रविवार, 31 दिसंबर 2023

देवीपार्वती के 108 नाम और इनका अर्थ

                             देवीपार्वती के 108 नाम और इनका अर्थ

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देवी पार्वती विभिन्न नामों से जानी जाता है और उनमें से हर एक नाम का एक निश्चित अर्थ और महत्व है। देवी पार्वती से 108 नाम जुड़े हुए है । भक्त बालिकाओं के नाम के लिए इस नाम का उपयोग करते है। 


1 . आद्य - इस नाम का मतलब प्रारंभिक वास्तविकता है।

2 . आर्या - यह देवी का नाम है

3 . अभव्या - यह भय का प्रतीक है।

4 . अएंदरी - भगवान इंद्र की शक्ति।

5 . अग्निज्वाला - यह आग का प्रतीक है।

6 . अहंकारा - यह गौरव का प्रतिक है ।

7 . अमेया - नाम उपाय से परे का प्रतीक है।

8 . अनंता - यह अनंत का एक प्रतीक है।

9 . अनंता - अनंत

10 अनेकशस्त्रहस्ता - इसका मतलब है कई हतियारो को रखने वाला ।

11 . अनेकास्त्रधारिणी - इसका मतलब है कई हतियारो को रखने वाला ।

12 . अनेकावारना - कई रंगों का व्यक्ति ।

13 . अपर्णा – एक व्यक्ति जो उपवास के दौरान कुछ नहि कहता है यह उसका प्रतिक है ।

14 . अप्रौधा – जो व्यक्ति उम्र नहि करता यह उसका प्रतिक है ।

15 . बहुला - विभिन्न रूपों ।

16 . बहुलप्रेमा - हर किसी से प्यार ।

17 . बलप्रदा - यह ताकत का दाता का प्रतीक है ।

18 . भाविनी - खूबसूरत औरत ।

19 . भव्य – भविष्य ।

20 . भद्राकाली - काली देवी के रूपों में से एक ।

21 . भवानी - यह ब्रह्मांड की निवासी है ।

22 . भवमोचनी - ब्रह्मांड की समीक्षक ।

23 . भवप्रीता - ब्रह्मांड में हर किसी से प्यार पाने वाली ।

24 . भव्य - यह भव्यता का प्रति है ।

25 . ब्राह्मी - भगवान ब्रह्मा की शक्ति ।

26 . ब्रह्मवादिनी – हर जगह उपस्तित ।

27 . बुद्धि - ज्ञानी

28 . बुध्हिदा - ज्ञान की दातरि ।

29 . चामुंडा - राक्षसों चंदा और मुंडा की हत्या करने वलि देवि ।

30 . चंद्रघंटा - ताकतवर घंटी

31 . चंदामुन्दा विनाशिनी - देवी जिसने चंदा और मुंडा की हत्या की ।

32 . चिन्ता - तनाव ।

33 . चिता - मृत्यु - बिस्तर ।

34 . चिति - सोच मन ।

35 . चित्रा - सुरम्य ।

36 . चित्तरूपा - सोच या विचारशील राज्य ।

37 . दक्शाकन्या - यह दक्षा की बेटी का नाम है ।

38 . दक्शायाज्नाविनाशिनी - दक्षा के बलिदान को टोकनेवाला ।

39 . देवमाता - देवी माँ ।

40 . दुर्गा - अपराजेय ।

41 . एककन्या - बालिका ।

42 . घोररूपा - भयंकर रूप ।

43 . ज्ञाना - ज्ञान ।

44 . जलोदरी - ब्रह्मांड मेइन वास करने वाली ।

45 . जया - विजयी

46 कालरात्रि - देवी जो कालि है और रात के समान है ।

47 . किशोरी - किशोर

48 . कलामंजिराराजिनी - संगीत पायल ।

49 . कराली - हिंसक

50 . कात्यायनी - बाबा कत्यानन इस नाम को पूजते है ।

51 . कौमारी - किशोर ।

52 . कोमारी - सुंदर किशोर ।

53 . क्रिया - लड़ाई ।

54 . क्र्रूना - क्रूर ।

55 . लक्ष्मी - धन की देवी ।

56 . महेश्वारी - भगवान शिव की शक्ति ।

57 . मातंगी - मतंगा की देवी ।

58 . मधुकैताभाहंत्री - देवी जिसने राक्षसों मधु और कैताभा को आर दिया ।

59 . महाबला - शक्ति ।

60 . महातपा - तपस्या ।

61 . महोदरी - एक विशाल पेट में ब्रह्मांड में रखते हुए ।

62 . मनः - मन ।

63 . मतंगामुनिपुजिता - बाबा मतंगा द्वारा पूजी जाती है ।

64 . मुक्ताकेशा - खुले बाल ।

65 . नारायणी - भगवान नारायण विनाशकारी विशेषताएँ ।

66 . निशुम्भाशुम्भाहनानी - देवी जिसने भाइयो शुम्भा निशुम्भा को मारा ।

67 . महिषासुर मर्दिनी - महिषासुर राक्षस को मार डाला जो देवी ने ।

68 नित्या - अनन्त ।

69 . पाताला - रंग लाल ।

70 . पातालावती - लाल और सफ़द पहेने वाली ।

71 . परमेश्वरी - अंतिम देवी ।

72 . पत्ताम्बरापरिधान्ना - चमड़े से बना हुआ कपडा ।

73 . पिनाकधारिणी - शिव का त्रिशूल ।

74 . प्रत्यक्ष – असली ।

75 . प्रौढ़ा - पुराना ।

76 . पुरुषाकृति - आदमी का रूप लेने वाला ।

77 . रत्नप्रिया - सजी

78 . रौद्रमुखी - विनाशक रुद्र की तरह भयंकर चेहरा ।

79 . साध्वी - आशावादी ।

80 . सदगति - मोक्ष कन्यादान ।

81 . सर्वास्त्रधारिणी - मिसाइल हथियारों के स्वामी ।

82 . सर्वदाना वाघातिनी - सभी राक्षसों को मारने के लिए योग्यता है जिसमें ।

83 . सर्वमंत्रमयी - सोच के उपकरण ।

84 . सर्वशास्त्रमयी - चतुर सभी सिद्धांतों में ।

85 . सर्ववाहना - सभी वाहनों की सवारी ।

86 . सर्वविद्या - जानकार ।

87 . सती - जो महिला जिसने अपने पति के अपमान पर अपने आप को जला दिया ।

89 . सत्ता - सब से ऊपर ।

90 . सत्य - सत्य ।

91 . सत्यानादास वरुपिनी - शाश्वत आनंद ।

92 . सावित्री - सूर्य भगवान सवित्र की बेटी ।

93 . शाम्भवी - शंभू की पत्नी ।

94 . शिवदूती - भगवान शिव के राजदूत ।

95 . शूलधारिणी – व्यक्ति जो त्र्सिहुल धारण करता है ।

96 . सुंदरी - भव्य ।

97 . सुरसुन्दरी - बहुत सुंदर ।

98 . तपस्विनी - तपस्या में लगी हुई ।

99 . त्रिनेत्र - तीन आँखों का व्यक्ति ।

100 . वाराही – जो व्यक्ति वाराह पर सवारी करता हियो ।

101 . वैष्णवी - अपराजेय ।

102 . वनदुर्गा - जंगलों की देवी ।

103 . विक्रम - हिंसक ।

104 . विमलौत्त्त्कार्शिनी - प्रदान करना खुशी ।

105 . विष्णुमाया - भगवान विष्णु का मंत्र ।

106 . वृधामत्ता - पुराना है , जो माँ ।

107 . यति - दुनिया त्याग जो व्यक्ति एक ।

108 . युवती - औरत ।

देवी पार्वती यह सभी नाम पूजा करने के लिए और उनके आशीर्वाद पाने के लिए , लिए जाते है।


श्रीजगन्नाथ जी की आँखे बड़ी क्यों है...?

                               श्रीजगन्नाथ जी की आँखे बड़ी क्यों है?

 इसके मूल में भगवान् के प्रगाढ़ प्रेम को प्रकट करने वाली एक अद्भुत गाथा है।


एक बार द्वारिका में रुक्मणी आदि रानियों ने माता रोहिणी से प्रार्थना की कि वे श्रीकृष्ण व गोपियों की बचपन वाली प्रेम लीलाएँ सुनना चाहतीं हैं।


पहले तो माता रोहिणी ने अपने पुत्र की अंतरंग लीलाओं को सुनाने से मना कर दिया।


किन्तु रानियों के बार-बार आग्रह करने पर मैया मान गईं और उन्होंने सुभद्रा जी को महल के बाहर पहरे पर खड़ा कर दिया और महल का दरवाजा भीतर से बंद कर लिया ताकि कोई अनधिकारी जन विशुद्ध प्रेम के उन परम गोपनीय प्रसंगों को सुन न सके।


बहुत देर तक भीतर कथा प्रसंग चलते रहे और सुभद्रा जी बाहर पहरे पर सतर्क होकर खड़ी रहीं।


इतने में द्वारिका के राज दरबार का कार्य निपटाकर श्रीकृष्ण और बलराम जी वहाँ आ पहुँचे।


उन्होंने महल के भीतर जाना चाहा लेकिन सुभद्रा जी ने माता रोहिणी की आज्ञा बताकर उनको भीतर प्रवेश न करने दिया।


वे दोनों भी सुभद्रा जी के पास बाहर ही बैठ गए और महल के द्वार खुलने की प्रतीक्षा करने लगे।


उत्सुकता वश श्रीकृष्ण भीतर चल रही वार्ता के प्रसंगों को कान लगाकर सुनने लगे।


माता रोहिणी ने जब द्वारिका की रानियों को गोपियों के निष्काम प्रेम के भावपूर्ण प्रसंग सुनाए, तो उन्हें सुनकर श्रीकृष्ण अत्यंत रोमांचित हो उठे।


उन्हें स्मरण हो आया कि किस-किस प्रकार गोपियाँ अपनी प्रिया व प्रियतम (राधा-कृष्ण) को थोड़ा-सा सुख देने के लिए ही अपने बड़े से बड़े सुख का त्याग कर देतीं थीं। 


कैसे-कैसे गोपियों ने मेरे प्रेम के लिए न लोकलाज की तनिक भी परवाह की और न वेद-शास्त्र का डर रखते हुए नरकादि की ही कोई चिंता की।


गोपियों के परम प्रेम के दिव्य भावों की वार्ता सुन-सुनकर श्रीकृष्ण भावावेश में संकुचित होने लगे।


मधुर भाव की सब लीलाएँ मानो साकार होकर उनके समक्ष घूमने लगीं थीं।


गोपियों के परम त्याग की बातें सुन-सुनकर उनकी आँखें आश्चर्य युक्त मधुर भाव के आवेश में फैलतीं ही चलीं गयीं।


और अंततः श्रीकृष्ण महाभाव की परम उच्चावस्था में प्रवेश कर गए।


उनका सारा शरीर सिकुड़ चुका था, शरीर के शेष अंग शिथिल होकर छोटे पड़ गए परंतु उनका चेहरा दमकता ही जा रहा था, आँखें लगातार फैलती ही चलीं गयीं।


श्री दाऊ जी ने जब श्रीकृष्ण की अपूर्वदृष्ट उस दशा को देखा, तो बाल सखाओं की स्मृतियों में भगवान् का इतना प्रगाढ़ लगाव देखकर वे भी परमानंद दशा से महाभाव में प्रवेश कर गए।


उनका भी चिंतन भगवान् से एकाकार हो जाने से उनकी शारीरिक दशा भी श्रीकृष्ण जैसी ही हो गयी।


अपने ही चिंतन में खोई सुभद्रा जी ने जब अनायास ही अपने दोनों भाइयों को परम प्रेम की अवर्णनीय अवस्था में देखा तो उनके भक्त वत्सल व प्रेमानुरक्ति के भाव का चिंतन करके सुभद्रा जी भी तल्लीन होने लगीं और देखते ही देखते वे भी तदारूप हो गईं।


उनकी भी शारीरिक दशा दोनों भाइयों जैसी ही हो गयी।

भगवान् की अंतः प्रेरणा से तभी वहाँ पर श्री नारद जी आ पहुँचे।


महल के भीतर और बाहर की सारी परिस्थिति को भली प्रकार देख-समझकर नारद जी श्रीकृष्ण के प्रेम में गदगद् होकर अश्रुपूरित नेत्रों से भगवान् की स्तुति करने लगे।


श्री नारद जी ने जब देखा कि गोपियों के विशुद्ध निष्काम प्रेम के चिंतन मात्र से श्रीकृष्ण, बलराम व सुभद्रा की अपूर्व, अवर्णनीय महाभाव दशा हो गयी है,


 तो वे भी भगवान् के प्रेम में पागल से हो उठे।

भाँति-भाँति की स्तुति करते हुए बड़े प्रयत्नों से नारद जी ने भगवान् को अपने सामान्य स्वरूप में लाने का यत्न किया और भगवान् को सहज हुआ जानकर भक्त वत्सल नारद जी अपने अश्रुपूरित नेत्रों से भगवान् से प्रार्थना करने लगे-


"हे श्रीकृष्ण! मैंने परम आनंदमग्न हुए, महाभाव में निमग्न हुए, विस्फरित नेत्रों वाले आपके जिस अति विशेष विग्रह के दर्शन किए हैं, आपका वह रूप विश्व इतिहास में बड़े से बड़े पुण्यात्माओं व आपके भक्तों ने भी कभी नहीं देखा होगा।


अब आप कोई ऐसी कृपा कीजिए जिससे कि आने वाले इस कलियुग में जो पापात्मा जीव होंगे, 


वे आपके परम प्रेम में रूपांतरित हुए इसी श्री विग्रह के दर्शन कर पाएँ और परम प्रेम स्वरूपा गोपियों में आपके प्रति और आपमें गोपियों के प्रति कैसा अनन्य भक्ति का विशुद्ध भाव था, 


इसका सब लोग चिंतन करते हुए निष्काम भक्ति के पथ पर आगे बढ़ते हुए अपना कल्याण कर सकें तथा आपका दिव्य प्रेम पाने के पात्र बन सकें।


भगवान् ने नारद जी के जीव कल्याण हित दया भाव की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उन्हें वरदान देते हुए कहा, 


"नारद जी! कलियुग में मुझे भगवान् जगन्नाथ के रूप में जाना जाएगा और मेरे विशेष कृपापात्र भक्त उत्कल क्षेत्र के पुरी धाम में हम तीनों के इसी महाभाव रूप के विग्रह स्थापित करेंगे।


 कलियुग में मैं अपनी परम प्रेम की महाभाव दशा में ही बलराम और सुभद्रा के साथ सदा जगन्नाथ पुरी में विराजूँगा।"


जय जगन्नाथJI

बुधवार, 1 नवंबर 2023

श्रीराधा के सोलह नामों की महिमा

 श्रीराधा के सोलह नामों की महिमा 


जो मनुष्य जीवन भर श्रीराधा के इस सोलह नामों का पाठ करेगा, उसको इसी जीवन में श्रीराधा-कृष्ण के चरण-कमलों में भक्ति प्राप्त होगी । मनुष्य जीता हुआ ही मुक्त हो जाएगा ।


श्रीराधा का सोलह (षोडश) नाम स्तोत्र

भगवान नारायण ने श्रीराधा की स्तुति करते हुए उनके सोलह नाम और उनकी महिमा बतायी है—


राधा रासेस्वरी रासवासिनी रसिकेश्वरी। कृष्णप्राणाधिका कृष्णप्रिया कृष्णस्वरूपिणी।।

कृष्णवामांगसम्भूता परमानन्दरूपिणी । 

कृष्णा वृन्दावनी वृन्दा वृन्दावनविनोदिनी ।। 

चन्द्रावली चन्द्रकान्ता शरच्चन्द्रप्रभानना । 

नामान्येतानि साराणि तेषामभ्यन्तराणि च ।। (ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, १७।२२०-२२२)


 

श्रीराधा के सोलह नामों का रहस्य और अर्थ

श्रीराधा के इन सोलह नामों का रहस्य और अर्थ भगवान नारायण ने नारदजी को बताया था जो इस प्रकार हैं–


१. राधा–‘राधा’ का अर्थ है—भलीभांति सिद्ध । ‘राधा’ शब्द का ‘रा’ प्राप्ति का वाचक है और ‘धा’ निर्वाण का । अत: राधा मुक्ति, निर्वाण (मोक्ष) प्रदान करने वाली हैं । 


२. रासेस्वरी–वे रासेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की प्राणप्रिया अर्धांगिनी हैं, अत: ‘रासेश्वरी’ कहलाती हैं ।


३. रासवासिनी–उनका रासमण्डल में निवास है, इसलिए ‘रासवासिनी’ कहलाती हैं।


४. रसिकेश्वरी–वे समस्त रसिक देवियों की स्वामिनी हैं, इसलिए प्राचीन काल से संत लोग उन्हें ‘रसिकेश्वरी’ कहकर पुकारते हैं ।


५. कृष्णप्राणाधिका–श्रीकृष्ण को वे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं इसलिए स्वयं श्रीकृष्ण ने उनका नाम ‘कृष्णप्राणाधिका’ रखा है ।


६. कृष्णप्रिया–वे श्रीकृष्ण की परम प्रिया हैं या श्रीकृष्ण उन्हें परम प्रिय हैं, इसलिए देवतागण उन्हें ‘कृष्णप्रिया’ कहकर सम्बोधित करते हैं ।


७. कृष्णस्वरूपिणी–वे लीला (खेल-खेल) में श्रीकृष्ण का रूप धारण करने में समर्थ हैं और श्रीकृष्ण के समान हैं; इसलिए ‘कृष्णस्वरूपिणी’ कहलाती हैं ।


८. कृष्णवामांगसम्भूता–वे श्रीकृष्ण के वामांग से प्रकट हुई हैं, इसलिए श्रीकृष्ण ने ही उनका नाम रखा—‘कृष्णवामांगसम्भूता’ ।


९. परमानन्दरूपिणी–ये भगवान की परम आनंदस्वरूपा आह्लादिनी शक्ति है, इसी से श्रुतियों ने उन्हें ‘परमानन्दरूपिणी’ नाम से प्रसिद्ध किया।


१०. कृष्णा–‘कृष्’ शब्द मोक्षदायक है, ‘न’ उत्कृष्ट का द्योतक है और ‘आ’ देने वाली का सूचक है । श्रेष्ठ मोक्ष प्रदान करने वाली होने के कारण ये ‘कृष्णा’ कहलायीं  ।


