मंगलवार, 30 जून 2020

ब्राह्मण से ही पूजा-पाठ क्यों कराएं ?

ब्राह्मण से ही पूजा-पाठ क्यों कराएं ?*
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उत्तर:- यम-नियम में आबद्ध ब्राह्मण- वर्ग अपनी निरंतर उपासना व त्यागवृत्ति, सात्त्विकता एवं उदारता के कारण ईश्वरतत्त्व के सर्वाधिक निकट रहते हैं। फिर धर्मशास्त्र, कर्मकांड के ज्ञाता एवं अधिकारी विद्वान होने के कारण परंपरागत मान्यता अनुसार पूजा-पाठ करने का अधिकार उन्हें ही है।

ब्राह्मण को देवता क्यों कहा गया ?

उत्तर:- दैवाधीनं जगत्सर्वं, मंत्राधीनं देवता।
 ते मंत्रा विप्रं जानंति, तस्मात् ब्राह्मणदेवताः।।

यह सारा संसार विविध देवों के अधीन है। देवता मंत्रों के अधीन हैं। उन मंत्रों के प्रयोग-उच्चारण व रहस्य को विप्र भली-भांति जानते हैं इसलिये ब्राह्मण स्वयं देवता तुल्य होते हैं।

ब्राह्मणों को लोक-व्यवहार में अधिक सम्मान क्यों ?

उत्तर:- निरंतर प्रार्थना, धर्मानुष्ठान व धर्मोपदेश कर के जिस प्रकार मौलवी मस्जिद का प्रमुख, गिरजाघर में पादरी सर्वाधिक सम्मानित होता है, उनसे भी बढ़कर ब्राह्मण का सम्मान परंपरागत लोक-व्यवहार में सदा सर्वत्र होता आया है।

यज्ञ की अग्नि में तिल-जव,इत्यादि खाद्य पदार्थ क्यों ?

उत्तर:- आज के प्रत्यक्षवादी युग के व्यक्ति हवन में घी-तिल-जव आदि की आहुतियों को अग्नि में व्यर्थ फूंक देने की जंगली प्रथा ही समझते हैं।

 प्रत्यक्षवादियों की धारणा वैसी ही भ्रमपूर्ण है जैसी कि किसान को कीमती अन्न खेत की मिट्टी में डालते हुये देखकर किसी कृषि विज्ञान से अपरिचित व्यक्ति की हो सकती है।

प्रत्यक्षवादी को किसान की चेष्टा भले ही मूर्खता पूर्ण लगती हो पर बुद्धिमान कृषक को विश्वास है, कि खेत की मिट्टी में विधिपूर्वक मिलाया हुआ उसका प्रत्येक अन्नकण शतसहस्र-गुणित होकर उसे पुनः प्राप्त होगा।

यही बात यज्ञ के संबंध में समझनी चाहिये। जिस प्रकार मिट्टी में मिला अन्न-कण शत सहस्र गुणित हो जाता है, उसी प्रकार अग्नि से मिला पदार्थ लक्ष-गुणित हो जाता है। किसान का यज्ञ पार्थिव और हमारा यज्ञ तैजस्।

कृषि दोनों है एक आधिभौतिक तो दूसरी आधिदैविक। एक का फल है- स्वल्पकालीन अनाजों के ढेर से तृप्ति तो दूसरे का फल देवताओं के प्रसाद से अनन्तकालीन तृप्ति।

यज्ञ में ‘द्रव्य’ को विधिवत अग्नि में होम कर उसे सूक्ष्म रूप में परिणित किया जाता है। अग्नि में डाली हुई वस्तु का स्थूलांश भस्म रूप में पृथ्वी पर रह जाता है।

स्थूल सूक्ष्म उभय-मिश्रित भाग धूम्र बनकर अंतरिक्ष में व्याप्त हो जाता है, जो अंततोगत्वा मेघरूप’ में परिणित होकर द्यूलोकस्थ देवगण को परितृप्त करता है।

‘स्थूल-सूक्ष्मवाद’ सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक अंश अबाध गति से अपने अंशी तक पहुंचकर ही रहता है। जल कहीं भी हो, उसका प्रवाह आखिरकार अपने उद्गम स्थल समुद्र में पहंचे बिना दम नहीं लेता।

यह वैज्ञानिक सूत्र स्वतः ही प्रमाणित करता है कि अग्नि में फूंके गये पदार्थ की सत्ता समाप्त नहीं होती।

मनुस्मृति, अध्याय 3/76 में भी एक महत्वपूर्ण सूत्र है।

*‘अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यग् आदित्यं उपष्ठिते’*

अग्नि में विधिवत डाली हुई आहुति, सूर्य में उपस्थित होती है।

श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 3, श्लोक 14-15 में भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि चक्र व यज्ञ के बारे में कहते हैं- संसार के संपूर्ण प्राणी अन्न (खाद्य पदार्थ) से उत्पन्न होते हैं।

अग्नि की उत्पत्ति वृष्टि से होती है और वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ (वेद) विहित कार्यों से उत्पन्न होने वाला है।

*उत्तम ब्राम्हण की महिमा-*

*ऊँ जन्मना ब्राम्हणो, ज्ञेय:संस्कारैर्द्विज उच्चते।*
*विद्यया याति विप्रत्वं,*
*त्रिभि:श्रोत्रिय लक्षणम्।।*

ब्राम्हण के बालक को जन्म से ही ब्राम्हण समझना चाहिए। संस्कारों से “द्विज” संज्ञा होती है तथा विद्याध्ययन से “विप्र” नाम धारण करता है।

जो वेद,मन्त्र तथा पुराणों से शुद्ध होकर तीर्थस्नानादि के कारण और भी पवित्र हो गया है, वह ब्राम्हण परम पूजनीय माना गया है।

*ऊँ पुराणकथको नित्यं,धर्माख्यानस्य सन्तति:।
अस्यैव दर्शनान्नित्यं,अश्वमेधादिजं फलम्।।

जिसके हृदय में गुरु,देवता,माता-पिता और अतिथि के प्रति भक्ति है। जो दूसरों को भी भक्तिमार्ग पर अग्रसर करता है, जो सदा पुराणों की कथा करता और धर्म का प्रचार करता है ऐसे ब्राम्हण के दर्शन से ही अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त होता है।

