शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2019

धनतेरस यम दीप दान विशेष

धनतेरस यम दीप दान विशेष
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कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन भगवान धनवन्तरि अमृत कलश के साथ सागर मंथन से उत्पन्न हुए हैं। इसलिए इस तिथि को धनतेरस के नाम से जाना जाता है। धन्वन्तरी जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है। कहीं कहीं लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन धन (वस्तु) खरीदने से उसमें 13 गुणा वृद्धि होती है। इस अवसर पर धनिया के बीज खरीद कर भी लोग घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं।

दीपावली की रात भी लक्ष्मी माता के सामने साबुत धनिया रखकर पूजा करें। अगले दिन प्रातः साबुत धनिया को गमले में या बाग में बिखेर दें। माना जाता है कि साबुत धनिया से हरा भरा स्वस्थ पौधा निकल आता है तो आर्थिक स्थिति उत्तम होती है।

धनिया का पौधा हरा भरा लेकिन पतला है तो सामान्य आय का संकेत होता है। पीला और बीमार पौधा निकलता है या पौधा नहीं निकलता है तो आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

धनतेरस के दिन चांदी खरीदने की भी प्रथा है। अगर सम्भव न हो तो कोइ बर्तन खरिदे। इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में संतोष रूपी धन का वास होता है। संतोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है। जिसके पास संतोष है वह स्वस्थ है सुखी है और वही सबसे धनवान है। भगवान धन्वन्तरि जो चिकित्सा के देवता भी हैं उनसे स्वास्थ्य और सेहत की कामना के लिए संतोष रूपी धन से बड़ा कोई धन नहीं है। लोग इस दिन ही दीपावली की रात लक्ष्मी गणेश की पूजा हेतु मूर्ति भी खरीदते हें।

धन तेरस की पौराणिक कथा
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कार्तिकस्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां निशामुखे ।
यमदीपं बहिर्दद्यादपमृत्युर्विनिश्यति ।।

धनतेरस की शाम घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में रंगोली बना कर दीप जलाने की प्रथा भी है। इस प्रथा के पीछे एक लोक कथा है, कथा के अनुसार किसी समय में एक राजा थे जिनका नाम हेम था। दैव कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ज्योंतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो पता चला कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा। राजा इस बात को जानकर बहुत दुखी हुआ और राजकुमार को ऐसी जगह पर भेज दिया जहां किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। दैवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उधर से गुजरी और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये और उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया।

विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन बाद यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुंचे। जब यमदूत राजकुमार प्राण ले जा रहे थे उस वक्त नवविवाहिता उसकी पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा परंतु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमराज को जब यमदूत यह कह रहे थे उसी वक्त उनमें से एक ने यमदेवता से विनती की हे यमराज क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु से मुक्त हो जाए। दूत के इस प्रकार अनुरोध करने से यमदेवता बोले हे दूत अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है इससे मुक्ति का एक आसान तरीका मैं तुम्हें बताता हूं सो सुनो। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी रात जो प्राणी मेरे नाम से पूजन करके दीप माला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। यही कारण है कि लोग इस दिन घर से बाहर दक्षिण दिशा की ओर दीप जलाकर रखते हैं।

धन तेरस पूजा सामान्य विधि
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इस दिन लक्ष्मी-गणेश और धनवंतरी पूजन का भी विशेष महत्व है। धनतरेस पर धनवंतरी और लक्ष्मी गणेश की पूजा करने के लिए सबसे पहले एक लकड़ी का पट्टा लें और उस पर स्वास्तिक का निशान बना लें।इसके बाद इस पर एक तेल का दिया जला कर रख दें दिये को किसी चीज से ढक दें दिये के आस पास तीन बार गंगा जल छिड़कें इसके बाद दीपक पर रोली का तिलक लगाएं और साथ चावल का भी तिलक लगाएं इसके बाद दीपक में थोड़ी सी मिठाई डालकर मीठे का भोग लगाएं
फिर दीपक में 1 रुपया रखें। रुपए चढ़ाकर देवी लक्ष्मी और गणेश जी को अर्पण करें
इसके बाद दीपक को प्रणाम करें और आशीर्वाद लें और परिवार के लोगों से भी आशीर्वाद लेने को कहें। इसके बाद यह दिया अपने घर के मुख्य द्वार पर रख दें, ध्यान रखे कि दिया दक्षिण दिशा की ओर रखा हो।

यमदीपदान विधि
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यमदीपदान विधिमें नित्य पूजाकी थालीमें घिसा हुआ चंदन, पुष्प, हलदी, कुमकुम, अक्षत अर्थात अखंड चावल इत्यादि पूजासामग्री होनी चाहिए । साथ ही आचमनके लिए ताम्रपात्र, पंच-पात्र, आचमनी ये वस्तुएं भी आवश्यक होती हैं । यमदीपदान करनेके लिए हलदी मिलाकर गुंथे हुए गेहूंके आटेसे बने विशेष दीपका उपयोग करते हैं ।

यमदीपदान प्रदोषकाल में करना चाहिए। इसके लिए मिट्टी का एक बड़ा दीपक लें और उसे स्वच्छ जल से धो लें। तदुपरान्त स्वच्छ रुई लेकर दो लम्बी बत्तियाँ बना लें। उन्हें दीपक में एक-दूसरे पर आड़ी इस प्रकार रखें कि दीपक के बाहर बत्तियोँ के चार मुँह दिखाई दें। अब उसे तिल के तेल से भर दें और साथ ही उसमें कुछ काले तिल भी डाल दें।

प्रदोषकाल में इस प्रकार तैयार किए गए दीपक का रोली, अक्षत एवं पुष्प से पुजन करें। उसके पश्चात् घर के मुख्य दरवाजे के बाहर थोड़ी-सी खील अथवा गेहूँ से ढेरी बनाकर उसके ऊपर दीपक को रखना है। दीपक को रखने से पहले प्रज्वलित कर लें और दक्षिण दिशा की ओर देखते हुए निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए चारमुँह के दीपक को खील (लाजा) आदि की ढेरी के ऊपर रख दें।

मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालेन च मया सह ।
त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यजः प्रीयतामिति ।।

अर्थात् त्रयोदशी को दीपदान करने से मृत्यु, पाश, दण्ड, काल और लक्ष्मी के साथ सूर्यनन्दन यम प्रसन्न हों।

उक्त मन्त्र के उच्चारण के पश्चात् हाथ में पुष्प लेकर निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए यमदेव को दक्षिण दिशा में नमस्कार करें।

धनतेरस पूजा मुहूर्त
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धनत्रयोदशी या धनतेरस के दौरान लक्ष्मी पूजा को प्रदोष काल के दौरान किया जाना चाहिए जो कि सूर्यास्त के बाद प्रारम्भ होता है और लगभग 2 घण्टे 24 मिनट तक रहता है। प्रदोषकाल में दीपदान व लक्ष्मी पूजन करना शुभ रहता है।

ऋषिकेश में 25 अक्टूबर सूर्यास्त समय सायं 17:39 पर रहेगा। इस समय अवधि में स्थिर लग्न 18:47 से लेकर 20:42 तक वृषभ लग्न रहेगा। मुहुर्त समय में होने के कारण घर-परिवार में स्थायी लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

चौघड़िया अनुसार पूजन करने के लिए चौघाडिया मुहूर्त
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शुभघड़ी मुहूर्त 12:00 से 13:30 तक
चर घड़ी मुहूर्त 16:30 से 18:00 तक
लाभ घड़ी मुहूर्त 21:00 से 22:30 तक

उपरोक्त में लाभ समय में पूजन करना लाभों में वृद्धि करता है। शुभ काल मुहूर्त की शुभता से धन, स्वास्थय व आयु में शुभता आती है। सबसे अधिक शुभ अमृ्त काल में पूजा करने का होता है।

प्रदोषकाल पूजन मुहूर्त
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प्रदोष काल का समय 17:38 से 20:13 तक रहेगा, स्थिर लग्न 18:49 से 20:45 तक रहेगा. धनतेरस की पूजा के लिए उपयुक्त समय 19:08 से 20:13 के मध्य तक रहेगा।

धनतेरस पर खरीददारी के लिये शुभ मुहूर्त
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प्रातः 7:41 से लेकर सुबह 10:40 मिनट तक

दोपहर 12:07 से दोपहर 02:51 मिनट तक

सायं 04:15 मिनट से शाम 05:41 मिनट तक

रात्रि 9:11 बजे से रात 10:35 तक धनतेरस की खरीददारी कर सकते है।

ध्यान रहे सुबह 10:41 से दोपहर 12:05 तक राहुकाल रहेगा इस अवधि में खरीददारी ना करें।
           
राशियों के अनुसार जाने धनतेरस पर क्या खरीदना शुभ होगा         
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मेष🐐
इस राशि का स्वामी मंगल है। धनतरेस के शुभ मुहूर्त पर मेष राशि के जातकों के लिए ताबें की वस्तुएं खरीदना शुभ माना जाता है। इस दिन आप चाहें तो भूमि में भी निवेश कर सकते हैं। अगर आप इस दिन तांबे की कोई वस्तु नहीं खरीदना चाहते तो आप चांदी या इलेक्ट्रॉनिक का भी कोई समान खरीद सकते हैं। वहीं इस राशि के लोगों को शेयर, केमिकल, चमड़े, लोहे से संबंधित काम में निवेश करने से बचना चाहिए। 

वृष🐂
वृषभ राशि का स्वामी शुक्र है। इन राशि के लोग धनतेरस के दिन चांदी का कोई सामान खरीद सकते हैं। इसके अलावा धनतेरस के दिन चावल अवश्य खरीदने चाहिए। इस खास मौके पर अनाज, कपड़ा, चांदी, चीनी, चावल, ब्यूटी प्रोडक्ट्स, परफ्यूम, दूध और उससे बने पदार्थ, प्लास्टिक, खाद्य तेल, कपड़े, और रत्नों में निवेश करने या खरीदने से लाभ होगा। इससे मां लक्ष्मी हमेशा कृपा बरसाती रहेंगी। 

मिथुन👫
मिथुन राशि के जातकों का स्वामी बुध है। बुध व्यापारियों को लाभ देने वाला ग्रह है। मिथुन राशि के जातक धनतेरस पर स्टील के बर्तन खरीद सकते हैं। धनतेरस के दिन आपका वाहन खरीदना या सोने में निवेश करना भी शुभ माना जाता है। इस दिन आप सफेद वस्त्र का दान करें, जिससे आपकी वित्तीय स्थिति बेहतर हो जाएगी। इसके अलावा धनतेरस के दिन कागज, लकड़ी, पीतल, गेहूं, दालें, कपड़ा, स्टील, प्लास्टिक, तेल, सौदर्य सामग्री, सीमेंट, खनिज पदार्थ आदि का व्यापार करने वाले और खरीदने वाले को लाभ मिलेगा। 

कर्क🦀
कर्क राशि का स्वामी चंद्र है। धनतेरस के दिन आपका कंपनियों के शेयर और फाइनेंस कंपनियों में निवेश करना लाभदायी होगा। कर्क राशि के लोग धनतेरस के दिन चांदी की वस्तुएं खरीद सकते हैं। इसके अलावा चाहें तो आप स्टील के बर्तन भी खरीद सकते हैं। इस दिन इलेक्ट्रॉनिक का आइटम खरीदना आपके लिए शुभ होगा, यदि आप ऐसा करते हैं तो आपके घर में मां लक्ष्मी का वास हमेशा बना रहेगा।

सिंह🦁
सिंह राशि का स्वामी सूर्य है। इन राशि के जातकों को नौकरी पसंद नहीं होती है ये केवल व्यापार करने में विश्वास रखते हैं। धनतेरस के दिन आप शेयर या जमीन-जायदाद में निवेश कर सकते हैं। इस दिन सिंह राशि के जातक तांबे या कांसे की वस्तुओं को खरीद सकते हैं। आप चाहें तो इस खास मौके पर सोने मे निवेश कर सकते हैं या इलेक्ट्रॉनिक का कोई आइटम खरीद सकते हैं। इस दिन आप नए कपड़े भी खरीद सकते हैं ऐसा करने से मां लक्ष्मी का आशीर्वाद आप पर हमेशा बना रहेगा।

कन्या👩
कन्या राशि का स्वामी बुध है, जिसे चंद्रमा का शत्रु माना जाता है। इन राशि के लोगों के लिए धनतेरस के दिन तांबे के गणेश जी खरीदना शुभ माना जाता है। वहीं इस खास मौके पर आप रसोई के लिए कोई आइटम भी खरीद सकते हैं। इस खास मौके पर अगर आप चाहें तो कांसे या हाथी के दांत से बनी चीजें भी खरीद सकते हैं।

तुला⚖️
तुला राशि का स्वामी शुक्र है। इस ऱाशि वालों को इलेक्ट्रॉनिक सामान और तेल में निवेश करना शुभ माना जाता है। तुला राशि के जातक धनतेरस के दिन चांदी या स्टील से बनी कोई भी चीजें खरीद सकते हैं। इसके अलावा आप कोई ब्यूटी प्रोडक्ट्स या घर को सजाने वाली किसी वस्तु को खरीद सकते हैं। ऐसा करने से आपको ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।

वृश्चिक🦂
इस राशि के जातकों का स्वामी मंगल है। इस राशि वाले लोगों को धनतेरस के दिन जमीन, मकान, दुकान और वस्त्रों में निवेश करना चाहिए। इस खास मौके पर सोने की वस्तु को खरीदना काफी शुभ माना जाता है। यदि आप चाहें तो इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएं भी खरीद सकते हैं। यदि आप इन वस्तुओं को खरीदते हैं तो आपको धनलाभ के कई योग बनेंगे।

धनु🏹
इस राशि के लोगों का स्वामी गुरु है। गुरु व्यापारियों को लाभ प्रदान कराने वाला ग्रह है। धनतेरस के दिन सोने का आइटम और अनाज खरीदना शुभ माना जाता है। इसके अलावा आप इस दिन आभूषण, रत्न, अनाज, चांदी और ब्यूटी प्रोडक्टस भी खरीद सकते हैं। यदि आप इस दिन कोई पीली वस्तु खरीद लें तो आपके ऊपर लक्ष्मी के साथ-साथ बृहस्पति देव का भी आशीर्वाद बना रहेगा।

मकर🐊
मकर राशि का स्वामी शनि है। धनतेरस के दिन इलेक्ट्रॉनिक सामान, वाहन, इत्र, स्टील और ब्यूटी प्रोडक्ट्स में निवेश से लाभ प्राप्त होता है। मकर राशि के लोग धनतेरस के दिन वाहन खरीद सकते हैं क्योंकि उनके लिए यह दिन काफी शुभ है। इसके अलावा आप मां लक्ष्मी के पूजन के लिए वस्त्र और चांदी का सिक्का भी खरीद सकते हैं। इस पावन अवसर पर यह सब चीजें खरीदने से आपके घर में समृद्धि का वास होगा।

कुंभ🍯
इस राशि के जातकों का स्वामी शनि है। धनतेरस के दिन लोहे, इलेक्ट्रॉनिक सामान, वाहन, इत्र, स्टील आदि वस्तुएं खऱीद सकते हैं। इस दिन आप चाहें तो नीलम रत्न भी खरीद सकते हैं। यह काफी शुभ माना जाता है। यदि आप चाहें तो इस दिन भगवान गणेश और धन की देवी लक्ष्मी के चित्र वाला सोने का सिक्का भी खरीद सकते हैं। ऐसा करने से आपकी आर्थिक स्थिति बेहतर रहेगी।

मीन🐳
मीन राशि वालों का स्वामी गुरु है। चंद्रमा का घनिष्ठ मित्र माना जाता है। धनतेरस के दिन सोना, चांदी, रत्न, आभूषण आदि सामग्रियों को खरीदना शुभ माना जाता है। इसके अलावा आप इस दिन चांदी के बर्तन भी खरीद सकते हैं। अगर आप चाहें तो कोई इलेक्ट्रॉनिक आइटम भी खरीद सकते हैं। ये सब खरीदते हैं तो आप पर मां लक्ष्मी की कृपा हमेशा बनी रहती है।

कुछ अन्य उपाय टोटके
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धन तेरस पर धन प्राप्ति के अनेक उपाय बताए जाते हैं लेकिन सभी उपायों से बढ़कर है धन और आरोग्य के देवता धन्वं‍तरि का पावन स्तोत्र।

 धन्वं‍तरि स्तो‍त्र
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ॐ शंखं चक्रं जलौकां दधदमृतघटं चारुदोर्भिश्चतुर्मिः।
सूक्ष्मस्वच्छातिहृद्यांशुक परिविलसन्मौलिमंभोजनेत्रम॥
कालाम्भोदोज्ज्वलांगं कटितटविलसच्चारूपीतांबराढ्यम।
वन्दे धन्वंतरिं तं निखिलगदवनप्रौढदावाग्निलीलम॥

ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतराये:
अमृतकलश हस्ताय सर्व भयविनाशाय सर्व रोगनिवारणाय
त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्री महाविष्णुस्वरूप
श्री धन्वं‍तरि स्वरूप श्री श्री श्री औषधचक्र नारायणाय नमः॥

इस स्तो‍त्र को कम से कम 11 बार पढ़ें।

👉 पूर्ण भाव से भगवान धन्वंतरि जी का पूजन करें।

👉 घर में नयी झाडू और सूपड़ा खरीद कर लाये और विधि से पूजन करें।

👉 सायंकाल दीपक प्रज्वलित कर अपने मकान , दुकान आदि को सुन्दर सजाये।

👉 माँ लक्ष्मी को गुलाब के पुष्पों की माला पहनाये और उन्हें सफेद मिठाई का भोग लगाये।

👉 अपनी सामर्थ्य अनुसार तांबे, पीतल, चांदी के गृह-उपयोगी नवीन बर्तन व आभूषण क्रय करते हैं।

👉 हल जुती मिट्टी को दूध में भिगोकर उसमें सेमर की शाखा डालकर तीन बार अपने शरीर पर फेरें।

👉 धनतेरस के दिन सूखे धनिया के बीज खरीद कर घर में रखने से परिवार की धन संपदा में वृ्द्धि होती है।

👉 कुबेर देवता का पूजन करें। शुभ मुहूर्त में अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठान में नई गड़ी बिछाएं।

👉 सायंकाल पश्चात 13  दीपक जलाकर  तिजोरी में भगवान कुबेर धन के देवता  का पूजन करें।

👉 मृत्यु के देवता यमराज  के निमित्त दीपदान करें।

👉 तेरस के सायंकाल किसी पात्र में तिल के तेल से युक्त दीपक प्रज्वलित करें। पश्चात गंध, पुष्प, अक्षत से पूजन कर दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके यम से निम्न प्रार्थना करें-

‘मृत्युना दंडपाशाभ्याम्‌ कालेन श्यामया सह।
त्रयोदश्यां दीपदानात्‌ सूर्यजः प्रयतां मम।
अब उन दीपकों से यम की प्रसन्नता के लिए सार्वजनिक स्थलों को प्रकाशित करें।

आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र
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गुरुवार, 24 अक्टूबर 2019

पंचमुखी हनुमान जी

पंचमुखी हनुमान की कथा – जानिए पंचमुखी क्यो हुए हनुमान?

