महर्षि भृगु की सम्पूर्ण कथा

महर्षि भृगु की सम्पूर्ण कथा!!!!!!


महर्षि भृगु का जन्म 5000 ईसा पूर्व ब्रह्मलोक-सुषा नगर (वर्तमान ईरान) में हुआ था। इनके परदादा का नाम मरीचि ऋषि था। दादाजी का नाम कश्यप ऋषि, दादी का नाम अदिति था। इनके पिता प्रचेता-विधाता जो ब्रह्मलोक के राजा बनने के बाद प्रजापिता ब्रह्मा कहलाये। अपने माता-पिता अदिति-कश्यप के ज्येष्ठ पुत्र थे। महर्षि भृगुजी की माता का नाम वीरणी देवी था।

ये अपने माता-पिता से सहोदर दो भाई थे। आपके बड़े भाई का नाम अंगिरा ऋषि था। जिनके पुत्र बृहस्पतिजी हुए जो देवगणों के पुरोहित-देवगुरू के रूप में जाने जाते हैं। महर्षि भृगु द्वारा रचित ज्योतिष ग्रंथ ‘भृगु संहिता’  के लोकार्पण एवं गंगा सरयू नदियों के संगम के अवसर पर जीवनदायिनी गंगा नदी के संरक्षण और याज्ञिक परम्परा से महर्षि भृगु ने अपने शिष्य दर्दर के सम्मान में  ददरी मेला प्रारम्भ किया।

महर्षि भृगु की दो पत्नियों का उल्लेख आर्ष ग्रन्थों में मिलता है। इनकी पहली पत्नी दैत्यों के अधिपति हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी। जिनसे आपके दो पुत्रों क्रमशः काव्य-शुक्र और त्वष्टा-विश्वकर्मा का जन्म हुआ। सुषानगर (ब्रह्मलोक) में पैदा हुए महर्षि भृगु के दोनों पुत्र विलक्षण प्रतिभा के धनी थे।

बड़े पुत्र काव्य-शुक्र खगोल ज्योतिष, यज्ञ कर्मकाण्डों के निष्णात विद्वान हुए। मातृकुल में आपको आचार्य की उपाधि मिली। ये जगत में शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए। दूसरे पुत्र त्वष्टा-विश्वकर्मा वास्तु के निपुण शिल्पकार हुए। मातृकुल दैत्यवंश में आपको ‘मय’ के नाम से जाना गया। अपनी पारंगत शिल्प दक्षता से ये भी जगद्ख्यात हुए।

महर्षि भृगु की दूसरी पत्नी दानवों के अधिपति पुलोम ऋषि की पुत्री पौलमी थी। इनसे भी दो पुत्रों च्यवन और ऋचीक पैदा हुए। बड़े पुत्र च्यवन का विवाह मुनिवर ने गुजरात भड़ौंच (खम्भात की खाड़ी) के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से किया।

 भार्गव च्यवन और सुकन्या के विवाह के साथ ही भार्गवों का हिमालय के दक्षिण पदार्पण हुआ। च्यवन ऋषि खम्भात की खाड़ी के राजा बने और इस क्षेत्र को भृगुकच्छ-भृगु क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा। आज भी भड़ौच में नर्मदा के तट पर भृगु मन्दिर बना है।

महर्षि भृगु ने अपने दूसरे पुत्र ऋचीक का विवाह कान्यकुब्जपति कौशिक राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ एक हजार श्यामकर्ण घोड़े दहेज में देकर किया। अब भार्गव ऋचीक भी हिमालय के दक्षिण गाधिपुरी (वर्तमान गाजीपुर जिले का भू-भाग) आ गये।

महर्षि भृगु के इस विमुक्त क्षेत्र में आने के कई कथानक आर्ष ग्रन्थों में मिलते हैं। पौराणिक, ऐतिहासिक आख्यानों के अनुसार ब्रह्मा-प्रचेता पुत्र भृगु द्वारा हिमालय के दक्षिण दैत्य, दानव और मानव जातियों के राजाओं के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर मेलजोल बढ़ाने से हिमालय के उत्तर की देव, गन्धर्व, यक्ष जातियों के नृवंशों  में आक्रोश पनप रहा था।

जिससे सभी लोग देवों के संरक्षक, ब्रह्माजी के सबसे छोटे भाई विष्णु को दोष दे रहे थे। दूसरे बारहों आदित्यों में भार्गवों का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा था।