*पितामह भीष्म जी पुलस्त्य जी से पूछा–*
गुरुवर!मनुष्य को देवत्व, सुख, राज्य, धन, यश, विजय, भोग, आरोग्य, आयु, विद्या, लक्ष्मी, पुत्र, बन्धुवर्ग एवं सब प्रकार के मंगल की प्राप्ति कैसे हो सकती है? यह बताने की कृपा करें।

*पुलस्त्यजी ने कहा–*

राजन!इस पृथ्वी पर ब्राह्मण सदा ही विद्या आदि गुणों से युक्त और श्रीसम्पन्न होता है। तीनों लोकों और प्रत्येक युग में विप्रदेव (ब्राम्हण )नित्य पवित्र माने गये हैं।

रविवार, 28 जून 2020

शनि देव के बारे में विशेष जानकारी

राजा को भी क्षण में रंक कर देने वाले शनिदेव के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी!!!!!!

▪️शनिदेव सूर्यदेव और छाया के पुत्र हैं। सूर्य समस्त ग्रहों के राजा हैं तो उनके पुत्र युवराज शनिदेव न्यायाधीश हैं।

▪️शनिदेव का जन्म ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को हुआ था इसीलिए शनिवार को पड़ने वाली अमावस्या (शनिचरी अमावस्या) शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए बहुत शुभ मानी जाती है ।

▪️शनि का रंग काला, अवस्था वृद्ध, आकृति दीर्घ, लिंग नपुंसक है ।

▪️शनि के चार हाथों में बाण, वर, शूल और धनुष है । उनका वाहनगिद्ध है ।

▪️शनि का गोत्र कश्यप व जाति शूद्र है । 

▪️वे सौराष्ट्र के अधिपति हैं ।

▪️शनिदेव को मन्द, शनैश्चर, सूर्यसूनु, सूर्यज, अर्कपुत्र, नील, भास्करी, असित, पंगु, क्रूरलोचन, छायात्मज आदि नामों से जाना जाता है ।

▪️शनिदेव का वार शनिवार, धातु लोहा, रत्न नीलम, उपरत्नजमुनिया या लाजावर्त, जड़ी बिछुआ, बिच्छोलमूल (हत्था जोड़ी)  व समिधा शमी  है । 

▪️शनि का आधिपत्य मकर और कुम्भ राशि तथा पुष्य, अनुराधा एवं उत्तराभाद्रपद नक्षत्र पर है । 

▪️शनि वायुतत्त्व प्रधान ग्रह है ।

▪️अंकज्योतिष के अनुसार प्रत्येक महीने की 8, 17, 26 तारीख के स्वामी शनिदेव हैं ।

▪️हस्तरेखाशास्त्र के अनुसार हथेली में मध्यमा ऊंगली के नीचे का स्थान शनि का माना गया है ।

▪️शनिदेव तीस महीने (ढाई वर्ष तक) एक राशि में रहते हैं । सब राशियों को पार करने में इन्हें तीस वर्ष लग जाते हैं । अत: एक बार साढ़ेसाती आने पर व्यक्ति 30 वर्षों के बाद ही दुबारा शनिग्रह से प्रभावित होता है ।

▪️जब शनि जन्मराशि से 12, 1, 2, स्थानों में हो तो साढ़ेसाती होती है । यह साढ़े सात वर्ष तक चलती है । यह समय बहुत कष्टदायक होता है ।

▪️जब शनि जन्मराशि से चौथे या आठवें हों तो ढैया होती है, जो ढाई वर्ष चलती है । यह समय भी कष्टकारक होता है ।

▪️शनिदोष की शान्ति के लिए शनिवार को काले उदड़, तिल, तेल, नीलम, कुलथी, भैंस, लोहा, काले वस्त्र, छाता, जूता, कम्बल व दक्षिणा का दान दीन-हीन गरीब या भडरी को किया जाता है ।

▪️शनिग्रह का शरीर में प्रभाव घुटनों से पिंडली तक रहता है ।

▪️शनि के प्रभाव से शरीर में होने वाले रोग हैं—पक्षाघात, हाथ-पैरों का कांपना, मिर्गी, स्नायुरोग, गठिया, जोड़ों व घुटनों में दर्द, दांत के रोग, जांघ व पिंडलियों के रोग, कैंसर, वातरोग, टी. बी., सूजन, बार-बार ऑपरेशन होना, कृमि आदि ।

▪️महाराष्ट्र के नासिक जिले में शिरड़ी के पास शनिदेव का प्रसिद्ध मन्दिर शनि शिंगणापुर है । वहां शनिदेव की प्रतिमा का कोई आकार नहीं है; क्योंकि वह पाषाणखण्ड (पत्थर की शिला) के रूप में शनिग्रह से उल्कापिंड के रूप में प्रकट हुई है । इस शनि-स्थान के निश्चित क्षेत्र में कोई भी व्यक्ति चोरी या अन्य अपराध नहीं कर सकता । यदि भूल से अपराध कर ले तो उसे इतना कठोर दण्ड मिलता है कि उसकी सात पीढ़ियां भी याद रखें । इसीलिए इस स्थान पर कोई व्यक्ति अपने मकान या दूकान में ताला नहीं लगाता । यहां पर मकानों में दरवाजे तक नहीं हैं ।

▪️शनिदेव का एक और प्रसिद्ध मन्दिर वृन्दावन के पास कोकिला वन में है ।

▪️शनि से प्रभावित व्यक्ति राजनेता, जेलर, वकील, दलाल, न्यायाधीश, मजदूर, संन्यासी, तान्त्रिक, उपदेशक, अध्यात्मिक रुचि रखने वाले व यन्त्रविद्या जानने वाले इंजीनियर आदि होते हैं ।

▪️शनि का सम्बध नियम, नैतिकता व अनुशासन से है । इनकी अवहेलना करने से शनि कुपित हो जाते हैं ।