लंका में महा बलशाली मेघनाद के साथ बड़ा ही भीषण युद्ध चला. अंतत: मेघनाद मारा गया। रावण जो अब तक मद में चूर था राम सेना, खास तौर पर लक्ष्मण का पराक्रम सुनकर थोड़ा तनाव में आया।

रावण को कुछ दुःखी देखकर रावण की मां कैकसी ने उसके पाताल में बसे दो भाइयों अहिरावण और महिरावण की याद दिलाई। रावण को याद आया कि यह दोनों तो उसके बचपन के मित्र रहे हैं।

लंका का राजा बनने के बाद उनकी सुध ही नहीं रही थी। रावण यह भली प्रकार जानता था कि अहिरावण व महिरावण तंत्र-मंत्र के महा पंडित, जादू टोने के धनी और मां कामाक्षी के परम भक्त हैं।

रावण ने उन्हें बुला भेजा और कहा कि वह अपने छल बल, कौशल से श्री राम व लक्ष्मण का सफाया कर दे। यह बात दूतों के जरिए विभीषण को पता लग गयी। युद्ध में अहिरावण व महिरावण जैसे परम मायावी के शामिल होने से विभीषण चिंता में पड़ गए।

विभीषण को लगा कि भगवान श्री राम और लक्ष्मण की सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी करनी पड़ेगी. इसके लिए उन्हें सबसे बेहतर लगा कि इसका जिम्मा परम वीर हनुमान जी को सौंप दिया जाए।

राम-लक्ष्मण की कुटिया लंका में सुवेल पर्वत पर बनी थी। हनुमान जी ने भगवान श्री राम की कुटिया के चारों ओर एक सुरक्षा घेरा खींच दिया। कोई जादू टोना तंत्र-मंत्र का असर या मायावी राक्षस इसके भीतर नहीं घुस सकता था।

अहिरावण और महिरावण श्री राम और लक्ष्मण को मारने उनकी कुटिया तक पहुंचे पर इस सुरक्षा घेरे के आगे उनकी एक न चली, असफल रहे। ऐसे में उन्होंने एक चाल चली। महिरावण विभीषण का रूप धर के कुटिया में घुस गया।

राम व लक्ष्मण पत्थर की सपाट शिलाओं पर गहरी नींद सो रहे थे। दोनों राक्षसों ने बिना आहट के शिला समेत दोनो भाइयों को उठा लिया और अपने निवास पाताल की और लेकर चल दिए।

विभीषण लगातार सतर्क थे। उन्हें कुछ देर में ही पता चल गया कि कोई अनहोनी घट चुकी है. विभीषण को महिरावण पर शक था, उन्हें राम-लक्ष्मण की जान की चिंता सताने लगी।

विभीषण ने हनुमान जी को महिरावण के बारे में बताते हुए कहा कि वे उसका पीछा करें। लंका में अपने रूप में घूमना राम भक्त हनुमान के लिए ठीक न था सो उन्होंने पक्षी का रूप धारण कर लिया और पक्षी का रूप में ही निकुंभला नगर पहुंच गये।

निकुंभला नगरी में पक्षी रूप धरे हनुमान जी ने कबूतर और कबूतरी को आपस में बतियाते सुना। कबूतर, कबूतरी से कह रहा था कि अब रावण की जीत पक्की है। अहिरावण व महिरावण राम-लक्ष्मण को बलि चढा देंगे। बस सारा युद्ध समाप्त।

कबूतर की बातों से ही बजरंग बली को पता चला कि दोनों राक्षस राम लक्ष्मण को सोते में ही उठाकर कामाक्षी देवी को बलि चढाने पाताल लोक ले गये हैं। हनुमान जी वायु वेग से रसातल की और बढे और तुरंत वहां पहुंचे।

हनुमान जी को रसातल के प्रवेश द्वार पर एक अद्भुत पहरेदार मिला। इसका आधा शरीर वानर का और आधा मछली का था। उसने हनुमान जी को पाताल में प्रवेश से रोक दिया।

द्वारपाल हनुमान जी से बोला कि मुझ को परास्त किए बिना तुम्हारा भीतर जाना असंभव है। दोनों में लड़ाई ठन गयी। हनुमान जी की आशा के विपरीत यह बड़ा ही बलशाली और कुशल योद्धा निकला।

दोनों ही बड़े बलशाली थे। दोनों में बहुत भयंकर युद्ध हुआ परंतु वह बजरंग बली के आगे न टिक सका। आखिर कार हनुमान जी ने उसे हरा तो दिया पर उस द्वारपाल की प्रशंसा करने से नहीं रह सके।

हनुमान जी ने उस वीर से पूछा कि हे वीर तुम अपना परिचय दो। तुम्हारा स्वरूप भी कुछ ऐसा है कि उससे कौतुहल हो रहा है। उस वीर ने उत्तर दिया- मैं हनुमान का पुत्र हूं और एक मछली से पैदा हुआ हूं। मेरा नाम है मकरध्वज।

हनुमान जी ने यह सुना तो आश्चर्य में पड़ गए। वह वीर की बात सुनने लगे। मकरध्वज ने कहा- लंका दहन के बाद हनुमान जी समुद्र में अपनी अग्नि शांत करने पहुंचे। उनके शरीर से पसीने के रूप में तेज गिरा।

उस समय मेरी मां ने आहार के लिए मुख खोला था। वह तेज मेरी माता ने अपने मुख में ले लिया और गर्भवती हो गई। उसी से मेरा जन्म हुआ है। हनुमान जी ने जब यह सुना तो मकरध्वज को बताया कि वह ही हनुमान हैं।

मकरध्वज ने हनुमान जी के चरण स्पर्श किए और हनुमान जी ने भी अपने बेटे को गले लगा लिया और वहां आने का पूरा कारण बताया। उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि अपने पिता के स्वामी की रक्षा में सहायता करो

मकरध्वज ने हनुमान जी को बताया कि कुछ ही देर में राक्षस बलि के लिए आने वाले हैं। बेहतर होगा कि आप रूप बदल कर कामाक्षी कें मंदिर में जा कर बैठ जाएं। उनको सारी पूजा झरोखे से करने को कहें।

हनुमान जी ने पहले तो मधु मक्खी का वेश धरा और मां कामाक्षी के मंदिर में घुस गये। हनुमान जी ने मां कामाक्षी को नमस्कार कर सफलता की कामना की और फिर पूछा- हे मां क्या आप वास्तव में श्री राम जी और लक्ष्मण जी की बलि चाहती हैं ?

हनुमान जी के इस प्रश्न पर मां कामाक्षी ने उत्तर दिया कि नहीं। मैं तो दुष्ट अहिरावण व महिरावण की बलि चाहती हूं। यह दोनों मेरे भक्त तो हैं पर अधर्मी और अत्याचारी भी हैं। आप अपने प्रयत्न करो, सफल रहोगे।

मंदिर में पांच दीप जल रहे थे। अलग-अलग दिशाओं और स्थान पर मां ने कहा यह दीप अहिरावण ने मेरी प्रसन्नता के लिए जलाये हैं जिस दिन ये एक साथ बुझा दिए जा सकेंगे, उसका अंत सुनिश्चित हो सकेगा।

इस बीच गाजे-बाजे का शोर सुनाई पड़ने लगा। अहिरावण, महिरावण बलि चढाने के लिए आ रहे थे। हनुमान जी ने अब मां कामाक्षी का रूप धरा। जब अहिरावण और महिरावण मंदिर में प्रवेश करने ही वाले थे कि हनुमान जी का महिला स्वर गूंजा।

हनुमान जी बोले- मैं कामाक्षी देवी हूं और आज मेरी पूजा झरोखे से करो। झरोखे से पूजा आरंभ हुई ढेर सारा चढावा मां कामाक्षी को झरोखे से चढाया जाने लगा। अंत में बंधक बलि के रूप में राम लक्ष्मण को भी उसी से डाला गया। दोनों बंधन में बेहोश थे।

हनुमान जी ने तुरंत उन्हें बंधन मुक्त किया। अब पाताल लोक से निकलने की बारी थी पर उससे पहले मां कामाक्षी के सामने अहिरावण महिरावण की बलि देकर उनकी इच्छा पूरी करना और दोनों राक्षसों को उनके किए की सज़ा देना शेष था।

अब हनुमान जी ने मकरध्वज को कहा कि वह अचेत अवस्था में लेटे हुए भगवान राम और लक्ष्मण का खास ख्याल रखे और उसके साथ मिलकर दोनों राक्षसों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।

पर यह युद्ध आसान न था। अहिरावण और महिरावण बडी मुश्किल से मरते तो फिर पाँच पाँच के रूप में जिदां हो जाते। इस विकट स्थिति में मकरध्वज ने बताया कि अहिरावण की एक पत्नी नागकन्या है।

अहिरावण उसे बलात हर लाया है। वह उसे पसंद नहीं करती पर मन मार के उसके साथ है, वह अहिरावण के राज जानती होगी। उससे उसकी मौत का उपाय पूछा जाये। आप उसके पास जाएं और सहायता मांगे।

मकरध्वज ने राक्षसों को युद्ध में उलझाये रखा और उधर हनुमान अहिरावण की पत्नी के पास पहुंचे। नागकन्या से उन्होंने कहा कि यदि तुम अहिरावण के मृत्यु का भेद बता दो तो हम उसे मारकर तुम्हें उसके चंगुल से मुक्ति दिला देंगे।

अहिरावण की पत्नी ने कहा- मेरा नाम चित्रसेना है। मैं भगवान विष्णु की भक्त हूं। मेरे रूप पर अहिरावण मर मिटा और मेरा अपहरण कर यहां कैद किये हुए है, पर मैं उसे नहीं चाहती। लेकिन मैं अहिरावण का भेद तभी बताउंगी जब मेरी इच्छा पूरी की जायेगी।

हनुमान जी ने अहिरावण की पत्नी नागकन्या चित्रसेना से पूछा कि आप अहिरावण की मृत्यु का रहस्य बताने के बदले में क्या चाहती हैं ? आप मुझसे अपनी शर्त बताएं, मैं उसे जरूर मानूंगा।

चित्रसेना ने कहा- दुर्भाग्य से अहिरावण जैसा असुर मुझे हर लाया. इससे मेरा जीवन खराब हो गया. मैं अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलना चाहती हूं। आप अगर मेरा विवाह श्री राम से कराने का वचन दें तो मैं अहिरावण के वध का रहस्य बताऊंगी।

हनुमान जी सोच में पड़ गए. भगवान श्री राम तो एक पत्नी निष्ठ हैं। अपनी धर्म पत्नी देवी सीता को मुक्त कराने के लिए असुरों से युद्ध कर रहे हैं। वह किसी और से विवाह की बात तो कभी न स्वीकारेंगे। मैं कैसे वचन दे सकता हूं ?

फिर सोचने लगे कि यदि समय पर उचित निर्णय न लिया तो स्वामी के प्राण ही संकट में हैं. असमंजस की स्थिति में बेचैन हनुमानजी ने ऐसी राह निकाली कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।

हनुमान जी बोले- तुम्हारी शर्त स्वीकार है पर हमारी भी एक शर्त है. यह विवाह तभी होगा जब तुम्हारे साथ भगवान राम जिस पलंग पर आसीन होंगे वह सही सलामत रहना चाहिए। यदि वह टूटा तो इसे अपशकुन मांगकर वचन से पीछे हट जाऊंगा।

जब महाकाय अहिरावण के बैठने से पलंग नहीं टूटता तो भला श्रीराम के बैठने से कैसे टूटेगा ! यह सोच कर चित्रसेना तैयार हो गयी। उसने अहिरावण समेत सभी राक्षसों के अंत का सारा भेद बता दिया.

चित्रसेना ने कहा- दोनों राक्षसों के बचपन की बात है. इन दोनों के कुछ शरारती राक्षस मित्रों ने कहीं से एक भ्रामरी को पकड़ लिया। मनोरंज के लिए वे उसे भ्रामरी को बार-बार काटों से छेड रहे थे।

भ्रामरी साधारण भ्रामरी न थी। वह भी बहुत मायावी थी किंतु किसी कारण वश वह पकड़ में आ गई थी। भ्रामरी की पीड़ा सुनकर अहिरावण और महिरावण को दया आ गई और अपने मित्रों से लड़ कर उसे छुड़ा दिया।

मायावी भ्रामरी का पति भी अपनी पत्नी की पीड़ा सुनकर आया था। अपनी पत्नी की मुक्ति से प्रसन्न होकर उस भौंरे ने वचन दिया था कि तुम्हारे उपकार का बदला हम सभी भ्रमर जाति मिलकर चुकाएंगे।

ये भौंरे अधिकतर उसके शयन कक्ष के पास रहते हैं। ये सब बड़ी भारी संख्या में हैं। दोनों राक्षसों को जब भी मारने का प्रयास हुआ है और ये मरने को हो जाते हैं तब भ्रमर उनके मुख में एक बूंद अमृत का डाल देते हैं।

उस अमृत के कारण ये दोनों राक्षस मरकर भी जिंदा हो जाते हैं। इनके कई-कई रूप उसी अमृत के कारण हैं। इन्हें जितनी बार फिर से जीवन दिया गया उनके उतने नए रूप बन गए हैं. इस लिए आपको पहले इन भंवरों को मारना होगा।

हनुमान जी रहस्य जानकर लौटे। मकरध्वज ने अहिरावण को युद्ध में उलझा रखा था। तो हनुमान जी ने भंवरों का खात्मा शुरू किया। वे आखिर हनुमान जी के सामने कहां तक टिकते।

जब सारे भ्रमर खत्म हो गए और केवल एक बचा तो वह हनुमान जी के चरणों में लोट गया। उसने हनुमान जी से प्राण रक्षा की याचना की। हनुमान जी पसीज गए। उन्होंने उसे क्षमा करते हुए एक काम सौंपा।

हनुमान जी बोले- मैं तुम्हें प्राण दान देता हूं पर इस शर्त पर कि तुम यहां से तुरंत चले जाओगे और अहिरावण की पत्नी के पलंग की पाटी में घुसकर जल्दी से जल्दी उसे पूरी तरह खोखला बना दोगे।

भंवरा तत्काल चित्रसेना के पलंग की पाटी में घुसने के लिए प्रस्थान कर गया। इधर अहिरावण और महिरावण को अपने चमत्कार के लुप्त होने से बहुत अचरज हुआ पर उन्होंने मायावी युद्ध जारी रखा।

भ्रमरों को हनुमान जी ने समाप्त कर दिया फिर भी हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों अहिरावण और महिरावण का अंत नहीं हो पा रहा था। यह देखकर हनुमान जी कुछ चिंतित हुए।

फिर उन्हें कामाक्षी देवी का वचन याद आया। देवी ने बताया था कि अहिरावण की सिद्धि है कि जब पांचो दीपकों एक साथ बुझेंगे तभी वे नए-नए रूप धारण करने में असमर्थ होंगे और उनका वध हो सकेगा।

हनुमान जी ने तत्काल पंचमुखी रूप धारण कर लिया। उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख।

उसके बाद हनुमान जी ने अपने पांचों मुख द्वारा एक साथ पांचों दीपक बुझा दिए। अब उनके बार बार पैदा होने और लंबे समय तक जिंदा रहने की सारी आशंकायें समाप्त हो गयीं थी। हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों शीघ्र ही दोनों राक्षस मारे गये।

इसके बाद उन्होंने श्री राम और लक्ष्मण जी की मूर्च्छा दूर करने के उपाय किए। दोनो भाई होश में आ गए। चित्रसेना भी वहां आ गई थी। हनुमान जी ने कहा- प्रभो ! अब आप अहिरावण और महिरावण के छल और बंधन से मुक्त हुए।

पर इसके लिए हमें इस नागकन्या की सहायता लेनी पड़ी थी। अहिरावण इसे बल पूर्वक उठा लाया था। वह आपसे विवाह करना चाहती है। कृपया उससे विवाह कर अपने साथ ले चलें। इससे उसे भी मुक्ति मिलेगी।

श्री राम हनुमान जी की बात सुनकर चकराए। इससे पहले कि वह कुछ कह पाते हनुमान जी ने ही कह दिया- भगवन आप तो मुक्तिदाता हैं। अहिरावण को मारने का भेद इसी ने बताया है। इसके बिना हम उसे मारकर आपको बचाने में सफल न हो पाते।

कृपा निधान इसे भी मुक्ति मिलनी चाहिए। परंतु आप चिंता न करें। हम सबका जीवन बचाने वाले के प्रति बस इतना कीजिए कि आप बस इस पलंग पर बैठिए बाकी का काम मैं संपन्न करवाता हूं।

हनुमान जी इतनी तेजी से सारे कार्य करते जा रहे थे कि इससे श्री राम जी और लक्ष्मण जी दोनों चिंता में पड़ गये। वह कोई कदम उठाते कि तब तक हनुमान जी ने भगवान राम की बांह पकड़ ली।

हनुमान जी ने भावा वेश में प्रभु श्री राम की बांह पकड़कर चित्रसेना के उस सजे-धजे विशाल पलंग पर बिठा दिया। श्री राम कुछ समझ पाते कि तभी पलंग की खोखली पाटी चरमरा कर टूट गयी।

पलंग धराशायी हो गया। चित्रसेना भी जमीन पर आ गिरी। हनुमान जी हंस पड़े और फिर चित्रसेना से बोले- अब तुम्हारी शर्त तो पूरी हुई नहीं, इसलिए यह विवाह नहीं हो सकता। तुम मुक्त हो और हम तुम्हें तुम्हारे लोक भेजने का प्रबंध करते हैं।

चित्रसेना समझ गयी कि उसके साथ छल हुआ है। उसने कहा कि उसके साथ छल हुआ है। मर्यादा पुरुषोत्तम के सेवक उनके सामने किसी के साथ छल करें यह तो बहुत अनुचित है। मैं हनुमान को श्राप दूंगी।

चित्रसेना हनुमान जी को श्राप देने ही जा हे रही थी कि श्री राम का सम्मोहन भंग हुआ। वह इस पूरे नाटक को समझ गये। उन्होंने चित्रसेना को समझाया- मैंने एक पत्नी धर्म से बंधे होने का संकल्प लिया है। इस लिए हनुमान जी को यह करना पड़ा। उन्हें क्षमा कर दो।

क्रुद्ध चित्रसेना तो उनसे विवाह की जिद पकड़े बैठी थी। श्री राम ने कहा- मैं जब द्वापर में श्री कृष्ण अवतार लूंगा तब तुम्हें सत्यभामा के रूप में अपनी पटरानी बनाउंगा। इससे वह मान गयी।

हनुमान जी ने चित्रसेना को उसके पिता के पास पहुंचा दिया. चित्रसेना को प्रभु ने अगले जन्म में पत्नी बनाने का वरदान दिया था। भगवान विष्णु की पत्नी बनने की चाह में उसने स्वयं को अग्नि में भस्म कर लिया।

श्री राम और लक्ष्मण, मकरध्वज और हनुमान जी सहित वापस लंका में सुवेल पर्वत पर लौट आये।

(स्कंद पुराण और आनंद रामायण के सारकांड की कथा)

बुधवार, 23 अक्टूबर 2019

गौमाता के रहस्य

गौ माता का शास्त्र पुराणों में माहात्म्य!!!!!!!!

