसकी दूसरी गति नहीं होती शिव की ही शरण में रहता है।

पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं
यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥

शिव पूजा के अंत में इस रावणकृत शिव तांडव स्तोत्र का प्रदोष समय में गान करने से या पढ़ने से लक्ष्मी स्थिर रहती है। रथ गज-घोड़े से सर्वदा युक्त रहता है।

निरोग रहने और अच्छे स्वास्थ्य के लिए शिव जी के इस मंत्र का जाप करना चाहिए:

निरोग रहने और अच्छे स्वास्थ्य के लिए शिव जी के इस मंत्र का जाप करना चाहिए:

सौराष्ट्रदेशे विशदेऽतिरम्ये ज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम्।
भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथं शरणं प्रपद्ये ।।
कावेरिकानर्मदयो: पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय।
सदैव मान्धातृपुरे वसन्तमोंकारमीशं शिवमेकमीडे।।

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2019

महर्षि भृगु की सम्पूर्ण कथा

महर्षि भृगु की सम्पूर्ण कथा!!!!!!


महर्षि भृगु का जन्म 5000 ईसा पूर्व ब्रह्मलोक-सुषा नगर (वर्तमान ईरान) में हुआ था। इनके परदादा का नाम मरीचि ऋषि था। दादाजी का नाम कश्यप ऋषि, दादी का नाम अदिति था। इनके पिता प्रचेता-विधाता जो ब्रह्मलोक के राजा बनने के बाद प्रजापिता ब्रह्मा कहलाये। अपने माता-पिता अदिति-कश्यप के ज्येष्ठ पुत्र थे। महर्षि भृगुजी की माता का नाम वीरणी देवी था।

ये अपने माता-पिता से सहोदर दो भाई थे। आपके बड़े भाई का नाम अंगिरा ऋषि था। जिनके पुत्र बृहस्पतिजी हुए जो देवगणों के पुरोहित-देवगुरू के रूप में जाने जाते हैं। महर्षि भृगु द्वारा रचित ज्योतिष ग्रंथ ‘भृगु संहिता’  के लोकार्पण एवं गंगा सरयू नदियों के संगम के अवसर पर जीवनदायिनी गंगा नदी के संरक्षण और याज्ञिक परम्परा से महर्षि भृगु ने अपने शिष्य दर्दर के सम्मान में  ददरी मेला प्रारम्भ किया।

महर्षि भृगु की दो पत्नियों का उल्लेख आर्ष ग्रन्थों में मिलता है। इनकी पहली पत्नी दैत्यों के अधिपति हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी। जिनसे आपके दो पुत्रों क्रमशः काव्य-शुक्र और त्वष्टा-विश्वकर्मा का जन्म हुआ। सुषानगर (ब्रह्मलोक) में पैदा हुए महर्षि भृगु के दोनों पुत्र विलक्षण प्रतिभा के धनी थे।

बड़े पुत्र काव्य-शुक्र खगोल ज्योतिष, यज्ञ कर्मकाण्डों के निष्णात विद्वान हुए। मातृकुल में आपको आचार्य की उपाधि मिली। ये जगत में शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए। दूसरे पुत्र त्वष्टा-विश्वकर्मा वास्तु के निपुण शिल्पकार हुए। मातृकुल दैत्यवंश में आपको ‘मय’ के नाम से जाना गया। अपनी पारंगत शिल्प दक्षता से ये भी जगद्ख्यात हुए।

महर्षि भृगु की दूसरी पत्नी दानवों के अधिपति पुलोम ऋषि की पुत्री पौलमी थी। इनसे भी दो पुत्रों च्यवन और ऋचीक पैदा हुए। बड़े पुत्र च्यवन का विवाह मुनिवर ने गुजरात भड़ौंच (खम्भात की खाड़ी) के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से किया।

 भार्गव च्यवन और सुकन्या के विवाह के साथ ही भार्गवों का हिमालय के दक्षिण पदार्पण हुआ। च्यवन ऋषि खम्भात की खाड़ी के राजा बने और इस क्षेत्र को भृगुकच्छ-भृगु क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा। आज भी भड़ौच में नर्मदा के तट पर भृगु मन्दिर बना है।

महर्षि भृगु ने अपने दूसरे पुत्र ऋचीक का विवाह कान्यकुब्जपति कौशिक राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ एक हजार श्यामकर्ण घोड़े दहेज में देकर किया। अब भार्गव ऋचीक भी हिमालय के दक्षिण गाधिपुरी (वर्तमान गाजीपुर जिले का भू-भाग) आ गये।

महर्षि भृगु के इस विमुक्त क्षेत्र में आने के कई कथानक आर्ष ग्रन्थों में मिलते हैं। पौराणिक, ऐतिहासिक आख्यानों के अनुसार ब्रह्मा-प्रचेता पुत्र भृगु द्वारा हिमालय के दक्षिण दैत्य, दानव और मानव जातियों के राजाओं के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर मेलजोल बढ़ाने से हिमालय के उत्तर की देव, गन्धर्व, यक्ष जातियों के नृवंशों  में आक्रोश पनप रहा था।