▪️शनिदेव की दृष्टि में क्रूरता उनकी पत्नी के शाप के कारण है ।

▪️नवग्रहों में शनि  : - को दण्डनायक व कर्मफलदाता का पद दिया गया है । यदि कोई अपराध या गलती करता है तो उनके कर्मानुसार दण्ड का निर्णय शनिदेव करते हैं । वे अकारण ही किसी को परेशान नहीं करते हैं, बल्कि सबको उनके कर्मानुसार ही दण्ड का निर्णय करते हैं और इस तरह प्रकृति में संतुलन पैदा करते हैं ।

 ▪️ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार शनि ने माता पार्वती को बताया कि मैं सौ जन्मों तक जातक को उसकी करनी का फल भुगतान करता हूँ । एक बार जब विष्णुप्रिया लक्ष्मी ने शनि से पूछा कि ‘तुम क्यों जातकों की धन हानि करते हो, क्यों सभी तुम्हारे प्रभाव से प्रताड़ित रहते हैं ?’ शनिदेव ने उत्तर दिया—‘उसमे मेरा कोई दोष नही है, परमपिता परमात्मा ने मुझे तीनो लोकों का न्यायाधीश नियुक्त किया हुआ है, इसलिये जो भी तीनो लोकों के अंदर अन्याय करता है, उसे दंड देना मेरा काम है ।’

शनि की क्रूर पीड़ा भोगने वालों के कुछ पौराणिक उदाहरण!!!!!!

—जिस किसी ने भी शनि की दृष्टि में अपराध किया है, उनको ही शनि ने दंड दिया, चाहे वह भगवान शिव की अर्धांगिनी सती ही क्यों न हों ! सीता का रूप रखने के बाद भगवान शिव से झूठ बोलकर सती ने अपनी सफ़ाई दी और परिणाम में उनको अपने ही पिता के यज्ञ में हवनकुंड मे जल कर मरने के लिये शनिदेव ने विवश कर दिया ।

—शनिदेव की क्रूर दृष्टि पड़ने से गणेशजी का मस्तक धड़ से अलग हो गया और वे गजमुख हो गए ।

—पांडवों पर जब शनि की दशा आई तो द्रौपदी की बुद्धि भ्रमित हुई और उसने दुर्योधन से गलत बात कह दी । इसके परिणामस्वरूप पांडवों को वनवास भोगना पड़ा ।

—शनिदशा आने पर प्रकाण्ड विद्वान रावण की मति मारी गयी । सीताजी का हरण करने से वह परिवार सहित नष्ट हो गया ।

—राजा विक्रमादित्य पर शनिकोप हुआ तो उन्हें तेली के घर कोल्हू चलाना पड़ा ।

—शनिदशा के कारण राजा हरिश्चन्द्र का परिवार बिछुड़ गया और उन्हें श्मशान में चाण्डाल की नौकरी करनी पड़ी ।

—राजा नल व दमयन्ती को भी शनिदशा के कारण दर-दर भटकना पड़ा ।

▪️बाल्यकाल से ही शनिदेव भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त रहे हैं । इसलिए जो लोग पुराणों की कथा सुनते हैं, इष्टदेव की आराधना करते हैं भगवान के नाम का जप करते हैं, तीर्थों में स्नान करते हैं, किसी को पीड़ा नहीं पहुंचाते हैं, सबका भला करते हैं, सदाचार का पालन करते हैं तथा शुद्ध व सरल हृदय से अपना जीवन व्यतीत करते हैं, उन पर शनिदेव अनिष्टकारी कष्ट नहीं देते बल्कि उन्हें सुख प्रदान करते हैं ।

शनिदेव का प्रार्थना मन्त्र!!!!!

नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम ।
छायामार्तण्डसंभूतं तं नमामि शनैश्चरम् ।।

अर्थ–जो नीले काजल के समान आभा वाले, सूर्य के पुत्र, यमराज के बड़े भाई तथा सूर्य पत्नी छाया और मार्तण्ड (सूर्य) से उत्पन्न हैं उन शनैश्चर को मैं नमस्कार करता हूँ ।

शनिदेव से पीड़ा मुक्ति की प्रार्थना का मन्त्र है—

सूर्यपुत्रो दीर्घदेहा विशालाक्ष: शिवप्रिय:।
मन्दचार: प्रसन्नात्मा पीडां हरतु मे शनि ।। (ब्रह्माण्डपुराण)

अर्थात्–सूर्य के पुत्र, दीर्घ देह वाले, विशाल नेत्रों वाले, मन्दगति से चलने वाले, भगवान शिव के प्रिय तथा प्रसन्नात्मा शनि मेरी पीड़ा को दूर करें।

            

शुक्रवार, 26 जून 2020

शुभ-अशुभ लक्षण

सामुद्रिक शास्त्र में शुभाशुभ लक्षण

जातक, रमल, केरलीय प्रश्न आदि अंगों की तरह सामुद्रिक शास्त्र भी ज्योतिषशास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। पौराणिक आचार्यों का कथन है कि भगवान विष्णु ने सामुद्रिक नामक ब्राह्मण का अवतार लेकर जो फल
कथन किया है उसे सामुद्रिक शास्त्र कहा गया है। कुछ अन्य लोगों का मत है कि समुद्र में शयन करने वाले भगवान विष्णु और लक्ष्मी के सौन्दर्य तथा शुभ लक्षणों
को देखकर समुद्रदेव ने ही इस शास्त्र का निर्माण किया है।

पुरुषोत्तमस्य लक्ष्म्या समं
निजोत्सङ्गमधिशयानस्य।
शुभलक्षणानि दृष्ट्वा क्षणं समुद्रः
पुरा दध्यौ।। (सामुद्रिकशास्त्र, १३)

अन्य आचार्यों का मत है कि समस्त शास्त्र भगवान शिव से उत्पन्न हैं और शिव ही त्रिभुवन गुरु हैं। अत: शंकर जी ने प्राणियों के शुभाशुभ लक्षणों का जो वर्णन पार्वती
जी से किया था वही विषय सामुद्रिक शास्त्र के नाम से जाना गया है। वस्तुत: समुद्र अगाध है तथा प्राणियों के चिह्न (लक्षण) भी अगाध असंख्य हैं अत: जिस शास्त्र के
द्वारा असंख्य लक्षणों का वर्णन प्राप्त होता है उस अंश को सामुद्रिक नाम दिया गया है। प्राणियों की आकृति, चिह्न, तिल, मशक आदि, हस्तरेखा, मस्तिष्क रेखा, पाद रेखा तथा अंग-प्रत्यंग का विवेच्य ही सामुद्रिक शास्त्र के नाम से जाना जाता है।

