अनेकों जन्मों के पुण्यकर्मों से जीव मनुष्य शरीर प्राप्त करता है।
माता-पिता द्वारा खाये हुए अन्न से शुक्र-शोणित बनता है , माता के पेट में मिलकर रज की अधिकता से स्त्री , शुक्र की अधिकता से पुरुष होता है , यदि दोनों का तेज समान हो तो नपुंसक होता है ।
ऋतुस्नाता पत्नी के ४ दिन बाद ५वें दिन से लेकर १६ दिन तक ऋतुकाल होता है ।
विषम रात्रियों में ५, ७, ९, ११, १३, १५ रात्रियों में भोग से कन्या तथा सम रात्रियों में ६ , ८, १०, १२, १४, १६ इनमें बालक का जन्म होता है ।
विषम रात्रियों में यदि पति का शुक्र अधिक है तो होता तो बालक है , किन्तु आकार बालिका की तरह तथा सम रात्रियों के संयोग में स्त्री की रज की अधिकता में कन्या होती है , किन्तु उसका रूप पुत्र जैसा होता है ।
लिङ्गपुराण में कहा है -----
"चतुर्थ्यां रात्रौ विद्याहीनं व्रतभ्रष्टम् पतितं परदारिकम् दरिद्रार्णव मग्नं च तनयं सा प्रसूयते ।
पञ्चम्यामुत्तमांकन्यां षष्ठ्यां सत्पुत्रं सप्तम्यां कन्यां अष्टम्यां सम्पन्नं पुत्रम् ।।
त्रयोदश्यां व्यभिचारिणी कन्या चतुर्दश्यां सत्पुत्रं पंचदश्यां धर्मज्ञा कन्यां षोडश्यां ज्ञानं पारंगपुत्रं प्रसूयते ।।"
अर्थात् == चौथी रात्रि में विद्यारहित , व्रतभ्रष्ट , परस्त्री-गामी , निर्धनता के सागर में डूबे हुए पुत्र को जन्म देती है , पांचवीं रात्रि में उत्तमा कन्या , षष्ठी में सत्पुत्र , सातवीं में कन्या , आठवीं में धनवान् पुत्र , तेहरवीं में व्यभिचारिणी कन्या , चौदवीं में सत्पुत्र , पन्द्रहवीं में धर्माज्ञा कन्या , सोहलवीं में ज्ञानी पुत्र या चक्रवर्ती सम्राट को जन्म देती है ।"
ऋतुस्नाता पत्नी इच्छापूर्वक जिसका मुख देखती है , उसी रूप की सन्तान होती है , अतः अपने पति का ही मुख देखना चाहिए ।
शास्त्र-वचनों से सिद्ध है कि पहली चार रात्रि में पति स्त्री का दर्शन , स्पर्श तथा सम्भाषण भी न करे , यदि पति उस समय पत्नी द्वारा बनाये भोजनादि करता है तो उस समय उसके हाथ का भोजन लाखों रोगों को जन्म देता है ।
पराशर स्मृति में यहां तक आया है कि रजस्वला ब्राह्मणी-- ब्राह्मणी को अथवा क्षत्राणी -- क्षत्राणी को, वैश्या -- वैश्यों को , शूद्रा -- शूद्रा को तथा अपनी विजातीय अथवा अपने से उच्च या नीच जाति के स्त्री का भी स्पर्श न करें ।
यदि करती है तो ब्राह्मणी चौगुणा , क्षत्राणी त्रिगुणा , वैश्या दुगुणा शूद्रा स्त्री की अपेक्षा प्रायश्चित करें ।
पांचवीं से लेकर सोहलवीं रात्रियों के बीच भी यदि कोई पर्व आ जाये , तो स्त्री-संसर्ग नहीं करना चाहिए ।
पर्वों में पूर्णिमा , अमावस्या , संक्रान्ति , दोनों पक्षों की अष्टमी-एकादशी तथा कोई विशेष वार्षिक पर्व और श्राद्ध के दिन भी संयम वर्तना चाहिए ।
प्रथम गर्भाधान संस्कार शास्त्र-विधि से करे , दोनों को मल-मूत्र के वेग में या अन्य रुग्ण अवस्था में नहीं करना चाहिए , दिन में भूलकर भी न करे , क्योंकि दिन में स्त्री-संग से प्राण-शक्ति का ह्रास होता है ।
अधिक शीतोष्ण में न करे , दोनों का शरीर , मन जब स्वस्थ न हो तब भी न करे तथा अच्छे पुत्र की इच्छा वाला दम्पति चौथी-तेहरवीं रात्रि में स्त्री-संग न करे ।