• स्वप्न में गौ अथवा वृषभ के दर्शनसे कल्याण लाभ एवं व्याधि नाश होता है । इसी प्रकार स्वप्नमे गौ के थन को चूसना भी श्रेष्ठ माना पाया है । स्वप्नमे गौका घरमें ब्याना, वृषभ की सवारी करना, तालाबके बीचमें घृत मिश्रित खीरका भोजन भी उत्तम माना गया है । घीसहित खीरका भोजन तो राज्य प्राप्ति का सूचक माना गया है।

इसी प्रकार स्वप्न में ताजे दुहे हुए फेनसहित दुग्धका पान करनेवाले को अनेक भोगो की तथा दहीके देखने से प्रसन्नता की प्राप्ति होती है । जो वृषभ से युक्त रथपर स्वप्न में अकेला सवार होता है और उसी अवस्थायें जाग जाता है, उसे शीघ्र धन मिलता है । स्वप्न में दही मिलनेसे धनकी, घी मिलनेसे यशकी और दही खानेस भीे यशकी प्राप्ति निश्चित है ।

यात्रा आरम्भ करते समय दही और दूधका दीखना शुभ शकुन माना गया है । स्वप्नमें दही भातका भोजन करनेसे कार्य सिद्धि होती है तथा बैलपर चढ़नेसे द्रव्य लाभ होता है एवं व्याधिसे छुटकारा मिलता है । इसी प्रवार स्वप्रमे वृषभ अथवा गौ का दर्शन करनेसे कुटुम्ब की वृद्धि होती है । स्वप्नमे सभी काली वस्तुओ का दर्शन निन्द्य माना गया है, केवल कृष्णा गौ का  दर्शन शुभ होता है । (स्वप्न में गोदर्शन का फल, संतो के श्री मुख से सुना हुआ)

• वृषभो को जगत् का पिता समझना चाहिये और गौएं संसार की माता हैं । उनकी पूजा करनेसे सम्पूर्ण पितरों और देवताओं की पूजा हो जाती है । जिनके गोबरसे लीपने पर सभा भवन, पौंसलेे, घर और देवमंदिर भी शुध्द हो जाते हैं, उन गौओ से बढकर और कौन प्राणी हो सकता है ?जो मनुष्य एक सालतक स्वयं भोजन करनेके पहले प्रतिदिन दूसरे की गायको मुट्ठी भर घास खिलाया करता है, उसको प्रत्येक समय गौकी सेवा करनेका फल प्राप्त होता है । (महाभारत, आश्वमेधिकपर्व, वैष्णवधर्म )

• देवता, ब्राह्मण, गो, साधु और साध्वी स्त्रीयोंके बलपर यह सारा संसार टिका हुआ है, इसीसे वे परम पूजनीय हैं । गौए जिस स्थानपर जल पीती हैं, वह स्थान तीर्थ है । गंगा आदि पवित्र नदियाँ गोस्वरूपा ही हैं ।

जहा जिस मार्ग से गो माताए जलराशि को लांघती हुई नदी आदि को पार करती है,वहां गंगा, यमुना, सिंधु, सरस्वती आदि नदियाँ या तीर्थ निश्चित रूप से विद्यमान रहते है। (विष्णुधर्मोत्तर पुराण . द्वी.खं ४२। ४९-५८)

• हे ब्राह्मणो ! गायके खुरसे उत्पन्न धूलि समस्त पापो को नष्ट कर देनेवाली है । यह धूलि चाहे तीर्थकी हो चाहे मगध कीकट आदि निकृष्ट देशोंकी ही क्यो न हो । इसमें विचार अथवा संदेह करने की कोई आवश्यकता नहीं । इतना ही नहीं वह सब प्रकार की मङ्गलकारिणी, पवित्र करनेवाली और दुख दरिद्रतारूप अलक्ष्मी को नष्ट करनेवाली है ।

गायो के निवास करनेसे वहाँक्री पृथिवी भी शुद्ध हो जाती है । जहां गायें बैठती हैं वह स्थान, वह घर सर्वथा पवित्र हो जाता है । वहां कोई दोष नहीं रहता । उनके नि: श्वास की हवा देवताओंके लिये नीराज़न के समान है । गौओ को स्पर्श करना बडा पुण्यदायक है और उससे समस्त दु-स्वप्न, पाप आदि भी नष्ट हो जाते हैं । गौओ के गरदन और मस्तकके बीच साक्षात् भगवती गंगा का निवास है । गौएं सर्वदेेवमयी  और सर्वतीर्थमयी हैं । उनके रोएँ भी बड़े ही पवित्रताप्रद और पुण्यदायक हैं । (विष्णुधर्मोत्तर पुराण ,भगवान् हंस ब्राह्मणों से)

• ब्राह्मणो! गौओ के शरीरको खुजलानेसे या उनके शरीरके कीटाणुओ को दूर करनेसे मनुष्य अपने समस्त पापोंको धो डालता है । गौओ को गोग्रास दान करनेसे महान् पुण्य की प्राप्ति होती है । गौओं को चराकर उन्हें जलाशयतक घुमाकर जल पिलानेसे मनुष्य अनन्त वर्षोतक स्वर्गमे निवास करता है । गौओ के प्रचारणके लिये गोचरभूमि की व्यवस्था कर मनुष्य नि:संदेह अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता है । गौओ के लिये गोशालाका निर्माणकर मनुष्य पूरे नगरका स्वामी बन जाता है और उन्हें नमक खिलाने से मनुष्य को महान सौभाग्यकी प्राप्ति होती है । (विष्णुधर्मोत्तर पुराण ,भगवान् हंस ब्राह्मणों से)

•विपत्तिमें या क्रीचड़मे फंसी हुई या चोर तथा बाघ आदिके भयसे व्याकुल गौ को क्लेशस्ने मुक्त कर मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त करता है । रुग्णावस्थामे गौओ को औषधि प्रदान करनेसे स्वयं मनुष्य सभी रोगोंसे मुक्त को जाता है । गौओ को भयसे मुक्त करनेपर मनुष्य स्वयं भी सभी भयोसे मुक्त हो जाता है ।

चांडाल के हाथसे गौ को खरीद लेने पर गोमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है तथा किसी अन्य के हाथसे गाय को खरीदकर उसका पालन करनेसे गोपालक को गोमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है । गौओंकी शीत तथा धूपसे रक्षा करनेपर स्वर्गकी प्राप्ति होती है । (विष्णुधर्मोत्तर पुराण ,भगवान् हंस ब्राह्मणों से)

•गोमूत्र, गोमय, गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत और कुशोदक यह पञ्चगव्य स्नानीय और पेयद्रव्योंमें परम पवित्र कहा गया है । ये सब मङ्गलमय पदार्थ भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस आदिसे रक्षा करनेवाले परममङ्गल तथा कलिके दुख-दोषो को नाश करनेवाले हैं । गोरोचना भी इसी प्रकार राक्षस, सर्पविष तथा सभी रोगों को नष्ट करनेवाली एवं परम धन्य है ।जो प्रात:काल उठकर अपना मुख गोघृतपात्रमें रखे घीमे देखता है उसकी दुख: दरिद्रता सर्वदाके लिये समाप्त हो जाती है और फिर पाप का बोझ नहीं ठहरता ।
(विष्णुधर्मोत्तर पुराण, राजनीति एवं धर्मशास्त्रके सम्यक ज्ञाता पुष्कर जी भगवान् परशुराम से)

•गायो,गोकुल, गोमय आदिपर थूक-खखार नहीं छोड़ना चाहिये । (पुष्कर परशुराम संवाद)

•जो गौओ के चलनेके मार्गमें, चरागाहमें जलकी व्यवस्था करता है, वह वरुणलोक को प्राप्तकर वहां दस हजार वर्षोंतक विहार करता है और जहां जहां उसका आगे जन्म होता है वह वहां सभी आनन्दो से परितृप्त रहता है । गोचरभूमि को हल आदिसे जोतनेपर चौदह इन्द्रों पर्यन्त भीषण नरक की प्राप्ति होती है ।हे परशुराम जी ! जो गौओ के पानी पीते समय विघ्न डालता है, उसे यही मानना चाहिये कि उसने घोर ब्रह्महत्या की । सिंह, व्याघ्र आदिके भयसे डरी हुई गायकी जो रक्षा करता है और कीचड़में फंसी हुई गायका जो उद्धार करता है, वह कल्पपर्यन्त स्वर्गमें स्वर्गीय भोगो का भोग करता है । गायों को घास प्रदान करनेसे वह व्यक्ति अगले जन्ममे रूपवान हो जाता है और उसे लावण्य तथा महान सौभाग्यकी प्राप्ति होती है । (पुष्कर परशुराम संवाद)

•हे परशुरामजी ! गायों को बेचना भी कल्याणकारी नहीं है। गायोंका नाम लेने से भी मनुष्य पापो से शुद्ध हो जाता है । गौओका स्पर्श सभी पापोंका नाश करनेवाला तथा सभी प्रकारका सौभाग्य एवं मङ्गलका विधायक है । गौओका दान करनेसे अनेक कुलोंका उद्धार को जाता है ।

मातृकुल, पितृकुल और भार्याकुलमे जहां एक भी गो माता निवास करती है वहां रजस्वला और प्रसूतिका आदिकी अपवित्रता भी नहीं आती और पृथ्वी में अस्थि, लोहा होनेका, धरतीके आकार प्रकार की विषमताका दोष भी नष्ट हो जाता है । गौओ के श्वास प्रश्वास से घरमे महान् शान्ति होती है । सभी शास्त्रो में  गौओके श्वास प्रश्वास को महानीराजन कहा गया है । हे परशुराम ! गौओ को छु देने मात्रसे मनुष्योंके सारे पाप क्षीण हो जाते हैं ।(पुष्कर परशुराम संवाद)

• जिसको गायका दूध, दही और घी खानेका सौभाग्य नहीं प्राप्त होता, उसका शरीर मल के समान है । अन्न आदि पाँच रात्रितक, दूध सात रात्रितक, दही बीस रात्रितक और घी एक मासतक शरीरमे अपना प्रभाव रखता है । जो लगातार एक मासतक बिना गव्यका(बिना गौ के दूध से उत्पन्न पदार्थ)भोजन करता है उस मनुष्यके भोजनमें प्रेतों को भाग मिलता है, इसलिये प्रत्येक युुग में सब कार्योंके लिये एकमात्र गौ ही प्रशस्त मानी गयी है । गौ सदा और सब समय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ प्रदान करनेवाली है । (पद्मपुराण, ब्रह्माजी और नारद मुनि संवाद)

•गायो से  उत्पन्न दूध, दही, घी, गोबर, मूत्र और रोचना-ये छ: अङ्ग (गोषडङ्ग) अत्यन्त पवित्र हैं और प्राणियोंके सभी भापों को नष्ट कर उन्हें शुद्ध करनेवाले हैं । श्रीसम्पन्न बिल्व वृक्ष गौओके गोबरसे ही उतपन्न हुआ है । यह भगवान् शिवजी को अत्यन्त प्रिय है । चूँकि उस वृक्षमें पद्महस्ता भगवती लक्ष्मी साक्षात् निवास करती हैं, इसीलिये इसे श्रीवृक्ष भी कहा गया है । बादमें नीलकमल एवं रक्तकमलके बीज भी गोबरसे ही उत्पन्न हुए थे । गौओ के मस्तकसे उत्पन्न परम पवित्र गोरोचना है समस्त अभीष्टो की सिद्धि करनेवाली तथा परम मङ्गलदायिनी है ।

अत्यन्त सुगन्धित गुग्गुल नामका पदार्थ गौओ के मूत्रसे ही उत्पन्न हुआ है । यह देखनेसे भी कल्याण करता है । यह गुग्गुल सभी देवताओं का आहार है, विशेषरूप भगवान् शंकर का प्रिय आहार है । संसारके सभी मङ्गलप्रद बीच एवं सुन्दर से सुन्दर आहार तथा मिष्टान्न आदि सब के सब गौके दूधसे ही बनाये जाते हैं । सभी प्रक्रार की मङ्गल कामनाओ को सिद्ध करनेके लिये गायका दही लोकप्रिय है । देवताओ को तृप्त करनेवाला अमृत नामक पदार्थ गायके घीसे ही उत्पन्न हुआ है । (भविष्यपुराण, उत्तरपर्व, अ.६९, भगवान् श्रीकृष्ण युधिष्ठीर संवाद)

•गौओ को खुजलाना तथा उन्हें स्नान कराना भी गोदानके समान फल वाला होता है । जो भयसे दुखी (भयग्रस्त) एक गायकी रक्षा करता है, उसे सौं गोदानका फल प्राप्त होता है । पृथ्वी में समुद्रसे लेकर जितने भी बड़े तीर्थ-सरिता-सरोवर आदि हैं, वे सब मिलकर भी गौ के सींग के जलसे स्नान करनेके षोडशांश के तुल्य भी नहीं होते।(बृहत्पराशर स्मृति, अध्याय ५)

• राम-वनवास के समय भरत १४ वर्षतक इसी कारण स्वस्थ रहकर आध्यात्मिक उन्नति करते रहे, क्योंकि वे अन्न के साथ गोमूत्र का सेवन करते थे ।

गोमूत्रयावकं श्रुत्वा भ्रातरं वल्कलाम्बरम्।।
(श्रीमद्भागवत ९ । १० । ३४)

• गोमाताका दर्शन एवं उन्हें नमस्कार करके उनकी परिक्रमा केरे । ऐसा करने से सातों द्विपोसहित भूमण्डल की प्रदक्षिणा हो जाती है । गौएँ समस्त प्राणियो की माताएँ एवं सारे सुख देनेवाली हैं । वृद्धिकी आकांक्षा करनेवाले मनुष्य को नित्य गो माताओ की प्रदक्षिणा करनी चाहिये ।

• जिस व्यक्तिकें पास श्राद्धके लिये कुछ भी न हो वह यहि पितरो का ध्यान करके गो माता को श्रद्धापूर्वक घास खिला दे तो उसको श्राद्धका फल मिल जाता है । (निर्णयसिंधुु)

• गौ माताए समस्त प्राणियोंकी माता हैं और सारे सुखों को देनेवाली हैं, इसलिये कल्याण चाहनेवाले मनुष्य सदा गोओंकी प्रदक्षिणा करें । गौओ को लात न मारे । गौओ के बीचसे होकर न निकले। मङ्गलकी आधारभूत गो-देवियोंकी सदा पूजा को । (महा ,अनु ६९ । ७-८)

• जब गौए चर रही हों या एकांत में बैठी हों, तब उन्हें तंग न करें । प्यास से पीडित होकर जब भी क्रोध से अपने स्वामी की ओर देखती है तो उसका बंधुबांधवोसहित नाश हो जाता है । राजाओ को चाहिये कि गोपालन और गोरक्षण करे । उतनी ही संख्यामे गाय रखे, जितनीका अच्छी तरह भरण-पोषण हो सके । गाय कभी भी भूखसे पीडित न रहे, इस बातपर विशेष ध्यान रखना चाहिये ।

• जिसके घरमें गाय भूखसे व्याकुल होकर रोती है, वह निश्चय ही नरक में जाता है । जो पुरुष गायोंके घरमें सर्दी न पहुँचने का और जलके बर्तन को शुद्ध जलसे भर रखनेका प्रबन्ध कर देता है, वह ब्रह्मलोकमे आनन्द भोग करता है ।

• जो मनुष्य सिंह, बाघ अथवा और किसी भयसे डरी हुई, कीचड़ में धसी हुई या जलमें डूबती हुई गायको बचाता है वह एक कल्पतक स्वर्ग-सुख का भोग करता है । गायकी रक्षा, पूजा और पालन अपनी सगी माताके समान करना चाहिये । जो मनुष्य गायों को ताड़ना देता है, उसे रौरव नरक की प्राप्ति होती है । (हेभाद्रि)

• गोबर और गोमूत्र से अलक्ष्मी का नाश होता है,  इसलिये उनसे कभी घृणा न करे। जिसके घरमें प्यासी गाय बंधी रहती है, रजस्वला कन्या अविवाहिता रहती है और देवता बिना पूज़नके रहते हैं, उसके पूर्वकृत सारे पुण्य नष्ट हो जाते हैं । गायें जब इच्छानुसार चरती होती हैं, उस समय जो मनुष्य उन्हें रोकता है, उसके पूर्व पितृगण पतनोन्मुख होकर काँप उठते हैं । जो मनुष्य मूर्खतावश गायों को लाठी से मारते हैं उनको बिना हाथके होकर यमपुरीमें जाना पड़ता है । (पद्मपुराण, पाताल .अ १८)

• गायको यथायोग्य नमक (नमकयुक्त भोजन) खिलाने से पवित्र लोककी प्राप्ति होती है और जो अपने भोजनसे पहले गाय को घास चारा खिलाकर तृप्त करता है, उसे सहस्त्र गोदानका फल मिलता है । (आदित्यपुराण)

• अपने माता पिताकी भांती श्रद्धापूर्वक गायोंका पालन करना चाहिये । हलचल, दुर्दिन और विप्लवके अवसर पर  गायों को घास और शीतल जल मिलता रहे, इस बातका प्रबन्ध करते रहना चाहिये । (ब्रह्मपुराण)