११. वृन्दावनी–वृन्दावन उनकी राजधानी और मधुर लीलाभूमि है तथा वे वृन्दावन की अधिष्ठात्री देवी हैं, अत: वे ‘वृन्दावनी’ नाम से स्मरण की जाती है ।


१२. वृन्दा–‘वृन्द’ शब्द का अर्थ है सखियों का समुदाय और ‘आ’ सत्ता का वाचक है अर्थात् वे सखियों के समुदाय की स्वामिनी हैं; अत: वृन्दा कहलायीं ।


१३. वृन्दावनविनोदिनी–वृन्दावन में उनका विनोद (मन बहलाव) होता है, इसलिए वेद उन्हें ‘वृन्दावनविनोदिनी’ कहकर पुकारते हैं ।


१४. चन्द्रावली–इनके शरीर में नखरूप चन्द्रमाओं की पंक्ति सुशोभित है और मुख पर चन्द्रमा सदा विराजित है, इसलिए स्वयं श्रीकृष्ण ने उनका नाम रखा है—‘चन्द्रावली’ ।


१५. चन्द्रकान्ता–उनके शरीर पर अनन्त चन्द्रमाओं की-सी कांति रात-दिन जगमगाती रहती है, इसलिए श्रीकृष्ण प्रसन्न होकर उन्हें ‘चन्द्रकान्ता’ कहते हैं ।


१६. शरच्चन्द्रप्रभानना–इनका मुखमण्डल शरत्कालीन चन्द्रमा के समान प्रभावान है, इसलिए वेदव्यासजी ने उनका नाम रखा है—‘शरच्चन्द्रप्रभानना’ ।


श्रीराधा के सोलह नाम की महिमा है न्यारी

जो मनुष्य जीवन भर श्रीराधा के इन सोलह नाम (या स्त्रोत) का प्रतिदिन तीन समय पाठ करता है, उसके इसी जीवन में जन्म-जन्मान्तर के संचित पाप और शुभ-अशुभ कर्मों के भोग नष्ट हो जाते हैं और मनुष्य जीता हुआ ही मुक्त हो जाता है।


श्रीराधा के नामों के जप से श्रीकृष्ण के चरण-कमलों की दास्यभक्ति प्राप्त होती है ।

इस सोलह नाम स्तोत्र के पाठ से मनुष्य को सभी अभिलाषित पदार्थ और सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है । 


षोडश नाम स्तोत्र का पाठ मनुष्य को श्रीकृष्ण का-सा तेज, शिव के समान औढरदानीपन (दानशक्ति), योगशक्ति और उनकी स्मृति प्रदान करता है ।


कई जन्मों तक श्रीकृष्ण की सेवा से उनके लोक की प्राप्ति होती है, किन्तु श्रीराधा की कृपा से साधक श्रीकृष्ण के गोलोक धाम को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है । शरीर छूटने पर उनका नित्य सहचर/सहचरी होकर उसे युगलसरकार की सेवा प्राप्त होती है । अष्ट सिद्धियों से युक्त उसे नित्य शरीर प्राप्त होता है तथा भगवान के साथ अनन्तकाल तक रहने का सुख, सारूप्य और उनका तत्वज्ञान प्राप्त होता है ।


भगवान श्रीकृष्ण को प्राणों से भी बढ़कर प्रिय ‘श्रीराधा’ नाम!!!!!!!!


राधा राधा नाम को सपनेहूँ जो नर लेय । 

ताको मोहन साँवरो रीझि अपनको देय ।।


भगवान श्रीकृष्ण का कथन है–‘उन राधा से भी अधिक उनका ‘राधा’ नाम मुझे मधुर और प्यारा लगता है । 


जय श्री राधे राधे 🌹🌹🙏🏻 हरे कृष्णा 🌹🌹🙏🏻

विष्णु सहस्रनाम मंत्र के लाभ

 *विष्णु सहस्रनाम मंत्र और इसके लाभ ::-*

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विष्णु सहस्रनाम एक ऐसा मंत्र है जिसमें विष्णु के हजार नामों का सम्मिश्रण है अर्थात अगर कोई व्यक्ति भगवान विष्णु के हजार नामों का जाप नहीं कर सकता है तो वह इस एक मंत्र का जाप कर सकता है। इस एक मंत्र में अथाह शक्ति छिपी हुई है जो कलयुग में सभी परेशानियों को दूर करने में सहायक है।


*विष्णु सहस्रनाम स्त्रोत्र मंत्र :-*

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*नमो स्तवन अनंताय सहस्त्र मूर्तये, सहस्त्रपादाक्षि शिरोरु बाहवे।*


*सहस्त्र नाम्ने पुरुषाय शाश्वते, सहस्त्रकोटि युग धारिणे नमः।।*

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*शैव और वैष्णवों के मध्य यह सेतु का कार्य करता है ये मंत्र :-*

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इस मंत्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि हिन्दू धर्म के दो प्रमुख सम्प्रदाय शैव और वैष्णवों के मध्य यह सेतु का कार्य करता है।


*विष्णु सहस्रनाम में विष्णु को शम्भु, शिव, ईशान और रुद्र के नाम से सम्बोधित किया है, जो इस तथ्य को प्रतिपादित करता है कि शिव और विष्णु एक ही है।* विष्णु सहस्रानम में प्रत्येक नाम के एक सौ अर्थ से कम नहीं हैं, इसलिए यह एक बहुत प्रकांड और शक्तिशाली मंत्र है, शंकराचार्य और पारसर भट्ट जैसे प्रसिद्ध व्यक्तित्व ने इस पवित्र पाठ पर टिप्पणियां लिखी हैं।


*विष्णु सहस्रनाम उद्ग्म स्रोत :-*

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विष्णु सहस्रनम की उत्पत्ति महाकाव्य महाभारत से मानी जाती है, जब पितामह भीष्म, पांडवों से घिरे मौत के बिस्तर पर अपनी मृत्यु का इंतजार कर रहे थे, उस समय युधिष्ठिर ने उनसे पूछा, "पितामह! कृपया हमें बताएं कि सभी के लिए सर्वोच्च आश्रय कौन है? जिससे व्यक्ति को शांति प्राप्त हो सके, वह नाम कोनसा है जिससे इस भवसागर से मुक्ति प्राप्त हो सके, इस सवाल के जबाब में भीष्म ने कहा की वह नाम विष्णु सहस्रनाम है ।


*ज्योतिषीय लाभ :-*

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यह नकारात्मक ज्योतिषीय प्रभावों को वश में करने में मदद करता है, इनमें उन दोषों को शामिल किया जाता है जो जन्म समय की ग्रहों की खराब स्थिति से उत्पन्न होते हैं, विष्णु सहस्त्रनाम बुरी किस्मत और श्राप से दूर कर सकता है।


*अच्छा भाग्य और तकदीर:-*

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जो व्यक्ति विष्णु सहस्त्रनाम का जाप करता है उसका भाग्य हमेशा उसका साथ देता है।


*मनोवैज्ञानिक फायदे :-*

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इसका मनोवैज्ञानिक लाभ भी है , दैनिक विष्णु सहस्रनाम का जप करते हुए मन को काफी आराम मिलता हैं और अवांछित चिंताओं और विचलित विचारों से मुक्ति मिलती है, इससे मन में सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करने और कुशलता सीखने को मिलती है।


*बाधाएं दूर होती हैं :-*

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विष्णु सहस्त्रनामम अपने जीवन में बाधाओं को दूर करने का अंतिम उपाय है, यह आपके जीवन में मौजूद महत्वपूर्ण योजनाओं को तेज़ी से और आपके रास्ते पर बाधाओं और चुनौतियों को दूर करने में मदद कर सकता है, बढ़ती ऊर्जा स्तर और आत्मविश्वास के साथ, आप अपने जीवन के लक्ष्यों की ओर जल्दी और ऊर्जावान रूप से आगे बढ़ सकते हो ।


*रक्षात्मक कवच::-*

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भगवान विष्णु का नाम दुर्भाग्य, खतरों, काला जादू, दुर्घटनाओं और बुरी नज़रों से व्यक्ति की रक्षा करने के लिए एक बहुत शक्तिशाली कवच की तरह कार्य करता है और दुश्मनों की बुरी योजनाओं से मन और शरीर की सुरक्षा करता है।


*पापों को मिटाना::-*

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यह शक्तिशाली मंत्र एक व्यक्ति को अपने सारे जन्मों में अपने सभी पापों को मुक्त करने में सहायता कर सकता है।


*सन्तति देता है :-*

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विष्णु के हजारों नामों का जप करने से बांझपन को दूर करने और परिवार में संतान प्राप्त करने में मदद मिल सकती है। यह घर में बच्चों के स्वास्थ्य और खुशी को बढ़ाता है और उनके समग्र कल्याण को बढ़ावा देता है।


                         🚩 हर हर महादेव 🚩


ब्राह्मण के प्रकार

 🔥 *ब्राह्मण के दश प्रकार* 🔥


*जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः* 

- अत्रि स्मृति १३८

ब्राह्मण वंश में जन्म लेने वाला जन्म से ही ब्राह्मण है। 


भले ही वो नीच कार्य भी क्यों न करें वह अंत तक ब्राह्मण ही रहेगा। महर्षि अत्रि ने ब्राह्मणो का कर्म अनुसार विभाग किया है।


*देवो मुनिर्द्विजो राजा वैश्यः शूद्रो निषादकः ॥*

*पशुम्लेच्छोपि चंडालो विप्रा दशविधाः स्मृताः॥*

- अत्रि स्मृति ३७१

देव, मुनि, द्विज, राजा, वैश्य, शूद्र, निषाद, पशु, म्लेच्छ, चांडाल यह दश प्रकार के ब्राह्मण कहे हैं ॥ ३७१ ॥


१.देव ब्राह्मण -  ब्राह्मणोचित श्रोत स्मार्त कर्म करने वाला हो 

२. मुनि ब्राह्मण - शाक पत्ते फल आहार कर वन में रहने वाला

३. द्विज ब्राह्मण - वेदांत,सांख्य,योग आदि अध्ययन व ज्ञान पिपासु

४. क्षत्रिय ब्राह्मण - युद्ध कुशल हो

५. वैश्य ब्राह्मण - व्यवसाय गोपालन आदि

६. शुद्र ब्राह्मण - लवण,लाख,घी,दूध,मांस आदि बेचने वाला

७. निषाद ब्राह्मण - चोर, तस्कर, मांसाहारी,व्यसनी हो

८. पशु ब्राह्मण - शास्त्र विहीन हो किन्तु मिथ्याभिमान हो

९. म्लेच्छ ब्राह्मण - बावड़ी,कूप,बाग,तालाब को बंद करने वाला

१०. चांडाल ब्राह्मण - अकर्मी, क्रियाहीन, कर्मसंकर,वर्णसंकर

(अत्रिस्मृति ३७२-३८१ के आधार पर।) 



हनुमान चालीसा का महत्व

 हनुमान चालीसा का 100 बार जप करने पर आपको सभी भौतिकवादी चीजों से मुक्त करता है।


हनुमान चालीसा का 21 बार जाप करने से धन में वृद्धि होती है।


19 बार हनुमान चालीसा का जाप करने से स्वास्थ्य अच्छा रहता है।


हनुमान चालीसा का 7 बार जाप करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है।


हनुमान चालीसा का 1 बार जप करने से भगवान हनुमान का आशीर्वाद मिलता है और आपको हर स्थिति में विजयी होने में मदद मिलती है।


मंगलवार और शनिवार को हनुमान चालीसा का 1 बार जप करने से हनुमान जी का आशीर्वाद मिलता है और मंगल दोष, साढ़े साती जैसे हर दोष का निवारण होता है।


भगवान हनुमान जी का नाम जप करने से आपके आसपास एक सकारात्मक आभा का निर्माण होता है।


राम नाम का जप या राम हनुमान का कोई भी राम भजन, हनुमान जी को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है क्योंकि वे भगवान श्री राम जी से सबसे अधिक प्रेम करते हैं।


यदि आप एक विशेष दोहा का जप करते हैं


बल बुधि विद्या देहु मोहि हरहु कलेश विकार


यदि आप अध्ययन से पहले 11 बार इस दोहा का जप करते हैं, तो 27 दिनों से पहले अध्ययन के प्रति आपकी एकाग्रता बढ़ेगी


भूत पिशाच निकट नहीं आवै महावीर जु नाम सुनावे


अगर आप इस श्लोक का 27 बार जाप करेंगे तो आपके दिल से अनुचित डर खत्म हो जाएगा।


और भी बहुत से लाभ आपको खास दोहा और चौपाई का जाप करने से मिलेगा।


कहा जाता है कि हनुमान चालीसा के हर श्लोक और दोहे का 108 बार जाप करना भी बहुत अच्छा होता है।



राम राम राम

ब्रह्म मुहूर्त में उठने की परंपरा क्यों

 *ब्रह्म मुहूर्त में उठने की परंपरा क्यों ?*


रात्रि के अंतिम प्रहर को ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने इस मुहूर्त का विशेष महत्व बताया है। उनके अनुसार यह समय निद्रा त्याग के लिए सर्वोत्तम है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने से सौंदर्य, बल, विद्या, बुद्धि और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। 

सूर्योदय से चार घड़ी (लगभग डेढ़ घण्टे) पूर्व ब्रह्म मुहूर्त में ही जग जाना चाहिये। इस समय सोना शास्त्र निषिद्ध है। ब्रह्म का मतलब परम तत्व या परमात्मा। मुहूर्त यानी अनुकूल समय। रात्रि का अंतिम प्रहर अर्थात प्रात: 4 से 5.30 बजे का समय ब्रह्म मुहूर्त कहा गया है।


“ब्रह्ममुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी”।


अर्थात - ब्रह्ममुहूर्त की निद्रा पुण्य का नाश करने वाली होती है।

सिख धर्म में इस समय के लिए बेहद सुन्दर नाम है--"अमृत वेला", जिसके द्वारा इस समय का महत्व स्वयं ही साबित हो जाता है। ईश्वर भक्ति के लिए यह महत्व स्वयं ही साबित हो जाता है। ईवर भक्ति के लिए यह सर्वश्रेष्ठ समय है। इस समय उठने से मनुष्य को सौंदर्य, लक्ष्मी, बुद्धि, स्वास्थ्य आदि की प्राप्ति होती है। उसका मन शांत और तन पवित्र होता है।

ब्रह्म मुहूर्त में उठना हमारे जीवन के लिए बहुत लाभकारी है। इससे हमारा शरीर स्वस्थ होता है और दिनभर स्फूर्ति बनी रहती है। स्वस्थ रहने और सफल होने का यह ऐसा फार्मूला है जिसमें खर्च कुछ नहीं होता। केवल आलस्य छोड़ने की जरूरत है।


✴️पौराणिक महत्व 


वाल्मीकि रामायण के मुताबिक माता सीता को ढूंढते हुए श्रीहनुमान ब्रह्ममुहूर्त में ही अशोक वाटिका पहुंचे। जहां उन्होंने वेद व यज्ञ के ज्ञाताओं के मंत्र उच्चारण की आवाज सुनी।

शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है--


वर्णं कीर्तिं मतिं लक्ष्मीं स्वास्थ्यमायुश्च विदन्ति।

ब्राह्मे मुहूर्ते संजाग्रच्छि वा पंकज यथा॥


अर्थात- ब्रह्म मुहूर्त में उठने से व्यक्ति को सुंदरता, लक्ष्मी, बुद्धि, स्वास्थ्य, आयु आदि की प्राप्ति होती है। ऐसा करने से शरीर कमल की तरह सुंदर हो जाता हे।


✴️ब्रह्म मुहूर्त और प्रकृति 


ब्रह्म मुहूर्त और प्रकृति का गहरा नाता है। इस समय में पशु-पक्षी जाग जाते हैं। उनका मधुर कलरव शुरू हो जाता है। कमल का फूल भी खिल उठता है। मुर्गे बांग देने लगते हैं। एक तरह से प्रकृति भी ब्रह्म मुहूर्त में चैतन्य हो जाती है। यह प्रतीक है उठने, जागने का। प्रकृति हमें संदेश देती है ब्रह्म मुहूर्त में उठने के लिए।


✴️इसलिए मिलती है सफलता व समृद्धि


आयुर्वेद के अनुसार ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में संजीवनी शक्ति का संचार होता है। यही कारण है कि इस समय बहने वाली वायु को अमृततुल्य कहा गया है। इसके अलावा यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है क्योंकि रात को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर तथा मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है। प्रमुख मंदिरों के पट भी ब्रह्म मुहूर्त में खोल दिए जाते हैं तथा भगवान का श्रृंगार व पूजन भी ब्रह्म मुहूर्त में किए जाने का विधान है।


✴️ब्रह्ममुहूर्त के धार्मिक, पौराणिक व व्यावहारिक पहलुओं और लाभ को जानकर हर रोज इस शुभ घड़ी में जागना शुरू करें तो बेहतर नतीजे मिलेंगे।


ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाला व्यक्ति सफल, सुखी और समृद्ध होता है, क्यों? क्योंकि जल्दी उठने से दिनभर के कार्यों और योजनाओं को बनाने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। इसलिए न केवल जीवन सफल होता है। शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहने वाला हर व्यक्ति सुखी और समृद्ध हो सकता है। कारण वह जो काम करता है उसमें उसकी प्रगति होती है। विद्यार्थी परीक्षा में सफल रहता है। जॉब (नौकरी) करने वाले से बॉस खुश रहता है। बिजनेसमैन अच्छी कमाई कर सकता है। बीमार आदमी की आय तो प्रभावित होती ही है, उल्टे खर्च बढऩे लगता है। सफलता उसी के कदम चूमती है जो समय का सदुपयोग करे और स्वस्थ रहे। अत: स्वस्थ और सफल रहना है तो ब्रह्म मुहूर्त में उठें।

वेदों में भी ब्रह्म मुहूर्त में उठने का महत्व और उससे होने वाले लाभ का उल्लेख किया गया है।


प्रातारत्नं प्रातरिष्वा दधाति तं चिकित्वा प्रतिगृह्यनिधत्तो।

तेन प्रजां वर्धयमान आयू रायस्पोषेण सचेत सुवीर:॥ - ऋग्वेद-1/125/1


अर्थात- सुबह सूर्य उदय होने से पहले उठने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रहता है। इसीलिए बुद्धिमान लोग इस समय को व्यर्थ नहीं गंवाते। सुबह जल्दी उठने वाला व्यक्ति स्वस्थ, सुखी, ताकतवाला और दीर्घायु होता है।


