गुरुवार, 26 नवंबर 2020

भीष्म पंचक व्रत विधि, और महत्त्व

 भीष्म पंचक व्रत विधि, और महत्त्व

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पुराणों तथा हिंदू धर्म ग्रंथों में कार्तिक माह में ‘भीष्म पंचक’ व्रत का विशेष महत्त्व कहा गया है। यह व्रत कार्तिक माह में शुक्ल पक्ष की एकादशी से आरंभ होता है तथा पूर्णिमा तक चलता है। भीष्म पंचक को ‘पंच भीखू’ के नाम से भी जाना जाता है। धर्म ग्रंथों में कार्तिक स्नान को बहुत महत्त्व दिया गया है। अतः कार्तिक स्नान करने वाले सभी लोग इस व्रत को करते हैं। भीष्म पितामह ने इस व्रत को किया था इसलिए यह ‘भीष्म पंचक’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।


कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक के अंतिम पाँच दिन पुण्यमयी तिथियाँ मानी जाती हैं। इनका बड़ा विशेष प्रभाव माना गया है। अगर कोई कार्तिक मास के सभी दिन स्नान नहीं कर पाये तो उसे अंतिम पांच दिन सुबह सूर्योदय से पहले स्नान कर लेने से सम्पूर्ण कार्तिक मास के प्रातःस्नान के पुण्यों की प्राप्ति कही गयी है। जैसे कहीं अनजाने में जूठा खा लिया है तो उस दोष को निवृत्त करने के लिए बाद में आँवला, बेर या गन्ना चबाया जाता है। इससे उस दोष से आदमी मुक्त होता है, बुद्धि स्वस्थ हो जाती है। जूठा खाने से बुद्धि मारी जाती है। जूठे हाथ सिर पर रखने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, कमजोर होती है। इसी प्रकार दोषों के शमन और भगवदभक्ति की प्राप्ति के लिए कार्तिक के अंतिम पाँच दिन प्रातःस्नान, श्रीविष्णुसहस्रनाम’ और ‘गीता’ पाठ विशेष लाभकारी है। 


भीष्म पंचक की पौराणिक कथा 

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महाभारत युद्ध के बाद जब पांण्डवों की जीत हो गयी तब श्री कृष्ण भगवान पांण्डवों को भीष्म पितामह के पास ले गये और उनसे अनुरोध किया कि आप पांण्डवों को अमृत स्वरूप ज्ञान प्रदान करें. भीष्म भी उन दिनों शर सैय्या पर लेटे हुए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतिक्षा कर रहे थे. कृष्ण के अनुरोध पर परम वीर और परम ज्ञानी भीष्म ने कृष्ण सहित पाण्डवों को राज धर्म, वर्ण धर्म एवं मोक्ष धर्म का ज्ञान दिया. भीष्म द्वारा ज्ञान देने का क्रम कार्तिक शुक्ल एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक पांच दिनों तक चलता रहा. भीष्म ने जब पूरा ज्ञान दे दिया तब श्री कृष्ण ने कहा कि आपने जो पांच दिनों में ज्ञान दिया है यह पांच दिन आज से अति मंगलकारी हो गया है. इन पांच दिनों को भविष्य में भीष्म पंचक व्रत के नाम से जाना जाएगा. यह व्रत अति मंगलकारी और पुण्यदायी होगा।

आपने कार्तिक महीने की एकादशी के दिन जल की याचना की है और अर्जुन ने पृथ्वी को बाण से वेधकर आपकी तृप्ति के लिए गंगाजल प्रस्तुत किया है। जिससे आपके तन, मन तथा प्राण सन्तुष्ट हो गये। अत: आज से लेकर पूर्णिमा तक सब लोग आपको अर्घ्यदान से तृप्त करें तथा मुझको प्रसन्न करने वाले प्रतिवर्ष इस भीष्म पंचक व्रत का पालन करें। अत: प्रतिवर्ष भीष्म तर्पण करना चाहिए. यह सभी वर्णों के लिए श्रेयस्कर है।


भीष्मजी को अर्ध्य देने से पुत्रहीन को पुत्र प्राप्त होता है। जिसको स्वप्नदोष या ब्रह्मचर्य सम्बन्धी गन्दी आदतें या तकलीफें हैं, वह इन पांच दिनों में भीष्मजी को अर्ध्य देने से ब्रह्मचर्य में सुदृढ़ बनता है। हम सभी साधकों को इन पांच दिनों में भीष्मजी को अर्ध्य जरुर देना चाहिए और ब्रह्मचर्य रक्षा के लिए प्रयत्न करना चाहिए।


