शनिवार, 30 नवंबर 2024

मल-मूत्र त्याग के बाद शौच का महत्व

 *मलमूत्रशुक्रत्याग के बाद शास्त्र ने जल और मिट्टी से गुह्याङ्ग और हाथ-पैर की शुद्धि निश्चित्त की हैं उसमें पवित्रता होना ही मुख्यत्वे प्रयोजन हैं।*



 ऐसी शुद्धि साबुन शेम्पू सेनेटाईझर आदि से नहीं होती उपर से केमीकल अण्डे की जर्दी , प्राणियो की चरबी आदि से बने साबून-शेम्पू से तो अपवित्रता ही रहती हैं । 


हे आधुनिको ! ऐसी कोई वैज्ञानिकता नहीं हैं कि साबुनशेम्पू से शौचाचार करनेपर  शास्त्रीय अधिकारीत्व प्राप्त होता हो !


चरबी , वीर्य(रज), रक्त , मज्जा , मूत्र , विष्ठा , नासिकामल , कर्णमल , कफ , आँसु , आँखो के चीपडे़  और प्रस्वेद -- यह बारह मनुष्य के मल हैं  मनुस्मृति ५/१३५ , इसमें से प्रथम छह की शुद्धि जल और मिट्टी के संयोग से ही होती हैं ,दूसरे छहों की केवल जल से  वैसे भी शुद्ध्याशुद्धि विषय शास्त्र का हैं  "प्योर अथवा क्लिन " जैसा कोई शब्द हमारे शास्त्र में नहीं हैं । क्लिन का अर्थ होता हैं साफ करना साबुनशेम्पू  से सफाई करने पर धूला केमिकल युक्त जहरीला पानी  सुक्ष्मजीवों का नाशक हैं जबकि हमारे धर्मशास्त्र में मच्छर तक  जीवो पर हिंसाभाव नहीं हैं। 


मिट्टी में रहे अपराध नाशक गुण ->  


हे वसुन्धरे !  तुम्हारे उपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामनावतार में  भगवान विष्णुने भी तुम्हें अपने पैरों से नापा था  मृत्तिके मेरे किये हुए पूर्वसञ्चित पापो को हरे  इत्यादि ...


*"अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते  विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे। उद्धृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना।। मृत्तिके हर मे पापं यन्मया पूर्वसञ्चितम् ।।*

~~~~~= ⚛️अग्नि पुराण⚛️=~~~


कैसी मिट्टी चाहिये , कितनी , किसे  कहाँ कितनी बार मिट्टी लगाकर शौच करना आवश्यक हैं यह सब शास्त्र आज्ञा करते हैं और अक्कल के आधुनिक दुश्मनो ! आपके बहकावे में , आपके कहावें में हम क्यों आवे क्योंकि हम "मानव्यो हि प्रजाः " मनु की ही तो प्रजा हैं , दानव्यप्रजा नहीं हैं कि किसी के कहावे में आकर  अमेध्यपदार्थ को शरीरपर घीसडचूपड करा करे  ।


अकेला शौचाचार नहीं अपितु कौनसे द्रव्य , वस्त्र , पात्र, पदार्थ  की  शुद्धि कैसे की जाती हैं वह भी  स्मृतियों में उक्त हैं । मनुस्मृति अध्याय ५  / १०५ से  १४५  अवलोकनीय हैं।


विशेष - जो ब्राह्मण मल- मूत्रत्याग, शुक्रमोचनोपरांत अपने गृह्यसूत्रादि शास्त्रप्रोक्त संख्यानुसार जल और मिट्टी से शौचाचार नहीं करते उस विप्र को चाहे वेदविद् भी क्यों न हो उसे किसी भी प्रकार का काम्यदान न दिया जाय , शौचाचारशून्य, ब्रह्मचर्यादि व्रतभ्रष्ट वेदविहीन विप्र को अन्नदान करनेपर , स्वयं अन्नदेवता रुदनपूर्वक विचार करते हैं कि मैरे ऐसे कौनसे पाप हैं कि मैं इनके भाण्ड में आ गया । शौचाचारहीन , ब्रह्मसूत्रविहीन  विप्र के द्वारा किया हुआ होमहवन ,दान और तप आदि नष्ट हो जाते हैं --->

*नष्टशौचे व्रतभ्रष्टे विप्रे वेदविवर्जिते।* 

*रोदित्यन्नं दीयमानं किं मया दुष्कृतं कृतम्।। शौचहीनाश्च ये विप्रा न च यज्ञोपवीतिनः।*

*हुतं दत्तं तपस्तेषां नश्यत्यत्र न संशयः।।* 

