शनिवार व्रत महात्मय, विधि एवं कथा
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आज के योग में शनिदेव को कौन नही जानता शनिदेव आद्यात्म के कारक गलतियों की सजा देने के लिये मुख्य रूप से जाने जाते है। शनि-ग्रह की शांति तथा सुखों की इच्छा रखने वाले स्त्री-पुरुषों को शनिवार का व्रत अवश्य करना चाहिए । विधिपूर्वक शनिवार का व्रत करने से
शनिजनित संपूर्ण दोष, रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं, धन का लाभ होता है। स्वास्थ्य, सुख तथा बुद्धि की वृद्धि होती है । विश्व के समस्त उद्योग, व्यवसाय, कल-कारखाने, धातु उद्योग, लौह वस्तु, समस्त तेल, काले रंग की वस्तु, काले जीव, जानवर, अकाल मृत्यु, पुलिस भय, कारागार, रोग भय, गुरदे का रोग, जुआ, सट्टा, लॉटरी, चोर भय तथा क्रूर कार्यों का स्वामी शनिदेव है ।
शनिजनित कष्ट निवारण के लिए शनिवार का व्रत करना परम लाभप्रद है । शनिवार के व्रत को प्रत्येक स्त्री-पुरुष कर सकता है । वैसे यह व्रत किसी भी शनिवार से आरंभ किया जा सकता है। श्रावण मास के श्रेष्ठ शनिवार से व्रत प्रारंभ किया जाए तो विशेष
लाभप्रद रहता है । व्रती मनुष्य नदी आदि के जल में स्नान कर, ऋषि-पितृ अर्पण करे, सुंदर कलश जल से भरकर लावे, शमी अथवा पीपल के पेड़ के नीचे सुंदर वेदी बनावे, उसे गोबर से लीपे, लौह निर्मित शनि की प्रतिमा को पंचामृत में स्नान कराकर काले चावलों से बनाए हुए चौबीस दल के कमल पर स्थापित करे । काले रंग के गंध, पुष्प, अष्टांग, धूप, फूल, उत्तम प्रकार के नैवेद्य आदि से पूजन करे । शनि के इन दस नामों का उच्चारण करे-
ॐ कोणस्थाय नमः
ॐ रौद्रात्मकाय नमः
ॐ शनैश्वराय नमः
ॐ यमाय नमः
ॐ बभ्रवे नमः
ॐ कृष्णाय नमः
ॐ मंदाय नमः
ॐ पिप्पलाय नमः
ॐ पिंगलाय नमः
ॐ सौरये नमः
शमी अथवा पीपल के वृक्ष में सूत के सात धागे लपेटकर सात परिक्रमा करे तथा वृक्ष का पूजन करे । शनि पूजन सूर्योदय से पूर्व तारों की छांव में करना चाहिए । शनिवार व्रत-कथा को भक्ति और प्रेमपूर्वक सुने ।
कथा कहने वाले को दक्षिणा दे । तिल, जौ, उड़द, गुड़, लोहा, तेल, नीले वस्त्र का दान करे । आरती और प्रार्थना करके प्रसाद बांटे ।
पहले शनिवार को उड़द का भात और दही, दूसरे शनिवार को खीर,
तीसरे को खजला,
चौथे शनिवार को घी और पूरियों का भोग लगावे ।
इस प्रकार तेतीस शनिवार तक इस क्रम को करे । इस प्रकार व्रत करने से शनिदेव प्रसन्न होते हैं । इससे सर्वप्रकार के कष्ट, अरिष्ट आदि व्याधियों का नाश होता है और अनेक प्रकार के सुख, साधन, धन, पुत्र-
पौत्रादि की प्राप्ति होती है । कामना की पूर्ति होने पर शनिवार के व्रत का उद्यापन करें । तेंतीस ब्राह्मणों को भोजन करावे, व्रत का विसर्जन करें । इस प्रकार व्रत का उद्यापन करने से पूर्ण फल की प्राप्ति होती है। एवं सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति होती है । कामना पूर्ति होने पर यदि यह व्रत किया जाए, तो प्राप्त वस्तु का नाश नहीं होता ।
राहु, केतु और शनि के कष्ट निवारण हेतु भी शनिवार के व्रत का विधान है। इस व्रत में शनि की लोहे की, राहु व केतु की शीशे की मूर्ति बनवाएं कृष्ण वर्ण वस्त्र, दो भुजा दण्ड और अक्षमालाधारी, काले रंग के आठ
घोड़े वाले रथ में बैठे शनि का ध्यान करे।
कराल बदन, खड्ग, चर्म और शूल से युक्त नीले सिंहासन पर विराजमान वरप्रद राहु का ध्यान करे । धूम्रवर्ण, गदादि आयुरधों से युक्त, गृद्धासन पर विराजमान विकटासन और वरप्रद केतु का ध्यान करे। इन्ही स्वरूपों में मुर्तियों का निर्माण करावे अरवा गोलाकार मूर्ति बनावे काले रंग के चावलोम से चौबीस दल का कमल निर्माण करे । कमल के मध्य में शनि, दक्षिण भाग में राहु और वाम भाग में केतु की स्थापना करे । रक्त चंदन में केशर मिलाकर, गंध चावल में काजल मिलाकर, काले चावल, काकमाची, कागलहर के काले पुष्प, कस्तूरी आदि से
'कृष्ण धूप' और तिल आदि के संयोग से कृष्ण नैवेद्य (भोग ) अर्पण करे और इस मंत्र से प्रार्थना एवं नमस्कार करें-
शनैश्चर नमस्तुभ्यं नमस्तेतवथ राहवे ।
केतवेऽथ नमस्तुभ्यं सर्वशांति प्रदो भव ॥
ॐ ऊर्ध्वकायं महाघोरं चंडादित्यविमर्दनं ।
सिंहिकायाः सुतं रौद्रं तं राहुं प्रणमाम्यहम् ॥
ॐ पातालधूम संकाशं ताराग्रहविमर्दनं ।
रौर्म रौद्रात्मकं क्रूरं तं केतु प्रणमाम्यहम् ॥
सात शनिवार व्रत करे । शनि हेतु शनि-मंत्र से शनि की समिधा में, राहु हेतु राहु मंत्र से पूर्वा की समिधा में, केतु हेतु केतु मंत्र से कुशा की समिधा में, कृष्ण जौ के घी व काले तिल से प्रत्येक के लिए १०८ आहुतिया दे और ब्राह्मण को भोजन करावे।
इस प्रकार शनिवार के व्रत के प्रभाव से शनि और राहु-केतु जनित कष्ट, सभी प्रकार के अरिष्ट तथा आदि-व्याधियों का सर्वथा नाश होता है ।
श्री शनिवार व्रत कथा
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एक समय समस्त प्राणियों का हित चाहने वाले मुनि नैमिषारण्य में एकत्र हुए । उस समय व्यास जी के शिष्य सूतजी शिष्यो के साथ श्रीहरि का स्मरण करते हुए वहां
