शनिवार, 24 अगस्त 2024

हल चंदन षष्ठी 24 अगस्त विशेष

 हल चंदन षष्ठी 24 अगस्त विशेष

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व्रत महात्म्य विधि और कथा

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भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी बलराम जन्मोत्सव के रूप में देशभर में मनायी जाती है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार मान्यता है कि इस दिन भगवान शेषनाग ने द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई के रुप में अवतरित हुए थे। इस पर्व को हलषष्ठी एवं हरछठ के नाम से भी जाना जाता है। जैसा कि मान्यता है कि बलराम जी का मुख्य शस्त्र हल और मूसल हैं जिस कारण इन्हें हलधर कहा जाता है इन्हीं के नाम पर इस पर्व को हलषष्ठी के भी कहा जाता है। इस दिन बिना हल चले धरती से पैदा होने वाले अन्न, शाक भाजी आदि खाने का विशेष महत्व माना जाता है। गाय के दूध व दही के सेवन को भी इस दिन वर्जित माना जाता है। साथ ही संतान प्राप्ति के लिये विवाहिताएं व्रत भी रखती हैं। 


हिन्दू धर्म के अनुसार इस व्रत को करने वाले सभी लोगों की मनोकामनाएं पूरी होती है. मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण और राम भगवान विष्णु जी का स्वरूप है, और बलराम और लक्ष्मण शेषनाग का स्वरूप है. पौराणिक कथाओं के संदर्भ अनुसार एक बार भगवान विष्णु से शेष नाग नाराज हो गए और कहा की भगवान में आपके चरणों में रहता हूं, मुझे थोड़ा सा भी विश्राम नहीं मिलता. आप कुछ ऐसा करो के मुझे भी विश्राम मिले. तब भगवान विष्णु ने शेषनाग को वरदान दिया की आप द्वापर में मेरे बड़े भाई के रूप में जन्म लोगे, तब मैं आपसे छोटा रहूंगा।


हिन्दू धर्म के अनुसार मान्यता है कि त्रेता युग में भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण शेषनाग का अवतार थे, इसी प्रकार द्वापर में जब भगवान विष्णु पृथ्वी पर श्री कृष्ण अवतार में आए तो शेषनाग भी यहां उनके बड़े भाई के रूप में अवतरित हुए. शेषनाग कभी भी भगवान विष्णु के बिना नहीं रहते हैं, इसलिए वह प्रभु के हर अवतार के साथ स्वयं भी आते हैं. बलराम जयंती के दिन सौभाग्यवती स्त्रियां बलशाली पुत्र की कामना से व्रत रखती हैं, साथ ही भगवान बलराम से यह प्रार्थना की जाती है कि वो उन्हें अपने जैसा तेजस्वी पुत्र प्राप्त करें।


शक्ति के प्रतीक बलराम भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई थे, इन्हें आज्ञाकारी पुत्र, आदर्श भाई और एक आदर्श पति भी माना जाता है। श्री कृष्ण की लीलाएं इतनी महान हैं कि बलराम की ओर ध्यान बहुत कम जाता है। लेकिन श्री कृष्ण भी इन्हें बहुत मानते थे। इनका जन्म की कथा भी काफी रोमांचक है। मान्यता है कि ये मां देवकी के सातवें गर्भ थे, चूंकि देवकी की हर संतान पर कंस की कड़ी नजर थी इसलिये इनका बचना बहुत ही मुश्किल था ऐसें में देवकी के सातवें गर्भ गिरने की खबर फैल गई लेकिन असल में देवकी और वासुदेव के तप से देवकी का यह सत्व गर्भ वासुदेव की पहली पत्नी के गर्भ में प्रत्यापित हो चुका था। लेकिन उनके लिये संकट यह था कि पति तो कैद में हैं फिर ये गर्भवती कैसे हुई लोग तो सवाल पूछेंगें लोक निंदा से बचने के लिये जन्म के तुरंत बाद ही बलराम को नंद बाबा के यहां पालने के लिये भेज दिया गया था।

 

बलराम जी का विवाह 

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यह मान्यता है कि भगवान विष्णु ने जब-जब अवतार लिया उनके साथ शेषनाग ने भी अवतार लेकर उनकी सेवा की। इस तरह बलराम को भी शेषनाग का अवतार माना जाता है। लेकिन बलराम के विवाह का शेषनाग से क्या नाता है यह भी आपको बताते हैं। दरअसल गर्ग संहिता के अनुसार एक इनकी पत्नी रेवती की एक कहानी मिलती है जिसके अनुसार पूर्व जन्म में रेवती पृथ्वी के राजा मनु की पुत्री थी जिनका नाम था ज्योतिष्मती। एक दिन मनु ने अपनी बेटी से वर के बारे में पूछा कि उसे कैसा वर चाहिये इस पर ज्योतिष्मती बोली जो पूरी पृथ्वी पर सबसे शक्तिशाली हो। अब मनु ने बेटी की इच्छा इंद्र के सामने प्रकट करते हुए पूछा कि सबसे शक्तिशाली कौन है तो इंद्र का जवाब था कि वायु ही सबसे ताकतवर हो सकते हैं लेकिन वायु ने अपने को कमजोर बताते हुए पर्वत को खुद से बलशाली बताया फिर वे पर्वत के पास पंहुचे तो पर्वत ने पृथ्वी का नाम लिया और धरती से फिर बात शेषनाग तक पंहुची। फिर शेषनाग को पति के रुप में पाने के लिये ज्योतिष्मती ब्रह्मा जी के तप में लीन हो गईं। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने द्वापर में बलराम से शादी होने का वर दिया। द्वापर में ज्योतिष्मती ने राजा कुशस्थली के राजा (जिनका राज पाताल लोक में चलता था) कुडुम्बी के यहां जन्म लिया। बेटी के बड़ा होने पर कुडुम्बी ने ब्रह्मा जी से वर के लिये पूछा तो ब्रह्मा जी ने पूर्व जन्म का स्मरण कराया तब बलराम और रेवती का विवाह तय हुआ। लेकिन एक दिक्कत अब भी थी वह यह कि पाताल लोक की होने के कारण रेवती कद-काठी में बहुत लंबी-चौड़ी दिखती थी पृथ्वी लोक के सामान्य मनुष्यों के सामने तो वह दानव नजर आती। लेकिन हलधर ने अपने हल से रेवती के आकार को सामान्य कर दिया। जिसके बाद उन्होंनें सुख-पूर्वक जीवन व्यतीत किया।

 

बलराम और रेवती के दो पुत्र हुए जिनके नाम निश्त्थ और उल्मुक थे। एक पुत्री ने भी इनके यहां जन्म लिया जिसका नाम वत्सला रखा गया। माना जाता है कि श्राप के कारण दोनों भाई आपस में लड़कर ही मर गये। वत्सला का विवाह दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण के साथ तय हुआ था, लेकिन वत्सला अभिमन्यु से विवाह करना चाहती थी। तब घटोत्कच ने अपनी माया से वत्सला का विवाह अभिमन्यु से करवाया था।

 

बलराम जी के हल की कथा

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बलराम के हल के प्रयोग के संबंध में किवदंती के आधार पर दो कथाएं मिलती है। कहते हैं कि एक बार कौरव और बलराम के बीच किसी प्रकार का कोई खेल हुआ। इस खेल में बलरामजी जीत गए थे लेकिन कौरव यह मानने को ही नहीं तैयार थे। ऐसे में क्रोधित होकर बलरामजी ने अपने हल से हस्तिनापुर की संपूर्ण भूमि को खींचकर गंगा में डुबोने का प्रयास किया। तभी आकाशवाणी हुई की बलराम ही विजेता है। सभी ने सुना और इसे माना। इससे संतुष्ट होकर बलरामजी ने अपना हल रख दिया। तभी से वे हलधर के रूप में प्रसिद्ध हुए।


एक दूसरी कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी जाम्बवती का पुत्र साम्ब का दिल दुर्योधन और भानुमती की पुत्री लक्ष्मणा पर आ गया था और वे दोनों प्रेम करने लगे थे। दुर्योधन के पुत्र का नाम लक्ष्मण था और पुत्री का नाम लक्ष्मणा था। दुर्योधन अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के पुत्र से नहीं करना चाहता था। इसलिए एक दिन साम्ब ने लक्ष्मणा से गंधर्व विवाह कर लिया और लक्ष्मणा को अपने रथ में बैठाकर द्वारिका ले जाने लगा। जब यह बात कौरवों को पता चली तो कौरव अपनी पूरी सेना लेकर साम्ब से युद्ध करने आ पहुंचे।


कौरवों ने साम्ब को बंदी बना लिया। इसके बाद जब श्रीकृष्ण और बलराम को पता चला, तब बलराम हस्तिनापुर पहुंच गए। बलराम ने कौरवों से निवेदनपूर्वक कहा कि साम्ब को मुक्तकर उसे लक्ष्मणा के साथ विदा कर दें, लेकिन कौरवों ने बलराम की बात नहीं मानी।