• गोमाताका दर्शन एवं उन्हें नमस्कार करके उनकी परिक्रमा केरे । ऐसा करने से सातों द्विपोसहित भूमण्डल की प्रदक्षिणा हो जाती है । गौएँ समस्त प्राणियो की माताएँ एवं सारे सुख देनेवाली हैं । वृद्धिकी आकांक्षा करनेवाले मनुष्य को नित्य गो माताओ की प्रदक्षिणा करनी चाहिये ।

•जिस व्यक्तिकें पास श्राद्धके लिये कुछ भी न हो वह यहि पितरो का ध्यान करके गो माता को श्रद्धापूर्वक घास खिला दे तो उसको श्राद्धका फल मिल जाता है । (निर्णयसिंधुु)

•महर्षि वसिष्ठ जी ने अनेक प्रकार से गो माता की महिमा तथा उनके दान आदिकी महिमा बताते हुए मनुष्यो के लिये एक महत्त्वपूर्ण उपदेश तथा एक मर्यादा स्थापित करते हुए कहा –

नाकीर्तयित्वा गा: सुप्यात् तासां संस्मृत्य चोत्पतेत्। सायंप्रातर्नमस्येच्च गास्तत: पुष्टिमाप्नुयात्।।
गाश्च संकीर्तयेन्नित्यं नावमन्येेत तास्तथा ।
अनिष्ट स्वप्नमालक्ष्य गां नर: सम्प्रकीर्तयेत्।।
(महाभा, अनु ७८। १६, १८)

अर्थात् ‘ गौओ का नामकीर्तन किये बिना न सोये । उनका स्मरण करके ही उठे और सबेरे-शाम उन्हें नमस्कार करे। इससे मनुष्य को बल और पुष्टि प्राप्त होती है । प्रतिदिन गायो का जाम ले, उनका कभी अपमान न को । यदि बुरे स्वप्न दिखायी दें तो मनुष्य गो माता का नाम ले ।

इसी प्रकार वे आगे कहते हैं की जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक रात-दिन निम्न मन्त्रका बराबर कीर्तन करता है वह सम अथवा विषम किसी भी स्थितिमें भयसे सर्वथा मुक्त हो जाता है और सर्वदेवमयी गोमाताका कृपा पात्र बन जाता है ।

मन्त्र इस प्रकार है –
गा वै पश्याम्यहं नित्यं जाब: पश्यन्तु मां सदा ।
गावोsस्माकं वयं तासां यतो गावस्ततो वयम्।।
(महाभा, अनु ७८ । २४)

अर्थात् मैं सदा गौओका दर्शन करू और गौए मुझपर कृपा दृष्टि करें । गौए हमारी हैं और हम गौओकै हैं । जहां गौए रहें, वहीं हम रहें, चूँकी गौए हैं इसीसे हमलोग भी हैं।

● पूज्य बाबा श्री ठाकुदास ने कहा है कि यदि पृथ्वी के किसी भाग के नीचे का जल अपवित्र /अशुद्ध हो गया हो तब उस भूमि के भाग ओर यदि गोबर गोमूत्र गिरता रहे तो वह जल शुद्ध हो जाता है । ऐसा उन्होंने केवल कहा ही नही था अपितु प्रमाणित भी कर के दिखाया था ।

●आज ग्लोबल वार्मिंग और ओजोन परत को खतरा है, इसपर भी वैज्ञानिकों और विद्वानों ने शोध करके पाया कि गौ के शुद्ध घी का उपयोग करके हवन किया जाने से यह समस्या पूरी तरह ठीक हो सकती है ।

सर्वदेवमयी गौ माता की जय।
सब संत भक्तो की जय

शनिवार, 19 अक्टूबर 2019

सनातन धर्म के संस्कार

*सनातन धर्म के षोडश संस्कार*



गर्भाधान से अंत्येष्टि तक, प्राचीन काल से, हिंदू-समाज में कई संस्कारों का प्रचलन रहा है। गौतम स्मृति में चालीस संस्कारों का उल्लेख है। अंगिरा ने इसे पच्चीस तक सीमित किया एवं व्यास स्मृति में मुख्य सोलह संस्कारों का वर्णन किया गया है और वे आज भी प्रचलित हैं। वे सोलह संस्कार निम्न प्रकार से हैं—

*‌1 गर्भाधान संस्कार*
*2 पुंसवन संस्कार*
*3 सीमान्तोन्नयन संस्कार*
*4 जातकर्म संस्कार*
*5 नामकरण संस्कार*
*6 निष्क्रमण संस्कार*
*7 अन्नप्राशन संस्कार*
*8 चूडाकर्म संस्कार*
*9 कर्णवेध संस्कार*
*10 विद्यारम्भ संस्कार*
*11 उपनयन संस्कार*
*12 वेदारंभ  संस्कार*
*13 केशान्त/गोदान संस्कार*
*14 समावर्तन संस्कार*
*15 विवाह संस्कार*
*16 अन्त्येष्टि संस्कार*

*1.    प्राक्‌ जन्म संस्कार*

गृह्य सूत्र गर्भाधान के साथ ही संस्कारों का प्रारंभ करते हैं क्योंकि जीवन का प्रारम्भ इसी संस्कार से शुरू होता है -निषिक्तो यत्प्रयोगेण गर्भः संधार्यते स्त्रिया।
      तद्‌ᅠगर्भालम्भनंᅠनाम कर्म प्रोक्तं मनीषिभिः। वीर मित्रोदय।

स्त्री-पुरुष के संयोग रूप इस संस्कार की विस्तृत विवेचना शास्त्रों में मिलती है जिसमें अनेक विधि-निषेधों की चर्चा है जो मानव जीवन के लिए और आगे आने वाले संतति परम्परा की शुद्धि के लिए अत्यावश्यक है। दिव्य सन्तति की प्राप्ति के लिए बताये गये शास्त्रीय प्रयोग सफल होते हैं सन्तति-निग्रह भी होता है।

*(2) पुंसवन संस्कार*
गर्भधारण का निश्चय हो जाने के पश्चात्‌ शिशु को पुंसवन नामक संस्कार के द्वारा अभिषिक्त किया जाता था। इसका अभिप्राय-पुं-पुमान्‌ (पुरुष) का सवन (जन्म हो)।

        पुमान्‌ प्रसूयते येन कर्मणा तत्‌ पुंसवनमीरितम्‌ - बीरमित्रोदय
गर्भधारण का निश्चय हो जाने के तीसरे मास से चतुर्थ मास तक इस संस्कार का विधान बताया जाता है। अधिकांश स्मृतिकारों ने तीसरा माह ही गृहीत किया है।
        तृतीये मासि कर्तव्यं गृष्टेरन्यत्रा शोभनम्‌।
            गृष्टे  चतुर्थमासे तु षष्ठे मासेऽथवाष्टये। -वीरमित्रोदय

यह संस्कार चन्द्रमा के पुरुष नक्षत्रा में स्थित होने पर करना चाहिए। सामान्य गणेशार्चनादि करने के बाद गर्भिणी स्त्री की नासिका के दाहिने छिद्र मे गर्भ-पोषण संरक्षण के लिए लक्ष्मणा, बटशुङ्‌ग, सहदेवी आदि औषधियों का रस छोड़ना चाहिए। सुश्रत नें सूत्र स्थान में कहा है-

''सुलक्ष्मणा-वटशुङ्‌रग, सहदेवी विश्वदेवानाभिमन्यतमम्‌ क्षीरेणाभिद्युष्टय त्रिचतुरो वा विन्दून दद्यात्‌ दक्षिणे-नासापुटे''-सुश्रत संहिता।
उपर्युक्त प्रक्रिया से जाहिर है कि इस संस्कार में वैज्ञानिक विधि का आश्रय है जिससे शिशु की पूर्णता प्राप्त हो और सर्वाङ्‌ग रक्षा हो।
*(3) सीमन्तोन्नयन संस्कार*
गर्भ का तृतीय संस्कार सीमतोन्नयन था। इस संस्कार में गर्भिणी स्त्री के केशों (सीमन्त) को ऊपर करना'' सीमन्त उन्नीयते यस्मिन्‌ कर्मणि तत्‌ सीमन्तोन्नयनम्‌-वी.मि.

विधि-किसी पुरुष नक्षत्र में चन्द्रमा के स्थित होने पर स्त्री-पुरुष को उस दिन फलाहार करके इस विधि को सम्पन्न किया जाता है। गणेशार्चन, नान्दी, प्राजापत्य आहुति देना चाहिए। पत्नी अग्नि के पश्चिम आसन पर आसीन होती है और पति गूलरके कच्चे फलों का गुच्छ, कुशा, साही के कांटे लेकर उससे पत्नी के केश संवारता है -महाव्याहृतियों का उच्चारण करते हुए।

अयभूर्ज्ज स्वतो वृक्ष ऊर्ज्ज्वेव फलिनी भव - पा.गृ. सूत्र

इस अवसर पर मंगल गान, ब्राह्मण भोजन आदि कराने की प्रथा थी।

बाल्यावस्था के संस्कार

*(4) जातकर्म संस्कार*
जातक के जन्मग्रहण के पश्चात्‌ पिता पुत्र मुख का दर्शन करे और तत्पश्चात्‌ नान्दी श्राद्धावसान जातकर्म विधि को सम्पन्न करे-

        जातं कुमारं स्वं दृष्ट्‌वा स्नात्वाऽनीय गुरुम्‌ पिता।
            नान्दी  श्राद्धावसाने   तु  जातकर्म   समाचरेत्‌

विधि-पिता स्वर्णशलाका या अपनी चौथी अंगुली से जातक को जीभ पर 
मधु और घृत महाव्याहृतियों के उच्चारण के साथ चटावे। गायत्राी मन्त्रा के साथ ही घृत बिन्दु छोड़ा जाय। आयुर्वेद के ग्रंथों में जातकर्म-विधि का विधान चर्चित है कि पिता बच्चे के कान में दीर्घायुष्य मंत्रों का जाप करे। इस अवसर पर लग्नपत्र बनाने और जातक के ग्रह नक्षत्रा की स्थिति की जानकारी भी प्राप्त करने की प्रथा है और तदनुसार बच्चे के भावी संस्कारों को भी निश्चित किया जाता है।

*(5) नामकरण संस्कार*
नामकरण एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण संस्कार है जीवन में व्यवहार का सम्पूर्ण
आधार नाम पर ही निर्भर होता है

  नामाखिलस्य व्यवहारहेतुः शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतुः
      नाम्नैव कीर्तिं लभेत मनुष्यस्ततः प्रशस्तं खलु नामकर्म।-बी.मि.भा. 1

उपर्युक्त स्मृतिकार बृहस्पति के वचन से प्रमाणित है कि व्यक्ति संज्ञा का जीवन में सर्वोपरि महत्त्व है अतः नामकरण संस्कार हिन्दू जीवन में बड़ा महत्त्व रखता है।

शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि ङ्क

      तस्माद्‌ पुत्रस्य जातस्य नाम कुर्यात्‌
      पिता नाम करोति एकाक्षरं द्वक्षरंत्रयक्षरम्‌ अपरिमिताक्षरम्‌ वेति-वी.मि.

  द्वक्षरं प्रतिष्ठाकामश्चतुरक्षरं ब्रह्मवर्चसकामः

प्रायः बालकों के नाम सम अक्षरों में रखना चाहिए। महाभाष्यकार ने व्याकरण के महत्व का प्रतिपादन करते हुए नामकरण संस्कार का उल्लेख किया ङ्क

याज्ञिकाः पठन्ति-''दशम्युतरकालं जातस्य नाम विदध्यात्‌
      घोष बदाद्यन्तरन्तस्थमवृद्धं त्रिापुरुषानुकम  नरिप्रतिष्ठितम्‌।

तद्धि प्रतिष्ठितमं भवति। द्वक्षरं चतुरक्षरं वा नाम कुर्यात्‌ न तद्धितम्‌ इति। न चान्तरेण व्याकरणकृतस्तद्धिता वा शक्या विज्ञातुम्‌।-महाभाष्य

उपर्युक्त कथन में तीन महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख है-

(1) शब्द रचना (2) तीन पुस्त के पुरखों के अक्षरों का योग (3) तद्धितान्त नहीं होना चाहिए अर्थात्‌ विशेषणादि नहीं कृत्‌ प्रत्यान्त होना चाहिए।

विधि-विधान-गृह्य सूत्रों के सामान्य नियम के अनुसार नामकरण संस्कार शिशु के जन्म के पश्चात्‌ दसवें या बारहवें दिन सम्पन्न करना चाहिए -

  द्वादशाहे  दशाहे वा जन्मतोऽपि त्रायोदशे।
      षोडशैकोनविंशे वा द्वात्रिंशेवर्षतः क्रमात्‌॥

संक्रान्ति, ग्रहण, और श्राद्धकाल में संस्कार मंगलमय नही माना जाता। गणेशार्चन करके संक्षिप्त व्याहृतियों से हवन सम्पन्न कराकर कांस्य पात्रा में चावल फैलाकर पांच पीपल के पत्तों पर पांच नामों का उल्लेख करते हुए उनका पद्द्रचोपचार पूजन करे। पुनः माता की गोद में पूर्वाभिमुख बालक के दक्षिण कर्ण में घरके बड़े पुरुष द्वारा पूजित नामों में से निर्धारित नाम सुनावे। हे शिशोᅠ! तव नाम अमुक शर्म-वर्म गुप्त दासाद्यस्ति'' आशीर्वचन निम्न ऋचाओं का पाठ-

''वेदोऽसि येन त्वं देव वेद देवेभ्यो वेदोभवस्तेन मह्यां वेदो भूयाः। अङ्‌गादङ्‌गात्संभवसि हृदयादधिजायते आत्मा वै पुत्रा नामासि सद्द्रजीव शरदः शतम्‌'। गोदान-छाया दान आदि कराया जाय। लोकाचार के अनुसार अन्य आचार सम्पादित किये जायें।

बालिकाओं के नामकरण के लिए तद्धितान्त नामकरणकी विधि है। बालिकाओं के नाम विषमाक्षर में किये जायें और वे आकारान्त या ईकारान्त हों। उच्चारण में सुखकर, सरल, मनोहर मङ्‌गलसूचक आशीर्वादात्मक होने चाहिए।

      स्त्रीणां च सुखम्‌क्रूरं विस्पष्टार्थं मनोहरम्‌।
      मत्त्ल्यं  दीर्घवर्णान्तमाशीर्वादाभिधानवत्‌। - वी.मि.

*(6) निष्क्रमण संस्कार*

प्रथम बार शिशु के सूर्य दर्शन कराने के संस्कार को निष्क्रमण कहा गया है।

        ततस्तृतीये  कर्तव्यं  मासि सूर्यस्य दर्शनम्‌।
            चतुर्थे मासि कर्तव्य शिशोश्चन्द्रस्य दर्शनम्‌

अनेक स्मृतिकारों ने चतुर्थ मास स्वीकार किया है। इस संस्कार के बाद बालक को निरन्तर बाहर लाने का क्रम प्रारंभ किया जाता है।

विधि-भलीभांति अलंकृत बालक को माता गोद में लेकर बाहर आये और कुल देवता के समक्ष देवार्चन करे। पिता पुत्र को-तच्चक्षुर्देव ........आदि मंत्र का जाप करके सूर्य का दर्शन करावे -

  ततस्त्वलंकृता धात्राी बालकादाय पूजितम्‌।
      बहिर्निष्कासयेद्‌ गेहात्‌ शङ्‌ख पुण्याहनिः स्वनैः। - विष्णुधर्मोत्तर

आशीर्वाद -     अप्रमत्तं प्रमत्तं  वा दिवारात्रावथापि वा।
                  रक्षन्तु सततं सर्वे देवाः शक्र पुरोगमाः॥

गीत, मंगलाचरण और बालक के मातुल द्वारा भी आशीर्वाद दिलाया जाय।

*(7) अन्नप्राशन संस्कार*

विधिपूर्वक बालक को प्रथम भोजन कराने की प्रथा अत्यन्त प्राचीन है। वेदों और उपनिषदों में भी एतत्‌ सम्बन्धी मंत्र उपलब्ध होते हैं। माता के दूध से पोषित होने वाले बालक को प्रथम बार अन्नप्राशन कराने का प्रचलन प्रायः प्राचीन काल से ही है जो एक विशेष उत्सव के रूप में सम्पन्न किया जाता है।

            जन्मतो मासि षष्ठे स्यात सौरेणोत्तममन्नदम्‌
            तदभावेऽष्टमे  मासे  नवमे दशमेऽपि वा।
            द्वादशे वापि  कुर्वीत  प्रथमान्नाशनं परम्‌
            संवत्सरे वा सम्पूर्णे केचिदिच्छन्ति पण्डिताः॥ - नारद, वी.मि.