पंच भीखू कथा

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पंच भीखू व्रत में एक अन्य कथा का भी उल्लेख आता है। इस कथा के अनुसार एक नगर में एक साहूकार था। इस साहूकार की पुत्रवधु बहुत ही संस्कारी थी। वह कार्तिक माह में बहुत पूजा-पाठ किया करती थी। कार्तिक माह में वह ब्रह्म मुहुर्त में ही गंगा में स्नान के लिए जाती थी। जिस नगर में वह रहती थी, उस नगर के राजा का बेटा भी गंगा स्नान के लिए जाता था। उसके अंदर बहुत अहंकार भरा था। वह कहता कि कोई भी व्यक्ति उससे पहले गंगा स्नान नहीं कर सकता है। जब कार्तिक स्नान के पांच दिन रहते हैं, तब साहूकार की पुत्रवधु स्नान के लिए जाती है। वह जल्दबाजी में हार भूल जाती है और वह हार राजा के लड़के को मिलता है। हार देखकर वह उस स्त्री को पाना चाहता है। इसके विषय में यह कहा गया है कि वह एक तोता रख लेता है ताकि वह उसे बता सके कि साहूकार की पुत्रवधु आई है, लेकिन साहूकार की पुत्रवधु भगवान से अपने पतिव्रता धर्म की रक्षा करने की प्रार्थना करती है। भगवान उसकी रक्षा करते हैं। उनकी माया से रोज रात में साहूकार के बेटे को नींद आ जाती। वह सुबह सो कर उठता और तोते से पूछता है, तब वह कहता है कि वह स्नान करने आई थी। पांच दिन स्नान करने के बाद साहूकार की पुत्रवधु तोते से कहती है कि मैं पांच दिन तक स्नान कर चुकी हूं, तुम अपने स्वामी से मेरा हार लौटाने को कह देना। राजा के पुत्र को समझ आ गया कि वह स्त्री कितनी श्रद्धालु है। कुछ समय बाद ही राजा के पुत्र को कोढ़ हो जाता है। राजा को जब कोढ़ होने का कारण पता चलता है, तब वह इसके निवारण का उपाय ब्राह्मणों से पूछता है। ब्राह्मण कहते हैं कि यह साहूकार की पुत्रवधु को अपनी बहन बनाए और उसके नहाए हुए पानी से स्नान करे, तब यह ठीक हो सकता है। राजा की प्रार्थना को साहूकार की पुत्रवधु स्वीकार कर लेती है और राजा का पुत्र ठीक हो जाता है। भीष्म पंचक व्रत अति मंगलकारी और पुण्यदायी है। जो कोई भी श्रद्धापूर्वक इस व्रत को करता है, उसे मृत्यु पश्चात उत्तम गति प्राप्त होती है। यह व्रत पूर्व संचित पाप कर्मों से मुक्ति प्रदान करने वाला और कल्याणकारी है। जो भी यह व्रत रखता है, उसे प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त होता है।


भीष्म पंचक व्रत नियम 

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पद्म पुराण में श्री भीष्म पंचक व्रत की महिमा का वर्णन इस प्रकार से है। 


भीष्म पंचक व्रत में चार द्वार वाला एक मंडप बनाया जाता है। मंडप को गाय के गोबर से लीप कर मध्य में एक वेदी का निर्माण किया जाता है। वेदी पर तिल रख कर कलश स्थापित किया जाता है। इसके बाद भगवान वासुदेव की पूजा की जाती है। इस व्रत में कार्तिक शुक्ल एकादशी से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तिथि तक घी के दीपक जलाए जाते हैं। 

 

प्रतिदिन “ऊँ नमो वासुदेवाय” मंत्र का 108 बार जाप करें. प्रतिदिन संध्या के समय संध्या वन्दना कर उपरोक्त मंत्र का 108 बार जाप कर भूमि पर शयन करें. एकादशी से भगवान विष्णु का पूजन कर उपवास रखें. उसके बाद द्वादशी के दिन व्रतधारी मनुष्य भूमि पर बैठकर मन्त्रोचारण के साथ गोमूत्र का सेवन करें. त्रयोदशी को केवल दूध ग्रहण करें. चतुर्दशी को दही का सेवन करें. इस प्रकार चार दिनों तक व्रत करें, जिससे शरीर की शुद्धि होती है. पांचवें दिन स्नान कर भगवान केशव की पूजा करें तथा ब्राह्मणों को भोजन करा उन्हें दक्षिणा दें. 