आए । समस्त शास्त्रों के ज्ञाता श्री सूतजी को आया देखकर महातेजस्वी शौनकादि मुनियों ने उठकर श्री सूतजी को प्रणाम किया। मुनियों द्वारा दिए आसन पर श्री सूतजी बैठ गए ।
हे ऋषियो! युधिष्ठिर आदि पांडव जब वनवास में अनेक कष्ट भोग रहे थे, उस समय उनके प्रिय सखा श्रीकृष्ण उनके पास पहुंचे । युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण का बहुत आदर किया और सुंदर आसन पर बैठाया । श्रीकृष्ण बोले- हे युधिष्ठिर! कुशलपूर्वक तो हो? युधिष्ठिर ने कहा- हे प्रभो! आपकी कृपा है। आपसे कुछ छिपा नहिं है! कृपाकर कोई ऐसा उपाय बतलाएं, जिसके करने से यह ग्रह कष्ट न व्यापे । इससे छुटकारा मिले । यह शनि ग्रह बहुत कष्ट देता है ।
श्रीकृष्ण बोले- राजन! आपने बहुत ही सुंदर बात पूछी है । आपसे एक उत्तम व्रत कहता हूं, सुनो । जो मनुष्य भक्ति और श्रद्धायुक्त होकर शनिवार के दिन भगवान शंकर का व्रत करते हैं, उन्हें शनि की ग्रह दशा मे कोई कष्ट नहीं होता । उनको निर्धनता नहीं सताती तथा इस लोक में
अनेक प्रकार के सुखों को भोगकर अंत में शिवलोक की प्राप्ति होती है। युधिष्ठिर बोले- हे प्रभु! सबसे पहले यह व्रत किसने किया था, कृपा करके इसे विस्तारपूर्वक कहें तथा इसकी विधि भी बतलाएं । भगवान श्रीकृष्ण बोले- राजन! शनिवार के दिन, विशेषकर श्रावण मास में शनिवार के दिन लौहनिर्मित प्रतिमा को पंचामृत से स्नान कराकर, अनेक प्रकार के गंध, अष्टांग, धूप, फल, उत्तम प्रकार के नैवेद्य आदि से पूजन करे, शनि के दस नामों का उच्चारण करे । तिल, जौ, उड़द, गुड़, लोहा, नीले वस्त्र का दान करे । फिर भगवान शंकर का विधिपूर्वक पूजन कर आरती-प्रार्थना करे- हे भोलेनाथ! मैं आपकी शरण हूं, आप मेरे ऊपर कृपा करें। मेरी रक्षा करें।
हे युधिष्ठिर! पहले शनिवार को उड़द का भात, दूसरे को केवल खीर, तीसरे को खजला, चौथे को पूरियों का भोग लगावे । व्रत की समाप्ति पर यथाशक्ति ब्राह्मण भोजन करावे । इस प्रकार करने से सभी अनिष्ट, कष्ट, आधिव्यादियों का सर्वथा नाश होता है । राहु, केतु, शनिकृत दोष दूर होते हैं और अनेक प्रकार के सुख-साधन एवं पुत्र-पौत्रादि का सुख प्राप्त होता है।
सबसे पूर्व जिसने इस व्रत को किया था, उसका इतिहास भी सुनो
पूर्वकाल में इस पृथ्वी पर एक राजा राज्य करता था । उसने अपने शत्रुओं को अपने वश में कर लिया । दैव गति से राजा और राजकुमार पर शनि की दशा आई । राजा को उसके शत्रुओं ने मार दिया। राजकुमार भी बेसहारा हो गया। राजगुरु को भी बैरियों ने मार दिया। उसकी विधवा ब्राह्मणी तथा उसका पुत्र शुचिव्रत रह गया । ब्राह्मणी ने
राजकुमार धर्मगुप्त को अपने साथ ले लिया और नगर को छोड़कर चल दी ।
गरीब ब्राह्मणी दोनों कुमारो का बहुत कठिनाई से निर्वाह कर पाती थी कभी किसी शहर में और कभी किसी नगर में दोनों कुमारों को लिए घूमती रहती थी । एक दिन वह ब्राह्मणी जब दोनों कुमारों को लिए एक नगर से दुसरे नगर जा रही थी कि उसे मार्ग में महर्षि शांडिल्य के दर्शन हुए । ब्राह्मणी ने दोनों बालकों के साथ मुनि के चरणों मे प्रणाम किया और बोली- महर्षि! मैं आज आपके दर्शन कर कृतार्थ हो गई । यह मेरे दोनों कुमार आपकी शरण है, आप इनकी रक्षा करें । मुनिवर ! यह शुचिव्रत मेरा पुत्र है और यह धर्मगुप्त राजपुत्र है और मेरा धर्मपुत्र है । हम घोर दारिद्र्य में हैं, आप हमारा उद्धार कीजिए । मुनि शांडिल्य ने ब्राह्मणी की सब बात सुनी और बोले-देवी! तुम्हारे ऊपर शनि का प्रकोप है, अतः आप शनिवार के दिन व्रत करके भोले शंकर की आराधना किया करो, इससे तुम्हारा कल्याण होगा ।
ब्राह्मणी और दोनों कुमार मुनि को प्रणाम कर शिव मंदिर के लिए चल दिए । दोनों कुमारों ने ब्राह्मणी सहित मुनि के उपदेश के अनुसार शनिवार का व्रत किया तथा शिवजी का पूजन किया। दोनों कुमारों को
यह व्रत करते-करते चार मास व्यतीत हो गए । एक दिन शुचिव्रत स्नान करने के लिए गया । उसके साथ राजकुमार नहीं था । कीचड़ में उसे एक बहुत बड़ा कलश दिखाई दिया । शुचिव्रत ने उसको उठाया और देखा तो उसमें धन था । शुचिव्रत उस कलश को लेकर घर आया और मां से बोला- हे मां! शिवजी ने इस कलश के रुप में धन दिया है। माता ने आदेश दिया- बेटा! तुम दोनों इसको बांट लो । मां का वचन
सुनकर शुचिव्रत बहुत ही प्रसन्न हुआ और धर्मगुप्त से बोला- भैया! अपना हिस्सा ले लो । परंतु शिवभक्त राजकुमार धर्मगुप्त ने कहा-मां! मैं हिसा लेना नहीं चाहता, क्योंकि जो कोई अपने सुकृत से कुछ भी पाता है, वह उसी का भाग है और उसे आप ही भोगना चाहिये । शिवजी मुझ
पर भी कभी कृपा करेंगे । धर्मगुप्त प्रेम और भक्ति के साथ शनि का व्रत करके पूजा करने लगा । इस प्रकार उसे एक वर्ष व्यतीत हो गया । बसंत ऋतु का आगमन हुआ राजकुमार धर्मगुप्त तथा ब्राह्मण पुत्र शुचिव्रत दोनों ही वन में घूमने गए । दोनों वन में घूमते-घूमते काफी दूर निकल गए । उनको वहां सैकड़ों गंधर्व कन्याएं खेलती हुई मिलीं । ब्राह्मण कुमार बोला- भैया!
