सोमवार, 30 सितंबर 2019

नवरात्रि व्रत

नवरात्रि के पावन अवसर पर हम आपको माँ दुर्गा के पांच रहस्य बतायेगें,पढ़ें,,,,

'या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता,।
 नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।'

हिन्दू धर्म में माता रानी का देवियों में सर्वोच्च स्थान है। उन्हें अम्बे, जगदम्बे, शेरावाली, पहाड़ावाली आदि नामों से पुकारा जाता है। संपूर्ण भारत भूमि पर उनके सैंकड़ों मंदिर है। ज्योतिर्लिंग से ज्यादा शक्तिपीठ है। सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती ये त्रिदेव की पत्नियां हैं। इनकी कथा के बारे में पुराणों में भिन्न भिन्न जानकारियां मिलती है। पुराणों में देवी पुराण देवी में देवी के रहस्य के बारे में खुलासा होता है।

आखिर उन अम्बा, जगदम्बा, सर्वेश्वरी आदि के बारे में क्या रहस्य है? यह जानना भी जरूरी है। माता रानी के बारे में संपूर्ण जानकारी रखने वाले ही उनका सच्चा भक्त होता है। हालांकि यह भी सच है कि यहां इस लेख में उनके बारे में संपूर्ण जानकारी नहीं दी जा सकती, लेकिन हम इतना तो बता ही सकते हैं कि आपको क्या क्या जानना चाहिए?

माता रानी कौन है?

शिवपुराण के अनुसार उस अविनाशी परब्रह्म (काल) ने कुछ काल के बाद द्वितीय की इच्छा प्रकट की। उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प उदित हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से आकार की कल्पना की, जो मूर्तिरहित परम ब्रह्म है। परम ब्रह्म अर्थात एकाक्षर ब्रह्म। परम अक्षर ब्रह्म। वह परम ब्रह्म भगवान सदाशिव है। एकांकी रहकर स्वेच्छा से सभी ओर विहार करने वाले उस सदाशिव ने अपने विग्रह (शरीर) से शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्रीअंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी। सदाशिव की उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धि तत्व की जननी तथा विकाररहित बताया गया है।

वह शक्ति अम्बिका (पार्वती या सती नहीं) कही गई है। उसको प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिदेव जननी (ब्रह्मा, विष्णु और महेश की माता), नित्या और मूल कारण भी कहते हैं। सदाशिव द्वारा प्रकट की गई उस शक्ति की 8 भुजाएं हैं। पराशक्ति जगतजननी वह देवी नाना प्रकार की गतियों से संपन्न है और अनेक प्रकार के अस्त्र शक्ति धारण करती है। एकांकिनी होने पर भी वह माया शक्ति संयोगवशात अनेक हो जाती है। उस कालरूप सदाशिव की अर्द्धांगिनी हैं यह शक्ति जिसे जगदम्बा भी कहते हैं।

हिरण्याक्ष के वंश में उत्पन्न एक महा शक्तिशाली दैत्य हुआ, जो रुरु का पुत्र था जिसका नाम दुर्गमासुर था। दुर्गमासुर से सभी देवता त्रस्त हो चले थे। उसने इंद्र की नगरी अमरावती को घेर लिया था। देवता शक्ति से हीन हो गए थे, फलस्वरूप उन्होंने स्वर्ग से भाग जाना ही श्रेष्ठ समझा। भागकर वे पर्वतों की कंदरा और गुफाओं में जाकर छिप गए और सहायता हेतु आदि शक्ति अम्बिका की आराधना करने लगे। देवी ने प्रकट होकर देवताओं को निर्भिक हो जाने का आशीर्वाद दिया। एक दूत ने दुर्गमासुर को यह सभी गाथा बताई और देवताओं की रक्षक के अवतार लेने की बात कहीं। तक्षण ही दुर्गमासुर क्रोधित होकर अपने समस्त अस्त्र-शस्त्र और अपनी सेना को साथ ले युद्ध के लिए चल पड़ा। घोर युद्ध हुआ और देवी ने दुर्गमासुर सहित उसकी समस्त सेना को नष्ट कर दिया। तभी से यह देवी दुर्गा कहलाने लगी।

भगवान शंकर को महेश और महादेव भी कहते हैं। उन्हीं शंकर ने सर्वप्रथम दक्ष राजा की पुत्री दक्षायनी से विवाह किया था। इन दक्षायनी को ही सती कहा जाता है। अपने पति शंकर का अपमान होने के कारण सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में कूदकर अपनी देहलीला समाप्त कर ली थी। माता सती की देह को लेकर ही भगवान शंकर जगह-जगह घूमते रहे। जहां-जहां देवी सती के अंग और आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ निर्मित होते गए। इसके बाद माता सती ने पार्वती के रूप में हिमालयराज के यहां जन्म लेकर भगवान शिव की घोर तपस्या की और फिर से शिव को प्राप्त कर पार्वती के रूप में जगत में विख्यात हुईं।

माता पार्वती शंकर की दूसरी पत्नीं थीं जो पूर्वजन्म में सती थी। देवी पार्वती के पिता का नाम हिमवान और माता का नाम रानी मैनावती था। माता पार्वती को ही गौरी, महागौरी, पहाड़ोंवाली और शेरावाली कहा जाता है। माता पार्वती को भी दुर्गा स्वरूपा माना गया है, लेकिन वे दुर्गा नहीं है। इन्हीं माता पार्वती के दो पुत्र प्रमुख रूप से माने गए हैं एक श्रीगणेश और दूसरे कार्तिकेय।

पद्मपुराण के अनुसार देवासुर संग्राम में मधु और कैटभ नाम के दोनों भाई हिरण्याक्ष की ओर थे। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार उमा ने कैटभ को मारा था, जिससे वे 'कैटभा' कहलाईं। दुर्गा सप्तसती अनुसार अम्बिका की शक्ति महामाया ने अपने योग बल से दोनों का वध किया था।

पौराणिक मान्यता अनुसार भगवान शिव की चार पत्नियां थीं। पहली सती जिसने यज्ञ में कूद कर अपनी जान दे दी थी। यही सती दूसरे जन्म में पार्वती बनकर आई, जिनके पुत्र गणेश और कार्तिकेय हैं। फिर शिव की एक तीसरी  फिर शिव की एक तीसरी पत्नी थीं जिन्हें उमा कहा जाता था। देवी उमा को भूमि की देवी भी कहा गया है। उत्तराखंड में इनका एकमात्र मंदिर है। भगवान शिव की चौथी पत्नी मां काली है। उन्होंने इस पृथ्वी पर भयानक दानवों का संहार किया था। काली माता ने ही असुर रक्तबीज का वध किया था। इन्हें दस महाविद्याओं में से प्रमुख माना जाता है। काली भी देवी अम्बा की पुत्री थीं।

नवदुर्गा में से एक कात्यायन ऋषि की कन्या ने ही रम्भासुर के पुत्र महिषासुर का वध किया था। उसे ब्रह्मा का वरदान था कि वह स्त्री के हाथों ही मारा जाएगा। उसका वध करने के बाद माता महिषसुर मर्दिनी कहलाई। एक अन्य कथा के अनुसार जब सभी देवता उससे युद्ध करने के बाद भी नहीं जीत पाए तो भगवान विष्णु ने कहा ने सभी देवताओं के साथ मिलकर सबकी आदि कारण भगवती महाशक्ति की आराधना की जाए। सभी देवताओं के शरीर से एक दिव्य तेज निकलकर एक परम सुन्दरी स्त्री के रूप में प्रकट हुआ। हिमवान ने भगवती की सवारी के लिए सिंह दिया तथा सभी देवताओं ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र महामाया की सेवा में प्रस्तुत किए। भगवती ने देवताओं पर प्रसन्न होकर उन्हें शीघ्र ही महिषासुर के भय से मुक्त करने का आश्वासन दिया और भयंकर युद्ध के बाद उसका वध कर दिया।

 देशभर में कई जगह पर माता तुलजा भवानी और चामुण्डा माता की पूजा का प्रचलन है। खासकर यह महाराष्ट्र में अधिक है। दरअसल माता अम्बिका ही चंड और मुंड नामक असुरों का वध करने के कारण चामुंडा कहलाई। तुलजा भवानी माता को  महिषसुर मर्दिनी भी कहा जाता है। महिषसुर मर्दिनी के बारे में हम ऊपर पहले ही लिख आए हैं।

 दस महाविद्याओं में से कुछ देवी अम्बा है तो कुछ सती या पार्वती हैं तो कुछ राजा दक्ष की अन्य पुत्री। हालांकि सभी को माता काली से जोड़कर देखा जाता है। दस महाविद्याओं ने नाम निम्नलिखित हैं। काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला। कहीं कहीं इनके नाम इस क्रम में मिलते हैं:-1.काली, 2.तारा, 3.त्रिपुरसुंदरी, 4.भुवनेश्वरी, 5.छिन्नमस्ता, 6.त्रिपुरभैरवी, 7.धूमावती, 8.बगलामुखी, 9.मातंगी और 10.कमला।

नवरात्रि : वर्ष में दो बार नवरात्रि उत्सव का आयोजन होता है। पहले को चैत्र नवरात्रि और दूसरे को आश्‍विन माह की शारदीय नवरात्रि के नाम से जाना जाता है। इस तरह पूरे वर्ष में 18 दिन ही दुर्गा के होते हैं जिसमें से शारदीय नवरात्रि के नौ दिन ही उत्सव मनाया जाता है, जिसे दुर्गोत्सव कहा जाता है। माना जाता है कि चैत्र नवरात्रि शैव तांत्रिकों के लिए होती है।

इसके अंतर्गत तांत्रिक अनुष्ठान और कठिन साधनाएं की जाती है तथा दूसी शारदीय नवरात्रि सात्विक लोगों के लिए होती है जो सिर्फ मां की भक्ति तथा उत्सव हेतु है। नौ दुर्गा के नौ मंत्र :-
1. मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं शैलपुत्र्यै नम:।'
मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं ब्रह्मचारिण्यै नम:।'
मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चन्द्रघंटायै नम:।'
मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं कूष्मांडायै नम:।'
मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं स्कंदमातायै नम:।'
मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं कात्यायनायै नम:।'
मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं कालरात्र्यै नम:।'
मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं महागौर्ये नम:।'
मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सिद्धिदात्यै नम:।'

नवरात्रि व्रत : नवरात्रि में पूरे नौ दिनों के लिए शराब, मांस और सहवास के साथ की अन्न का त्याग कर दिया जाता है। उक्त नौ दिनों में यदि कोई व्यक्ति किसी भी तरह से माता का जाने या अंजाने अपमान करता है तो उसे कड़ी सजा भुगतना होती है। कई लोगों को गरबा उत्सव के नाम पर डिस्को और फिल्मी गीतों पर नाचते देखा गया है। यह माता का घोर अपमान ही है।

नवदुर्गा रहस्य : ये नवदुर्गा हैं- 1.शैलपुत्री 2.ब्रह्मचारिणी 3.चंद्रघंटा 4.कुष्मांडा 5.स्कंदमाता 6.कात्यायनी 7.कालरात्रि 8.महागौरी 9.सिद्धिदात्री। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण पार्वती माता को शैलपुत्री भी कहा जाता है।

 ब्रह्मचारिणी अर्थात जब उन्होंने तपश्चर्या द्वारा शिव को पाया था। चंद्रघंटा अर्थात जिनके मस्तक पर चंद्र के आकार का तिलक है। ब्रह्मांड को उत्पन्न करने की शक्ति प्राप्त करने के बाद उन्हें कुष्मांडा कहा जाने लगा। उदर से अंड तक वे अपने भीतर ब्रह्मांड को समेटे हुए हैं, इसीलिए कुष्‍मांडा कहलाती हैं। कुछ लोगों अनुसार कुष्मांडा नाम के एक समाज द्वारा पूजीत होने के कारण कुष्मांड कहलाई। पार्वती के पुत्र कार्तिकेय का नाम स्कंद भी है इसीलिए वे स्कंद की माता कहलाती हैं।

महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्होंने उनके यहां पुत्री रूप में जन्म लिया था इसीलिए वे कात्यायनी भी कहलाती हैं। उल्लेखनीय है जिस तरह विष्णु के अवतार होते हैं उसी तरह माता के भी। कात्यायन ऋषि की कन्या ने ही महिषासुर का वध किया था। उसका वध करने के बाद वे महिषसुर मर्दिनी कहलाई। कत नमक एक विख्यात महर्षि थे, उनके पुत्र कात्य हुए तथा इन्हीं कात्य के गोत्र में प्रसिद्ध ऋषि कात्यायन उत्पन्न हुए।

मां पार्वती देवी काल अर्थात हर तरह के संकट का नाश करने वाली हैं, इसीलिए कालरात्रि कहलाती हैं। माता का वर्ण पूर्णत: गौर अर्थात गौरा (श्वेत) है इसीलिए वे महागौरी कहलाती हैं। हालांकि कुछ पुराणों अनुसार कठोरतप करने के कारण जब उनका वर्ण काला पड़ गया तब शिव ने प्रसंन्न होकर इनके शरीर को गंगाजी के पवित्र जल से मलकर धोया तब वह विद्युत प्रभा के समान अत्यंत कांतिमान-गौर हो उठा। तभी से इनका नाम महागौरी पड़ा। जो भक्त पूर्णत: उन्हीं के प्रति समर्पित रहता है उसे वे हर प्रकार की सिद्धि दे देती हैं इसीलिए उन्हें सिद्धिदात्री कहा जाता है।