        षण्मासद्द्रचैनमन्नं  प्राशयेल्लघु हितञ्च - सुश्रुत (शं. स्थान)

विधि-विधान-अन्नप्राशन संस्कार के दिन सर्वप्रथम यज्ञीय भोजन के पदार्थ वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ पकाये जायें। भोजन विविध प्रकार के हों तथा सुस्वादु हों। मधु-घृत-पायस से बालक को प्रथम कवल (ग्रास) दिया जाय। पद्धतियों में एतत्‌
संबंधी मंत्रा उपलब्ध हैं। गणेशार्चन करके व्याहृतियों से आहुति देकर एतत्‌ संबंधी ऋचाओं से हवन करके तत्पश्चात्‌ बालक को मंत्रापाठ के साथ अन्नप्राशन कराया जाय पुनः यथा लोकाचार उत्सव सम्पन्न किया जाय।
*(8) चूड़ाकरण (मुण्डन)संस्कार*

मुण्डन संस्कार के संदर्भ में वैदिक ऋचाओं, गृह्यसूत्रों एवं स्मृतियों में मंत्रा,
विधि प्रयोग, समय निर्धारण के सम्बन्ध में व्यापक चर्चा मिलती है। पद्धतियों में इसका समावेश किया गया है। तदपि लोकाचार कुलाचार से अनेक भेद दिखाई देते हैं। अनेक

कुलों में मनौती के आधार पर मुण्डन किये जाते हैं किन्तु मुहूर्त निर्णय के लिए सभी ज्योतिष का आधार प्रायः स्वीकार करते हैं। मुण्डन में विधि पूर्वक शास्त्रीय आचार केवल उपनयन कराने वाले कुलों में उसी समय किया जाता है जबकि शास्त्रीय
विधान दूसरे वर्ष से बताया गया है यथा -

        प्राङ्‌वासवे सप्तमे वा सहोपनयनेन वा। (अश्वलायन)
            तृतीये वर्षे चौलं तु सर्वकामार्थसाधनम्‌।
            सम्बत्सरे तु चौलेन आयुष्यं ब्रह्मवर्चसम्‌‌। - वी. मि.
            पद्द्रचमे पशुकामस्य युग्मे वर्षे तु गर्हितम्‌

निषिद्ध काल-गर्भिण्यां मातरि शिशोः क्षौर कर्म न कारयेत्‌-इसके अतिरिक्त भी मुहूर्त निर्णय के समय-निषिद्ध काल को त्यागना चाहिए।

शिखा की व्यवस्था

मुण्डन संस्कार के कौल और शास्त्रीय आचार तो किये जाते हैं किन्तु शिखा रखने की प्रथा का प्रायः उच्चाटन होता जा रहा है। जबकि शिखा का वैज्ञानिक महत्त्व है और शास्त्राों में शिखाहीन होना गंभीर प्रायश्चित्त कोटि में आता है ङ्क

        शिखा छिन्दन्ति ये मोहात्‌ द्वेषादज्ञानतोऽपि वा।
            तप्तकृच्च्रेण शुध्यन्ति त्रायो वर्णा द्विजातयः-लघुहारित

चूड़ाकरण का शास्त्रीय आधार था दीर्घायुष्य की प्राप्ति। सुश्रुत ने (जो विश्व के प्रथम शीर्षशल्य चिकित्सक थे) इस सम्बन्ध में बताया है कि -

(11) मस्तक के भीतर ऊपर की ओर शिरा तथा सन्धि का सन्निपात है वहीं रोमावर्त में अधिपति है। यहां पर तीव्र प्रहार होने पर तत्काल मृत्यु संभावित है। शिखा रखने से इस कोमलांग की रक्षा होती है।

        -मस्तकाभ्यन्तरोपरिष्टात्‌       शिरासम्बन्धिसन्निपातो
            रोमावर्त्तोऽधिपतिस्तत्राापि सद्यो मरणम्‌-सुश्रुत श. स्थान

विधि-विधान-गणेशार्चन अग्निस्थापन-पद्द्रचवारूणीहवन-नन्दी के बाद पिता केशों का संस्कार यथाविधि करके स्वयं मंत्रा पाठ करता हुआ केश कर्त्तन करता है और उनका गोमयपिन्ड में उत्सर्ग करता है पुनः दही उष्णोदक शीतोदक से केशों को भिगोता और छुरे को अभिमन्त्रित करके नापित को वपन (मुण्डन) का आदेश देता है। क्रमशः

क्क यत्‌ क्षुरेण मज्जयता सुपेशसावप्त्वा वापयति केशाद्द्रिछन्धिशिरो माऽस्यायुः प्रमोषी॥1॥

क्क अक्षण्वं परिवप॥2॥

येना वपत्‌ सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्‌। तेन ब्रह्मणो वपतेदमस्यायुष्यं जरदष्टिर्यथासत्‌॥3॥

येन भूरिश्चरा दिवंज्योक्‌ च पश्चाद्धि सूर्यम्‌।
 तेन ते वपामि ब्रह्मणा जीवातवे जीवनाय सुलोक्याय स्वस्तये॥4॥

*(9) कर्ण वेध संस्कार*

आभूषण पहनने के लिए विभिन्न अंगों के छेदन की प्रथा संपूर्ण संसार की असभ्य तथा अर्द्धसभ्य जातियों में प्रचलित है। अतः इसका उद्‌भव अति प्राचीन काल में ही हुआ होगा। - हिन्दू संस्कार पू. 129

आभूषण धारण और वैज्ञानिक रूप से कर्ण छेदन का महत्त्व होने के कारण इस प्रक्रिया को संस्कार रूप में स्वीकारा गया होगा। कात्यायन सूत्रों में ही इसका सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। सुश्रुत ने इसके वैज्ञानिक पक्ष में कहा है कि कर्ण छेद करने से अण्डकोष वृद्धि, अन्त्रा वृद्धि आदि का निरोध होता है अतः जीवन के आरंभ में ही इस क्रिया को वैद्य द्वारा सम्पादित किया जाना चाहिए।

  शङ्‌खो परि च कर्णान्ते त्यक्त्वा यत्नेन सेवनीयम्‌
      व्यत्यासाद्वा शिरां विध्येद्‌ अन्त्राबृद्धि निवृत्तये-सुश्रुत चि. स्थान

भिषग्‌‌ वामहस्तेन-विध्येत्‌‌-सुश्रुत संहिता में षष्ठ अथवा सप्तम मास में शुक्ल पक्ष में शुभ दिन में वैद्य द्वारा माता की गोद में मधुर खाते बालक का अत्यन्त निपुणता से कर्ण वेध करना चाहिए। जब कि वृहस्पति जन्म से 10-12-16वें दिन करने को कहते हैं।

विधि विधान-वर्तमान बालिकाओं का कर्णवेध तो आभूषण धारण के लिए अनिवार्यतः होता है किन्तु पुरुष वर्ग के वेध का प्रतीकात्मक ही संस्कार हो पाताᅠहै।

गणेशार्चन, हवन आदि करके निम्न मंत्रों से क्रमशः दक्षिण-वाम कर्णों की
वेध की प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है - क्क भद्रं कर्णेभिः.............आदि मंत्रों से सम्पन्न किया जाय।

*(10) विद्यारंभ या अक्षरारंभ संस्कार*

इस महत्त्वपूर्ण संस्कार के संबंध में गृह्य सूत्रों में काफी स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता  और न ही किसी विशेष विधि-विधान की चर्चा ही मिलती है। किन्तु अनेक आकर ग्रंथों, प्राचीन काव्य नाटकों में इसका स्पष्ट उल्लेख आता है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र रघुवंश, उत्तररामचरित आदि में इसकी चर्चा है इससे स्पष्ट है कि उपनयन और वेदारंभ

के पूर्व अक्षरों का सम्यक्‌ ज्ञान अपेक्षित था और अक्षर ज्ञान के समय कुलाचार के अनुसार विधि-विधान किये जाते थे।

विधि-परवर्ती संग्रह ग्रंथों में इसकी विधि व्यवस्था प्राप्त है।

उत्तरायण सूर्य होने पर ही शुभ मुहूर्त में गणेश-सरस्वती-गृह देवता का अर्चन करके गुरु के द्वारा अक्षरारंभ कराया जाय।

द्वितीय जन्मतः पूर्वामारभेदक्षरान्‌ सुधीः।

-बी.मि. (बृहस्पति)

''पद्द्रचमे सप्तमेवाद्वे''-संस्कारप्रकाश-भीमसेन

तण्डुल प्रसारित पट्टिका पर-

श्री गणेशाय नमः, श्री सरस्वत्यै नमः, गृह देवताभ्योनमः श्री लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः लिखकर उसका पूजन कराया जाय और गुरु पूजन किया जाय और गुरु स्वयं बालक का दाहिना हाथ पकड़कर पट्टिका पर अक्षरारंभ करा दे। गुरु को दक्षिणा दान किया जाय।

*(11) उपनयन संस्कार*

भारतीय मनीषियों ने जीवन की समग्र रचना के लिए जिस आश्रम व्यवस्था की स्थापना की जिससे मनुष्य को सहज ही पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति हो, किया गया प्रतीत होता है। ब्रह्मचर्य काल में धर्म का अर्जन एवं गृहस्थ जीवन में अर्थ-काम का उपभोग गीता के शब्दों में 'धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ'' धर्म-नियंत्रित अर्थ और काम तभी संभव था जब प्रारंभ में ही धर्म-तत्वों से मनुष्य दीक्षित हो जाय। इसके बाद जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करने के लिए भी यौवन काल में अभ्यस्त धर्म ही सहायक होता है। इस प्रकार पुरुषार्थ चतुष्टय और आश्रम चतुष्टय में अन्योन्याश्रय प्रतीत होता है या दोनों आधाराधेय भाव से जुड़े हैं।

वर्तमान युग में उपनयन संस्कार प्रतीकात्मक रूप धारण करता जा रहा है। विरल परिवारों में यथाकाल विधि-व्यवस्था के अनुरूप उपनयन संस्कार हो पाते हैं। एक ही दिन कुछ घण्टों में चूड़ाकरण, कर्णवेध, उपनयन, वेदारंभ और केशान्त कर्म के साथ समावर्तन संस्कार की खानापूरी करदी जाती है। बहुसंखय परिवारों में विवाह से पूर्व उपनयन संस्कार कराकर वैवाहिक संस्कार करा दिया जाता है जबकि गृह्यसूत्रों के अनुसार विभिन्न वर्णों के लिए आयु की सीमा का निर्धारण किया गयाᅠहै-

ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं  विप्रस्य  पद्द्रचमे
            राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोष्टमे। -मनुस्मृति 2 अ. 37

सत्राहवीं शताब्दी के निबन्धकारों ने परिस्थितियों के अनुरूप ब्राह्मण का 24 क्षत्रिाय का 33 और वैश्य का 36 तक भी उपनयन स्वीकार कर लेते हैं। - बी.मि.भा. 1 (347)

यौवन के पदार्पण करने के पूर्व किशोरावस्था में संस्कारित और दीक्षित करने का अनुष्ठान सार्वकालिक और विश्वजनीन है। सभी सम्प्रदायों में किसी न किसी रूप में दीक्षा की पद्धति चलती है और उसके लिए विशेष प्रकार के विधि विधानों के कर्मकाण्ड आयोजित किये जाते हैं। इन विधि-विधानों के माध्यम से संस्कारित व्यक्ति ही समाज में श्रेष्ठ नागरिक की स्थिति प्राप्त कर सकता है। इसी उद्देश्य से उपनयन संस्कार की परम्परा भारतीय मनीषा में स्थापित की थी।

'हिन्दू संस्कार'-वास्तव में उपनयन संस्कार आचार्य के समीप दीक्षा के लिए अभिभावक द्वारा पहुंचना ही इस संस्कार का उद्देश्य था। इसी लिए इसके कर्मकाण्ड में कौपीन; मौञ्जी, मृगचर्म और दण्ड धारण करने का मंत्रों के साथ संयोजन है। सावित्री मंत्रा धारण द्विज को अपने ब्रह्मचारी वेष में अपनी माता से पहली भिक्षा और फिर समाज के सभी वर्ग से भिक्षाटन करने का अभ्यास इस संस्कार का वैशिष्ट्‌य है। इस व्यवस्था से ब्रह्मचारी को व्यष्टि से समष्टि और परिवार से बृहत्‌ समाज से जोड़ा जाता था जिससे व्यक्ति अपनी सत्ता को समष्टि में समाहित करें और अपनी विद्या बुद्धि शक्ति का प्रयोग समाज की सेवा के लिए करें।

वास्तव में यज्ञोपवीत के सूत्र धारण करने को ब्रतवंध कहते हैं जिससे ब्रह्मचारी की पहचान और उसको धारण करने वाले को अपनी दीक्षा संकल्प का सदा स्मरण रहे। सूत्र धारण कराकर उत्तरीय रखने की अनिवार्यता बताई गई है।

विधि विधान-उपनयन संस्कार से संबंधित प्रान्तीय और विभिन्न सम्प्रदायों के स्तर पर उपनयन पद्धतियां प्रचुर मात्राा में उपलब्ध हैं तदनुसार उनका आश्रय लेकर संस्कारों का संयोजन सम्पादन करना चाहिए।

*(12) वेदारंभ संस्कार*

वेदारंभ उपनयन संस्कार के बाद किया जाता है जो अब प्रतीकात्मक ही रह गया है। वास्तव में यह संस्कार मुखय रूप से वेद की विभिन्न शाखाओं की रक्षा के लिए उसके अभ्यास की परम्परा से जुड़ा है। अपनी कुल परम्परा के अनुसार वेद, शाखा सूत्र आदि के स्वाध्याय की पद्धति थी। जिसे अनिवार्य रूप से द्विजातियों को उसका अभ्यास

करना पड़ता था। कालान्तर में मात्रा पुरोहितों के कुलों में सीमित हो गई और अब उसका प्रायः लोप हो गया है। यही कारण है कि वेद की बहुत सी शाखायें उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि श्रुति परम्परा से ही इसकी रक्षा की जाती थी। महर्षि पतद्द्रजलि ने भी महाभाष्य में इसकी चर्चा करते हुए कहा है कि अनेक शाखा-सूत्रों का लोप हो गया है।

वर्तमान पद्धतियों में चतुर्वेदों के मंत्राों का संग्रह कर दिया गया है जिसे उपनयन के बाद सावित्राी-सरस्वती-लक्ष्मी गणेश की अर्चना के बाद उपनीत बटु से उसका औपचारिक उच्चारण मात्रा करा दिया जाता है। अतः अब यह संस्कार उपनयन का अंगभूत भाग रह गया है।

*(13) केशान्त संस्कार*

केशान्त का अर्थ लम्बी अवधि तक केशधारण करने वाले युवा ब्रह्मचारी का केश वपन। विधि पूर्वक मंत्रोच्चारण के साथ यह गोदान के साथ सम्पन्न होता था। इस संस्कार के बाद ही 'युवक' को गृहस्थ जीवन के योग्य शारीरिक और व्यावहारिक योग्यता की दीक्षा दी जाती थी। आगोदानकर्मणः-ब्रह्मचर्यम्‌

*(14) समावर्त्तन संस्कार*
समावर्त्तन का अर्थ है विद्याध्ययन प्राप्त कर ब्रह्मचारी युवक का गुरुकुल से घर की ओर प्रत्यावर्त्तन।

तत्र समावर्त्तनं नाम वेदाध्यनानन्तरं गुरुकुलात्‌ स्वगृहागमनम्‌-वीर मित्रोदय

विष्णुस्मृति के अनुसार-कुब्ज, वामन, जन्मान्ध, बधिर, पंगु तथा रोगियों को यावज्जीवन ब्रह्मचर्य में रहने की व्यवस्था है-

            कुब्जवामनजात्यन्धक्लीब पङ्‌वार्त रोगिणाम्‌
            ब्रतचर्या    भवेत्तेषां    यावज्जीवमनंशतः।

समावर्त्तन संस्कार गृहस्थ जीवन में प्रवेश की अनुमति देता है। उपनयन संस्कार से प्रारंभ होने वाली शिक्षा की पूर्णता के बाद ब्रह्मचर्य का कठोर जीवन व्यतीत करने वाले संस्कारित युवक को इस संस्कार के माध्यम से गार्हस्थ्य जीवन जीने की शिक्षा दी जाती थी। ऐसे संस्कारित युवक की स्नातक संज्ञा थी। स्नातक तीन प्रकार के होते थे (1) विद्या स्नातक (2) व्रत स्नातक (3) विद्याव्रत स्नातक। इनमें तीसरे प्रकार के स्नातक को ही गृहस्थ जीवन में प्रवेश का अधिकार मिलता था। क्योंकि ऐसा ही ब्रह्मचारी विद्या की पूर्णता के साथ ब्रह्मचर्य्य व्रत की भी पूर्णता प्राप्त कर लेता था। वर्तमान काल में भले 10-12 वर्ष के बालक का उपनयन संस्कार के तत्काल समावर्त्तन का अधिकारी बना दिया जाताᅠहै।

आश्रमहीन रहना दोषपूर्ण होता है अतः समावर्त्तन के बाद गृहस्थ बनना अथ च दारपरिग्रह अपरिहार्य है, अन्यथा प्रायश्चित्त होता है।

  अनाश्रमी न तिष्ठेच्च  क्षणमेकमपि   द्विजः।
      आश्रमेण विना तिष्ठन्‌ प्रायश्चित्तीयते हि सः॥  दक्षस्मृति (10)

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि समावर्त्तन संस्कार अति महत्वपूर्ण आचार प्रक्रिया थी जिससे संस्कारित और दीक्षित होकर युवक एक श्रेष्ठ गृहस्थ की योग्यता प्राप्त करता था। वर्तमान काल में उपनयन संस्कार के साथ ही कुछ घंटों में इसकी भी खानापूरी कर दी जाती है। इसके विधि विधान का विवरण उपनयन पद्धतियों से यथा प्राप्त सम्पन्न कराना चाहिए।

*(15) विवाह संस्कार*

विवाह संस्कार हिन्दू संस्कार पद्धति का अत्यन्त महत्वपूर्ण संस्कार है। प्रायः सभी सम्प्रदायों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। विवाह शब्द का तात्पर्य मात्रा स्त्री-पुरुष के मैथुन सम्बन्ध तक ही सीमित नहीं है अपितु सन्तानोत्पादन के साथ-साथ सन्तान को सक्षम आत्मनिर्भर होने तक के दायित्व का निर्वाह और सन्तति परम्परा को योग्य लोक शिक्षण देना भी इसी संस्कार का अंग है। शास्त्राों में अविवाहित व्यक्ति को अयज्ञीय कहा गया है और उसे सभी प्रकार के अधिकारों के अयोग्य माना गया है-

अयज्ञियो वा एष योपत्नीकः-

मनुष्य जन्म ग्रहण करते ही तीन ऋणों से युक्त हो जाता है, ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृऋण और तीनों ऋणों से क्रमशः ब्रह्मचर्य, यज्ञ, सन्तानोत्पादन करके मुक्त हो पाता है-जायमानो ह वै ब्राहणस्त्रिार्ऋणवान्‌ जायते-ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो, यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्यः-तै. सं. 6-3

गृहस्थाश्रम सभी आश्रमों का आश्रम है। जैसे वायु प्राणिमात्रा के जीवन का आश्रय है, उसी प्रकार गार्हस्थ्य सभी आश्रमों का आश्रम है -

        यथा वायुं समाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्वजन्तवः
            तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः।
            यस्मात्‌ त्रायोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेन

शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2019

मनचाहा पुत्र प्राप्ति हेतु ध्यान दें

अनेकों जन्मों के पुण्यकर्मों से जीव मनुष्य शरीर प्राप्त करता है।

माता-पिता द्वारा खाये हुए अन्न से शुक्र-शोणित बनता है ,  माता के पेट में मिलकर रज की अधिकता से स्त्री , शुक्र की अधिकता से पुरुष होता है ,  यदि दोनों का तेज समान हो तो नपुंसक होता है ।