चरित्रवान पुरुषों को चाहिए कि वे स्त्रियों से बचकर रहें | ये मनुष्य को शीघ्र ही मोह लेती हैं । विशेष रूप से ब्रह्मचारी को स्त्रियों से न तो संभाषण करना चाहिए, तथा न ही मिलना चाहिए । परंतु गंधर्व कन्याओं की क्रीड़ा को देखने की इच्छा रखने वाला राजकुमार उनके पास अकेला चला गया।
गंधर्व कन्याओं में से एक सुंदरी उस राजकुमार पर मोहित हो गई और अपनी सखियों से बोली- यहां से थोड़ी दूरी पर एक सुंदर वन है, उसमें नाना प्रकार के फूल खिले हैं । तुम सब जाकर उन सुंदर फूलों को तोड़कर ले आओ, तब तक मैं यहीं बैठी हूं । सखियां उस गंधर्व कन्या की आज्ञा पाकर चली गई और वह सुंदर गंधर्व कन्या राजकुमार पर दृष्टि गड़ाकर बैठ गई । उसे अकेला देखकर राजकुमार भी उसके पास
चला आया । राजकुमार को देखकर गंधर्व कन्या उठी और बैठने के लिए कमल-पत्तों
का आसन दिया। राजकुमार आसन पर बैठ गया । गंधर्व कन्या ने पूछा- आप कौन है? किस देश के रहने वाले हैं तथा आपका आगमन कैसे हुआ है? राजकुमार ने कहा- मैं विदर्भ देश के राजा का पुत्र हूं, मेरा नाम धर्मगप्त है । मेरे माता-पिता स्वर्गलोक सिधार चके हैं । शत्रुओं ने मेरा राज्य छीन लिया है । मैं राजगुरु की पत्नी के साथ रहता हूं, वह मेरी धर्म माता हैं । फिर राजकुमार ने उस गंधर्व कन्या से पूछा- आप कौन है? किसकी पुत्री हैं और किस कार्य से यहां पर आपका आगमन हुआ है?
गंधर्व कन्या ने कहा- विद्रविक नाम के गंधर्व की मैं पुत्री हूं । मेरा नाम अंशुमति है । आपको आता देख आपसे बत करने की इच्छा हुई, इसी से मैं सखियों को अलग भेजकर अकेली रह गई हूं । गंधर्व कहते हैं कि मेरे बराबर संगीत विद्या में कोई निपुण नहीं है । भगवान शंकर ने हम दोनों पर कृपा की है, इसलिए आपको यहां पर भेजा है । अब से लेकर मेरा-आपका प्रेम कभी न टूटे । ऐसा कहकर कन्या ने अपने गले का
मोतियों का हार राजकुमार के गले में डाल दिया । राजकुमार धर्मगुप्त ने कहा- मेरे पास न राज है, न धन । आप मेरी भार्या कैसे बनेंगी? आपके पिता है, आपने उनकी आज्ञा भी नहीं ली । गंधर्व कन्या बोली- अब आप घर जाएं, लेकिन परसों प्रातःकाल यहां अवश्य पधारें । राजकुमार से ऐसा कहकर गंधर्व कन्या अपनी
सहेलियों के पास चली गई । राजकुमार धर्मगुप्त शुचिव्रत के पास चला आया और उसे सब समाचार कह सुनाया ।
राजकुमार धर्मगुप्त तीसरे दिन शुचिव्रत को साथ लेकर उसी वन में गया । उसने देखा कि स्वयं गंधर्वराज विद्रविक उस कन्या को साथ लेकर उपस्थित हैं । गंधर्वराज ने दोनों कुमारों का अभिवादन किया और दोनों को सुंदर आसन पर बिठाकर राजकुमार से कहा राजकुमार! मैं परसों कैलाश पर गौरी शंकर के दर्शन करने गया था । वहां
करुणारूपी सुधा के सागर भोले शंकरजी महाराज ने मुझे अपने पास बुलाकर कहा- गंधर्वराज! पृथ्वी पर धर्मगुप्त नाम का राजभ्रष्ट राजकुमार है । उसके परिवार के लोगों को शत्रुओं ने समाप्त कर दिया है । वह बालक गुरु के कहने से शनिवार का व्रत करता है और सदा मेरी सेवा में लगा रहता है । तुम उसकी सहायता करो, जिससे वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सके । गौरीशंकर की आज्ञा को शिरोधार्य कर मैं अपने घर चला आया । वहां मेरी पुत्री अंशुमति ने भी ऐसी ही प्रार्थना की । शिवशंकर की आज्ञा तथा अंशुमति के मन की बात जानकर मैं ही इसको इस वन में लाया हूं मैं इसे आपको सौंपता हूं। मैं आपके शत्रुओं को परास्त कर आपको आपका राज्य दिला दूंगा।
ऐसा कहकर गंधर्वराज ने अपनी कन्या का विवाह राजकुमार के साथ कर दिया तथा अंशुमति की सहेली की शादी ब्राह्मण कुमार शुचिव्रत के साथ कर दी । उसने राजकुमार की सहायता के लिए गंध्वों की
चतुरंगिणी सेना भी दी। धर्मगुप्त के शत्रुओं ने जब यह समाचार सुना तो उन्होने राजकुमार की अधीनता स्वीकार कर ली और राज्य भी लौटा दिया । धर्मगुप्त सिंहासन पर बैठा । उसने अपने धर्म भाई शुचिव्रत को मंत्री नियुक्त किया। जिस ब्राह्मणी ने उसे पुत्र की तरह पाला था, उसे
राजमाता बनाया । इस प्रकार शनिवार के व्रत के प्रभाव और शिवजी की कृपा से धर्मगुप्त फिर से विदर्भराज हुआ। श्रीकृष्ण भगवान बोले- हे पांडुनंदन! आप भी यह व्रत करें तो कुछ समय बाद आपको राज्य प्राप्त होगा और सभी प्रकार के सुखों की
प्राप्ति होगी। आपके बुरे दिनों की शीघ्र समाप्ति होगी । युधिष्ठिर ने शनिवार व्रत की कथा सुनकर श्रीकृष्ण भगवान की पूजा
की और व्रत आरंभ किया। इसी व्रत के प्रभाव से महाभारत में पांडवों ने द्रोण, भीष्म और कर्ण जैसे महारथियों को परास्त किया-सबसे बढ़कर उन्हें श्रीकृष्ण जैसा योग्य सारथी मिला तथा छिना हुआ राज्य प्राप्त कर वर्षों तक उसका सुख भोगा और फिर देह त्यागकर स्वर्ग की प्राप्ति की ।
कथा सुनने के बाद शनिदेव की आरती करें। आरती के बाद यथा सामर्थ्य शनि मन्त्र जप स्तोत्रपाठ एवं संभव हो तो सहस्त्रणामवली का पाठ करना लाभदायक रहता है।
शनि महाराज की आरती
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जय जय श्री शनिदेव भक्तन हितकारी।
सूर्य पुत्र प्रभु छाया महतारी॥
जय जय श्री शनि देव....