प्रत्येक देवी का वाहन अलग अलग है। देवी दुर्गा सिंह पर सवार हैं तो माता पार्वती शेर पर। पार्वती के पुत्र कार्तिकेय का नाम स्कंद भी है इसीलिए वे स्कंद की माता कहलाती हैं उन्हें सिंह पर सवार दिखाया गया है। कात्यायनी देवी को भी सिंह पर सवार दिखाया गया है। देवी कुष्मांडा शेर पर सवार है। माता चंद्रघंटा भी शेर पर सवार है। जिनकी प्रतिपद और जिनकी अष्टमी को पूजा होती है वे शैलपुत्री और महागौरी वृषभ पर सवारी करती है। माता कालरात्रि की सवारी गधा है तो सिद्धिदात्री कमल पर विराजमान है।

एक कथा अनुसार श‌िव को पत‌ि रूप में पाने के ल‌िए देवी पार्वती ने हजारों वर्ष तक तपस्या की। तपस्या से देवी सांवली हो गई। भगवान श‌िव से व‌िवाह के बाद एक द‌िन जब श‌िव पार्वती साथ बैठे थे तब भगवान श‌िव ने पार्वती से मजाक करते हुए काली कह द‌िया। देवी पार्वती को श‌िव की यह बात चुभ गई और कैलाश छोड़कर वापस तपस्या करने में लीन हो गई। इस बीच एक भूखा शेर देवी को खाने की इच्छा से वहां पहुंचा। ले‌क‌िन तपस्या में लीन देवी को देखकर वह चुपचाप बैठ गया।

शेर सोचने लगा क‌ि देवी कब तपस्या से उठे और वह उन्हें अपना आहार बना ले। इस बीच कई साल बीत गए लेक‌िन शेर अपनी जगह डटा रहा। इस बीच देवी पार्वती की तपस्या पूरी होने पर भगवान श‌िव प्रकट हुए और पार्वती गौरवर्ण यानी गोरी होने का वरदान द‌िया। इस बाद देवी पार्वती ने गंगा स्नान क‌िया और उनके शरीर से एक सांवली देवी प्रकट हुई जो कौश‌िकी कहलायी और गौरवर्ण हो जाने के कारण देवी पार्वती गौरी कहलाने लगी। देवी पार्वती ने उस स‌िंह को अपना वाहन बना ल‌िया जो उन्हें खाने के ल‌िए बैठा था। इसका कारण यह था क‌ि स‌िंह ने देवी को खाने की प्रत‌िक्षा में उन पर नजर ट‌िकाए रखकर वर्षो तक उनका ध्यान क‌िया था। देवी ने इसे स‌िंह की तपस्या मान ल‌िया और अपनी सेवा में ले ल‌िया। इसल‌िए देवी पार्वती के स‌िंह और वृष दोनों वाहन माने जाते हैं।

अम्बे या अम्बिका से संबंधित सभी देवियां का धर्म शाक्त है। हिंदुओं के पांच सम्प्रदाय हैं- वैदिक, वैष्णव, शैव, वैष्णव और स्मार्त। नाथ संप्रदाय को शैव संप्रदाय का उप संप्रदाय माना जाता है। शाक्त सम्प्रदाय को देवी का सम्प्रदाय माना जाता है। सिन्धु घाटी की सभ्यता में भी मातृदेवी की पूजा के प्रमाण मिलते हैं। शाक्त संप्रदाय प्राचीन संप्रदाय है। गुप्तकाल में यह उत्तर-पूर्वी भारत, कम्बोडिया, जावा, बोर्निया और मलाया प्राय:द्वीपों के देशों में लोकप्रिय था। बौद्ध धर्म के प्रचलन के बाद इसका प्रभाव कम हुआ।

शाक्त संप्रदाय को शैव संप्रदाय के अंतर्गत माना जाता है। शाक्तों का मानना है कि दुनिया की सर्वोच्च शक्ति स्त्रेण है इसीलिए वे देवी दुर्गा को ही ईश्वर रूप में पूजते हैं। दुनिया के सभी धर्मों में ईश्वर की जो कल्पना की गई है वह पुरुष के समान की गई है। अर्थात ईश्वर पुरुष जैसा हो सकता है किंतु शाक्त धर्म दुनिया का एकमात्र धर्म है जो सृष्टि रचनाकार को जननी या स्त्रेण मानता है। सही मायने में यही एकमात्र धर्म स्त्रियों का धर्म है। शिव तो शव है शक्ति परम प्रकाश है। हालाँकि शाक्त दर्शन की सांख्य समान ही है।

शाक्त धर्म का उद्देश्य : सभी का उद्देश्य मोक्ष है फिर भी शक्ति का संचय करो। शक्ति की उपासना करो। शक्ति ही जीवन है, शक्ति ही धर्म है, शक्ति ही सत्य है, शक्ति ही सर्वत्र व्याप्त है और शक्ति की हम सभी को आवश्यकता है। बलवान बनो, वीर बनो, निर्भय बनो, स्वतंत्र बनो और शक्तिशाली बनो। तभी तो नाथ और शाक्त संप्रदाय के साधक शक्तिमान बनने के लिए तरह-तरह के योग और साधना करते रहते हैं। सिद्धियां प्राप्त करते रहते हैं।

शक्ति का तीर्थ : माता के सभी मंदिर चमत्कारिक हैं। माता हिंगलाज, नैनादेवी, ज्वालादेवी आदि के चमत्कार के बारे में सभी लोग जानते ही है।

51 या 52 शक्ति पीठों के अलावा माँ दुर्गा के सैंकड़ों प्राचीन मंदिर है। माँ के प्रसिद्ध मंदिरों में कोल्हापुर का तुलजा भवानी मंदिर, गुजरात की पावागढ़ वाली माँ का शक्तिपीठ, विंध्यवासिनी धाम, पाटन देवी, देवास की तुलजा और चामुंडा माता, मेहर की माँ शरदा, कोलकाता की काली माता, जम्मू की वैष्णो देवी, उत्तरांचल की मनसा देवी, नयना देवी, आदि।

शाक्त सम्प्रदाय में दुर्गा के संबंध में 'श्रीदुर्गा भागवत पुराण' एक प्रमुख ग्रंथ है, जिसमें 108 देवीपीठों का वर्णन किया गया है। उनमें से भी 51-52 शक्तिपीठों का खास महत्व है। इसी में दुर्गा सप्तशति है।

शनिवार, 28 सितंबर 2019

मां दुर्गा के इन सिद्घ मंत्रों से पूरी होगी हर मनोकामना

मां दुर्गा के इन सिद्घ मंत्रों से पूरी होगी हर मनोकामना
जो धन संबंधी परेशानियों से बुरी तरह परेशान हैं वह अपनी गरीबी दूर करने के लिए नियमित माता के इस सिद्घ मंत्र का जप करें।दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः। सवर्स्धः स्मृता मतिमतीव शुभाम् ददासि।।
संतान सुख के साथ ही धन धान्य की प्राप्ति की इच्छा रखने वाले भक्त माता के इस मंत्र का नियमित जप करें।
सर्वाबाधा वि निर्मुक्तो धन धान्य सुतान्वितः।मनुष्यों मत्प्रसादेन भवष्यति न संशय॥
अच्छा समय है तो बुरा समय भी आ सकता है। जब कभी बुरा समय आ जाए और आपको संकट से निकलने का कोई मार्ग नहीं मिले तो दुर्गा सप्तशती के इस विपत्ति हरण मंत्र का जप करना चाहिए। यह बहुत ही प्रभावशाली माना जाता है। शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते।।
बेहतर स्वास्थ्य के साथ धन और ऐश्वर्य की प्राप्ति की कामना रखने वालों के लिए यह सिद्घ मंत्र है इस मंत्र का नियमित जप आपकी धन और बेहतर स्वास्थ्य की कामना पूरी करेगा।ऐश्वर्य यत्प्रसादेन सौभाग्य-आरोग्य सम्पदः। शत्रु हानि परो मोक्षः स्तुयते सान किं जनै।।
जन्म और मृत्यु का चक्र हमेशा चलता रहता है। और जो भी धरती पर आता है उसे सुख दुःख भोगना पड़ता है। अगर आप इस आवागमन से मुक्ति चाहते हैं तो दुर्गा सप्तशती के इस सिद्घ मंत्र का नियमित जप करें।सर्वस्य बुद्धिरुपेण जनस्य हृदि संस्थिते। स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते।।
अगर आप चाहते हैं कि आपमें वह शक्ति आ जाए कि आप भविष्य में होने वाली घटनाओं को पहले से जान लें तो नियमित इस मंत्र का जप करें-दुर्गे देवि नमस्तुभ्यं सर्वकामार्थसाधिके। मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय।।इस मंत्र से सपने में भूत भविष्य जानने के क्षमता आ जाती है।
अगर आप चाहते है कि आपमें आकर्षण क्षमता आ जाए ताकि आप जहां भी जाएं लोग आपके व्यक्तित्व से अकर्षित हो जाएं और आपका कम बन जाए तो नियमित इस मंत्र का जप करें।ॐ महामायां हरेश्चैषा तया संमोह्यते जगत्, ज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।।
कुंवारे लोगों के लिए यह मंत्र बड़ा ही प्रभावशाली माना गया है। इस मंत्र के जप से सुंदर और सुयोग्य जीवनसाथी की प्राप्ति होती है-पत्‌नीं मनोरमां देहि नोवृत्तानुसारिणीम्। तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥
अगर आप शारीरिक और मानसिक रुप से शक्तिशाली बनना चाहते हैं नियमिम इस मंत्र का जप करें-सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि। गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते।।
अगर आप चाहते हैं कि आपको जीवन में प्रसन्नता और आनंद मिलता रहे तो नियमित इस मंत्र का जप करें-प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि। त्रैलोक्यवासिनामीडये लोकानां वरदा भव।।

शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

द्रोणाचार्य पुत्र अश्वस्थामा की कथा।

महाभारत युध्द से पुर्व गुरु द्रोणाचार्य जी अनेक स्थानो मे भ्रमण करते हुए हिमालय (ऋषिकेश) प्‌हुचे। वहा तमसा नदी के किनारे एक दिव्य गुफा मे तपेश्वर नामक स्वय्मभू शिवलिग हे। यहा गुरु द्रोणाचार्य जी और उनकी पत्नी माता कृपि ने शिवजी की तपस्या की। इनकी तपस्या से खुश होकर भगवान शिव ने इन्हे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया।

 कुछ समय बाद माता कृपि ने एक सुन्दर तेजश्वी बाल़क को जन्म दिया। जन्म ग्रहण करते ही इनके कण्ठ से हिनहिनाने की सी ध्वनि हुई जिससे इनका नाम अश्वत्थामा पड़ा। जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी |जो कि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी।

महाभारत युध्द के समय गुरु द्रोणाचार्य जी ने हस्तिनापुर (मेरठ) राज्य के प्रति निष्ठा। होने के कारण कोरवो का साथ देना उचित समझा। अश्वत्थामा भी अपने पिता की तरह शास्त्र व शस्त्र विद्या मे निपूण थे। महाभारत के युद्ध में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था। महाभारत युद्ध में ये कौरव-पक्ष के एक सेनापति थे।

 उन्होंने भीम-पुत्र घटोत्कच को परास्त किया तथा घटोत्कच पुत्र अंजनपर्वा का वध किया। उसके अतिरिक्त द्रुपदकुमार, शत्रुंजय, बलानीक, जयानीक, जयाश्व तथा राजा श्रुताहु को भी मार डाला था। उन्होंने कुंतीभोज के दस पुत्रों का वध किया। पिता-पुत्र की जोडी ने महाभारत युध्द के समय पाण्डव सेना को तितर-बितर कर दिया। पाण्डवो की सेना की हार देख़कर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कुट-निति सहारा लेने को कहा।

 इस योजना के तहत यह बात फेला दी गई कि "अश्वत्थामा मारा गया" जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता जानना चाही तो उन्होने जवाब दिया-"अश्वत्थामा मारा गया परन्तु हाथी"॥

 श्रीकृष्ण ने उसी समय शन्खनाद किया, जिसके शोर से गुरु द्रोणाचार्य आखरी शब्द नही सुन पाए। अपने प्रिय पुत्र की मोत का समाचार सुनकर आपने शस्त्र त्याग दिये और युध्द भूमि मे आखे बन्द कर शोक अवस्था मे बेट गये।

 गुरु द्रोणाचार्य जी को निहत्ता जानकर द्रोपदी के भाई द्युष्टद्युम्न ने तलवार से उनका सिर काट डाला। गुरु द्रोणाचार्य जी की निर्मम हत्या के बाद पांडवों की जीत होने लगी। इस तरह महाभारत युद्ध में अर्जुन के तीरों एवं भीमसेन की गदा से कौरवों का नाश हो गया। दुष्ट और अभिमानी दुर्योधन की जाँघ भी भीमसेन ने मल्लयुद्ध में तोड़ दी।

अपने राजा दुर्योधन की ऐसी दशा देखकर और अपने पिता द्रोणाचार्य की मृत्यु का स्मरण कर अश्वत्थामा अधीर हो गया। दुर्योधन पानी को बान्धने की कला जानता था। सो जिस तालाब के पास गदायुध्द चल रहा था उसी तालाब मे घुस गया और पानी को बान्धकर छुप गया। दुर्योधन के पराजय होते ही युद्ध में पाण्डवो की जीत पक्की हो गई थी सभी पाण्डव खेमे के लोग जीत की खुशी मे मतवाले हो रहे थे।