यद्य सूर उदितोऽनागा मित्रोऽर्यमा। 

सुवाति सविता भग:॥ - सामवेद-35


अर्थात- व्यक्ति को सुबह सूर्योदय से पहले शौच व स्नान कर लेना चाहिए। इसके बाद भगवान की पूजा-अर्चना करना चाहिए। इस समय की शुद्ध व निर्मल हवा से स्वास्थ्य और संपत्ति की वृद्धि होती है।


उद्यन्त्सूर्यं इव सुप्तानां द्विषतां वर्च आददे।

अथर्ववेद- 7/16/2


अर्थात- सूरज उगने के बाद भी जो नहीं उठते या जागते उनका तेज खत्म हो जाता है।


✴️व्यावहारिक महत्व 


व्यावहारिक रूप से अच्छी सेहत, ताजगी और ऊर्जा पाने के लिए ब्रह्ममुहूर्त बेहतर समय है। क्योंकि रात की नींद के बाद पिछले दिन की शारीरिक और मानसिक थकान उतर जाने पर दिमाग शांत और स्थिर रहता है। वातावरण और हवा भी स्वच्छ होती है। ऐसे में देव उपासना, ध्यान, योग, पूजा तन, मन और बुद्धि को पुष्ट करते हैं।


🕉️ जैविक घड़ी 🕉️

पर आधारित शरीर की दिनचर्या


✴️प्रातः 3 से 5 – इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से फेफड़ों में होती है। थोड़ा गुनगुना पानी पीकर खुली हवा में घूमना एवं प्राणायाम करना। इस समय दीर्घ श्वसन करने से फेफड़ों की कार्यक्षमता खूब विकसित होती है। उन्हें शुद्ध वायु (आक्सीजन) और ऋण आयन विपुल मात्रा में मिलने से शरीर स्वस्थ व स्फूर्तिमान होता है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाले लोग बुद्धिमान व उत्साही होते है, और सोते रहने वालों का जीवन निस्तेज हो जाता है।


✴️प्रातः 5 से 7 – इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से आंत में होती है। प्रातः जागरण से लेकर सुबह 7 बजे के बीच मल-त्याग एवं स्नान का लेना चाहिए। सुबह 7 के बाद जो मल-त्याग करते है उनकी आँतें मल में से त्याज्य द्रवांश का शोषण कर मल को सुखा देती हैं। इससे कब्ज तथा कई अन्य रोग उत्पन्न होते हैं।


✴️प्रातः 7 से 9 – इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से आमाशय में होती है। यह समय भोजन के लिए उपर्युक्त है। इस समय पाचक रस अधिक बनते हैं। भोजन के बीच-बीच में गुनगुना पानी (अनुकूलता अनुसार) घूँट-घूँट पिये।


✴️प्रातः 11 से 1 – इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से हृदय में होती है।

दोपहर 12 बजे के आस–पास मध्याह्न – संध्या (आराम) करने की हमारी संस्कृति में विधान है। इसी लिए भोजन वर्जित है। इस समय तरल पदार्थ ले सकते है। जैसे मट्ठा पी सकते है। दही खा सकते है।


✴️दोपहर 1 से 3 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से छोटी आंत में होती है। इसका कार्य आहार से मिले पोषक तत्त्वों का अवशोषण व व्यर्थ पदार्थों को बड़ी आँत की ओर धकेलना है। भोजन के बाद प्यास अनुरूप पानी पीना चाहिए। इस समय भोजन करने अथवा सोने से पोषक आहार-रस के शोषण में अवरोध उत्पन्न होता है व शरीर रोगी तथा दुर्बल हो जाता है।


✴️दोपहर 3 से 5 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से मूत्राशय में होती है। 2-4 घंटे पहले पिये पानी से इस समय मूत्र-त्याग की प्रवृति होती है।


✴️शाम 5 से 7 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से गुर्दे में होती है। इस समय हल्का भोजन कर लेना चाहिए। शाम को सूर्यास्त से 40 मिनट पहले भोजन कर लेना उत्तम रहेगा। सूर्यास्त के 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक (संध्याकाल) भोजन न करे। शाम को भोजन के तीन घंटे बाद दूध पी सकते है। देर रात को किया गया भोजन सुस्ती लाता है यह अनुभवगम्य है।


✴️रात्री 7 से 9 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से मस्तिष्क में होती है। इस समय मस्तिष्क विशेष रूप से सक्रिय रहता है। अतः प्रातःकाल के अलावा इस काल में पढ़ा हुआ पाठ जल्दी याद रह जाता है। आधुनिक अन्वेषण से भी इसकी पुष्टी हुई है।


✴️रात्री 9 से 11 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से रीढ़ की हड्डी में स्थित मेरुरज्जु में होती है। इस समय पीठ के बल या बायीं करवट लेकर विश्राम करने से मेरूरज्जु को प्राप्त शक्ति को ग्रहण करने में मदद मिलती है। इस समय की नींद सर्वाधिक विश्रांति प्रदान करती है। इस समय का जागरण शरीर व बुद्धि को थका देता है। यदि इस समय भोजन किया जाय तो वह सुबह तक जठर में पड़ा रहता है, पचता नहीं और उसके सड़ने से हानिकारक द्रव्य पैदा होते हैं जो अम्ल (एसिड) के साथ आँतों में जाने से रोग उत्पन्न करते हैं। इसलिए इस समय भोजन करना खतरनाक है।


✴️रात्री 11 से 1 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से पित्ताशय में होती है। इस समय का जागरण पित्त-विकार, अनिद्रा, नेत्ररोग उत्पन्न करता है व बुढ़ापा जल्दी लाता है। इस समय नई कोशिकाएं बनती है।


✴️रात्री 1 से 3 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से लीवर में होती है। अन्न का सूक्ष्म पाचन करना यह यकृत का कार्य है। इस समय का जागरण यकृत (लीवर) व पाचन-तंत्र को बिगाड़ देता है। इस समय यदि जागते रहे तो शरीर नींद के वशीभूत होने लगता है, दृष्टि मंद होती है और शरीर की प्रतिक्रियाएं मंद होती हैं। अतः इस समय सड़क दुर्घटनाएँ अधिक होती हैं।


👉नोट :-ऋषियों व आयुर्वेदाचार्यों ने बिना भूख लगे भोजन करना वर्जित बताया है। अतः प्रातः एवं शाम के भोजन की मात्रा ऐसी रखे, जिससे ऊपर बताए भोजन के समय में खुलकर भूख लगे। जमीन पर कुछ बिछाकर सुखासन में बैठकर ही भोजन करें। इस आसन में मूलाधार चक्र सक्रिय होने से जठराग्नि प्रदीप्त रहती है। कुर्सी पर बैठकर भोजन करने में पाचनशक्ति कमजोर तथा खड़े होकर भोजन करने से तो बिल्कुल नहींवत् हो जाती है। इसलिए ʹबुफे डिनरʹ से बचना चाहिए।


👉पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का लाभ लेने हेतु सिर पूर्व या दक्षिण दिशा में करके ही सोयें, अन्यथा अनिद्रा जैसी तकलीफें होती हैं।


👉शरीर की जैविक घड़ी को ठीक ढंग से चलाने हेतु रात्रि को बत्ती बंद करके सोयें। इस संदर्भ में हुए शोध चौंकाने वाले हैं। देर रात तक कार्य या अध्ययन करने से और बत्ती चालू रख के सोने से जैविक घड़ी निष्क्रिय होकर भयंकर स्वास्थ्य-संबंधी हानियाँ होती हैं। अँधेरे में सोने से यह जैविक घड़ी ठीक ढंग से चलती है।


👉आजकल पाये जाने वाले अधिकांश रोगों का कारण अस्त-व्यस्त दिनचर्या व विपरीत आहार ही है। हम अपनी दिनचर्या शरीर की जैविक घड़ी के अनुरूप बनाये रखें तो शरीर के विभिन्न अंगों की सक्रियता का हमें अनायास ही लाभ मिलेगा। इस प्रकार थोड़ी-सी सजगता हमें स्वस्थ जीवन की प्राप्ति करा देl

बुधवार, 25 अक्तूबर 2023

शमी वृक्ष की उपयोगिता)

 --------: शमी वृक्ष की उपयोगिता :------

* शमी वृक्ष,  जेठ के महीने में भी हरा रहता है। ऐसी गर्मी में , जब रेगिस्तान में जानवरों के लिए,  धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता है,  तब यह पेड़ छाया देता है। जब खाने को कुछ नहीं होता है,  तब यह चारा देता है, जो लूंग कहलाता है।

* इसका फूल मींझर कहलाता है। इसका फल सांगरी कहलाता है, जिसकी सब्जी बनाई जाती है। यह फल सूखने पर, खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है।

* इसकी लकडी मजबूत होती है , जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है। इसकी जड़ से,  हल बनता है।

* वराहमिहिर के अनुसार,  जिस साल शमी वृक्ष ज्यादा फूलता - फलता है । उस साल सूखे की स्थिति का निर्माण होता है। विजयादशमी के दिन,  इसकी पूजा करने का,  एक तात्पर्य यह भी है कि,  यह वृक्ष आने वाली कृषि विपत्ती का,  पहले से संकेत दे देता है । जिससे किसान पहले से भी,  ज्यादा पुरुषार्थ करके आनेवाली विपत्ती से निजात पा सकता है।

* अकाल के समय,  रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का , यही एक मात्र सहारा है। सन्  १८९९ में,  दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था। जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग,  इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे थे।

* इस पेड़ के नीचे,  अनाज की पैदावार ज्यादा होती है।

* पांडवों द्वारा,  अज्ञातवास के अंतिम वर्ष में , गांडीव धनुष इसी पेड़ में छुपाए जाने के उल्लेख मिलते हैं।

* शमी या खेजड़ी के वृक्ष की लकड़ी,  यज्ञ की समिधा के लिए पवित्र मानी जाती है। वसन्त ऋतु में,  समिधा के लिए, शमी की लकड़ी का प्रावधान किया गया है। इसी प्रकार वारों में , शनिवार को शमी की समिधा का विशेष महत्त्व है।

* शमी शनि ग्रह का पेड़ है। राजस्थान में , सबसे अधिक होता है। छोटे तथा मोटे काँटों वाला भारी पेड़ होता है।

* कृष्ण जन्मअष्टमी को,  इसकी पूजा की जाती है।बिस्नोई समाज ने , इस पेड़ के काटे जाने पर, कई लोगों ने अपनी जान दे दी थी।

* कहा जाता है कि , इसके लकड़ी के भीतर विशेष आग होती है,  जो रगड़ने पर निकलती है। इसे ' शिंबा ' सफेद कीकर भी कहते हैं।

* घर के ईशान में आंवला वृक्ष, उत्तर में शमी (खेजड़ी), वायव्य में बेल (बिल्व वृक्ष) तथा दक्षिण में गूलर वृक्ष लगाने को शुभ माना गया है।

* कवि कालिदास ने,  शमी के वृक्ष के नीचे बैठ कर ही, तपस्या कर के ज्ञान की प्राप्ति की थी।

* ऋग्वेद के अनुसार,  आदिम काल में,  सबसे पहली बार पुरुओं ने , शमी और पीपल की टहनियों को रगड़ कर ही,  आग पैदा की थी।

* कवियों और लेखकों के लिये,  शमी बड़ा महत्व रखता है। भगवान चित्रगुप्त को , शब्दों और लेखनी का देवता माना जाता है और शब्द-साधक,  यम-द्वितीया को यथा-संभव, शमी के पेड़ के नीचे,  उसकी पत्तियों से , उनकी पूजा करते हैं।

* नवरात्र में,  मां दुर्गा की पूजा भी,  शमी वृक्ष के पत्तों से करने का,  शास्त्र में विधान है। इस दिन,  शाम को वृक्ष का पूजन करने से,  आरोग्य व धन की प्राप्ति होती है।

* कहते है,  एक आक के फूल को,  शिवजी पर चढ़ाना से , सोने के दान के बराबर फल देता है। हज़ार आक के फूलों कि अपेक्षा,  एक कनेर का फूल। हज़ार कनेर के फूलों के चढाने कि अपेक्षा,  एक बिल्व-पत्र से मिल जाता है। हजार बिल्वपत्रों के बराबर,  एक द्रोण या गूमा फूल फलदायी। हजार गूमा के बराबर,  एक चिचिड़ा, हजार चिचिड़ा के बराबर है,  एक कुश का फूल। हजार कुश फूलों के बराबर,  एक शमी का पत्ता। हजार शमी के पत्तो के बराबर,  एक नीलकमल। हजार नीलकमल से ज्यादा एक धतूरा। हजार धतूरों से भी ज्यादा,  एक शमी का फूल, शुभ और पुण्य देने वाला होता है। इसलिए भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए,  एक शमी का पुष्प चढ़ाएं। क्योंकि,  यह फूल शुभ और पुण्य देने वाला होता है।

* इसमें औषधीय गुण भी है। यह कफनाशक ,मासिक धर्म की समस्याओं को दूर करने वाला और प्रसव पीड़ा का निवारण करने वाला पौधा है।

" शन्नोदेवीरभीष्टय आपो भवन्तु 

                        पीतये शन्नोदेवीरभीष्टय । "

सोमवार, 23 अक्तूबर 2023

मनसा देवी की कथा एवं स्तोत्र

 मनसा देवी की कथा एवं स्तोत्र 

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इनके नाम-स्मरण से सर्पभय और सर्पविष से मिलती है मुक्ति


प्राचीनकाल में जब सृष्टि में नागों का भय हो गया तो उस समय नागों से रक्षा करने के लिए ब्रह्माजी ने अपने मन से एक देवी का प्राकट्य किया, मन से प्रकट होने के कारण ये ‘मनसा देवी’ के नाम से जानी जाती हैं, देवी मनसा दिव्य योगशक्ति से सम्पन्न होने के कारण कुमारावस्था में ही भगवान शंकर के धाम कैलास पहुंच गईं और वहां गहन तप किया, इससे प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें सामवेद का अध्ययन कराया और ‘मृतसंजीवनी विद्या’ प्रदान की इसीलिए देवी मनसा को ‘मृतसंजीवनी’ और ‘ब्रह्मज्ञानयुता’ कहते हैं।


भगवान शंकर ने देवी मनसा को भगवान श्रीकृष्ण के अष्टाक्षर ( 18 अक्षर का ) मन्त्र—‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय नम:’ का भी उपदेश किया साथ ही वैष्णवी दीक्षा दी, भगवान शिव से शिक्षा प्राप्त करने के कारण ये शिव की शिष्या हुईं इसलिए ये ‘शैवी’ कहलाती हैं, इन्होंने भगवान शिव से सिद्धयोग प्राप्त किया था, इसलिए वे ‘सिद्धयोगिनी’ के नाम से भी जानी जाती हैं।


इसके बाद देवी मनसा ने तीन युगों तक पुष्कर में तप करके परमात्मा श्रीकृष्ण का दर्शन प्राप्त किया, उस समय गोपीपति भगवान श्रीकृष्ण ने उनके वस्त्र और शरीर को जीर्ण देखकर उनका नाम ‘जरत्कारु’ रख दिया, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी पूजा कर उन्हें संसार में पूजित होने का वर प्रदान किया, फिर देवताओं ने भी इनकी पूजा की तब से देवी मनसा की ब्रह्मलोक, स्वर्गलोक, पृथ्वीलोक और नागलोक में पूजा होने लगी और ये ‘विश्वपूजिता’ कहलाईं।


देवी मनसा अत्यन्त गौरवर्ण, सुन्दरी व मनोहारिणी हैं, अत: ये ‘जगद्गौरी’ के नाम से भी पूजी जाती हैं, ये भगवान विष्णु की भक्ति में संलग्न रहती हैं और मन से परमब्रह्म परमात्मा का ध्यान करती हैं इसलिए ‘वैष्णवी’ कहलाती हैं यही कारण है कि इनकी आराधना से भगवान विष्णु की कृपा भी प्राप्त हो जाती है।


भगवान श्रीकृष्ण से वर और सिद्धि प्राप्त कर ये कश्यप ऋषि के पास चली आईं, देवी मनसा कश्यप ऋषि की मानसी कन्या हैं । कश्यप ऋषि ने देवी मनसा का विवाह श्रीकृष्ण के अंशरूप महर्षि जरत्कारु के साथ कर दिया।

 महर्षि जरत्कारु की पत्नी होने के कारण इन्हें ‘जरत्कारुप्रिया’ भी कहते हैं। महर्षि जरत्कारु से इन्हें ‘आस्तीक’ नाम का पुत्र हुआ, वे आस्तीक मुनि की माता हैं इसलिए ‘आस्तीकमाता’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। भगवान शंकर ने आस्तीक को ‘मृत्युंजय विद्या’ की दीक्षा दी थी।


देवी मनसा 

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इनके नाम-स्मरण से सर्पभय और सर्पविष से मिलती है मुक्ति

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श्रृंगी मुनि ने राजा परीक्षित को शाप दिया कि ‘एक सप्ताह के बीतते तक्षक सर्प उन्हें काट लेगा, शाप के अनुसार तक्षक ने राजा परीक्षित को डस भी लिया, पिता की ऐसी मृत्यु देखकर परीक्षित के पुत्र जनमेजय को सर्पों पर बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने नागवंश को समाप्त कर देने के लिए सर्पयज्ञ का अनुष्ठान शुरु कर दिया। ब्राह्मणों की मन्त्र शक्ति के प्रभाव से प्रत्येक आहुति पर सैंकड़ों सर्प यज्ञकुण्ड में खिंचे चले आते और भस्म हो जाते, इससे डरकर तक्षक इन्द्र की शरण में चला गया, तब ब्राह्मणों ने इन्द्र सहित तक्षक की यज्ञ में आहुति देने का विचार किया।


इससे भयभीत होकर इन्द्र देवी मनसा की शरण में जाकर अपनी रक्षा की प्रार्थना करने लगे, तब देवी मनसा में अपने पुत्र आस्तीक मुनि को राजा जनमेजय के पास भेजा आस्तीक मुनि के प्रयत्न से राजा जनमेजय ने सर्पयज्ञ समाप्त करवा दिया। 


