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ब्राह्मण से ही पूजा-पाठ क्यों कराएं ?

ब्राह्मण से ही पूजा-पाठ क्यों कराएं ?*
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उत्तर:- यम-नियम में आबद्ध ब्राह्मण- वर्ग अपनी निरंतर उपासना व त्यागवृत्ति, सात्त्विकता एवं उदारता के कारण ईश्वरतत्त्व के सर्वाधिक निकट रहते हैं। फिर धर्मशास्त्र, कर्मकांड के ज्ञाता एवं अधिकारी विद्वान होने के कारण परंपरागत मान्यता अनुसार पूजा-पाठ करने का अधिकार उन्हें ही है।

ब्राह्मण को देवता क्यों कहा गया ?

उत्तर:- दैवाधीनं जगत्सर्वं, मंत्राधीनं देवता।
 ते मंत्रा विप्रं जानंति, तस्मात् ब्राह्मणदेवताः।।

यह सारा संसार विविध देवों के अधीन है। देवता मंत्रों के अधीन हैं। उन मंत्रों के प्रयोग-उच्चारण व रहस्य को विप्र भली-भांति जानते हैं इसलिये ब्राह्मण स्वयं देवता तुल्य होते हैं।

ब्राह्मणों को लोक-व्यवहार में अधिक सम्मान क्यों ?

उत्तर:- निरंतर प्रार्थना, धर्मानुष्ठान व धर्मोपदेश कर के जिस प्रकार मौलवी मस्जिद का प्रमुख, गिरजाघर में पादरी सर्वाधिक सम्मानित होता है, उनसे भी बढ़कर ब्राह्मण का सम्मान परंपरागत लोक-व्यवहार में सदा सर्वत्र होता आया है।

यज्ञ की अग्नि में तिल-जव,इत्यादि खाद्य पदार्थ क्यों ?

उत्तर:- आज के प्रत्यक्षवादी युग के व्यक्ति हवन में घी-तिल-जव आदि की आहुतियों को अग्नि में व्यर्थ फूंक देने की जंगली प्रथा ही समझते हैं।

 प्रत्यक्षवादियों की धारणा वैसी ही भ्रमपूर्ण है जैसी कि किसान को कीमती अन्न खेत की मिट्टी में डालते हुये देखकर किसी कृषि विज्ञान से अपरिचित व्यक्ति की हो सकती है।

प्रत्यक्षवादी को किसान की चेष्टा भले ही मूर्खता पूर्ण लगती हो पर बुद्धिमान कृषक को विश्वास है, कि खेत की मिट्टी में विधिपूर्वक मिलाया हुआ उसका प्रत्येक अन्नकण शतसहस्र-गुणित होकर उसे पुनः प्राप्त होगा।

यही बात यज्ञ के संबंध में समझनी चाहिये। जिस प्रकार मिट्टी में मिला अन्न-कण शत सहस्र गुणित हो जाता है, उसी प्रकार अग्नि से मिला पदार्थ लक्ष-गुणित हो जाता है। किसान का यज्ञ पार्थिव और हमारा यज्ञ तैजस्।

कृषि दोनों है एक आधिभौतिक तो दूसरी आधिदैविक। एक का फल है- स्वल्पकालीन अनाजों के ढेर से तृप्ति तो दूसरे का फल देवताओं के प्रसाद से अनन्तकालीन तृप्ति।

यज्ञ में ‘द्रव्य’ को विधिवत अग्नि में होम कर उसे सूक्ष्म रूप में परिणित किया जाता है। अग्नि में डाली हुई वस्तु का स्थूलांश भस्म रूप में पृथ्वी पर रह जाता है।

स्थूल सूक्ष्म उभय-मिश्रित भाग धूम्र बनकर अंतरिक्ष में व्याप्त हो जाता है, जो अंततोगत्वा मेघरूप’ में परिणित होकर द्यूलोकस्थ देवगण को परितृप्त करता है।

‘स्थूल-सूक्ष्मवाद’ सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक अंश अबाध गति से अपने अंशी तक पहुंचकर ही रहता है। जल कहीं भी हो, उसका प्रवाह आखिरकार अपने उद्गम स्थल समुद्र में पहंचे बिना दम नहीं लेता।

यह वैज्ञानिक सूत्र स्वतः ही प्रमाणित करता है कि अग्नि में फूंके गये पदार्थ की सत्ता समाप्त नहीं होती।

मनुस्मृति, अध्याय 3/76 में भी एक महत्वपूर्ण सूत्र है।

*‘अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यग् आदित्यं उपष्ठिते’*

अग्नि में विधिवत डाली हुई आहुति, सूर्य में उपस्थित होती है।

श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 3, श्लोक 14-15 में भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि चक्र व यज्ञ के बारे में कहते हैं- संसार के संपूर्ण प्राणी अन्न (खाद्य पदार्थ) से उत्पन्न होते हैं।

अग्नि की उत्पत्ति वृष्टि से होती है और वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ (वेद) विहित कार्यों से उत्पन्न होने वाला है।

*उत्तम ब्राम्हण की महिमा-*

*ऊँ जन्मना ब्राम्हणो, ज्ञेय:संस्कारैर्द्विज उच्चते।*
*विद्यया याति विप्रत्वं,*
*त्रिभि:श्रोत्रिय लक्षणम्।।*

ब्राम्हण के बालक को जन्म से ही ब्राम्हण समझना चाहिए। संस्कारों से “द्विज” संज्ञा होती है तथा विद्याध्ययन से “विप्र” नाम धारण करता है।

जो वेद,मन्त्र तथा पुराणों से शुद्ध होकर तीर्थस्नानादि के कारण और भी पवित्र हो गया है, वह ब्राम्हण परम पूजनीय माना गया है।

*ऊँ पुराणकथको नित्यं,धर्माख्यानस्य सन्तति:।
अस्यैव दर्शनान्नित्यं,अश्वमेधादिजं फलम्।।

जिसके हृदय में गुरु,देवता,माता-पिता और अतिथि के प्रति भक्ति है। जो दूसरों को भी भक्तिमार्ग पर अग्रसर करता है, जो सदा पुराणों की कथा करता और धर्म का प्रचार करता है ऐसे ब्राम्हण के दर्शन से ही अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त होता है।

*पितामह भीष्म जी पुलस्त्य जी से पूछा–*
गुरुवर!मनुष्य को देवत्व, सुख, राज्य, धन, यश, विजय, भोग, आरोग्य, आयु, विद्या, लक्ष्मी, पुत्र, बन्धुवर्ग एवं सब प्रकार के मंगल की प्राप्ति कैसे हो सकती है? यह बताने की कृपा करें।

*पुलस्त्यजी ने कहा–*

राजन!इस पृथ्वी पर ब्राह्मण सदा ही विद्या आदि गुणों से युक्त और श्रीसम्पन्न होता है। तीनों लोकों और प्रत्येक युग में विप्रदेव (ब्राम्हण )नित्य पवित्र माने गये हैं।

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