अश्वत्थामा ने द्रोणाचार्य वध के पश्चात अपने पिता की निर्मम हत्या का बदला लेने के लिए पाण्डवो पर नारायण अस्त्र का प्रयोग किया था।

 जिसके आगे सारी पाण्डव सेना ने हथियार डाल दिया था। युध्द ह्थ्के पश्चात अश्वत्थामा ने द्रोपदी के पाँचो पुत्र और द्युष्टद्युम्न का वध कर दिया| अश्वत्थामा ने अभिमन्यु पुत्र परीक्षित पर बह्मशीर्ष अस्त्र का प्रयोग किया। अश्वत्थामा अमर है और आज भी जीवित हैँ। भगवान क्रष्ण के श्राप के कारण अश्वत्थामा को कोढ़ रोग हो गया। आज भी वह जीवित है।

 छुप कर वह पांडवों के शिविर में पहुँचा और घोर कालरात्रि में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के बचे हुये वीर महारथियों को मार डाला। केवल यही नहीं, उसने पांडवों के पाँचों पुत्रों के सिर भी अश्वत्थामा ने काट डाले। अश्वत्थामा के इस कुकर्म की सभी ने निंदा की यहाँ तक कि दुर्योधन तक को भी यह अच्छा नहीं लगा।

पुत्रों के हत्या से दुखी द्रौपदी विलाप करने लगी। उसके विलाप को सुन कर अर्जुन ने उस नीच कर्म हत्यारे ब्राह्मण के सिर को काट डालने की प्रतिज्ञा की। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन अश्वत्थामा भाग निकला।

श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर एवं अपना गाण्डीव धनुष लेकर अर्जुन ने उसका पीछा किया। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो भय के कारण उसने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र को चलाना तो जानता था पर उसे लौटाना नहीं जानता था।

उस अति प्रचण्ड तेजोमय अग्नि को अपनी ओर आता देख अर्जुन ने श्रीकृष्ण से विनती की, “हे जनार्दन! आप ही इस त्रिगुणमयी श्रृष्टि को रचने वाले परमेश्वर हैं। श्रृष्टि के आदि और अंत में आप ही शेष रहते हैं।

आप ही अपने भक्तजनों की रक्षा के लिये अवतार ग्रहण करते हैं। आप ही ब्रह्मास्वरूप हो रचना करते हैं, आप ही विष्णु स्वरूप हो पालन करते हैं और आप ही रुद्रस्वरूप हो संहार करते हैं। आप ही बताइये कि यह प्रचण्ड अग्नि मेरी ओर कहाँ से आ रही है और इससे मेरी रक्षा कैसे होगी?”

श्रीकृष्ण बोले, “है अर्जुन! तुम्हारे भय से व्याकुल होकर अश्वत्थामा ने यह ब्रह्मास्त्र तुम पर ब्रह्मास्त्र से तुम्हारे प्राण घोर संकट में है। वह अश्वत्थामा इसका प्रयोग तो जानता है किन्तु इसके निवारण से अनभिज्ञ है। इससे बचने के लिये तुम्हें भी अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना होगा क्यों कि अन्य किसी अस्त्र से इसका निवारण नहीं हो सकता।”

श्रीकृष्ण की इस मंत्रणा को सुनकर महारथी अर्जुन ने भी तत्काल आचमन करके अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। दोनों ब्रह्मास्त्र परस्पर भिड़ गये और प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न होकर तीनों लोकों को तप्त करने लगी। उनकी लपटों से सारी प्रजा दग्ध होने लगी। इस विनाश को देखकर अर्जुन ने दोंनों ब्रह्मास्त्रों को लौटा कर शांत कर दिया और झपट कर अश्वत्थामा को पकड़ कर बाँध लिया।

 श्रीकृष्ण बोले, “हे अर्जुन! धर्मात्मा, सोये हुये, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोये हुये निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा। अतः तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रख कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।”

श्रीकृष्ण के इन शब्दों को सुनने के बाद भी धीरवान अर्जुन को गुरुपुत्र पर दया ही आई और उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के सामने उपस्थित किया। पशु की तरह बँधे हुये गुरुपुत्र को देख कर ममतामयी द्रौपदी का कोमल हृदय पिघल गया।

 उसने गुरुपुत्र को नमस्कार किया और उसे बन्धनमुक्त करने के लिये अर्जुन से कहा, “हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण सदा पूजनीय होता है और उसकी हत्या करना पाप है। आपने इनके पिता से ही इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है।

 पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बन्दी रूप में खड़े हैं। इनका वध करने से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्र शोक में विलाप करेगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरन्तर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौट कर तो नहीं आ सकते! अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिये।”

द्रौपदी के इन न्याय तथा धर्मयुक्त वचनों को सुन कर सभी ने उसकी प्रशंसा की किन्तु भीम का क्रोध शांत नहीं हुआ। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, “हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दण्ड न देना भी पाप है।

अतः तुम वही करो जो उचित है।” उनकी बात को समझ कर अर्जुन ने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर के केश काट डाले और उसके मस्तक की मणि निकाल ली। मणि निकल जाने से वह श्रीहीन हो गया।

 श्रीहीन तो वह उसी क्षण हो गया था जब उसने बालकों की हत्या की थी किन्तु केश मुंड जाने और मणि निकल जाने से वह और भी श्रीहीन हो गया और उसका सिर झुक गया। अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से बाहर निकाल दिया।

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

वाराह अवतार की कथा

वराह अवतार हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतारों में से तृतीय अवतार हैं।

हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने जब दिति के गर्भ से जुड़वां रूप में जन्म लिया, तो पृथ्वी कांप उठी। आकाश में नक्षत्र और दूसरे लोक इधर से उधर दौड़ने लगे, समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें पैदा हो उठीं और प्रलयंकारी हवा चलने लगी। ऐसा ज्ञात हुआ, मानो प्रलय आ गई हो।

हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों पैदा होते ही बड़े हो गए। दैत्यों के बालक पैदा होते ही बड़े हो जाते है और अपने अत्याचारों से धरती को कपांने लगते हैं। यद्यपि हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों बलवान थे, किंतु फिर भी उन्हें संतोष नहीं था। वे संसार में अजेयता और अमरता प्राप्त करना चाहते थे।

ब्रह्माजी का वरदान,,,,,,हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों ने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए बहुत बड़ा तप किया। उनके तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर कहा, 'तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूं। वर मांगो, क्या चाहते हो?' हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने उत्तर दिया,'प्रभो, हमें ऐसा वर दीजिए, जिससे न तो कोई युद्ध में हमें पराजित कर सके और न कोई मार सके।

' ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहकर अपने लोक में चले गए। ब्रह्मा जी से अजेयता और अमरता का वरदान पाकर हिरण्याक्ष उद्दंड और स्वेच्छाचारी बन गया। वह तीनों लोकों में अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा। दूसरों की तो बात ही क्या, वह स्वयं विष्णु भगवान को भी अपने समक्ष तुच्छ मानने लगा। हिरण्याक्ष ने गर्वित होकर तीनों लोकों को जीतने का विचार किया।

वह हाथ में गदा लेकर इन्द्रलोक में जा पहुंचा। देवताओं को जब उसके पहुंचने की ख़बर मिली, तो वे भयभीत होकर इन्द्रलोक से भाग गए। देखते ही देखते समस्त इन्द्रलोक पर हिरण्याक्ष का अधिकार स्थापित हो गया। जब इन्द्रलोक में युद्ध करने के लिए कोई नहीं मिला, तो हिरण्याक्ष वरुण की राजधानी विभावरी नगरी में जा पहुंचा। उसने वरुण के समक्ष उपस्थित होकर कहा,'वरुण देव, आपने दैत्यों को पराजित करके राजसूय यज्ञ किया था।

आज आपको मुझे पराजित करना पड़ेगा। कमर कस कर तैयार हो जाइए, मेरी युद्ध पिपासा को शांत कीजिए।' हिरण्याक्ष का कथन सुनकर वरुण के मन में रोष तो उत्पन्न हुआ, किंतु उन्होंने भीतर ही भीतर उसे दबा दिया। वे बड़े शांत भाव से बोले,'तुम महान् योद्धा और शूरवीर हो।तुमसे युद्ध करने के लिए मेरे पास शौर्य कहां? तीनों लोकों में भगवान विष्णु को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे युद्ध कर सके। अतः उन्हीं के पास जाओ। वे ही तुम्हारी युद्ध पिपासा शांत करेंगे।'

हिरण्याक्ष और वराहावतार,,,,,,वरुण का कथन सुनकर हिरण्याक्ष भगवान विष्णु की खोज में समुद्र के नीचे रसातल में जा पजुंचा। रसातल में पहुंचकर उसने एक विस्मयजनक दृश्य देखा। उसने देखा, एक वराह अपने दांतों के ऊपर धरती को उठाए हुए चला जा रहा है। वह मन ही मन सोचने लगा, यह वराह कौन है?

कोई भी साधारण वराह धरती को अपने दांतों के ऊपर नहीं उठा सकता। अवश्य यह वराह के रूप में भगवान विष्णु ही हैं, क्योंकि वे ही देवताओं के कल्याण के लिए माया का नाटक करते रहते हैं। हिरण्याक्ष वराह को लक्ष्य करके बोल उठा,'तुम अवश्य ही भगवान विष्णु हो। धरती को रसातल से कहां लिए जा रहे हो? यह धरती तो दैत्यों के उपभोग की वस्तु है। इसे रख दो। तुम अनेक बार देवताओं के कल्याण के लिए दैत्यों को छल चुके हो। आज तुम मुझे छल नहीं सकोगे।

आज में पुराने बैर का बदला तुमसे चुका कर रहूंगा।' यद्यपि हिरण्याक्ष ने अपनी कटु वाणी से गहरी चोट की थी, किंतु फिर भी भगवान विष्णु शांत ही रहे। उनके मन में रंचमात्र भी क्रोध पैदा नहीं हुआ। वे वराह के रूप में अपने दांतों पर धरती को लिए हुए आगे बढ़ते रहे। हिरण्याक्ष भगवान वराह रूपी विष्णु के पीछे लग गया। वह कभी उन्हें निर्लज्ज कहता, कभी कायर कहता और कभी मायावी कहता, पर भगवान विष्णु केवल मुस्कराकर रह जाते।

उन्होंने रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया। हिरण्याक्ष उनके पीछे लगा हुआ था। अपने वचन-बाणों से उनके हृदय को बेध रहा था। भगवान विष्णु ने धरती को स्थापित करने के पश्चात् हिरण्याक्ष की ओर ध्यान दिया। उन्होंने हिरण्याक्ष की ओर देखते हुए कहा,'तुम तो बड़े बलवान हो। बलवान लोग कहते नहीं हैं, करके दिखाते हैं। तुम तो केवल प्रलाप कर रहे हो।

मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं। तुम क्यों नहीं मुझ पर आक्रमण करते? बढ़ो आगे, मुझ पर आक्रमण करो।' हिरण्याक्ष की रगों में बिजली दौड़ गई। वह हाथ में गदा लेकर भगवान विष्णु पर टूट पड़ा। भगवान के हाथों में कोई अस्त्र शस्त्र नहीं था। उन्होंने दूसरे ही क्षण हिरण्याक्ष के हाथ से गदा छीनकर दूर फेंक दी। हिरण्याक्ष क्रोध से उन्मत्त हो उठा। वह हाथ में त्रिशूल लेकर भगवान विष्णु की ओर झपटा।

हिरण्याक्ष का वध,,,,,भगवान विष्णु ने शीघ्र ही सुदर्शन का आह्वान किया, चक्र उनके हाथों में आ गया। उन्होंने अपने चक्र से हिरण्याक्ष के त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। हिरण्याक्ष अपनी माया का प्रयोग करने लगा। वह कभी प्रकट होता, तो कभी छिप जाता, कभी अट्टहास करता, तो कभी डरावने शब्दों में रोने लगता, कभी रक्त की वर्षा करता, तो कभी हड्डियों की वर्षा करता।

भगवान विष्णु उसके सभी माया कृत्यों को नष्ट करते जा रहे थे। जब भगवान विष्णु हिरण्याक्ष को बहुत नचा चुके, तो उन्होंने उसकी कनपटी पर कस कर एक चपत जमाई। उस चपत से उसकी आंखें निकल आईं। वह धरती पर गिरकर निश्चेष्ट हो गया। भगवान विष्णु के हाथों मारे जाने के कारण हिरण्याक्ष बैकुंठ लोक में चला गया। वह फिर भगवान के द्वार का प्रहरी बनकर आनंद से जीवन व्यतीत करने लगा।

भगवान विष्णु से प्रेम करना भी अच्छा है, बैर करना भी अच्छा है। जो प्रेम करता है, वह भी विष्णुलोक में जाता है, और जो बैर करता है, वह उनसे दण्ड पाकर विष्णुलोक में जाता है। प्रेम और बैर भगवान की दृष्टि में दोनों बराबर हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि भगवान सब प्रकार के भेदों से परे है, बहुत परे।

शनिवार, 14 सितंबर 2019

पितृ पक्ष और श्राद्ध

जानीऐ श्राद्ध के बारे मे

ब्रह्मपुराण के ‘श्राद्ध’ अध्याय में श्राद्ध की निम्न व्याख्या है –

देशे काले च पात्रे च
 श्रद्धया विधिना च यत् ।
पित¸नुद्दिश्य विप्रेभ्यो
 दत्तं श्राद्धमुदाहृतम् ।।