जिससे सभी लोग देवों के संरक्षक, ब्रह्माजी के सबसे छोटे भाई विष्णु को दोष दे रहे थे। दूसरे बारहों आदित्यों में भार्गवों का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा था।

इसी बीच महर्षि भृगु के श्वसुर दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने हिमालय के उत्तर के राज्यों पर चढ़ाई कर दिया। जिससे महर्षि भृगु के परिवार में विवाद होने लगा। महर्षि भृगु यह कह कर कि राज्य सीमा का विस्तार करना राजा का धर्म है, अपने श्वसुर का पक्ष ले रहे थे। इस विवाद में  विष्णु जी ने उनकी पहली पत्नी, हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या देवी को मार डाला। जिससे क्रोधित होकर महर्षि भृगु ने श्री विष्णु जी को  एक लात मार दिया।

इस विवाद का निपटारा महर्षि भृगु के परदादा और विष्णु जी के दादा मरीचि मुनि ने इस निर्णय के साथ किया कि भृगु हिमालय के दक्षिण जाकर रहे। उनके दिव्या देवी से उत्पन्न पुत्रों को सम्मान सहित पालन-पोषण की जिम्मेदारी देवगण उठायेंगे।

 परिवार की प्रतिष्ठा-मर्यादा की रक्षा के लिए भृगु जी को यह भी आदेश मिला कि वह  श्री हरि विष्णु की आलोचना नहीं करेंगे। इस प्रकार महर्षि भृगु सुषानगर से अपनी दूसरी पत्नी पौलमी को साथ लेकर अपने छोटे पुत्र ऋचीक के पास गाधिपुरी (वर्तमान गाजीपुर)आ गये।

महर्षि भृगु के इस क्षेत्र में आने दूसरा आख्यान कुछ धार्मिक ग्रन्थों, पुराणों में मिलता है। देवी भागवत के चतुर्थ स्कंध विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद्भागवत में खण्डों में बिखरे वर्णनों के अनुसार महर्षि भृगु प्रचेता-ब्रह्मा के पुत्र हैं, इनका विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्री ख्याति से हुआ था।

 जिनसे इनके दो पुत्र काव्य-शुक्र और त्वष्टा तथा एक पुत्री ‘श्री’ लक्ष्मी का जन्म हुआ। इनकी पुत्री ‘श्री’ का विवाह श्री हरि विष्णु से हुआ। दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति जो योगशक्ति सम्पन्न तेजस्वी महिला थी। दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को वह अपने योगबल से जीवित कर देती थी।

जिससे नाराज होकर श्रीहरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता, भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया। अपनी पत्नी की हत्या होने की जानकारी होने पर महर्षि भृगु भगवान विष्णु को शाप देते हैं कि तुम्हें स्त्री के पेट से बार-बार जन्म लेना पड़ेगा। उसके बाद महर्षि अपनी पत्नी ख्याति को अपने योगबल से जीवित कर गंगा तट पर आ जाते हैं, तमसा नदी की सृष्टि करते हैं।

पद्म पुराण के उपसंहार खण्ड की कथा के अनुसार मन्दराचल पर्वत हो रहे यज्ञ में ऋषि-मुनियों में इस बात पर विवाद छिड़ गया कि त्रिदेवों (ब्रह्मा-विष्णु-शंकर) में श्रेष्ठ देव कौन है?देवों की परीक्षा के लिए ऋषि-मुनियों ने महर्षि भृगु को परीक्षक नियुक्त किया।

त्रिदेवों की परीक्षा लेने के क्रम में महर्षि भृगु सबसे पहले भगवान शंकर के कैलाश (हिन्दूकुश पर्वत श्रृंखला के पश्चिम कोह सुलेमान जिसे अब ‘कुराकुरम’ कहते हैं) पहुॅचे उस समय भगवान शंकर अपनी पत्नी सती के साथ विहार कर रहे थे। नन्दी आदि रूद्रगणों ने महर्षि को प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया। इनके द्वारा भगवान शंकर से मिलने की हठ करने पर रूद्रगणों ने महर्षि को अपमानित भी कर दिया। कुपित महर्षि भृगु ने भगवान शंकर को तमोगुणी घोषित करते हुए लिंग (शिश्न स्वरूप) में पूजित होने का शाप दिया।

यहाँ से महर्षि भृगु ब्रह्मलोक (सुषानगर, पर्शिया ईरान) ब्रह्माजी के पास पहुँचे। ब्रह्माजी अपने दरबार में विराज रहे थे। सभी देवगण उनके समक्ष बैठे हुए थे। भृगु जी को ब्रह्माजी ने बैठने तक को नहीं कहे। तब महर्षि भृगु ने ब्रह्माजी को रजोगुणी घोषित करते हुए अपूज्य (जिसकी पूजा ही नहीं होगी) होने का शाप दिया। कैलाश और ब्रह्मलोक में मिले अपमान-तिरस्कार से क्षुभित महर्षि विष्णुलोक चल दिये।

भगवान श्रीहरि विष्णु क्षीर सागर (श्रीनार फारस की खाड़ी) में सर्पाकार सुन्दर नौका (शेषनाग) पर अपनी पत्नी लक्ष्मी-श्री के साथ विहार कर रहे थे।