'यत्राकृतिस्तत्रगुणाः वसन्ति' 

अर्थात् जहाँ सुन्दर आकृति होती है वहीं गुणों का वास होता है। सुदर्शन पुरुष या स्त्री में सुन्दर गुण अवश्य रहते हैं यह लोक में देखा जाता है। 

उन्मानमानगतिसंहतिसारवर्णस्नेहस्वरप्रकृतिसत्वमनूकमा दौ ।
क्षेत्रं मृजा च विधिवत् कुशलोऽवलोक्य
सामुद्रविद्वदति यातमनागतं वा।।

बृहत्संहिता पुरुषलक्षणाध्याय, २

आचार्य वराहमिहिर का कथन है कि उन्मान अङ्गुलात्मक
ऊँचाई, मान (भारीपन), गति (गमन), संहति (घनता), सार, वर्ण, स्नेह (स्निग्धता), स्वर (शब्द), प्रकृति, सत्व, अनूक (जन्मान्तर गमन), क्षेत्र तथा मृजा (शरीरच्छाया) इनको अच्छी तरह जानने वाला (सामुद्रिक शास्त्र ज्ञाता) प्राणियों के शुभाशुभ फल कह सकता है।

संहिता ग्रन्थों में कहीं-कहीं प्रसंगवश पुरुष एवं स्त्रियों के लक्षण देर्विष नारद, वराहमिहिर, माणडव्य ऋषि तथा स्वामी कितिकेय आदि ने कहा है जिसका उल्लेख
सामुद्रिक शास्त्र में प्राप्त होता है। यहाँ वराहमिहिर, नारद, पाराशर तथा सामुद्रिक शास्त्र के आधार पर उन लक्षणों के फलों पर विचार किया जा रहा है।

पैर का लक्षण एवं फल
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पसीने से रहित, कोमल तल वाले, कमलोदर के समान, परस्पर सटी हुई अंगुलियों से युक्त, ताम्रवर्ण के सुन्दर नखवाले, सुन्दर एड़ियों से युत, गरम, शिराओं से रहित, छिपी हुई पांव के गांठी वाले तथा कछुवे के पृष्ठ के समान पैर राजा का होता है। अर्थात् इन लक्षणों से युक्त जिनके पैर होते हैं वे राजा या राजा के
सदृश होते हैं। जैसा कि सामुद्रिक शास्त्र का भी मत है। शूर्पाकार, खुरदुरा, पाण्डुर नखवाला तथा वक्र नाड़ियों से युत, सूखे और विरल अंगुलियों वाले पैर दरिद्रता और दुःख देते हैं। मध्य में उन्नत तथा पाण्डुर वर्ण
के पांव सदैव यात्रा करने वाले व्यक्ति के होते हैं। कषाय (कृष्ण लोहित) पांव वंश नाश के सूचक है । जिसके पांव की कान्ति अग्नि में पकी हुई मिट्टी के समान हो वह
ब्रह्मघाती होता है। यदि पांव का तल पीला हो तो व्यक्ति अगम्या स्त्री में रत होता है।

जंघा का लक्षण एवं फल
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विरल तथा सूक्ष्म रोमों से युत हाथी के सूँड़ के समान ऊरु वाले तथा पुष्ट एवं समान
जानु वाले मनुष्य राजा या राजा के तुल्य होते हैं। कुत्ते या सियार के सदृश जंघा वाले मनुष्य धनहीन होते हैं। राजाओं की जंघाओं की रोमकूपों में एक- एक रोम,
पण्डित एवं श्रोत्रिय के जंघाओं के रोमकूपों में दो-दो रोम तथा निर्धन एवं दुःखी जनों के जंघाओं के रोमकूपों में तीन या चार रोम होते हैं। मांसरहित जानु वाला मनुष्य
प्रवास में मरता है। छोटे जानु वाला मनुष्य भाग्यशाली, अति विस्तीर्ण जानु वाला दरिद्र, नीचे जानुवाला स्त्रीजित, मांसयुत जानुवाला राज्यभोगी तथा बड़े जानुवाला मनुष्य दीर्घजीवी होता है।

वृषण लक्षण
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यथा 

जलमृत्युरेक वृषणो विषमैः स्त्रीचञ्चल:
समैः क्षितिपः।
ह्रस्वायुश्चौद्धद्धैः प्रलम्बवृषणस्य शतमायुः ।।
(बृहत्संहिता, ६८।९)

एक अण्डवाला मनुष्य पानी में डूबकर
मरता है तथा विषम (छोटे-बड़े) अण्डवाला मनुष्य स्त्री लम्पट, समान अण्डवाला राजा, ऊपर को खिंचे अण्डवाला अल्पायु तथा लम्बे अण्डवाला मनुष्य सौ वर्ष
पर्यन्त जीता है। 

कटि और उदर का लक्षण
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सिंहतुल्या कटिर्यस्य स नरेन्द्रो न
संशयः।
श्वशृगालखरोष्ट्राणां तुल्या यस्य स
निर्धन:।।
समोदरा भोगयुता विषमा निर्धना:
स्मृताः।। - बृहत्संहिता, ६८।१८

सिंह के समान कटि वाला राजा, ऊंट के समान कटिवाला निर्धन, समान उदर वाला
भोगी तथा घड़े के समान उदर वाला निर्धन होता है। सामुद्रिक शास्त्र में ऊंट के साथ-साथ कुत्ता, शृगाल तथा गधे के सदृश कटिवाला निर्धन होता है। 