 – ब्रह्मपुराण

अर्थ : देश, काल तथा पात्र (उचित स्थान)के अनुसार, पितरों को उद्देशित कर ब्राह्मणों को श्रद्धा एवं विधियुक्त जो (अन्नादि) दिया जाता है, उसे श्राद्ध कहते हैं ।

अमावास्वादिने प्राप्ते
 गृहद्वारं समाश्रिताः ।
वायुभूताः प्रपश्यन्ति
 श्राद्धं वै पितरो नृणाम् ॥

यावदस्तमयं भानोः
 क्षुत्पिपासासमाकुलाः ।
ततश्‍चास्तंगते भानौ
 निराशादुःखसंयुताः ।

निःश्‍वस्य सुचिरं यान्ति
 गर्हयन्तः स्ववंशजम् ।
जलेनाऽपिचन श्राद्धं
 शाकेनापि करोति यः ॥

अमायां पितरस्तस्य
शापं दत्वा प्रयान्ति च ॥

– कूर्मपुराण

अर्थ : (मृत्यु के पश्‍चात) वायुरूप बने पूर्वज, अमावस्या के दिन अपने वंशजों के घर पहुंचकर देखते हैं कि उनके लिए श्राद्ध भोजन परोसा गया है अथवा नहीं । भूख-प्यास से व्याकुल पितर सूर्यास्त तक श्राद्ध भोजन की प्रतीक्षा करते हैं । न मिलने पर, निराश और दुःखी होते हैं तथा आह भरकर अपने वंशजों को चिरकाल दोष देते हैं । ऐसे समय जो पानी अथवा सब्जी भी नहीं परोसता, उसको उसके पूर्वज शाप देकर लौट जाते हैं ।

न सन्ति पितरश्‍चेति
कृत्वा मनसि वर्तते ।
श्राद्धं न कुरुते यस्तु
तस्य रक्तं पिबन्ति ते ॥ 

– आदित्यपुराण

अर्थ : मृत्यु के पश्‍चात पूर्वजों का अस्तित्व नहीं होता, ऐसा मानकर जो श्राद्ध नहीं करता, उसका रक्त उसके पूर्वज पीते हैं ।

श्राद्ध न करने से प्राप्त दोष

न तत्र वीरा जायन्ते
 नाऽऽरोग्यं न शतायुषः ।
न च श्रेयोऽधिगच्छन्ति
 यत्र श्राद्धं विवर्जितम् ॥

– मार्कण्डेयपुराण

अर्थ : जहां श्राद्ध नहीं होता, उसके घर लड़का (वीराः) नहीं जन्मता । (जन्मीं तो केवल लडकियां ही जन्मती हैं ।), उस परिवार के लोग स्वस्थ्य और शतायु नहीं होते तथा उनको आर्थिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं अथवा संतुष्टि नहीं प्राप्त होती ।

                       

बुधवार, 11 सितंबर 2019

अनंत चतुर्दशी विशेष

मित्रो कल भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी है, इसे अनन्त चतुर्दशी भी कहा जाता है। आपको आपके परिवार को अन्नतचतुर्दशी पावन पर्व की बहुत बहुत शुभकामनाएं!!!!!!!!

अनंत चतुर्दशी ,इस दिन अनन्त भगवान की पूजा करके संकटों से रक्षा करने वाला अनन्तसूत्रबांधा जाता है। क्या ये तथ्य है या केवल एक राय है? कहा जाता है कि जब पाण्डव जुएमें अपना सारा राज-पाट हारकर वन में कष्ट भोग रहे थे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अनन्तचतुर्दशीका व्रत करने की सलाह दी थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा द्रौपदीके साथ पूरे विधि-विधान से यह व्रत किया तथा अनन्तसूत्रधारण किया। अनन्तचतुर्दशी-व्रतके प्रभाव से पाण्डव सब संकटों से मुक्त हो गए।

व्रत-विधान-व्रतकर्ता प्रात:स्नान करके व्रत का संकल्प करें। शास्त्रों में यद्यपि व्रत का संकल्प एवं पूजन किसी पवित्र नदी या सरोवर के तट पर करने का विधान है, तथापि ऐसा संभव न हो सकने की स्थिति में घर में पूजागृह की स्वच्छ भूमि पर कलश स्थापित करें। कलश पर शेषनाग की शैय्यापर लेटे भगवान विष्णु की मूíत अथवा चित्र को रखें। उनके समक्ष चौदह ग्रंथियों (गांठों) से युक्त अनन्तसूत्र (डोरा) रखें। इसके बाद ॐ अनन्तायनम: मंत्र से भगवान विष्णु तथा अनंतसूत्रकी षोडशोपचार-विधिसे पूजा करें। पूजनोपरांतअनन्तसूत्रको मंत्र पढकर पुरुष अपने दाहिने हाथ और स्त्री बाएं हाथ में बांध लें-

अनंन्तसागरमहासमुद्रेमग्नान्समभ्युद्धरवासुदेव।
अनंतरूपेविनियोजितात्माह्यनन्तरूपायनमोनमस्ते॥

अनंतसूत्रबांध लेने के पश्चात किसी ब्राह्मण को नैवेद्य (भोग) में निवेदित पकवान देकर स्वयं सपरिवार प्रसाद ग्रहण करें। पूजा के बाद व्रत-कथा को पढें या सुनें। कथा का सार-संक्षेप यह है- सत्ययुग में सुमन्तुनाम के एक मुनि थे। उनकी पुत्री शीला अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुशील थी। सुमन्तु मुनि ने उस कन्या का विवाह कौण्डिन्यमुनि से किया।

 कौण्डिन्यमुनि अपनी पत्नी शीला को लेकर जब ससुराल से घर वापस लौट रहे थे, तब रास्ते में नदी के किनारे कुछ स्त्रियां अनन्त भगवान की पूजा करते दिखाई पडीं। शीला ने अनन्त-व्रत का माहात्म्य जानकर उन स्त्रियों के साथ अनंत भगवान का पूजन करके अनन्तसूत्रबांध लिया। इसके फलस्वरूप थोडे ही दिनों में उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया।

एक दिन कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं हाथ में बंधे अनन्तसूत्रपर पडी, जिसे देखकर वह भ्रमित हो गए और उन्होंने पूछा-क्या तुमने मुझे वश में करने के लिए यह सूत्र बांधा है? शीला ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया-जी नहीं, यह अनंत भगवान का पवित्र सूत्र है। परंतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौण्डिन्यने अपनी पत्नी की सही बात को भी गलत समझा और अनन्तसूत्रको जादू-मंतर वाला वशीकरण करने का डोरा समझकर तोड दिया तथा उसे आग में डालकर जला दिया।

 इस जघन्य कर्म का परिणाम भी शीघ्र ही सामने आ गया। उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। दीन-हीन स्थिति में जीवन-यापन करने में विवश हो जाने पर कौण्डिन्यऋषि ने अपने अपराध का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया। वे अनन्त भगवान से क्षमा मांगने हेतु वन में चले गए।

उन्हें रास्ते में जो मिलता वे उससे अनन्तदेवका पता पूछते जाते थे। बहुत खोजने पर भी कौण्डिन्यमुनि को जब अनन्त भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब वे निराश होकर प्राण त्यागने को उद्यत हुए। तभी एक वृद्ध ब्राह्मण ने आकर उन्हें आत्महत्या करने से रोक दिया और एक गुफामें ले जाकर चतुर्भुजअनन्तदेवका दर्शन कराया।

भगवान ने मुनि से कहा-तुमने जो अनन्तसूत्रका तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है। इसके प्रायश्चित हेतु तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनन्त-व्रत का पालन करो। इस व्रत का अनुष्ठान पूरा हो जाने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुन:प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत् सुखी-समृद्ध हो जाओगे।

 कौण्डिन्यमुनिने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया। भगवान ने आगे कहा-जीव अपने पूर्ववत् दुष्कर्मोका फल ही दुर्गति के रूप में भोगता है। मनुष्य जन्म-जन्मांतर के पातकों के कारण अनेक कष्ट पाता है। अनन्त-व्रत के सविधि पालन से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती है। कौण्डिन्यमुनि ने चौदह वर्ष तक अनन्त-व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुन:प्राप्त कर लिया।

अनंत चतुर्दशी या अनंत चौदस जैन धर्मावलंबियों के लिए सबसे पवित्र तिथि है। यह मुख्य जैन त्यौहार, पर्यूषण पर्व का आख़री दिन होता है

गुरुवार, 5 सितंबर 2019

निःसंतान दम्पति करें संतान सप्तमी का व्रत

संतान सप्तमी पर आज रखें मुक्ताभरण व्रत
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-नि:संतान स्त्रियों को मिलेगा संतान सुख
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आज यानी 5 सितम्बर को मुक्ताभरण संतान सप्तमी है। इस दिन नि:संतान दम्पती व्रत रख कर व कथा सुनकर पूजा करते हैं तो उन्हें संतान प्राप्ति के साथ ही सुख प्राप्ति का वरदान मिलता है।

संतान सप्तमी की कथा
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एक बार श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि किसी समय मथुरा में लोमश ऋषि आए थे। मेरे माता-पिता देवकी तथा वसुदेव ने भक्तिपूर्वक उनकी सेवा की तो ऋषि ने उन्हें कंस द्वारा मारे गए पुत्रों के शोक से उबरने के लिए आदेश दिया- हे देवकी! कंस ने तुम्हारे कई पुत्रों को पैदा होते ही मारकर तुम्हें पुत्रशोक दिया है। इस दु:ख से मुक्त होने के लिए तुम संतान सप्तमी का व्रत करो। राजा नहुष की रानी चंद्रमुखी ने भी यह व्रत किया था। तब उसके भी पुत्र नहीं मरे। यह व्रत तुम्हें भी पुत्रशोक से मुक्त करेगा।

देवकी ने पूछा- हे देव! मुझे व्रत का पूरा विधि-विधान बताने की कृपा करें ताकि मैं विधिपूर्वक व्रत सम्पन्न करूं। लोमश ऋषि ने उन्हें व्रत का पूजन-विधान बताकर व्रतकथा भी बताई।

नहुष अयोध्यापुरी का प्रतापी राजा था। उसकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था। उसके राज्य में ही विष्णुदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम रूपवती था। रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती में परस्पर घनिष्ठ प्रेम था। एक दिन वे दोनों सरयू में स्नान करने गईं। वहाँ अन्य स्त्रियाँ भी स्नान कर रही थीं। उन स्त्रियों ने वहीं पार्वती-शिव की प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक उनका पूजन किया। तब रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती ने उन स्त्रियों से पूजन का नाम तथा विधि पूछी।

उन स्त्रियों में से एक ने बताया- हमने पार्वती सहित शिव की पूजा की है। भगवान शिव का डोरा बांधकर हमने संकल्प किया है कि जब तक जीवित रहेंगी, तब तक यह व्रत करती रहेंगी। यह मुक्ताभरण व्रत सुख तथा संतान देने वाला है।

उस व्रत की बात सुनकर उन दोनों सखियों ने भी जीवन-पर्यन्त इस व्रत को करने का संकल्प करके शिवजी के नाम का डोरा बाँध लिया। किन्तु घर पहुँचने पर वे संकल्प को भूल गईं। फलत: मृत्यु के पश्चात रानी वानरी तथा ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुईं।

कालांतर में दोनों पशु योनि छोड़कर पुन: मनुष्य योनि में आईं। चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी तथा रूपवती ने फिर एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया। इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी तथा ब्राह्मणी का नाम भूषणा था। भूषणा का विवाह राजपुरोहित अग्निमुखी के साथ हुआ। इस जन्म में भी उन दोनों में बड़ा प्रेम हो गया।

व्रत भूलने के कारण ही रानी इस जन्म में भी संतान सुख से वंचित रही। प्रौढ़ावस्था में उसने एक गूंगा तथा बहरा पुत्र जन्मा, मगर वह भी नौ वर्ष का होकर मर गया। भूषणा ने व्रत को याद रखा था। इसलिए उसके गर्भ से सुन्दर तथा स्वस्थ आठ पुत्रों ने जन्म लिया।

रानी ईश्वरी के पुत्रशोक की संवेदना के लिए एक दिन भूषणा उससे मिलने गई। उसे देखते ही रानी के मन में डाह पैदा हुई। उसने भूषणा को विदा करके उसके पुत्रों को भोजन के लिए बुलाया और भोजन में विष मिला दिया। परन्तु भूषणा के व्रत के प्रभाव से उनका बाल भी बांका न हुआ।

इससे रानी को और भी अधिक क्रोध आया। उसने अपने नौकरों को आज्ञा दी कि भूषणा के पुत्रों को पूजा के बहाने यमुना के किनारे ले जाकर गहरे जल में धकेल दिया जाए। किन्तु भगवान शिव और माता पार्वती की कृपा से इस बार भी भूषणा के बालक व्रत के प्रभाव से बच गए। परिणामत: रानी ने जल्लादों को बुलाकर आज्ञा दी कि ब्राह्मण बालकों को वध-स्थल पर ले जाकर मार डालो किन्तु जल्लादों द्वारा बेहद प्रयास करने पर भी बालक न मर सके। यह समाचार सुनकर रानी को आश्चर्य हुआ। उसने भूषणा को बुलाकर सारी बात बताई और फिर क्षमायाचना करके उससे पूछा- किस कारण तुम्हारे बच्चे नहीं मर पाए?

भूषणा बोली- क्या आपको पूर्वजन्म की बात स्मरण नहीं है? रानी ने आश्चर्य से कहा- नहीं, मुझे तो कुछ याद नहीं है?

