मां सरस्वती



*पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥

भावार्थ:-फिर मैं सरस्वती और देवनदी गंगाजी की वंदना करता हूँ। दोनों पवित्र और मनोहर चरित्र वाली हैं। एक (गंगाजी) स्नान करने और जल पीने से पापों को हरती है और दूसरी (सरस्वतीजी) गुण और यश कहने और सुनने से अज्ञान का नाश कर देती है॥

प्रतिभा की अधिष्ठात्री देवी भगवती सरस्वती हैं। समस्त वाङ्मय, सम्पूर्ण कला और पूरा ज्ञान-विज्ञान माँ शारदा का ही वरदान है। बुधवार को त्रयोदशी तिथि को एवं शारदीय नवरात्रों में ज्ञानदायिनी भगवती शारदा की पूजा-अर्चना-उपासना की जाती है। हमारे हिन्दू धर्मग्रंथों में माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी अर्थात् वसंत पंचमी को भगवती सरस्वती की जयंती का पावन दिन कहा गया है।

बसन्त पंचमी के दिन माता शारदा की विशेष आराधना की जाती है, पूजन में पीले व सफेद पुष्प भगवती सरस्वती को अर्पित किये जाते हैं। वसन्त पञ्चमी के दिन भगवती सरस्वती के मंत्रों , पवित्र स्तोत्रों का पाठ किया जाता है, सफेद या पीले वस्त्र/रुमाल का दान किया जाता है।

 पूर्वकाल में वागीश्वरी देवी के द्वारा नदी रूप धारण करने के सम्बन्ध में प्रचलित यह अवतार कथा प्रस्तुत है-

भगवान नारायण की तीन पत्नियाँ थीं- देवी लक्ष्मी, देवी गङ्गा और देवी सरस्वती। तीनों ही बहुत प्रेम से रहतीं और अनन्य भाव से भगवान् का पूजन किया करती थीं। एक दिन भगवान् की ही इच्छा से ऐसी घटना हो गयी, जिससे लक्ष्मीजी, गंगाजी और सरस्वतीजी को भगवान् के चरणों से कुछ काल के लिये दूर हट जाना पड़ा।

भगवान् जब अन्तःपुर में पधारे, उस समय तीनों देवियाँ एक ही स्थान पर बैठी हुईं परस्पर प्रेमालाप कर रही थीं, भगवान् को आया देखकर तीनों उनके स्वागत के लिये खड़ी हो गयीं। उस समय गङ्गाजी ने विशेष प्रेमपूर्ण दृष्टि से भगवान् की ओर देखा। भगवान् ने भी उनकी दृष्टि का उत्तर वैसी ही स्नेहपूर्ण दृष्टि में हँसकर दिया, फिर वे किसी आवश्यकतावश अन्तःपुर से बाहर निकल गये।

तब देवी सरस्वतीजी ने देवी गंगा के उस बर्ताव को अनुचित बताकर उनके प्रति आक्षेप किया। गंगाजी ने भी कठोर शब्दों में उनका प्रतिवाद किया। उनका विवाद बढ़ता देखकर लक्ष्मीजी ने दोनों को शान्त करने की चेष्टा की। सरस्वतीजी ने लक्ष्मीजी के इस बर्ताव को गंगाजी के प्रति पक्षपात माना और उन्हें शाप दे दिया, "तुम वृक्ष और नदी के रूप में परिणत हो जाओगी।

" यह देख गंगाजी ने भी सरस्वतीजी को शाप दिया, "तुम भी नदी हो जाओगी।" यही शाप सरस्वतीजी की ओर से गंगाजी को भी मिला। इतने ही में भगवान् पुनः अन्तःपुर में लौट आये। अब देवियाँ प्रकृतिस्थ हो चुकी थीं। उन्हें अपनी भूल मालूम हुई तथा भगवान् के चरणों से विलग होने के भय से दुखी होकर रोने लगीं।

इस प्रकार गंगाजी, सरस्वतीजी, लक्ष्मीजी का सब हाल सुनकर भगवान् नारायण को खेद हुआ। उनकी आकुलता देखकर वे दया से द्रवीभूत हो उठे। उन्होंने कहा-"तुम तीनों एक अंश से ही नदी होओगी, अन्य अंशों से तुम्हारा निवास मेरे ही पास रहेगा।

सरस्वती एक अंश से नदी होंगी। एक अंश से इन्हें ब्रह्माजी की सेवा में रहना पड़ेगा तथा शेष अंशों से वे मेरे ही पास निवास करेंगी। कलियुग के पाँच हजार वर्ष बीतने के बाद तुम सबके शाप का उद्धार हो जाएगा।