शाकाहारी भोजन करें तथा हर पल श्री हरि का पूजन करें. उसके बाद पंचगव्य खाकर अन्न ग्रहण करें. विधिपूर्वक इस व्रत को पूरा करने से मनुष्य को शास्त्रों में लिखे फलों की प्राप्ति होती है. इस व्रत को करने से पुत्र की प्राप्ति होती है. महापातकों का नाश होता है तथा मनुष्य परमपद को प्राप्त करता है, ऎसा पद्म पुराण में कहा गया है।

इस व्रत में गंगा पुत्र भीष्म की तृप्ति के लिए श्राद्ध और तर्पण का विधान है।


भीष्म तर्पण के लिए निम्न मन्त्र शुद्धभाव से पढ़कर तर्पण करना चाहिए।

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तर्पण मंत्र👉 सत्यव्रताय शुचये गांगेयाय महात्मने।

भीष्मायेतद् ददाम्यर्घ्यमाजन्म ब्रह्मचारिणे ।।


अर्थ👉 आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले परम पवित्र सत्यव्रत पारायण गंगानन्दन महात्मा भीष्म को मैं अर्घ्य देता हूँ।


जो मनुष्य निम्नलिखित मंत्र द्वारा भीष्म जी के लिए अर्घ्यदान करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

 

अर्घ्य मंत्र👉 


वैयाघ्रपद गोत्राय सांकृत्यप्रवराय च ।

अपुत्राय ददाम्येतदुदकं भीष्मवर्मणे ।।

वसूनामवताराय शन्तनोरात्मजाय च ।

अर्घ्यं ददानि भीष्माय आजन्म ब्रह्मचारिणे ।।


अर्थ👉 जिनका गोत्र व्याघ्रपद और सांकृतप्रवर है, उन पुत्र रहित भीष्म जी को मैं जल देता हूँ. वसुओं के अवतार, शान्तनु के पुत्र, आजन्म ब्रह्मचारी भीष्म को मैं अर्घ्य देता हूँ. जो भी मनुष्य अपनी स्त्री सहित पुत्र की कामना करते हुए भीष्म पंचक व्रत का पालन करता हुआ तर्पण और अर्घ्य देता है. उसे एक वर्ष के अन्दर ही पुत्र की प्राप्ति होती है. इस व्रत के प्रभाव से महापातकों का नाश होता है. 

अर्घ्य देने के बाद पंचगव्य, सुगन्धित चन्दन के जल, उत्तम गन्ध व कुंकुम द्वारा सभी पापों को हरने वाले श्री हरि की पूजा करें. भगवान के समीप पाँच दिनों तक अखण्ड दीप जलाएँ. भगवान श्री हरि को उत्तम नैवेद्य अर्पित करें. पूजा-अर्चना और ध्यान नमस्कार करें. उसके बाद “ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय” मन्त्र का 108 बार जाप करें. प्रतिदिन सुबह तथा शाम दोनों समय सन्ध्यावन्दन करके ऊपर लिखे मन्त्र का 108 बार जाप कर भूमि पर सोएं. व्रत करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करना अति उत्तम है. शाकाहारी भोजन अथवा मुनियों से प्राप्त भोजन द्वारा निर्वाह करें और ज्यादा से ज्यादा समय विष्णु पूजन में व्यतीत करें. विधवा स्त्रियों को मोक्ष की कामना से यह व्रत करना चाहिए. 