नाभि का लक्षण एवं फल  
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गोल, ऊँची और विस्तीर्ण नाभिवाला मनुष्य सुखी होता है। छोटी, अदृश्य एवं अनिम्न नाभि दुःखदायक है। पेट के वलि के मध्य में स्थित और विषम नाभि शूली पर चढ़ाती है तथा निर्धन बनाती है। वामावर्त नाभि शठ और दक्षिणावर्त नाभि तत्त्वज्ञानी बनाती है। दोनों पार्र्व में आयत नाभि दीर्घायु, ऊपर की ओर आयत नाभि ऐश्वर्य, नीचे की ओर आयत नाभि गायों-पशुओं से युक्त तथा कमल कोर की तरह नाभि राजा बनाती है।

पेट के वलियों का लक्षण और फल 
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एक वलि (उदर की रेखा) वाले मनुष्य का शस्त्र से मरण, दो वलि वाले मनुष्य बहत स्त्रियों को भोगने वाले. तीन वलि वाले उपदेशक, चार वलि वाले बहुत पुत्रों से युक्त और वलिरहित उदर वाले राजा या तत्सदृश होते हैं। विषम (छोटी-बड़ी) वलि वाले अगम्या स्त्री में गमन करने वाले तथा सीधी वलि वाले मनुष्य सुखी तथा परस्त्री से विमुख होते हैं। 

हृदय का लक्षण एवं फल
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राजाओं का हृदय ऊंचा, विस्तीर्ण एवं कम्प से रहित होता है। निर्धनों का हृदय विपरीत लक्षणों (नीचा, कुश, सकम्प) तथा कठोर रोम से युक्त तथा शिराओं से व्याप्त होता है। समान (न ऊंची, नीची) छाती वाले धनी, छोटी छाती वाले पुरुषार्थ से रहित, विषम छाती वाले निर्धन तथा शस्त्र से मृत्यु पाने वाले होते हैं।

ग्रीवा तथा पृष्ठ का लक्षण एवं फल 
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चपटी ग्रीवा वाला पुरुष निर्धन, सूखी हुई नाड़ियों से युत ग्रीवा वाला निर्धन, महिष के समान ग्रीवा वाला शूर और बैल के समान ग्रीवा वाला शस्त्र से मरण पाने वाला होता है तथा शंख के समान ग्रीवा वाला राजा और लम्बी ग्रीवा वाला बहुत खाने वाला होता है। अभग्न और रोम रहित पीठ धनी
व्यक्तियों की तथा भग्न और रोगों से युत पीठ निर्धन व्यक्ति की होती है।

कांख का लक्षण एवं फल
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पसीने से रहित, सुगन्धयुत, समान तथा रोमों से व्याप्त कांख धनी व्यक्तियों की होती है तथा पसीने से युक्त, अपुष्ट, नीची,
दुर्गन्धयुक्त, विषम और रोमरहित कांख निर्धन व्यक्तियों की होती है।

कन्धे का लक्षण एवं फल 
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मांसहीन, रोमों से युत, भग्न तथा छोटे निर्धन के कन्धे होते हैं तथा विस्तीर्ण, अभग्न और परस्पर सटे हुए कन्धे सुखी और बली पुरुषों के होते हैं।

बाहु का लक्षण एवं फल 
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हाथी की सूड़ के समान वर्तुलाकार, जानुपर्यन्त लम्बे, सम तथा मोटे बाहु राजा के होते हैं तथा रोमों से युत तथा छोटे बाहु निर्धन के होते हैं।

अंगुली और हांथ का लक्षण एवं फल 
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लम्बी अंगुलियों वाले मनुष्य दीर्घायु, सीधी अंगुलियों वाले सुभग, पतली अंगुलियों वाले बुद्धिमान, चपटी अंगुलियों वाले दूसरे के सेवक, मोटी अंगुलियों वाले निर्धन तथा बाहर को झुकी हुई अंगुलियों वाले शस्त्र से मृत्यु पाने वाले होते हैं| वानर के समान हाथ वाले धनी तथा बाघ के समान हाथ वाले
पापी होते हैं। निगूढ़, दृढ़ तथा सुश्लिष्ट सन्धियों से युत मणिबन्ध (हांथ की कलाई) वाले राजा तथा छोटे संधि सहित मणि बन्ध वाले दरिद्र होते हैं। नीची हथेली वाले पिता के धन से रहित, वर्तुलाकार नीची हथेली वाले धनी तथा ऊंची हथेली वाले दानी, विषम हथेली वाले दुष्ट तथा निर्धन, लाख के समान लाल वर्ण की हथेली वाले धीर,
पीली हथेली वाले अगम्या स्त्री में गमन करने वाले तथा रूखी हथेली वाले निर्धन होते हैं। यव रेखा से युत अंगुष्ठ मध्य या अंगुष्ठमूल वाले पुत्रवान होते हैं। जिनके अंगुली के पर्व लम्बे हों वे भाग्यशाली तथा दीर्घायु होते हैं।

नखों का लक्षण एवं फल
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तुष (भूसी) के समान रेखाओं से युत नख वाले नपुंसक, कुत्सित एवं वर्णहीन नख वाले, दूसरे के मुख को देखने वाले तथा ताम्र वर्ण के नख वाले सेनापति होते हैं।

हथेली की रेखा एवं अंगुलियों का लक्षण एवं फल 
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स्निग्ध एवं गहरी हस्तरेखा वाले धनी, रूखी तथा ऊंची रेखा वाले निर्धन, हाथ में विरल अंगुली वाले निर्धन तथा सघन अंगुली वाले धनसंचयी होते हैं। जिसके हाथ में
मणिबन्ध से निकल कर तीन रेखा अंगुलियों की ओर जायँ वह राजा होता है। दो मछली के चिह्न से युक्त हथेली वाला सदाव्रत करने वाला होता है। यदि हाथ में वङ्का के समान रेखा हो तो धनी, मछली के समान हो तो विद्वान् तथा शंख, छत्र, पालकी, हाथी, घोड़ा और कमल के समान रेखा हो तो राजा होता है। यदि कलश, मृणाल, पताका या अंकुश के समान हाथ में रेखा हो तो भूमि में धन गाड़ने वाला होता है। रस्सी की तरह हाथ में रेखा हो
तो अति धनी, स्वस्तिक रेखा हो तो ऐश्वर्यशाली होता है। यदि चक्र, तलवार, फरशा, तोमर, बर्छी, धनुष या भाला के
समान हाथ में रेखा हो या चिह्न हो तो सेनापति और ऊखल के समान रेखा हो तो याज्ञिक होता है। मकर (घड़ियाल), ध्वजा और कोष्ठागार की तरह हांथ में रेखा हो तो बहुत धनी तथा वेदी की तरह ब्रह्मतीर्थ (अंगुष्ठमूल) हो तो अग्निहोत्री होता है। वापी, देव मन्दिर का चिह्न या त्रिभुज हो तो धि्मिक तथा अंगुष्ठमूल में जितनी स्थूल
रेखा हो उतने पुत्र और जितनी सूक्ष्म रेखा हों उतनी कन्यायें होती हैं। जिनकी तर्जनी के मूल तक तीन रेखा गयी हों वे सौ वर्षपर्यन्त जीते हैं। छोटी रेखा होने पर
अनुपात से आयु की कल्पना करनी चाहिए। जिनके हाथ में टूटी हुई रेखा हों वे वृक्ष या उच्च स्थान से नीचे गिरते हैं। अधिक रेखायुत हाथ या रेखा रहित हाथ वाले निर्धन होते हैं। 