~~~~= दानसागरे व्यासः=~~~


मृत्तिका के बिना शौच करनेवाला विप्र  सातदिन में बिना प्रायश्चित्त किये शूद्र के समान वेदादिकर्मो में अनधिकारी हो जाता हैं - >

*चतुर्वर्ग चिंतामणि प्रायश्चित्त खण्डे -- मृत्तिकाभिर्विना शौचं स्नानमुष्णोदकेन वै। कूपोदकेन सप्ताहं कृत्वा विप्रः स शूद्रवान्।।* ~~~~~~~~~~⚛️गौतम⚛️~~~~~~~~

*उष्णोदकेन सप्ताहं तथा कूपोदकेन च । मृत्तिकाभिर्विना शौचं तथा कूपोदकेन च। कृत्वा शौचादिकं विप्रः शूद्र एव न संशयः।।* ~~~~~~~~~⚛️जाबालिः⚛️~~~~~~~


अनधिकारी हुए इसलिये तो कहा हैं कि - शौचाचार में सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि त्रैवर्णिकद्विजो के द्विजत्व संरक्षण का मूल शौचाचार ही हैं। शौचाचार का पालन न करनेपर सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं -


*शौचे यत्नः सदा कार्यः*

        *शौचमूलो द्विजः स्मृतः।*

*शौचाचारविहीनस्य* 

       *समस्ता निष्फलाः क्रियाः।।* 

~~~~~~⚛️वाधूल स्मृति ⚛️~~~~~


और शौचादि के आचार आदि विप्रो को अपनी अपनी वेदशाखा के गृह्यसूत्र से ही मान्य हैं अन्यथा अनाचारी होते ही वेद भी पावन नहीं कर सकते ->


*कर्ममात्रं_स्वसूत्रशास्त्राद्*

            *आचारादि_प्रचोदितम्।।((लौगाक्षीस्मृतौ।।)) तथा च*


*स्वकल्पोक्तं परित्यज्य*    

             *योऽन्यकल्पोक्तमाचरेत्।*

*स्वाचारहीनोऽनाचारस्तं -*

              *- -- वेदा न पुनंति हि।।* 

[स्वकल्पोक्तं यथा गृह्यसूत्राद्युक्तम्]

=====~ मन्त्रभ्रान्तिहर सूत्र~======


आचरण का परित्याग करने से ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व विनाशोन्मुख हो जाता हैं - >


*अनभ्यासेन वेदानां आचारस्य च वर्जनात्।*

*आलस्यादन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्राञ्जिघांसति।।*

=====⚛️((( मनुः ५/४।।))⚛️=====

मंगलवार, 26 नवंबर 2024

चंद्रायण व्रत

 *चंद्रायण व्रत*

💐💐💐💐💐💐💐💐



चान्द्रायण व्रत के विधि विधान अनेक ग्रन्थों में मिलते हैं। विभिन्न शारीरिक और मानसिक स्थिति के व्यक्तियों लिए—विभिन्न पापों के प्रायश्चितों के लिए— आत्म-बल को विभिन्न दिशाओं में बढ़ाने के लिए शास्त्रकारों ने अनेक विधानों के चान्द्रायण व्रतों का उल्लेख किया है। देश-काल-पात्र के भेद से भी इस प्रकार के अन्तर बताये गये हैं। किसी युग में लोगों की शारीरिक स्थिति बहुत अच्छी होती थी, वे देर तक कठोर उपवास एवं तप साधन कर सकते थे। इसलिए उन परिस्थितियों को देखते हुए उस प्रकार के कठोर विधानों का बनाया जाना स्वाभाविक भी था। प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार कृच्छ और मृदु भेद से दो प्रकार के चान्द्रायण व्रत माने गये हैं। कृच्छ चान्द्रायण व्रत का विधान उन लोगों के लिए है जिनसे कोई बड़े पाप बन पड़े हैं, अथवा तीव्र तपश्चर्या कर सकने की सामर्थ्य जिनमें है। बहुत कर इनका उपयोग सतयुग आदि पूर्व युगों में होता था जब मनुष्य की सहन-शक्ति पर्याप्त थी।