ऋतुस्नाता पत्नी के ४ दिन बाद ५वें दिन से लेकर १६ दिन तक ऋतुकाल होता है ।

विषम रात्रियों में ५, ७, ९, ११, १३, १५ रात्रियों में भोग से कन्या तथा सम रात्रियों में ६ , ८, १०, १२, १४, १६  इनमें बालक का जन्म होता है ।

विषम रात्रियों में यदि पति का शुक्र अधिक है तो होता तो बालक है , किन्तु आकार बालिका की तरह तथा सम रात्रियों के संयोग में स्त्री की रज की अधिकता में कन्या होती है , किन्तु उसका रूप पुत्र जैसा होता है ।

लिङ्गपुराण में कहा है -----

"चतुर्थ्यां रात्रौ विद्याहीनं व्रतभ्रष्टम् पतितं परदारिकम् दरिद्रार्णव मग्नं च तनयं सा प्रसूयते ।
पञ्चम्यामुत्तमांकन्यां षष्ठ्यां सत्पुत्रं सप्तम्यां कन्यां अष्टम्यां सम्पन्नं पुत्रम् ।।
त्रयोदश्यां व्यभिचारिणी कन्या चतुर्दश्यां सत्पुत्रं पंचदश्यां धर्मज्ञा कन्यां षोडश्यां ज्ञानं पारंगपुत्रं प्रसूयते ।।"

अर्थात् ==    चौथी रात्रि में विद्यारहित , व्रतभ्रष्ट , परस्त्री-गामी , निर्धनता के सागर में डूबे हुए पुत्र को जन्म देती है ,    पांचवीं रात्रि में उत्तमा कन्या , षष्ठी में सत्पुत्र , सातवीं में कन्या , आठवीं में धनवान् पुत्र , तेहरवीं में व्यभिचारिणी कन्या , चौदवीं में सत्पुत्र , पन्द्रहवीं में धर्माज्ञा कन्या , सोहलवीं में ज्ञानी पुत्र या चक्रवर्ती सम्राट को जन्म देती है ।"

ऋतुस्नाता पत्नी इच्छापूर्वक जिसका मुख देखती है , उसी रूप की सन्तान होती है , अतः अपने पति का ही मुख देखना चाहिए ।

शास्त्र-वचनों से सिद्ध है कि पहली चार रात्रि में पति स्त्री का दर्शन , स्पर्श तथा सम्भाषण भी न करे , यदि पति उस समय पत्नी द्वारा बनाये भोजनादि करता है तो उस समय उसके हाथ का भोजन लाखों रोगों को जन्म देता है ।

पराशर स्मृति में यहां तक आया है कि रजस्वला ब्राह्मणी-- ब्राह्मणी को  अथवा क्षत्राणी -- क्षत्राणी को,  वैश्या -- वैश्यों को ,  शूद्रा -- शूद्रा को  तथा अपनी विजातीय अथवा अपने से उच्च या नीच जाति के स्त्री का भी स्पर्श न करें ।

यदि करती है तो ब्राह्मणी चौगुणा , क्षत्राणी त्रिगुणा , वैश्या दुगुणा  शूद्रा स्त्री की अपेक्षा प्रायश्चित करें ।

पांचवीं से लेकर सोहलवीं रात्रियों के बीच भी यदि कोई पर्व आ जाये , तो स्त्री-संसर्ग नहीं करना चाहिए ।

पर्वों में पूर्णिमा , अमावस्या , संक्रान्ति , दोनों पक्षों की अष्टमी-एकादशी  तथा कोई विशेष वार्षिक पर्व और श्राद्ध के दिन भी संयम वर्तना चाहिए ।

प्रथम गर्भाधान संस्कार शास्त्र-विधि से करे , दोनों को मल-मूत्र के वेग में या अन्य रुग्ण अवस्था में नहीं करना चाहिए ,  दिन में भूलकर भी न करे ,  क्योंकि दिन में स्त्री-संग से प्राण-शक्ति का ह्रास होता है ।

अधिक शीतोष्ण में न करे ,  दोनों का शरीर , मन जब स्वस्थ न हो तब भी न करे तथा अच्छे पुत्र की इच्छा वाला दम्पति चौथी-तेहरवीं रात्रि में स्त्री-संग न करे ।

यहां यह बात विचारने योग्य है कि यदि सद्गृहस्थ दम्पति श्रुति- स्मृति- पुराण  आदिकों की आज्ञाओं में चले , तो उनके द्वारा संयम का पालन करने से स्वयमेव ही परिवार-नियोजन हो जाता है ।

शुद्ध खान-पान रखने से , गन्दे दृश्यों को न देखने-सुनने से तथा कुसंगतियों का संग त्यागने से  एवं भगवत्-भक्त , धर्मात्मा , दानशील , शूरवीर , विद्वान् , तथा सदाचारियों के संग से  माता-पिता जैसा चाहें वैसे उत्तम से उत्तम सन्तान उत्पन्न कर सकते हैं ।

इसके विपरीत चलने से माता-पिता - परिवार - समाज - देश को दुःख देने वाली सन्तान उत्पन्न होगी ,   अतः नवयुवक दम्पतियों को चाहिए कि इन शास्त्रीय बातों को पढ़कर शास्त्राज्ञानुसार योग्य सन्तान उत्पन्न करके सबको सुखी करें तथा आप भी सुखी रहें ।

सरकार को चाहिए कि पक्षपात का त्याग करके ऐसे आदर्श शिक्षा का प्रचार-प्रसार करें ,  जिससे देश - समाज - जनता स्वयं ऊपर उठे ।

परन्तु वर्तमान काल में परिवार को नियोजित करने के लिए जिस शिक्षा का प्रचार देश में हो रहा है , वह देश - समाज - धर्म सबके अहित में है ।

वर्तमान में घोर चरित्र का हनन हो रहा है , सरकार ने भी अब तो चरित्रहीनता को मान्यता दे दी है , जिससे व्यभिचार की वृद्धि होगी , वर्णसंकर सन्तान उत्पन्न होंगें , उसके हाथ का दिया हुआ पिण्डदान - श्राद्ध - तर्पण पितरों को नहीं मिलता ।

देवता तथा ऋषि भी उसकी वस्तु को ग्रहण नहीं करते , अतः श्रद्धालु भक्तों को सरकार के इन गलत नीतियों का विरोध करना चाहिए ।

ब्रह्मचर्य आदि को प्रोत्साहन दें , तभी हमारे देश -धर्म - समाज का उत्थान होगा , अन्यथा घोर पतन होता जाएगा ।

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2019

बातें बिल्व वृक्ष की

बातें बिल्व वृक्ष की-

1. बिल्व वृक्ष के आसपास सांप नहीं आते ।

2. अगर किसी की शव यात्रा बिल्व वृक्ष की छाया से होकर गुजरे तो उसका मोक्ष हो जाता है ।

3. वायुमंडल में व्याप्त अशुध्दियों को सोखने की क्षमता सबसे ज्यादा बिल्व वृक्ष में होती है ।

⚡4. चार पांच छः या सात पत्तो वाले बिल्व पत्रक पाने वाला परम भाग्यशाली और शिव को अर्पण करने से अनंत गुना फल मिलता है ।

5. बेल वृक्ष को काटने से वंश का नाश होता है। और बेल वृक्ष लगाने से वंश की वृद्धि होती है।

6. सुबह शाम बेल वृक्ष के दर्शन मात्र से पापो का नाश होता है।

7. बेल वृक्ष को सींचने से पितर तृप्त होते है।

8. बेल वृक्ष और सफ़ेद आक् को जोड़े से लगाने पर अटूट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

9. बेल पत्र और ताम्र धातु के एक विशेष प्रयोग से ऋषि मुनि स्वर्ण धातु का उत्पादन करते थे ।

10. जीवन में सिर्फ एक बार और वो भी यदि भूल से भी शिवलिंग पर बेल पत्र चढ़ा दिया हो तो भी उसके सारे पाप मुक्त
हो जाते है ।

11. बेल वृक्ष का रोपण, पोषण और संवर्धन करने से महादेव से साक्षात्कार करने का अवश्य लाभ मिलता है।

कृपया बिल्व पत्र का पेड़ जरूर लगाये । बिल्व पत्र के लिए पेड़ को क्षति न पहुचाएं शिवजी की पूजा में ध्यान रखने योग्य बात शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव को कौन सी चीज़ चढाने से मिलता है क्या फल किसी भी देवी-देवता का पूजन करते वक़्त उनको अनेक चीज़ें अर्पित की जाती है।

प्रायः भगवन को अर्पित की जाने वाली हर चीज़ का फल अलग होता है। शिव पुराण में इस बात का वर्णन मिलता है की भगवन शिव को अर्पित करने वाली अलग-अलग चीज़ों का क्या फल होता है।

शिवपुराण के अनुसार जानिए कौन सा अनाज भगवान शिव को चढ़ाने से क्या फल मिलता है:

1. भगवान शिव को चावल चढ़ाने से धन की प्राप्ति होती है।

2. तिल चढ़ाने से पापों का नाश हो जाता है।

3. जौ अर्पित करने से सुख में वृद्धि होती है।

4. गेहूं चढ़ाने से संतान वृद्धि होती है।यह सभी अन्न भगवान को अर्पण करने के बाद गरीबों में वितरीत कर देना चाहिए।

शिवपुराण के अनुसार जानिए भगवान शिव को कौन सा रस (द्रव्य) चढ़ाने से उसका क्या फल मिलता है।

1. ज्वर (बुखार) होने पर भगवान शिव को जलधारा चढ़ाने से शीघ्र लाभ मिलता है। सुख व संतान की वृद्धि के लिए भी जलधारा द्वारा शिव की पूजा उत्तम बताई गई है।

2. नपुंसक व्यक्ति अगर शुद्ध घी से भगवान शिव का अभिषेक करे, ब्राह्मणों को भोजन कराए तथा सोमवार का व्रत करे तो उसकी समस्या का निदान संभव है।

3. तेज दिमाग के लिए शक्कर मिश्रित दूध भगवान शिव को चढ़ाएं।

4. सुगंधित तेल से भगवान शिव का अभिषेक करने पर समृद्धि में वृद्धि होती है।

5. शिवलिंग पर ईख (गन्ना) का रस चढ़ाया जाए तो सभी आनंदों की प्राप्ति होती है।

6. शिव को गंगाजल चढ़ाने से भोग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।

7. मधु (शहद) से भगवान शिव का अभिषेक करने से राजयक्ष्मा (टीबी) रोग में आराम मिलता है।

शिवपुराण के अनुसार जानिए भगवान शिव को कौन का फूल चढ़ाया जाए तो उसका क्या फल मिलता है।

1. लाल व सफेद आंकड़े के फूल से भगवान शिव का पूजन करने पर भोग व मोक्ष की प्राप्ति होती है।

2. चमेली के फूल से पूजन करने पर वाहन सुख मिलता है।

3. अलसी के फूलों से शिव का पूजन करने से मनुष्य भगवान विष्णु को प्रिय होता है।

4. शमी पत्रों (पत्तों) से पूजन करने पर मोक्ष प्राप्त होता है।

5. बेला के फूल से पूजन करने पर सुंदर व सुशील पत्नी मिलती है।

6. जूही के फूल से शिव का पूजन करें तो घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती।

7. कनेर के फूलों से शिव पूजन करने से नए वस्त्र मिलते हैं।

8. हरसिंगार के फूलों से पूजन करने पर सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है।

9. धतूरे के फूल से पूजन करने पर भगवान शंकर सुयोग्य पुत्र प्रदान करते हैं, जो कुल का नाम रोशनकरता है।

10. लाल डंठलवाला धतूरा पूजन में शुभ माना गया है।

11. दूर्वा से पूजन करने पर आयु बढ़ती है।

सोमवार, 14 अक्टूबर 2019

कार्तिक मास में दीपदान जरूर करें

आज से कार्तिक मास आरंभ हो गया है,कार्तिकमास में दीपदान का बहुत महत्व है। आज हम आपको कार्तिक मास में दीपदान की विधि बतायेंगे!!!!!!!!!

कार्तिक मास में प्रतिदिन प्रात:काल स्नान करके कोमल तुलसीदलों से भगवान विष्णु या दामोदर कृष्ण की पूजा करके रात्रि में आकाशदीप देते (प्रज्ज्वलित करते) हैं । इसके लिए एक लम्बे बांस में लालटेन रखकर उसमें ‘आकाशदीप’ जलाते हैं, अथवा भगवान के मन्दिर के मुंडेर पर एक मास तक दीपदान किया जाता है । दीप प्रज्ज्वलित करते समय इस मन्त्र का उच्चारण किया जाता है—

दामोदराय विश्वाय विश्वरूपधराय च ।
नमस्कृत्वा प्रदास्यामि व्योमदीपं हरिप्रियम् ।।

अर्थात्—मैं सबमें स्थित और विश्वरूपधारी भगवान दामोदर को नमस्कार करके यह आकाशदीप देता हूँ, जो भगवान को अत्यन्त प्रिय है ।’

महालक्ष्मी सहित भगवान विष्णु की प्रसन्नता के लिए शरद पूर्णिमा से पूरे मास आकाशदीप प्रज्जवलित करना चाहिए इससे मनुष्य यम की यातना से मुक्त हो जाता है और अपने परिवार के साथ सभी प्रकार के भोगों को भोग करके अंत में विष्णुलोक को प्राप्त होता है ।

भगवान दामोदर (विष्णु) की प्रसन्नता के लिए  रात्रि के समय मन्दिरों, गलियों, तुलसी के बिरवों, पीपल के पेड़ के नीचे, बिल्ववृक्ष के नीचे, नदियों के किनारे, सड़क पर और सोने के स्थान आदि पर दीपक जलाया जाता है इससे सब प्रकार का वैभव व लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । जो मनुष्य कीटों और कांटों से भरे ऊबड़खाबड़ रास्तों पर दीपदान करता है, वह नरक में नहीं पड़ता है ।

कार्तिक मास में पितरों के लिए दीपदान

नम: पितृभ्य: प्रेतेभ्यो नमो धर्माय विष्णवे ।
नमो यमाय रुद्राय कान्तारपतये नम: ।।

अर्थात्—पितरों को नमस्कार है, प्रेतों को नमस्कार है, धर्मस्वरूप विष्णु को नमस्कार है, यमराज को नमस्कार है तथा कठिन पथ में रक्षा करने वाले भगवान रुद्र को नमस्कार है ।’

इस मन्त्र से जो मनुष्य पितरों के लिए आकाश दीप दान करता है, उसके पितर उत्तम गति को प्राप्त होते हैं ।

कार्तिक मास में दीपदान की महिमा!!!!!!!!

—त्रेतायुग में हरिद्वार में देवशर्मा नामक एक विद्वान ब्राह्मण थे जो सूर्य की आराधना करके सूर्य के समान तेजस्वी हो गए । उनकी गुणवती नामक एक पुत्री थी । कार्तिक के महीने में वह प्रात:काल स्नान करती थी, दीपदान और तुलसी की सेवा तथा भगवान विष्णु के मन्दिर में झाड़ू दिया करती थी । प्रतिवर्ष कार्तिक-व्रत का पालन करने से मृत्यु के बाद वह वैकुण्ठ लोक गयी । गुणवती ने सभी कर्मों को परमपति भगवान विष्णु को समर्पित किया था, इसलिए अगले जन्म में वह सत्यभामा हुईं । उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को पति के रूप में प्राप्त किया, भगवान से उनका कभी वियोग नहीं हुआ और उनके घर में स्थिर लक्ष्मी का वास हुआ ।

—कार्तिक मास में दीपदान से जन्म-जन्मान्तर के पाप नष्ट हो जाते हैं ।

—जो मनुष्य कार्तिक मास में दीपदान करने में असमर्थ हों, वे दूसरों के बुझे हुए दीप जलाकर अथवा हवा आदि से दूसरों के द्वारा जलाए गए दीपों की रक्षा कर वही पुण्य प्राप्त कर सकते हैं ।

तीन दिवसीय दीपोत्सव मनाने का कारण?

कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या—इन तीन दिनों तक दीपोत्सव मनाया जाता है ।

वामनावतार में भगवान विष्णु ने सारी पृथ्वी तीन पग में नाप ली । राजा बलि के दान से प्रसन्न होकर भगवान वामन ने बलि से वर मांगने को कहा । तब राजा बलि ने प्रार्थना की कि कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से लेकर अमावस्या—इन तीन दिनों तक प्रतिवर्ष पृथ्वी पर मेरा राज्य रहे । उस समय जो मनुष्य यमराज के लिए दीपदान करे तो उसे कभी यम की यातना न सहनी पड़े साथ ही इन तीन दिनों तक दीपावली मनाने वाले का घर लक्ष्मीजी कभी न छोड़ें । भगवान ने वर देते हुए कहा—‘जो मनुष्य इन तीन दिनों में दीपोत्सव करेगा, उसे छोड़कर मेरी प्रिया लक्ष्मी कहीं नहीं जाएंगी ।’

कार्तिक मास में तीन दिवसीय दीपोत्सव में दीपदान की विधि?????

कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी,धनतेरस!!!!!!!

कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी धनतेरस को सायंकाल मिट्टी के दीपक में नई रूई की बत्ती बनाकर तिल से तेल से भर दें और खील से पूज कर दक्षिण दिशा की ओर मुख करके अपने द्वार पर दीप और नैवेद्य दान करें, इससे यमराज प्रसन्न होते हैं और अकालमृत्यु और अपमृत्यु का नाश होता है । दीप दान का मन्त्र है—

मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालेन च मया सह ।
त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यज: प्रीयतामिति ।।

अर्थात्—त्रयोदशी को दीपदान करने से मृत्यु, पाश, दण्ड, काल और लक्ष्मी के साथ यम प्रसन्न हों ।

नरक चतुर्दशी!!!!!!!!