" इसके अनुसार माँ सरस्वतीजी भारत भूमि में अंशतः अवतीर्ण होकर 'भारती' कहलायीं। उसी शरीर से ब्रह्माजी की प्रियतमा पत्नी होने के कारण उनकी 'ब्राह्मी' नाम से प्रसिद्धि हुई। किसी-किसी कल्प मेँ सरस्वतीजी ब्रह्माजी की कन्या के रूप में अवतीर्ण होती हैं और आजीवन कुमारी व्रत का पालन करती हुई उनकी सेवा में रहती हैं।

एक बार ब्रह्माजी ने यह विचार किया कि इस पृथ्वी पर सभी देवताओं के तीर्थ हैं, केवल मेरा ही तीर्थ नहीं है। ऐसा सोचकर उन्होंने अपने नाम से एक तीर्थ स्थापित करने का निश्चय किया और इसी उद्देश्य से ब्रह्माजी ने एक रत्नमयी शिला पृथ्वी पर गिरायी। वह शिला चमत्कारपुर के समीप गिरी, अत: ब्रह्माजी ने उसी क्षेत्र मेँ अपना तीर्थ स्थापित किया।

एकार्णव में शयन करने वाले भगवान् विष्णु की नाभि से जो कमल निकला, जिससे ब्रहमाजी का प्राकट्य हुआ, वह स्थान भी वही तीर्थ माना गया है। वही तीर्थ पुष्करतीर्थ के नाम से विख्यात हुआ। पुराणों में इस तीर्थ की बड़ी महिमा गायी गयी है। तीर्थ स्थापित होने के बाद ब्रह्माजीने वहाँ पवित्र जल से पूर्ण एक सरोवर बनाने का विचार किया। इसके लिये उन्होंने सरस्वती देवी का स्मरण किया।

सरस्वती देवी नदीरूप मेँ परिणत होकर भी पापीजनों के स्पर्श के भय से छिपी-छिपी पाताल में बहती थीं। ब्रह्माजी के स्मरण करने पर वे भूतल और पूर्वोक्त शिला को भी भेदकर वहाँ प्रकट हुईं। उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा,"तुम सदा यहाँ मेरे समीप ही रहो, मैं प्रतिदिन तुम्हारे जल में तर्पण करूँगा।'

ब्रहमाजी का ऐसा आदेश सुनकर सरस्वतीजी को बड़ा भय हुआ कि इससे कहीं कोई पापी जल का स्पर्श न कर ले। वे हाथ छोड़कर बोलीं-"भगवन्! मैं जन-सम्पर्क के भय से पाताल मेँ रहती हूँ। कभी प्रकट नहीं होती, किंतु आपकी आज्ञा का उल्लङ्घन करना भी मेरी शक्ति के बाहर है; अत: आप इस विषय पर भलीभाँति सोच-विचारकर जो उचित हो, वैसी व्यवस्था कीजिये।'

तब ब्रह्माजी ने सरस्वतीजी के निवास के लिये वहाँ एक विशाल सरोवर खुदवाया। सरस्वतीजी ने उसी सरोवर में आश्रय लिया।

 तत्पश्चात् ब्रह्माजी ने बड़े-बड़े भयानक सर्पों को बुलाकर कहा-"तुम लोग सावधानी के साथ सब ओर से इस सरोवर की रक्षा करते रहना; जिससे कोई भी सरस्वती के जल का स्पर्श न कर सके।'

एक बार भगवान् विष्णु ने सरस्वतीजी को यह आदेश दिया कि 'तुम बडवानल को अपने प्रवाह मेँ ले जाकर समुद्र में छोड़ दो।'

 सरस्वतीजी ने इसके लिये ब्रह्माजी की भी अनुमति चाही। लोकहित का विचार करके ब्रह्माजी ने भी वाग्देवी को उस कार्य के लिये सम्मति दे दी। तब देवी सरस्वती ने कहा- "भगवन्! यदि मैं भूतल पर नदी रूप में प्रकट होती हूँ तो पापी जनों के सम्पर्क का भय है और यदि पातालमार्ग से इस अग्नि को ले जाती हूँ तो स्वयं अपने शरीर के जलने का डर है।"

 ब्रह्माजी ने कहा-"तुम्हें जैसे सुगमता हो, उसी प्रकार कर लो। यदि पापियों के सम्पर्क से बचना चाहो तो पाताल के ही मार्ग से जाओ; भूतल पर प्रकट न होना, साथ ही जहाँ भी तुम्हें बडवानल का ताप असह्य हो जाय, वहाँ पृथ्वी पर नदीरूप में प्रकट भी हो जाना। इससे तुम्हें शरीर पर उसके ताप का प्रभाव नहीं पड़ेगा।"

ब्रह्माजी का यह उत्तर पाकर भगवती सरस्वती अपनी सखियों- गायत्री, सावित्री और यमुना आदि से मिलकर हिमालय पर्वत चली गयीं और वहाँ से नदीरूप होकर धरती पर प्रवाहित हुईं। उनकी जलराशि मेँ कच्छप और ग्राह आदि जल-जन्तु भी प्रकट हो गये।