मृदु चान्द्रायण-शारीरिक और मानसिक दुर्बलता वाले व्यक्ति यों के लिए है। इसे स्त्री-पुरुष, बाल, वृद्ध सभी कर सकते हैं। छोटे पापों के शमन और थोड़ा आत्म-बल बढ़ाने में भी इस व्रत से बहुत सहायता मिलती है। आरोग्य की दृष्टि से यह एक प्रभावशाली चिकित्सा का काम देता है। विशेषतया उदर रोगों के लिए यह चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करता है। मृदु चान्द्रायण को कई ग्रन्थों में शिशु चान्द्रायण भी कहा गया है क्योंकि वह कठोर चान्द्रायण की तुलना में बालक ही है।


स्कन्द पुराण में चान्द्रायण व्रत की चर्चा के संदर्भ में युधिष्ठिर और कृष्ण का संवाद मिलता है। युधिष्ठिर पूछते हैं :—


*चक्रायुध नमस्तेऽस्तु देवेश गरु णध्वज।*


*चान्द्रारण विधिं पुण्यमाख्याहि भगवन मम॥*


अर्थात्—”चक्रायुध और गरुणध्वज धारण करने वाले भगवान कृष्ण को नमस्कार करके युधिष्ठिर ने पवित्र चान्द्रायण व्रत का वर्णन करने की प्रार्थना की।”


भगवान ने इस महाव्रत का महात्म्य बताते हुए कहा—


*चान्द्रायणेन चीर्णेन यत् कृतं तेन दुष्कृतम्।*


*तत् सर्व तत्क्षणादेव भस्मी भवति काष्ठवत्॥*


अर्थात्—”चान्द्रायण व्रत करने से मनुष्य के किये हुए पाप उसी प्रकार दूर हो जाते हैं जैसे जलती हुई अग्नि में काष्ठ जल जाता है।”


*अनेक घोर पापानि उपपातक मेवच।*


*चान्द्रायर्णन नश्यन्ति वायुना पाँसवो यथा॥*


अर्थात् “अनेकों घोर पाप तथा सामान्य पाप चान्द्रायण व्रत से उसी प्रकार उड़ जाते हैं जैसे आँधी चलने पर धुलि के कण।”


कृच्छ चान्द्रायण के विधान-भाग का कुछ अंश इस प्रकार है :—


*शोधयेत् तु शरीरं स्वं पंचगव्येन मन्त्रितः।*


*स शिरः कृष्ण पक्षस्य तत् प्रकुर्वीत वापनम्।*


*शुक्ल वासाः शुचिर्भूखा मौञ्जों वन्धीत मेखलाम्*


*पलाश दण्डमादाय ब्रह्मचर्य व्रते स्थितः।*


*कृ तोपवासः पूर्व तु शुक्ल प्रतिपादे द्विजः।*


नदी संगम तीर्थेषु शुचौ देशे गृहेऽपिवा।


अर्थात्—”शरीर को (दश स्नान-विधान से) शुद्ध करें। अभिमन्त्रित करके पंचगव्य पीवे। सिर को मुँड़ाकर कृष्ण पक्ष में व्रत आरम्भ करे। श्वेत वस्त्र पहने, पवित्र रहे, कटि प्रवेश में मेखला (लँगोट) धारण किये रहें। पलास की लाठी लिये रहे और ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे। नदी के संगम, तीर्थ एवं पुष्प प्रदेशों में अथवा घर में रहकर भी शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा में चान्द्रायण व्रत आरम्भ करें।


*नदीं गत्वा विशुद्धात्मा सोमाय वरु णाय च।*


*आदित्याय नमस्कृत्वा ततः स्नायात् समाहितः।*


*उतीर्योदक माचम्य च स्थित्वा पूर्वतो मुखः।*


*प्राणायामं ततः कृत्वा पवित्रेरभिसेचनम्।*


*वीरघ्न मृषभं वापि तथा चाप्यधमर्वषम्।*


गायत्री मम देवीं या सावित्रीं वा जपेत् ततः।


अर्थात्—”शुद्ध मन से नदी में स्नान करे। सोम, वरुण और सूर्य को नमस्कार करें। पूर्व को मुख करके बैठे। आचमन, प्राणायाम, पवित्री कारण, अभिसिंचन, अधमर्षण आदि संध्या-कृत्यों को करता हुआ सावित्री-गायत्री का जप करें।”