पूर्णमासी के दिन ब्राह्मणों को भोजन कराएँ तथा बछड़े सहित गौ दान करें. इस प्रकार पूर्ण विधि के साथ व्रत का समापन करें. पाँच दिनों का यह भीष्म पंचक व्रत-एकादशी से पूर्णिमा तक किया जाता है. इस व्रत में अन्न का निषेध है अर्थात इन पाँच दिनों में अन्न नहीं खाना चाहिए. इस व्रत को विधिपूर्वक पूर्ण करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं तथा सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं। 

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शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

शास्त्रों के अनुसार स्त्री सहवास

 अनेकों जन्मों के पुण्यकर्मों से जीव मनुष्य शरीर प्राप्त करता है।


माता-पिता द्वारा खाये हुए अन्न से शुक्र-शोणित बनता है , माता के पेट में मिलकर रज की अधिकता से स्त्री , शुक्र की अधिकता से पुरुष होता है , यदि दोनों का तेज समान हो तो नपुंसक होता है ।


ऋतुस्नाता पत्नी के ४ दिन बाद ५वें दिन से लेकर १६ दिन तक ऋतुकाल होता है ।


विषम रात्रियों में ५, ७, ९, ११, १३, १५ रात्रियों में भोग से कन्या तथा सम रात्रियों में ६ , ८, १०, १२, १४, १६ इनमें बालक का जन्म होता है ।


विषम रात्रियों में यदि पति का शुक्र अधिक है तो होता तो बालक है , किन्तु आकार बालिका की तरह तथा सम रात्रियों के संयोग में स्त्री की रज की अधिकता में कन्या होती है , किन्तु उसका रूप पुत्र जैसा होता है ।


लिङ्गपुराण में कहा है -----


"चतुर्थ्यां रात्रौ विद्याहीनं व्रतभ्रष्टम् पतितं परदारिकम् दरिद्रार्णव मग्नं च तनयं सा प्रसूयते ।

पञ्चम्यामुत्तमांकन्यां षष्ठ्यां सत्पुत्रं सप्तम्यां कन्यां अष्टम्यां सम्पन्नं पुत्रम् ।।

त्रयोदश्यां व्यभिचारिणी कन्या चतुर्दश्यां सत्पुत्रं पंचदश्यां धर्मज्ञा कन्यां षोडश्यां ज्ञानं पारंगपुत्रं प्रसूयते ।।"


अर्थात् == चौथी रात्रि में विद्यारहित , व्रतभ्रष्ट , परस्त्री-गामी , निर्धनता के सागर में डूबे हुए पुत्र को जन्म देती है , पांचवीं रात्रि में उत्तमा कन्या , षष्ठी में सत्पुत्र , सातवीं में कन्या , आठवीं में धनवान् पुत्र , तेहरवीं में व्यभिचारिणी कन्या , चौदवीं में सत्पुत्र , पन्द्रहवीं में धर्माज्ञा कन्या , सोहलवीं में ज्ञानी पुत्र या चक्रवर्ती सम्राट को जन्म देती है ।" 


ऋतुस्नाता पत्नी इच्छापूर्वक जिसका मुख देखती है , उसी रूप की सन्तान होती है , अतः अपने पति का ही मुख देखना चाहिए ।


शास्त्र-वचनों से सिद्ध है कि पहली चार रात्रि में पति स्त्री का दर्शन , स्पर्श तथा सम्भाषण भी न करे , यदि पति उस समय पत्नी द्वारा बनाये भोजनादि करता है तो उस समय उसके हाथ का भोजन लाखों रोगों को जन्म देता है ।


पराशर स्मृति में यहां तक आया है कि रजस्वला ब्राह्मणी-- ब्राह्मणी को अथवा क्षत्राणी -- क्षत्राणी को, वैश्या -- वैश्यों को , शूद्रा -- शूद्रा को तथा अपनी विजातीय अथवा अपने से उच्च या नीच जाति के स्त्री का भी स्पर्श न करें ।


यदि करती है तो ब्राह्मणी चौगुणा , क्षत्राणी त्रिगुणा , वैश्या दुगुणा शूद्रा स्त्री की अपेक्षा प्रायश्चित करें ।


पांचवीं से लेकर सोहलवीं रात्रियों के बीच भी यदि कोई पर्व आ जाये , तो स्त्री-संसर्ग नहीं करना चाहिए ।


पर्वों में पूर्णिमा , अमावस्या , संक्रान्ति , दोनों पक्षों की अष्टमी-एकादशी तथा कोई विशेष वार्षिक पर्व और श्राद्ध के दिन भी संयम वर्तना चाहिए ।