इसी बीच महर्षि भृगु के श्वसुर दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने हिमालय के उत्तर के राज्यों पर चढ़ाई कर दिया। जिससे महर्षि भृगु के परिवार में विवाद होने लगा। महर्षि भृगु यह कह कर कि राज्य सीमा का विस्तार करना राजा का धर्म है, अपने श्वसुर का पक्ष ले रहे थे। इस विवाद में  विष्णु जी ने उनकी पहली पत्नी, हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या देवी को मार डाला। जिससे क्रोधित होकर महर्षि भृगु ने श्री विष्णु जी को  एक लात मार दिया।

इस विवाद का निपटारा महर्षि भृगु के परदादा और विष्णु जी के दादा मरीचि मुनि ने इस निर्णय के साथ किया कि भृगु हिमालय के दक्षिण जाकर रहे। उनके दिव्या देवी से उत्पन्न पुत्रों को सम्मान सहित पालन-पोषण की जिम्मेदारी देवगण उठायेंगे।

 परिवार की प्रतिष्ठा-मर्यादा की रक्षा के लिए भृगु जी को यह भी आदेश मिला कि वह  श्री हरि विष्णु की आलोचना नहीं करेंगे। इस प्रकार महर्षि भृगु सुषानगर से अपनी दूसरी पत्नी पौलमी को साथ लेकर अपने छोटे पुत्र ऋचीक के पास गाधिपुरी (वर्तमान गाजीपुर)आ गये।

महर्षि भृगु के इस क्षेत्र में आने दूसरा आख्यान कुछ धार्मिक ग्रन्थों, पुराणों में मिलता है। देवी भागवत के चतुर्थ स्कंध विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद्भागवत में खण्डों में बिखरे वर्णनों के अनुसार महर्षि भृगु प्रचेता-ब्रह्मा के पुत्र हैं, इनका विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्री ख्याति से हुआ था।

 जिनसे इनके दो पुत्र काव्य-शुक्र और त्वष्टा तथा एक पुत्री ‘श्री’ लक्ष्मी का जन्म हुआ। इनकी पुत्री ‘श्री’ का विवाह श्री हरि विष्णु से हुआ। दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति जो योगशक्ति सम्पन्न तेजस्वी महिला थी। दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को वह अपने योगबल से जीवित कर देती थी।

जिससे नाराज होकर श्रीहरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता, भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया। अपनी पत्नी की हत्या होने की जानकारी होने पर महर्षि भृगु भगवान विष्णु को शाप देते हैं कि तुम्हें स्त्री के पेट से बार-बार जन्म लेना पड़ेगा। उसके बाद महर्षि अपनी पत्नी ख्याति को अपने योगबल से जीवित कर गंगा तट पर आ जाते हैं, तमसा नदी की सृष्टि करते हैं।

पद्म पुराण के उपसंहार खण्ड की कथा के अनुसार मन्दराचल पर्वत हो रहे यज्ञ में ऋषि-मुनियों में इस बात पर विवाद छिड़ गया कि त्रिदेवों (ब्रह्मा-विष्णु-शंकर) में श्रेष्ठ देव कौन है?देवों की परीक्षा के लिए ऋषि-मुनियों ने महर्षि भृगु को परीक्षक नियुक्त किया।

त्रिदेवों की परीक्षा लेने के क्रम में महर्षि भृगु सबसे पहले भगवान शंकर के कैलाश (हिन्दूकुश पर्वत श्रृंखला के पश्चिम कोह सुलेमान जिसे अब ‘कुराकुरम’ कहते हैं) पहुॅचे उस समय भगवान शंकर अपनी पत्नी सती के साथ विहार कर रहे थे। नन्दी आदि रूद्रगणों ने महर्षि को प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया। इनके द्वारा भगवान शंकर से मिलने की हठ करने पर रूद्रगणों ने महर्षि को अपमानित भी कर दिया। कुपित महर्षि भृगु ने भगवान शंकर को तमोगुणी घोषित करते हुए लिंग (शिश्न स्वरूप) में पूजित होने का शाप दिया।