यहां यह बात विचारने योग्य है कि यदि सद्गृहस्थ दम्पति श्रुति- स्मृति- पुराण आदिकों की आज्ञाओं में चले , तो उनके द्वारा संयम का पालन करने से स्वयमेव ही परिवार-नियोजन हो जाता है ।
शुद्ध खान-पान रखने से , गन्दे दृश्यों को न देखने-सुनने से तथा कुसंगतियों का संग त्यागने से एवं भगवत्-भक्त , धर्मात्मा , दानशील , शूरवीर , विद्वान् , तथा सदाचारियों के संग से माता-पिता जैसा चाहें वैसे उत्तम से उत्तम सन्तान उत्पन्न कर सकते हैं ।
इसके विपरीत चलने से माता-पिता - परिवार - समाज - देश को दुःख देने वाली सन्तान उत्पन्न होगी , अतः नवयुवक दम्पतियों को चाहिए कि इन शास्त्रीय बातों को पढ़कर शास्त्राज्ञानुसार योग्य सन्तान उत्पन्न करके सबको सुखी करें तथा आप भी सुखी रहें ।
सरकार को चाहिए कि पक्षपात का त्याग करके ऐसे आदर्श शिक्षा का प्रचार-प्रसार करें , जिससे देश - समाज - जनता स्वयं ऊपर उठे ।
परन्तु वर्तमान काल में परिवार को नियोजित करने के लिए जिस शिक्षा का प्रचार देश में हो रहा है , वह देश - समाज - धर्म सबके अहित में है ।
वर्तमान में घोर चरित्र का हनन हो रहा है , सरकार ने भी अब तो चरित्रहीनता को मान्यता दे दी है , जिससे व्यभिचार की वृद्धि होगी , वर्णसंकर सन्तान उत्पन्न होंगें , उसके हाथ का दिया हुआ पिण्डदान - श्राद्ध - तर्पण पितरों को नहीं मिलता ।
देवता तथा ऋषि भी उसकी वस्तु को ग्रहण नहीं करते , अतः श्रद्धालु भक्तों को सरकार के इन गलत नीतियों का विरोध करना चाहिए ।
ब्रह्मचर्य आदि को प्रोत्साहन दें , तभी हमारे देश -धर्म - समाज का उत्थान होगा , अन्यथा घोर पतन होता जाएगा ।
माता-पिता द्वारा खाये हुए अन्न से शुक्र-शोणित बनता है , माता के पेट में मिलकर रज की अधिकता से स्त्री , शुक्र की अधिकता से पुरुष होता है , यदि दोनों का तेज समान हो तो नपुंसक होता है ।
ऋतुस्नाता पत्नी के ४ दिन बाद ५वें दिन से लेकर १६ दिन तक ऋतुकाल होता है ।
विषम रात्रियों में ५, ७, ९, ११, १३, १५ रात्रियों में भोग से कन्या तथा सम रात्रियों में ६ , ८, १०, १२, १४, १६ इनमें बालक का जन्म होता है ।
विषम रात्रियों में यदि पति का शुक्र अधिक है तो होता तो बालक है , किन्तु आकार बालिका की तरह तथा सम रात्रियों के संयोग में स्त्री की रज की अधिकता में कन्या होती है , किन्तु उसका रूप पुत्र जैसा होता है ।
लिङ्गपुराण में कहा है -----
"चतुर्थ्यां रात्रौ विद्याहीनं व्रतभ्रष्टम् पतितं परदारिकम् दरिद्रार्णव मग्नं च तनयं सा प्रसूयते ।
पञ्चम्यामुत्तमांकन्यां षष्ठ्यां सत्पुत्रं सप्तम्यां कन्यां अष्टम्यां सम्पन्नं पुत्रम् ।।
त्रयोदश्यां व्यभिचारिणी कन्या चतुर्दश्यां सत्पुत्रं पंचदश्यां धर्मज्ञा कन्यां षोडश्यां ज्ञानं पारंगपुत्रं प्रसूयते ।।"
अर्थात् == चौथी रात्रि में विद्यारहित , व्रतभ्रष्ट , परस्त्री-गामी , निर्धनता के सागर में डूबे हुए पुत्र को जन्म देती है , पांचवीं रात्रि में उत्तमा कन्या , षष्ठी में सत्पुत्र , सातवीं में कन्या , आठवीं में धनवान् पुत्र , तेहरवीं में व्यभिचारिणी कन्या , चौदवीं में सत्पुत्र , पन्द्रहवीं में धर्माज्ञा कन्या , सोहलवीं में ज्ञानी पुत्र या चक्रवर्ती सम्राट को जन्म देती है ।"