तब उसने कहा- सुनो, पूर्वजन्म में तुम राजा नहुष की रानी थी और मैं तुम्हारी सखी। हम दोनों नेएक बार भगवान शिव का डोरा बांधकर संकल्प किया था कि जीवन-पर्यन्त संतान सप्तमी का व्रत किया करेंगी। किन्तु दुर्भाग्यवश हम भूल गईं और व्रत की अवहेलना होने के कारण विभिन्न योनियों में जन्म लेती हुई अब फिर मनुष्य जन्म को प्राप्त हुई हैं। अब मुझे उस व्रत की याद हो आई थी, इसलिए मैंने व्रत किया। उसी के प्रभाव से आप मेरे पुत्रों को चाहकर भी न मरवा सकीं।

यह सब सुनकर रानी ईश्वरी ने भी विधिपूर्वक संतान सुख देने वाला यह मुक्ताभरण व्रत रखा। तब व्रत के प्रभाव से रानी पुन: गर्भवती हुई और एक सुंदर बालक को जन्म दिया। उसी समय से पुत्र-प्राप्ति और संतान की रक्षा के लिए यह व्रत प्रचलित है।

संतान सप्तमी का व्रत पूजन
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यह व्रत पुत्र प्राप्ति, पुत्र रक्षा तथा पुत्र अभ्युदय के लिए भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को किया जाता है। इस व्रत का विधान दोपहर तक रहता है। इस दिन जाम्बवती के साथ श्यामसुंदर तथा उनके बच्चे साम्ब की पूजा भी की जाती है। माताएँ पार्वती का पूजन करके पुत्र प्राप्ति तथा उसके अभ्युदय का वरदान माँगती हैं। इस व्रत को मुक्ताभरण भी कहते हैं।

कैसे करें व्रत
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प्रात: स्नानादि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र पहनें।
दोपहर को चौक पूर कर चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, सुपारी तथा नारियल आदि से शिव-पार्वती की पूजा करें।
इस दिन नैवेद्य भोग के लिए खीर-पूरी तथा गुड़ के पुए रखें।
रक्षा के लिए शिवजी को डोरा भी अर्पित करें।

बुधवार, 4 सितंबर 2019

पंचमुखी हनुमान में है भगवान शंकर के पांच अवतारों की शक्ति!

पंचमुखी हनुमान में है भगवान शंकर के पांच अवतारों की शक्ति!!!!!!!!

शंकरजी के पांचमुख—तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव, अघोर व ईशान हैं; उन्हीं शंकरजी के अंशावतार हनुमानजी भी पंचमुखी हैं । मार्गशीर्ष (अगहन) मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को, पुष्य नक्षत्र में, सिंहलग्न तथा मंगल के दिन पंचमुखी हनुमानजी ने अवतार धारण किया । हनुमानजी का यह स्वरूप सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है । हनुमानजी का एकमुखी, पंचमुखी और ग्यारहमुखी स्वरूप ही अधिक प्रचलित हैं ।

हनुमानजी के पांचों मुखों के बारे में श्रीविद्यार्णव-तन्त्र में इस प्रकार कहा गया है—

पंचवक्त्रं महाभीमं त्रिपंचनयनैर्युतम् ।
बाहुभिर्दशभिर्युक्तं सर्वकाम्यार्थ सिद्धिदम् ।।

विराट्स्वरूप वाले हनुमानजी के पांचमुख, पन्द्रह नेत्र हैं और दस भुजाएं हैं जिनमें दस आयुध हैं—‘खड्ग, त्रिशूल, खटवांग, पाश, अंकुश, पर्वत, स्तम्भ, मुष्टि, गदा और वृक्ष की डाली ।

▪️ पंचमुखी हनुमानजी का पूर्व की ओर का मुख वानर का है जिसकी प्रभा करोड़ों सूर्य के समान है । वह विकराल दाढ़ों वाला है और उसकी भृकुटियां (भौंहे) चढ़ी हुई हैं ।

▪️ दक्षिण की ओर वाला मुख नृसिंह भगवान का है । यह अत्यन्त उग्र तेज वाला भयानक है किन्तु शरण में आए हुए के भय को दूर करने वाला है ।

▪️ पश्चिम दिशा वाला मुख गरुड़ का है । इसकी चोंच टेढ़ी है । यह सभी नागों के विष और भूत-प्रेत को भगाने वाला है । इससे समस्त रोगों का नाश होता है ।

▪️ इनका उत्तर की ओर वाला मुख वाराह (सूकर) का है जिसका आकाश के समान कृष्णवर्ण है । इस मुख के दर्शन से पाताल में रहने वाले जीवों, सिंह व वेताल के भय का और ज्वर का नाश होता है।

▪️ पंचमुखी हनुमानजी का ऊपर की ओर उठा हुआ मुख हयग्रीव (घोड़े) का है । यह बहुत भयानक है और असुरों का संहार करने वाला है । इसी मुख के द्वारा हनुमानजी ने तारक नामक महादैत्य का वध किया था ।

पंचमुखी हनुमानजी में है भगवान के पांच अवतारों की शक्ति!!!!!!!!!

पंचमुखी हनुमानजी में भगवान के पांच अवतारों की शक्ति समायी हुयी है इसलिए वे किसी भी महान कार्य को करने में समर्थ हैं । पंचमुखी हनुमानजी की पूजा-अर्चना से वराह, नृसिंह, हयग्रीव, गरुड़ और शंकरजी की उपासना का फल प्राप्त हो जाता है । जैसे गरुड़जी वैकुण्ठ में भगवान विष्णु की सेवा में लगे रहते हैं वैसे ही हनुमानजी श्रीराम की सेवा में लगे रहते हैं । जैसे गरुड़ की पीठ पर भगवान विष्णु बैठते हैं वैसे ही हनुमानजी की पीठ पर श्रीराम-लक्ष्मण बैठते हैं । गरुड़जी अपनी मां के लिए स्वर्ग से अमृत लाये थे, वैसे ही हनुमानजी लक्ष्मणजी के लिए संजीवनी-बूटी लेकर आए ।

हनुमानजी के पंचमुख की आराधना से मिलते हैं पांच वरदान!!!!!!!!!!!

हनुमानजी के पंचमुखी विग्रह की आराधना से पांच वरदान प्राप्त होते हैं । नरसिंहमुख की सहायता से शत्रु पर विजय, गरुड़मुख की आराधना से सभी दोषों पर विजय, वराहमुख की सहायता से समस्त प्रकार की समृद्धि तथा हयग्रीवमुख की सहायता से ज्ञान की प्राप्ति होती है। हनुमानमुख से साधक को साहस एवं आत्मविश्वास की प्राप्ति होती है ।

हनुमानजी के पांचों मुखों में तीन-तीन सुन्दर नेत्र आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक तापों (काम, क्रोध और लोभ) से छुड़ाने वाले हैं ।

पंचमुखी हनुमानजी सभी सिद्धियों को देने वाले, सभी अमंगलों को हरने वाले तथा सभी प्रकार का मंगल करने वाले—मंगल भवन अमंगलहारी हैं ।

हनुमानजी ने क्यों धारण किए पंचमुख ?

श्रीराम और रावण के युद्ध में जब मेघनाद की मृत्यु हो गयी तब रावण धैर्य न रख सका और अपनी विजय के उपाय सोचने लगा । तब उसे अपने सहयोगी और पाताल के राक्षसराज अहिरावण की याद आई जो मां भवानी का परम भक्त होने के साथ साथ तंत्र-मंत्र का ज्ञाता था । रावण सीधे देवी मन्दिर में जाकर पूजा में तल्लीन हो गया । उसकी आराधना से आकृष्ट होकर अहिरावण वहां पहुंचा तो रावण ने उससे कहा—‘तुम किसी तरह राम और लक्ष्मण को अपनी पुरी में ले आओ और वहां उनका वध कर डालो; फिर ये वानर-भालू तो अपने-आप ही भाग जाएंगे ।’

रात्रि के समय जब श्रीराम की सेना शयन कर रही थी तब हनुमानजी ने अपनी पूंछ बढ़ाकर चारों ओर से सबको घेरे में ले लिया । अहिरावण विभीषण का वेष बनाकर अंदर प्रवेश कर गए । अहिरावण ने सोते हुए अनन्त सौन्दर्य के सागर श्रीराम-लक्ष्मण को देखा तो देखता ही रह गया । उसने अपने माया के दम पर भगवान राम की सारी सेना को निद्रा में डाल दिया तथा राम एव लक्ष्मण का अपहरण कर उन्हें पाताललोक ले गया। 

आकाश में तीव्र प्रकाश से सारी वानर सेना जाग गयी । विभीषण ने यह पहचान लिया कि यह कार्य अहिरावण का है और उसने हनुमानजी को श्रीराम और लक्ष्मण की सहायता करने के लिए पाताललोक जाने को कहा ।

हनुमानजी पाताललोक की पूरी जानकारी प्राप्त कर पाताललोक पहुंचे । पाताललोक के द्वार पर उन्हें उनका पुत्र मकरध्वज मिला । हनुमानजी ने आश्चर्यचकित होकर कहा—‘हनुमान तो बाल ब्रह्मचारी हैं । तुम उनके पुत्र कैसे ?’

मकरध्वज ने कहा कि जब लंकादहन के बाद आप समुद्र में पूंछ बुझाकर स्नान कर रहे थे तब श्रम के कारण आपके शरीर से स्वेद (पसीना) झर रहा था जिसे एक मछली ने पी लिया । वह मछली पकड़कर जब अहिरावण की रसोई में लाई गयी और उसे काटा गया तो मेरा जन्म हुआ । अहिरावण ने ही मेरा पालन-पोषण किया इसलिए मैं उसके नगर की रक्षा करता हूँ । हनुमानजी का मकरध्वज से बाहुयुद्ध हुआ और वे उसे बांधकर देवी मन्दिर पहुंचे जहां श्रीराम और लक्ष्मण की बलि दी जानी थी । हनुमानजी को देखते ही देवी अदृश्य हो गयीं और उनकी जगह स्वयं रामदूत देवी के रूप में खड़े हो गए ।

उसी समय श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा—‘आपत्ति के समय सभी प्राणी मेरा स्मरण करते हैं, किन्तु मेरी आपदाओं को दूर करने वाले तो केवल पवनकुमार ही हैं । अत: हम उन्हीं का स्मरण करें ।’

लक्ष्मणजी ने कहा—‘यहां हनुमान कहां ?’ श्रीराम ने कहा—‘पवनपुत्र कहां नहीं हैं ? वे तो पृथ्वी के कण-कण में विद्यमान है । मुझे तो देवी के रूप में भी उन्हीं के दर्शन हो रहे हैं ।’

श्रीराम के प्राणों की रक्षा के लिए हनुमानजी ने धारण किए पंचमुख!!!!!!!

हनुमानजी ने वहां पांच दीपक पांच जगह पर पांच दिशाओं में रखे देखे जिसे अहिरावण ने मां भवानी की पूजा के लिए जलाया था । ऐसी मान्यता थी कि इन पांचों दीपकों को एक साथ बुझाने पर अहिरावण का वध हो जाएगा । हनुमानजी ने इसी कारण पंचमुखी रूप धरकर वे पांचों दीप बुझा दिए  और अहिरावण का वध कर श्रीराम और लक्ष्मण को कंधों पर बैठाकर लंका की ओर उड़ चले ।

‘श्रीहनुमत्-महाकाव्य’ के अनुसार एक बार पांच मुख वाला राक्षस भयंकर उत्पात करने लगा । उसे ब्रह्माजी से वरदान मिला था कि उसके जैसे रूप वाला व्यक्ति ही उसे मार सकता है । देवताओं की प्रार्थना पर भगवान ने हनुमानजी को उस राक्षस को मारने की आज्ञा दी । तब हनुमानजी ने वानर, नरसिंह, वाराह, हयग्रीव और गरुड़—इन पंचमुख को धारण कर राक्षस का अंत कर दिया ।

पंचमुखी हनुमानजी का ध्यान,,,,,,

पंचास्यमच्युतमनेक विचित्रवीर्यं
वक्त्रं सुशंखविधृतं कपिराज वर्यम् ।
पीताम्बरादि मुकुटैरभि शोभितांगं
पिंगाक्षमाद्यमनिशंमनसा स्मरामि ।। (श्रीविद्यार्णव-तन्त्र)

पंचमुखी हनुमान पीताम्बर और मुकुट से अलंकृत हैं । इनके नेत्र पीले रंग के हैं । इसलिए इन्हें ‘पिंगाक्ष’ कहा जाता है । हनुमानजी के नेत्र अत्यन्त करुणापूर्ण और संकट और चिन्ताओं को दूर कर भक्तों को सुख देने वाले हैं । हनुमानजी के नेत्रों की यही विशेषता है कि वे अपने स्वामी श्रीराम के चरणों के दर्शन के लिए सदैव लालायित रहते हैं।

उनका द्वादशाक्षर मन्त्र है—

‘ॐ हं हनुमते रुद्रात्मकाय हुं फट् ।’

किसी भी पवित्र स्थान पर हनुमानजी के द्वादशाक्षर मन्त्र का एक लाख जप एवं आराधना करने से साधक को सफलता अवश्य मिलती है । ऐसा माना जाता है कि पुरश्चरण पूरा होने पर हनुमानजी अनुष्ठान करने वाले के सामने आधी रात को स्वयं दर्शन देते हैं ।

महाकाय महाबल महाबाहु महानख,
महानद महामुख महा मजबूत है ।
भनै कवि ‘मान’ महाबीर हनुमान महा-
देवन को देव महाराज रामदूत है।।