 उस समय श्री विष्णु जी शयन कर रहे थे। महर्षि भृगुजी को लगा कि हमें आता देख विष्णु सोने का नाटक कर रहे हैं। उन्होंने अपने दाहिने पैर का आघात श्री विष्णु जी की छाती पर कर दिया। महर्षि के इस अशिष्ट आचरण पर विष्णुप्रिया लक्ष्मी जो श्रीहरि के चरण दबा रही थी, कुपित हो उठी। लेकिन श्रीविष्णु जी ने महर्षि का पैर पकड़ लिया और कहा भगवन् ! मेरे कठोर वक्ष से आपके कोमल चरण में चोट तो नहीं लगी। महर्षि भृगु लज्जित भी हुए और प्रसन्न भी, उन्होंने श्रीहरि विष्णु को त्रिदेवों में श्रेष्ठ सतोगुणी घोषित कर दिया।

त्रिदेवों की इस परीक्षा में जहाँ एक बहुत बड़ी सीख छिपी है। वहीं एक बहुत बड़ी कूटनीति भी छिपी थी। इस घटना से एक लोकोक्ति बनी।

क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।
का हरि को घट्यो गए, ज्यों भृगु मारि लात।।

इस घटना में कूटनीति यह थी कि हिमालय के उत्तर के नृवंशों का संगठन बनाकर रहने से श्री हरि विष्णु के नेतृत्व में सभी जातियां सभ्य, सुसंस्कृत बन उन्नति कर रही थी। वही हिमालय के दक्षिण का नृवंश समुदाय जिन्हें दैत्य-दानव, मरूत-रूद्र आदि नामों से जाना जाता था। परिश्रमी होने के बाद भी असंगठित, असभ्य जीवन जी रही थी। ये जातियां रूद्र शंकर को ही अपना नायक-देवता मानती थी। उनकी ही पूजा करती थी। हिमालय के दक्षिण में देवकुल नायक श्रीविष्णु को प्रतिष्ठापित करने के लिए महर्षि भृगु ही सबसे उपयुक्त माध्यम थे।

 उनकी एक पत्नी दैत्यकुल से थी, तो दूसरी दानव कुल से थी और उनके पुत्रों शुक्राचार्यों, त्वष्टा-मय-विश्वकर्मा तथा भृगुकच्छ (गुजरात) में च्यवन तथा गाधिपुरी (उ0प्र0) में ऋचीक का बहुत मान-सम्मान था। इस त्रिदेव परीक्षा के बाद हिमालय के दक्षिण में श्रीहरि विष्णु की प्रतिष्ठा स्थापित होने लगी। विशेष रूप से राजाओं के अभिषेक में श्री विष्णु का नाम लेना हिमालय पारस्य देवों की कृपा प्राप्ति और मान्यता मिलना माना जाने लगा।

पुराणों में वर्णित आख्यान के अनुसार त्रिदेवों की परीक्षा में विष्णु वक्ष पर पद प्रहार करने वाले महर्षि भृगु को दण्डाचार्य मरीचि ऋषि ने दण्ड दिया। जिसके लिए भृगुजी को एक सूखे बाँस की छड़ी में कोंपले फूट पड़े और आपके कमर से मृगछाल पृथ्वी पर गिर पड़े। वही आप विष्णु सहस्त्र नाम का जप करेंगे तब आपके इस पाप का मोचन होगा।

मन्दराचल से चलते हुए जब महर्षि भृगु विमुक्त क्षेत्र (वर्तमान बलिया जिला उ0प्र0) के गंगा तट पर पहुँचे तो उनकी मृगछाल गिर पड़ी और छड़ी में कोंपले फूट पड़ी। जहाँ उन्होंने तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया। कालान्तर में यह भू-भाग महर्षि के नाम से भृगुक्षेत्र कहा जाने लगा।

महर्षि भृगु जीवन से जुड़े ऐतिहासिक, पौराणिक और धार्मिक सभी पक्षों पर प्रकाश डालने के पीछे मेरा सीधा मन्तव्य है कि पाठक स्वविवेक का प्रयोग कर सकें। हमारे धार्मिक ग्रन्थों में हमारे मनीषियों के वर्णन तो प्रचुर है, परन्तु उसी प्रचुरता से उसमें कल्पित घटनाओं को भी जोड़ा गया है। उनके जीवन को महिमामण्डित करने के लिए हमारे पटुविद्वान उनकी ऐतिहासिकता से खिलवाड़ किए हैं, जिसके कारण वैश्विक स्तर पर अनेक बार अपमानजनक स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

महर्षि भृगु ने इस भू-भाग पर आने के बाद यहाँ के जंगलों को साफ कराया। यहाँ मात्र पशुओं के आखेट पर जीवन यापन कर रहे जनसामान्य को खेती करना सिखाया। यहाँ गुरूकुल की स्थापना करके लोगों को पढ़ना-लिखना सिखाया। उस कालखण्ड में इस भू-भाग को नरभक्षी मानवों का निवास माना जाता था। उन्हें सभ्य, सुसंस्कृत मानव बनानें का कार्य महर्षि द्वारा किया गया।