इस दिन तेल में लक्ष्मी व जल में गंगा निवास करती हैं । अत: माना जाता है कि प्रात:काल स्नान करने से मनुष्य यमलोक का मुंह नहीं देखता । इस दिन प्रदोष के समय तिल के तेल से भरे हुए चौदह दीपकों की पूजा करके उन्हें जला लें और ‘यममार्गान्धकार निवारणार्थे चतुर्दश दीपानां दानं करिष्ये’ अर्थात् ‘यममार्ग के अंधकार को दूर करने के लिए मैं ये चौदह दीपक दान करता हूँ’—यह संकल्प करके ये दीपक ब्रह्मा, विष्णु, महेश के मन्दिर, बाग-बगीचों, तालाब के किनारे, गली, घुड़शाला और सूनी जगहों आदि पर रख दें । इस दीपदान से यमराज प्रसन्न होते हैं ।

इस दिन चार बत्तियों के दीपक को जलाकर पूर्व की ओर मुख करके दान करने से मनुष्य की सद्गति होती है, नरक नहीं मिलता है ।

दीपकों की पंक्ति लगा देने को  ‘दीपावली’ और जगह-जगह दीपकों को गोलाकार आकृति में सजा देने को ‘दीपमालिका’ कहते हैं । दीपावली सजा कर इस तरह प्रार्थना करें—

‘दीपक की ज्योति में विराजमान महालक्ष्मी ! तुम ज्योतिर्मयी हो । सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, सोना, और तारा आदि सभी ज्योतियों की ज्योति हो; तुम्हें नमस्कार है । आप मेरे लिए वरदायिनी हों ।’

कार्तिके मास्यमावास्या तस्यां दीपप्रदीपनम् ।
शालायां ब्राह्मण: कुर्यान् स गच्छेत् परमं पदम् ।।

अर्थात्—कार्तिक की अमावस्या को दीपावली और दीपमालिका सजाने से लक्ष्मीजी प्रसन्न होकर उसके घर में स्थायी रूप से निवास करती हैं और वह मृत्युपर्यन्त परम पद प्राप्त करता है ।

इस दिन लक्ष्मी-पूजन करते समय एक थाली में तेरह या छब्बीस तेल के दीपकों के बीच में चौमुखा दीपक रखकर दीपमालिका का पूजन करें फिर उन्हें प्रज्ज्वलित करके घर में विभिन्न स्थानों पर रख दिया जाता है ।  चौमुखा दीपक रात भर जलाना चाहिए । इसके अतिरिक्त चौराहे पर, श्मशाम में, गोशाला में, नदी किनारे, वृक्षों की जड़ों में, चबूतरों पर और प्रत्येक घर में दीपक जलाकर रखना चाहिए ।

देवप्रबोधनी एकादशी!!!!!

इस दिन भगवान विष्णु के आगे कपूर का दीपक जलाने से मनुष्य के कुल में जन्मे सभी व्यक्ति विष्णुभक्त होते हैं और मोक्ष प्राप्त करते हैं ।

कार्तिक पूर्णिमा की संध्या को मत्स्यावतार हुआ था । इस दिन सायंकाल में यह मन्त्र बोलते हुए दीपदान करें—

‘कीटा: पतंगा मशकाश्च वृक्षे जले स्थले ये विचरन्ति जीवा: ।
दृष्ट्वा प्रदीपं न हि जन्मभागिनस्ते मुक्तरूपा हि भवन्ति तत्र ।।

यह कहकर दीपदान करने से मनुष्य का पुनर्जन्म नहीं होता है।

शनिवार, 12 अक्टूबर 2019

शरद पूर्णिमा के दिन क्या करें

शरद पूर्णिमा पर क्या करें और क्या नहीं, इस रात खीर बनाने एवं पाने की भी है प्रमुख विधि!!!!!!

 दशहरे से शरद पूर्णिमा तक चन्द्रमा की चांदनी में विशेष हितकारी किरणें होती हैं। इनमें विशेष रस होते हैं। इन दिनों में चन्द्रमा की चांदनी का लाभ लेने से वर्षभर मानसिक और शारीरिक रूप से स्वास्थ्य अच्छा रहता है। प्रसन्नता और सकारात्मकता भी बनी रहती है। इस बार शरद पूर्णिमा 13 अक्टूबर रविवार को मनाई जाएगी। इस रात कुछ खास बातों का भी ध्यान रखना चाहिए। जिससे खीर को दिव्य औषधि बनाया जा सकता है और इस खीर विशेष तरह से खाने पर इसका फायदा भी मिलेगा।

शरद पूर्णिमा पर अश्विनी कुमारों के साथ यानी अश्विनी नक्षत्र में चंद्रमा पूर्ण 16 कलाओं से युक्त होता है। चंद्रमा की ऐसी स्थिति साल में 1 बार ही बनती है। वहीं ग्रंथों के अनुसार अश्विनी कुमार देवताओं के वैद्य हैं। इस रात चंद्रमा के साथ अश्विनी कुमारों को भी खीर का भोग लगाना चाहिए। चन्द्रमा की चांदनी में खीर रखना चाहिए और अश्विनी कुमारों से प्रार्थना करना चाहिए कि हमारी इन्द्रियों का बल-ओज बढ़ाएं।जो भी इन्द्रियां शिथिल हो गयी हों, उनको पुष्ट करें। ऐसी प्रार्थना करने के बाद फिर वह खीर खाना चाहिए।

शरद पूर्णिमा पर बनाई जाने वाली खीर मात्र एक व्यंजन नहीं होती है। ग्रंथों के अनुसार ये एक दिव्य औषधि होती है। इस खीर को गाय के दूध और गंगाजल के साथ ही अन्य पूर्ण सात्विक चीजों के साथ बनाना चाहिए। अगर संभव हो तो ये खीर चांदी के बर्तन में बनाएं। इसे गाय के दूध में चावल डालकर ही बनाएं। ग्रंथों में चावल को हविष्य अन्न यानी देवताओं का भोजन बताया गया है।

 महालक्ष्मी भी चावल से प्रसन्न होती हैं। इसके साथ ही केसर, गाय का घी और अन्य तरह के सूखे मेवों का उपयोग भी इस खीर में करना चाहिए। संभव हो तो इसे चंद्रमा की रोशनी में ही बनाना चाहिए।

चंद्रमा मन और जल का कारक ग्रह माना गया है। चंद्रमा की घटती और बढ़ती अवस्था से ही मानसिक और शारीरिक उतार-चढ़ाव आते हैं। अमावस्या और पूर्णिमा को चन्द्रमा के विशेष प्रभाव से समुद्र में ज्वार-भाटा आता है। जब चन्द्रमा इतने बड़े दिगम्बर समुद्र में उथल-पुथल कर विशेष कम्पायमान कर देता है तो हमारे शरीर केजलीय अंश, सप्तधातुएं और सप्त रंग पर भी चंद्रमा का विशेष सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

क्या करें और क्या नहीं????

शरद पूर्णिमा की रात में सूई में धागा पिरोने का अभ्यास करने की भी परंपरा है। इसके पीछे कारण ये है कि सूई में धागा डालने की कोशिश में चंद्रमा की ओर एकटक देखना पड़ता है। जिससे चंद्रमा की सीधी रोशनी आंखों में पड़ती है। इससे नेत्र ज्योति बढ़ती है।

शरद पूर्णिमा पर चंद्रमा को अर्घ्य देने से अस्थमा या दमा रोगियों की तकलीफ कम हो जाती है।

शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की चांदनी गर्भवती महिला की नाभि पर पड़े तो गर्भ पुष्ट होता है।

शरद पूर्णिमा की चांदनी का महत्त्व ज्यादा है, इस रात चंद्रमा की रोशनी में चांदी के बर्तन में रखी खीर का सेवन करने से हर तरह की शारीरिक परेशानियां दूर हो जाती हैं।

इन दिनों में काम वासना से बचने की कोशिश करनी चाहिए। उपवास, व्रत तथा सत्संग करने से तन तंदुरुस्त, मन प्रसन्न और बुद्धि प्रखर होती है।
शरद पूर्णिमा की रात में तामसिक भोजन और हर तरह के नशे से बचना चाहिए। चंद्रमा मन का स्वामी होता है इसलिए नशा करने से नकारात्मकता और निराशा बढ़ जाती है।

गुरुवार, 10 अक्टूबर 2019

स्वप्न फल विचार

✳स्वप्न फल विचार ✳


1- सांप दिखाई देना- धन लाभ
2- नदी देखना- सौभाग्य में वृद्धि
3- नाच-गाना देखना- अशुभ समाचार मिलने के योग
4- नीलगाय देखना- भौतिक सुखों की प्राप्ति
5- नेवला देखना- शत्रुभय से मुक्ति
6- पगड़ी देखना- मान-सम्मान में वृद्धि
7- पूजा होते हुए देखना- किसी योजना का लाभ मिलना
8- फकीर को देखना- अत्यधिक शुभ फल
9- गाय का बछड़ा देखना- कोई अच्छी घटना होना
10- वसंत ऋतु देखना- सौभाग्य में वृद्धि
11- स्वयं की बहन को देखना- परिजनों में प्रेम बढऩा
12- बिल्वपत्र देखना- धन-धान्य में वृद्धि
13- भाई को देखना- नए मित्र बनना
14- भीख मांगना- धन हानि होना
15- शहद देखना- जीवन में अनुकूलता
16- स्वयं की मृत्यु देखना- भयंकर रोग से मुक्ति
17- रुद्राक्ष देखना- शुभ समाचार मिलना
18- पैसा दिखाई- देना धन लाभ
19- स्वर्ग देखना- भौतिक सुखों में वृद्धि
20- पत्नी को देखना- दांपत्य में प्रेम बढ़ना
21- स्वस्तिक दिखाई देना- धन लाभ होना
22- हथकड़ी दिखाई देना- भविष्य में भारी संकट
23- मां सरस्वती के दर्शन- बुद्धि में वृद्धि
24- कबूतर दिखाई देना- रोग से छुटकारा
25- कोयल देखना- उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति
26- अजगर दिखाई देना- व्यापार में हानि
27- कौआ दिखाई देना- बुरी सूचना मिलना
28- छिपकली दिखाई देना- घर में चोरी होना
29- चिडिय़ा दिखाई देना- नौकरी में पदोन्नति
30- तोता दिखाई देना- सौभाग्य में वृद्धि
31- भोजन की थाली देखना- धनहानि के योग
32- इलाइची देखना- मान-सम्मान की प्राप्ति
33- खाली थाली देखना- धन प्राप्ति के योग
34- गुड़ खाते हुए देखना- अच्छा समय आने के संकेत
35- शेर दिखाई देना- शत्रुओं पर विजय
36- हाथी दिखाई देना- ऐेश्वर्य की प्राप्ति
37- कन्या को घर में आते देखना- मां लक्ष्मी की कृपा मिलना
38- सफेद बिल्ली देखना- धन की हानि
39- दूध देती भैंस देखना- उत्तम अन्न लाभ के योग
40- चोंच वाला पक्षी देखना- व्यवसाय में लाभ
41- स्वयं को दिवालिया घोषित करना- व्यवसाय चौपट होना
42- चिडिय़ा को रोते देखता- धन-संपत्ति नष्ट होना
43- चावल देखना- किसी से शत्रुता समाप्त होना
44- चांदी देखना- धन लाभ होना
45- दलदल देखना- चिंताएं बढऩा
46- कैंची देखना- घर में कलह होना
47- सुपारी देखना- रोग से मुक्ति
48- लाठी देखना- यश बढऩा
49- खाली बैलगाड़ी देखना- नुकसान होना
50- खेत में पके गेहूं देखना- धन लाभ होना
51- किसी रिश्तेदार को देखना- उत्तम समय की शुरुआत
52- तारामंडल देखना- सौभाग्य की वृद्धि
53- ताश देखना- समस्या में वृद्धि
54- तीर दिखाई- देना लक्ष्य की ओर बढऩा
55- सूखी घास देखना- जीवन में समस्या
56- भगवान शिव को देखना- विपत्तियों का नाश
57- त्रिशूल देखना- शत्रुओं से मुक्ति
58- दंपत्ति को देखना- दांपत्य जीवन में अनुकूलता
59- शत्रु देखना- उत्तम धनलाभ
60- दूध देखना- आर्थिक उन्नति
61- धनवान व्यक्ति देखना- धन प्राप्ति के योग
62- दियासलाई जलाना- धन की प्राप्ति
63- सूखा जंगल देखना- परेशानी होना
64- मुर्दा देखना- बीमारी दूर होना
65- आभूषण देखना- कोई कार्य पूर्ण होना
66- जामुन खाना- कोई समस्या दूर होना
67- जुआ खेलना- व्यापार में लाभ
68- धन उधार देना- अत्यधिक धन की प्राप्ति
69- चंद्रमा देखना- सम्मान मिलना
70- चील देखना- शत्रुओं से हानि
71- फल-फूल खाना- धन लाभ होना
72- सोना मिलना- धन हानि होना
73- शरीर का कोई अंग कटा हुआ देखना- किसी परिजन की मृत्यु के योग
74- कौआ देखना- किसी की मृत्यु का समाचार मिलना
75- धुआं देखना- व्यापार में हानि
76- चश्मा लगाना- ज्ञान में बढ़ोत्तरी
77- भूकंप देखना- संतान को कष्ट
78- रोटी खाना- धन लाभ और राजयोग
79- पेड़ से गिरता हुआ देखना किसी रोग से मृत्यु होना
80- श्मशान में शराब पीना- शीघ्र मृत्यु होना
81- रुई देखना- निरोग होने के योग
82- कुत्ता देखना- पुराने मित्र से मिलन
83- सफेद फूल देखना- किसी समस्या से छुटकारा
84- उल्लू देखना- धन हानि होना
85- सफेद सांप काटना- धन प्राप्ति
86- लाल फूल देखना- भाग्य चमकना
87- नदी का पानी पीना- सरकार से लाभ
88- धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाना- यश में वृद्धि व पदोन्नति
89- कोयला देखना- व्यर्थ विवाद में फंसना
90- जमीन पर बिस्तर लगाना- दीर्घायु और सुख में वृद्धि
91- घर बनाना- प्रसिद्धि मिलना
92- घोड़ा देखना- संकट दूर होना
93- घास का मैदान देखना- धन लाभ के योग
94- दीवार में कील ठोकना- किसी बुजुर्ग व्यक्ति से लाभ
95- दीवार देखना- सम्मान बढऩा
96- बाजार देखना- दरिद्रता दूर होना
97- मृत व्यक्ति को पुकारना- विपत्ति एवं दुख मिलना
98- मृत व्यक्ति से बात करना- मनचाही इच्छा पूरी होना
99- मोती देखना- पुत्री प्राप्ति
100- लोमड़ी देखना- किसी घनिष्ट व्यक्ति से धोखा मिलना
101- गुरु दिखाई देना- सफलता मिलना
102- गोबर देखना- पशुओं के व्यापार में लाभ
103- देवी के दर्शन करना- रोग से मुक्ति
104- चाबुक दिखाई देना- झगड़ा होना
105- चुनरी दिखाई देना- सौभाग्य की प्राप्ति
106- छुरी दिखना- संकट से मुक्ति
107- बालक दिखाई देना- संतान की वृद्धि
108- बाढ़ देखना- व्यापार में हानि
109- जाल देखना- मुकद्में में हानि
110- जेब काटना- व्यापार में घाटा
111- चेक लिखकर देना- विरासत में धन मिलना
112- कुएं में पानी देखना- धन लाभ
113- आकाश देखना- पुत्र प्राप्ति
114- अस्त्र-शस्त्र देखना- मुकद्में में हार
115- इंद्रधनुष देखना- उत्तम स्वास्थ्य
116- कब्रिस्तान देखना- समाज में प्रतिष्ठा
117- कमल का फूल देखना- रोग से छुटकारा
118- सुंदर स्त्री देखना- प्रेम में सफलता
119- चूड़ी देखना- सौभाग्य में वृद्धि
120- कुआं देखना- सम्मान बढऩा
121- अनार देखना- धन प्राप्ति के योग
122- गड़ा धन दिखाना- अचानक धन लाभ
123- सूखा अन्न खाना- परेशानी बढऩा
124- अर्थी देखना- बीमारी से छुटकारा
125- झरना देखना- दु:खों का अंत होना
126- बिजली गिरना- संकट में फंसना
127- चादर देखना- बदनामी के योग
128- जलता हुआ दीया देखना- आयु में वृद्धि
129- धूप देखना- पदोन्नति और धनलाभ
130- रत्न देखना- व्यय एवं दु:ख 131- चंदन देखना- शुभ समाचार मिलना
132- जटाधारी साधु देखना- अच्छे समय की शुरुआत
133- स्वयं की मां को देखना- सम्मान की प्राप्ति
134- फूलमाला दिखाई देना- निंदा होना
135- जुगनू देखना- बुरे समय की शुरुआत
136- टिड्डी दल देखना- व्यापार में हानि
137- डाकघर देखना- व्यापार में उन्नति
138- डॉक्टर को देखना- स्वास्थ्य संबंधी समस्या
139- ढोल दिखाई देना- किसी दुर्घटना की आशंका
140- मंदिर देखना- धार्मिक कार्य में सहयोग करना
141- तपस्वी दिखाई- देना दान करना
142- तर्पण करते हुए देखना- परिवार में किसी बुर्जुग की मृत्यु
143- डाकिया देखना- दूर के रिश्तेदार से मिलना
144- तमाचा मारना- शत्रु पर विजय
145- उत्सव मनाते हुए देखना- शोक होना
146- दवात दिखाई देना- धन आगमन
147- नक्शा देखना- किसी योजना में सफलता
148- नमक देखना- स्वास्थ्य में लाभ
149- कोर्ट-कचहरी देखना- विवाद में पडऩा
150- पगडंडी देखना- समस्याओं का निराकरण
151- सीना या आंख खुजाना- धन लाभ
अस्त्र देखना – संकट से रक्षा
अंगारों पर चलना – शारीरिक कष्ट
अंक देखना सम – अशुभ
अंक देखना विषम – शुभ
अस्त्र से स्वयं को कटा देखना – शीघ्र कष्ट मिले
अपने दांत गिरते देखना – बंधू बांधव को कष्ट हो
आंसू देखना – परिवार में मंगल कार्य हो
आवाज सुनना – अछा समय आने वाला है
आंधी देखना – संकट से छुटकारा
आंधी में गिरना – सफलता मिलेगी
 अंग कटे देखना – स्वास्थ्य लाभ
अंग दान करना – उज्जवल भविष्य , पुरस्कार
अंगुली काटना – परिवार में कलेश
अंगूठा चूसना – पारवारिक सम्पति में विवाद
अन्तेस्ति देखना – परिवार में मांगलिक कार्य
अस्थि देखना – संकट टलना
अंजन देखना – नेत्र रोग
अपने आप को अकेला देखना – लम्बी यात्रा
अख़बार पढ़ना, खरीदना – वाद विवाद
अचार खाना , बनाना – सिर दर्द, पेट दर्द
अट्हास करना – दुखद समाचार मिले
अध्यक्ष बनना – मान हानि
अध्यन करना -असफलता मिले
अदरक खाना – मान सम्मान बढे
अनार के पत्ते खाना – शादी शीघ्र हो
अमलतास के फूल – पीलिया या कोढ़ का रोग होना
अरहर देखना – शुभ
अरहर खाना – पेट में दर्द
अरबी देखना – सर दर्द या पेट दर्द
अलमारी बंद देखना – धन प्राप्ति हो
अलमारी खुली देखना – धन हानि हो
अंगूर खाना – स्वस्थ्य लाभ
अंग रक्षक देखना – चोट लगने का खतरा
अपने को आकाश में उड़ते देखना – सफलता प्राप्त हो
अपने पर दूसरौ का हमला देखना – लम्बी उम्र
अब देखें कि अलग-२ पदार्थ देखने का क्या अर्थ होता है :
अखरोट देखना – भरपुर भोजन मिले तथा धन वृद्धि हो
अनाज देखना -चिंता मिले
अनार खाना (मीठा ) – धन मिले
अजनबी मिलना – अनिष्ट की पूर्व सूचना
अजवैन खाना – स्वस्थ्य लाभ
अध्यापक देखना – सफलता मिले
अँधेरा देखना – विपत्ति आये
अँधा देखना – कार्य में रूकावट आये
अप्सरा देखना – धन और मान सम्मान की प्राप्ति
अर्थी देखना – धन लाभ हो
अमरुद खाना – धन मिले
अनानास खाना – पहले परेशानी फिर राहत मिले
 स्वप्न फल
१.यदि रोगी सिर मुंडाएं ,लाल या काले वस्त्र धारण किए किसी स्त्री या पुरूश को सपने में देखता है या अंग भंग व्यक्ति को देखता है तो रोगी की दशा अच्छी नही है ।
२. यदि रोगी सपने मे किसी ऊँचे स्थान से गिरे या पानी में डूबे या गिर जाए तो समझे कि रोगी का रोग अभी और बड़ सकता है।
३. यदि सपने में ऊठ,शेर या किसी जंगली जानवर की सवारी करे या उस से भयभीत हो तो समझे कि रोगी अभी किसी और रोग से भी ग्र्स्त हो सकता है।
४. यदि रोगी सपने मे किसी ब्राह्मण,देवता राजा गाय,याचक या मित्र को देखे तो समझे कि रोगी जल्दी ही ठीक हो जाएगा ।
५.यदि कोई सपने मे उड़ता है तो इस का अभिप्राय यह लगाया जाता है कि रोगी या सपना देखने वाला चिन्ताओं से मुक्त हो गया है ।
६.यदि सपने मे कोई मास या अपनी प्राकृति के विरूध भोजन करता है तो ऐसा निरोगी व्यक्ति भी रोगी हो सकता है ।
७,यदि कोई सपने में साँप देखता है तो ऐसा व्यक्ति आने वाले समय मे परेशानी में पड़ सकता है ।या फिर मनौती आदि के पूरा ना करने पर ऐसे सपनें आ सकते हैं।