ऐसे में बलराम का क्रोध जाग्रत हो गया। तब बलराम ने अपना रौद्र रूप प्रकट कर दिया। वे अपने हल से ही हस्तिनापुर की संपूर्ण धरती को खींचकर गंगा में डुबोने चल पड़े। यह देखकर कौरव भयभीत हो गए। संपूर्ण हस्तिनापुर में हाहाकार मच गया। सभी ने बलराम से माफी मांगी और तब साम्ब को लक्ष्मणा के साथ विदा कर दिया। बाद में द्वारिका में साम्ब और लक्ष्मणा का वैदिक रीति से विवाह संपन्न हुआ।


बलदेव (हल चंदन छठ) पूजा विधि

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कथा करने से पूर्व प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त हो जाएं।


पश्चात स्वच्छ वस्त्र धारण कर गोबर लाएं।


इस तालाब में झरबेरी, ताश तथा पलाश की एक-एक शाखा बांधकर बनाई गई 'हरछठ' को गाड़ दें।


तपश्चात इसकी पूजा करें।


पूजा में सतनाजा (चना, जौ, गेहूं, धान, अरहर, मक्का तथा मूंग) चढ़ाने के बाद धूल, हरी कजरियां, होली की राख, होली पर भूने हुए चने के होरहा तथा जौ की बालें चढ़ाएं।


हरछठ के समीप ही कोई आभूषण तथा हल्दी से रंगा कपड़ा भी रखें। बलदेव जी को नीला तथा कृष्ण जी को पीला वस्त्र पहनाये।


पूजन करने के बाद भैंस के दूध से बने मक्खन द्वारा हवन करें।


पश्चात कथा कहें अथवा सुनें।


ध्यान रखें कि इस दिन व्रती हल से जुते हुए अनाज और सब्जियों को न खाएं और गाय के दूध का सेवन भी न करें, इस दिन तिन्नी का चावल खाकर व्रत रखें


पूजा हो जाने के बाद गरीब बच्चों में पीली मिठाई बांटे.


हलषष्ठी की व्रतकथा निम्नानुसार है

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प्राचीन काल में एक ग्वालिन थी। उसका प्रसवकाल अत्यंत निकट था। एक ओर वह प्रसव से व्याकुल थी तो दूसरी ओर उसका मन गौ-रस (दूध-दही) बेचने में लगा हुआ था। उसने सोचा कि यदि प्रसव हो गया तो गौ-रस यूं ही पड़ा रह जाएगा। 


यह सोचकर उसने दूध-दही के घड़े सिर पर रखे और बेचने के लिए चल दी किन्तु कुछ दूर पहुंचने पर उसे असहनीय प्रसव पीड़ा हुई। वह एक झरबेरी की ओट में चली गई और वहां एक बच्चे को जन्म दिया।


वह बच्चे को वहीं छोड़कर पास के गांवों में दूध-दही बेचने चली गई। संयोग से उस दिन हल षष्ठी थी। गाय-भैंस के मिश्रित दूध को केवल भैंस का दूध बताकर उसने सीधे-सादे गांव वालों में बेच दिया।


उधर जिस झरबेरी के नीचे उसने बच्चे को छोड़ा था, उसके समीप ही खेत में एक किसान हल जोत रहा था। अचानक उसके बैल भड़क उठे और हल का फल शरीर में घुसने से वह बालक मर गया।


इस घटना से किसान बहुत दुखी हुआ, फिर भी उसने हिम्मत और धैर्य से काम लिया। उसने झरबेरी के कांटों से ही बच्चे के चिरे हुए पेट में टांके लगाए और उसे वहीं छोड़कर चला गया।


कुछ देर बाद ग्वालिन दूध बेचकर वहां आ पहुंची। बच्चे की ऐसी दशा देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि यह सब उसके पाप की सजा है। 


वह सोचने लगी कि यदि मैंने झूठ बोलकर गाय का दूध न बेचा होता और गांव की स्त्रियों का धर्म भ्रष्ट न किया होता तो मेरे बच्चे की यह दशा न होती। अतः मुझे लौटकर सब बातें गांव वालों को बताकर प्रायश्चित करना चाहिए।


ऐसा निश्चय कर वह उस गांव में पहुंची, जहां उसने दूध-दही बेचा था। वह गली-गली घूमकर अपनी करतूत और उसके फलस्वरूप मिले दंड का बखान करने लगी। तब स्त्रियों ने स्वधर्म रक्षार्थ और उस पर रहम खाकर उसे क्षमा कर दिया और आशीर्वाद दिया।


बहुत-सी स्त्रियों द्वारा आशीर्वाद लेकर जब वह पुनः झरबेरी के नीचे पहुंची तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गई कि वहां उसका पुत्र जीवित अवस्था में पड़ा है। तभी उसने स्वार्थ के लिए झूठ बोलने को ब्रह्म हत्या के समान समझा और कभी झूठ न बोलने का प्रण कर लिया।


कथा के अंत में निम्न मंत्र से प्रार्थना करें

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गंगाद्वारे कुशावर्ते विल्वके नीलेपर्वते।

स्नात्वा कनखले देवि हरं लब्धवती पतिम्‌॥

ललिते सुभगे देवि-सुखसौभाग्य दायिनि।

अनन्तं देहि सौभाग्यं मह्यं, तुभ्यं नमो नमः॥


अर्थात्👉 हे देवी! आपने गंगा द्वार, कुशावर्त, विल्वक, नील पर्वत और कनखल तीर्थ में स्नान करके भगवान शंकर को पति के रूप में प्राप्त किया है। सुख और सौभाग्य देने वाली ललिता देवी आपको बारम्बार नमस्कार है, आप मुझे अचल सुहाग दीजिए।


बलदाऊ की आरती 

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कृष्ण कन्हैया को दादा भैया, अति प्रिय जाकी रोहिणी मैया


श्री वसुदेव पिता सौं जीजै…… बलदाऊ

 

नन्द को प्राण, यशोदा प्यारौ , तीन लोक सेवा में न्यारौ


कृष्ण सेवा में तन मन भीजै …..बलदाऊ

 

हलधर भैया, कृष्ण कन्हैया, दुष्टन के तुम नाश करैया


रेवती, वारुनी ब्याह रचीजे ….बलदाऊ

 

दाउदयाल बिरज के राजा, भंग पिए नित खाए खाजा


नील वस्त्र नित ही धर लीजे,……बलदाऊ

 

जो कोई बल की आरती गावे, निश्चित कृष्ण चरण राज पावे

बुद्धि, भक्ति ‘गिरि’ नित-नित लीजे …..बलदाऊ


आरती के बाद श्री बलभद्र स्तोत्र और कवच का पाठ अवश्य करें।


बलदेव स्तोत्र

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दुर्योधन उवाच- स्‍तोत्र श्रीबलदेवस्‍य प्राडविपाक महामुने। वद मां कृपया साक्षात् सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।


प्राडविपाक उवाच- स्‍तवराजं तु रामस्‍य वेदव्‍यासकृतं शुभम्। सर्वसिद्धिप्रदं राजञ्श्रृणु कैवल्‍यदं नृणाम् ।।


देवादिदेव भगवन् कामपाल नमोऽस्‍तु ते। नमोऽनन्‍ताय शेषाय साक्षादरामाय ते नम: ।।


धराधराय पूर्णाय स्‍वधाम्ने सीरपाणये। सहस्‍त्रशिरसे नित्‍यं नम: संकर्षणाय ते ।।


रेवतीरमण त्‍वं वै बलदेवोऽच्‍युताग्रज। हलायुध प्रलम्बघ्न पाहि मां पुरुषोत्तम ।।

बलाय बलभद्राय तालांकाय नमो नम:। नीलाम्‍बराय गौराय रौहिणेयाय ते नम: ।।


धेनुकारिर्मुष्टिकारि: कूटारिर्बल्‍वलान्‍तक:। रुक्म्यरि: कूपकर्णारि: कुम्‍भाण्‍डारिस्‍त्‍वमेव हि ।।


कालिन्‍दीभेदनोऽसि त्‍वं हस्तिनापुरकर्षक:। द्विविदारिर्यादवेन्‍द्रो व्रजमण्‍डलारिस्‍त्‍वमेव हि ।।


कंसभ्रातृप्रह‍न्‍तासि तीर्थयात्राकर: प्रभु:। दुर्योधनगुरु: साक्षात् पाहि पा‍हि प्रभो त्‍वत: ।।


जय जयाच्‍युत देव परातपर स्‍वयमनन्‍त दिगन्‍तगतश्रुत। सुरमुनीन्‍द्रफणीन्‍द्रवराय ते मुसलिने बलिने हलिने नम: ।।


य: पठेत सततं स्‍तवनं नर: स तु हरे: परमं पदमाव्रजेत्। जगति सर्वबलं त्‍वरिमर्दनं भवति तस्‍य धनं स्‍वजनं धनम् ।।


श्रीबलदाऊ कवच

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दुर्योधन उवाच- गोपीभ्‍य: कवचं दत्तं गर्गाचार्येण धीमता। सर्वरक्षाकरं दिव्‍यं देहि मह्यं महामुने ।


प्राडविपाक उवाच- स्‍त्रात्‍वा जले क्षौमधर: कुशासन: पवित्रपाणि: कृतमन्‍त्रमार्जन: ।