प्रथम गर्भाधान संस्कार शास्त्र-विधि से करे , दोनों को मल-मूत्र के वेग में या अन्य रुग्ण अवस्था में नहीं करना चाहिए , दिन में भूलकर भी न करे , क्योंकि दिन में स्त्री-संग से प्राण-शक्ति का ह्रास होता है ।


अधिक शीतोष्ण में न करे , दोनों का शरीर , मन जब स्वस्थ न हो तब भी न करे तथा अच्छे पुत्र की इच्छा वाला दम्पति चौथी-तेहरवीं रात्रि में स्त्री-संग न करे ।


यहां यह बात विचारने योग्य है कि यदि सद्गृहस्थ दम्पति श्रुति- स्मृति- पुराण आदिकों की आज्ञाओं में चले , तो उनके द्वारा संयम का पालन करने से स्वयमेव ही परिवार-नियोजन हो जाता है ।


शुद्ध खान-पान रखने से , गन्दे दृश्यों को न देखने-सुनने से तथा कुसंगतियों का संग त्यागने से एवं भगवत्-भक्त , धर्मात्मा , दानशील , शूरवीर , विद्वान् , तथा सदाचारियों के संग से माता-पिता जैसा चाहें वैसे उत्तम से उत्तम सन्तान उत्पन्न कर सकते हैं ।


इसके विपरीत चलने से माता-पिता - परिवार - समाज - देश को दुःख देने वाली सन्तान उत्पन्न होगी , अतः नवयुवक दम्पतियों को चाहिए कि इन शास्त्रीय बातों को पढ़कर शास्त्राज्ञानुसार योग्य सन्तान उत्पन्न करके सबको सुखी करें तथा आप भी सुखी रहें ।


सरकार को चाहिए कि पक्षपात का त्याग करके ऐसे आदर्श शिक्षा का प्रचार-प्रसार करें , जिससे देश - समाज - जनता स्वयं ऊपर उठे ।


परन्तु वर्तमान काल में परिवार को नियोजित करने के लिए जिस शिक्षा का प्रचार देश में हो रहा है , वह देश - समाज - धर्म सबके अहित में है ।


वर्तमान में घोर चरित्र का हनन हो रहा है , सरकार ने भी अब तो चरित्रहीनता को मान्यता दे दी है , जिससे व्यभिचार की वृद्धि होगी , वर्णसंकर सन्तान उत्पन्न होंगें , उसके हाथ का दिया हुआ पिण्डदान - श्राद्ध - तर्पण पितरों को नहीं मिलता ।


देवता तथा ऋषि भी उसकी वस्तु को ग्रहण नहीं करते , अतः श्रद्धालु भक्तों को सरकार के इन गलत नीतियों का विरोध करना चाहिए ।


ब्रह्मचर्य आदि को प्रोत्साहन दें , तभी हमारे देश -धर्म - समाज का उत्थान होगा , अन्यथा घोर पतन होता जाएगा l

बुधवार, 4 नवंबर 2020

प्रणाम के नियम

 *प्रणाम या नमस्कार*

*या*

*अभिवादनके मुख्य नियम*

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अभिवादन प्रणाम या नमस्कार के कुछ ऐसे नियम शास्त्रों में बताए हैं, जो जीवन में अत्यंत आवश्यक हैं प्रायः हम लोग जिन्हें नहीं जानते ,उन नियमों का कुछ अंश इस लेख में लिखा गया है। आप सभी लोग इसे अवश्य ही पढ़ें और परिपालन भी करें।


*अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः!*

 *चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ||*


मनुः२/१२१||## अर्थात् जो वृद्धजनों,गुरुजनों,तथा माता-पिताको नित्य प्रणाम करता हैं और उनकी सेवा करता हैं,उसके आयु,विद्या,यश और बलकी वृद्धि होती हैं |


*मातापितरमुत्थायपूर्वमेवाभिवादयेत् |*

*आचार्यमथवाप्यन्यं तथायुर्विन्दते महत् ||*


१०४/४३-४४महाभा० || महाभारतमें भी बताया गया हैं कि अभिवादनसे दीर्घ अयुकी प्राप्ति होती हैं ||


 अपनेसे बड़े आनेपर उन्हें देखतें ही खड़े हो जाना चाहिये | यदि विशेष स्थिति न हो तो उनके समीप आनेकी प्रतिक्षा नहीं करनी चाहिये | यह सर्वसामान्य हैं कि मनुष्य शरीरमें एक प्रकारकी विद्युत-शक्ति हैं |