इस प्रकार देवी मनसा और आस्तीक मुनि के कारण नागवंश की रक्षा हुई अत: वे ‘नागेश्वरी’ व ‘नागमाता’ के नाम से भी जानी जाती हैं। तभी से नाग देवी मनसा की विशेष पूजा करने लगे और नागराज शेष ने उन्हें अपनी बहिन बना लिया इसलिए इन्हें ‘नागभगिनी’ कहते हैं नाग ही इनके वाहन और शय्या बन गये। देवी मनसा सर्पविष का हरण करने में समर्थ हैं इसलिए ‘विषहरी’ कहलाती हैं।


देवी मनसा के बारह नाम का स्तोत्र

जरत्कारु जगद्गौरी मनसा सिद्धयोगिनी । 

वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा ।। 

जरत्कारुप्रिया आस्तीकमाता, विषहरीति च । 

महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता ।। 

द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले तु य: पठेत् । 

तस्य नागभयं नास्ति तस्य वंशोद्भवस्य च ।। 

(ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड ४५।१५-१७)


स्तोत्र पाठ का फल

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जरत्कारु, जगद्गौरी, मनसा, सिद्धयोगिनी, वैष्णवी, नागभगिनी, शैवी, नागेश्वरी, जरत्कारुप्रिया, आस्तीकमाता, विषहरा और महाज्ञानयुता—जो मनुष्य देवी मनसा के इन बारह नामों का पाठ पूजा के समय करता है, उसे तथा उसके वंशजों को नागों/सर्पों का भय नहीं रहता।


जिस भवन, घर या स्थान पर सर्प रहते हों वहां इस स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य सर्पभय से मुक्त हो जाता है।

जो मनुष्य इस स्तोत्र को नित्य पढ़ता है उसे देखकर नाग भाग जाते हैं।


दस लाख पाठ करने से यह स्तोत्र सिद्ध हो जाता है। जिस मनुष्य को यह स्तोत्र सिद्ध हो जाता है उस पर विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वह नागों को आभूषण बनाकर धारण कर सकता है।


अत्यन्त करुणा और दयामयी देवी मनसा को भक्त बहुत प्रिय हैं। आराधना करने पर वह मनुष्य को सभी प्रकार के अभ्युदय प्रदान कर देती है।


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रविवार, 22 अक्तूबर 2023

दुर्गाष्टमी पूजा एवं कन्या पूजन विधान विशेष

दुर्गाष्टमी पूजा एवं कन्या पूजन विधान विशेष

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आश्विन शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन माँ दुर्गा के भवानी स्वरूप का व्रत करने का विधान है। इस वर्ष 2023 में यह व्रत 22 अक्टूबर को किया जाएगा। इस दिन मां भवानी प्रकट हुई थी। इस दिन विधि-विधान से पूजा करनी चाहिए. दुर्गा अष्टमी के दिन माता दुर्गा के लिये व्रत किया जाता है।नवरात्रे में नौ रात्रि पूरी होने पर नौ व्रत पूरे होते है।इन दिनों में देवी की पूजा के अलावा दूर्गा पाठ, पुराण पाठ, रामायण, सुखसागर, गीता, दुर्गा सप्तशती की आदि पाठ श्रद्वा सहित करने चाहिए।

दूर्गा अष्टमी व्रत विधि
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इस व्रत को करने वाले उपवासक को इस दिन प्रात: सुबह उठना चाहिए।और नित्यक्रमों से निवृ्त होने के बाद सारे घर की सफाई कर, घर को शुद्ध करना चाहिए, इसके बाद साधारणत: इस दिन खीर, चूरमा, दाल, हलवा आदि बनाये जाते है. व्रत संकल्प लेने के बाद घर के किसी एकान्त कोने में किसी पवित्र स्थान पर देवी जी का फोटो तथा अपने ईष्ट देव का फोटो लगाया जाता है।

यदि संभव हो तो किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा ही पूजन हवन का कार्य संपन्न कराया जाए परिस्तिथि वश ऐसा ना कर सके तो भाव से माँ का पूजन करना चाहिए।

सर्व प्रथम जिस स्थान पर यह पूजन किया जा रहा है, उसके दोनों और सिंदूर घोल कर, त्रिशुल व यम का चित्र बनाया जाता है. ठिक इसके नीचे चौकी बनावें. त्रिशुल व यम के चित्र के साथ ही एक और 52 व दूसरी और 64 लिखें। 52 से अभिप्राय 52 भैरव है, तथा 64 से अभिप्रात 64 योगिनियां है।साथ ही एक ओर सुर्य व दूसरी और चन्द्रमा बनायें।

किसी मिट्टी के बर्तन या जमीन को शुद्ध कर वेदी बनायें. उसमें जौ तथा गेंहूं बोया जाता है. कलश अपने सामर्थ्य के अनुसर सोना, चांदी, तांबा या मिट्टी का होना चाहिए। कलश पर नारियल रखा जाता है। नारियल रखने से पहले नीचे किनारे पर आम आदि के पत्ते भी लगाने चाहिए।

कलश में मोली लपेटकर सतिया बनाना चाहिए. पूर्व दिशा की ओर मुख करके पूजा करनी चाहिए।पूजा करने वाले का मुंह दक्षिण दिशा की ओर नहीं होना चाहिए। दीपक घी से जलाना चाहिए।नवरात्र व्रत का संकल्प हाथ में पानी, चावल, फूल तथा पैसे लेकर किया जाता है। इसके बाद श्री गणेश जी को चार बार चल के छींटे देकर अर्ध्य, आचमन और मोली चढाकर वस्त्र दिये जाते है. रोली से तिलक कर, चावल छोडे जाते है. पुष्प चढायें जाते है, धूप, दीप या अगरबत्ती जलाई जाती है।

भोग बनाने के लिये सबसे पहले चावल छोडे जाते है। इसके बाद नैवेद्ध भोग चढाया जाता है।जमीन पर थोडा पानी छोडकर आचमन करावें, पान-सुपारी एवं लौंग, इलायची भी चढायें।इसी प्रकर देवी जी का पूजन भी करें। और फूल छोडे, और सामर्थ्य के अनुसार नौ, सात, पांच,तीन या एक कन्या को भोजन करायें।इस व्रत में अपनी शक्ति के अनुसार उपवास किया जा सकता है। एक समय दोपहर के बाद अथवा रात को भोजन किया जा सकता है। पूरे नौ दिन तक व्रत न हों, तो सात, पांच या तीन करें, या फिर एक पहला और एक आखिरी भी किया जा सकता है।

व्रत की अवधि में धरती पर शुद्ध विछावन करके सोवें, शुद्धता से रहें, वैवाहिक जीवन में संयम का पालन करें, क्षमा, दया, उदारता और साहस बनाये रखें. साथ ही लोभ, मोह का त्याग करें. सायंकाल में दीपक जलाकर रखना चाहिए। नवरात्र व्रत कर कथा का पाठ अवश्य करना चाहिए।

देवी जी को वस्त्र, सामान इत्यादि चढाने चाहिए जिसमें चूडी, आभूषण, ओढना या घाघरा, धोती, काजल, बिन्दी इत्यादि और जो भी सौभाग्य द्रव्य हो, वे सभी माता को दान करने चाहिए।

देवी की सहस्त्रनाम द्वारा आराधना
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देवी की प्रसन्नता के लिए पंचांग साधन का प्रयोग करना चाहिए। पंचांग साधन में पटल, पद्धति, कवच, सहस्त्रनाम और स्रोत हैं। पटल का शरीर, पद्धति को शिर, कवच को नेत्र, सहस्त्रनाम को मुख तथा स्रोत को जिह्वा कहा जाता है।

इन सब की साधना से साधक देव तुल्य हो जाता है। सहस्त्रनाम में देवी के एक हजार नामों की सूची है। इसमें उनके गुण हैं व कार्य के अनुसार नाम दिए गए हैं। सहस्त्रनाम के पाठ करने का फल भी महत्वपूर्ण है। इन नामों से हवन करने का भी विधान है। इसके अंतर्गत नाम के पश्चात नमः लगाकर स्वाहा लगाया जाता है।

हवन की सामग्री के अनुसार उस फल की प्राप्ति होती है। सर्व कल्याण व कामना पूर्ति हेतु इन नामों से अर्चन करने का प्रयोग अत्यधिक प्रभावशाली है। जिसे सहस्त्रार्चन के नाम से जाना जाता है। सहस्त्रार्चन के लिए देवी की सहस्त्र नामावली जो कि बाजार में आसानी से मिल जाती है कि आवश्यकता पड़ती है।

इस नामावली के एक-एक नाम का उच्चारण करके देवी की प्रतिमा पर, उनके चित्र पर, उनके यंत्र पर या देवी का आह्वान किसी सुपारी पर करके प्रत्येक नाम के उच्चारण के पश्चात नमः बोलकर भी देवी की प्रिय वस्तु चढ़ाना चाहिए। जिस वस्तु से अर्चन करना हो वह शुद्ध, पवित्र, दोष रहित व एक हजार होना चाहिए।

अर्चन में बिल्वपत्र, हल्दी, केसर या कुंकुम से रंग चावल, इलायची, लौंग, काजू, पिस्ता, बादाम, गुलाब के फूल की पंखुड़ी, मोगरे का फूल, चारौली, किसमिस, सिक्का आदि का प्रयोग शुभ व देवी को प्रिय है। यदि अर्चन एक से अधिक व्यक्ति एक साथ करें तो नाम का उच्चारण एक व्यक्ति को तथा अन्य व्यक्तियों को नमः का उच्चारण अवश्य करना चाहिए।

अर्चन की सामग्री प्रत्येक नाम के पश्चात, प्रत्येक व्यक्ति को अर्पित करना चाहिए। अर्चन के पूर्व पुष्प, धूप, दीपक व नैवेद्य लगाना चाहिए। दीपक इस तरह होना चाहिए कि पूरी अर्चन प्रक्रिया तक प्रज्वलित रहे। अर्चनकर्ता को स्नानादि आदि से शुद्ध होकर धुले कपड़े पहनकर मौन रहकर अर्चन करना चाहिए।

इस साधना काल में लाल ऊनी आसन पर बैठना चाहिए तथा पूर्ण होने के पूर्व उसका त्याग किसी भी स्थिति में नहीं करना चाहिए। अर्चन के उपयोग में प्रयुक्त सामग्री अर्चन उपरांत किसी साधन, ब्राह्मण, मंदिर में देना चाहिए। कुंकुम से भी अर्चन किए जा सकते हैं। इसमें नमः के पश्चात बहुत थोड़ा कुंकुम देवी पर अनामिका-मध्यमा व अंगूठे का उपयोग करके चुटकी से चढ़ाना चाहिए।

बाद में उस कुंकुम से स्वयं को या मित्र भक्तों को तिलक के लिए प्रसाद के रूप में दे सकते हैं। सहस्त्रार्चन नवरात्र काल में एक बार कम से कम अवश्य करना चाहिए। इस अर्चन में आपकी आराध्य देवी का अर्चन अधिक लाभकारी है। अर्चन प्रयोग बहुत प्रभावशाली, सात्विक व सिद्धिदायक होने से इसे पूर्ण श्रद्धा व विश्वास से करना चाहिए।

कन्यापूजन विधि निर्देश
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नवरात्र पर्व  के दौरान कन्या पूजन का बडा महत्व है। नौ कन्याओं को नौ देवियों के प्रतिविंब के रूप में पूजने के बाद ही भक्त का नवरात्र व्रत पूरा होता है। अपने सामर्थ्य के अनुसार उन्हें भोग लगाकर दक्षिणा देने मात्र से ही मां दुर्गा प्रसन्न हो जाती हैं और भक्तों को उनका मनचाहा वरदान देती हैं।

कन्या पूजन के लिए निर्दिष्ट दिन
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कुछ लोग नवमी के दिन भी कन्या पूजन करते हैं लेकिन अष्टमी के दिन कन्या पूजन करना श्रेष्ठ रहता है। कन्याओं की संख्या 9 हो तो अति उत्तम नहीं तो दो कन्याओं से भी काम चल सकता है।

इस वर्ष अष्टमी तिथि को लेकर लोगो के मन मे कई भ्रांतियां है इसके समाधान हेतु दोबारा अष्टमी तिथी का शात्रोक्त निर्णय प्रेषित कर रहे है 

"चैत्र शुक्लाष्टमयां भावान्या उत्पत्ति:,
तत्र नावमीयुता अष्टमी ग्राह्या।"

यदि दूसरे दिन अष्टमी नवमीविधा ना मिले, यानी यह वहां त्रिमुहूर्ताल्प हो तो दुर्गाष्टमी पहले दिन होगी। इस वर्ष दुर्गाष्टमी 9 अप्रैल तथा दुर्गानवमी 10 अप्रैल के दिन मनाई जाएगी अतः अष्टमी के दिन कन्या पूजन करने वाले 9 एवं नवमी के दिन करने वाले 10 अप्रैल के दिन निसंकोच होकर अपने कर्म कर सकते है मन से किसी भी प्रकार के संशय भय की हटा दें माता केवल अपनी संतानों का कल्याण ही करती है। पूजा पाठ में शुद्धि के साथ भाव को प्रधान माना गया है। 

कन्या पूजन विधि
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सबसे पहले कन्याओं के दूध से पैर पूजने चाहिए. पैरों पर अक्षत, फूल और कुंकुम लगाना चाहिए। इसके बाद भगवती का ध्यान करते हुए सबको भोग अर्पित करना चाहिए अर्थात सबको खाने के लिए प्रसाद देना चाहिए। अधिकतर लोग इस दिन प्रसाद के रूप में हलवा-पूरी देते हैं। जब सभी कन्याएं खाना खा लें तो उन्हें दक्षिणा अर्थात उपहार स्वरूप कुछ देना चाहिए फिर सभी के पैर को छूकर आशीर्वाद ले। इसके बाद इन्हें ससम्मान विदा करना चाहिए।

कितनी हो कन्याओं की उम्र
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ऐसा माना जाता है कि दो से दस वर्ष तक की कन्या देवी के शक्ति स्वरूप की प्रतीक होती हैं. कन्याओं की आयु 2 वर्ष से ऊपर तथा 10 वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिए।  दो वर्ष की कन्या कुमारी , तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति , चार वर्ष की कन्या कल्याणी , पांच वर्ष की कन्या रोहिणी, छह वर्ष की कन्या कालिका , सात वर्ष की चंडिका , आठ वर्ष की कन्या शांभवी , नौ वर्ष की कन्या दुर्गा तथा दस वर्ष की कन्या सुभद्रा मानी जाती है।  इनको नमस्कार करने के मंत्र निम्नलिखित हैं।

1. कौमाटर्यै नम: 2. त्रिमूर्त्यै नम: 3. कल्याण्यै नम: 4. रोहिर्ण्य नम: 5. कालिकायै नम: 6. चण्डिकार्य नम: 7. शम्भव्यै नम: 8. दुर्गायै नम: 9. सुभद्रायै नम:।

नौ देवियों का रूप और महत्व 
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1.  हिंदू धर्म में दो वर्ष की कन्या को कुमारी कहा जाता है. ऐसी मान्यता है कि इसके पूजन से दुख और दरिद्रता समाप्त हो जाती है।

2.  तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति मानी जाती है. त्रिमूर्ति के पूजन से धन-धान्य का आगमन और संपूर्ण परिवार का कल्याण होता है।

3.  चार वर्ष की कन्या कल्याणी के नाम से संबोधित की जाती है. कल्याणी की पूजा से सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।

4.  पांच वर्ष की कन्या रोहिणी कही जाती है, रोहिणी के पूजन से व्यक्ति रोग-मुक्त होता है।

5.  छ:वर्ष की कन्या कालिका की अर्चना से विद्या, विजय, राजयोग की प्राप्ति होती है।

6.  सात वर्ष की कन्या चण्डिका के पूजन से ऐश्वर्य मिलता है।

7.  आठ वर्ष की कन्या शाम्भवी की पूजा से वाद-विवाद में विजय होती है।

8.  नौ वर्ष की कन्या को दुर्गा कहा जाता है. किसी कठिन कार्य को सिद्धि करने तथा दुष्ट का दमन करने के उद्देश्य से दुर्गा की पूजा की जाती है।

9.  दस वर्ष की कन्या को सुभद्रा कहते हैं. इनकी पूजा से लोक-परलोक दोनों में सुख प्राप्त होता है।

नवरात्र पर्व पर कन्या पूजन के लिए कन्याओं की 7, 9 या 11 की संख्या मन्नत के मुताबिक पूरी करने में ही पसीना आ जाता है. सीधी सी बात है जब तक समाज कन्या को इस संसार में आने ही नहीं देगा तो फिर पूजन करने के लिये वे कहां से मिलेंगी।

जिस भारतवर्ष में कन्या को देवी के रूप में पूजा जाता है, वहां आज सर्वाधिक अपराध कन्याओं के प्रति ही हो रहे हैं. यूं तो जिस समाज में कन्याओं को संरक्षण, समुचित सम्मान और पुत्रों के बराबर स्थान नहीं हो उसे कन्या पूजन का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. लेकिन यह हमारी पुरानी परंपरा है जिसे हम निभा रहे हैं और कुछ लोग शायद ढो रहे हैं. जब तक हम कन्याओं को यथार्थ में महाशक्ति, यानि देवी का प्रसाद नहीं मानेंगे, तब तक कन्या-पूजन नितान्त ढोंग ही रहेगा. सच तो यह है कि शास्त्रों में कन्या-पूजन का विधान समाज में उसकी महत्ता को स्थापित करने के लिये ही बनाया गया है।

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रविवार, 15 अक्तूबर 2023

इन ९ औषधियों में विराजती है माँ नवदुर्गा

 

*इन ९ औषधियों में विराजती है माँ नवदुर्गा


माँ दुर्गा नौ रूपों में अपने भक्तों का कल्याण कर उनके सारे संकट हर लेती हैं। इस बात का जीता जागता प्रमाण है, संसार में उपलब्ध वे औषधियां,

जिन्हें माँ दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों के रूप में जाना जाता है।


नवदुर्गा के नौ औषधि स्वरूपों को सर्वप्रथम मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के रूप में दर्शाया गया और चिकित्सा प्रणाली के इस रहस्य को ब्रह्माजी

द्वारा उपदेश में दुर्गा कवच कहा गया है।


ऐसा माना जाता है कि यह औषधियां समस्त प्राणियों के रोगों को हरने वाली और उनसे बचा रखने के लिए एक कवच का कार्य करती हैं, इसलिए इसे दुर्गा कवच कहा गया। 


इनके प्रयोग से मनुष्य अकाल मृत्यु से बचकर सौ वर्ष जीवन जी सकता है।

आइए जानते हैं दिव्य गुणों वाली नौ औषधियों को जिन्हें नवदुर्गा कहा गया है।


(1) प्रथम शैलपुत्री (हरड़) : 

कई प्रकार के रोगों में काम आने वाली औषधि हरड़ हिमावती है जो देवी शैलपुत्री का ही एक रूप है.यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है यह पथया, हरीतिका, अमृता, हेमवती, कायस्थ, चेतकी और श्रेयसी सात प्रकार की होती है. इसका प्रयोग करने से पेट की सभी समस्‍याएं दूर रहती हैं।


(2) ब्रह्मचारिणी (ब्राह्मी) : 

ब्राह्मी आयु व याददाश्त बढ़ाकर, रक्तविकारों को दूर कर स्वर को मधुर बनाती है. इसलिए इसे सरस्वती भी कहा जाता है.