स्‍मृत्‍वाथ नत्‍वा बलमच्‍युताग्रजं संधारयेद् वर्म समाहितो भवेत् ।।


गोलोकधामाधिपति: परेश्‍वर: परेषु मां पातु पवित्राकीर्तन: ।

भूमण्‍डलं सर्षपवद् विलक्ष्‍यते यन्‍मूर्ध्नि मां पातु स भूमिमण्‍डले ।।


सेनासु मां रक्षतु सीरपाणिर्युद्धे सदा रक्षतु मां हली च ।

दुर्गेषु चाव्‍यान्‍मुसली सदा मां वनेषु संकर्षण आदिदेव: ।।


कलिन्‍दजावेगहरो जलेषु नीलाम्‍बुरो रक्षतु मां सदाग्नौ ।

वायौ च रामाअवतु खे बलश्‍च महार्णवेअनन्‍तवपु: सदा माम् ।।


श्रीवसुदेवोअवतु पर्वतेषु सहस्‍त्रशीर्षा च महाविवादे ।

रोगेषु मां रक्षतु रौहिणेयो मां कामपालोऽवतु वा विपत्‍सु ।।


कामात् सदा रक्षतु धेनुकारि: क्रोधात् सदा मां द्विविदप्रहारी ।

लोभात् सदा रक्षतु बल्‍वलारिर्मोहात् सदा मां किल मागधारि: ।।


प्रात: सदा रक्षतु वृष्णिधुर्य: प्राह्णे सदा मां मथुरापुरेन्‍द्र: ।

मध्‍यंदिने गोपसख: प्रपातु स्‍वराट् पराह्णेऽस्‍तु मां सदैव ।।


सायं फणीन्‍द्रोऽवतु मां सदैव परात्‍परो रक्षतु मां प्रदोषे ।

पूर्णे निशीथे च दरन्तवीर्य: प्रत्यूषकालेऽवतु मां सदैव ।।


विदिक्षु मां रक्षतु रेवतीपतिर्दिक्षु प्रलम्‍बारिरधो यदूद्वह: ।।

ऊर्ध्‍वं सदा मां बलभद्र आरात् तथा समन्‍ताद् बलदेव एव हि ।।


अन्‍त: सदाव्‍यात् पुरुषोत्तमो बहिर्नागेन्‍द्रलीलोऽवतु मां महाबल: ।

सदान्‍तरात्‍मा च वसन् हरि: स्वयं प्रपातु पूर्ण: परमेश्‍वरो महान् ।।


देवासुराणां भ्‍यनाशनं च हुताशनं पापचयैन्‍धनानाम् ।

विनाशनं विघ्नघटस्‍य विद्धि सिद्धासनं वर्मवरं बलस्‍य ।।


हलषष्ठी शुभ मुहूर्त:

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षष्ठी तिथि 24 अगस्त 2024 दिन शनिवार को प्रातः 07.51 बजे से आरम्भ होगी और 25 अगस्त को प्रातः 05.30 बजे तक रहेगी।


उद्यापन, मोखद्ध रात्रि 08 बजकर 16 के बाद होगा। चंद्रोदय रात्रि 09 बजकर 47 मिनट पर होगा।



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शनिवार, 17 अगस्त 2024

शनिमहाराज की सम्पूर्ण कथा

 शनिमहाराज की सम्पूर्ण कथा। 

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क्यों है शनिमहाराज के लिये शनिवार का महत्व?


शनिदेव, सूर्य के पुत्र तथा यमराज के भाई हैं। शिवजी इनके गुरु हैं तथा शिवजी की आदेशानुसार ही ये दुष्टों को दण्ड देने का कार्य करते हैं। लेकिन कभी भी बेकसूर मनुष्यों को दण्ड नहीं देते। शिवजी तथा हनुमान जी के भक्तों को शनिदेव कभी कष्ट नहीं पहुँचाते।


शनिदेव का अवतरण  पुराणों के अनुसार सूर्यदेव की पाँच पत्नियाँ हैं– प्रभा, संध्या, रात्रि, बड़वा और छाया। संध्या की तीन संतानें हैं— वैवस्वत मनु, यम और यमुना।


 ऐसा कहा जाता है कि सूर्यदेव की पत्नी संध्या, सूर्य के तेज को नहीं सहन कर पाती थीं ।


 जिससे उसे बहुत कष्ट सहना पड़ता था और वह अपने को अंतर्निहित करने का विचार करने लगी। उसने अपने ही रूप रंग जैसी एक प्रतिरूप स्त्री बनायी और उसे “छाया” नाम दिया । 


इसके बाद संध्या, उस छाया को सूर्यदेव के पास छोड़कर, स्वयं बड़वा (घोड़ी) के रूप में सुमेरु पर्वत पर तपस्या को चले गई। 


जाते हुए संध्या ने छाया से वचन लिया कि वह उसके बच्चों का ख्याल रखेगी तथा इस रहस्य को सूर्य के समक्ष प्रकट नहीं करेगी। 


छाया ने कहा – “सूर्य जब तक मेरा केश पकड़कर न पूछेंगे, तब तक मैं नहीं कहूंँगी ।” बहुत समय तक सूर्य छाया को ही संध्या समझते रहे। छाया के सावर्णि मनु, शनैश्चर (शनि), ताप्ती नदी और विष्टी नाम की चार संताने हुईं।


कुछ समय बीतने पर छाया ने अपने और संध्या के बच्चों में भेद करना शुरु कर दिया। इस को वैवस्व मनु इस भेद को नहीं सहन कर पाये और अपने पिता सूर्यदेव से शिकायत की। 


तब सूर्यदेव ने संध्या रूपी छाया से इसका कारण पूछा, लेकिन संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाने पर, उसके बाल पकड़ लिये और क्रोधपूर्वक सत्य बतलाने को कहा। 


तब संध्या रूपी छाया ने कहा- “आपके वास्तविक पत्नी संध्या अपने स्थान पर मुझे छोड़कर, स्वयं बड़वा का रूप धारण कर कहीं चली गई है।” इसके बाद से ही सूर्यदेव ने छाया और उसके पुत्रों का तिरस्कार करना प्रारम्भ कर दिया ।


शनिदेव के काले रंग और कुरूप होने के कारण, सूर्यदेव हमेशा उसका तिरस्कार करते रहते थे। सूर्यदेव ने अपने पुत्रों के वयस्क हो जाने पर एक-एक ग्रह का स्वामित्व दे दिया। 


शनि ग्रह का आधिपत्य शनिदेव को मिला। परंतु शनि देव सभी ग्रह पर अपना अधिकार चाहते थे । इसके लिये शनिदेव ने सभी ग्रह पर आक्रमण की योजना बनाई । 


जब सूर्य के समझाने भी शनिदेव नहीं माने तब सूर्यदेव शिव जी के पास गये। शिव जी ने अपने गणों को शनिदेव को समझाने के लिये भेजा और नहीं मानने पर दण्ड देने के लिये भी कहा। 


शनिदेव ने सभी गणों से युद्ध कर उन्हें बंदी बना लिया। यह देखकर शिव जी को अत्यधिक क्रोध आया और शनिदेव को अपने त्रिशूल से मूर्छित कर दिया।


पुत्र की यह दशा देखकर, सूर्यदेव शिवजी की अराधना करने लगे और शनिदेव को जीवित करने को कहा। अत: शिवजी ने सूर्यदेव की अराधना से प्रसन्न होकर शनिदेव को जीवित कर दिया। जीवित होकर, शनिदेव ने शिव जी की अनेकों तरह से स्तुति की और उनसे विनती की कि शिवजी, शनिदेव को अपना शिष्य बना लें। 


शिवजी ने शनिदेव को अपना शिष्य बना लिया और अनेकों उपदेश दिये। शिवजी ने शनिदेव को आदेश दिया कि अपने शक्ति का अनुचित उपयोग न करें। संत-पुरुषों को कभी तंग न करें, परंतु दुष्ट पापी को उचित दण्ड अवश्य दें। शिवजी ने शनिदेव को पापियों को दण्ड देने के कार्य पर नियुक्त किया ।


यमराज और यमुना के भाई  शनिदेव की माता छाया, संध्या की ही प्रतिरूप हैं  इसलिये शनिदेव को यमराज और यमुना का सगा भाई कहते हैं । शनिदेव की नियमित अराधना करने वालों पर यमराज भी अपनी कृपादृष्टि बनाये रखते हैं।


हनुमानजी के सखा  रामायण में ऐसा उल्लेख है कि रावण ने सभी ग्रहों के साथ शनिदेव को भी काल कोठरी में बंद कर रखा था। जब हनुमान जी सीता माता की खोज करते हुए लंका पहुँचे। तब उन्होंने शनिदेव सहित अन्य बंदियों को भी काल-कोठरी से मुक्त करवाया था। 


इस पर प्रसन्न हो कर शनिदेव ने हनुमान जी से कहा- हे महावीर! आपने मुझे बंधन मुक्त किया है। मैं आपके भक्तों पर सदैव दयापूर्ण दृष्टि रखँगा और उनके बंधनों को काटता रहँगा। आपने मुझे बंधन्मुक्त कर मेरी शक्तियाँ लौटा दी हैं।अब मैं लंका और रावण पर कुदृष्टि डालकर उसे बर्बाद करता हूंँ।