महर्षि भृगु के परिवारिक जीवन से अपरिचित जन भी महर्षि द्वारा प्रणीत ज्योतिष-खगोल के महान ग्रंथ भृगु संहिता के बारे में जानते है। इस नाम से अनेक पुस्तके आज भी साहित्य विक्रेताओं के यहाॅ बिकती हुई दिखाई देती है।

महर्षि ने भृगु संहिता ग्रंथ की रचना अपनी दीर्घकालीन निवास की कर्म भूमि विमुक्त भूमि बलिया में ही किया था। इस सन्दर्भ दो बातें ध्यान देने की है। पहली बात यह है कि अपनी जन्मभूमि ब्रह्मलोक (सुषानगर) में निवास काल में उनका जीवन झंझावातों से भरा हुआ था।

अपनी पत्नी दिव्या देवी की मृत्यु से व्यथित और त्रिदेवों की परीक्षा के उपरान्त जन्म भूमि से निष्कासित महर्षि को उसी समय शान्ति से जीवन व्यतीत करने का अवसर मिला जब वह विमुक्त भूमि में आये। भृगुकच्छ गुजरात में पहुॅचने के समय तक उनकी ख्याति चतुर्दिक फैल चुकी थी। क्योंकि उस समय तक उनके भृगु संहिता को भी प्रसिद्धि मिल चुकी थी और उनके शिष्य दर्दर द्वारा भृगुक्ष्ेत्र में गंगा-सरयू के संगम कराने की बात भी पूरा आर्यवर्त जान चुका था।

आख्यानों के अनुसार खम्भात की खाड़ी में महर्षि के पहुॅचने पर उनका राजसी अभिनन्दन किया गया था, तथा वैदिक विद्वान ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन करते हुए  उन्हे आत्मज्ञानी ज्योतिष के प्रकाण्ड पण्डित के रूप में उनकी अभ्यर्थना की थी। जिससे यह बात प्रमाणित होती है कि महर्षि द्वारा भृगु संहिता की रचना सुषानगर से निष्कासन के बाद  और गुजरात के भृगुकच्छ जाने से र्पूर्व की गई थी।

महर्षि की इस संहिता द्वारा किसी भी जातक के तीन जन्मों का फल निकाला जा सकता है। इस ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करने वाले सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति,शुक्र  शनि आदि ग्रहों और नक्षत्रों पर आधारित वैदिक गणित के इस वैज्ञानिक ग्रंथ के माध्यम से जीवन और कृषि के लिए वर्षा आदि की भी भविष्यवाणियां की जाती थी।

महर्षि के कालखण्ड में कागज और छपाई की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। ऋचाओं को  कंठस्थ कराया जाता था और इसकी व्यवहारिक जानकारी शलाकाओं के माध्यम से शिष्यों को  दी जाती थी। कालान्तर में जब लिखने की विधा विकसित हुई और उसके संसाधन मसि भोजपत्र ताड़पत्र आदि का विकास हुआ, तब कुछ विद्वानों ने इन ऋचाओं को लिपिबद्ध करने का काम किया।

गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

हनुमान जयंती

मित्रों कल हनुमानजी का जन्मोत्सव है, आपको आपके परिवार को इस पावन पर्व की बहुत बहुत अग्रिम शुभकामनाएं।,हनुमान जन्मोत्सव विशेष,कैसी भी हो परेशानी ये हैं उपाय!

हनुमानजी एक ऐसे देवता हैं जो थोड़ी सी प्रार्थना और पूजा से ही शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। वो अष्ट सिद्धि और नौ निधियों के दाता हैं अर्थात हनुमानजी को प्रसन्न कर आप धन, संपत्ति, विद्या, स्वास्थ्य, वैभव, संतान सभी कुछ प्राप्त कर सकते हैं।

 हनुमानजी का जन्म मंगलवार के दिन ही हुआ था। इसलिए मान्यता है कि मंगलवार के दिन विशेष उपाय करने से हनुमानजी शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं।

मंगलवार के दिन हनुमानजी को प्रसन्न करने के कुछ खास उपाय हैं। पंडित कृष्ण दत्त शर्मा के मुताबिक इन उपायों से आपकी हर समस्या का समाधान हो सकता है और मनोकामनाएं भी पूरी हो सकती हैं। आइए जानें इन उपायों के बारे में...

यह हैं उपाय:- हनुमानजी भगवान शिव के अवतार हैं। हनुमानजी एक ऐसे देवता हैं जो थोड़ी सी प्रार्थना और पूजा से ही शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। वो अष्ट सिद्धि और नौ निधियों के दाता हैं अर्थात हनुमानजी को प्रसन्न कर आप धन, संपत्ति, विद्या, स्वास्थ्य, वैभव, संतान सभी कुछ प्राप्त कर सकते हैं।

हनुमानजी की आराधना की विधि: साम्रगी- एक चौकी, लाल कपड़ा, हनुमान जी की मूर्ति या तस्वीर, रोली, चावल, अगरबत्ती, ताजा बना भोजन, नारियल, गुड़-चना, गंगा जल, पुष्प, फल आदि।