यह मन एवं मस्तिष्क में शक्ति प्रदान करती है और गैस व मूत्र संबंधी रोगों की प्रमुख दवा है। यह मूत्र द्वारा रक्त विकारों को बाहर निकालने में समर्थ औषधि है। 

अत: इन रोगों से पीड़ित व्यक्ति को ब्रह्मचारिणी की आराधना करना चाहिए।


(3) चंद्रघंटा (चंदुसूर) : 

यह एक ऎसा पौधा है जो धनिए के समान है। इस पौधे की पत्तियों की सब्जी बनाई जाती है, जो लाभदायक होती है।


यह औषधि मोटापा दूर करने में लाभप्रद है, इसलिए इसे चर्महन्ती भी कहते हैं। शक्ति को बढ़ाने वाली, हृदय रोग को ठीक करने वाली चंद्रिका औषधि है।


(4) कूष्मांडा (पेठा) : 

नवदुर्गा का चौथा रूप कुष्मांडा है। इस औषधि से पेठा मिठाई बनती है, इसे कुम्हड़ा भी कहते हैं जो पुष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक व रक्त के विकार को ठीक कर पेट को साफ करने में सहायक है।


मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति के लिए यह अमृत समान है। यह शरीर के समस्त दोष को दूर कर हृदय रोग को ठीक करता है। कुम्हड़ा रक्त पित्त एवं गैस को दूर करता है। इन बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को पेठे के उपयोग करना चाहिए।


(5) स्कंदमाता (अलसी) : 

देवी स्कंदमाता औषधि के रूप में अलसी में विद्यमान हैं. यह वात, पित्त व कफ रोगों की नाशक औषधि है.इसमे फाइबर की मात्रा ज्यादा होने से इसे सभी को भोजन के पश्चात काले नमक से भूंजकर प्रतिदिन सुबह शाम लेना चाहिए यह खून भी साफ करता है।


(6) कात्यायनी (मोइया) : 

देवी कात्यायनी को आयुर्वेद में कई नामों से जाना जाता है जैसे अम्बा, अम्बालिका व अम्बिका, इसके अलावा इन्हें मोइया भी कहते हैं.यह औषधि कफ, पित्त व गले के रोगों का नाश करती है।


(7) कालरात्रि (नागदौन) : 

यह देवी नागदौन औषधि के रूप में जानी जाती हैं.यह सभी प्रकार के रोगों में लाभकारी और मन एवं मस्तिष्क के विकारों को दूर करने वाली औषधि है.यह पाइल्स के लिये भी रामबाण औषधि है इसे स्थानीय भाषा जबलपुर में दूधी कहा जाता है।


(8) महागौरी (तुलसी) : 

तुलसी सात प्रकार की होती है सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरूता, दवना, कुढेरक, अर्जक और षटपत्र. ये रक्त को साफ कर ह्वदय रोगों का नाश करती है. एकादशी को छोडकर प्रतिदिन सुबह ग्रहण करना चाहिए।


नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता


(9) सिद्धिदात्री (शतावरी) : 

दुर्गा का नौवां रूप सिद्धिदात्री है जिसे नारायणी शतावरी कहते हैं. यह बल, बुद्धि एवं विवेक के लिए उपयोगी है.


विशेषकर प्रसूताओं (जिन माताओं को ऑपरेशन के पश्चात अथवा कम दूध आता है) उनके लिए यह रामबाण औषधि है को इसका सेवन करना चाहिए।


इस प्रकार प्रत्येक देवी आयुर्वेद की भाषा में मार्कण्डेय पुराण के अनुसार नौ औषधि के रूप में मनुष्य की प्रत्येक बीमारी को ठीक कर रक्त का संचालन उचित एवं साफ कर मनुष्य को स्वस्थ करती है।


अत: मनुष्य को इनकी आराधना एवं सेवन करना चाहिए।


🌺🙏 *जय माता दी* 🙏🌺

नवरात्री के नौ दिन माँ के अलग-अलग भोग

 नवरात्री के नौ दिन माँ के अलग-अलग भोग

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१👉 प्रथम नवरात्रि पर मां को गाय का शुद्ध घी या फिर सफेद मिठाई अर्पित की जाती है।


२👉 दूसरे नवरात्रि के दिन मां को शक्कर का भोग लगाएं और भोग लगाने के बाद इसे घर में सभी सदस्यों को दें। इससे उम्र में वृद्धि होती है।


३👉 तृतीय नवरात्रि के दिन दूध या दूध से बनी मिठाई, खीर का भोग मां को लगाएं एवं इसे ब्राह्मण को दान करें। इससे दुखों से मुक्ति होकर परम आनंद की प्राप्ति होती है। 


४👉 चतुर्थ नवरात्र पर मां भगवती को मालपुए का भोग लगाएं और ब्राह्मण को दान दें। इससे बुद्धि का विकास होने के साथ निर्णय लेने की शक्ति बढ़ती है। 


५ 👉नवरात्रि के पांचवें दिन मां को केले का नैवेद्य अर्पित करने से शरीर स्वस्थ रहता है। 


६ 👉नवरात्रि के छठे दिन मां को शहद का भोग लगाएं, इससे आकर्षण शक्ति में वृद्धि होती है। 


७ 👉सप्तमी पर मां को गुड़ का नैवेद्य अर्पित करने और इसे ब्राह्मण को दान करने से शोक से मुक्ति मिलती है एवं अचानक आने वाले संकटों से रक्षा भी होती है।


८ 👉अष्टमी व नवमी पर मां को नारियल का भोग लगाएं और नारियल का दान करें। इससे संतान संबंधी परेशानियों से मुक्ति मिलती है।


🙏🙏🙏

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शनिवार, 14 अक्तूबर 2023

शनैश्चरी सर्वपितृ अमावस्या विशेष

 शनैश्चरी सर्वपितृ अमावस्या विशेष

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शनिवार, 14 अक्टूबर को आश्विम मास की अमावस्या तिथि है। इस दिन पितृ पक्ष समाप्त हो जाएगा। इसे सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या कहा जाता है। अगले दिन यानी रविवार, 15 अक्टूबर से शारदीय नवरात्रि शुरू हो जाएगी। इस साल पितृ पक्ष में शनिवार और अमावस्या को योग बना है। 


यह पितरों की शान्ति के लिए सर्वश्रेष्ठ तिथि है। इसलिए यह सर्वपितृकार्येषु अमावस्या के रुप में भी जानी जाती है।


जो व्यक्ति पितृ पक्ष के पन्द्रह दिनों तक श्राद्ध-तर्पण आदि नहीं करते हैं, वे अपने पितरों के लिए श्राद्ध आदि सर्वपितृ अमावस्या को करते हैं। जिनको अपने पितरों की तिथि याद नहीं हो, उनके निमित्त भी श्राद्ध, तर्पण, दान आदि पितृ पक्ष की अमावस्या को किया जाता है इसलिए इसे सर्वपितृ अमावस्या कहते हैं। पितृ पक्ष की अमावस्या के दिन सभी पितरों का विसर्जन होता है इसलिए इसे पितृविसर्जनी अमावस्या भी कहते हैं।


सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितृगण अपने पुत्रादि के घर के द्वार पर पिण्डदान एवं श्राद्ध आदि की आशा में आते हैं, यदि वहां उन्हें अन्न-जल नहीं मिलता तो वे शाप देकर चले जाते हैं।


श्राद्ध के द्वारा पितृ-ऋण उतारना आवश्यक है। क्योंकि जिन माता-पिता ने हमारी आयु, आरोग्य और सुख-सौभाग्य आदि के लिए अनेक प्रयास किए, उनके ऋण से मुक्त न होने पर हमारा जन्म ग्रहण करना निरर्थक होता है । पितृ ऋण उतारने में कोई ज्यादा खर्चा भी नहीं है । केवल वर्ष में एक बार पितृ पक्ष में उनकी मृत्यु तिथि पर या अमावस्या को, आसानी से सुलभ जल, तिल, जौ, कुशा और पुष्प आदि से उनका श्राद्ध और तर्पण करें और गो-ग्रास देकर अपनी सामर्थ्यानुसार ब्राह्मणों को भोजन करा देने मात्र से पितृ ऋण उतर जाता है । 


कैसे करें सर्वपितृ अमावस्या का श्राद्ध ?

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अपने पितरों का श्राद्ध पूर्ण श्रद्धा भाव से करना चाहिए । श्राद्ध में अपनी सामर्थ्यानुसार अच्छे-से-अच्छा पकवान खीर, पूरी, इमरती, दही बड़े, केसरिया दूध आदि पितरों के लिए बनाने चाहिए । ऐसे पकवानों से पितर बहुत तृप्त होते हैं और उनकी आत्मा सुख पाती है । इसी से पुत्र को उनका आशीर्वाद मिलता है और हमारा सौभाग्य और वंश परम्परा बढ़ती है । घर में सुख-शांति और धर्म-कर्म में रुचि बढ़ती है । परिवार में संतान हृष्ट-पुष्ट, आयुष्मान व सौभाग्यशाली होती है ।


आयु: पुत्रान् यश: स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम् । 

पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृ पूजनात् ।।


अर्थात्—पितरों का पूजन (पिण्डदान) करने वाला मनुष्य दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य की प्राप्ति करता है ।


पितरों को श्राद्ध का अन्न अमृत के रूप में मिलता है । जो पितर जिस योनि में होता है, उसे वहीं पर मंत्रों द्वारा श्राद्धान्न पहुंचता है । श्राद्ध कर्म में पंचबलि निकाल कर ही ब्राह्मण भोजन करायें । पंचबलि के लिए पांच जगह थोड़ा-थोड़ा सभी प्रकार का भोजन परोस कर हाथ में जल, रोली, चावल, पुष्प लेकर पंचबलि दान का संकल्प करें । पंचबलि में ये पांच बलि होती हैं—


गोबलि👉 गाय पितरों को भूलोक से भुव लोक तक पहुंचाती है और वैतरणी नदी पार कराती है । 


काकबलि👉 कौवा यम पक्षी है इसलिए श्राद्ध के अन्न का एक अंश इसे भी दिया जाता है ।


श्वानबलि👉 कुत्ता भी यम पशु है । यह दूरदर्शी भी है और रक्षक भी है ।


भिक्षुक👉 किसी भूखे भिखारी को भी श्राद्ध का अन्न अवश्य दिया जाता है।


पिपीलिकादिबलि👉 चीटीं आदि कीट पतंगों के लिए भी श्राद्ध के अन्न की व्यवस्था की गयी है, ताकि किसी भी अवस्था में हमारे पितरों को शांति और मोक्ष मिले ।


पंचबलि निकालकर कौवों के निमित्त निकाला गया अन्न कौवे को, कुत्ता का अन्न कुत्ते को और भिक्षुक का भाग भिखारी को देने के बाद बाकी सब भोजन गाय को खिला दें । 


फिर ब्राह्मणों के चरणों पर जल के छींटें लगाकर रक्षक मन्त्र बोलकर भूमि पर काले तिल बिखेर दें और ब्राह्मणों के रूप में अपने पितरों का ध्यान करना चाहिए । रक्षक मन्त्र का अर्थ है—‘यहां सम्पूर्ण हव्य-कव्य के भोक्ता यज्ञेश्वर भगवान श्रीहरि विराजमान हैं, अत: उनकी उपस्थिति के कारण राक्षस यहां से तुरन्त भाग जाएं ।’ इसके बाद ब्राह्मणों को गरम-गरम भोजन करायें ।


यदि किसी पुरुष का श्राद्ध हो तो ब्राह्मण को धोती, कुर्ता, गमछा व दक्षिणा देकर तिलक लगाकर विदा करना चाहिए और यदि स्त्री का श्राद्ध हो तो ब्राह्मणी को भोजन कराकर साड़ी, ब्लाउज और दक्षिणा देकर विदा करें । विदा करते समय उनके चरण-स्पर्श अवश्य करने चाहिए ।


श्राद्ध कर्म की पूर्णता के लिए करें ये प्रार्थना


अन्नहीनं क्रियाहीनं विधिहीनं च यद् भवेत् । 

अच्छिद्रमस्तु तत्सर्वं पित्रादीनां प्रसादत: ।।


तथा इसके बाद दक्षिण की ओर मुख करके पितरों से इस प्रकार प्रार्थना करें—‘हमारे कुल में दान देने वालों की, ज्ञान की और संतानों की वृद्धि हो । शास्त्रों, ब्राह्मणों, पितरों और देवताओं में हमारी श्रद्धा बढ़े । मेरे पास दान देने के लिए बहुत-से पदार्थ हों ।’


पितरों की शान्ति के लिए विशेष उपाय

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👉 सर्वपितृ श्राद्ध के दिन श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय का माहात्म्य पढ़कर फिर पूरा सातवां अध्याय पढ़ें । उसका पुण्यफल पितरों को अर्पित करने का महान पुण्य बताया गया है।


👉 पितृविसर्जनी अमावस्या के दिन शाम को सूर्यास्त के समय एक तेल का दीपक जलाकर घर के दरवाजे के बाहर रखा जाता है। इसका भाव यह है कि पितृगण विदा होकर जब अपने लोक को वापिस लौटें तो उन्हें रास्ता साफ दिखाई दे और वे प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थान को चले जाएं । साथ ही यह प्रार्थना करें—


सेवा कछु कीन्हीं नहीं, दिया न कुछ भी ध्यान । 

गलती सब माफी करो, हमें जान अज्ञान ।। 

दीप ज्योति हमने करी, लीजों पंथ निहार । 

जो कुछ भी हमसे बनो, दीनों तुम्हें अाहार ।। 

नमस्कार पुनि पुनि करुं, रखियों वंश को ध्यान । 

आशीश सदा देते रहो फूले फले तव बगियान ।।


सर्वपितृ अमावस्या श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन कराते समय रखें इन बातों का ध्यान

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👉 श्राद्ध कर्म में शरीर, द्रव्य, स्त्री, भूमि, मन, मन्त्र और ब्राह्मण—ये सात चीजें विशेष रूप से शुद्ध होनी चाहिए ।


👉 श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को रोना नहीं चाहिए, न ही क्रोध करना चाहिए । आंसू गिराने से श्राद्ध का अन्न भूतों को, क्रोध करने से शत्रुओं को, झूठ बोलने से कुत्तों को और श्राद्ध के अन्न से पैर छुआने से वह भोजन राक्षसों को प्राप्त होता है ।


👉 श्राद्ध कर्म में उतावलापन और जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए ।


👉 जहां श्राद्ध कर्म किया जा रहा है, वहां से पक्षियों, कौओं, चींटिओं आदि को हटाना नहीं चाहिए क्योंकि संभव है इनके ही रूप में पितरगण वहां खाने की इच्छा से आये हों ।


👉 श्राद्ध में नमक कभी नहीं देना चाहिए ।


👉 श्राद्ध में ब्राह्मण की जगह मित्र को भोजन कराकर दक्षिणा नहीं देनी चाहिए। इसका परलोक में कोई फल नहीं मिलता है।


👉 श्राद्ध करने वाला व्यक्ति यदि कोई कामना के लिए नित्य जप करता है को श्राद्ध के दिन उसे जप नहीं करना चाहिए ।


👉 श्राद्ध स्थल से सेवक, लंगड़े, काने या ऐसे व्यक्ति को जिसके ज्यादा या कम अंग हों, हटा देना चाहिए ।


👉 श्राद्ध कर्म में जूठा बचा हुआ भोजन किसी को नहीं देना चाहिए ।


👉 श्राद्ध में ब्राह्मणों से यह नहीं पूछना चाहिए कि भोजन कैसा बना है । जब तक ब्राह्मण मौन होकर भोजन करते हैं और भोजन के गुण नहीं बतलाते तब तक ही पितर भोजन करते हैं ।


सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितृ दोष शांति के साथ ही कालसर्प योग, ढैय्या तथा साढ़ेसाती सहित शनि संबंधी अनेक बाधाओं से मुक्ति पाने का यह दुर्लभ समय होता है जब शनिवार के दिन अमावस्या का समय हो जिस कारण इसे शनि अमावस्या कहा जाता है।


श्री शनिदेव भाग्यविधाता हैं, यदि निश्छल भाव से शनिदेव का नाम लिया जाये तो व्यक्ति के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। श्री शनिदेव तो इस चराचर जगत में कर्मफल दाता हैं जो व्यक्ति के कर्म के आधार पर उसके भाग्य का फैसला करते हैं। इस दिन शनिदेव का पूजन सफलता प्राप्त करने एवं दुष्परिणामों से छुटकारा पाने हेतु बहुत उत्तम होता है। इस दिन शनि देव का पूजन सभी मनोकामनाएं पूरी करता है।


शनिश्चरी अमावस्या पर शनिदेव का विधिवत पूजन कर सभी लोग पर्याप्त लाभ उठा सकते हैं। इस दिन विशेष अनुष्ठान द्वारा पितृदोष और कालसर्प दोषों से मुक्ति पाई जा सकती है. इसके अलावा शनि का पूजन और तैलाभिषेक कर शनि की साढेसाती, ढैय्या और महादशा जनित संकट और आपदाओं से भी मुक्ति पाई जा सकती है,