बुधवार, 9 अक्टूबर 2019

भगवान के आठ अवतार

पुराणों के अनुसार हर युग में असुरी शक्ति को खत्म करने के लिए उन्होंने 8 अवतार लिए थे।

गणेश जी ने अधर्म का नाश करने के लिए हर युग में समय-समय पर अवतार लिए। इन्हीं अवतारों के अनुसार उनकी पूजा होती है। पुराणों के अनुसार हर युग में असुरी शक्ति को खत्म करने के लिए उन्होंने विकट, महोदर, विघ्नेश्वर जैसे आठ अलग-अलग नामों के अवतार लिए हैं। ये आठ अवतार मनुष्य के आठ तरह के दोष दूर करते हैं। इन आठ दोषों का नाम काम, क्रोध, मद, लोभ, ईर्ष्या, मोह, अहंकार और अज्ञान है। गणपति जी का कौन सा अवतार किस दोष को खत्म करता है ये उनकी कथाओं में बताया गया है।

1. वक्रतुंड - श्रीगणेश ने इस रुप में राक्षस मत्सरासुर के पुत्रों को मारा था। ये राक्षस शिव भक्त था और उसने शिवजी की तपस्या करके वरदान पा लिया था कि उसे किसी से भय नहीं रहेगा। मत्सरासुर ने देवगुरु शुक्राचार्य की आज्ञा से देवताओं को प्रताडि़त करना शुरू कर दिया। उसके दो पुत्र भी थे सुंदरप्रिय और विषयप्रिय, ये दोनों भी बहुत अत्याचारी थे।

सारे देवता शिव की शरण में पहुंच गए। शिव ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे गणेश का आह्वान करें, गणपति वक्रतुंड अवतार लेकर आएंगे। देवताओं ने आराधना की और गणपति ने वक्रतुंड के रुप में मत्सरासुर के दोनों पुत्रों का संहार किया और मत्सरासुर को भी पराजित कर दिया। वही मत्सरासुर बाद में गणपति का भक्त हो गया।

2. एकदंत : - महर्षि च्यवन ने अपने तपोबल से मद नाम के राक्षस की रचना की। वह च्यवन का पुत्र कहलाया। मद ने दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य से दीक्षा ली। शुक्राचार्य ने उसे हर तरह की विद्या में निपुण बनाया। शिक्षा होने पर उसने देवताओं का विरोध शुरू कर दिया। सारे देवता उससे प्रताडि़त रहने लगे।

सारे देवताओं ने मिलकर गणपति की आराधना की। तब भगवान गणेश एकदंत रूप में प्रकट हुए। उनकी चार भुजाएं, एक दांत, बड़ा पेट और उनका सिर हाथी के समान था। उनके हाथ में पाश, परशु, अंकुश और एक खिला हुआ कमल था। एकदंत ने देवताओं को अभय वरदान दिया और मदासुर को युद्ध में पराजित किया।

3. महोदर - जब कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया तो दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने मोहासुर नाम के दैत्य को देवताओं के खिलाफ खड़ा किया। मोहासुर से मुक्ति के लिए देवताओं ने गणेश की उपासना की। तब गणेश ने महोदर अवतार लिया। महोदर यानी बड़े पेट वाले। वे मूषक पर सवार होकर मोहासुर के नगर में पहुंचे तो मोहासुर ने बिना युद्ध किये ही गणपति को अपना इष्ट बना लिया।

4. विकट - भगवान विष्णु ने जलंधर नाम के राक्षस के विनाश के लिए उसकी पत्नी वृंदा का सतीत्व भंग किया। उससे एक दैत्य उत्पन्न हुआ, उसका नाम था कामासुर। कामासुर ने शिव की आराधना करके त्रिलोक विजय का वरदान पा लिया। इसके बाद उसने अन्य दैत्यों की तरह ही देवताओं पर अत्याचार करने शुरू कर दिए।

तब सारे देवताओं ने भगवान गणेश का ध्यान किया। तब भगवान गणपति ने विकट रूप में अवतार लिया। विकट रूप में भगवान मोर पर विराजित होकर अवतरित हुए। उन्होंने देवताओं को अभय वरदान देकर कामासुर को पराजित किया।

5. गजानन - धनराज कुबेर से लोभासुर का जन्म हुआ। वह शुक्राचार्य की शरण में गया और उसने शुक्राचार्य के आदेश पर शिवजी की उपासना शुरू की। शिव लोभासुर से प्रसन्न हो गए। उन्होंने उसे निर्भय होने का वरदान दिया।

इसके बाद लोभासुर ने सारे लोकों पर कब्जा कर लिया। तब देवगुरु ने सारे देवताओं को गणेश की उपासना करने की सलाह दी। गणेश ने गजानन रूप में दर्शन दिए और देवताओं को वरदान दिया कि मैं लोभासुर को पराजित करूंगा। गणेशजी ने लोभासुर को युद्ध के लिए संदेश भेजा। शुक्राचार्य की सलाह पर लोभासुर ने बिना युद्ध किए ही अपनी पराजय स्वीकार कर ली।

6. लंबोदर - क्रोधासुर नाम के दैत्य ने ने सूर्यदेव की उपासना करके उनसे ब्रह्माण्ड विजय का वरदान ले लिया। क्रोधासुर के इस वरदान के कारण सारे देवता भयभीत हो गए।

वो युद्ध करने निकल पड़ा। तब गणपति ने लंबोदर रूप धरकर उसे रोक लिया। क्रोधासुर को समझाया और उसे ये आभास दिलाया कि वो संसार में कभी अजेय योद्धा नहीं हो सकता। क्रोधासुर ने अपना विजयी अभियान रोक दिया और सब छोड़कर पाताल लोक में चला गया।

7. विघ्नराज - एक बार पार्वती अपनी सखियों के साथ बातचीत के दौरान जोर से हंस पड़ीं। उनकी हंसी से एक विशाल पुरुष की उत्पत्ति हुई। पार्वती ने उसका नाम मम (ममता) रख दिया। वह माता पार्वती से मिलने के बाद वन में तप के लिए चला गया। वहीं वो शंबरासुर से मिला। शम्बरासुर ने उसे कई आसुरी शक्तियां सीखा दीं। उसने मम को गणेश की उपासना करने को कहा। मम ने गणपति को प्रसन्न कर ब्रह्माण्ड का राज मांग लिया।

शम्बर ने उसका विवाह अपनी पुत्री मोहिनी के साथ कर दिया। शुक्राचार्य ने मम के तप के बारे में सुना तो उसे दैत्यराज के पद पर विभूषित कर दिया। ममासुर ने भी अत्याचार शुरू कर दिए और सारे देवताओं को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया। तब देवताओं ने गणेश की उपासना की। गणेश विघ्नेश्वर के रूप में अवतरित हुए। उन्होंने ममासुर का मान मर्दन कर देवताओं को छुड़वाया।

8. धूम्रवर्ण - एक बार सूर्यदेव को छींक आ गई और उनकी छींक से एक दैत्य की उत्पत्ति हुई। उसका नाम था अहम। वो शुक्राचार्य के समीप गया और उन्हें गुरु बना लिया। वह अहम से अहंतासुर हो गया। उसने खुद का एक राज्य बसा लिया और भगवान गणेश को तप से प्रसन्न करके वरदान प्राप्त कर लिए।

उसने भी बहुत अत्याचार और अनाचार फैलाया। तब गणेश ने धूम्रवर्ण के रूप में अवतार लिया। उनका रंग धुंए जैसा था। वे विकराल थे। उनके हाथ में भीषण पाश था जिससे बहुत ज्वालाएं निकलती थीं। धूम्रवर्ण के रुप में गणेश जी ने अहंतासुर को हरा दिया। उसे युद्ध में हराकर अपनी भक्ति प्रदान की।

मंगलवार, 8 अक्टूबर 2019

समस्त पापनाशक स्तोत्र

समस्त पापनाशक स्तोत्र
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भगवान वेदव्यास द्वारा रचित अठारह पुराणों में से एक ‘अग्नि पुराण’ में अग्निदेव द्वारा महर्षि वशिष्ठ को दिये गये विभिन्न उपदेश हैं।
इसी के अंतर्गत इस पापनाशक स्तोत्र के बारे में महात्मा पुष्कर कहते हैं कि मनुष्य चित्त की मलिनतावश चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन आदि विभिन्न पाप करता है, पर जब चित्त कुछ शुद्ध होता है तब उसे इन पापों से मुक्ति की इच्छा होती है। उस समय भगवान नारायण की दिव्य स्तुति करने से समस्त पापों का प्रायश्चित पूर्ण होता है। इसीलिए इस दिव्य स्तोत्र का नाम *'समस्त पापनाशक स्तोत्र’* है।

 निम्निलिखित प्रकार से भगवान नारायण की स्तुति करें-

पुष्करोवाच विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे नमः। नमामि विष्णुं चित्तस्थमहंकारगतिं हरिम्।। चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम्। विष्णुमीड्यमशेषेण अनादिनिधनं विभुम्।। विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत्। यच्चाहंकारगो विष्णुर्यद्वष्णुर्मयि संस्थितः।। करोति कर्मभूतोऽसौ स्थावरस्य चरस्य च। तत् पापं नाशमायातु तस्मिन्नेव हि चिन्तिते।। ध्यातो हरति यत् पापं स्वप्ने दृष्टस्तु भावनात्। तमुपेन्द्रमहं विष्णुं प्रणतार्तिहरं हरिम्।। जगत्यस्मिन्निराधारे मज्जमाने तमस्यधः। हस्तावलम्बनं विष्णु प्रणमामि परात्परम्।। सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज। हृषीकेश हृषीकेश हृषीकेश नमोऽस्तु ते।। नृसिंहानन्त गोविन्द भूतभावन केशव। दुरूक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाघं नमोऽस्तु ते।। यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना। अकार्यं महदत्युग्रं तच्छमं नय केशव।। बह्मण्यदेव गोविन्द परमार्थपरायण। जगन्नाथ जगद्धातः पापं प्रशमयाच्युत।। यथापराह्ने सायाह्ने मध्याह्ने च तथा निशि। कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता।। जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव। नामत्रयोच्चारणतः पापं यातु मम क्षयम्।। शरीरं में हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव। पापं प्रशमयाद्य त्वं वाक्कृतं मम माधव।। यद् भुंजन् यत् स्वपंस्तिष्ठन् गच्छन् जाग्रद यदास्थितः। कृतवान् पापमद्याहं कायेन मनसा गिरा।। यत् स्वल्पमपि यत् स्थूलं कुयोनिनरकावहम्। तद् यातु प्रशमं सर्वं वासुदेवानुकीर्तनात्।। परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं च यत्। तस्मिन् प्रकीर्तिते विष्णौ यत् पापं तत् प्रणश्यतु।। यत् प्राप्य न निवर्तन्ते गन्धस्पर्शादिवर्जितम्। सूरयस्तत् पदं विष्णोस्तत् सर्वं शमयत्वघम्।। (अग्नि पुराणः 172.2-98) माहात्म्यम् – पापप्रणाशनं स्तोत्रं यः पठेच्छृणुयादपि। शारीरैर्मानसैर्वाग्जैः कृतैः पापैः प्रमुच्यते।। सर्वपापग्रहादिभ्यो याति विष्णोः परं पदम्। तस्मात् पापे कृते जप्यं स्तोत्रं सर्वाघमर्दनम्।। प्रायश्चित्तमघौघानां स्तोत्रं व्रतकृते वरम्। प्रायश्चित्तैः स्तोत्रजपैर्व्रतैर्नश्यति पातकम्।। (अग्नि पुराणः 172.17-29) अर्थः पुष्कर बोलेः “सर्वव्यापी विष्णु को सदा नमस्कार है। श्री हरि विष्णु को नमस्कार है। मैं अपने चित्त में स्थित सर्वव्यापी, अहंकारशून्य श्रीहरि को नमस्कार करता हूँ। मैं अपने मानस में विराजमान अव्यक्त, अनन्त और अपराजित परमेश्वर को नमस्कार करता हूँ। सबके पूजनीय, जन्म और मरण से रहित, प्रभावशाली श्रीविष्णु को नमस्कार है। विष्णु मेरे चित्त में निवास करते हैं, विष्णु मेरी बुद्धि में विराजमान हैं, विष्णु मेरे अहंकार में प्रतिष्ठित हैं और विष्णु मुझमें भी स्थित हैं। वे श्री विष्णु ही चराचर प्राणियों के कर्मों के रूप में स्थित हैं, उनके चिंतन से मेरे पाप का विनाश हो। जो ध्यान करने पर पापों का हरण करते हैं और भावना करने से स्वप्न में दर्शन देते हैं, इन्द्र के अनुज, शरणागतजनों का दुःख दूर करने वाले उन पापापहारी श्रीविष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ। मैं इस निराधार जगत में अज्ञानांधकार में डूबते हुए को हाथ का सहारा देने वाले परात्परस्वरूप श्रीविष्णु के सम्मुख नतमस्तक होता हूँ। सर्वेश्वरेश्वर प्रभो ! कमलनयन परमात्मन् ! हृषीकेश ! आपको नमस्कार है। इन्द्रियों के स्वामी श्रीविष्णो ! आपको नमस्कार है। नृसिंह ! अनन्तस्वरूप गोविन्द ! समस्त भूत-प्राणियों की सृष्टि करने वाले केशव ! मेरे द्वारा जो दुर्वचन कहा गया हो अथवा पापपूर्ण चिंतन किया गया हो, मेरे उस पाप का प्रशमन कीजिये, आपको नमस्कार है। केशव ! अपने मन के वश में होकर मैंने जो न करने योग्य अत्यंत उग्र पापपूर्ण चिंतन किया है, उसे शांत कीजिये। परमार्थपरायण, ब्राह्मणप्रिय गोविन्द ! अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले जगन्नाथ ! जगत का भरण-पोषण करने वाले देवेश्वर ! मेरे पाप का विनाश कीजिये। मैंने मध्याह्न, अपराह्न, सायंकाल एवं रात्रि के समय जानते हुए अथवा अनजाने, शरीर, मन एवं वाणी के द्वारा जो पाप किया हो, ‘पुण्डरीकाक्ष’, ‘हृषीकेश’, ‘माधव’ – आपके इन तीन नामों के उच्चारण से मेरे वे सब पाप क्षीण हो जायें। कमलनयन ! लक्ष्मीपते ! इन्द्रियों के स्वामी माधव ! आज आप मेरे शरीर एवं वाणी द्वारा किये हुए पापों का हनन कीजिये। आज मैंने खाते, सोते, खड़े, चलते अथवा जागते हुए मन, वाणी और शरीर से जो भी नीच योनि एवं नरक की प्राप्ति कराने वाले सूक्ष्म अथवा स्थूल पाप किये हों, भगवान वासुदेव के नामोच्चारण से वे सब विनष्ट हो जायें। जो परब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, उन श्रीविष्णु के संकीर्तन से मेरे पाप लुप्त हो जायें। जिसको प्राप्त होकर ज्ञानीजन पुनः लौटकर नहीं आते, जो गंध, स्पर्श आदि तन्मात्राओं से रहित है, श्रीविष्णु का वह परम पद मेरे सम्पूर्ण पापों का शमन करे।” माहात्म्यः जो मनुष्य पापों का विनाश करने वाले इस स्तोत्र का पठन अथवा श्रवण करता है, वह शरीर, मन और वाणीजनित समस्त पापों से छूट जाता है एवं समस्त पापग्रहों से मुक्त होकर श्रीविष्णु के परम पद को प्राप्त होता है। इसलिए किसी भी पाप के हो जाने पर इस स्तोत्र का जप करें। यह स्तोत्र पापसमूहों के प्रायश्चित के समान है। कृच्छ्र आदि व्रत करने वाले के लिए भी यह श्रेष्ठ है। स्तोत्र-जप और व्रतरूप प्रायश्चित से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिए भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए इनका अनुष्ठान करना चाहिए।
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कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...