श्याम अंग वक्र-दृष्टि चतुर्भुजा धारी।
नी लाम्बर धार नाथ गज की असवारी॥
जय जय श्री शनि देव....
क्रीट मुकुट शीश राजित दिपत है लिलारी।
मुक्तन की माला गले शोभित बलिहारी॥
जय जय श्री शनि देव....
मोदक मिष्ठान पान चढ़त हैं सुपारी।
लोहा तिल तेल उड़द महिषी अति प्यारी॥
जय जय श्री शनि देव....
देव दनुज ऋषि मुनि सुमिरत नर नारी।
विश्वनाथ धरत ध्यान शरण हैं तुम्हारी॥
जय जय श्री शनि देव भक्तन हितकारी।
शनि पीड़ानाशक सहस्त्रनामावली स्तोत्रम
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जब भी शनि की दशा/अन्तर्दशा में अकारण चिन्ताएँ होने लगे अथवा कार्य बाधा होने लगे तब धैर्य, श्रद्धा और विश्वास के साथ शनि सहस्त्रनाम का पाठ करना चाहिए इससे शनि पीड़ा शांत होगी. शनि सहस्त्रनाम का अर्थ है – शनि देव के हजार नाम. शनि के एक हजार नामों का श्लोकबद्ध वर्णन किया गया है. जो व्यक्ति शनि की पीड़ा से व्याकुल हैं उन्हें इस “शनि सहस्त्रनाम स्तोत्र” का पाठ हर शनिवार दोपहर बाद करना चाहिए. नियमित रूप से पाठ करने पर अधूरे कार्य पूरे होगें, परिवार में सुख व समृद्धि होगी तथा व्यवसाय में उन्नति होगी।
विनियोग 👉
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अस्य श्रीशनिसहस्त्रनामस्तोत्र मन्त्रस्य कश्यपऋषि: अनुष्टुप्छन्द:, शनैश्चरो देवता। शं बींज, नं शक्ति:, मं कीलकं, शनिप्रसादात् सिद्धयर्थे जपे विनियोग: ।
न्यास – शनिश्चराय अंगुष्ठाभ्यां नम:, मन्दगतये तर्जनीभ्यां नम:, अधोक्षजाय मध्यमाभ्यां नम:, सौरये अनामिकाभ्यां नम:, शुष्कोदराय कनिष्ठिकाभ्यां नम:, छायात्मजाय करतलकरपृष्ठाभ्यां नम:, शनैश्चराय हृदयाय नम:, मन्दगते शिरसे स्वाहा, अधोक्षजाय शिखायै वषट्, सौरये कवचाय हुम्, शुष्कोदराय नेत्रत्रयाय वौषट्, छायात्मजाय अस्त्राय फट्, भूर्भुवस्सुवरोमिति दिग्बन्ध:।
ध्यान
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चपासनो गृध्रधरस्तु नील: प्रत्यड्मुख: काश्यपगोत्रजात:।
स शूलचापेषु गदाधरो Sव्यात् सौराष्ट्रदेशप्रभश्च शौरि:।।1।।
नीलाम्बरो नीलवपु: किरीटी गृध्रासनस्थो विकृताननश्च ।
केयूरहारादिविभूषितांग स्सदाSस्तु मे मन्दगति:।।2।।
ऊँ अमिताभाष्यघहर: अशेषदुरितापह:।
अघोररूपोsतिदीर्घकायो sशेषभयानक:।।
अनन्तो अन्नदाता चाश्वत्थमूलजपे प्रिय:।
अतिसम्पत्प्रदोsमोघ: अन्त्यस्तुत्या प्रकोपित:।।
अपराजितो अद्वितीय: अतितेजो sभयप्रद:।
अष्टमस्थोंजननिभ: अखिलात्मार्कनन्दन: ।।
अतिदारुण अक्षोभ्य: अप्सरोभि: प्रपूजित:।
अभीष्टफलदो Sरिष्टमथनो Sमरपूजित:।।
अनुग्राह्यो अप्रमेय पराक्रम विभीषण:।
असाध्ययोगो अखिल दोषघ्न: अपराकृत:।।
अप्रमेयोSतिसुखद: अमराधिपपूजित:।
अवलोकात् सर्वनाश: अश्वत्थाम द्विरायुध:।।
अपराधसहिष्णुश्च अश्वत्थाम सुपूजित:।
अनन्तपुण्यफलदो अतृप्तोतिबलोपिच।।
अवलोकात् सर्ववन्द्य: अक्षीणकरुणानिधि:।
अविद्यामूलनाशश्च अक्षय्यफलदायक:।।
आनन्दपरिपूर्णश्च आयुष्कारक एवच ।
आश्रितेष्टार्थवरद: आधिव्याधिहरोपिच।।
आनन्दमय आनन्दकरो आयुध-धारक:।
आत्मचक्राधिकारी च आत्मस्तुत्यपरायण:।।
आयुष्करो आनुपूर्व्य: आतायत्तजगत्त्रय:।
आत्मनामजपप्रीत: आत्माधिकफलप्रद:।।
आदित्यसम्भवो आर्तिभंजनो आत्मरक्षक: ।
आपद् बान्धव आनन्दरूपो आयु:प्रदोपिच।।
आकर्णपूर्णचापश्च आत्मोद्दिष्ट द्विजप्रद:।
आनुकूल्यो आत्मरूप प्रतिमादान सु प्रिय:।।
आत्मारामो आदिदेवो आपन्नार्ति विनाशन:।
इन्दिरार्चितपादश्च इन्द्रभोगफलप्रद:।।
इन्द्रदेव स्वरुपश्च इष्टेष्टवरदायक:।
इष्टापूर्तिप्रदो इन्दुमतीष्टवरदायक: ।।
इन्दिरारमण: प्रीत: इन्द्र-वंश-नृपार्चित:।
इहामुत्रेष्टफलद: इन्दिरारमणार्चित:।।
ईद्रियो ईश्वरप्रीत: ईषणात्रयवर्जित:।
उमास्वरूपउद्बोध्य: उशना उत्सव-प्रिय:।।
उमादेव्यर्चनप्रीत: उच्चस्थोच्चफलप्रद: ।
उरुप्रकाशो उच्चस्थ योगद: उरुपराक्रम:।।
ऊर्ध्वलोकादिसंचारी ऊर्ध्वलोकादिनायक:।
ऊर्जस्वी ऊनपादश्च ऋकाराक्षरपूजित:।।
ऋषिप्रोक्त पुराणज्ञ: ऋषिभि: परिपूजित:।