 दुर्बलको प्रबल विद्युत् अपनी और खींचती हैं | शास्त्रानुसार किसी अपनेसे बड़ेके आनेपर प्राण ऊपर उठतें हैं | उस समय खड़े हो जाने से उनमें विकृति नहीं आती | 


गुरुजनों को देखतें ही अविलम्ब खड़े हो जाना चाहिये | अभिवादनकी श्रेष्ठतम पद्धति साष्टाङ्ग प्रणाम हैं |"


*उरसा शिरसा दृष्ट्या मनसा वचसा तथा |*

*पद्भ्यां कराभ्यां जानुभ्यां प्रणामोऽष्टांग उच्यते ||* 


पेटके बल भूमिपर दोनों हाथ आगे फैलाकर लेट जाना साष्टाङ्ग प्रणाम हैं; इसमें मस्तक,भ्रूमध्य, नासिका, वक्ष, ऊरु, घुटने,करतल तथा पैरोंकी अँगुलियोँका ऊपरी भाग- ये आठ अङ्ग भूमिसे स्पर्श करतें हो,इसके बाद दोनों हाथोसे सम्मान्य पुरुषका चरण-स्पर्श करके घुटनोंके बल बैठकर उसके चरणोंसे अपना भालका स्पर्श कराना और उसके पादाङ्गुष्ठो का हाथोंसे स्पर्श करके अपनें नेत्रोंसे लगा लेना- यह साष्टाङ्ग प्रणामकी पूर्ण विधि कही गयी हैं | 


*उपसंग्रहण चरणस्पर्श*-


*व्यत्यस्तपाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरोः|*

 *सव्येन सव्यःस्पृष्टव्यो दक्षिणेन च दक्षिणः।।मनुः२/७२||* 


गुरुके चरणस्पर्श उलटे हाथसे अर्थात् छते बायें हाथसे बायेँ पैर तथा छते दायें हाथसे दायें हाथका स्पर्श करना, यह उपसंग्रहण चरण स्पर्श हैं|


 *लौकिकं वैदिकं वापि तथाऽध्यात्मिकमेव च |* 

*आददीत यतो ज्ञानं तं पूर्वमभिवादयेत् ||मनुः२/११७||*


जिसके पास लौकिक,वैदिक,और आध्यात्मिक ज्ञान स्वयं लेता हो उसको; शिष्य प्रथम प्रणाम करैं |#


 *जन्मप्रभृति यत्किंचिच्चेतसा धर्ममाचरेत् |* 

*तत्सर्वं विफलं ज्ञेयमेक हस्ताभिवादनात् ||*


 जन्मसे यथोचित्त कोईभी धर्माचरण किया हो वह सब एकहाथसे वंद. करनेपर निष्फल हो जाता हैं|


*शय्यासने ऽध्याचरिते श्रेयसा न समाविश |*

 *शय्यासनस्थैश्चैवैनं प्रत्युत्थायाभिवादयेत् ||मनुः२/११९||* 


विद्याआदिमें अपनेसे अधिक जाननेवाला पुरुष या गुरु शय्या या आसनपर हो,तो उस आसनपर न बैठे; तथा ऐसे वंदनीय यदि आजायें तब हम शय्या या आसनपर बैठे हो तो वहाँ से उठकर उनको वंदन करने चाहिये |


 *वंदनविधि-*


*अभिवादात्परं विप्रो ज्यायांसमभिवादयन् |*

 *असौ नामाहमस्मीति स्वं नाम परिकीर्तयेत् ||मनुः२/१२२||*


 बडेको वंदन करतें समय ब्राह्मण को अमुकनामका मैं आपको वंदन करता हूं ऐसे नाम बोलें( *अमुक गोत्रोत्पनः अमुकशर्माहं त्वामभिवादयामि भोः* )|| मनुः१/१२४||


