*॥ स्त्रियों के यज्ञोपवीत के विषय में संक्षिप्त कथन॥*
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हम यह नहीं कहते कि स्त्रियों में किसी कार्य को करने की क्षमता नहीं है इस कारण ही वह कार्य स्त्रियों लिए प्रतिषिद्ध है।अपितु तद्तदकार्य को करने से सर्वप्रथम तो उनका एवं तत्पश्चात समाज का अनिष्ट होगा इस कारण ही अनेक कार्य प्रतिषिद्ध हैं। संकल्पमात्र से त्रैलोक्याकर्षण में समर्थ भगवती , सूर्यचन्द्र को भी स्तम्भित करने में सक्षम पतिव्रता स्त्रियाँ सर्वसक्षम होते हुए भी पतिसेवा ही स्वीकार करती हैं।
स्वधर्म में ही चमत्कृति है, इसका उदाहरण देखिए,स्त्रियों के लिए स्तोत्रपाठ एवं अनेक पौराणिकस्तुतियों के पाठ का विधान है यह तो सर्वस्वीकृत है ही।विगत वर्षों में अनेकों स्त्रियाँ स्तोत्र,सहस्रनामपाठादि द्वारा संसारभर में घर बैठे-बैठे ही ख्याति प्राप्त कर चुकी हैं। लयबद्ध स्तोत्रपाठों में तो वे पुरुषों को भी पीछे छोड़ दें। इसके विपरीत देखिए १५० वर्षों में समय काटने के लिए जितनी स्त्रियाँ भी वेदाध्ययन के नाम पर पथभ्रष्ट हुई हैं , उनमे से आज तक एक ऐसी स्त्री नहीं दिखी जो किसी परम्परागत गुरुकुल के बटुक के समक्ष ठीक ढंग से एक भी मन्त्र सुना दे। आपने एक भी स्त्री का नाम सुना अथवा दर्शन किया जिसके विषय में हम कह सकें कि यह चारों वेद की संहिताओं का पाठ करने में सक्षम है? चार वेद छोड़िये सबसे अधिक प्रचलित “शुक्लयजुर्वेद की घनपाठी है” घनपाठी भी नहीं “सस्वर सम्पूर्ण संहितापाठी है” ऐसा भी कोई दिखने में भी नहीं आया। अतः स्वधर्म ही श्रेयस्कर है,परधर्म के प्रति आकर्षण व्यक्ति को हीनभावना से ग्रस्त कर लौकिक एवं परलौकिक उन्नति को बाधित कर देता है।
*“लोकसंग्रहणार्थं हि तद् अमन्त्राः स्त्रियो मताः ॥* (बौधायनधर्मसूत्र १.५.११.७)” स्त्रियों का मन्त्रों से कोई सम्बन्ध नहीं है ऐसा स्पष्ट कहा गया है। आगे यह सिद्ध करेंगे कि यह मूलत: श्रुतिवचन है। व्यासस्मृति में भगवानव्यास ने स्त्रियों के कर्णवेधान्त ९ संस्कार अमन्त्रक माने हैं एवं विवाह मन्त्रों सहित माना है। यदि स्त्रियों का उपनयन संस्कार स्वीकृत होता तो ११ संस्कार वर्णित होने थे १० नहीं-
*नवैताः कर्णवेधान्ता मन्त्रवर्ज्जं क्रियाः स्त्रियाः ।*
*विवाहो मन्त्रतस्तस्याः शूद्रस्यामन्त्रतो दश ॥* (व्यासस्मृति १.१६)
वेदमन्त्रों से स्त्रियों का उपनयन एवं एवं वेदाध्ययनसिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि मन्त्र तो कर्म का स्मरण मात्र कराते हैं ,कर्म का विधान नहीं करते तद्विपरीत श्रुतियों में निषेध अवश्य प्राप्त होता है। अथर्ववेदीय नृसिंहतापनीयोपनिषद की श्रुति तो आपको ज्ञात है ही साथ में महाभारत में भी वर्णन है-
*न च स्त्रीणां क्रियाः काश्चिदिति धर्मो व्यवस्थितः।*
*निरिन्द्रिया “ह्यशास्त्राश्च स्त्रियोऽनृतमिति श्रुतिः”।।* (महाभारत १३.७५.१३)
स्त्रियों का शास्त्राध्ययन से सम्बन्ध नहीं है ऐसी श्रुति है। अतः किसी लुप्तवेदशाखा का यह वचन है। वेदमूलक मनुस्मृति में भी यह वचन किंचित पाठभेद के साथ प्राप्त है।
*निरिन्द्रिया ह्यमन्त्राश्च स्त्रीभ्यो अनृतमिति स्थितिः ॥*(मनुस्मृति ९.१८)
यहाँ पर मेधातिथि के अनुसार मन्त्र का अर्थ वेद है।
स्त्रियों का उपनयन कर उन्हें गुरुकुल में पढ़ाने वालों का सारा प्रलाप मात्र दो मुख्य प्रमाणों पर टिका है, प्रथम तो है हारीत का वचन