ऋग्वे दवन्द्यो ऋग्रूपी ऋजुमार्ग प्रवर्तक:।।
लुलितोद्धारको लूत भवपाश प्रभंजन:।
लूकाररूपकोलब्धर्ममार्ग प्रवर्तक:।।
ऎकाधिपत्यसाम्राज्यप्रदो एनौघनाशन:।
एकपाद्येक ऎकोनविंशतिमासभुक्तिद:।।
एकोनविंशतिवर्षदशो एणांकपूजित:।
ऎश्वर्यफलदो ऎन्द्र ऎरावतसुपूजित:।।
ओंकार जपसुप्रीत: ओंकार परिपूजित:।
ओंकारबीजो औदार्य हस्तो औन्नत्यदायक:।।
औदार्यगुण औदार्य शीलो औषधकारक:।
करपंकजसन्नद्धधनुश्च करुणानिधि:।।
काल: कठिनचित्तश्च कालमेघसमप्रभ:।
किरीटी कर्मकृृत्कारयिताकालसहोदर:।।
कालाम्बर: काकवाह: कर्मठ: काश्यपान्वय: ।
कालचक्रप्रभेदी च कालरूपी च कारण: ।।
कारिमूर्ति: कालभर्तां किरीटमुकटोज्वल: ।
कार्यकारण कालज्ञ: कांचनाभरथान्वित:।।
कालदंष्ट्र: क्रोधरूप: कराली कृष्णकेतन: ।
कालात्मा कालकर्ता व कृतान्त: कृष्णगोप्रिय:।।
कालाग्निरुद्ररूपश्च काश्यपात्मजसम्भव:।
कृष्णवर्णहयश्चैव कृष्णगोक्षीरसु-प्रिय:।।
कृष्णगोघृतसुप्रीत: कृष्णगोदधिषु-प्रिय:।
कृष्णगावैकचित्तश्च कृष्णगोदानसुप्रिय:।।
कृष्णगोदत्तहृदय: कृष्णगोरक्षणप्रिय:।
कृष्णगोग्रासचित्तस्य सर्वपीडानिवारक:।।
कृष्णगोदान शान्तस्य सर्वशान्त फलप्रद:।
कृष्णगोस्नान कामस्य गंगास्नान फलप्रद:।।
कृष्णगोरक्षणस्यद्यु सर्वाभीष्टफलप्रद:।
कृष्णगावप्रियश्चैव कपिलापद्युषु प्रिय:।।
कपिलाक्षीरपानस्य सोमपानफलप्रद:।
कपिलादानसुप्रीत: कपिलाज्यहुतप्रिय:।।
कृष्णश्च कृत्तिकान्तस्थ: कृष्णगोवत्ससुप्रिय:।
कृष्णमाल्याम्बरधर: कृष्णवर्णतनूरुह:।।
कृष्णकेतु: कृशकृष्णदेह: कृष्णाम्बरप्रिय:।।
क्रूरचेष्ट: क्रूरभाव क्रूरद्रष्ट्र: कुरूपि च ।।
कमलापति सं सेव्य: कमलो वपूजित:।
कामितार्थप्रद: कामधेनु पूजनसुप्रिय:।।
कामधेनुसमाराध्य: कृपायुष विवर्धन:।
कामधेनू वैकचित्तश्च कृपराज सुपूजित:।।
कामदोग्धा च क्रुद्धश्च कुरुवंशसुपूजित:।
कृष्णांगमहिषीदोग्धा कृष्णेन कृतपूजन:।।
कृष्णांगमहिषीदानप्रिय: कोणस्थ एव च ।
कृष्णांगमहिषीदानलोलुप: कामपूजित:।।
क्रूरावलोकनात् सर्वनाश: कृष्णांगदप्रिय:।
खद्योत: खण्डन: खंगधर: खेचरपूजित:।।
खरांशुतनयश्चैव खगानां पतिवाहन:।
गोसेवासक्तहृदय:गोचरस्थानदोषहृत्।।
गृहराश्याधिपश्चैव गृहराज महाबल:।।
गृध्रवाहो गृहपति: गोचरो गानलोलुप:।।
घोरो घर्मो घनतमो घर्मी घन-कृपान्वित:।
घननीलाम्बरधरो डादिवर्ण सुसंज्ञित:।।
चक्रवर्तिसमाराध्य: चन्द्रमत्या समर्चित:।
चन्द्रमत्यार्तिहारी च चराचर सुखप्रद:।।
चतुर्भुजश्चापहस्त: चराचरहितप्रत: ।
छायापुत्र: छत्रधर: छायादेवी-सुतस्तथा ।।
जयप्रदो जगन्नीलो जपतां सर्व-सिद्धिद:।
जपविध्वस्तविमुखो जम्भारिपरिपूजित:।।
जंभारिवन्द्यो जयदो जगज्जनमनोहर:।
जगत्त्रप्रकुपितो जगत्त्राणपरायण: ।।
जयो जयप्रदश्चैव जगदानन्दकारक: ।
ज्योतिश्च ज्योतिषां श्रेष्ठो ज्योतिष्शास्त्र प्रवर्तक:।।
झर्झरीकृतदेहश्च झल्लरीवाद्यसुप्रिय:।
ज्ञानमूर्तिर्ज्ञानगम्यो ज्ञानी ज्ञानमहानिधि:।।
ज्ञानप्रबोधकश्चैव ज्ञानदृष्ट्यावलोकित:।
टंकिताखिललोकश्च टंकितैन-स्तमोरवि:।।
टंकारकारकश्चैव टिड्कृतो-टाम्भदप्रिय:।
ठकारमय सर्वस्व: ठकारकृतपूजित:।।
डक्कावाद्यप्रीतिकर: डमडुमरुकप्रिय: ।
डम्भरप्रभवो डम्भ: डक्कानादप्रियकंर:।।
डाकिनी शाकिनी भूत सर्वोपद्रवकारक: ।
डाकिनी शाकिनी भूत सर्वोपद्रवनाशक:।।
ढकाररूपो डाम्भीको णकारजपसुप्रिय: ।
णकारमयमन्त्रार्थ: णकारैकशिरोमणि:।।
णकारवचनानन्द: णकारकरुणामय:।
णकारमय सर्वस्व: णकारैकपरायण:।।
तर्जनीघृतमुद्रश्च तपसां फलदायक:।
त्रिविक्रमनुतश्चैव त्रयीमयवपुर्धर: ।।
तपस्वी तपसा दग्धदेह: ताम्राधरस्तधा ।
त्रिकालवेदितव्यश्च त्रिकालमतितोषित:।।
तुलोच्चय: त्रासकर: तिलतैलप्रियस्तथा ।
तेलान्न सन्तुष्टमना: तिलदानप्रियस्तथा:।।
तिलभक्ष्यप्रियश्चैव तिलचूर्णप्रियस्तथा।
तिलखण्डप्रियश्चैव तिलापूपप्रियस्तथा।।
तिलहोमप्रियश्चैव तापत्रयनिवारक:।
तिलतर्पणसन्तुष्ट: तिलतैलान्नतोषित:।।
तिलैकदत्तहृदय तेजस्वी तेजसान्निधि:।
तेजसादित्यसंकाश: तेजोमय वपुर्धर:।।