ठोढ़ी, दांत और ओष्ठ का लक्षण एवं फल 
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वाले राजा, छोटे अधर वाले राजा तथा फटे, खण्डित, वर्णरहित और रूखे अधर वाले धनहीन होते हैं। स्निग्ध, घन, तीक्ष्ण और सम दांत शुभ होते हैं। जीभ तथा तालु का लक्षण एवं फल चिकनी तथा समान जीभ वाले भोगी होते हैं। सफेद,
लाल, लम्बी, काली और रूखी जीभ वाले निर्धन होते हैं। इसी प्रकार तालु का भी लक्षण एवं फल जानना चाहिए।

मुख का लक्षण एवं फल 
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सुन्दर, वर्तुलाकार, निर्मल, चिकना और समान मुख राजाओं का होता है। इससे
उलटा कुरूप, वक्राकार, मलिन, रूखा और विषम मुख भाग्य रहित का होता है। स्त्री के समान मुख वाले सन्तान हीन, गोलमुख वाले शठ, लम्बे मुख वाले निर्धन, भयानक
मुख वाले धूर्त, निम्नमुख वाले पुत्रहीन, छोटे कृपण, सम्पूर्ण तथा सुन्दर मुख वाले भोगी होते हैं।

दाढ़ी का लक्षण एवं फल
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आगे से बिना फटे, चिकनी, कोमल और नीचे को झुकी हुई दाढ़ी शुभ होती है तथा
लाल रूखी और अल्प दाढ़ी वाले चोर या घूंस लेने वाले होते हैं।

कान का लक्षण एवं फल
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मांसरहित कान वाले दुःखी होते हैं तथा चपटे कान वाले अधिक भोगी, छोटे कान
वाले कृपण, शंकु के समान आगे से तीखे कान वाले सेनापति, रोमयुक्त कान वाले दीर्घायु, बड़े कान वाले धनी, नाड़ियों से युत कान वाले क्रूर तथा लम्बे और पुष्ट कान
वाले सुखी होते हैं।

कपोल और नासिका का लक्षण एवं फल 
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ऊंचे गाल वाले धनी और मांस युत गाल वाले राजा के मन्त्री होते हैं। तोते के समान नासिका वाले भोगी और सुखी, मांसरहित
नासिका वाले दीर्घायु, कटी हुई नासिका वाले अगम्या स्त्री में गमन करने वाले, लम्बी नासिका वाले भाग्यशाली, ऊपर खिची हुई नासिका वाले चोर, चपटी नासिका वाले
स्त्री के हाथ से मृत्यु पाने वाले, आगे से टेढ़ी नासिका वाले धनी, दाहिने ओर झुकी नासिका वाले अधिक खाने वाले तथा कठोर तथा सीधी और छोटे छिद्रों से युत सुन्दर पुट वाली नासिका वाले बड़े भाग्यशाली होते हैं।

आंख का लक्षण एवं फल 
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कमल दल के समान नेत्र वाले धनी, लाल नेत्रान्त वाले लक्ष्मीवान् , शहद के समान पीले नेत्र वाले धनी, बिल्ली के समान (कंजे) नेत्र वाले पापी, हरिण के समान गोल और अचल नेत्र वाले चोर, नील नेत्र
वाले क्रूर, हाथी के समान नेत्र वाले सेनापति, गहरे नेत्र वाले ऐश्वर्यशाली तथा नील कमल दल के समान नेत्र वाले विद्वान होते हैं। अति काले तारा वाले नेत्र उखाड़े जाते हैं। मोटे नेत्रवाले मन्त्री, कपिल वर्ण के नेत्र वाले भाग्यशाली, दीन नेत्र वाले निर्धन तथा चिकने और स्थूल नेत्र वाले धनी
तथा भोगी होते हैं।

भौंह का लक्षण एवं फल
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मध्य में ऊंची भ्रू वाले अल्पायु, बड़ी और ऊंची भ्रू वाले अतिसुखी, विषम (एक में बड़ी तथा दूसरे में छोटी) भ्रू वाले निर्धन, बाल चन्द्र की तरह झुकी हुई भ्रू वाले धनवान् लम्बी तथा परस्पर बिना मिली भ्रूवाले धनी, टूटी हुई भ्रूवाले निर्धन तथा मध्य में नत भ्रूवाले मनुष्य अगम्या स्त्री में गमन करने वाले होते हैं। 

(शंख कनपटी) तथा ललाट का लक्षण एवं फल 
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ऊँची तथा बड़ी (शंख कनपटी) वाले धनी तथा नीची कनपटी वाले पुत्र तथा धन से रहित होते हैं। टेढ़े ललाट वाले धनी, सीप के समान विशाल ललाट वाले आचार्य, नाड़ियों से व्याप्त ललाट वाले पाप में रत, ललाट के मध्य में ऊँची नाड़ी वाले धनी और ललाट में स्वस्तिक की तरह रेखा
वाले धनाढ्य होते हैं। निम्न ललाट वाले वध, बन्धन के भागी और पाप कर्म में रत, ऊंचे ललाट वाले राजा तथा गोल ललाट वाले कृपण होते हैं।