*आयुष्मान्भव सौम्येति वाच्यो विप्रोऽभिवादने |* 

*अकारश्चास्य नाम्नोऽन्ते वाच्यः पूर्वाक्षरः प्लुतः|* मनुः२/१२५|#


 ब्राह्मण वंदन करैं तब वह वंदन स्विकार करनेवालें उनके प्रति "आयुष्मान् भव सौम्य | हे सौम्य! तुम अधिक वर्ष जीओं" ऐसा कहैं और अपने उच्चारणिय वाक्यमें नमस्कार करनेवालें के नामके अंतमें रहे हुए अकारादि स्वरको अथवा स्वरके पूर्वाक्षरको "प्लुत" उच्चारण करना हैं- जैसे" आयुष्मान् भव सौम्य अमुक! अथवा आयुष्मान् भव सौम्य अमुक ३शर्मन् ! | # 


*नामधेयस्य ये केचिदभिवादनं जानते |*

 *तान्प्राज्ञोऽहमिति ब्रूयात्स्त्रियः सर्वास्तथैव च ||* मनुः२/१२३||# 


जो भी वंदनीय! नामोच्चार पूर्वक नमस्कारको न समज़ सकता हो, उनके सामने बुद्धिमान्! "वंदन करता हूं" इतना ही कहैं ऐसा स्त्रियाँ भी कहैं|#


 *यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्|* 

*नाभिवाद्य स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः||*#मनुः२/१२६||#


 जो ब्राह्मण नमनके बदलेमें सामने पद्धतिसर बोलनेका वाक्य बोलना न जानता हो, उनको विद्वान! नमन न करैं; वह शूद्र समान हैं अर्थात् सामान्य मैं आपको वंदन करता हूं ऐसा सीर्फ कहना हैं| 


*मातुलांश्च पितृव्यांश्च श्वसुरानृत्विजो गुरुन् |*

 *असावहमिति ब्रूयात्प्रत्युत्थाय यवीयसः||* २/१३०|


मामा,चाचा,ससुर, ऋत्विज और गुरुका मतलब यहाँ ज्ञानवृद्ध या तपोवृद्ध हैं, यह सब अपनेसे छोटें हो और इनमेंसे कोई आजायें तो उनके समक्ष खड़े होकर " मैं हूँ" ऐसा कहैं वंदन न करैं |# 


*मातृष्वसा मातुलानी श्वश्रूरथ पितृस्वसा |*

*संपूज्या गुरुपत्नीवत्समास्ता गुरुभार्यया |* मनुः२/१३१||# 


मौसी,मामी,सास,और बुआ यह सब गुरुपत्नी जैसे पूज्य हैं; इसलिये गुरुपत्नीके समान उनके सामने खडे होकर आदरसत्कार करना चाहिये |

मंगलवार, 3 नवंबर 2020

हमारे पापकर्म और हमारी पीडाएं

 हमारे पापकर्म और हमारी पीडाएं

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हम अक्सर लोगों को यह कहते हुए सुनते हैं कि मैंने कभी कोई बुरा काम नहीं किया फिर

भी मैं बीमारियों से परेशान हूँ. ऐसा मेरे साथ

क्यों हो रहा हैं. क्या भगवान बहुत कठोर और

निर्दयी हैं ?

पहली बात तो हमें ये समझ लेनी चाहिए

कि हमारे कार्यों और भगवान का कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिए हमें अपनी परेशानियों और पीडाओं के लिए ईश्वर को दोषी नहीं मानना चाहिए।

यदि आप सह्गुनी हैं तो आप जीवन में

संपन्न और सुखी रहते हैं. यदि आप लोगों को सताते हैं या पाप कर्म करते हैं तो आप पीड़ित होते हैं और तरह तरह की बीमारियाँ कष्ट

देती हैं. हमारे कार्यों का हम पर निश्चित रूप से

असर होता है. कभी हमारे कर्मों का प्रभाव

इसी जन्म में तो कभी अगले जन्म में मिलता हैं लेकिन मिलता जरुर है. आशय है कि हम अपने कर्मों के प्रभाव से कभी मुक्त नहीं होते यह

बात अलग है कि इसका प्रभाव तुरंत दिखाई न दे।

इस लेख में इस बात का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है कि हमारे पाप हमें किस रूप में लौटकर मिलते हैं और पीड़ित करते हैं. यदि आप किसी रोग से पीड़ित है तो ये समझें कि आपने अवश्य ही कोई पाप पूर्व जन्म में किया है. आपके पाप कर्म द्वारा होने वाली कुछ बीमारियों को साकेंतिक रूप में नीचे दिया जा रहा