तत् वज्ञ: तत् वगस्तीव्र: तपोरूप: तपोमय:।
तुष्टिदस्तुष्टिकृत् तीक्ष्ण: त्रिमूर्ति: त्रिगुणात्मक: ।।
तिलदीपप्रियश्चैव तस्य पीडानिवारक:।
तिलोत्तमामेन कादिनर्तनप्रियएवच।।
त्रिभागमष्टवर्गश्च स्थूलरोमा स्थिरस्तथा।
स्थित: स्थायी स्थापकश्च स्थूलसूक्ष्म-प्रदर्शक:।।
दशरथार्चितपादश्च दशरथस्तोत्रतोषित:।
दशरथप्रार्थनाक्लप्त दुर्भिक्ष विनिवारक:।।
दशरथ प्रार्थनाक्लप्त वरद्वय प्रदायक: ।
दशरथस्वात्मदर्शी च दशरथाभीष्टदायक:।।
दोर्भिर्धनुर्धरश्चैव दीर्घश्मश्रुजटाधर:।
दशरथस्तोत्रवरद: दशरथाभीप्सितप्रद:।।
धर्मरूपो धनुर्दिव्यो धर्मशास्त्रात्मचेतन: ।
धर्मराज प्रियकरो धर्मराज सुपूजित:।।
धर्मराजेष्टवरदो धर्माभीष्टफलप्रद: ।
नित्यतृप्तस्वभावश्च नित्यकर्मरतस्तथा।।
निजपीडार्तिहारी च निजभक्तेष्टदायक:।
निर्मांसदेहो नीलश्च निजस्तोत्र बहुप्रिय:।।
नलस्तोत्र प्रियश्चैव नलराजसुपूजित: ।
नक्षत्रमण्दलगतो नमतां प्रियकारक:।।
नित्यार्चितपदाम्भोजो निजाज्ञा परिपालक:।
नवग्रहवरो नीलवपुर्नलकरार्चित: ।।
नलप्रियानन्दितश्च नलक्षेत्रनिवासक:।
नलपाक प्रियश्चैव नलप ण्जनक्षम: ।।
नलसर्वार्तिहारी च नलेनात्मार्थपूजित: ।
निपाटवीनिवासश्च नलाभीष्टवरप्रद:।।
नलतीर्थसकृत् स्नान सर्वपीडानिवारक: ।
नलेशदर्शनस्याशु साम्राज्यपदवीप्रद: ।।
नक्षत्रराश्याधिपश्च नीलध्वजविराजित: ।
नित्ययोगरतश्चैव नवरत्नविभूषित:।।
विधा भज्यदेहश्च नवीकृत-जगत्त्रय: ।
नवग्रहाधिपश्चैव नवाक्षरजपप्रिय: ।।
नवात्मा नवचक्रात्मा नवतत्वाधिपस्तथा ।
नवोदन प्रियश्चैव नवधान्यप्रियस्तथा ।।
निष्कण्टको निस्पृहश्च निरपेक्षो निरामय:।
नागराजार्चिपदो नागाराजप्रियंकर:।।
नागराजेष्टवरदो नागाभरण भूषित: ।
नागेन्द्रगान निरत: नानाभरणभूषित: ।।
नवमित्र स्वरूपश्च नानाश्चर्यविधायक: ।
नानाद्वीपाधिकर्ता च नानालोपिसमावृत:।।
नानारूप जगत् स्रष्टा नानारूपजनाश्रय: ।
नानालोकाधिपश्चैव नानाभाषाप्रियस्तथा।।
नानारूपाधिकारी च नवरत्नप्रियस्तथा।
नानाविचित्रवेषाढ्य: नानाचित्र विधायक: ।।
नीलजीमूतसंकाशो नीलमेघसमप्रभ:।
नीलांचनचयप्रख्य: नीलवस्त्रधरप्रिय: ।।
नीचभाषा प्रचारज्ञो नीचे स्वल्पफलप्रद:।
नानागम विधानज्ञो नानानृपसमावृत:।।
नानावर्णाकृतिश्चैव नानावर्णस्वरार्तव: ।
नानालोकान्तवासी च नक्षत्रत्रयसंयुत: ।।
नभादिलोकसम्भूतो नामस्तोत्रबहुप्रिय:।
नामपारायणप्रीतो नामार्श्चनवरप्रद:।।
नामस्तोत्रैकचित्तश्च नानारोगार्तिभंजन:।
नवग्रहसमाराध्य: न शग्रह भयापह:।।
नवग्रहसुसंपूज्यो नानावेद सुरक्षक: ।
नवग्रहाधिराजश्च नवग्रहजपप्रिय:।।
नवग्रहमयज्योति: नवग्रह वरप्रद:।
नवग्रहाणामधिपो नवग्रह सुपीडित:।।
नवग्रहाधीश्वरश्च नवमाणिक्यशोभित:।
परमात्मा परब्रह्म परमैश्वर्यकारण:।।
प्रपन्नभयहारी च प्रमत्तासुरशिक्षक:।
प्रासहस्त: पड्गुपादो प्रकाशात्मा प्रतापवान्।।
पावन: परिशुद्धत्मा पुत्र-पौत्र प्रवर्धन: ।
प्रसन्नात् सर्वसुखद: प्रसन्नेक्षण एव च ।।
प्रजापत्य: प्रियकर: प्रणतेप्सितराज्यद:।
प्रजानां जीवहेतुश्च प्राणिनां परिपालक:।।
प्राणरूपी प्राणधारी प्रजानां हितकारक:।
प्राज्ञ: प्रशान्त: प्रज्ञावान् प्रजारक्षणदीक्षित:।।
प्रावृषेण्य: प्राणकारी प्रसन्नोत् सर्ववन्दित:।
प्रज्ञानिवासहेतुश्च पुरुषार्थैकसाधन:।।
अजाकर: प्रानकूल्य: पिंगलाक्ष: प्रसन्नधी:।
प्रपंचात्मा प्रसविता पुराण पुरुषोत्तम:।।
पुराण पुरुषश्चैव पुरुहूत: प्रपंचधृत्।
प्रतिष्ठित: प्रीतिकर: प्रियकारी प्रयोजन:।।
प्रीतिमान् प्रवरस्तुत्य: पुरूरवसमर्चित:।
प्रपंचकारी पुण्यश्च पुरुहूत समर्चित:।।
पाण्डवादि सुसंसेव्य: प्रणव: पुरुषार्थद:।
पयोदसमवर्णश्च पाण्डुपुत्रार्तिभंजन:।।
पाण्डुपुत्रेष्टदाता च पाण्डवानां हितंकर:।
पंचपाण्डवपुत्राणां सर्वाभीष्टफलप्रद:।।
पंचपाण्डवपुत्राणां सर्वारिष्ट निवारक:।
पाण्डुपत्राद्यर्चितश्चपूर्वजश्च प्रपंचभृत्।।
परचक्रप्रभेदी च पाण्डुवेषु वनप्रद:।
परब्रह्म स्वरूपश्च पराज्ञा परिवर्जित:।।