इसी कारण से शनिवार का दिन हनुमान जी की पूजा-अराधना का भी विशिष्ट दिन है।



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मंगलवार, 13 अगस्त 2024

दक्षिणा का महत्व

 *दक्षिणा का महत्व*


ब्राह्मणों की दक्षिणा हवन की पूर्णाहुति करके एक मुहूर्त ( २४ ) मिनट के अन्दर दे देनी चाहिये , अन्यथा मुहूर्त बीतने पर १००  गुना  बढ जाती है , 

और तीन रात बीतने पर एक हजार , 

सप्ताह बाद दो हजार ,

महीने बाद एक लाख , 

और  संवत्सर बीतने पर तीन करोड गुना यजमान को देनी होती है । 

यदि नहीं दे तो उसके बाद उस यजमान का  कर्म निष्फल हो जाता है , 

और  उसे ब्रह्महत्या लग जाती है , 

उसके हाथ से किये जाने वाला हव्य - कव्य देवता और पितर कभी प्राप्त नहीं करते हैं । इसलिए  ब्राह्मणों की दक्षिणा जितनी जल्दी हो देनी चाहिये ।


यह जो कुछ भी कहा है सबका शास्त्रोॆ में प्रमाण है ।


*मुहूर्ते समतीते तु , भवेच्छतगुणा च सा ।*


*त्रिरात्रे तद्दशगुणा , सप्ताहे द्विगुणा मता ।।*


*मासे लक्षगुणा प्रोक्ता ,ब्राह्मणानां च वर्धते ।*


*संवत्सर व्यतीते तु , त्रिकोटिगुणा भवेत् ।।*


*कर्म्मं तद्यजमानानां , सर्वञ्च निष्फलं भवेत् ।*


*सब्रह्मस्वापहारी च , न कर्मार्होशुचिर्नर: ।।*


इसलिए चाणक्य ने कहा *"""नास्ति यज्ञसमो रिपु: """* मतलब यज्ञादि कर्म विधि से सम्पन्न हो तब लाभ अन्यथा सबसे बडे शत्रु की तरह है ।


गीता में स्वयं भगवान ने कहा 


*विधिहीनमसृष्टान्नं , मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।*


*श्रद्धाविरहितं यज्ञं , तामसं परिचक्षते ।।*


बिना सही विधि से बनाया भोजन जैसे परिणाम में नुकसान करता है , 

वैसे ही ब्राह्मण के बोले गये मन्त्र दक्षिणा न देने पर नुकसान करते हैं ।


शास्त्र कहते हैं 

लोहे के चने या टुकडे भी व्यक्ति पचा सकता है 

परन्तु ब्राह्मणों के धन को नहीं पचा सकता है ।

किसी भी उपाय से ब्राह्मणों का धन लेने वाला हमेशा दु:ख ही पाता है । 

इस पर एक कहानी सुनाता हूँ शास्त्रों में वर्णित 


 महाभारत का युद्ध चल रहा था , युद्ध के मैदान में सियार , आदि हिंसक जीव  योद्धाओं के गरम -गरम खून को पी रहे थे , इतने में ही धृष्टद्युम्न ने तलवार से पुत्रशोक से दु:खी निशस्त्र द्रोणाचार्य की गर्दन काट दी । तब द्रोणाचार्य के गरम -गरम खून को पीने के लिए सियारिन दौडती है , 

तो सियार अपनी सियारिन से कहता है 👇


प्रिये  *""" विप्ररक्तोSयं गलद्दगलद्दहति """* 


यह ब्राह्मण का खून है इसे मत पीना , 

यह शरीर को गला- गला कर नष्ट कर देगा । 

तब उस सियारिन ने भी ब्राह्मण द्रोणाचार्य का रक्तपान नहीं किया ।


ऋषि - मुनियों का कर के रुप में खून लेने पर ही रावण के कुल का संहार हो गया ।

इसलिए जीवन में कभी भी ब्राह्मणों के द्रव्य का अपहरण किसी भी रुप में नहीं करना चाहिये ।


वित्तशाट्ठ्यं न कुर्वीत, सति द्रव्ये फलप्रदम ।


अनुष्ठान , पाठ - पूजन जब भी करवायें ब्राह्मणों को उचित दक्षिणा देनी चाहिये , 

और दक्षिणा के अतिरिक्त उनके आने - जाने का किराया आदि -आदि पूछकर अलग से देना चाहिये । 


उसके बाद विनम्रता से ब्राह्मणों की वचनों द्वारा भी सन्तुष्टि करते हुए आशीर्वाद देना चाहिये , 

ऐसा करने पर ब्राह्मण मुँह से नहीं बल्कि हृदय से आशीर्वाद देता है , 

और तब यजमान का कल्याण होता है ।


*यत्र भुंड्क्ते द्विजस्तस्मात् , तत्र भुंड्क्ते हरि: स्वयम् ।।*


 जिस घर में इस तरह श्रद्धा से ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है , 

वहाँ ब्राह्मण के रुप में स्वयं भगवान ही भोजन करते हैं । धन्यवाद! पढें ,शेयर करें और आचरण भी करे 



                         🚩 हर हर महादेव 🚩


शनिवार, 10 अगस्त 2024

श्री कल्कि अवतार

 श्री कल्कि अवतार जन्मोत्सव 10 अगस्त विशेष

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शास्त्रों में वर्णित है श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को यह अवतार होना तय है पइसलिए यह शुभ तिथि कल्कि जयंती को उत्सव रूप में मनाया जाता है। कल्कि अवतार के जन्म समय ग्रहों की जो स्थिति होगी उसके बारे में दक्षिण भारतीय ज्योतिषियों की गणना के अनुसार जब चन्द्रमा धनिष्ठा नक्षत्र और कुंभ राशि में होगा। सूर्य तुला राशि में स्वाति नक्षत्र में गोचर करेगा। गुरू स्वराशि धनु में और शनि अपनी उच्च राशि तुला में विराजमान होगा।


कलियुग का प्रामाणिक वर्णन

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हमारे हिन्दू धर्मग्रन्थ भविष्य पुराण में 

कलयुग के विषय में जो प्रामाणिक वर्णन है उसके अनुसार कलियुग की आयु कुल 4,32,000 वर्ष की है जिनमें से (दिनांक 9 अप्रैल 2024 तक) 5,125 वर्ष बीत चुके हैं। अतः अभी भी कलियुग की बहुत आयु शेष है। वर्तमान में (दिनांक 9 अप्रैल 2024 से) कलियुग संवत् 5126 चल रहा है। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को नये विक्रम संवत्सर के साथ ही नया कलियुग संवत्सर(वर्ष) प्रारम्भ होता है।


मान्यता है कि प्रत्येक युग के चार चरण होते हैं। कलियुग के भी चार चरण हैं। कलियुग का एक चरण 1,08,000 वर्ष का होता है।कलियुग के प्रथम चरण में कलि मिश्रित सतयुग अभी चल रहा है। दूसरे चरण में कलि मिश्रित त्रेता, तीसरे चरण में कलि मिश्रित द्वापर तथा चतुर्थ चरण में कलि मिश्रित कलियुग का समागम होगा।


इस प्रकार चौथे चरण में घोर कलियुग का स्वरूप देखने में आयेगा। सब लोग पशुवत् आचरण करते दिखाई पड़ेंगे और धर्म से च्युत होकर नष्ट हो जायेंगे। धर्म-कर्म भी गोपनीयता के कारण लुप्त हो जायेगा। कारण सभी भौतिकता मे डूबे रहेंगे और आध्यात्मिक चेतना किसी में न रहेगी. जिससे प्रामाणिक ज्ञान का अभाव हो जायेगा। घोर कलि के वातावरण के प्रभाव से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में तमान्ध छा जायेगा। तब सप्तशती के अनुसार- “निशामयं तदुत्पत्तिं” के आधार पर कल्कि अवतार लेकर मां पुनः विलुप्त धर्म के प्रकाश को लाकर तमान्ध को दूर करेंगी। परंतु वह समय अभी बहुत दूर है।


युग परिवर्तनकारी भगवान श्री कल्कि के अवतार का संभावित समय कलियुग के अंतिम चरण में बताया गया है इसका प्रयोजन विश्वकल्याण है। पुराणकथाओं के अनुसार कलियुग में पाप की सीमा पार होने पर विश्व में दुष्टों के संहार के लिये कल्कि अवतार प्रकट होगा। कल्कि अवतार कलियुग के अन्त के लिये होगा। 