ऋतुस्नाता पत्नी इच्छापूर्वक जिसका मुख देखती है , उसी रूप की सन्तान होती है , अतः अपने पति का ही मुख देखना चाहिए ।
शास्त्र-वचनों से सिद्ध है कि पहली चार रात्रि में पति स्त्री का दर्शन , स्पर्श तथा सम्भाषण भी न करे , यदि पति उस समय पत्नी द्वारा बनाये भोजनादि करता है तो उस समय उसके हाथ का भोजन लाखों रोगों को जन्म देता है ।
पराशर स्मृति में यहां तक आया है कि रजस्वला ब्राह्मणी-- ब्राह्मणी को अथवा क्षत्राणी -- क्षत्राणी को, वैश्या -- वैश्यों को , शूद्रा -- शूद्रा को तथा अपनी विजातीय अथवा अपने से उच्च या नीच जाति के स्त्री का भी स्पर्श न करें ।
यदि करती है तो ब्राह्मणी चौगुणा , क्षत्राणी त्रिगुणा , वैश्या दुगुणा शूद्रा स्त्री की अपेक्षा प्रायश्चित करें ।
पांचवीं से लेकर सोहलवीं रात्रियों के बीच भी यदि कोई पर्व आ जाये , तो स्त्री-संसर्ग नहीं करना चाहिए ।
पर्वों में पूर्णिमा , अमावस्या , संक्रान्ति , दोनों पक्षों की अष्टमी-एकादशी तथा कोई विशेष वार्षिक पर्व और श्राद्ध के दिन भी संयम वर्तना चाहिए ।
प्रथम गर्भाधान संस्कार शास्त्र-विधि से करे , दोनों को मल-मूत्र के वेग में या अन्य रुग्ण अवस्था में नहीं करना चाहिए , दिन में भूलकर भी न करे , क्योंकि दिन में स्त्री-संग से प्राण-शक्ति का ह्रास होता है ।
अधिक शीतोष्ण में न करे , दोनों का शरीर , मन जब स्वस्थ न हो तब भी न करे तथा अच्छे पुत्र की इच्छा वाला दम्पति चौथी-तेहरवीं रात्रि में स्त्री-संग न करे ।
यहां यह बात विचारने योग्य है कि यदि सद्गृहस्थ दम्पति श्रुति- स्मृति- पुराण आदिकों की आज्ञाओं में चले , तो उनके द्वारा संयम का पालन करने से स्वयमेव ही परिवार-नियोजन हो जाता है ।
शुद्ध खान-पान रखने से , गन्दे दृश्यों को न देखने-सुनने से तथा कुसंगतियों का संग त्यागने से एवं भगवत्-भक्त , धर्मात्मा , दानशील , शूरवीर , विद्वान् , तथा सदाचारियों के संग से माता-पिता जैसा चाहें वैसे उत्तम से उत्तम सन्तान उत्पन्न कर सकते हैं ।
इसके विपरीत चलने से माता-पिता - परिवार - समाज - देश को दुःख देने वाली सन्तान उत्पन्न होगी , अतः नवयुवक दम्पतियों को चाहिए कि इन शास्त्रीय बातों को पढ़कर शास्त्राज्ञानुसार योग्य सन्तान उत्पन्न करके सबको सुखी करें तथा आप भी सुखी रहें ।
सरकार को चाहिए कि पक्षपात का त्याग करके ऐसे आदर्श शिक्षा का प्रचार-प्रसार करें , जिससे देश - समाज - जनता स्वयं ऊपर उठे ।
परन्तु वर्तमान काल में परिवार को नियोजित करने के लिए जिस शिक्षा का प्रचार देश में हो रहा है , वह देश - समाज - धर्म सबके अहित में है ।
वर्तमान में घोर चरित्र का हनन हो रहा है , सरकार ने भी अब तो चरित्रहीनता को मान्यता दे दी है , जिससे व्यभिचार की वृद्धि होगी , वर्णसंकर सन्तान उत्पन्न होंगें , उसके हाथ का दिया हुआ पिण्डदान - श्राद्ध - तर्पण पितरों को नहीं मिलता ।
देवता तथा ऋषि भी उसकी वस्तु को ग्रहण नहीं करते , अतः श्रद्धालु भक्तों को सरकार के इन गलत नीतियों का विरोध करना चाहिए ।
ब्रह्मचर्य आदि को प्रोत्साहन दें , तभी हमारे देश -धर्म - समाज का उत्थान होगा , अन्यथा घोर पतन होता जाएगा ।
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