परात्पर: पाशहन्ता परमाणु प्रपंचकृत्।
पातंगी पुरुषाकार: परशम्भु-समु व:।।
प्रसन्नात् सर्वसुखद: प्रपंचो वसम्भव: ।
प्रसन्न: परमोदार: पराहकांरभंजन:।।
पर: परमकारुण्य: परब्रह्म-मयस्तथा ।
प्रपन्नभयहारी च प्रणतार्तिहरस्तथा।।
अप्रसादकृत् प्रपंचश्च पराशक्ति समुद्भव:।
प्रदानपावनश्चैव प्रशान्तात्मा प्रभाकर: ।।
प्रपंचात्मा प्रपंचो-प्रशमन: पृथिवीपति:।
परशुराम समाराध्य: परशुराम – वरप्रद:।।
परशुराम चिरंजीविप्रद: परमसावन: ।
परमहंसस्वरूपश्च परमहंससुपूजित:।।
पंचनक्षत्राधिपश्च पंचनक्षत्रसेवित:।
प्रपंच रक्षितश्चैव प्रपंचस्य भयंकर: ।।
फलदानप्रियश्चैव फलहस्त: फलप्रद: ।
फलाभिषेकप्रियश्च फल्गुनस्य वरप्रद:।।
पुटच्छमित पापौघ: फल्गुनेन प्रपूजित:।
फणिराजप्रियश्चैव पुल्लाम्बुज विलोचन:।।
बलिप्रियो बलीबभ्रु: ब्रह्मविष्ण्वीश क्लेशकृत्।
ब्रह्मविष्णीशरूपश्च ब्रह्मशक्रादिदुर्लभ:।।
बासदष्टर्या प्रमेयांगो बिभ्रत् कवच-कुण्डल:।
बहुश्रुतो बहुमति: ब्रह्मण्यो ब्राह्मणप्रिय:।।
बलप्रमथनो ब्रह्मा बहुरूपो बहुप्रद:।
बालार्कद्युतिमान् बालो बृहव्दक्षो बृहत्तम:।।
ब्रह्मण्डभेदकृंचैव भक्तसर्वार्थसाधक:।
भव्यो भोक्ता भीतिकृंच-भक्तानुग्रहकारक:।।
भीषणो भैक्षकारी च भूसुरादि सुपूजित: ।
भोग-भाग्य-प्रदश्चैव भस्मीकृत जगत् त्रय:।।
भयानको भानुसूनु: भूतिभूषित विग्रह:।
भास्वद्रतो भक्तिमतां सुलभो भ्रकुटीमुख:।।
भवभूत गणैस्स्तुत्यो भूतसंगसमावृत:।
भ्राजिष्णुर्भगवान् भीमो भक्ताभीष्टवरप्रद:।।
भवभक्तैकचित्तश्च भक्तिगीत-स्तवोन् मुख:।
भूतसन्तोषकारी च भक्तानां चित्तशोधक:।।
भक्तिगम्यो भयहरो भावज्ञो भक्तसुप्रिय:।
भूतिदो भूतिकृत् भोज्यो भूतात्मा भुवनेश्वर:।।
मन्दो मन्दगतिश्चैव मासमेव प्रपूजित:।
मुचुकुन्द समाराध्यो मुचुकुन्द वरप्रद:।।
मुचुकुन्दार्चितपदो महारूपो महायशा:।
महाभोगी महायोगी महाकायो महाप्रभु:।।
महेशो महदैश्वर्यो मन्दार-कुसुमप्रिय:।
महाक्रतुर्महामानी महाधीरो महाजय:।।
महावीरो महाशान्तो मण्डलस्थो महाद्युति:।
महासुतो मेहादारो महनीयो महोदय:।।
मैथिलीवरदायी च मार्ताण्डस्य द्वितीयज:।
मैथिलीप्रार्थनाकल्प्त दशकण्ठ शिरोपहृत्।।
मरामरहराराध्यो महेन्द्रादि सुरार्चित।
महारथो महावेगो मणिरत्नविभूषित:।।
मेषनीचो महाघोरो महासौरि र्मनुप्रिय:।
महादीर्घो महाग्रासो महदैश्चर्यदायक:।।
महाशुष्को महारौद्रो मुक्तिमार्ग प्रदर्शक:।
मकर-कुम्भाधिपश्चैव मृकण्डुतनयार्चित:।।
मन्त्राधिष्ठानरूपश्च मल्लिका-कुसुमप्रिय:।
महामन्त्र स्वरूपश्च महायन्त्र-स्थितस्तथा।।
महाप्रकाशदिव्यात्मा महादेवप्रियस्तथा।
महाबलि समाराध्यो महर्षिगणपूजित:।।
मन्दचारी महामायी माषदानप्रियस्तथा।
माषोदान प्रीतचित्तो महाशक्तिर्महागुण:।।
यशस्करो योगदाता यज्ञांगोSपि युगन्धर:।
योगी योग्यश्च याम्यश्च योगरूपी युगाधिप:।।
यज्ञभृद्यजमानश्च योगो योगविदां वर:।
यक्ष-राक्षस-वेताल कूष्माण्डादिप्रपूजित:।।
यमप्रत्यधिदेवश्च युगपत् भोगदायक:।
योगप्रियो योगयुक्तो यज्ञरूपो युगान्तकृत्।।
रघुवंश समाराध्यो रौद्रो रौद्राकृति स्तथा।
रघुनन्दन सल्लापो रघुप्रोक्त जपप्रिय:।।
रौद्ररूपी रथारूढो राघवेष्ट वरप्रद:।
रथी रौद्राधिकारी च राघवेण समर्चित:।।
रोषात् सर्वस्वहारी च राघवेण सुपूजित:।
राशिद्वयाधिपश्चैव रघुभि: परिपूजित:।।
राज्यभूपाकरश्चैव राजराजेन्द्र वन्दित:।
रत्नकेयुरभूषाढ्यो रमानन्दनवन्दित:।।
रघुपौ षसन्तुष्टो रघुस्तोत्रबहुप्रिय:।
रघुवंशनृपै पूज्यो रणन्मंजीरनूपुर:।।
रविनन्दन राजेन्द्रो रघुवंशप्रियस्तथा।
लोहजप्रतिमादानप्रियो लावण्यविग्रह:।।
लोकचूडामणिश्चैव लक्ष्मीवाणीस्तुतिप्रिय:।
लोकरक्षो लोकशिक्षो लोकलोचनरंजित:।।
लोकाध्यक्षो लोकवन्द्योक्ष्मणाग्रजपूजित:।
वेदवेद्यो वज्रदेहो वज्रांकुशधरस्तथा।।
विश्ववन्द्यो विरूपाक्षो विमलांगविराजित:।
विश्वस्थो वायसारूढो विशेषसुखकारका।।
विश्वरूपी विश्वगोप्ता विभावसु सुतस्तथा।
विप्रप्रियो विप्ररूपो विप्राराधन तत्पर:।।
विशालनेत्रो विशिखो विप्रदानबहुप्रिय:।