ललाट रेखा का लक्षण एवं फल
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ललाट में तीन रेखा वाले सौ वर्ष जीते हैं, चार रेखा वाले राजा होते हैं तथा 95
वर्ष जीते हैं। ललाट में टूटी हुई रेखा वाले अगम्या स्त्री में गमन करने वाले और 90 वर्ष जीते हैं। रेखाओं से रहित ललाट वाले 90 वर्ष जीते हैं तथा केशान्त तक रेखा वाले अस्सी वर्ष जीते हैं। पांच रेखा युत ललाट वाले सत्तर वर्ष जीते हैं, ललाट में स्थित सब रेखाओं के अग्रभाग मिले हों
तो साठ वर्ष की आयु होती है। छः, सात आदि बहुत रेखाओं से युत ललाट वाले पचास वर्ष जीते हैं। यदि ललाट में टेढ़ी रेखा हो तो चालीस वर्ष आयु होती है। यदि
ललाट में भ्रू से लगी रेखा हो तो तीस वर्ष की आयु होती है। यदि ललाट के वाम भाग में टेढ़ी रेखा हो तो बीस वर्ष की आयु होती है। छोटी रेखा हो तो बीस वर्ष से कम
जीता है। यदि एक या दो रेखा से युत ललाट हो तो बीस वर्ष से कम आयु होती है। बीच में बुद्ध्यानुसार आयु की कल्पना करनी चाहिए।

शिर का लक्षण एवं फल
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गोल शिर वाले गायों से युत, छत्र की तरह ऊपर से विस्तीर्ण शिर वाले राजा, चपटे शिर वाले पिता-माता के घातक और शिरस्त्राण के समान शिर वाले दीर्घायु होते हैं। घड़े के समान शिर वाले पापी और
निर्धन, निम्न शिर वाले प्रतिष्ठित तथा अति निम्न शिर वाले अनर्थकारी होते हैं।

केश का लक्षण एवं फल
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एक रोम कूप में एक-एक काले, स्निग्ध, थोड़े से कुटिल, बिना फूटे अग्रभाग वाले, कोमल तथा घने केश हों तो सुखी या राजा होता है। एक रोम छिद्र में अनेक, विषम, कपिल, मोटे, फूटे अग्रभाग वाले, रूखे, छोटे, बहुत कुटिल और बहुत घने केश निर्धनों के होते हैं।

स्वर का लक्षण एवं फल
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हाथी, बैल, रथ समूह, भेरी, मृदंग, सह या मेघ के समान स्वर वाले राजा तथा गर्दभ,
जर्जर (विकृत) और रूखे स्वर वाले धन और सुख से हीन होते हैं। ये सभी लक्षण पुरुषों के तथा स्त्रियों के समान रूप से
समझने चाहिए। 

स्त्रियों के कुछ विशेष लक्षण इस प्रकार हैं। 
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जिस कन्या के पांव स्निग्ध, ऊंचे, आगे से पतले और लाल नखों से युक्त, समान, सुन्दर, पुष्ट और छिपे हुए गुल्फ वाले, मिली हुई अंगुली वाले तथा कमल की कान्ति
के समान कान्ति वाले हों वह जिस पति का वरण करती है वह राजा होता है। जिस स्त्री के पांव की कनिष्ठिका या अनामिका भूमि
का स्पर्श न करे, अंगूठे से लम्बी तर्जनी हो वह व्यभिचारिणी और अति पापिनी होती है। छोटी गरदन वाली निर्धन, बहुत लम्बी गरदन वाली कुलक्षय करने वाली तथा मोटी गरदन वाली स्त्री क्रूर प्रकृति की होती है।
जिस स्त्री के नेत्र केकर (कञ्जा), पीले, श्याम या चञ्चल हों वह बुरे स्वभाव वाली होती है तथा जिसके हंसने के समय गालों में गढढे पड़ जाते हों वह व्यभिचारिणी होती है। जिस स्त्री का ललाट लम्बा हो वह देवर को, लम्बा हो तो श्वसुर को, और कटि प्रदेश लम्बा हो तो पति के लिये घातक होती है तथा जिसके ऊपर के ओठ में अधिक रोम हों और जो बहुत लम्बी हो वह पति के लिये शुभ देने वाली नहीं होती है।
जिस स्त्री के ऊपर का ओष्ठ ऊंचा हो या केशों के अग्रभाग रूखे हों वह कलहप्रिया होती है। अधिकतर कुरूपा स्त्रियों में दोष और सुन्दरी में गुण होते हैं। जैसा कि वराहमिहिराचार्य का कथन है -

या ततूत्तरोष्ठेन समुन्नतेन रूक्षाग्रकेशी
कलहप्रिया सा।
प्रायो विरूपासु भवन्ति दोषा यत्राकृतिस्तत्र
गुणा वसन्ति।। बृहत्संहिता, स्त्रीलक्षणाध्याय, २३

इस प्रकार शुभाशुभ लक्षणों का विधिवत
अवलोकन कर शुभाशुभ फलों को जानना चाहिए।

सामुद्रिक से जुड़े कुछ अन्य रहस्य
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1. अगर यदि आप कि जबान आपके नाक को छूति है तो आप स्पष्टवादी , सत्यवादी ओर ईमानदार  है ।

2. अगर यदि आपके हाथ खडे होने पर आपके घुटनों तक पहुँचते है तो निश्चित रूप से आपको जीवन में उच्च पद प्राप्त होगा ।

3. अगर यदि आपके मुँह में पूरे 32 दाँत है तो आपका पूरा जीवन आराम से कट जायेगा । विषम संख्या में दाँत होने पर आपको बहुत कष्टों का सामना करना पडेगा ।

4.जिस स्त्री के शरीर पर पुरूषों के समान बाल हो, या दाढी या मूँछ आती हो तो उसे निश्चित रूप से विधवा होने का दुःख देखने को मिलता है ।

5.अगर यदि आपके अँगुठे के पीछे बाल हो तो आपकि बुद्धि तीव्र है ।

6.जिस व्यक्ति कि आँखों कि पलके बहुत जल्दी जल्दी झपकती हो, उस पर भूलकर भी विश्वास नहीं करे ।