शनैश्चरी अमावस्या महत्व 

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शनि अमावस्या ज्योतिषशास्त्र के अनुसार साढ़ेसाती एवं ढ़ैय्या के दौरान शनि व्यक्ति को अपना शुभाशुभ फल प्रदान करता है. शनि अमावस्या बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है. इस दिन शनि देव को प्रसन्न करके व्यक्ति शनि के कोप से अपना बचाव कर सकते हैं. पुराणों के अनुसार शनि अमावस्या के दिन शनि देव को प्रसन्न करना बहुत आसान होता है. शनि अमावस्या के दिन शनि दोष की शांति बहुत ही सरलता कर सकते हैं।


इस दिन महाराज दशरथ द्वारा लिखा गया शनि स्तोत्र का पाठ करके शनि की कोई भी वस्तु जैसे काला तिल, लोहे की वस्तु, काला चना, कंबल, नीला फूल दान करने से शनि साल भर कष्टों से बचाए रखते हैं. जो लोग इस दिन यात्रा में जा रहे हैं और उनके पास समय की कमी है वह सफर में शनि नवाक्षरी मंत्र अथवा “कोणस्थ: पिंगलो बभ्रु: कृष्णौ रौद्रोंतको यम:। सौरी: शनिश्चरो मंद:पिप्पलादेन संस्तुत:।।” मंत्र का जप करने का प्रयास करते हैं करें तो शनि देव की पूर्ण कृपा प्राप्त होती है।


पितृदोष से मुक्ति

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शनि अमावस्या पितृदोष मुक्ति के लिये उत्तम दिन है। पितृ शांति के लिये अमावस्या तिथि का विशेष महत्व है और अमावस्या अगर शनिवार के दिन पड़े तो इसका महत्व और अधिक बढ़ जाता है. शनिदेव को अमावस्या अधिक प्रिय है. शनि देव की कृपा का पात्र बनने के लिए शनिश्चरी अमावस्या को सभी को विधिवत आराधना करनी चाहिए. भविष्यपुराण के अनुसार शनिश्चरी अमावस्या शनिदेव को अधिक प्रिय रहती है।


शनैश्चरी अमावस्या के दिन पितरों का श्राद्ध अवश्य करना चाहिए. जिन व्यक्तियों की कुण्डली में पितृदोष या जो भी कोई पितृ दोष की पिडा़ को भोग रहे होते हैं उन्हें इस दिन दान इत्यादि विशेष कर्म करने चाहिए. यदि पितरों का प्रकोप न हो तो भी इस दिन किया गया श्राद्ध आने वाले समय में मनुष्य को हर क्षेत्र में सफलता प्रदान करता है, क्योंकि शनिदेव की अनुकंपा से पितरों का उद्धार बडी सहजता से हो जाता है।


शनि अमावस्या पूजन

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पवित्र नदी के जल से या नदी में स्नान कर शनि देव का आवाहन और दर्शन करना चाहिए. शनिदेव का पर नीले पुष्प, बेल पत्र, अक्षत अर्पण करें. शनिदेव को प्रसन्न करने हेतु शनि मंत्र “ॐ शं शनैश्चराय नम:”, अथवा “ॐ प्रां प्रीं प्रौं शं शनैश्चराय नम:” मंत्र का जाप करना चाहिए. इस दिन सरसों के तेल, उडद, काले तिल, कुलथी, गुड शनियंत्र और शनि संबंधी समस्त पूजन सामग्री को शनिदेव पर अर्पित करना चाहिए और शनि देव का तैलाभिषेक करना चाहिए. शनि अमावस्या के दिन शनि चालीसा, हनुमान चालीसा या बजरंग बाण का पाठ अवश्य करना चाहिए. जिनकी कुंडली या राशि पर शनि की साढ़ेसाती व ढैया का प्रभाव हो उन्हें शनि अमावस्या के दिन पर शनिदेव का विधिवत पूजन करना चाहिए।


शनैश्चरी अमावस्या पर शनि मंत्र- स्रोत्र द्वारा उपाय

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शनैश्चरी अमावस्या के दिन शनि मंत्र का अधिक से अधिक जाप करना परम कल्याणकारक माना गया है जप से पहले शरीर और आसान शुद्धि के बाद निम्न विनियोग करे इसके बाद जप आरम्भ करें।


विनियोग👉 शन्नो देवीति मंत्रस्य सिन्धुद्वीप ऋषि: गायत्री छंद:, आपो देवता, शनि प्रीत्यर्थे जपे विनियोग:.नीचे लिखे गये कोष्ठकों के अन्गों को उंगलियों से छुयें. अथ देहान्गन्यास:-शन्नो शिरसि (सिर), देवी: ललाटे (माथा).अभिषटय मुखे (मुख), आपो कण्ठे (कण्ठ), भवन्तु ह्रदये (ह्रदय), पीतये नाभौ (नाभि), शं कट्याम (कमर), यो: ऊर्वो: (छाती), अभि जान्वो: (घुटने), स्त्रवन्तु गुल्फ़यो: (गुल्फ़), न: पादयो: (पैर).अथ करन्यास:-शन्नो देवी: अंगुष्ठाभ्याम नम:.अभिष्टये तर्ज्जनीभ्याम नम:.आपो भवन्तु मध्यमाभ्याम नम:.पीतये अनामिकाभ्याम नम:.शंय्योरभि कनिष्ठिकाभ्याम नम:.स्त्रवन्तु न: करतलकरपृष्ठाभ्याम नम:.अथ ह्रदयादिन्यास:-शन्नो देवी ह्रदयाय नम:.अभिष्टये शिरसे स्वाहा.आपो भवन्तु शिखायै वषट.पीतये कवचाय हुँ.(दोनो कन्धे).शंय्योरभि नेत्रत्राय वौषट.स्त्रवन्तु न: अस्त्राय फ़ट.ध्यानम:-नीलाम्बर: शूलधर: किरीटी गृद्ध्स्थितस्त्रासकरो धनुश्मान.चतुर्भुज: सूर्यसुत: प्रशान्त: सदाअस्तु मह्यं वरदोअल्पगामी..शनि गायत्री:-औम कृष्णांगाय विद्य्महे रविपुत्राय धीमहि तन्न: सौरि: प्रचोदयात.वेद मंत्र:- औम प्राँ प्रीँ प्रौँ स: भूर्भुव: स्व: औम शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये शंय्योरभिस्त्रवन्तु न:.औम स्व: भुव: भू: प्रौं प्रीं प्रां औम शनिश्चराय नम:.


शनि बीज जप मंत्र 👉 ऊँ प्रां प्रीं प्रौं स: शनिश्चराय नम:। संख्या 23000 जाप ।


शनि स्तोत्रम

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शनि अष्टोत्तरशतनामावलि 

ॐ शनैश्चराय नमः ॥ ॐ शान्ताय नमः ॥ ॐ सर्वाभीष्टप्रदायिने नमः ॥ ॐ शरण्याय नमः ॥ ॐ वरेण्याय नमः ॥ ॐ सर्वेशाय नमः ॥ ॐ सौम्याय नमः ॥ ॐ सुरवन्द्याय नमः ॥ ॐ सुरलोकविहारिणे नमः ॥ ॐ सुखासनोपविष्टाय नमः ॥ ॐ सुन्दराय नमः ॥ ॐ घनाय नमः ॥ ॐ घनरूपाय नमः ॥ ॐ घनाभरणधारिणे नमः ॥ ॐ घनसारविलेपाय न मः ॥ ॐ खद्योताय नमः ॥ ॐ मन्दाय नमः ॥ ॐ मन्दचेष्टाय नमः ॥ ॐ महनीयगुणात्मने नमः ॥ ॐ मर्त्यपावनपदाय नमः ॥ ॐ महेशाय नमः ॥ ॐ छायापुत्राय नमः ॥ ॐ शर्वाय नमः ॥ ॐ शततूणीरधारिणे नमः ॥ ॐ चरस्थिरस्वभा वाय नमः ॥ ॐ अचञ्चलाय नमः ॥ ॐ नीलवर्णाय नमः ॥ ॐ नित्याय नमः ॥ ॐ नीलाञ्जननिभाय नमः ॥ ॐ नीलाम्बरविभूशणाय नमः ॥ ॐ निश्चलाय नमः ॥ ॐ वेद्याय नमः ॥ ॐ विधिरूपाय नमः ॥ ॐ विरोधाधारभूमये नमः ॥ ॐ भेदास्पदस्वभावाय नमः ॥ ॐ वज्रदेहाय नमः ॥ ॐ वैराग्यदाय नमः ॥ ॐ वीराय नमः ॥ ॐ वीतरोगभयाय नमः ॥ ॐ विपत्परम्परेशाय नमः ॥ ॐ विश्ववन्द्याय नमः ॥ ॐ गृध्नवाहाय नमः ॥ ॐ गूढाय नमः ॥ ॐ कूर्माङ्गाय नमः ॥ ॐ कुरूपिणे नमः ॥ ॐ कुत्सिताय नमः ॥ ॐ गुणाढ्याय नमः ॥ ॐ गोचराय नमः ॥ ॐ अविद्यामूलनाशाय नमः ॥ ॐ विद्याविद्यास्वरूपिणे नमः ॥ ॐ आयुष्यकारणाय नमः ॥ ॐ आपदुद्धर्त्रे नमः ॥ ॐ विष्णुभक्ताय नमः ॥ ॐ वशिने नमः ॥ ॐ विविधागमवेदिने नमः ॥ ॐ विधिस्तुत्याय नमः ॥ ॐ वन्द्याय नमः ॥ ॐ विरूपाक्षाय नमः ॥ ॐ वरिष्ठाय नमः ॥ ॐ गरिष्ठाय नमः ॥ ॐ वज्राङ्कुशधराय नमः ॥ ॐ वरदाभयहस्ताय नमः ॥ ॐ वामनाय नमः ॥ ॐ ज्येष्ठापत्नीसमेताय नमः ॥ ॐ श्रेष्ठाय नमः ॥ ॐ मितभाषिणे नमः ॥ ॐ कष्टौघनाशकर्त्रे नमः ॥ ॐ पुष्टिदाय नमः ॥ ॐ स्तुत्याय नमः ॥ ॐ स्तोत्रगम्याय नमः ॥ ॐ भक्तिवश्याय नमः ॥ ॐ भानवे नमः ॥ ॐ भानुपुत्राय नमः ॥ ॐ भव्याय नमः ॥ ॐ पावनाय नमः ॥ ॐ धनुर्मण्डलसंस्थाय नमः ॥ ॐ धनदाय नमः ॥ ॐ धनुष्मते नमः ॥ ॐ तनुप्रकाशदेहाय नमः ॥ ॐ तामसाय नमः ॥ ॐ अशेषजनवन्द्याय नमः ॥ ॐ विशेशफलदायिने नमः ॥ ॐ वशीकृतजनेशाय नमः ॥ ॐ पशूनां पतये नमः ॥ ॐ खेचराय नमः ॥ ॐ खगेशाय नमः ॥ ॐ घननीलाम्बराय नमः ॥ ॐ काठिन्यमानसाय नमः ॥ ॐ आर्यगणस्तुत्याय नमः ॥ ॐ नीलच्छत्राय नमः ॥ ॐ नित्याय नमः ॥ ॐ निर्गुणाय नमः ॥ ॐ गुणात्मने नमः ॥ ॐ निरामयाय नमः ॥ ॐ निन्द्याय नमः ॥ ॐ वन्दनीयाय नमः ॥ ॐ धीराय नमः ॥ ॐ दिव्यदेहाय नमः ॥ ॐ दीनार्तिहरणाय नमः ॥ ॐ दैन्यनाशकराय नमः ॥ ॐ आर्यजनगण्याय नमः ॥ ॐ क्रूराय नमः ॥ ॐ क्रूरचेष्टाय नमः ॥ ॐ कामक्रोधकराय नमः ॥ ॐ कलत्रपुत्रशत्रुत्वकारणाय नमः ॥ ॐ परिपोषितभक्ताय नमः ॥ ॐ परभीतिहराय न मः ॥ ॐ भक्तसंघमनोऽभीष्टफलदाय नमः ॥


इसका 108 पाठ करने से शनि सम्बन्धी सभी पीडायें समाप्त हो जाती हैं। तथा पाठ कर्ता धन धान्य समृद्धि वैभव से पूर्ण हो जाता है। और उसके सभी बिगडे कार्य बनने लगते है। यह सौ प्रतिशत अनुभूत है।

इसके अतिरिक्त दशरथकृत शनि स्तोत्र का यथा सामर्थ्य पाठ भी शनि जनित अरिष्ट से शांति दिलाता है।


दशरथकृत शनि स्तोत्र

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नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च।

नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम:।


नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।

नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते। 2


नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम:।

नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते। 3


नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: ।

नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने। 4


नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते।

सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च। 5


अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते।

नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते। 6


तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च ।

नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम:।7


ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे ।

तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात्। 8


देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा:।

त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:। 9


प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे।

एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ।10


शनैश्चरी अमावस्या पर शनि देव को प्रसन्न करने के शास्त्रोक्त उपाय।

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ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सभी व्यक्ति की कुंडली में 9 ग्रह होते है जो अपना प्रभाव दिखाते है।


इन ग्रहों की स्थिति परिवर्तन के वजह से मनुष्य को समय समय पर अच्छे व बुरे दोनों परिणाम प्राप्त होते है।


इन 9 ग्रह में से केवल शनि देव ऐसे है जिनके प्रभाव से मनुष्य घबरा जाता है। 


हिन्दू धर्मशास्‍त्रों में भी शनिदेव का चरित्र भी दण्डाधिकारी के रूप में माना गया है जो कि कर्म और सत्य को जीवन में अपनाने की ही प्रेरणा देता है।


लेकिन अगर आप शनिदेव को प्रसन्न करना चाहते हैं तो शास्‍त्रों में बहुत सारे उपाय बताए गए हैं जिससे शनिदेव प्रसन्‍न हो जाएंगे।


शनिदेव के प्रसन्‍न होने से आपका जीवन सफल हो जाएगा। तो आइए जानते हैं उन उपायों को


अगर आप शनि को प्रसन्न करना चाहते हैं तो शनैश्चरी अमावस्या के दिन पीपल के वृक्ष के नीचे दीपक जलाएं और दोनों हाथों से पीपल के पेड़ को स्‍पर्श करें।


इस दौरान पीपल के पेड़ की परिक्रमा करें और शनि मंत्र ‘ऊं शं शनैश्‍चराय नम:’ का जाप करते रहना चाहिए, यह आपकी साढ़ेसाती की सभी परेशानियों को दूर ले जाता है।


साढ़ेसाती के प्रकोप से बचने के लिए इस दिन उपवास रखने वाले व्यक्ति को दिन में एक बार नमक विहीन भोजन करना चाहिए।


   उपाय

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अगर आपकी कोई विशेष मनोकामना है तो शनैश्चरी अमावस्या के दिन आप अपने लंबाई का लाल रंग का धागा लेकर इसे आम के पत्‍ते पर लपेट दें।


इस पत्‍ते और लपेटे हुए धागे को लेकर अपनी मनोकामना को मन में आवाहन करें और उसके बाद इस पत्‍ते और धागे को बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें। इससे आपकी मनोकामना जल्‍द पूरी होगी।


   उपाय

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अक्‍सर ऐसा होता है कि लोग बहुत संघर्ष व मेहनत करते हैं लेकिन उन्‍हें सफलता हाथ नहीं लगती या लोग जो सोचते हैं वो हो नहीं पाता ऐसे में लोग न चाहते हुए भी अपने भाग्‍य को कोसने लगते हैं।


कहते हैं कि भाग्य बिल्कुल भी साथ नहीं देता और दुर्भाग्य निरन्तर पीछा कर रहा है।


कहा जाता है कि इंसान के पिछले कर्मों के अच्छे-बुरे परिणामों का फल भी आपके भाग्‍य का निर्धारण करता है इसलिए आपको इन सभी बातों को छोड़कर निष्काम भाव से सच्चे मन से प्रयास करना चाहिए।


लेकिन आज एक उपाय जो हम आपको बताने जा रहे हैं उसे करने से आपका सोया हुआ भाग्‍य जाग जाएगा।


शनैचरी अमावस्या से आरंभ कर लगातार 41 दिन रोज सुबह गाय का दुध लेकर नहाने से पहले इसे अपने सिर पर थोड़ा सा रख लें।


और फिर नहा लें अगर आप ऐसा रोज करेंगे तो आपका सोया हुआ भाग्‍य जाग जाएगा।


इतना ही नहीं आप जो भी काम सोचेंगे वो पूरा हो जाएगा। आपकी जीवन में आ रही रूकावटें खत्‍म हो जाएगी। बस अधिक से अधिक संयम रखने का प्रयास करें।


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शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2023

अजामिल कथा श्रीमद भागवत पुराण

 अजामिल कथा श्रीमद भागवत पुराण

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कान्यकुब्ज (कन्नौज) में एक दासी पति ब्राम्हण रहता था। उसका नाम अजामिल था। यह अजामिल बड़ा शास्त्रज्ञ था। शील, सदाचार और सद्गुणों का तो यह खजाना ही था। ब्रम्हचारी, विनयी, जितेन्द्रिय, सत्यनिष्ठ, मन्त्रवेत्ता और पवित्र भी था। इसने गुरु, संत-महात्माओं सबकी सेवा की थी। एक बार अपने पिता के आदेशानुसार वन में गया और वहाँ से फल-फूल, समिधा तथा कुश लेकर घर के लिये लौटा। लौटते समय इसने देखा की एक व्यक्ति मदिरा पीकर किसी वेश्या के साथ विहार कर रहा है। वेश्या भी शराब पीकर मतवाली हो रही है। अजामिल ने पाप किया नहीं केवल आँखों से देखा और काम के वश हो गया । अजामिल ने अपने मन को रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन नाकाम रहा। अब यह मन-ही-मन उसी वेश्या का चिन्तन करने लगा और अपने धर्म से विमुख हो गया ।


अजामिल सुन्दर-सुन्दर वस्त्र-आभूषण आदि वस्तुएँ, जिनसे वह प्रसन्न होती, ले आता। यहाँ तक कि इसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति देकर भी उसी कुलटा को रिझाया। यह ब्राम्हण उसी प्रकार की चेष्टा करता, जिससे वह वेश्या प्रसन्न हो।


इस वेश्या के चक्कर में इसने अपने कुलीन नवयुवती और विवाहिता पत्नी तक का परित्याग कर दिया और उस वैश्या के साथ रहने लगा। इसने बहुत दिनों तक वेश्या के मल-समान अपवित्र अन्न से अपना जीवन व्यतीत किया और अपना सारा जीवन ही पापमय कर लिया। यह कुबुद्धि न्याय से, अन्याय से जैसे भी जहाँ कहीं भी धन मिलता, वहीं से उठा लाता। उस वेश्या के बड़े कुटुम्ब का पालन करने में ही यह व्यस्त रहता। चोरी से, जुए से और धोखा-धड़ी से अपने परिवार का पेट पलटा था।

 

एक बार कुछ संत इसके गांव में आये। गाँव के बाहर संतों ने कुछ लोगों से पूछा की भैया, किसी ब्राह्मण का घर बताइए हमें वहां पर रात गुजारनी है। इन लोगों ने संतों के साथ मजाक किया और कहा- संतों- हमारे गाँव में तो एक ही श्रेष्ठ ब्राह्मण है जिसका नाम है अजामिल। और इतना बड़ा भगवान का भक्त है की  गाँव के अंदर नहीं रहता गाँव के बाहर ही रहता है।


अब संत जन अजामिल के घर पहुंचे और दरवाजा खटखटाया- भक्त अजामिल दरवाजा खोलो। जैसे ही अजामिल ने आज दरवाजा खोला तो संतों के दर्शन करते ही मानो आज अपने पुराने अच्छे कर्म उसे याद आ गए।

 

संतों ने कहा की भैया- रात बहुत हो गई है आप हमारे लिए भोजन और सोने का प्रबंध कीजिये।अजामिल ने सुंदर भोजन तैयार करवाया और संतो को करवाया। जब अजामिल ने संतों से सोने के लिए कहा तो संत कहते हैं भैया- हम प्रतिदिन सोने से पहले कीर्तन करते हैं। यदि आपको समस्या न हो तो हम कीर्तन करलें?