>> सबसे पहले स्नान कर पूजन स्थल को साफ करें और उस पर चौकी बिछायें।

>> चौकी पर लाल कपड़ा अच्छी तरह बिछा लें। फिर चौकी के चारे ओर गंगाजल छिडक़ें। उसके बाद हाथ धोलें।

>> भगवान गणेश से प्रार्थना करें कि वो आपकी इस हनुमान पूजा को सफल बनाएं।

>> अब हनुमान जी का चित्र स्थापित करें और घी का दीपक व अगरबत्ती जलाएंं।

>> हनुमान जी को रोली-अक्षत से तिलक करके उनके समक्ष पुष्प, नारियल और सिंदूर अर्पित करें।

>> इसके बाद हनुमान जी को ताजा बना भोजन, शुद्ध जल, चना गुड़, और फल अर्पित करते हुए हनुमान जी से प्रार्थना करें कि अज्ञानवश जो कुछ भी गलती आपसे हो गई हो उसे क्षमा कर वो आपकी पूजा को स्वीकार करने विराजमान हों।

>> रूद्राक्ष की माला से हनुमान जी के मंत्र "ऊँ हं हनुमते नम:" का 108 बार जाप करें।

>> इसके अतिरिक्त आप हनुमानजी के इन मंत्र का जाप भी कर सकते हैं।
"ऊँ नमो भगवते आत्र्जनेयाय महाबलाय स्वाहा।"

रामायण की चैपाइयों से कीजिए अपने मनोरथ को पूर्ण :- अब आप अपनी प्रार्थना को को हनुमानजी जी को बताते हुए रामायण की अपनी मनोरथ के अनुसार रामायण की निम्न चैपाइयों का जाप कर सकते हैं।

1. हनुमानजी को प्रसन्न करने के लिए -
"सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू।।"

2.  परेशानी को दूर करने के लिए -
"संकट कटे मिटे सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।।"

3. नौकरी पाने के लिए/व्यापार में वृद्धि के लिए -
विश्व भरण पोषण कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।।

4. शिक्षा में सफलता के लिए -
बुद्धिहीन तनु जानि के सुमिरो पवन कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि हरहु कलेश विकार।।

5. मुकदमे में जीत के लिए -
पवन तनय बल पवन समाना, बुद्धि बिबेक बिग्यान निधाना।।

6. रोग दूर करने के लिए -
लाय संजीवन लखन जियाय। श्री रघुवीर हरषि उर लाए।।

7. टोटकों से बचने के लिए -
भूत पिशाच निकट नहीं आवे। महावीर जब नाम सुनावै।।

8. राजपद प्राप्त करने के लिए -
तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा। राम मिलाय राजपद दीन्हा।।

9.सभी कार्य में सफलता के लिए -
अतुलित बल धामं हेम शैलाभदेहं, दनुज वनकृशानुं ज्ञानिनामग्रण्यम।
सकल गुण निधानं वानराणम धीशं, रघुपति प्रिय भक्तं वातजातं नमामि।।

अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए उससे संबंधित चैपाई का 108 बार जाप करें और उसके बाद कम से कम 21 दिन तक यह क्रिया दोहराएं। ऐसा करने से पवनपुत्र प्रसन्न होकर आपको आपकी मनोरथ पूर्ण होने का वरदान देते हैं।

हनुमान जी को अधिकतर भक्त चोला चढ़ाते है, कहा जाता है इससे प्रसन्न होकर हनुमानजी मनोकामना पूरी करते हैं। पंडित शर्मा के अनुसार हनुमान जी को चोला चढ़ाते समय कई प्रकार की सावधानियां तो रखनी ही चाहिए साथ ही एक निश्चित विधि से भी चोला चढ़ाना चाहिए।

ऐसे चढ़ाएं चोला: - हनुमान जी की सिंदूरी प्रतिमा पर सिन्दूर को घी या चमेली के तेल में घोलकर लेप करने को चोला चढ़ाना कहते हैं। हनुमान जी को सिंदूर बहुत प्रिय है इसलिए ऐसा करने वाले व्यक्ति से हनुमान जी अत्यंत प्रसन्न होकर उसकी मनोकामना पूर्ण कर देते हैं।

>>  मंगलवार को हनुमान जी पर घी का चोला चढ़ता है और शनिवार को चमेली के तेल का चोला चढ़ता है।

>> चोला चढ़ाने के बाद पुजारी की उपस्थिति में हनुमान जी की प्रतिमा का श्रृंगार करें। इसके लिए बाज़ार से चांदी की बरक खरीदकर धीरे-धीरे एक-एक करके हनुमान जी की प्रतिमा पर लगाएं।

>> इसके बाद हनुमान जी को गुलाब की माला अर्पित करें और जनेऊ पहनाएं व बेसन के लड्डुओं का भोग लगाएं।

>> इसके पश्चात हनुमान जी की आरती उतारें और यथा संभव दक्षिणा मंदिर में चढ़ायें। हनुमान जी के चरणों के सिन्दूर को अपने मस्तक पर लगाएं।मान्यता है कि इतना कर लेने भर से हनुमान जी प्रसन्न हो जाते हैं और जीवन के हर कष्ट को दूर कर देते हैं।