सोमवार, 2 सितंबर 2019

ब्रज के सुप्रसिद्ध 12 वन

*ब्रज के सुप्रसिद्ध 12 वनों के नाम*

*1. मधुवन, 2.तालवन, 3. कुमुदवन, 4. वहुलावन, 5. कामवन, 6. खदिरवन, 7. वृन्दावन, 8. भद्रवन, 9. भांडीरवन, 10. बेलवन, 11. लोहवन और 12. महावन हैं.*

*इनमें से आरंभ के 7 वन यमुना नदी के पश्चिम में हैं और अन्त के 5 व न उसके पूर्व में हैं. इनका संक्षिप्त वृतांत इस प्रकार है -*
*1. मधुवन - यह ब्रज का सर्वाधिक प्राचीन वनखंड है. इसका नामोल्लेख प्रगैतिहासिक काल से ही मिलता है. राजकुमार ध्रुव इसी वन में तपस्या की थी. शत्रुधन ने यहां के अत्याचारी राजा लवणासुर को मारकर इसी वन के एक भाग में मथुरापुरी की स्थापना की थी. वर्तमान काल में उक्त विशाल वन के स्थान पर एक छोटी सी कदमखंडी शेष रह गई है और प्राचीन मथुरा के स्थान पर महोली नामक ब्रज ग्राम वसा हुआ है, जो कि मथुरा तहसील में पड़ता है.*

*2. तालवन - प्राचीन काल में यह ताल के वृक्षों का यह एक बड़ा वन था, और इसमें जंगली गधों का बड़ा उपद्रव रहता था. भागवत में वर्णित है, बलराम ने उन गधों का संहार कर उनके उत्पात को शांत किया था. कालान्तर में उक्त वन उजड़ गया और शताब्दियों के पश्चात् वहां तारसी नामक एक गाँव बस गया, जो इस समय मथुरा तहसील के अंतर्गत है.*

*3. कुमुदवन - प्राचीन काल में इस वन में कुमुद पुष्पों की बहुलता थी, जिसके कारण इस वन का नाम 'कुमुदवन' पड़ गया था. वर्तमान काल में इसके समीप एक पुरानी कदमखड़ी है, जो इस वन की प्राचीन पुष्प-समृद्धि का स्मरण दिलाती है.*

*4. बहुलावन - इस वन का नामकरण यहाँ की एक वहुला गाय के नाम पर हुआ है. इस गाय की कथा 'पदम पुराण' में मिलती है. वर्तमान काल में इस स्थान पर झाड़ियों से घिरी हुई एक कदम खंड़ी है, जो यहां के प्राचीन वन-वैभव की सूचक है. इस वन का अधिकांश भाग कट चुका है और आजकल यहां बाटी नामक ग्राम बसा हुआ है.*

*5. कामवन - यह ब्रज का अत्यन्त प्राचीन और रमणीक वन था, जो पुरातन वृन्दावन का एक भाग था. कालांतर में वहां बस्ती बस गई थी. इस समय यह राजस्थान के भरतपुर जिला की ड़ीग तहसील का एक बड़ा कस्बा है. इसके पथरीले भाग में दो 'चरण पहाड़िया' हैं, जो धार्मिक स्थली मानी जाती हैं.*

*6. खदिरवन - यह प्राचीन वन भी अब समाप्त हो चुका है और इसके स्थान पर अब खाचरा नामक ग्राम बसा हुआ है. यहां पर एक पक्का कुंड और एक मंदिर है.*

*7. वृन्दावन - प्राचीन काल में यह एक विस्तृत वन था, जो अपने प्राकृतिक सौंदर्य और रमणीक वन के लिये विख्यात था. जव मथुरा के अत्याचारी राजा कंस के आतंक से नंद आदि गोपों को वृद्धवन (महावन) स्थित गोप-बस्ती (गोकुल) में रहना असंभव हो गया, तव वे सामुहिक रुप से वहां से हटकर अपने गो-समूह के साथ वृन्दावन में जा कर रहे थे.*

*भागवत् आदि पुराणों से और उनके आधार पर सूरदास आदि ब्रज-भाषा कावियों की रचनाओं से ज्ञात होता है कि उस वृन्दावन में गोवर्धन पहाड़ी थी और उसके निकट ही यमुना प्रवाहित होती थी. यमुना के तटवर्ती सघन कुंजों और विस्तृत चारागाहों में तथा हरी-भरी गोवर्धन पहाड़ी पर वे अपनी गायें चराया करते थे.*

*वह वृन्दावन पंचयोज अर्थात बीस कोस परधि का तथा ॠषि मुनियों के आश्रमों से युक्त और सघन सुविशाल वन था. ३ वहाँ गोप समाज के सुरक्षित रुप से निवास करने की तथा उनकी गायों के लिये चारे घास की पर्याप्त सुविधा थी. ४ उस वन में गोपों ने दूर-दूर तक अने व स्तियाँ व साई थीं. उस काल का वृन्दाव न गोव र्धन-राधाकुंड से लेकर नंदगाँव-वरसाना और कामव न तक विस्तृत था.*

*संस्कृत साहित्य में प्राचीन वृंदावन के पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं, जिसमें उसके धार्मिक महत्व के साथ ही साथ उसकी प्राकृतिक शोभा का भी वर्णन किया गया है. महाकवि कालिदास ने उसके वन-वैभव और वहाँ के सुन्दर फूलों से लदे लता-वृक्षों की प्रशंसा की है. उन्होंने वृन्दावन को कुबेर के चैत्ररथ नामक दिव्य उद्यान के सदृश वतलाया है.*

*वृन्दावन का महत्व सदा से श्रीकृष्ण के प्रमुख लीला स्थल तथा ब्रज के रमणीक वन और एकान्त तपोभूमि होने के कारण रहा है. मुसलमानी शासन के समय प्राचीन काल का वह सुरम्य वृन्दाव न उपेक्षित और अरक्षित होकर एक बीहड़ वन हो गया था.*
*पुराणों में वर्णित श्रीकृष्ण-लीला के विविध स्थल उस विशाल वन में कहाँ थे, इसका ज्ञान बहुत कम था.*
*8. भद्रवन, 9. भांडीरवन, 10. बेलवन - ये तीनों वन यमुना की बांयी ओर ब्रज की उत्तरी सीमा से लेकर वर्तमान वृन्दावन के सामने तक थे. वर्तमान काल में उनका अधिकांश भाग कट गया है और वहाँ पर छोटे-बड़े गाँव वबस गये हैं. उन गाँवों में टप्पल, खैर, बाजना, नौहझील, सुरीर, भाँट पानी गाँव उल्लेखनीय है.*

*11. लोहवन - यह प्राचीन वन वर्तमान मथुरा नगर के सामने यमुना के उस पार था. वर्तमान काल में वहाँ इसी नाम का एक गाँव वसा है.*

*12. महावन - प्राचीन काल में यह एक विशाल सघन वन था*।

रविवार, 1 सितंबर 2019

हरितालिका तीज विशेष

हरतालिका तीज (गौरी तृतीया) व्रत
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हरतालिका तीज का व्रत हिन्दू धर्म में सबसे बड़ा व्रत माना जाता हैं। यह तीज का त्यौहार भाद्रपद मास शुक्ल की तृतीया तिथि को मनाया जाता हैं।

खासतौर पर महिलाओं द्वारा यह त्यौहार मनाया जाता हैं। कम उम्र की लड़कियों के लिए भी यह हरतालिका का व्रत श्रेष्ठ समझा गया हैं।

विधि-विधान से हरितालिका तीज का व्रत करने से जहाँ कुंवारी कन्याओं को मनचाहे वर की प्राप्ति होती है, वहीं विवाहित महिलाओं को अखंड सौभाग्य मिलता है।

हरतालिका तीज में भगवान शिव, माता गौरी एवम गणेश जी की पूजा का महत्व हैं।  यह व्रत निराहार एवं निर्जला किया जाता हैं। शिव जैसा पति पाने के लिए कुँवारी कन्या इस व्रत को विधि विधान से करती हैं।

महिलाओं में संकल्प शक्ति बढाता है हरितालिका तीज का व्रत
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हरितालिका तीज का व्रत महिला प्रधान है।इस दिन महिलायें बिना कुछ खायें -पिये व्रत रखती है।यह व्रत संकल्प शक्ती का एक अनुपम उदाहरण है। संकल्प अर्थात किसी कर्म के लिये मन मे निश्चित करना कर्म का मूल संकल्प है।इस प्रकार संकल्प हमारी अन्तरीक शक्तियोंका सामोहिक निश्चय है।इसका अर्थ है-व्रत संकल्प से ही उत्पन्न होता है।व्रत का संदेश यह है कि हम जीवन मे लक्ष्य प्राप्ति का संकल्प लें ।संकल्प शक्ति के आगे असंम्भव दिखाई देता लक्ष्य संम्भव हो जाता है।माता पार्वती ने जगत को दिखाया की संकल्प शक्ति के सामने ईश्वर भी झुक जाता है।
अच्छे कर्मो का संकल्प सदा सुखद परिणाम देता है। इस व्रत का एक सामाजिक संदेश विषेशतः महिलाओं के संदर्भ मे यह है कि आज समाज मे महिलायें बिते समय की तुलना मे अधिक आत्मनिर्भर व स्वतंत्र है।महिलाओं की भूमिका मे भी बदलाव आये है ।घर से बाहर निकलकर पुरुषों की भाँति सभी कार्य क्षेत्रों मे सक्रिय है।ऎसी स्थिति मे परिवार व समाज इन महिलाओं की भावनाओ एवं इच्छाओं का सम्मान करें,उनका विश्वास बढाएं,ताकि स्त्री व समाज सशक्त बनें।

हरतालिका तीज व्रत विधि और नियम
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हरतालिका पूजन प्रदोष काल में किया जाता हैं। प्रदोष काल अर्थात दिन रात के मिलने का समय। हरतालिका पूजन के लिए शिव, पार्वती, गणेश एव रिद्धि सिद्धि जी की प्रतिमा बालू रेत अथवा काली मिट्टी से बनाई जाती हैं।

विविध पुष्पों से सजाकर उसके भीतर रंगोली डालकर उस पर चौकी रखी जाती हैं। चौकी पर एक अष्टदल बनाकर उस पर थाल रखते हैं। उस थाल में केले के पत्ते को रखते हैं। सभी प्रतिमाओ को केले के पत्ते पर रखा जाता हैं। सर्वप्रथम कलश के ऊपर नारियल रखकर लाल कलावा बाँध कर पूजन किया जाता हैं  कुमकुम, हल्दी, चावल, पुष्प चढ़ाकर विधिवत पूजन होता हैं। कलश के बाद गणेश जी की पूजा की जाती हैं।

उसके बाद शिव जी की पूजा जी जाती हैं। तत्पश्चात माता गौरी की पूजा की जाती हैं। उन्हें सम्पूर्ण श्रृंगार चढ़ाया जाता हैं। इसके बाद अन्य देवताओं का आह्वान कर षोडशोपचार पूजन किया जाता है।

इसके बाद हरतालिका व्रत की कथा पढ़ी जाती हैं। इसके पश्चात आरती की जाती हैं जिसमे सर्वप्रथम गणेश जी की पुनः शिव जी की फिर माता गौरी की आरती की जाती हैं। इस दिन महिलाएं रात्रि जागरण भी करती हैं और कथा-पूजन के साथ कीर्तन करती हैं। प्रत्येक प्रहर में भगवान शिव को सभी प्रकार की वनस्पतियां जैसे बिल्व-पत्र, आम के पत्ते, चंपक के पत्ते एवं केवड़ा अर्पण किया जाता है। आरती और स्तोत्र द्वारा आराधना की जाती है। हरतालिका व्रत का नियम हैं कि इसे एक बार प्रारंभ करने के बाद छोड़ा नहीं जा सकता।

प्रातः अन्तिम पूजा के बाद माता गौरी को जो सिंदूर चढ़ाया जाता हैं उस सिंदूर से सुहागन स्त्री सुहाग लेती हैं। ककड़ी एवं हलवे का भोग लगाया जाता हैं। उसी ककड़ी को खाकर उपवास तोडा जाता हैं। अंत में सभी सामग्री को एकत्र कर पवित्र नदी एवं कुण्ड में विसर्जित किया जाता हैं।

भगवती-उमा की पूजा के लिए ये मंत्र बोलना चाहिए 👇

ऊं उमायै नम:
ऊं पार्वत्यै नम:
ऊं जगद्धात्र्यै नम:
ऊं जगत्प्रतिष्ठयै नम:
ऊं शांतिरूपिण्यै नम:
ऊं शिवायै नम:

भगवान शिव की आराधना इन मंत्रों से करनी चाहिए 👇

ऊं हराय नम:
ऊं महेश्वराय नम:
ऊं शम्भवे नम:
ऊं शूलपाणये नम:
ऊं पिनाकवृषे नम:
ऊं शिवाय नम:
ऊं पशुपतये नम:
ऊं महादेवाय नम:

निम्न नामो का उच्चारण कर बाद में पंचोपचार या सामर्थ्य हो तो षोडशोपचार विधि से पूजन किया जाता है। पूजा दूसरे दिन सुबह समाप्त होती है, तब महिलाएं द्वारा अपना व्रत तोडा जाता है और अन्न ग्रहण किया जाता है।

हरतालिका व्रत पूजन की सामग्री
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1- फुलेरा विशेष प्रकार से  फूलों से सजा होता है।