विश्वसृष्टि समुद्भूतो वैश्वानरसमद्युति:।।
विष्णुर्विरिंचिर्विश्वेशो विश्वकर्ता विशाम्पति:।
विराडाधारचक्रस्थो विश्वभुग्विश्वभावन:।।
विश्वव्यापारहेतुश्च वक्र क्रूर-विवर्जित:।
विश्वो वो विश्वकर्मा विश्वसृष्टि विनायक:।।
विश्वमूलनिवासी च विश्वचित्रविधायक:।
विश्वधारविलासी च व्यासेन कृतपूजित:।।
विभीषणेष्ट वरदो वांचितार्थ-प्रदायक:।
विभीषणसमाराध्यो विशेषसुखदायक:।।
विषमव्ययाष्ट जन्मस्थोप्येकादशफलप्रद:।
वासवात्मजसुप्रीतो वसुदो वासवार्श्चित:।।
विश्वत्राणैकनिरतो वाड्भनोतीतविग्रह:।
विराण्मन्दिरमूलस्थो वलीमुखसुखप्रद:।।
विपाशो विगतातंको विकल्पपरिवर्जित:।
वरिष्ठो वरदो वन्द्यो विचित्रांगो विरोचन:।।
शुष्कोदर: शुक्लवपु: शान्तरूपी शनैश्चर:।
शूली शरण्य: शान्तश्च शिवायामप्रियंकर:।।
शिवभक्तिमतां श्रेष्ठ: शूलपाणिश्युचिप्रिय:।
श्रुतिस्मृतिपुराणज्ञ: श्रुतिजालप्रबोधक:।।
श्रुतिपारग संपूज्य: श्रुतिश्रवणलोलुप:।
श्रुत्यन्तर्गतमर्मज्ञ: श्रुत्येष्टवरदायक:।।
श्रुतिरूप: श्रुतिप्रीत: श्रुतीस्प्सितफलप्रद:।
शुचिश्रुत: शांतमूर्ति: श्रुति: श्रवण कीर्तन:।।
शमीमूलनिवासी च शमीकृतफलप्रद:।
शमीकृतमहाघोर: शरणागत – वत्सल:।।
शमीतरुस्वरूपश्च शिवमन्त्रज्ञमुक्तिद:।
शिवागमैकनिलय: शिवमन्त्रजपप्रिय:।।
शमीपत्रप्रियश्चैव शमीपर्णसमर्चित:।
शतोपनिषदस्तुत्यो शान्त्यादिगुणभूषित:।।
शान्त्यादिषड्गुणोपेत: शंखवाद्यप्रियस्तथा।
श्यामरक्तसितज्योति: शुद्धपंचाक्षरप्रिय:।।
श्रीहालास्यक्षेत्रवासी श्रीमान् शक्तिधरस्तथा।
षोडशद्वयसम्पूर्णलक्षण: षण्मुखप्रिय:।।
षड्गुणैश्वर्यसंयुक्त: षडंगावरणोज्वल:।
षडक्षरस्वरूपश्च षट्चक्रोपरि संस्थित:।।
षोडसी षोडशांतश्च षट्छक्तिव्यक्त-पूर्तिमान्।
षड्भावरहितश्चैव षडंगश्रुतिपारग:।।
षट्कोणमध्यनिलय: षट्छास्त्रस्मृतिपारग:।
स्वर्णेन्द्रनीलमुकुट: सर्वाभीष्टप्रदायक:।।
सर्वात्मा सर्वदोषघ्न: सर्वगर्वप्रभंजन:।
समस्तलोकाभयद: सर्वदोषांगनाशक:।।
समस्तभक्तसुखद: सर्वदोषनिवर्तक:।
सर्वनाशक्षमस्सौम्य: सर्वक्लेशनिवारक:।।
सर्वात्मा सर्वदा तुष्ट: सर्वपीडानिवारक:।
सर्वरूपी सर्वकर्मा सर्वज्ञ: सर्वकारक:।।
सुकृती सुलभश्चैव सर्वाभीष्टफलप्रद:।
सूरात्मजस्सदातुष्ट: सूर्यवंशप्रदीपन:।।
सप्तद्वीपाधिपश्चैव सुरा – सुरभयंकर:।
सर्वसंक्षोभहारी च सर्वलोकहितंकर:।।
सर्वौदार्यस्वभावश्च सन्तोषात् सकलेष्टद:।
समस्तऋषिभिसंस्तुत्य: समस्तगणपावृत:।।
समस्तगणसंसेव्य: सर्वारिष्टविनाशन:।
सर्वसौख्यप्रदाता च सर्वव्याकुलनाशन:।।
सर्वसंक्षोभहारी च सर्वारिष्ट-फलप्रद:।
सर्वव्याधिप्रशमन: सर्वमृत्युनिवारक:।।
सर्वानुकूलकारी च सौन्दर्यमृदुभाषित:।
सौराष्ट्रदेशोद्भवश्च स्वक्षेत्रेष्ट्रवरप्रद:।।
सोमयाजि समाराध्य: सीताभीष्ट वरप्रद:।
सुखासनोपविष्टश्च सद्य: पीडानिवारक:।।
सौदामनीसन्निभश्च सर्वानुल्लड्घ्यशासन:।
सूर्यमण्डलसंचारी संहाराश्त्रनियोजित:।।
सर्वलोकक्षयकर: सर्वारिष्टविधायक:।
सर्वव्याकुलकारी च सहस्त्र-जपसुप्रिय:।।
सुखासनोपविष्टश्च संहारास्त्रप्रदर्शित:।
सर्वालंकार संयुक्तकृष्णगोदानसुप्रिय:।।
सुप्रसन्नस्सुरश्रेष्ठ सुघोष: सुखदस्सुहृत्।
सिद्धार्थ: सिद्धसंकल्प: सर्वज्ञस्सर्वदस्सुखी।।
सुग्रीवस्सुधृतिस्सारस्सुकुमार स्सुलोचन:।
सुव्यक्तस्सच्चिदानन्द: सुवीरस्सुजनाश्रय:।।
हरिश्चन्द्रसमाराध्यो हेयेपादेयवर्जित:।
हरिश्चन्द्रेष्टवरदो हन्समन्त्रादि संस्तुत:।।
हन्सवाह समाराध्यो हन्सवाहवरप्रद:।
ह्र्द्यो हृष्टो हरिसखो हन्सो हन्सगतिर्हवि:।।
हिरण्यवर्णोहितकृद्धर्षदो हेमभूषण:।
हविर्होता हन्सगति र्हंसमन्त्रादिसंस्तुत:।।
हनूमदर्चितपदो हलधृत् पूजितसदा।
क्षेमद: क्षेमकृत्क्षेम्य: क्षेत्रज्ञ: क्षामवर्जित:।।
क्षुद्रघ्न क्षान्तिद: क्षेम: क्षितिभूष: क्षमाश्रय:।
क्षमाधर: क्षयद्वारो नाम्रामष्टसहस्त्रकम् ।।
वाक्येनैकेन् वक्ष्यामि वांचितार्थ प्रयच्छति।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन नियमेन जपेत् सुधी:।।