ऐसे करें हनुमान चालीसा से प्रसन्न :-------;

>>  हनुमान चालीसा में 40 छंद होते हैं। इसलिए ही इसे हनुमान चालीसा कहते हैं।

>> इसका प्रत्येक छंद एक मंत्र की भांति कार्य करता है। इसलिए इसका पाठ करने से पहले स्वयं को स्वच्छ रखना अति जरूरी है।

>> हनुमान चालीस का पाठ सुबह-शाम हनुमान जी की प्रतिमा के समक्ष दीपक प्रज्जवलित कर करें।

>> इसके के पाठ से भय, संकट, कष्ट दूर हो जाते हैं और हनुमानजी मनोरथ को सफल करते हैं।

>> किसी विशेष मनोकामना की पूर्ति के लिए हनुमान चालीसा का एक साथ बिना रूके 108 बार पाठ भी किया जाता है। इसके लिए रूद्राक्ष की माला का प्रयोग करें।

हनुमानजी को प्रसन्न करने के अन्य उपाय:------

1. परिवार सहित माह में कम से एक बार सुन्दरकांड का पठ करने से हनुमानजी प्रसन्न होते हैं। इसके अलावा माना जाता है कि नियमित हनुमान अष्टक का पाठ सभी संकटों को दूर करता है।

 वहीं मंदिर में उनके दर्शन करने से भी हनुमानजी प्रसन्न हो जाते हैं।

उपासना में इन बातों का रखें ध्यान:------
1. ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें।

2. सदैव स्नान आदि करके ही पूजन करें। अपवित्रता से पूजन का फल प्राप्त नहीं होता है।

3. जो भी उपासना कर रहे हैं उसमें नियमितता अवश्य रखें यानि प्रतिदिन उसी वक्त उपासना शुरू करें।

4. उपासना करते वक्त सांसारिक बातों को भूलकर हनुमानजी के चित्र का ही ध्यान करें।

5. अपनी उपासना के बारे में सभी नहीं बताएं।

६. पूजा के समय हनुमान जी के जिस मंत्र का जाप कर रहे हैं, उनके उसी रूप का ध्यान करें।

हनुमान जी के सिद्ध चमत्कारी मंत्र :--------

भय नाश करने के लिए :  - ‘हं हनुमंते नम:’

प्रेत भुत बाधा दूर करने के लिए :------
 ‘हनुमन्नंजनी सुनो वायुपुत्र महाबल:।
अकस्मादागतोत्पांत नाशयाशु नमोस्तुते।।’

द्वादशाक्षर हनुमान मंत्र : -‘ऊँ हं हनुमते रुद्रात्मकाय हुं फट्।’

मनोकामना पूर्ती के लिए :-------
 ‘महाबलाय वीराय चिरंजिवीन उद्दते।
हारिणे वज्र देहाय चोलंग्घितमहाव्यये।।’

शत्रुओ और रोगों पर विजय पाने के लिए :------
 ‘ऊँ नमो हनुमते रूद्रावताराय सर्वशत्रुसंहारणाय सर्वरोग हराय सर्ववशीकरणाय रामदूताय स्वाहा।’

संकट दूर करने के लिए : ------
‘ऊँ नमो हनुमते रूद्रावताराय सर्वशत्रुसंहारणाय सर्वरोग हराय सर्ववशीकरणाय रामदूताय स्वाहा।’

कर्ज से मुक्ति के लिए :  - ‘ऊँ नमो हनुमते आवेशाय आवेशाय स्वाहा।’

कलयुग के जागृत देव हैं हनुमान जी : श्रीरामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरित मानस लिखने से पहले हनुमान चालीसा लिखी थी और फिर हनुमान की कृपा से ही वे श्रीरामचरित मानस लिख पाए। पंडित संतोष शुक्ला के अनुसार हनुमान चालीसा को ध्यान से पढऩे और समझने के बाद पता चलता है कि हनुमान ही इस कलियुग के जागृत देवता हैं, जो भक्तों के सभी तरह के कष्ट को दूर करने के लिए तुरंत ही प्रसन्न हो जाते हैं।

हनुमान जी के कौन से पाठ से क्या लाभ :

1. हनुमान चालीसा  : जो व्यक्ति नित्य सुबह और शाम हनुमान चालीसा पढ़ता रहता है, उसे कोई भी व्यक्ति बंधक नहीं बना सकता। उस पर कारागार का संकट कभी नहीं आता। यदि किसी व्यक्ति को अपने कर्मों के कारण जेल हो गई है, तो उसे संकल्प लेकर क्षमा-प्रार्थना करनी चाहिए और आगे से कभी इस प्रकार के काम पुन: नहीं करने का वचन देते हुए हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें।

2. बजरंग बाण : बहुत से व्यक्ति अपने कार्य या व्यवहार से लोगों को रुष्ट कर देते हैं, इससे उनके शत्रु बढ़ जाते हैं। कुछ लोगों को स्पष्ट बोलने की आदत होती है जिसके कारण उनके गुप्त शत्रु भी होते हैं। यह भी हो सकता है कि आप सभी तरह से अच्छे हैं फिर भी आपकी तरक्की से लोग जलते हो और आपके विरुद्ध षड्यंत्र रचते हो।