7.पुरूषों के शरीर पर दाँये भाग में तिल शुभ होते है, तथा स्त्रियों के शरीर पर बाँये भाग में शुभ होते है ।

8.स्त्रियों कि कमर 24 अंगुल कि बहुत शुभ मानी जाती है ।

9.अगर यदि आपकि नाक तोते के समान है, तो आप लखपति जरूर बनेंगे ।

10. जिस पुरूष या स्त्री कि भौंहों पर बाल बहुत कम हो या नहीं हो, वो चापलूस, स्वार्थी तथा दब्बु प्रवृति के होते है ।

11. अगर यदि आप आवश्यकता से अधिक पानी बर्बाद करते है, या फालतु बहाते है, तो आपके परिवार कि सुख शान्ती भी उसी पानी के साथ बह जाती है तथा जीवन में धन का अभाव होता है, यह 100% सत्य बात है । अगर यदि आप व्यर्थ बहते हुये पानी को बचाते है तो आपको शुभ परिणाम मिलेंगे।

शनिवार, 20 जून 2020

सूर्य ग्रहण विशेष

*सूर्यग्रहण*

 *दिनांक* *21 जून रविवार को खंडग्रास सूर्यग्रहण होगा जो कि *भारत में दिखेगा*। *अतः इस ग्रहण का नियम पालन आवश्यक होगा।*

*ग्रहण का स्पर्श(लगना): सुबह 10.09*
*ग्रहण का मोक्ष(छूटना): दोपहर 01.43*
*ग्रहण का सूतक(छाया):* *दिनांक 20 जून शनिवार को रात 10.09 से दूसरे दिन दोपहर 01.43 तक।*



*सूर्य ग्रहण के दौरान क्या करें क्या ना करें*
*सूर्य ग्रहण के दौरान कुछ कार्यों को विशेष रुप से करने की मनाही होती है तो कुछ कार्यों के लिए सर्वोत्तम समय होता है। यदि आप कोई सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं तो उसके लिए मंत्र जाप करने हेतु ग्रहण काल सर्वोत्तम माना गया है।*

स्पर्शे स्नानं जपं कुर्यान्मध्ये होमं सुरार्चनम।
मुच्यमाने सदा दानं विमुक्तौ स्नानमाचरेत।।
--- (ज्ये. नि.)

*अर्थात ग्रहण काल के प्रारंभ में स्नान और जप करना चाहिए तथा ग्रहण के मध्य काल में होम अर्थात यज्ञ और देव पूजा करना उत्तम रहता है। ग्रहण के मोक्ष होने के समय दान करना चाहिए तथा पूर्ण रूप से ग्रहण का मोक्ष होने पर स्नान करके स्वयं को पवित्र करना चाहिए।*

दानानि यानि लोकेषु विख्यातानि मनीशिभः।
तेषां फलमाप्नोति ग्रहणे चन्द्र सूर्ययोः।।
--- (सौर पुराण)

*अर्थात इस समस्त संसार में जितने भी दान दिए जाते हैं, कोई भी प्राणी उन सभी दानों का फल चंद्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण काल में दान करने से प्राप्त कर लेता है। वास्तव में दान करने की बहुत महिमा बताई गयी है।*

अन्नं पक्वमिह त्याज्यं स्नानं सवसनं ग्रहे।
वारितक्रारनालादि तिलैदम्भौर्न दुष्यते।।
---(मन्वर्थ मुक्तावली)

 *सूर्य ग्रहण के दौरान भगवान सूर्य की पूजा विभिन्न सूर्य स्रोतों के द्वारा करनी चाहिए तथा आदित्य हृदय स्त्रोत्र आदि का पाठ करना काफी अच्छा परिणाम देता है। पका हुआ अन्न और कटी हुई सब्जियों का त्याग कर देना चाहिए क्योंकि वे दूषित हो जाती हैं। हालांकि घी,तेल, दही, दूध, दही, मक्खन, पनीर, अचार, चटनी, मुरब्बा जैसी चीजों में पीलिया कुशा रख देने से ग्रहण काल में दूषित नहीं होते हैं। यदि कोई सूखा खाद्य पदार्थ है तो उसमें कुशा रखने की आवश्यकता नहीं होती।* 

चन्द्रग्रहे तथा रात्रौ स्नानं दानं प्रशस्यते।

*चाहे चंद्र ग्रहण हो अथवा सूर्य ग्रहण रात्रि के समय दौरान स्नान दान करना प्रशस्त माना गया है।*

न स्नायादुष्णतोयेन नास्पर्शं स्पर्शयेत्तथा।।

*ग्रहण काल के दौरान तथा ग्रहण की मौत के बाद गर्म जल से स्नान नहीं करना चाहिए। हालांकि बालकों, वृद्धों, गर्भवती स्त्री और रोगियों के लिए निषेध नहीं है।*

यन्नक्षत्रगतो राहुर्ग्रस्ते शशिभास्करौ।
तज्जातानां भवेत्पीड़ा ये नराः शांतिवर्जिताः।।

*किसी नक्षत्र में राहु चंद्र अथवा सूर्य को ग्रसित करता है ऐसे लोगों को विशेष रूप से पीड़ा होने की संभावना होती है।*

ग्रस्यमाने भवेत्स्नानं ग्रस्ते होमो विधीयते।
मुच्यमाने भवेद्दानं मुक्ते स्नानं विधीयते।।
सर्वगङ्गा समं तोयं सर्वेव्यास समद्विजाः।
सर्वभूमि समं दानं ग्रहणे चन्द्र -सूर्ययोः।।

*ग्रहण काल के दौरान शुद्ध जल किसी भी स्थान से लिया जाए वो श्री गंगा जल के समान निर्मल होता है। स्नान और दान करना सभी प्रकार से उचित होता है। सभी प्रकार के द्विज व्यास जी के समान माने जाते हैं।* *चंद्रग्रहण अथवा सूर्य ग्रहण के अंत में दिया जाने वाला दान भी सर्व भूमि दान के बराबर माना जाता है।*

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...