भगवान का यह अवतार ‘‘निष्कलंक भगवान’’ के नाम से भी जाना जायेगा। श्रीमद्भागवतमहापुराण में विष्णु के अवतारों की कथाएं विस्तार से वर्णित है। इसके बारहवें स्कन्ध के द्वितीय अध्याय में भगवान के कल्कि अवतार की कथा विस्तार से दी गई है जिसमें यह कहा गया है कि "सम्भल ग्राम में विष्णुयश नामक श्रेष्ठ ब्राह्मण के पुत्र के रूप में कल्कि उनके घर में जन्म लेंगे और अल्पायु में ही वेदादि शास्त्रों का पाठ करके महापण्डित हो जाएँगे। बाद में वे जीवों के दुःख से कातर हो महादेव की उपासना करके अस्त्रविद्या प्राप्त करेंगे जिनका विवाह बृहद्रथ की पुत्री पद्मादेवी के साथ होगा।“


वह देवदत्त नाम के घोड़े पर आरूढ़ होकर अपनी कराल करवाल (तलवार) से दुष्टों का संहार करेंगे तभी सतयुग का प्रारम्भ होगा।"


सम्भल ग्राम मुख्यस्य ब्राह्मणस्यमहात्मनः भवनेविष्णुयशसः कल्कि प्रादुर्भाविष्यति।।


भगवान श्री कल्कि निष्कलंक अवतार हैं। उनके पिता का नाम विष्णुयश और माता का नाम सुमति होगा। उनके भाई जो उनसे बड़े होंगे क्रमशः सुमन्त, प्राज्ञ और कवि नाम के नाम के होंगे। याज्ञवलक्य जी पुरोहित और भगवान परशुराम उनके गुरू होंगे। भगवान श्री कल्कि की दो पत्नियाँ होंगी - लक्ष्मी रूपी पद्मा और वैष्णवी शक्ति रूपी रमा। उनके पुत्र होंगे - जय, विजय, मेघमाल तथा बलाहक।


कल्कि भगवान का स्वरूप (सगुण रूप) परम दिव्य एवं ज्योतिमय होता है। उनके स्परूप की कल्पना उनके परम अनुग्रह से ही की जा सकती है। भगवान श्री कल्कि अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड नायक हैं। शक्ति पुरूषोत्तम भगवान श्री कल्कि अद्वितीय हैं। भगवान श्री कल्कि दुग्ध वर्ण अर्थात् श्वेत अश्व पर सवार हैं। अश्व का नाम देवदत्त है। भगवान का रंग गोरा है, परन्तु क्रोध में काला भी हो जाता है। भगवान पीले वस्त्र धारण किये हैं। प्रभु के हृदय पर श्रीवत्स का चिह्न अंकित है। गले में कौस्तुभ मणि सुशोभित है। भगवान पूर्वाभिमुख व अश्व दक्षिणामुख है। भगवान श्री कल्कि के वामांग में लक्ष्मी (पद्मा) और दाएं भाग में वैष्णवी (रमा) विराजमान हैं। पद्मा भगवान की स्वरूपा शक्ति और रमा भगवान की संहारिणी शक्ति हैं। भगवान के हाथों में प्रमुख रूप से नन्दक व रत्नत्सरू नामक खड्ग (तलवार) है। शांग नामक धनुष और कुमौदिकी नामक गदा है। भगवान कल्कि के हाथ में पाञ्चजन्य नाम का शंख है। भगवान के रथ अत्यन्त सुन्दर व विशाल हैं। रथ का नाम जयत्र व गारूड़ी है। सारथी का नाम दारूक है। भगवान सर्वदेवमय व सर्ववेदमय हैं। सब उनकी विराट स्वरूप की परिधि में हैं। भगवान के शरीर से परम दिव्य गंध उत्पन्न होती है जिसके प्रभाव से संसार का वातावरण पावन हो जाता है।


  सम्भल

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कल्कि अवतार के कलियुग में हिन्दुस्तान के सम्भल में होने पर सभी हिन्दू सहमत हैं परन्तु सम्भल कहाँ है इसमें अनेक मतभेद हैं। कुछ विद्वान सम्भल को उड़ीसा, हिमालय, पंजाब, बंगाल और शंकरपुर में मानते हैं। कुछ सम्भल को चीन के गोभी मरूस्थल में मानते हैं जहाँ मनुष्य पहुँच ही नहीं सकता। कुछ वृन्दावन में मानते हैं। कुछ सम्भल को मुरादाबाद (उ0प्र0) जिले में मानते हैं जहाँ कल्कि अवतार मन्दिर भी है।


कल्कि जयंती के दिन निम्न अनुष्ठान किये जाते है।

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कल्कि जयंती के त्यौहार पर, लोग पूरे दिन उपवास रखते हैं। लोग भगवान विष्णु के आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए विभिन्न मंत्रों का जप करते हैं जैसे नारायण मंत्र, विष्णु सहस्रनाम और अन्य मन्त्रों का 108 बार जाप। उपवास प्रारम्भ करते हुए श्रद्धालु बीज मंत्र का जाप करते हैं और उसके बाद पूजा करते हैं। देवताओं की मूर्तियों को पानी के साथ-साथ पंचमृत से भी धोया जाता है। भगवान विष्णु के विभिन्न नामों का जप किया जाता है।कल्कि जयंती के दिन ब्राह्मणों को भोजन दान करना महत्वपूर्ण है।


श्रीकल्कि भगवान की पंचोपचार पूजा विधि

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श्रीकल्कि जयन्ती के दिन आराधक को चाहिए कि वह स्वच्छ होकर सायंकाल को पूजागृह में उपस्थित हो। दुर्गाजी का विग्रह, श्रीयंत्र, पारद शिवलिंग, भगवान नारायण का विग्रह/मूर्ति/चित्र या शालग्राम (इनमें जो कुछ उपलब्ध हो) अपने सामने रखे। उसमें श्रीकल्कि भगवान के उपस्थित होने की भावना करके निम्न संक्षिप्त विधि से श्रीकल्कि भगवान का पूजन करे-


आचमन, पवित्रीकरण, शिखाबंधन, प्राणायाम करके श्री कल्कि जी के पूजन का संकल्प करे।


“ॐश्रीगणेश-विष्णु-शिव-दुर्गा-सूर्येभ्यो नमः” से पंचदेवों को नमस्कार कर पुष्पार्पण करे।


‘ॐ ऐं स्त्रौं कलि-दर्पघ्न्यै नमः’ व ‘ॐ ऐं वैं कलि-कल्मष-नाशिन्यै नमः’ मंत्र से दुर्गा माँ को नमस्कार कर पुष्प अर्पित करे। तब श्री कल्कि भगवान का ध्यान करे-


भगवान कल्कि का ध्यान

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ध्याये नील-हयारूढ़ं, श्वेतोष्णीष-विराजितम्।


महा-मुद्राढ्य-हस्तं च, कौस्तुभोद्दाम-कण्ठकम्॥


मर्दयन्तं म्लेच्छ-गणं, क्रोध-पूरित-लोचनम्।


अन्तर्हितैर्देव-मुनि-गन्धर्वै-संस्तुतं हरिम्॥१॥


(अर्थात् नीले घोड़े पर सवार, श्वेत मुकुट(पगड़ी) से देदीप्यमान 'महा-मुद्रा' अर्थात्  भ्रू-मध्य की ओर देखने की मुद्रा में मुट्ठी बाँधे हुए हाथों की विशेष मुद्रावाले और कौस्तुभ-मणि के समान विशाल एवं चमकीली गर्दन वाले कल्कि-अवतार भगवान् विष्णु का मैं ध्यान करता हूँ। जो क्रोध-पूर्ण आंखों से दुष्ट लोगों पर प्रहार करने में तल्लीन हैं और सर्वकल्याण हेतु जिनकी गुप्तरूप से देव-मुनि-गन्धर्व स्तुति कर रहे हैं।)


कल्पावसाने निखिलैः खुरैः स्वैः, सङ्घट्टयामास निमेष-मात्रात्।


यस्तेजसा निर्दहतीति भीमो, विश्वात्मकं तं तुरगं भजामः॥२॥


(अर्थात् युगों की समाप्ति पर, जिन्होंने अपने खुरों के तीक्ष्ण प्रहार से सम्पूर्ण विश्व को विदीर्ण कर दिया ओर जिनके तेज से विश्व जल उठा, मैं उन तीव्र-गामी अश्वों अर्थात् तीक्ष्ण मन-विचार वाले कल्कि-अवतार भगवान् विष्णु को प्रणाम करता हूँ।)


म्लेच्छ-निवहनिधने कलयसि करवालम्।

धूमकेतुमिव किमपि करालम्॥


केशव धृतकल्किशरीर जय जगदीश हरे॥३॥


(अर्थात् जो म्लेच्छसमूह का [भूमण्डल की शान्ति भंग करने वालों का] नाश करने के लिये धूमकेतु के समान अत्यंत भयंकर तलवार चलाते हैं, ऐसे कल्किरूपधारी आप जगत्पति भगवान् केशव की जय हो।)


ॐ श्रीकल्कि अवताराय नम: ध्यानार्थे पुष्पाणि समर्पयामि॥


(यह कहकर भगवान को पुष्प अर्पित करे)


ॐ श्रीकल्कि अवताराय नम:॥


लं पृथिव्यात्मकं गन्धं श्रीकल्किने समर्पयामि नमः।


(यह कहकर भगवान को चन्दन का तिलक करे)