बुरे समय में यदि आप सच्चे हैं तो श्री बजरंग बाण आपको बचाता है और शत्रुओं को दंड देता है। बजरंग बाण से शत्रु को उसके किए की सजा मिल जाती है, लेकिन इसका पाठ एक जगह बैठकर अनुष्ठानपूर्वक 21 दिन तक करना चाहिए और हमेशा सच्चाई के मार्ग पर चलने का संकल्प लेना चाहिए, क्योंकि हनुमान जी सिर्फ पवित्र लोगों का ही साथ देते हैं। माना जाता है 21 दिन में इसका तुरंत फल मिलता है।

3. हनुमान बाहुक : यदि आप गठिया, वात, सिरदर्द, कंठ रोग, जोड़ों का दर्द आदि तरह के दर्द से परेशान हैं, तो जल का एक पात्र सामने रखकर हनुमान बाहुक का 26 या 21 दिनों तक मुहूर्त देखकर पाठ करें। प्रतिदिन उस जल को पीकर दूसरे दिन दूसरा जल रखें। मान्यता है कि ऐसा करने से हनुमान जी की कृपा से शरीर की समस्त पीड़ाओं से आपको मुक्ति मिल जाएगी।

4. हनुमान मंत्र : यदि आप अंधेरे, भूत-प्रेत से डरते हैं या किसी भी प्रकार का भय है तो आप 'हं हनुमंते नम:' का रात को सोने से पूर्व हाथ-पैर और कान-नाक धोकर पूर्वाभिमुख होकर 108 बार जप करके सो जाएं। कुछ ही दिनों में धीरे-धीरे आपमें निर्भीकता का संचार होने लगेगा।

5. हनुमान मंदिर : हर मंगलवार व शनिवार को हनुमान मंदिर में जाकर गुड़ और चना अर्पित करें और घर में सुबह-शाम हनुमान चालीसा का पाठ करें। पाठ करने के पहले और बाद में आधे घंटे तक किसी से बात न करें। जब 21 दिन पूरे हो जाएं, तो हनुमान जी को चोला चढ़ाएं। मान्यता है ऐसा करने से हनुमान जी तुरंत ही घर में सुख-शांति कर देते हैं।

6. शनि ग्रह पीड़ा से मुक्ति : हनुमान जी की जिस पर कृपा होती है, उसका शनि और यमराज भी बाल बांका नहीं कर सकते। आप शनि ग्रह की पीड़ा से छुटकारा पाना चाहते हैं कि प्रति मंगलवार हनुमान मंदिर जाएं और शराब व मांस के सेवन से दूर रहें। इसके अलावा शनिवार को सुंदरकांड या हनुमान चालीसा पाठ करने से शनि भगवान आपको लाभ देने लगेंगे।

7. हनुमान जी का शाबर मंत्र : हनुमान का शाबर मंत्र अत्यंत ही सिद्ध मंत्र माना जाता है। इसके प्रयोग से हनुमान जी तुरंत ही आपके मन की बात सुन लेते हैं। इसका प्रयोग तभी करें जबकि यह सुनिश्चित हो कि आप पवित्र व्यक्ति हैं। यह मंत्र आपके जीवन के सभी संकटों और कष्टों को तुरंत ही चमत्कारिक रूप से समाप्त करने की क्षमता रखता है। हनुमान जी के कई शाबर मंत्र हैं जो अलग-अलग कार्यों के लिए हैं।

हनुमान की अष्ठ सिद्धियां :
1. अणिमा सिद्धि -  यह ऐसी सिद्धि है जिससे व्यक्ति सूक्ष्म (बहुत छोटा) रूप धरना कर सकता है। इसी सिद्घि से हनुमान जी ने सीता को अपना सूक्ष्म रुप दिखा था। हनुमान चालीसा के दोहा में भी इसका उल्लेख है 'सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा'।

2. महिमा सिद्धि - अणिमा के विपरीत इस सिद्धि से धारक विशाल रूप धारण कर सकता है। इतना बडा कि सारे जगत को ढक ले। जैसे श्री कृष्णा का विराट स्वरूप।

3. गरिमा सिद्धि - इस सिद्धि से शरीर को जितना चाहे भारी बनाया जा सकता है। इस सिद्घि से ही हनुमान जी ने अपनी पूंछ को इतना भारी बना दिया था कि भीम उसे हिला भी नहीं सके।

4. लघिमा सिद्धि - गरिमा के विपरीत इस सिद्धि से अपने आप को इच्छानुरूप हल्का बना सकता है। इतना हल्का जैसे रूई का फाहा फिर इस रूप में वह गगनचारी बन कहीं भी क्षणांश में आ-जा सकता है।

5. प्राप्ति सिद्धि - यह सिद्धि अपनी इच्छित वस्तु की प्राप्ति में सहायक होती है। जानवरों, पक्षियों और अनजान भाषा को भी समझा सकता है, भविष्य को देख सकता है तथा किसी भी कष्ट को दूर करने की क्षमता पा लेता है। अपनी इस सिद्धि के कारण हनुमान जी परम संतोषी हुए। उन्होंने भगवान राम के द्वारा दिए मोतियों को भी कंकड़ के समान माना और राम की भक्ति में लीन रहे।