है।


👉 लोगों का धन लूटने वाले गले की

बीमारी से पीड़ित होते हैं।


👉 पढ़े लिखे ज्ञानी जन के प्रति दुर्भावना से काम करने वाले व्यक्ति को सिरदर्द की शिकायत रहती है।


👉 हरे पेड़ काटने वाले और सब्जियों की

चोरी करने में लगे व्यक्ति अगले जन्म में

शरीर के अन्दर अल्सर (घाव)से पीड़ित

होते हैं।


👉 झूठे और धोखाधड़ी करने वाले लोगों को

उल्टी की बीमारी होती है।


👉 गरीब लोगों का धन चुराने वाले लोगों को कफ और खांसी से कष्ट होता है।


👉 यदि कोई समाज के श्रेष्ठ पुरुष (विद्वान) की हत्या कर देता है तो उसे तपेदिक रोग होता है।


👉  गाय का वध करने वाले कुबड़े बनते हैं।


👉 निर्दोष व्यक्ति का वध करने वाले को कोढ़ होता है।


👉  जो अपने गुरु का अपमान करता है उसे मिर्गी का रोग होता है।


👉  वेद और पुराणों का अपमान और निरादर करने वाले व्यक्ति को बार बार पीलिया होता है।


👉  झूठी गवाही देने वाले व्यक्ति गूंगे हो

जाते हैं।


👉 पुस्तकों और ग्रंथो की चोरी करने वाले

व्यक्ति अंधे हो जाते हैं।


👉 गाय और विद्वानों को लात मरने वाले व्यक्ति अगले जन्म में लगड़े बनते हैं।


👉 वेदों और उसके अनुयायियों का निरादर करने वाले व्यक्ति को किडनी रोग होता है।


👉 दूसरों को कटु वचन बोलने वाले अगले जन्म में हृदय रोग से कष्ट पाते हैं।


👉 जो सांप, घोड़े और गायों का वध करता है वह संतानहीन होता है।


👉 कपड़े चुराने वालों को चर्म रोग होते हैं।


👉 परस्त्रीगमन करने वाला अगले जन्म में कुत्ता बनता है।


👉 जो दान नहीं करता है वह गरीबी में जन्म लेता है।


👉 आयु में बड़ी स्त्री से सहवास करने से

डायबिटीज़ रोग होता है


👉 जो अन्य महिलाओं को कामुक नजर से देखता है उसकी आंखें कमजोर होती हैं।


👉 नमक चुराने वाला व्यक्ति चींटी बनता है।


👉 जानवरों का शिकार करने वाले बकरे बनते हैं।


👉 जो ब्राह्मन होकर भी गायत्री मंत्र नहीं पढ़ता वो अगले जन्म में बगुला बनता है।


👉 जो ज्ञानी और सदाचारी पुरुषों को दिए गए

अपने वचन से मुकर जाता है वह अगले जन्म में

गीदड़ बनता है।


👉 जो दुकानदार नकली माल बेचते हैं वे अगले जन्म में उल्लू बनते हैं।


👉  जो अपनी पत्नी को पसंद नहीं करते वो खच्चर बनते है।


👉 जो व्यक्ति अपने माता पिता और गुरुजनों का निरादर करता है उसकी गर्भ में ही हत्या हो

जाती है।


👉  मित्र की पत्नी से सम्बन्ध बनाने

की इच्छा रखने वाला अगले जन्म में गधा बनता है।


👉 मदिरा का सेवन करने वाला व्यक्ति भेड़ियाँ बनता है.


👉  जो स्त्री अपने पति को छोड़कर दूसरे पुरुष के साथ भाग जाती है वह घोड़ी बन जाती है।


पूर्व जन्म में किये गए पापों से उत्त्पन्न रोग कैसे दूर हों ?


पूर्व जन्मार्जितं पापं व्याधि रूपेण व्याधिते,

तछंती: औषधनैधान्ने: जपाहोमा क्रियादिभी:

पूर्व जन्म के जो पाप हमें रोग के रूप में आकर पीड़ित करते हैं उनका निराकरण करने के लिए दवाइयां, दान, मंत्र जप, पूजा, अनुष्ठान करने चाहिए. केवल यह ही नहीं हमें गलत काम करने से भी बचना चाहिए. तभी हम पूर्वजन्म कृत पापों के दुष्प्रभाव से मुक्त हो सकेगें।


कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...