ॐ श्रीकल्कि अवताराय नम:॥


हं आकाशात्मकं पुष्पं श्रीकल्किने समर्पयामि नमः।


(यह कहकर भगवान को पुष्प अर्पित करे)


ॐ श्रीकल्कि अवताराय नम:॥


यं वाय्वात्मकं धूपं श्रीकल्किने आघ्रापयामि नमः।


(यह कहकर धूप जलाकर वातावरण सुगंधित करते हुए धूप द्वारा भगवान की आरती करे)


ॐ श्रीकल्कि अवताराय नम:॥


रं वह्न्यात्मकं दीपं श्रीकल्किने दर्शयामि नमः।


(यह कहकर भगवान की दीप से आरती करे)


ॐ श्रीकल्कि अवताराय नम:॥


वं अमृतात्मकं नैवेद्यं श्रीकल्किने निवेदयामि नमः।


(यह कहकर भगवान को उत्तम नैवेद्य अर्पित करे)


ॐ श्रीकल्कि अवताराय नम:॥


सं सर्वात्मकं सर्वोपचाराणि श्रीकल्किने समर्पयामि नमः।


(यह कहकर भगवान को पुष्पार्पण करके प्रदक्षिणा आदि समस्त उपचार समर्पित करने की भावना करे)


‘श्रीकल्कि अवतार’ नाम मन्त्र की साधना विधि 


भगवती श्री दुर्गा से उद्भूत विश्व के संरक्षक भगवान विष्णु का दसवाँ अवतार 'श्रीकल्कि-अवतार' है। इनकी प्रसन्नता पाने के लिए षडक्षर-“श्रीकल्कि”-नाम-मन्त्र-साधना की जा सकती है जिसका उत्तम माहात्म्य है। भगवती दुर्गा से उद्भूत श्री-कल्कि-विग्रह भगवान् विष्णु के नाम मन्त्रजप से कलियुग में पापियों, दुष्टों के कपटपूर्ण कार्यों एवं आतङ्क से रक्षा होती है।


करन्यास

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कं अंगुष्ठाभ्यां नमः।

कं तर्जनीभ्यां स्वाहा।

ल्किं मध्यमाभ्यां वषट्।

नं अनामिकाभ्या हुम्।

नं कनिष्ठाभ्यां वषट्। 

मं करतल-कर-पृष्ठाभ्यां फट्।


षडङ्गन्यास

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कं हृदयाय नमः।

कं शिरसे स्वाहा।

ल्किं शिखायै वषट्

नं कवचाय हुम्।

नं नेत्रत्रयाय वौषट्।

मं अस्त्राय फट्।


ध्यान

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ध्याये नील-हयारूढ़ं, श्वेतोष्णीष-विराजितम्।

महा-मुद्राढ्य-हस्तं च, कौस्तुभोद्दाम-कण्ठकम्॥

मर्दयन्तं म्लेच्छ-गणं, क्रोध-पूरित-लोचनम्।

अन्तर्हितैर्देव-मुनि-गन्धर्वै-संस्तुतं हरिम्॥

अर्थात् नीले घोड़े पर सवार, श्वेत मुकुट से देदीप्यमान 'महा-मुद्रा' अर्थात्  भ्रू-मध्य की ओर देखने की मुद्रा में मुट्ठी बाँधे हुए हाथों की विशेष मुद्रावाले और कौस्तुभ-मणि के समान विशाल एवं चमकीली गर्दन वाले कल्कि-अवतार भगवान् विष्णु का मैं ध्यान करता हूँ। जो क्रोध-पूर्ण आंखों से दुष्ट लोगों पर प्रहार करने में तल्लीन हैं और सर्वकल्याण हेतु जिनकी गुप्तरूप से देव-मुनि-गन्धर्व स्तुति कर रहे हैं।


श्रीकल्कि भगवान की मानस पूजा-

लं पृथिव्यात्मकं गन्धं श्रीकल्किने मनसापरिकल्प्य समर्पयामि नमः।


हं आकाशात्मकं पुष्पं श्रीकल्किने मनसापरिकल्प्य समर्पयामि नमः।


यं वाय्वात्मकं धूपं श्रीकल्किने मनसापरिकल्प्य आघ्रापयामि नमः।


रं वह्न्यात्मकं दीपं श्रीकल्किने मनसापरिकल्प्य दर्शयामि नमः।


वं अमृतात्मकं नैवेद्यं श्रीकल्किने मनसापरिकल्प्य निवेदयामि नमः।


सं सर्वात्मकं सर्वोपचाराणि श्रीकल्किने मनसापरिकल्प्य समर्पयामि नमः।


श्रीकल्कि भगवान का मन्त्र

॥ कं कल्किने नम: ॥ (६ अक्षर)


निष्काम(कामना रहित) भाव से श्री कल्कि अवतार जयन्ती तिथि को या अन्य दिन भी श्रीकल्कि भगवान के उपरोक्त षडक्षर मन्त्र का अधिकाधिक मानस जप करना चाहिए। यदि सकाम भाव से जप करे तो माला द्वारा किया जाना चाहिये और उसका हवन, तर्पण, मार्जन आदि करके पुरश्चरण करना चाहिए।


विशेष👉 'ॐ ऐं स्त्रौं कलि-दर्पघ्न्यै नमः', 'ॐ ऐं वैं कलि-कल्मष-नाशिन्यै नमः' इस प्रकार भगवती दुर्गा का स्मरण करते हुए भगवान् कल्कि के नाम-मन्त्र का  जप करने से जप में विशेष सफलता प्राप्त होती है। प्रत्येक चतुर्युगी/पर्याय(चार युगों का एक चक्र) में कलियुग का समापन करने के लिए व जगत के कल्याण के लिए श्रीब्रह्मा-विष्णु-शिवात्मिका व श्रीमहासरस्वती-महालक्ष्मी-महाकाली स्वरूपिणी दुर्गा माँ ही भगवान श्रीकल्कि के अवतार रूप में प्रादुर्भूत होती हैं। श्रीहरि नारायण के अधर्मनाशक अवतार श्री कल्कि भगवान को “कल्कि जयन्ती पर” हमारा अनेकों बार प्रणाम।


कल्कि मंत्र जप

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कल्कि महामंत्र👉  ‘’जय कल्कि जय जगत्पते,पदमापति जय रमापते ’ ’में दो बार भगवान विष्णु और दो बार लक्ष्मी जी का नाम आता हैं। भगवान विष्णु पालक होने के कारण घर व्यापार में व्यवस्था देते हैं और लक्ष्मी जी धन-वैभवता प्रदान करते हैं। कल्कि मंत्र ’जय कल्कि जय जगत्पते, पदमापति जय रमापते ’ का जाप जीवन की इन परस्तिथियों में करे।👉 अनुभव द्वारा जीवन में मार्ग दर्शन पाने के लिए, 


पूर्व जन्मों के कर्मो का क़र्ज़ उतारने के लिए।


अपने जीवन में मंगल और तेज बढ़ाने के लिए।


सभी देवी देवता की कृपा पाने के लिए।


प्रार्थना :हे कल्कि भगवान, मैंने जो आपके महामंत्र का जाप किया, इससे अर्जित  संपूर्ण फल मैं आपको समर्पित करती हूँ, इसे स्वीकार करे, अपने अवतार कार्य में खर्च करे। भूमि का भार उतारे। 

धर्म,गौ, ब्राह्मणो, सज्जनो, छोटे बच्चे जो आपका काम कर रहे हैं या करेंगे, गर्भ में स्तिथ जो बच्चें आपका काम करेंगे उनकी  रक्षा करे।शीघ्र प्रकट हो कलियुग का नाश करे, सतयुग की स्थापना करे। अपनी परेशानी कहे  और बोले, मुझे स्वस्थ शरीर, सुखी-भाव, राजा-रानियों की तरह वैभवता पूर्वक रहते हुए आपके साहित्य-प्रचार-प्राकट्य का अति-विशिष्ट कार्य करना हैं।


कल्कि बीज मंत्र👉 ‘ॐ कोंग कल्कि देवाय नमः’


कल्कि बीज मंत्र प्रयोग👉

कल्कि मंत्र ’ॐ कोंग कल्कि देवाय नमः’ का जाप जीवन की इन परस्तिथियों में करे👉 जब काम नहीं बन रहे हो, मौत पीछा नहीं छोड़ रही हो, धर्म के प्रति अपनी आस्था बढ़ाने के लिए।


कल्कि स्वास्थ्य मंत्र👉"हक् अनीह निष्कलंक गौरंडा: दुष्टहा: नाशनम् पापहा’’


कल्कि स्वास्थ्य मंत्र प्रयोगकल्कि मंत्र ’‘हक् अनीह निष्कलंक गौरंडा: दुष्टहा: नाशनम् पापहा’’ का जाप जीवन की इन परस्तिथियों में करे:


संपूर्ण स्वास्थ्य पाने के लिए.असाध्य रोगों से छुटकारा पाने के लिए.अपने अंदर के किसी डर से छुटकारा पाने के लिए।


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रविवार, 4 अगस्त 2024

अथ रुद्राभिषेकस्तोत्रम् ॥

 ॥अथ रुद्राभिषेकस्तोत्रम् ॥ 


जो लोग वेद के अधिकारी न हों, या वैदिक रुद्र सूक्त का सम्यक पाठ न कर सकते हों वे लोग ऋषि व्यास कृत इन श्लोकों का पाठ करते हुए शिवलिंग का अभिषेक कर सकते हैं। कामना विशेष हो तो पाठ संख्या बढा दें। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसका उपदेश किया था। 


वेदव्यास भगवान की जय हो!!