6. प्राकाम्य सिद्धि - इसकी उपलब्धि से इसका धारक इच्छानुसार पृथ्वी में समा और आकाश में उड सकता है। चाहे जितनी देर पानी में रह सकता है। इच्छानुरूप देह धारण कर सकता है तथा किसी भी शरीर में प्रविष्ट होने की क्षमता व चिरयुवा रहने की सिद्धि प्राप्त कर लेता है।

7. ईशित्व सिद्धि - इस सिद्धि से व्यक्ति में ईश्वरत्व का वास हो जाता है। व्यक्ति में ईश्वर की शक्ति आ जाती है और वह पूजनीय हो जाता है। इसी सिद्घि के कारण हनुमान जन-जन के पूजनीय हैं।

8. वशित्व सिद्धि - यह आठवीं और अंतिम सिद्धि है। इस सिद्धि को प्राप्त करके किसी को भी अपने वश में किया जा सकता है। भयानक जंगली पशू-पक्षियों, इंसानों किसी को भी अपने वश में कर अपनी इच्छानुसार व्यवहार करवाने की शक्ति हासिल हो जाती है। हनुमान जी ने अपनी इस सिद्घि से मन, वचन काम, क्रोध, आवेश, राग-अनुराग वश में कर लिया था। इन्हीं सिद्घियों ने हनुमान जी को महावीर बनाया।

हनुमान जन्मोत्सव पर विशेष : परंपरागत रूप से हनुमान को बल, बुद्धि, विद्या, शौर्य और निर्भयता का प्रतीक माना जाता है। संकटकाल में हनुमानजी का ही स्मरण किया जाता है, इसलिए वह संकटमोचन भी कहलाते हैं।

हनुमान को शिवावतार अथवा रुद्रावतार भी माना जाता है। रुद्र आँधी-तूफान के अधिष्ठाता देवता भी हैं और देवराज इंद्र के साथी भी। विष्णु पुराण के अनुसार रुद्रों का उद्भव ब्रह्माजी की भृकुटी से हुआ था। हनुमानजी वायुदेव या मारुति नामक रुद्र के पुत्र माने जाते हैं।

हनुमान का अर्थ: मान्यता के अनुसार 'हनुमान' शब्द का ह ब्रह्मा का, नु अर्चना का, मा लक्ष्मी का और न पराक्रम का द्योतक है। 

हनुमान को सभी देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त है। वे सेवक भी हैं और राजदूत, नीतिज्ञ, विद्वान, रक्षक, वक्ता, गायक, नर्तक, बलवान और बुद्धिमान भी। शास्त्रीय संगीत के तीन आचार्यों में से एक हनुमान भी हैं, जबकि अन्य दो क्रमश: शार्दूल और कहाल थे। 'संगीत पारिजात' हनुमानजी के संगीत-सिद्धांत पर आधारित है। 

कहते हैं कि सबसे पहले रामकथा हनुमानजी ने लिखी थी और वह भी शिला पर। यह रामकथा वाल्मीकि जी की रामायण से भी पहले लिखी गई थी और हनुमन्नाटक के नाम से प्रसिद्ध है।

हनुमानजी का जन्म...  हनुमानजी का जन्म कैसे हुआ इस विषय में भी भिन्न मत हैं। एक मान्यता है कि एक बार जब मारुति ने अजंनी को वन में देखा तो वह उस पर मोहित हो गया। उसने अंजनी से संयोग किया और वह गर्भवती हो गई। जबकि एक अन्य मान्यता है कि वायु ने अंजनी के शरीर में कान के माध्यम से प्रवेश किया और वह गर्भवती हो गई।

वहीं एक अन्य कथा के अनुसार महाराजा दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ से प्राप्त जो हवि अपनी रानियों में बाँटी थी उसका एक भाग गरुड़ उठाकर ले गया और उसे उस स्थान पर गिरा दिया जहां अंजनी पुत्र प्राप्ति के लिए तपस्या कर रही थी। हवि खा लेने से अंजनी गर्भवती हो गई और कालांतर में उसने हनुमानजी को जन्म दिया।

पंडितजी के अनुसार तुलसी और वाल्मीकि द्वारा वर्णित हनुमान-चरित की तुलना में कई अन्य रामकथाओं में वर्णित चरित इतना भिन्न है कि सर्वथा मिथ्या और काल्पनिक प्रतीत होता है। 

वहीं तांत्रिक हनुमान की पूजा एक शिर, पंचशिर और एकादश शिर, संकटमोचन, सर्व हितरत और ऋद्धि-सिद्धि के दाता के रूप में करते हैं।

आनंद रामायण के अनुसार हनुमानजी की गिनती सनातन धर्म के आठ चिरंजीवी व्यक्तियों में होती है। इनके अलावा अन्य सात इस प्रकार हैं, अश्वत्थामा, बलि, व्यास, विभीषण, नारद, परशुराम और मार्कण्डेय।

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...