*(१) द्विविधाः स्त्रियः ब्रह्मवादिन्यः सद्योवध्वश्च। तत्र ब्रह्मवादिनीनामग्नीन्धनं वेदाध्ययनं स्वगृहे भिक्षाचर्येति। सद्योवधूनां तूपस्थिते कथञ्चिदुपनयनमात्रं कृत्वा विवाहः कार्यः।* एवं दूसरा यमस्मृति का वचन
*“पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते । अध्यापनञ्च वेदानां सावित्रीवाचनं तथा ॥ “*
(१) इसपर विचारणीय यह है कि हारीतस्मृति में यह वचन प्राप्त होने की संभावना नहीं है क्योंकि वह पद्यात्मक है एवं हारीतधर्मसूत्र तो अनुपलब्ध है। यमस्मृति में भी ऐसा वचन उपलब्ध नहीं है। पाराशरमाधव,वीरमित्रोदय इत्यादि में यह वचन उद्धृत मिलता है वह भी पूर्वपक्ष रूप से। अतः किसी लुप्त स्मृतिवचन के आधार पर शिष्टाचार का लोप नहीं किया जा सकता। यदि इन दोनों स्मृतिवचनों का यथावत अर्थ स्वीकार भी कर लें तब भी मनु,व्यास,मार्कण्डेय,बौधायन,आपस्तम्ब इत्यादि ने तो स्त्रियों के वेदाध्ययन का निषेध किया ही है। अतः गोभिलस्मृति के वचन
*“विरोधो यत्र वाक्यानां प्रामाण्यं तत्र भूयसाम्।*
(गोभिलस्मृति २८.१७)” जहां वाक्यों में विरोध हो वहाँ अधिक संख्या वाले वाक्यों का प्रामाण्य मानना चाहिए के अनुसार अधिक संख्या में निषेध वाले वाक्यों का ही प्रामाण्य होगा।
(२) यमस्मृति का वचन दिखाकर स्त्रियों को गुरुकुल में भेजने वाले क्यों यमस्मृति का शेषभाग नहीं दिखाते ? जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि
*“पिता पितृव्यो भ्राता वा नैनामध्यापयेत् परः ।*
*स्वगृहे चैव कन्याया भैक्ष्यचर्या विधीयते॥“*
अर्थात पिता,चाचा अथवा भाई ही उन्हें घर पर वेद पढ़ाएँ अन्य कोई भी नहीं। क्या गुरुकुलों में सभी स्त्रियों के पिताजी एवं चाचा भरे पड़े हैं? अत: गुरुकुलों में तो स्त्रियों के वेदाध्ययन की व्यवस्था उक्त वचनों से भी सिद्ध नहीं हो सकेगी। साथ ही कल्पारम्भ का विषय यह है, वर्तमान में यह करना है इस विषय में क्या प्रमाण है? कल्पारम्भ में विवाह इत्यादि की भी व्यवस्था नहीं थी ऐसा महाभारत में लिखा है। अत: कल्पारम्भ के नियमों का अनुकरण नहीं किया जा सकता। मौञ्जीबन्धनमिष्यते में “इष्यते” पद में इषँ इच्छायाम् धातु से इच्छा करना अर्थ सिद्ध होता है। अतः संस्कार इच्छा के अधीन होगा? क्या किसी की इच्छा ही उपनयन में कारण मानी जा सकती है? संस्कार वे होते हैं जो अवश्य करणीय हों,इच्छा पर संस्कार निर्भर नहीं करते । इच्छा से ही उपनयनादि संस्कारों को स्वीकार करने लगें तो पुरुषों का संस्कार उनकी इच्छा से ही होने लगेगा। यदि ऐसा मान लेंगे तो समय पर जिनका उपनयन नहीं होता उनमें शास्त्र जो व्रात्यदोष का विधान करता है,वह व्रात्यदोष भी सम्भव नहीं होगा । किन्तु दोष लगता है, अतः इच्छा के अधीन उपनयन नहीं हो सकता। ऐसा समाधान यम एवं हारीतवचन का धर्मादर्श में दिया गया है।
(३) सद्योवधुओं का वेदाध्ययन हारीत ने नहीं कहा उनका विवाह (उपनयन) ही कहा है। ब्रह्मवादिनियों का उपनयन,वेदाध्ययन इत्यादि कहा है। जो वेदमन्त्र की द्रष्टा ऋषिकाएँ हों वे ब्रह्मवादिनी हैं,कल्पारम्भ में वे उत्पन्न होती हैं एवं ऋषियोनि ,मनुष्ययोनि से भिन्न भी होती हैं। अतः इस प्रकार से यमवचन की संगति भी लग जाती है। ब्रह्मवादिनियों की संख्या नियत है ,आजकल की स्त्री को उपनयन से पूर्व ही ब्रह्मवादिनी (वेद कहने वाली) कैसे कहा जा सकता है? जो उनका उपनयन करवाया जाए।