अजामिल ने कहा- आप ही का घर है महाराज! जो दिल में आये सो करो।


संतों ने सुंदर कीर्तन प्रारम्भ किया और उस कीर्तन में अजामिल बैठा। सारी रात कीर्तन चला और अजामिल की आँखों से खूब आसूं गिरे हैं। मानो आज आँखों से आंसू नहीं पाप धूल गए हैं। सारी रात भगवान का नाम लिया ।


जब सुबह हुई संत जन चलने लगे तो अजामिल ने कहा- महात्माओं, मुझे क्षमा कर दीजिये। मैं कोई भक्त वक्त नहीं हूँ। मैं तो एक मह पापी हूँ। मैं वैश्या के साथ रहता हूँ। और मुझे गाँव से बाहर निकाल दिया गया है। केवल आपकी सेवा के लिए मैंने आपको भोजन करवाया। नहीं तो मुझसे बड़ा पापी कोई नहीं है।


संतों ने कहा- अरे अजामिल! तूने ये बात हमें कल क्यों नहीं बताई, हम तेरे घर में रुकते ही नहीं।


अब तूने हमें आश्रय दिया है तो चिंता मत कर। ये बता तेरे घर में कितने बालक हैं। अजामिल ने बता दिया की महाराज 9 बच्चे हैं और अभी ये गर्भवती है।


संतों ने कहा की अबके जो तेरे संतान होंगी वो तेरे पुत्र होगा। और तू उसका नाम “नारायण” रखना। जा तेरा कल्याण हो जायेगा।

 

संत जन आशीर्वाद देकर चले गए। समय बिता उसके पुत्र हुआ। नाम रखा नारायण। अजामिल अपने नारायण पुत्र में बहुत आशक्त था। अजामिल ने अपना सम्पूर्ण हृदय अपने बच्चे नारायण को सौंप दिया था। हर समय अजामिल कहता था- नारायण भोजन करलो।


नारायण पानी पी लो। नारायण तुम्हारा खेलने का समय है तुम खेल लो। हर समय नारायण नारायण करता था।

 

इस तरह अट्ठासी वर्ष बीत गए। वह अतिशय मूढ़ हो गया था, उसे इस बात का पता ही न चला कि मृत्यु मेरे सिर पर आ पहुँची है ।


अब वह अपने पुत्र बालक नारायण के सम्बन्ध में ही सोचने-विचारने लगा। इतने में ही अजामिल ने देखा कि उसे ले जाने के लिये अत्यन्त भयावने तीन यमदूत आये हैं। उनके हाथों में फाँसी है, मुँह टेढ़े-टेढ़े हैं और शरीर के रोएँ खड़े हुए हैं । उस समय बालक नारायण वहाँ से कुछ दूरी पर खेल रहा था।


यमदूतों को देखकर अजामिल डर गया और अपने पुत्र को कहता हैं-नारायण! नारायण मेरी रक्षा करो! नारायण मुझे बचाओ!


भगवान् के पार्षदों ने देखा कि यह मरते समय हमारे स्वामी भगवान् नारायण का नाम ले रहा है, उनके नाम का कीर्तन कर रहा है; अतः वे बड़े वेग से झटपट वहाँ आ पहुँचे । उस समय यमराज के दूर दासीपति अजामिल के शरीर में से उसके सूक्ष्म शरीर को खींच रहे थे। विष्णु दूतों ने बलपूर्वक रोक दिया ।


उनके रोकने पर यमराज के दूतों ने उनसे कहा‘अरे, धर्मराज की आज्ञा का निषेध करने वाले तुम लोग हो कौन ? तुम किसके दूत हो, कहाँ से आये हो और इसे ले जाने से हमें क्यों रोक रहे हो।

 

जब यमदूतों ने इस प्रकार कहा, तब भगवान् नारायण के आज्ञाकारी पार्षदों ने हँसकर कहा—यमदूतों! यदि तुम लोग सचमुच धर्मराज के आज्ञाकारी हो तो हमें धर्म का लक्षण और धर्म का तत्व सुनाओ । दण्ड का पात्र कौन है ?

 

यमदूतों ने कहा—वेदों ने जिन कर्मों का विधान किया है, वे धर्म हैं और जिनका निषेध किया है, वे अधर्म हैं। वेद स्वयं भगवान् के स्वरुप हैं। वे उनके स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास एवं स्वयं प्रकाश ज्ञान हैं—ऐसा हमने सुना है । पाप कर्म करने वाले सभी मनुष्य अपने-अपने कर्मों के अनुसार दण्डनीय होते हैं ।

 

भगवान् के पार्षदों ने कहा—यमदूतों! यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि धर्मज्ञों की सभा में अधर्म प्रवेश कर रह है, क्योंकि वहाँ निरपराध और अदण्डनीय व्यक्तियों को व्यर्थ ही दण्ड दिया जाता है । यमदूतों! इसने कोटि-कोटि जन्मों की पाप-राशि का पूरा-पूरा प्रायश्चित कर लिया है। क्योंकि इसने विवश होकर ही सही, भगवान् के परम कल्याणमय (मोक्षप्रद) नाम का उच्चारण तो किया है । जिस समय इसने ‘नारायण’ इन चार अक्षरों का उच्चारण किया, उसी समय केवल उतने से ही इस पापी के समस्त पापों का प्रायश्चित हो गया । चोर, शराबी, मित्रद्रोही, ब्रम्हघाती, गुरुपत्नीगामी, ऐसे लोगों का संसर्गी; स्त्री, राजा, पिता और गाय को मारने वाला, चाहे जैसा और चाहे जितना बड़ा पापी हो, सभी के लिये यही—इतना ही सबसे बड़ा प्रायश्चित है कि भगवान् के नामों का उच्चारण किया जाय; क्योंकि भगवन्नामों के उच्चारण से मनुष्य की बुद्धि भगवान् के गुण, लीला और स्वरुप में रम जाती है और स्वयं भगवान् की उसके प्रति आत्मीय बुद्धि हो जाती है ।


 

तुम लोग अजामिल को मत ले जाओ। इसने सारे पापों का प्रायश्चित कर लिया है, क्योंकि इसने मरते समय भगवान् के नाम का उच्चारण किया है।


इस प्रकार भगवान् के पार्षदों ने भागवत-धर्म का पूरा-पूरा निर्णय सुना दिया और अजामिल को यमदूतों के पाश से छुड़ाकर मृत्यु के मुख से बचा लिया भगवान् की महिमा सुनने से अजामिल के हृदय में शीघ्र ही भक्ति का उदय हो गया। अब उसे अपने पापों को याद करके बड़ा पश्चाताप होने लगा । (अजामिल मन-ही-मन सोचने लगा—) ‘अरे, मैं कैसा इन्द्रियों का दास हूँ! मैंने एक दासी के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करके अपना ब्राम्हणत्व नष्ट कर दिया। यह बड़े दुःख की बात है। धिक्कार है! मुझे बार-बार धिक्कार है! मैं संतों के द्वारा निन्दित हूँ, पापात्मा हूँ! मैंने अपने कुल में कलंक का टीका लगा दिया!  मेरे माँ-बाप बूढ़े और तपस्वी थे। मैंने उनका भी परित्याग कर दिया। ओह! मैं कितना कृतघ्न हूँ। मैं अब अवश्य ही अत्यन्त भयावने नरक में गिरूँगा, जिसमें गिरकर धर्मघाती पापात्मा कामी पुरुष अनेकों प्रकार की यमयातना भोगते हैं। कहाँ तो मैं महाकपटी, पापी, निर्लज्ज और ब्रम्हतेज को नष्ट करने वाला तथा कहाँ भगवान् का वह परम मंगलमय ‘नारायण’ नाम! (सचमुच मैं तो कृतार्थ हो गया)। अब मैं अपने मन, इन्द्रिय और प्राणों को वश में करके ऐसा प्रयत्न करूँगा कि फिर अपने को घोर अन्धकारमय नरक में न डालूँ । मैंने यमदूतों के डर अपने पुत्र “नारायण” को पुकारा। और भगवान के पार्षद प्रकट हो गए यदि मैं वास्तव में नारायण को पुकारता तो क्या आज श्री नारायण मेरे सामने प्रकट नहीं हो जाते?


अब अजामिल के चित्त में संसार के प्रति तीव्र वैराग्य हो गया। वे सबसे सम्बन्ध और मोह को छोड़कर हरिद्वार चले गये। उस देवस्थान में जाकर वे भगवान् के मन्दिर में आसन से बैठ गये और उन्होंने योग मार्ग का आश्रय लेकर अपनी सारी इन्द्रियों को विषयों से हटाकर मन में लीन कर लिया और मन को बुद्धि में मिला दिया। इसके बाद आत्मचिन्तन के द्वारा उन्होंने बुद्धि को विषयों से पृथक् कर लिया तथा भगवान् के धाम अनुभव स्वरुप परब्रम्ह में जोड़ दिया । इस प्रकार जब अजामिल की बुद्धि त्रिगुणमयी प्रकृति से ऊपर उठकर भगवान् के स्वरुप में स्थित हो गयी, तब उन्होंने देखा कि उनके सामने वे ही चारों पार्षद, जिन्हें उन्होंने पहले देखा था, खड़े हैं। अजामिल ने सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया। उनका दर्शन पाने के बाद उन्होंने उस तीर्थस्थान में गंगा के तट पर अपना शरीर त्याग दिया और तत्काल भगवान् के पार्षदों का स्वरुप प्राप्त कर दिया ।

 

अजामिल भगवान् के पार्षदों के साथ स्वर्णमय विमान पर आरूढ़ होकर आकाश मार्ग से भगवान् लक्ष्मीपति के निवास स्थान वैकुण्ठ को चले गये।

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रविवार, 6 अगस्त 2023

तुलसी का महत्व

तुलसी के बारे में घर-घर में सभी जानते हैं। हिंदू धर्म में तुलसी को विशेष महत्व दिया गया हैैं। कहा जाता हैं कि जहां तुसली फलती हैं, उस घर में रहने वालों को कोई संकट नहीं आते। स्वास्थ्य के लिए आयुर्वेद में तुलसी के अनेक गुण के बारे में बताया गया हैं। यह बात कम लोग जानते हैं कि तुलसी परिवार में आने वाले संकट के बारे में सुखकर पहले संकेत दे देती हैं। पेटलावद के ज्योतिषी आनंद त्रिवेदी बता रहे हैं कि तुलसी एक, लेकिन गुण अनेक किय तरह से हैं।


प्रकृति की अपनी एक अलग खासियत है। इसने अपनी हर एक रचना को बड़ी ही खूबी और विशिष्ट नेमत बख्शी है। इंसान तो वैसे भी प्रकृति की उम्दा रचनाओं में से एक है जो समझदारी और सूझबूझ से काम लेता है। इसके अलावा जानवरों की खूबी ये है कि वे आने वाले खतरे, मसलन भूकंपए सुनामी, पारलौकिक ताकतों आदि को पहले ही भांप सकने में सक्षम होते हैं, लेकिन बहुत ही कम लोग यह बात जानते हैं कि पौधों के भीतर भी ऐसी ही अलग विशेषता है, जिसे अगर समझ लिया जाए तो घर के सदस्यों पर आने वाले कष्टों को पहले ही टाला जा सकता है।


क्यों मुरझाता है तुलसी का पौधा

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शायद कभी किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि चाहे तुलसी के पौधे पर कितना ही पानी क्यों ना डाला जाए उसकी कितनी ही देखभाल क्यों ना की जाएए वह अचानक मुरझाने या सूखने क्यों लगता है।


क्या बताना चाहता है👇

आपको यकीन नहीं होगा लेकिन तुलसी का मुरझाया हुआ पौधा आपको यह बताने की कोशिश कर रहा होता है कि जल्द ही परिवार पर किसी विपत्ति का साया मंडरा सकता है। कहने का अर्थ यह है कि अगर परिवार के किसी भी सदस्य पर कोई मुश्किल आने वाली है तो उसकी सबसे पहली नजर घर में मौजूद तुलसी के पौधे पर पड़ती है।


हिन्दू शास्त्र

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शास्त्रों में यह बात भली प्रकार से उल्लेख है कि अगर घर पर कोई संकट आने वाला है तो सबसे पहले उस घर से लक्ष्मी यानि तुलसी चली जाती है और वहां दरिद्रता का वास होने लगता है।


बुध ग्रह

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जहां दरिद्रता, अशांति व कलह का वातावरण होता है वहां कभी भी लक्ष्मी का वास नहीं होता। ज्योतिष के अनुसार ऐसा बुध ग्रह की वजह से होता है क्योंकि बुध का रंग हरा होता है और वह पेड़-पौधों का भी कारक माना जाता है।


लाल किताब

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ज्योतिष शास्त्र से संबंधित लाल किताब के अनुसार बुध को एक ऐसा ग्रह माना गया है जो अन्य ग्रहों के अच्छे-बुरे प्रभाव को व्यक्ति तक पहुंचाता है। अगर कोई ग्रह अशुभ-फल देने वाला है तो उसका असर बुध ग्रह से संबंधित वस्तुओं पर भी होगा और अगर कोई अच्छा फल मिलने वाला है तो उसका असर भी बुध ग्रह से जुड़ी चीजों पर दिखाई देगा।


अच्छा और बुरा प्रभाव

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अच्छे प्रभाव में पेड़-पौधे बढऩेे लगते हैं और बुरे प्रभाव में मुरझाकर अपनी दुर्दशा बयां कर देते हैं।


विभिन्न प्रकार की तुलसी

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शास्त्रानुसार तुलसी के विभिन्न प्रकार के पौधों का जिक्र मिलता है, जिनमें श्रीकृष्ण तुलसी, लक्ष्मी तुलसी, राम तुलसी, भू तुलसी, नील तुलसी, श्वेत तुलसी, रक्त तुलसी, वन तुलसी, ज्ञान तुलसी मुख्य रूप से हैं। इन सभी के गुण अलग-अलग और विशिष्ट हैं। तुलसी मानव शरीर में कान, वायु, कफ, ज्वर, खांसी और दिल की बीमारियों के लिए खासी उपयोगी है।


वास्तुशास्त्र में तुलसी

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वास्तुशास्त्र में भी तुलसी को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वास्तु के अनुसार तुलसी को किसी भी प्रकार के दोष से मुक्त रखने के लिए उसे दक्षिण-पूर्व से लेकर उत्तर-पश्चिम के किसी भी स्थान तक लगा सकते हैं। अगर तुलसी के गमले को रसोई के पास रखा जाए तो किसी भी प्रकार की कलह से मुक्ति पाई जा सकती है। जिद्दी पुत्र का हठ दूर करने के लिए पूर्व दिशा में लगी खिड़की के सामने रखें।


संतान में सुधार

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नियंत्रण या मर्यादा से बाहर निकल चुकी संतान को पूर्व दिशा से रखी गई तुलसी के तीन पत्तों को किसी ना किसी रूप में खिलाने पर वह आपकी आज्ञा का पालन करने लगती है।


कारोबार में वृद्धि

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कारोबार की चिंता सताने लगी है, घर में आय के साधन कम होते जा रहे हैं तो दक्षिण-पश्चिम दिशा में रखी तुलसी पर हर शुक्रवार कच्चा दूध और मिठाई का भोग लगाने के बाद उसे किसी सुहागिन स्त्री को दे दें। इससे व्यवसाय में सफलता मिलती है।


नौकरी पेशा

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अगर आप नौकरी पेशा हैं और ऑफि स में आपका कोई सीनियर परेशान कर रहा है तो ऑफि स की खाली जमीन पर या किसी गमले में सोमवार के दिन तुलसी के सोलह बीज किसी सफेद कपड़े में बांध कर ऑफि स जाते ही दबा दीजिए। इससे ऑफिस में आपका सम्मान बढ़ेगा।


शालिग्राम का अभिषेक

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घर की महिलाएं रोजाना पंचामृत बनाकर शालिग्राम का अभिषेक करती हैं तो घर में कभी भी वास्तुदोष की हालत नहीं आएगी।


शारीरिक फायदे

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ज्योतिष के अलावा शारीरिक तौर पर भी तुलसी के बड़े लाभ देखे गए हैं। सुबह के समय खाली पेट ग्रहण करने से डायबिटीज, रक्त की परेशानी, वात, पित्त आदि जैसे रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है। प्रतिदिन अगर तुलसी के सामने कुछ समय के लिए बैठा जाए तो अस्थमा आदि जैसे श्वास के रोगों से जल्दी छुटकारा मिलता है।


वैद्य का दर्जा

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शास्त्रों में तुलसी को एक वैद्य का दर्जा भी दिया गया है, जिसका घर में रहना अत्यंत लाभकारी है। मनुष्य को अपने जीवन के प्रत्येक चरण में तुलसी की आवश्यकता पड़ती है। साथ ही आधुनिक रसायन शास्त्र भी यह बात स्वीकारता है कि तुलसी का सेवन, इसका स्पर्श, दीर्घायु और स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध होता है। 


ध्यान रखें तुलसी की ये 10 बात

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पुरानी परंपरा है कि घर में तुलसी जरूर होना

चाहिए। शास्त्रों में तुलसी को पूजनीय, पवित्र और

देवी का स्वरूप बताया गया है। यदि आपके घर में भी

तुलसी हो तो यहां बताई जा रही 10 बातें हमेशा

ध्यान रखनी चाहिए। यदि ये बातें ध्यान रखी

जाती हैं तो सभी देवी-देवताओं की विशेष कृपा

हमारे घर पर बनी रहती है। घर में सकारात्मक और

सुखद वातावरण रहता है। पैसों की कमी नहीं आती

है और परिवार के सदस्यों को स्वास्थ्य लाभ भी

मिलता है। यहां जानिए शास्त्रों के अनुसार बताई

गई तुलसी की खास बातें...