॥महाभारतान्तर्गतम्  ॥ 


॥कृष्णार्जुनावूचतुः ॥


नमो भवाय शर्वाय रुद्राय वरदाय च । 

पशूनां पतये नित्यमुग्राय च कपर्दिने ॥ ५५॥

महादेवाय भीमाय त्र्यम्बकाय च शान्तये । 

ईशानाय मखघ्नाय नमोऽस्त्वन्धकघातिने ॥ ५६॥ 

कुमारगुरवे तुभ्यं नीलग्रीवाय वेधसे । 

पिनाकिने हविष्याय सत्याय विभवे सदा ॥ ५७॥  

विलोहिताय ध्रूम्राय व्याधायानपराजिते । 

नित्यं नीलशिखण्डाय शूलिने दिव्यचक्षुषे ॥ ५८॥ 

होत्रे पोत्रे त्रिनेत्राय व्याधाय वसुरेतसे । 

अचिन्त्यायाम्बिकाभर्त्रे सर्वदेवस्तुताय च ॥ ५९॥ 

वृषध्वजाय  मुण्डाय  जटिने  ब्रह्मचारिणे  ।  

तप्यमानाय  सलिले  ब्रह्मण्यायाजिताय  च  ॥ ६०॥ 

विश्वात्मने  विश्वसृजे  विश्वमावृत्य  तिष्ठते  ।  

नमोनमस्ते  सेव्याय  भूतानां  प्रभवे  सदा  ॥ ६१॥ 

ब्रह्मवक्त्राय   सर्वाय   शंकराय   शिवाय   च ।  

नमोस्तु  वाचस्पतये  प्रजानां  पतये  नमः  ॥ ६२॥ 

अभिगम्याय काम्याय स्तुत्यायार्याय सर्वदा । 

नमोऽस्तु देवदेवाय महाभूतधराय च । 

नमो विश्वस्य पतये पत्तीनां पतये नमः ॥ ६३॥ 

नमो विश्वस्य पतये महतां पतये नमः । 

नमः सहस्रशिरसे सहस्र भुजमृत्यवे॥ 

सहस्रनेत्रपादाय नमोऽसङ्ख्येयकर्मणे । ६४॥ 

नमो हिरण्यवर्णाय हिरण्यकवचाय च । 

भक्तानुकम्पिने नित्यं सिध्यतां नो वरः प्रभो ॥६५॥ 

सञ्जय उवाच । 

एवं स्तुत्वा महादेवं वासुदेवः सहार्जुनः । 

प्रसादयामास भवं तदा ह्यस्त्रोपलब्धये ॥ ६६॥ ॥ 


इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि अर्जुनस्वप्ने अशीतितमोऽध्यायः ॥ ८०॥

शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

स्त्री और यज्ञोपवीत


*॥ स्त्रियों के यज्ञोपवीत के विषय में संक्षिप्त कथन॥*

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हम यह नहीं कहते कि स्त्रियों में किसी कार्य को करने की क्षमता नहीं है इस कारण ही वह कार्य स्त्रियों लिए प्रतिषिद्ध है।अपितु तद्तदकार्य को करने से सर्वप्रथम तो उनका एवं तत्पश्चात समाज का अनिष्ट होगा इस कारण ही अनेक कार्य प्रतिषिद्ध हैं। संकल्पमात्र से त्रैलोक्याकर्षण में समर्थ भगवती , सूर्यचन्द्र को भी स्तम्भित करने में सक्षम पतिव्रता स्त्रियाँ सर्वसक्षम होते हुए भी पतिसेवा ही स्वीकार करती हैं।


स्वधर्म में ही चमत्कृति है, इसका उदाहरण देखिए,स्त्रियों के लिए स्तोत्रपाठ एवं अनेक पौराणिकस्तुतियों के पाठ का विधान है यह तो सर्वस्वीकृत है ही।विगत वर्षों में अनेकों स्त्रियाँ स्तोत्र,सहस्रनामपाठादि द्वारा संसारभर में घर बैठे-बैठे ही ख्याति प्राप्त कर चुकी हैं। लयबद्ध स्तोत्रपाठों में तो वे पुरुषों को भी पीछे छोड़ दें। इसके विपरीत देखिए १५० वर्षों में समय काटने के लिए जितनी स्त्रियाँ भी वेदाध्ययन के नाम पर पथभ्रष्ट हुई हैं , उनमे से आज तक एक ऐसी स्त्री नहीं दिखी जो किसी परम्परागत गुरुकुल के बटुक के समक्ष ठीक ढंग से एक भी मन्त्र सुना दे। आपने एक भी स्त्री का नाम सुना अथवा दर्शन किया जिसके विषय में हम कह सकें कि यह चारों वेद की संहिताओं का पाठ करने में सक्षम है? चार वेद छोड़िये सबसे अधिक प्रचलित “शुक्लयजुर्वेद की घनपाठी है” घनपाठी भी नहीं  “सस्वर सम्पूर्ण संहितापाठी है” ऐसा भी कोई दिखने में भी नहीं आया। अतः स्वधर्म ही श्रेयस्कर है,परधर्म के प्रति आकर्षण व्यक्ति को हीनभावना से ग्रस्त कर लौकिक एवं परलौकिक उन्नति को बाधित कर देता है।


*“लोकसंग्रहणार्थं हि तद् अमन्त्राः स्त्रियो मताः ॥* (बौधायनधर्मसूत्र १.५.११.७)” स्त्रियों का मन्त्रों से कोई सम्बन्ध नहीं है ऐसा स्पष्ट कहा गया है। आगे यह सिद्ध करेंगे कि यह मूलत: श्रुतिवचन है। व्यासस्मृति में भगवानव्यास ने स्त्रियों के कर्णवेधान्त ९ संस्कार अमन्त्रक माने हैं एवं विवाह मन्त्रों सहित माना है। यदि स्त्रियों का उपनयन संस्कार स्वीकृत होता तो ११ संस्कार वर्णित होने थे १० नहीं-

*नवैताः कर्णवेधान्ता मन्त्रवर्ज्जं क्रियाः स्त्रियाः ।* 

*विवाहो मन्त्रतस्तस्याः शूद्रस्यामन्त्रतो दश ॥* (व्यासस्मृति १.१६) 


वेदमन्त्रों से स्त्रियों का उपनयन एवं एवं वेदाध्ययनसिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि  मन्त्र तो कर्म का स्मरण मात्र कराते हैं ,कर्म का विधान नहीं करते तद्विपरीत श्रुतियों में निषेध अवश्य प्राप्त होता है। अथर्ववेदीय नृसिंहतापनीयोपनिषद की श्रुति तो आपको ज्ञात है ही साथ में महाभारत में भी वर्णन है-

*न च स्त्रीणां क्रियाः काश्चिदिति धर्मो व्यवस्थितः।*

*निरिन्द्रिया “ह्यशास्त्राश्च स्त्रियोऽनृतमिति श्रुतिः”।।* (महाभारत १३.७५.१३)

स्त्रियों का शास्त्राध्ययन से सम्बन्ध नहीं है ऐसी श्रुति है। अतः किसी लुप्तवेदशाखा का यह वचन है। वेदमूलक मनुस्मृति में भी यह वचन किंचित पाठभेद के साथ प्राप्त है। 


*निरिन्द्रिया ह्यमन्त्राश्च स्त्रीभ्यो अनृतमिति स्थितिः ॥*(मनुस्मृति ९.१८) 

यहाँ पर मेधातिथि के अनुसार मन्त्र का अर्थ वेद है। 


स्त्रियों का उपनयन कर उन्हें गुरुकुल में पढ़ाने वालों का सारा प्रलाप मात्र दो मुख्य प्रमाणों पर टिका है, प्रथम तो है हारीत का वचन


 *(१) द्विविधाः स्त्रियः ब्रह्मवादिन्यः सद्योवध्वश्च। तत्र ब्रह्मवादिनीनामग्नीन्धनं वेदाध्ययनं स्वगृहे भिक्षाचर्येति। सद्योवधूनां तूपस्थिते कथञ्चिदुपनयनमात्रं कृत्वा विवाहः कार्यः।* एवं दूसरा यमस्मृति का वचन 


*“पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते । अध्यापनञ्च वेदानां सावित्रीवाचनं तथा ॥ “*