2- गीली काली मिट्टी अथवा बालू रेत।

3- केले का पत्ता।

4- विविध प्रकार के फल एवं फूल पत्ते।

5- बेल पत्र, शमी पत्र, धतूरे का फल एवं फूल, तुलसी मंजरी।

6- जनेऊ , नाडा, वस्त्र,।

7- माता गौरी के लिए पूरा सुहाग का सामग्री, जिसमे चूड़ी, बिछिया, काजल, बिंदी, कुमकुम, सिंदूर, कंघी, महावर, मेहँदी आदि एकत्र की जाती हैं। इसके अलावा बाजारों में सुहाग पूड़ा मिलता हैं जिसमे सभी सामग्री होती हैं।

8- घी, तेल, दीपक, कपूर, कुमकुम, सिंदूर, अबीर, चन्दन, नारियल, कलश।

9- पञ्चामृत - घी, दही, शक्कर, दूध, शहद।

हरतालिका तीज व्रत कथा
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भगवान शिव ने पार्वतीजी को उनके पूर्व जन्म का स्मरण कराने के उद्देश्य से इस व्रत के माहात्म्य की कथा कही थी।

श्री भोलेशंकर बोले- हे गौरी! पर्वतराज हिमालय पर स्थित गंगा के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में बारह वर्षों तक अधोमुखी होकर घोर तप किया था। इतनी अवधि तुमने अन्न न खाकर पेड़ों के सूखे पत्ते चबा कर व्यतीत किए। माघ की विक्राल शीतलता में तुमने निरंतर जल में प्रवेश करके तप किया। वैशाख की जला देने वाली गर्मी में तुमने पंचाग्नि से शरीर को तपाया। श्रावण की मूसलधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न-जल ग्रहण किए समय व्यतीत किया।

तुम्हारे पिता तुम्हारी कष्ट साध्य तपस्या को देखकर बड़े दुखी होते थे। उन्हें बड़ा क्लेश होता था। तब एक दिन तुम्हारी तपस्या तथा पिता के क्लेश को देखकर नारदजी तुम्हारे घर पधारे। तुम्हारे पिता ने हृदय से अतिथि सत्कार करके उनके आने का कारण पूछा।

नारदजी ने कहा- गिरिराज! मैं भगवान विष्णु के भेजने पर यहां उपस्थित हुआ हूं। आपकी कन्या ने बड़ा कठोर तप किया है। इससे प्रसन्न होकर वे आपकी सुपुत्री से विवाह करना चाहते हैं। इस संदर्भ में आपकी राय जानना चाहता हूं।

नारदजी की बात सुनकर गिरिराज गद्‍गद हो उठे। उनके तो जैसे सारे क्लेश ही दूर हो गए। प्रसन्नचित होकर वे बोले- श्रीमान्‌! यदि स्वयं विष्णु मेरी कन्या का वरण करना चाहते हैं तो भला मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। वे तो साक्षात ब्रह्म हैं। हे महर्षि! यह तो हर पिता की इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख-सम्पदा से युक्त पति के घर की लक्ष्मी बने। पिता की सार्थकता इसी में है कि पति के घर जाकर उसकी पुत्री पिता के घर से अधिक सुखी रहे।

तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर नारदजी विष्णु के पास गए और उनसे तुम्हारे ब्याह के निश्चित होने का समाचार सुनाया। मगर इस विवाह संबंध की बात जब तुम्हारे कान में पड़ी तो तुम्हारे दुख का ठिकाना न रहा।

तुम्हारी एक सखी ने तुम्हारी इस मानसिक दशा को समझ लिया और उसने तुमसे उस विक्षिप्तता का कारण जानना चाहा। तब तुमने बताया - मैंने सच्चे हृदय से भगवान शिवशंकर का वरण किया है, किंतु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी से निश्चित कर दिया। मैं विचित्र धर्म-संकट में हूं। अब क्या करूं? प्राण छोड़ देने के अतिरिक्त अब कोई भी उपाय शेष नहीं बचा है। तुम्हारी सखी बड़ी ही समझदार और सूझबूझ वाली थी।

उसने कहा- सखी! प्राण त्यागने का इसमें कारण ही क्या है? संकट के मौके पर धैर्य से काम लेना चाहिए। नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि पति-रूप में हृदय से जिसे एक बार स्वीकार कर लिया, जीवनपर्यंत उसी से निर्वाह करें। सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो ईश्वर को भी समर्पण करना पड़ता है। मैं तुम्हें घनघोर जंगल में ले चलती हूं, जो साधना स्थली भी हो और जहां तुम्हारे पिता तुम्हें खोज भी न पाएं। वहां तुम साधना में लीन हो जाना। मुझे विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे।

तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हें घर पर न पाकर बड़े दुखी तथा चिंतित हुए। वे सोचने लगे कि तुम जाने कहां चली गई। मैं विष्णुजी से उसका विवाह करने का प्रण कर चुका हूं। यदि भगवान विष्णु बारात लेकर आ गए और कन्या घर पर न हुई तो बड़ा अपमान होगा। मैं तो कहीं मुंह दिखाने के योग्य भी नहीं रहूंगा। यही सब सोचकर गिरिराज ने जोर-शोर से तुम्हारी खोज शुरू करवा दी।

इधर तुम्हारी खोज होती रही और उधर तुम अपनी सखी के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में लीन थीं। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र था। उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण करके व्रत किया। रात भर मेरी स्तुति के गीत गाकर जागीं। तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन डोलने लगा। मेरी समाधि टूट गई। मैं तुरंत तुम्हारे समक्ष जा पहुंचा और तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर तुमसे वर मांगने के लिए कहा।

तब अपनी तपस्या के फलस्वरूप मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा - मैं हृदय से आपको पति के रूप में वरण कर चुकी हूं। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर आप यहां पधारे हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिए।

तब मैं 'तथास्तु' कह कर कैलाश पर्वत पर लौट आया। प्रातः होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री को नदी में प्रवाहित करके अपनी सहेली सहित व्रत का पारणा किया। उसी समय अपने मित्र-बंधु व दरबारियों सहित गिरिराज तुम्हें खोजते-खोजते वहां आ पहुंचे और तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या का कारण तथा उद्देश्य पूछा। उस समय तुम्हारी दशा को देखकर गिरिराज अत्यधिक दुखी हुए और पीड़ा के कारण उनकी आंखों में आंसू उमड़ आए थे।

तुमने उनके आंसू पोंछते हुए विनम्र स्वर में कहा- पिताजी! मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय कठोर तपस्या में बिताया है। मेरी इस तपस्या का उद्देश्य केवल यही था कि मैं महादेव को पति के रूप में पाना चाहती थी। आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूं। आप क्योंकि विष्णुजी से मेरा विवाह करने का निर्णय ले चुके थे, इसलिए मैं अपने आराध्य की खोज में घर छोड़कर चली आई। अब मैं आपके साथ इसी शर्त पर घर जाऊंगी कि आप मेरा विवाह विष्णुजी से न करके महादेवजी से करेंगे।

गिरिराज मान गए और तुम्हें घर ले गए। कुछ समय के पश्चात शास्त्रोक्त विधि-विधानपूर्वक उन्होंने हम दोनों को विवाह सूत्र में बांध दिया।

हे पार्वती! भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के फलस्वरूप मेरा तुमसे विवाह हो सका। इसका महत्व यह है कि मैं इस व्रत को करने वाली कुंआरियों को मनोवांछित फल देता हूं। इसलिए सौभाग्य की इच्छा करने वाली प्रत्येक युवती को यह व्रत पूरी एकनिष्ठा तथा आस्था से करना चाहिए।

हरतालिका तीज व्रत पूजा विधि
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👉  हरतालिका तीज प्रदोषकाल में किया जाता है। सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्त को प्रदोषकाल कहा जाता है। यह दिन और रात के मिलन का समय होता है।

👉  हरतालिका पूजन के लिए भगवान शिव, माता पार्वती और भगवान गणेश की बालू रेत व काली मिट्टी की प्रतिमा हाथों से बनाएं।

👉  पूजा स्थल को फूलों से सजाकर एक चौकी रखें और उस चौकी पर केले के पत्ते रखकर भगवान शंकर, माता पार्वती और भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित करें।

👉  इसके बाद देवताओं का आह्वान करते हुए भगवान शिव, माता पार्वती और भगवान गणेश का षोडशोपचार पूजन करें।

👉  सुहाग की पिटारी में सुहाग की सारी वस्तु रखकर माता पार्वती को चढ़ाना इस व्रत की मुख्य परंपरा है।

👉  इसमें शिव जी को धोती और अंगोछा चढ़ाया जाता है। यह सुहाग सामग्री सास के चरण स्पर्श करने के बाद ब्राह्मणी और ब्राह्मण को दान देना चाहिए।

👉  इस प्रकार पूजन के बाद कथा सुनें और रात्रि जागरण करें। आरती के बाद सुबह माता पार्वती को सिंदूर चढ़ाएं व ककड़ी-हलवे का भोग लगाकर व्रत खोलें।

हरितालका तीज पूजा मुहूर्त
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हरितालिका पूजन प्रातःकाल ना करके प्रदोष काल यानी सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्त में किया जाना ही शास्त्रसम्मत है।

प्रदोषकाल निकालने के लिये आपके स्थानीय सूर्यास्त में आगे के 96 मिनट जोड़ दें तो यह एक घंटे 36 मिनट के लगभग का समय प्रदोष काल माना जाता है।

प्रदोष काल मुहूर्त : सायं 06:41 से रात्रि:8:58 तक

पारण अगले दिन प्रातः काल 8 बजकर 34 मिनट के बाद करना उत्तम रहेगा।

गणेश चतुर्थी विशेष

श्री गणेश चतुर्थी एवं श्रीगणेश महोत्सव  2,  से 12 सितंबर 2019 विशेष

सभी सनातन धर्मावलंबी प्रति वर्ष गणपति की स्थापना तो करते है लेकिन हममे से बहुत ही कम लोग जानते है कि आखिर हम गणपति क्यों बिठाते हैं ? आइये जानते है।

हमारे धर्म ग्रंथों के अनुसार, महर्षि वेद व्यास ने महाभारत की रचना की है।
लेकिन लिखना उनके वश का नहीं था।
अतः उन्होंने श्री गणेश जी की आराधना की और गणपति जी से महाभारत लिखने की प्रार्थना की।

गणपती जी ने सहमति दी और दिन-रात लेखन कार्य प्रारम्भ हुआ और इस कारण गणेश जी को थकान तो होनी ही थी, लेकिन उन्हें पानी पीना भी वर्जित था। अतः गणपती जी के शरीर का तापमान बढ़े नहीं, इसलिए वेदव्यास ने उनके शरीर पर मिट्टी का लेप किया और भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को गणेश जी की पूजा की। मिट्टी का लेप सूखने पर गणेश जी के शरीर में अकड़न आ गई, इसी कारण गणेश जी का एक नाम पर्थिव गणेश भी पड़ा। महाभारत का लेखन कार्य 10 दिनों तक चला। अनंत चतुर्दशी को लेखन कार्य संपन्न हुआ।
वेदव्यास ने देखा कि, गणपती का शारीरिक तापमान फिर भी बहुत बढ़ा हुआ है और उनके शरीर पर लेप की गई मिट्टी सूखकर झड़ रही है, तो वेदव्यास ने उन्हें पानी में डाल दिया। इन दस दिनों में वेदव्यास ने गणेश जी को खाने के लिए विभिन्न पदार्थ दिए। तभी से गणपती बैठाने की प्रथा चल पड़ी। इन दस दिनों में इसीलिए गणेश जी को पसंद विभिन्न भोजन अर्पित किए जाते हैं।

गणेश चतुर्थी को कुछ स्थानों पर डंडा चौथ के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि गुरु शिष्य परंपरा के तहत इसी दिन से विद्याध्ययन का शुभारंभ होता था। इस दिन बच्चे डण्डे बजाकर खेलते भी हैं। गणेश जी को ऋद्धि-सिद्धि व बुद्धि का दाता भी माना जाता है। इसी कारण कुछ क्षेत्रों में इसे डण्डा चौथ भी कहते हैं।

‬पार्थिव श्रीगणेश पूजन का महत्त्व

अलग अलग कामनाओ की पूर्ति के लिए अलग अलग द्रव्यों से बने हुए गणपति की स्थापना की जाती हैं।

(1) श्री गणेश👉 मिट्टी के पार्थिव श्री गणेश बनाकर पूजन करने से सर्व कार्य सिद्धि होती हे!                       