1🌱तुलसी के पत्ते चबाना नहीं चाहिए

तुलसी का सेवन करते समय ध्यान रखें कि इन पत्तों

को चबाए नहीं, बल्कि निगल लेना चाहिए। इस तरह

तुलसी का सेवन करने से कई रोगों में लाभ मिलता है।

तुलसी के पत्तों में पारा धातु के तत्व होते हैं। पत्तों

को चबाते समय ये तत्व हमारे दांतों पर लग जाते हैं

जो कि दांतों के लिए फायदेमंद नहीं है। इसीलिए

तुलसी के पत्तों को बिना चबाए ही निगलना

चाहिए।


2🌱शिवलिंग पर तुलसी नहीं चढ़ाना चाहिए शिवपुराण के अनुसार, शिवलिंग पर तुलसी के पत्ते नहीं चढ़ाना चाहिए। इस संबंध में एक कथा बताई गई है। कथा के अनुसार, पुराने समय दैत्यों के राजा

शंखचूड़ की पत्नी का नाम तुलसी था। तुलसी के पतिव्रत धर्म की शक्ति के कारण सभी देवता भी शंखचूड़ को हराने में असमर्थ थे। तब भगवान विष्णु ने

छल से तुलसी का पतिव्रत भंग कर दिया। इसके बादशिवजी ने शंखचूड़ का वध कर दिया।

जब ये बात तुलसी को पता चली तो उसने भगवान विष्णु को पत्थर बन जाने का श्राप दिया। विष्णुजी ने तुलसी का श्राप स्वीकार कर लिया और कहा कि तुम धरती पर गंडकी नदी तथा तुलसी के पौधे के रूप में हमेशा रहोगी। इसके बाद से ही अधिकांश पूजन कर्म में तुलसी का उपयोग विशेष रूप से किया जाता है, लेकिन शंखचूड़ की पत्नी होने के कारण तुलसी शिवलिंग पर नहीं चढ़ाई जाती है।


3🌱कब नहीं तोड़ना चाहिए तुलसी के पत्ते तुलसी के पत्ते कुछ खास दिनों में नहीं तोड़ना चाहिए। ये दिन हैं एकादशी, रविवार और सूर्य या चंद्र ग्रहण समय। इन दिनों में और रात के समय तुलसी के पत्ते नहीं तोड़ना चाहिए। बिना वजह तुलसी केपत्ते कभी नहीं तोड़ना चाहिए। ऐसा करने पर दोष लगता है। अनावश्यक रूप से तुलसी के पत्ते तोड़ना, तुलसी को नष्ट करने के समान माना गया है।


4🌱रोज करें तुलसी का पूजन हर रोज तुलसी पूजन करना चाहिए। साथ ही, तुलसी के संबंध में यहां बताई गई सभी बातों का भी ध्यान रखना चाहिए। हर शाम तुलसी के पास दीपक जलाना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि जो लोग शाम के समय तुलसी के पास दीपक जलाते हैं, उनके घर में महालक्ष्मी की कृपा सदैव बनी रहती है।


5🌱तुलसी से दूर होते हैं वास्तु दोष

घर-आंगन में तुलसी होने से कई प्रकार के वास्तु दोष भी समाप्त हो जाते हैं। परिवार की आर्थिक स्थिति पर भी इसका शुभ असर होता है।


6🌱तुलसी घर में हो तो नहीं लगती है बुरी नजर मान्यता है कि तुलसी से घर पर किसी की बुरी नजर नहीं लगती है। साथ ही, घर के आसपास की किसी भी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा पनप नहीं पाती

है। सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है।


7🌱तुलसी से वातावरण होता है पवित्र

तुलसी से घर का वातावरण पूरी तरह पवित्र और

हानिकारक सूक्ष्म कीटाणुओं से मुक्त रहता है। इसी

पवित्रता के कारण घर में लक्ष्मी का वास होता है

और सुख-समृद्धि बनी रहती है।


8🌱तुलसी का सूखा पौधा नहीं रखना चाहिए घर में

यदि घर में लगा हुआ तुलसी का पौधा सूख जाता है

तो उसे किसी पवित्र नदी में, तालाब में या कुएं में

प्रवाहित कर देना चाहिए। तुलसी का सूखा पौधा

घर में रखना अशुभ माना जाता है। एक पौधा सूख

जाने के बाद तुरंत ही दूसरा पौधा लगा लेना

चाहिए। घर में हमेशा स्वस्थ तुलसी का पौधा ही

लगाना चाहिए।


9🌱तुलसी है औषधि भी

आयुर्वेद में तुलसी को संजीवनी बूटी के समान माना

जाता है। तुलसी में कई ऐसे गुण होते हैं जो बहुत-सी

बीमारियों को दूर करने में और उनकी रोकथाम करने

में सहायक होते हैं। तुलसी का पौधा घर में रहने से

उसकी महक हवा में मौजूद बीमारी फैलाने वाले कई

सूक्ष्म कीटाणुओं को नष्ट करती है।


10🌱रोज तुलसी की एक पत्ती सेवन करने से मिलते हैं ये

फायदे

तुलसी की महक से सांस से संबंधित कई रोगों में लाभ

मिलता है। साथ ही, तुलसी का एक पत्ता रोज सेवन

करने से हम सामान्य बुखार से बचे रहते हैं। मौसम

परिवर्तन के समय होने वाली बीमारियों से बचाव

हो जाता है। इससे शरीर की रोग प्रतिरोधक

क्षमता बढ़ती है, लेकिन हमें नियमित रूप से तुलसी

का सेवन करते रहना चाहिए।


एक और बात तुलसी कृष्ण को बेहद प्यारी हैं,इसलिये प्रतिदिन कान्हा के चरणों में तुलसीदल यानि तुलसी का पत्ता ज़रूर अर्पण करना चाहिये..


कृष्णसेवा के प्रत्येक भोग में तुलसी दल रखकर अर्पण करना चाहिये


“तुलसी कृष्ण प्रेयसी नमो: नमो:"

मंगलवार, 1 अगस्त 2023

भगवान शिव के कुछ अन्य अवतार

 🕉️शिव महापुराण में भगवान शिव के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है, लेकिन बहुत ही कम लोग इन अवतारों के बारे में जानते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव के उन्नीस अवतार हुए थे, आइए जानते हैं भगवान भोलेनाथ के अवतारों के बारे में।



🔸1- वीरभद्र अवतार

भगवान शिव का यह अवतार तब हुआ था, जब दक्षद्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का त्याग किया था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए। शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया।


🔸2- पिप्पलाद अवतार:

 मानव जीवन में भगवान शिव के पिप्पलाद अवतार का बड़ा महत्व है। शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सका। कथा है कि पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोड़कर चले गए? देवताओं ने बताया शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना। पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया। श्राप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे। तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। शिव महापुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने ही शिव के इस अवतार का नामकरण किया था।


🔸3-नंदी अवतार:

भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार भी इसी बात का अनुसरणकरते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है। नंदी (बैल) कर्म का प्रतीक है, जिसकाअर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है। इस अवतार की कथा इस प्रकार है- शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद नेअयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान शिव की तपस्या की। तब भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ।


🔸4- भैरव अवतार:

शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर कापूर्ण रूप बताया गया है। एक बार भगवान शंकर की माया से प्रभावित होकर ब्रह्मा व विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगे।तब वहां तेज-पुंज के मध्य एक पुरुषाकृति दिखलाई पड़ी। उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा- चंद्रशेखर तुम मेरे पुत्र हो। अत: मेरी शरण में आओ। ब्रह्मा की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आ गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा- काल की भांति शोभित होने के कारण आप साक्षात कालराज हैं। भीषण होने से भैरवहैं। भगवान शंकर से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा के पांचवे सिर को काट दिया। ब्रह्मा का पांचवा सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए। काशी में भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिली। काशीवासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है।


🔸5- अश्वत्थामा:

महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकरके अंशावतार थे। आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर को पुत्र रूप मेंपाने की लिए घोर तपस्या की थी और भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप मेें अवतीर्ण होंगे। समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं। शिव महापुराण (शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।


🔸6- शरभावतार:

 भगवान शंकर का छटा अवतार है शरभावतार। शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (पुराणों में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर से भी शक्तिशाली था) का था। इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत किया था। लिंगपुराण में शिव के शरभावतार की कथा है, उसके अनुसार- हिरण्यकशिपु का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था। हिरण्यकशिपु के वधके पश्चात भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो देवता शिवजी के पास पहुंचे। तब भगवान शिव ने शरभावतार लिया औरवे इसी रूप में भगवान नृसिंह के पास पहुंचे तथा उनकी स्तुति की, लेकिन नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई। यह देखकर शरभ रूपी भगवान शिव अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े। तब कहीं जाकर भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत हुई। उन्होंने शरभावतार से क्षमा याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की।


🔸7- गृहपति अवतार:

भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति। इसकी कथा इस प्रकार है- नर्मदा के तट पर धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहां विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती रहती थीं। शुचिष्मती ने बहुत काल तक नि:संतान रहने पर एक दिन अपने पति से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की। पत्नी की अभिलाषा पूरी करने के लिए मुनि विश्वनार काशी आ गए। यहां उन्होंने घोर तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की। एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया। मुनि ने बालरूपधारी शिव की पूजा की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से अवतार लेने का वरदानदिया। कालांतर में शुचिष्मति गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए। कहते हैं, पितामह ब्रह्मा  ने ही उस बालक का नाम गृहपति रखा था।


🔸8- ऋषि दुर्वासा:

भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का अवतार भी प्रमुख है। धर्म ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों उनके आश्रम पर आए। उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोकी में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे। समय आने पर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा उत्पन्न हुए। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्तात्रेय उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया।


🔸9- हनुमान:

 भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक वानर का रूप धरा था। शिवमहापुराण के अनुसार देवताओं और दानवों को अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को देख कर लीलावश शिवजी ने कामातुर हो कर अपना वीर्यपात कर दिया सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहित कर लिया। समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के कान के माध्यम से गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमान जी उत्पन्न हुए।


🔸10- वृषभ अवतार

भगवान शंकर ने विशेष परिस्थितियों में वृषभ अवतार लिया था। इस अवतार में भगवान शंकर ने विष्णु पुत्रों का संहार किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार जब भगवान विष्णु दैत्यों को मारने पाताल लोक गए तो उन्हें वहां बहुत सीचंद्रमुखी स्त्रियां दिखाई पड़ी। विष्णु ने उनके साथ रमण करके बहुत से पुत्र उत्पन्न किए। विष्णु के इन पुत्रों ने पाताल से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव किया। उनसे घबरा कर ब्रह्मा जी ऋषिमुनियों को ले कर शिव जी के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर विष्णु पुत्रों का संहार किया।


🔸11- यतिनाथ अवतार:

 भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व का प्रतिपादन किया था। उन्होंने इस अवतार में अतिथि बनकर भील दम्पत्ति की परीक्षा ली थी, जिसके कारण भील दम्पत्तिको अपने प्राण गवाने पड़े। धर्म ग्रंथों के अनुसार अर्बुदाचलपर्वत के समीप शिवभक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति रहते थे। एक बार भगवान शंकर यतिनाथ के वेष में उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा। इस तरह आहुक धनुषबाण लेकर बाहर चला गया। प्रात:काल आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक का मार डाला है। इस पर यतिनाथ बहुत दु:खी हुए। तब आहुका ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि आप शोक न करें। अतिथि सेवा मेंप्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं। जब आहुका अपने पति की चिताग्नि में जलने लगी तो शिवजी ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया।


🔸12- कृष्णदर्शन अवतार:

भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदिधार्मिक कार्यों के महत्व को बताया है इस प्रकार यह अवतार पूर्णत: धर्म का प्रतीक है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ। विद्या-अध्ययन को गुरुकुल गए नभग जब बहुत दिनों तक न लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस में कर लिया। नभग को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह अपने पिता के पास गए। पिता नेनभग से कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके, उनके धन को प्राप्त करे।तब नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया। अंगारिक ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए। उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले कि यज्ञ के अवशिष्ट धन परतो उनका अधिकार है। विवाद होने पर कृष्णदर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा। नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा-वह पुरुष शंकर भगवान हैं। यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने शिवजी की स्तुति की।


🔸13- अवधूत अवतार:

 भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र केअंहकार को चूर किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के दर्शनों के लिए कैलाश पर्वत पर गए। इंद्र की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उनका मार्ग रोक लिया। इंद्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा। इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा चाहा, वैसे ही उनका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया।


🔸14- भिक्षुवर्य अवतार:

भगवान शंकर देवों के देव हैं। संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के जीवन के रक्षक भी हैं। भगवान शंकर काभिक्षुवर्य अवतार यही संदेश देता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला। उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय आने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल पीनेके लिए सरोवर गई तो उसे घडिय़ाल ने अपना आहार बना लिया। तब वह बालक भूख-प्यास से तड़पने लगा। इतने में ही शिवजी की प्रेरणा से एक भिखारिन वहां पहुंची। तब शिव जी ने भिक्षुक का रूप धर उसभिखारिन को बालक का परिचय दिया और उसके पालन-पोषण का निर्देश दिया तथा यह भी कहा कि यह बालक विदर्भ नरेश सत्यरथ का पुत्र है। यह सब कह कर भिक्षुक रूपधारी शिव ने उस भिखारिन को अपना वास्तविक रूप दिखाया। शिव के आदेश अनुसार भिखारिन ने उस बालक का पालन-पोषण किया। बड़ा होकर उस बालक ने शिवजी की कृपा से अपने दुश्मनों को हराकर पुन: अपना राज्य प्राप्त किया।


🔸15- सुरेश्वर अवतार:

 भगवान शंकर का सुरेश्वर (इंद्र) अवतार भक्त के प्रति उनकी प्रेमभावना को प्रदर्शित करता है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था। वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था। उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम: शिवाय का जपकरने लगा। शिव जी ने सुरेश्वर (इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करने लगा। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा हुआ। उपमन्यु को अपने में दृढ़ शक्ति और अटल विश्वास देखकर शिवजी ने उसे अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराए तथा क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया। उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का पद भी दिया।


🔸16- किरात अवतार:

किरात अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की वीरता की परीक्षा ली थी। महाभारत के अनुसार कौरवों ने छल-कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया व पाण्डवों को वनवास पर जाना पड़ा। वनवास के दौरान जब अर्जुन भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या कर रहे थे, तभी दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने के लिए शूकर( सुअर) का रूप धारण कर वहां पहुंचा। अर्जुन ने शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया, उसी समय भगवान शंकर ने भी किरात वेष धारण कर उसी शूकर पर बाण चलाया। शिव कीमाया के कारण अर्जुन उन्हें पहचान न पाए और शूकर का वध उसके बाण से हुआ है, यह कहने लगे। इस पर दोनों में विवाद हो गया। अर्जुन ने किरात वेषधारी शिव से युद्ध किया। अर्जुन की वीरता देख भगवान शिव प्रसन्न हो गए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अर्जुन को कौरवों पर विजय का आशीर्वाद दिया।


🔸17- सुनटनर्तक अवतार:

 पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ मागंने के लिए शिवजी ने सुनट नर्तक वेष धारण किया था। हाथ में डमरू लेकर शिवजी नट के रूप में हिमाचल के घर पहुंचे और नृत्य करने लगे। नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया कि सभी प्रसन्न हो गए।जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो नटराज शिव ने भिक्षा में पार्वती को मांग लिया। 

इस पर हिमाचलराज अति क्रोधित हुए। कुछ देर बाद नटराज वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं चले गए। उनके जाने पर मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय किया।


🔸18- ब्रह्मचारी अवतार

दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो शिवजी को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया। पार्वती की परीक्षा लेने के लिए शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे। पार्वती ने ब्रह्मचारी को देख उनकी विधिवत पूजा की। जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और जानने पर शिव की निंदा करने लगे तथा उन्हें श्मशानवासी व कापालिक भी कहा। यह सुन पार्वती को बहुत क्रोध हुआ। पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर शिव ने उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया। यह देख पार्वती अति प्रसन्न हुईं।


🔸19- यक्ष अवतार

 यक्ष अवतार शिवजी ने देवताओं के अनुचित औरमिथ्या अभिमान को दूर करने के लिए धारण किया था। धर्म ग्रंथोंके अनुसार देवता व असुर द्वारा किए गए समुद्रमंथन के दौरान जबभयंकर विष निकला तो भगवान शंकर ने उस विष को ग्रहण कर अपने कण्ठ में रोक लिया। इसके बाद अमृत कलश निकला। अमृतपान करने सेसभी देवता अमर तो हो गए साथ ही उनहें अभिमान भी हो गया कि वे सबसे बलशाली हैं।देवताओं के इसी अभिमान को तोडऩे के लिए शिव जी ने यक्ष का रूप धारण किया व देवताओं के आगे एक तिनका रखकर उसे काटने को कहा। अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को काट नहीं पाए। तभी आकाशवाणी हुई कि यह यक्ष सब गर्वों के विनाशक शंकर भगवान हैं। सभी देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगे। 


यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।

न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन ॥


♦️ धर्मो रक्षति रक्षितः  सुखस्य मूलं धर्मः ♦️


गजासुर का वध

 ((((((( महादेव का वरदान ))))))) 🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸 गज और असुर के संयोग से एक असुर का जन्म हुआ. उसका मुख गज जैसा होने के कारण उसे गजासु...