(१) इसपर विचारणीय यह है कि हारीतस्मृति में यह वचन प्राप्त होने की संभावना नहीं है क्योंकि वह पद्यात्मक है एवं हारीतधर्मसूत्र तो अनुपलब्ध है। यमस्मृति में भी ऐसा वचन उपलब्ध नहीं है। पाराशरमाधव,वीरमित्रोदय इत्यादि में यह वचन उद्धृत मिलता है वह भी पूर्वपक्ष रूप से। अतः किसी लुप्त स्मृतिवचन के आधार पर शिष्टाचार का लोप नहीं किया जा सकता। यदि इन दोनों स्मृतिवचनों का यथावत अर्थ स्वीकार भी कर लें तब भी मनु,व्यास,मार्कण्डेय,बौधायन,आपस्तम्ब इत्यादि ने तो स्त्रियों के वेदाध्ययन का निषेध किया ही है। अतः गोभिलस्मृति के वचन 

*“विरोधो यत्र वाक्यानां प्रामाण्यं तत्र भूयसाम्।*

(गोभिलस्मृति २८.१७)” जहां वाक्यों में विरोध हो वहाँ अधिक संख्या वाले वाक्यों का प्रामाण्य मानना चाहिए के अनुसार अधिक संख्या में निषेध वाले वाक्यों का ही प्रामाण्य होगा।


(२) यमस्मृति का वचन दिखाकर स्त्रियों को गुरुकुल में भेजने वाले क्यों यमस्मृति का शेषभाग नहीं दिखाते ? जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि


 *“पिता पितृव्यो भ्राता वा नैनामध्यापयेत् परः ।*


 *स्वगृहे चैव कन्याया भैक्ष्यचर्या विधीयते॥“* 


अर्थात पिता,चाचा अथवा भाई ही उन्हें घर पर वेद पढ़ाएँ अन्य कोई भी नहीं। क्या गुरुकुलों में सभी स्त्रियों के पिताजी एवं चाचा भरे पड़े हैं? अत: गुरुकुलों में तो स्त्रियों के वेदाध्ययन की व्यवस्था उक्त वचनों से भी सिद्ध नहीं हो सकेगी। साथ ही कल्पारम्भ का विषय यह है, वर्तमान में यह करना है इस विषय में क्या प्रमाण है? कल्पारम्भ में विवाह इत्यादि की भी व्यवस्था नहीं थी ऐसा महाभारत में लिखा है। अत: कल्पारम्भ के नियमों का अनुकरण नहीं किया जा सकता। मौञ्जीबन्धनमिष्यते में “इष्यते” पद में इषँ इच्छायाम् धातु से इच्छा करना अर्थ सिद्ध होता है। अतः संस्कार इच्छा के अधीन होगा? क्या किसी की इच्छा ही उपनयन में कारण मानी जा सकती है? संस्कार वे होते हैं जो अवश्य करणीय हों,इच्छा पर संस्कार निर्भर नहीं करते । इच्छा से ही उपनयनादि संस्कारों को स्वीकार करने लगें तो पुरुषों का संस्कार उनकी इच्छा से ही होने लगेगा। यदि ऐसा मान लेंगे तो समय पर जिनका उपनयन नहीं होता उनमें शास्त्र जो व्रात्यदोष का विधान करता है,वह व्रात्यदोष भी सम्भव नहीं होगा । किन्तु दोष लगता है, अतः इच्छा के अधीन उपनयन नहीं हो सकता। ऐसा समाधान यम एवं हारीतवचन का धर्मादर्श में दिया गया है।


(३) सद्योवधुओं का वेदाध्ययन हारीत ने नहीं कहा उनका विवाह (उपनयन) ही कहा है। ब्रह्मवादिनियों का उपनयन,वेदाध्ययन इत्यादि कहा है। जो वेदमन्त्र की द्रष्टा ऋषिकाएँ हों वे ब्रह्मवादिनी हैं,कल्पारम्भ में वे उत्पन्न होती हैं एवं ऋषियोनि ,मनुष्ययोनि से भिन्न भी होती हैं। अतः इस प्रकार से यमवचन की संगति भी लग जाती है। ब्रह्मवादिनियों की संख्या नियत है ,आजकल की स्त्री को उपनयन से पूर्व ही ब्रह्मवादिनी (वेद कहने वाली) कैसे कहा जा सकता है? जो उनका उपनयन करवाया जाए।

 

*घोषा गोधा विश्ववारा अपालोपनिषन्निषत्‌ |*

*ब्रह्मजाया जुहूर्नाम अगस्त्यस्य स्वसादितिः ॥*

*इन्द्राणी चेन्द्रमाता च सरमा रोमशोर्वशी |*

*लोपामुद्रा च नद्यश्च यमी नारी च शश्वती |*

*श्रीर्लाक्षा सार्पराज्ञी वाक श्रद्धा मेधा च दक्षिणा |*

*रात्री सूर्या च सावित्री ब्रह्मवादिन्यः ईरिताः॥*(बृहद्देवता २.८२-८४)

देखिए अदिति,इन्द्राणी,उर्वशी,वाक्,यमी इत्यादि देवयोनि, सरमा,सर्पराज्ञीकद्रू इत्यादि श्वान एवं सर्पयोनि, घोषा,लोपमुद्रा,अपाला इत्यादि ऋषियोनि ही ब्रह्मवादिनियों में है। कोई मनुष्यस्त्री वहाँ है? नहीं। अत: उक्त हारीतवचन भी स्त्रियों के उपनयन की पुष्टि नहीं कर सकता। उपरोक्त श्लोक में ही ब्रह्मवादिनियों का परिगणन हो गया है। इसके अतिरिक्त कोई ब्रह्मवादिनी वर्तमान में सम्भव नहीं है जो मन्त्रद्रष्टा हो। स्त्रीउपनयन के समर्थन में एक दो लुप्तस्मृतिवाक्य जो पूर्वपक्ष से उद्धृत हैं वे अथवा स्त्रियों के वेदाध्ययन,होम इत्यादि का निषेध करने वाले अनेक उपलब्ध वाक्य? इनमें से कौन अधिक प्रामाण्य वाला होगा यह विचार करने योग्य है। 


मीमांसादर्शन में स्त्रियों के विषय में स्पष्ट किया गया है 

*तस्या यावद् उक्तम् आशीर् ब्रह्मचर्यम् अतुल्यत्वात् ।।* (मीमांसा ६.१.२४)

इसपर शबरस्वामी का कथन है-


*अतुल्या हि स्त्रीपुंसाः, यजमानः पुमान् विद्वांश्च, “पत्नी स्त्री च अविद्या च”*

(६.१.२४ शबरभाष्य)

*अथ वा याजमानमिति तद्धितः स्त्रीप्रातिपदकाद्वोत्पाद्यः पुंप्रातिपदिकाद्वा ?*

*“तत्र स्त्रीप्रातिपदिकादुत्पत्तौ समन्त्रेषु विरोधः० ।* 

*न तु पुंप्रातिपदिकादुत्पत्तौ कश्चिद्विरोधः।* (६.१.२४ कुमारिलभट्टकृत टुप्टीका)


अस्तु अन्त में यही कहना है कि स्त्रियों का वेदाध्ययन के नाम पर समयकाटने का कार्य मात्र आर्य समाज,गायत्रीपरिवार के गुरुकुलों में ही होता है। वहाँ सभी अब्राह्मण हैं, कोई भी परम्परा से सस्वर वेदाध्ययन किया हुआ ब्राह्मण वहाँ नहीं दिखता। यदि मान भी लें कि कोई शुद्धब्राह्मण जो वैदिकगुरुकुलों में अध्ययन किया हो, वह इन गुरुकुलों में अपना जन्म व्यर्थ कर स्त्रियों को वेदाध्ययन करवा रहा है तब भी वह अध्ययन न तो वेदाध्ययन कहा जाएगा और न ही उससे धर्मज्ञान सम्भव है-

*यथैवाऽन्यायविज्ञाताद्* *वेदाल्लेख्यादिपूर्वकात् ।* 

*शूद्रेणाधिगताद् वाऽपि धर्मज्ञानं न सम्मतम् ॥*

(कुमारिलभट्ट, तन्त्रवार्तिक १.३.६)

अन्याय से अध्ययन किए हुए (अधिकार,विधि के अभाव में), लिखितपाठ से पढ़े गये (गुरु के अभाव में पुस्तक इत्यादि से पढ़े गए) एवं शूद्र से पढ़े गए वेद द्वारा धर्मज्ञान नहीं हो सकता।


द्विजपुरुषों के वेदाध्ययन के सम्बन्ध में प्रत्येक गृह्यसूत्र,धर्मसूत्र,स्मृतिशास्त्र में  (१) उपनयन का समय (२) उपनयन की ऋतु (३) उपनयन के समय मेखला आदि का परिमाण (४) दण्ड इत्यादि का परिमाण (५) सम्पूर्ण उपनयन की विधि (६) उपनयन के पश्चात ब्रह्मचर्यव्रत के नित्य नैमित्तिक कर्मों का वर्णन मिलता है। किन्तु स्त्रियों के उपनयन एवं तद्वत वेदाध्ययन का समर्थन करने वाले क्या स्त्रियों के उपनयन की विधि किसी शास्त्र से दिखा सकते हैं अथवा “स्त्रियों का उपनयन करो” ऐसा स्पष्ट आज्ञार्थक वचन ही? नहीं, क्योंकि किसी शास्त्र में ऐसा वर्णन है ही नहीं,अपितु निषेध अवश्य प्राप्त होता है। 


जय सियाराम 

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