(2) हेरम्ब👉 गुड़ के गणेश जी बनाकर पूजन करने से लक्ष्मी प्राप्ति होती हे।
                                       
(3) वाक्पति👉 भोजपत्र पर केसर से पर श्री गणेश प्रतिमा चित्र बनाकर।  पूजन करने से विद्या प्राप्ति होती हे।

 (4) उच्चिष्ठ गणेश👉 लाख के श्री गणेश बनाकर पूजन करने से स्त्री।  सुख और स्त्री को पतिसुख प्राप्त होता हे घर में ग्रह क्लेश निवारण होता हे।

(5) कलहप्रिय👉 नमक की डली या। नमक  के श्री गणेश बनाकर पूजन करने से शत्रुओ में क्षोभ उतपन्न होता हे वह आपस ने ही झगड़ने लगते हे।

(6) गोबरगणेश👉 गोबर के श्री गणेश बनाकर पूजन करने से पशुधन में व्रद्धि होती हे और पशुओ की बीमारिया नष्ट होती है (गोबर केवल गौ माता का ही हो)।
                         
(7) श्वेतार्क श्री गणेश👉 सफेद आक मन्दार की जड़ के श्री गणेश जी बनाकर पूजन करने से भूमि लाभ भवन लाभ होता हे।
                     
(8) शत्रुंजय👉 कडूए नीम की की लकड़ी से गणेश जी बनाकर पूजन करने से शत्रुनाश होता हे और युद्ध में विजय होती हे।
                         
(9) हरिद्रा गणेश👉 हल्दी की जड़ से या आटे में हल्दी मिलाकर श्री गणेश प्रतिमा बनाकर पूजन करने से विवाह में आने वाली हर बाधा नष्ठ होती हे और स्तम्भन होता हे।

(10) सन्तान गणेश👉 मक्खन के श्री गणेश जी बनाकर पूजन से सन्तान प्राप्ति के योग निर्मित होते हैं।

(11) धान्यगणेश👉 सप्तधान्य को पीसकर उनके श्रीगणेश जी बनाकर आराधना करने से धान्य व्रद्धि होती हे अन्नपूर्णा माँ प्रसन्न होती हैं।   

(12) महागणेश👉 लाल चन्दन की लकड़ी से दशभुजा वाले श्री गणेश जी प्रतिमा निर्माण कर के पूजन से राज राजेश्वरी श्री आद्याकालीका की शरणागति प्राप्त होती हैं।

गणेश चतुर्थी पूजन

चतुर्थी तिथि 2 सितंबर 2019 04 बजकर 56 मिनट पर आरंभ होकर 3 सितंबर के दिन 01:53 तक रहेगी।

पूजन मुहूर्त

गणपति स्वयं ही मुहूर्त है। सभी प्रकार के विघ्नहर्ता है इसलिए गणेशोत्सव गणपति स्थापन के दिन दिनभर कभी भी स्थापन कर सकते है। सकाम भाव से पूजा के लिए नियम की आवश्यकता पड़ती है इसमें प्रथम नियम मुहूर्त अनुसार कार्य करना है।

मुहूर्त अनुसार गणेश चतुर्थी के दिन गणपति की पूजा दोपहर के समय करना अधिक शुभ माना जाता है, क्योंकि मान्यता है कि भाद्रपद महीने के शुक्लपक्ष की चतुर्थी को मध्याह्न के समय गणेश जी का जन्म हुआ था। मध्याह्न यानी दिन का दूसरा प्रहर जो कि सूर्योदय के लगभग 3 घंटे बाद शुरू होता है और लगभग दोपहर 12 से 12:30 तक रहता है। गणेश चतुर्थी पर मध्याह्न काल में अभिजित मुहूर्त के संयोग पर गणेश भगवान की मूर्ति की स्थापना करना अत्यंतशुभ माना जाता है।

पंचांग के अनुसार अभिजित मुहूर्त सुबह लगभग 11.55 से दोपहर 12.45 तक रहेगा। इस समय के बीच श्रीगणेश पूजा आरम्भ कर देनी चाहिये।

पूजा की सामग्री
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गणेश जी की पूजा करने के लिए चौकी या पाटा, जल कलश, लाल कपड़ा, पंचामृत, रोली, मोली, लाल चन्दन, जनेऊ गंगाजल, सिन्दूर चांदी का वर्क लाल फूल या माला इत्र मोदक या लडडू धानी सुपारी लौंग, इलायची नारियल फल दूर्वा, दूब पंचमेवा घी का दीपक धूप, अगरबत्ती और कपूर की आवस्यकता होती है।

सामान्य पूजा विधि
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सकाम पूजा के लिये स्थापना से पहले संकल्प भी अत्यंत जरूरी है। यहाँ हम संक्षिप्त विधि बता रहे है गणेश पूजन की विस्तृत विधि हमारी अगली पोस्ट ने देख सकते है।

संकल्प विधि
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हाथ में पान के पत्ते पर पुष्प, चावल और सिक्का रखकर सभी भगवान को याद करें। अपना नाम, पिता का नाम, पता और गोत्र आदि बोलकर गणपति भगवान को घर पर पधारने का निवेदन करें और उनका सेवाभाव से स्वागत सत्कार करने का संकल्प लें।

भगवान गणेश की पूजा करने लिए सबसे पहले सुबह नहा धोकर शुद्ध लाल रंग के कपड़े पहने। क्योकि गणेश जी को लाल रंग प्रिय है। पूजा करते समय आपका मुंह पूर्व दिशा में या उत्तर दिशा में होना चाहिए। सबसे पहले गणेश जी को पंचामृत से स्नान कराएं। उसके बाद गंगा जल से स्नान कराएं। गणेश जी को चौकी पर लाल कपड़े पर बिठाएं। ऋद्धि-सिद्धि के रूप में दो सुपारी रखें। गणेश जी को सिन्दूर लगाकर चांदी का वर्क लगाएं। लाल चन्दन का टीका लगाएं। अक्षत (चावल) लगाएं। मौली और जनेऊ अर्पित करें। लाल रंग के पुष्प या माला आदि अर्पित करें। इत्र अर्पित करें। दूर्वा अर्पित करें। नारियल चढ़ाएं। पंचमेवा चढ़ाएं। फल अर्पित करें। मोदक और लडडू आदि का भोग लगाएं। लौंग इलायची अर्पित करें। दीपक, अगरबत्ती, धूप आदि जलाएं इससे गणेश जी प्रसन्न होते हैं। गणेश जी की प्रतिमा के सामने  प्रतिदिन गणपति अथर्वशीर्ष व संकट नाशन गणेश आदि स्तोत्रों का पाठ करे।

यह मंत्र उच्चारित करें
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ऊँ वक्रतुण्ड़ महाकाय सूर्य कोटि समप्रभः।
निर्विघ्नं कुरू मे देव, सर्व कार्येषु सर्वदा।।

कपूर जलाकर आरती करें
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जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा। माता जाकी पार्वती पिता महादेवा।। जय गणेश जय गणेश…
एक दन्त दयावंत चार भुजाधारी। माथे सिन्दूर सोहे मूष की सवारी।। जय गणेश जय गणेश…
अंधन को आँख देत कोढ़िन को काया। बाँझन को पुत्र देत निर्धन को माया।। जय गणेश जय गणेश…
हार चढ़े फूल चढ़े और चढ़े मेवा। लडूवन का भोग लगे संत करे सेवा।। जय गणेश जय गणेश…
दीनन की लाज राखी शम्भु सुतवारी। कामना को पूरा करो जग बलिहारी।। जय गणेश जय गणेश…

चतुर्थी,चंद्रदर्शन और कलंक पौराणिक मान्यता
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2 तारीख को यानी गणेश चतुर्थी के दिन भूलकर भी चंद्र दर्शन न करें वर्ना आपके उपर बड़ा कलंक लग सकता है।
इसके पीछे एक पौराणिक कथा का दृष्टांत है।

एक दिन गणपति चूहे की सवारी करते हुए गिर पड़े तो चंद्र ने उन्हें देख लिया और हंसने लगे। चंद्रमा को हंसी उड़ाते देख गणपति को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने चंद्र को श्राप दिया कि अब से तुम्हें कोई देखना पसंद नहीं करेगा। जो तुम्हे देखेगा वह कलंकित हो जाएगा। इस श्राप से चंद्र बहुुत दुखी हो गए। तब सभी देवताओं ने गणपति की साथ मिलकर पूजा अर्चना कर उनका आवाह्न किया तो गणपति ने प्रसन्न होकर उनसे वरदान मांगने को कहा। तब देवताओं ने विनती की कि आप गणेश को श्राप मुक्त कर दो। तब गणपति ने कहा कि मैं अपना श्राप तो वापस नहीं ले सकता लेकिन इसमें कुछ बदलाव जरूर कर सकता हूं। भगवान गणेश ने कहा कि चंद्र का ये श्राप सिर्फ एक ही दिन मान्य रहेगा। इसलिए चतुर्थी के दिन यदि अनजाने में चंद्र के दर्शन हो भी जाएं तो इससे बचने के लिए छोटा सा कंकर या पत्थर का टुकड़ा लेकर किसी की छत पर फेंके। ऐसा करने से चंद्र दर्शन से लगने वाले कलंक से बचाव हो सकता है। इसलिए इस चतुर्थी को पत्थर चौथ भी कहते है।

भाद्रपद (भादव ) मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी के चन्द्रमा के दर्शन हो जाने से कलंक लगता है। अर्थात् अपकीर्ति होती है। भगवान् श्रीकृष्ण को सत्राजित् ने स्यमन्तक मणि की चोरी लगायी थी।

स्वयं रुक्मिणीपति ने इसे “मिथ्याभिशाप”-भागवत-१०/५६/३१, कहकर मिथ्या कलंक का ही संकेत दिया है। और देवर्षि नारद भी कहते हैं कि –

आपने भाद्रपद के शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि के चन्द्रमा का दर्शन किया था जिसके फलस्वरूप आपको व्यर्थ ही कलंक लगा –

त्वया भाद्रपदे शुक्लचतुर्थ्यां चन्द्रदर्शनम् ।
कृतं येनेह भगवन् वृथा शापमवाप्तवान् ।।
–भागवतकी श्रीधरी पर वंशीधरी टीका,स्कन्दपुराण का श्लोक ।

तात्पर्य यह कि भादंव मास की शुक्लचतुर्थी के चन्द्रदर्शन से लगे कलंक का सत्यता से सम्बन्ध हो ही –ऐसा कोई नियम नहीं । किन्तु इसका दर्शन त्याज्य है । तभी तो पूज्यपाद गोस्वामी जी लिखते हैं —

“तजउ चउथि के चंद नाई”-मानस. सुन्दरकाण्ड,३८/६,

स्कन्दमहापुराण में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि भादव के शुक्लपक्ष के चन्द्र का दर्शन मैंने गोखुर के जल में किया जिसका परिणाम मुझे मणि की चोरी का कलंक लगा –

मया भाद्रपदे शुक्लचतुर्थ्याम् चन्द्रदर्शनम् ।
गोष्पदाम्बुनि वै राजन् कृतं दिवमपश्यता ।।
यदि भादव के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी का चंद्रमा दिख जाय तो कलंक से कैसे छूटें ?

१-यदि उसके पहले द्वितीया का चंद्र्मा आपने देख लिया है तो चतुर्थी का चन्द्र आपका बाल भी बांका नहीं कर सकता।

२- या भागवत की स्यमन्तक मणि की कथा सुन लीजिए ।

३-अथवा निम्नलिखित मन्त्र का २१ बार जप करलें –

सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हतः ।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ।।

४-यदि आप इन उपायों में कोई भी नहीं कर सकते हैं तो एक सरल उपाय बता रहा हूँ उसे सब लोग कर सकते हैं । एक लड्डू किसी भी पड़ोसी के घर पर फेंक दे ।

चंद्र दर्शन से बचने का समय- 08:55 से 21:05 (2 सितंबर 2019)

राशि के अनुसार करें गणेश जी का पूजन
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गणेशचतुर्थी के दिन सभी लोग को अपने सामर्थ्य एवं श्रद्धा से गणेश जी की पूजा अर्चना करते है। फिर भी राशि स्वामी के अनुसार यदि विशेष पूजन किया जाए तो विशेष लाभ भी प्राप्त होगा।

👉 यदि आपकी राशि मेष एवं बृश्चिक हो तो आप अपने राशि स्वामी का ध्यान करते हुए लड्डु का विशेष भोग लगावें आपके सामथ्र्य का विकास हो सकता है।

👉 आपकी राशि बृष एवं तुला है तो आप भगवान गणेश को लड्डुओं का भोग विशेष रूप से लगावें आपको ऐश्वर्य की प्राप्ति हो सकती है।

👉 मिथुन एवं कन्या राशि वालो को गणेश जी को पान अवश्य अर्पित करना चाहिए इससे आपको विद्या एवं बुद्धि की प्राप्ति होगी।

👉 धनु एवं सिंह राशि वालों को फल का भोग अवश्य लगाना चाहिए ताकि आपको जीवन में सुख, सुविधा एवं आनन्द की प्राप्ति हो सके।

👉 यदि आपकी राशि मकर एवं कुंभ है तो आप सुखे मेवे का भोग लगाये। जिससे आप अपने कर्म के क्षेत्र में तरक्की कर सकें।

👉 सिंह राशि वालों को केले का विशेष भोग लगाना चाहिए जिससे जीवन में तीव्र गति से आगे बढ़ सकें।

👉यदि आपकी राशि कर्क है तो आप
खील एवं धान के लावा और बताशे का भोग लगाए जिससे आपका जीवन सुख-शांति से भरपूर हो

गणेश महोत्सव की तिथियां
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1- गणेश चतुर्थी व्रत- 2 सितम्बर - सोमवार

2- ऋषि पंचमी- 3 सितम्बर - मंगलवार

3- मोरछठ-चम्पा सूर्य षष्ठी - 4 सितम्बर - बुधवार

4- संतान सप्तमी - 5 सितम्बर - गुरुवार

5- राधाष्टमी - 6 सितम्बर - शुक्रवार

6- मूल दिनरात, श्री हरी जयंती - 7 सितंबर - शनिवार

7- सुंगध धुप दशमी, रामदेव जयंती - 8 सितंबर - रविवार

8- पदमा डोल ग्यारस - 9 सितम्बर - सोमवार

9- भुवनेश्वरी जयंती, श्री वामन जंयती -

10 सितम्बर - मंगलवार प्रदोष व्रत -

11 सितंबर - बुधवार अनंत चतुथदर्शी -

12 सितम्बर - गुरुवार विसर्जन

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...