*घोषा गोधा विश्ववारा अपालोपनिषन्निषत् |*
*ब्रह्मजाया जुहूर्नाम अगस्त्यस्य स्वसादितिः ॥*
*इन्द्राणी चेन्द्रमाता च सरमा रोमशोर्वशी |*
*लोपामुद्रा च नद्यश्च यमी नारी च शश्वती |*
*श्रीर्लाक्षा सार्पराज्ञी वाक श्रद्धा मेधा च दक्षिणा |*
*रात्री सूर्या च सावित्री ब्रह्मवादिन्यः ईरिताः॥*(बृहद्देवता २.८२-८४)
देखिए अदिति,इन्द्राणी,उर्वशी,वाक्,यमी इत्यादि देवयोनि, सरमा,सर्पराज्ञीकद्रू इत्यादि श्वान एवं सर्पयोनि, घोषा,लोपमुद्रा,अपाला इत्यादि ऋषियोनि ही ब्रह्मवादिनियों में है। कोई मनुष्यस्त्री वहाँ है? नहीं। अत: उक्त हारीतवचन भी स्त्रियों के उपनयन की पुष्टि नहीं कर सकता। उपरोक्त श्लोक में ही ब्रह्मवादिनियों का परिगणन हो गया है। इसके अतिरिक्त कोई ब्रह्मवादिनी वर्तमान में सम्भव नहीं है जो मन्त्रद्रष्टा हो। स्त्रीउपनयन के समर्थन में एक दो लुप्तस्मृतिवाक्य जो पूर्वपक्ष से उद्धृत हैं वे अथवा स्त्रियों के वेदाध्ययन,होम इत्यादि का निषेध करने वाले अनेक उपलब्ध वाक्य? इनमें से कौन अधिक प्रामाण्य वाला होगा यह विचार करने योग्य है।
मीमांसादर्शन में स्त्रियों के विषय में स्पष्ट किया गया है
*तस्या यावद् उक्तम् आशीर् ब्रह्मचर्यम् अतुल्यत्वात् ।।* (मीमांसा ६.१.२४)
इसपर शबरस्वामी का कथन है-
*अतुल्या हि स्त्रीपुंसाः, यजमानः पुमान् विद्वांश्च, “पत्नी स्त्री च अविद्या च”*
(६.१.२४ शबरभाष्य)
*अथ वा याजमानमिति तद्धितः स्त्रीप्रातिपदकाद्वोत्पाद्यः पुंप्रातिपदिकाद्वा ?*
*“तत्र स्त्रीप्रातिपदिकादुत्पत्तौ समन्त्रेषु विरोधः० ।*
*न तु पुंप्रातिपदिकादुत्पत्तौ कश्चिद्विरोधः।* (६.१.२४ कुमारिलभट्टकृत टुप्टीका)
अस्तु अन्त में यही कहना है कि स्त्रियों का वेदाध्ययन के नाम पर समयकाटने का कार्य मात्र आर्य समाज,गायत्रीपरिवार के गुरुकुलों में ही होता है। वहाँ सभी अब्राह्मण हैं, कोई भी परम्परा से सस्वर वेदाध्ययन किया हुआ ब्राह्मण वहाँ नहीं दिखता। यदि मान भी लें कि कोई शुद्धब्राह्मण जो वैदिकगुरुकुलों में अध्ययन किया हो, वह इन गुरुकुलों में अपना जन्म व्यर्थ कर स्त्रियों को वेदाध्ययन करवा रहा है तब भी वह अध्ययन न तो वेदाध्ययन कहा जाएगा और न ही उससे धर्मज्ञान सम्भव है-
*यथैवाऽन्यायविज्ञाताद्* *वेदाल्लेख्यादिपूर्वकात् ।*
*शूद्रेणाधिगताद् वाऽपि धर्मज्ञानं न सम्मतम् ॥*
(कुमारिलभट्ट, तन्त्रवार्तिक १.३.६)
अन्याय से अध्ययन किए हुए (अधिकार,विधि के अभाव में), लिखितपाठ से पढ़े गये (गुरु के अभाव में पुस्तक इत्यादि से पढ़े गए) एवं शूद्र से पढ़े गए वेद द्वारा धर्मज्ञान नहीं हो सकता।
द्विजपुरुषों के वेदाध्ययन के सम्बन्ध में प्रत्येक गृह्यसूत्र,धर्मसूत्र,स्मृतिशास्त्र में (१) उपनयन का समय (२) उपनयन की ऋतु (३) उपनयन के समय मेखला आदि का परिमाण (४) दण्ड इत्यादि का परिमाण (५) सम्पूर्ण उपनयन की विधि (६) उपनयन के पश्चात ब्रह्मचर्यव्रत के नित्य नैमित्तिक कर्मों का वर्णन मिलता है। किन्तु स्त्रियों के उपनयन एवं तद्वत वेदाध्ययन का समर्थन करने वाले क्या स्त्रियों के उपनयन की विधि किसी शास्त्र से दिखा सकते हैं अथवा “स्त्रियों का उपनयन करो” ऐसा स्पष्ट आज्ञार्थक वचन ही? नहीं, क्योंकि किसी शास्त्र में ऐसा वर्णन है ही नहीं,अपितु निषेध अवश्य प्राप्त होता है।
जय सियाराम
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