यहाँ से महर्षि भृगु ब्रह्मलोक (सुषानगर, पर्शिया ईरान) ब्रह्माजी के पास पहुँचे। ब्रह्माजी अपने दरबार में विराज रहे थे। सभी देवगण उनके समक्ष बैठे हुए थे। भृगु जी को ब्रह्माजी ने बैठने तक को नहीं कहे। तब महर्षि भृगु ने ब्रह्माजी को रजोगुणी घोषित करते हुए अपूज्य (जिसकी पूजा ही नहीं होगी) होने का शाप दिया। कैलाश और ब्रह्मलोक में मिले अपमान-तिरस्कार से क्षुभित महर्षि विष्णुलोक चल दिये।

भगवान श्रीहरि विष्णु क्षीर सागर (श्रीनार फारस की खाड़ी) में सर्पाकार सुन्दर नौका (शेषनाग) पर अपनी पत्नी लक्ष्मी-श्री के साथ विहार कर रहे थे।

 उस समय श्री विष्णु जी शयन कर रहे थे। महर्षि भृगुजी को लगा कि हमें आता देख विष्णु सोने का नाटक कर रहे हैं। उन्होंने अपने दाहिने पैर का आघात श्री विष्णु जी की छाती पर कर दिया। महर्षि के इस अशिष्ट आचरण पर विष्णुप्रिया लक्ष्मी जो श्रीहरि के चरण दबा रही थी, कुपित हो उठी। लेकिन श्रीविष्णु जी ने महर्षि का पैर पकड़ लिया और कहा भगवन् ! मेरे कठोर वक्ष से आपके कोमल चरण में चोट तो नहीं लगी। महर्षि भृगु लज्जित भी हुए और प्रसन्न भी, उन्होंने श्रीहरि विष्णु को त्रिदेवों में श्रेष्ठ सतोगुणी घोषित कर दिया।

त्रिदेवों की इस परीक्षा में जहाँ एक बहुत बड़ी सीख छिपी है। वहीं एक बहुत बड़ी कूटनीति भी छिपी थी। इस घटना से एक लोकोक्ति बनी।

क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।
का हरि को घट्यो गए, ज्यों भृगु मारि लात।।

इस घटना में कूटनीति यह थी कि हिमालय के उत्तर के नृवंशों का संगठन बनाकर रहने से श्री हरि विष्णु के नेतृत्व में सभी जातियां सभ्य, सुसंस्कृत बन उन्नति कर रही थी। वही हिमालय के दक्षिण का नृवंश समुदाय जिन्हें दैत्य-दानव, मरूत-रूद्र आदि नामों से जाना जाता था। परिश्रमी होने के बाद भी असंगठित, असभ्य जीवन जी रही थी। ये जातियां रूद्र शंकर को ही अपना नायक-देवता मानती थी। उनकी ही पूजा करती थी। हिमालय के दक्षिण में देवकुल नायक श्रीविष्णु को प्रतिष्ठापित करने के लिए महर्षि भृगु ही सबसे उपयुक्त माध्यम थे।

 उनकी एक पत्नी दैत्यकुल से थी, तो दूसरी दानव कुल से थी और उनके पुत्रों शुक्राचार्यों, त्वष्टा-मय-विश्वकर्मा तथा भृगुकच्छ (गुजरात) में च्यवन तथा गाधिपुरी (उ0प्र0) में ऋचीक का बहुत मान-सम्मान था। इस त्रिदेव परीक्षा के बाद हिमालय के दक्षिण में श्रीहरि विष्णु की प्रतिष्ठा स्थापित होने लगी। विशेष रूप से राजाओं के अभिषेक में श्री विष्णु का नाम लेना हिमालय पारस्य देवों की कृपा प्राप्ति और मान्यता मिलना माना जाने लगा।

पुराणों में वर्णित आख्यान के अनुसार त्रिदेवों की परीक्षा में विष्णु वक्ष पर पद प्रहार करने वाले महर्षि भृगु को दण्डाचार्य मरीचि ऋषि ने दण्ड दिया। जिसके लिए भृगुजी को एक सूखे बाँस की छड़ी में कोंपले फूट पड़े और आपके कमर से मृगछाल पृथ्वी पर गिर पड़े। वही आप विष्णु सहस्त्र नाम का जप करेंगे तब आपके इस पाप का मोचन होगा।

मन्दराचल से चलते हुए जब महर्षि भृगु विमुक्त क्षेत्र (वर्तमान बलिया जिला उ0प्र0) के गंगा तट पर पहुँचे तो उनकी मृगछाल गिर पड़ी और छड़ी में कोंपले फूट पड़ी। जहाँ उन्होंने तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया। कालान्तर में यह भू-भाग महर्षि के नाम से भृगुक्षेत्र कहा जाने लगा।