 बडवानल को लेकर वे सागर की ओर उपस्थित हुईं। जाते समय वे धरती को भेदकर पाताल मार्ग से ही यात्रा करने लगीं। जब वे अग्नि के ताप से संतप्त हो जातीं तो कहीं-कहीं भूतल पर प्रकट भी हो जाया करती थीं। इस प्रकार जाते-जाते वे प्रभासक्षेत्र में पहुँचीं।

वहाँ चार तपस्वी मुनि कठोर तपस्या में लगे थे। इन्होंने पृथक पृथक अपने-अपने आश्रम के पास सरस्वती नदी को बुलाया। इसी समय समुद्र ने भी प्रकट होकर सरस्वती जी का आवाहन किया।

सरस्वती जी को नदी रूप में समुद्र तक तो जाना ही था, ऋषियों की अवहेलना करने से भी शाप का भय था; अत: माँ सरस्वती ने अपनी पाँच धाराएँ कर लीं। एक से वो सीधे समुद्र की ओर चलीं और चार से पूर्वोक्त चारों ऋषियों को स्नान की सुविधा देती गयीं। इस प्रकार वे 'पञ्चस्रोता' सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुईं और मार्ग के अन्य विघ्नों को दूर करती हुई अन्त मेँ समुद्र से जा मिलीं।

एक समय की बात है, ब्रह्माजी ने सरस्वती जी से कहा-"तुम किसी योग्य पुरुष के मुख में कवित्वशक्ति होकर निवास करो।' ब्रह्माजी की आज्ञा मानकर भगवती सरस्वती योग्य पात्र की खोज में बाहर निकलीं। उन्होंने ऊपर के सत्य आदि लोकों मेँ भ्रमण करके देवताओ में पता लगाया तथा नीचे के सातों पातालो में घूमकर वहाँ के निवासियों में खोज की किंतु कहीं भी उनको सुयोग्य पात्र नहीं मिला। इसी अनुसंधान में पूरा एक सत्ययुग बीत गया।

तदनन्तर त्रेतायुग के आरम्भ में सरस्वती देवी भारतवर्ष में भ्रमण करने लगीं। घूमते-घूमते वाग्देवी तमसा नदी के तीर पर पहुँचीं।

 वहाँ महातपस्वी महर्षि वाल्मीकि अपने शिष्यों के साथ रहते थे। वाल्मीकि उस समय अपने आश्रम के इधर-उधर घूम रहे थे। इतने में ही उनकी दृष्टि एक क्रौञ्च पक्षी पर पड़ी, जो तत्काल ही एक व्याध(शिकारी) के बाण से घायल हो पंख फड़फड़ाता हुआ गिरा था। पक्षी का सारा शरीर लहूलुहान था। वह पीड़ा से तड़प रहा था और उसकी पत्नी क्रौञ्ची उसके पास ही गिरकर बड़े आर्तस्वर में 'चें-चें' कर रही थी।

पक्षी के उस जोड़े की यह दयनीय दशा देखकर दयालु महर्षि अपनी सहज करुणा से द्रवीभूत हो उठे। उनके मुख से तुरन्त ही एक श्लोक निकल पड़ा; जो इस प्रकार है-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:।
यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्॥

यह श्लोक माता वागीश्वरी की कृपा का प्रसाद था। माँ वाग्देवी ने महर्षि वाल्मीकि को देखते ही उनकी असाधारण योग्यता और प्रतिभा का परिचय पा लिया था; उन्हीं महर्षि के मुख में सरस्वतीजी ने सर्वप्रथम प्रवेश किया।

 कवित्वशक्तिमयी सरस्वतीजी की प्रेरणा से ही उनके मुख की वह वाणी जो उन्होंने क्रौञ्ची की सान्त्वना देने के लिये कही थी, छन्दोमयी बन गयी। उनके हृदय का शोक ही श्लोक बनकर निकला था-'शोकः श्लोकत्वमागतः।' मां सररस्वती के कृपापात्र होकर महर्षि बाल्मीकि ही 'आदिकवि' के नाम से संसार में विख्यात हुए।

इस तरह सरस्वती देवी अनेक प्रकार की लीलाओं से जगत् का कल्याण करती हैं। बुद्धि, ज्ञान और विद्या रूप से सारा जगत् इन वाग्देवी की कृपा-लीला का अनुभव किया करता है। ये भगवती सरस्वती मूलत: भगवान् नारायण की पत्नी हैं तथा अंशत: नदी और ब्रह्माजी की शक्ति ब्राह्मी के रूप में रहती हैं।

ये मातंगी महाविद्या स्वरुपिणी सरस्वती देवी ही भगवती गौरी के शरीर से प्रकट होकर 'कौशिकी' नामसे प्रसिद्ध हुईं और शुम्भ-निशुम्भ आदि असुरों का वध करके इन्होंने संसार में सुख-शान्ति की स्थापना की।

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