महर्षि भृगु जीवन से जुड़े ऐतिहासिक, पौराणिक और धार्मिक सभी पक्षों पर प्रकाश डालने के पीछे मेरा सीधा मन्तव्य है कि पाठक स्वविवेक का प्रयोग कर सकें। हमारे धार्मिक ग्रन्थों में हमारे मनीषियों के वर्णन तो प्रचुर है, परन्तु उसी प्रचुरता से उसमें कल्पित घटनाओं को भी जोड़ा गया है। उनके जीवन को महिमामण्डित करने के लिए हमारे पटुविद्वान उनकी ऐतिहासिकता से खिलवाड़ किए हैं, जिसके कारण वैश्विक स्तर पर अनेक बार अपमानजनक स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

महर्षि भृगु ने इस भू-भाग पर आने के बाद यहाँ के जंगलों को साफ कराया। यहाँ मात्र पशुओं के आखेट पर जीवन यापन कर रहे जनसामान्य को खेती करना सिखाया। यहाँ गुरूकुल की स्थापना करके लोगों को पढ़ना-लिखना सिखाया। उस कालखण्ड में इस भू-भाग को नरभक्षी मानवों का निवास माना जाता था। उन्हें सभ्य, सुसंस्कृत मानव बनानें का कार्य महर्षि द्वारा किया गया।

महर्षि भृगु के परिवारिक जीवन से अपरिचित जन भी महर्षि द्वारा प्रणीत ज्योतिष-खगोल के महान ग्रंथ भृगु संहिता के बारे में जानते है। इस नाम से अनेक पुस्तके आज भी साहित्य विक्रेताओं के यहाॅ बिकती हुई दिखाई देती है।

महर्षि ने भृगु संहिता ग्रंथ की रचना अपनी दीर्घकालीन निवास की कर्म भूमि विमुक्त भूमि बलिया में ही किया था। इस सन्दर्भ दो बातें ध्यान देने की है। पहली बात यह है कि अपनी जन्मभूमि ब्रह्मलोक (सुषानगर) में निवास काल में उनका जीवन झंझावातों से भरा हुआ था।

अपनी पत्नी दिव्या देवी की मृत्यु से व्यथित और त्रिदेवों की परीक्षा के उपरान्त जन्म भूमि से निष्कासित महर्षि को उसी समय शान्ति से जीवन व्यतीत करने का अवसर मिला जब वह विमुक्त भूमि में आये। भृगुकच्छ गुजरात में पहुॅचने के समय तक उनकी ख्याति चतुर्दिक फैल चुकी थी। क्योंकि उस समय तक उनके भृगु संहिता को भी प्रसिद्धि मिल चुकी थी और उनके शिष्य दर्दर द्वारा भृगुक्ष्ेत्र में गंगा-सरयू के संगम कराने की बात भी पूरा आर्यवर्त जान चुका था।

आख्यानों के अनुसार खम्भात की खाड़ी में महर्षि के पहुॅचने पर उनका राजसी अभिनन्दन किया गया था, तथा वैदिक विद्वान ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन करते हुए  उन्हे आत्मज्ञानी ज्योतिष के प्रकाण्ड पण्डित के रूप में उनकी अभ्यर्थना की थी। जिससे यह बात प्रमाणित होती है कि महर्षि द्वारा भृगु संहिता की रचना सुषानगर से निष्कासन के बाद  और गुजरात के भृगुकच्छ जाने से र्पूर्व की गई थी।

महर्षि की इस संहिता द्वारा किसी भी जातक के तीन जन्मों का फल निकाला जा सकता है। इस ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करने वाले सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति,शुक्र  शनि आदि ग्रहों और नक्षत्रों पर आधारित वैदिक गणित के इस वैज्ञानिक ग्रंथ के माध्यम से जीवन और कृषि के लिए वर्षा आदि की भी भविष्यवाणियां की जाती थी।

महर्षि के कालखण्ड में कागज और छपाई की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। ऋचाओं को  कंठस्थ कराया जाता था और इसकी व्यवहारिक जानकारी शलाकाओं के माध्यम से शिष्यों को  दी जाती थी। कालान्तर में जब लिखने की विधा विकसित हुई और उसके संसाधन मसि भोजपत्र ताड़पत्र आदि का विकास हुआ, तब कुछ विद्वानों ने इन ऋचाओं को लिपिबद्ध करने का काम किया।

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