*आधारा वाज्य भागो च प्रणवं व्याहतिस्तथा।*


*वारु णं चैव पञ्चैव हुत्वा सर्वान् यथा क्रमम्।*


*प्रणम्य धाग्निं सोमं च भस्य धृत्वा यथा विधि।*


“आधार होम, आज्य भाग, प्रणव, व्याहृति, वरुण आदि का विधिपूर्वक हवन करें और अग्नि तथा सोम को प्रणाम करके मस्तक पर भस्म धारण करें।”


*अंगुल्थग्रे स्थितं पिण्डं गायञ्याचाभिमन्त्रयेत्।*


*अंगुलीभिस्त्रिभि पिण्डं प्राश्नीयात् प्रां शुचिः।*


*यथा च वर्धते सोमो ह्रसते च यथा पुनः।*


तथा पिण्डाश्च वर्धन्ते ह्रसन्ते च दिने दिने।


अर्थात्—”तीन अँगुलियों पर आ सके इतना अन्न का पिण्ड गायत्री से अभिमन्त्रित करके पूर्व की ओर मुख करके खाये। जिस प्रकार कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा घटता है उसी प्रकार भोजन घटाये और शुक्ल पक्ष में जैसे चन्द्रमा बढ़ता है वैसे-वैसे बढ़ावे।


कृच्छ चान्द्रायण के चार भेद माने गये हैं। (1) पिपीलिका मध्य चान्द्रायण। (2) यव मध्य चान्द्रायण। (3) यति चान्द्रायण। (4) शिशु चान्द्रायण। इन चारों में ही 240 ग्रास भोजन एक महीने में करना पड़ता है। पिपीलिका मध्य चान्द्रायण वह है जिसमें पूर्णमासी का 15 ग्रास खाकर क्रमशः एक-एक ग्रास घटाते हैं और अमावस्या व प्रतिपदा को निराहार रहकर दोज से एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए पूर्णिमा को पुनः 15 ग्रासों पर जा पहुँचते हैं।


यव मध्य चान्द्रायण शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होता है। अमावस्या के दिन उपवास करके शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को एक ग्रास लेवे इसके पश्चात् पूर्णिमा तक एक-एक ग्रास बढ़ाता हुआ 15 ग्रास तक पहुँचे। इसके बाद कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से एक-एक ग्रास घटाते हुए अमावस्या को निराहार की स्थिति तक जा पहुँचे।


यति चान्द्रायण में मध्याह्न को प्रतिदिन आठ-आठ ग्रास खाता रहे। न किसी दिन कम करे न अधिक।


शिशु चान्द्रायण में प्रातः 4 ग्रास और सायंकाल 4 ग्रास खाए जाते हैं और यही क्रम नित्य रहता है।


इस प्रकार इन सभी कृच्छ चान्द्रायणों में एक महीने में 240 ग्रास भोजन किया जाता है। ग्रास के दो अर्थ किये गये हैं। वीद्धायन का कथन है—


*“पिण्डान् प्रकृति स्थात प्राश्नति”*


अर्थात्—साधारणतया मनुष्य जितना बड़ा ग्रास खाता है वही ग्रास का परिमाण है। महर्षि अत्रि ने इस संदर्भ में अपना मत भिन्न व्यक्त किया है। उनने लिखा है :—


*कुम्कुटाण्ड प्रमाणं स्याद् यावद् वास्य मुख विशेत्।*


*एतं ग्रासं विजानीयुः शुद्ध्यर्थे काय शोधनम्॥*


अर्थात्—”मुर्गी के अण्डे की बराबर ग्रास माना जाय अर्थात् जितना मुँह में समा सके उसे ग्रास कहा जाय।”


शास्त्रकारों ने जहाँ अनेक विधि-विधानों का वर्णन किया है वहाँ देश, काल, पात्र की परिस्थितियों का ध्यान रखने का भी निर्देश दिया है। कृच्छ चान्द्रायण व्रत की कुछ बातें ऐसी हैं जो आज की स्थिति में सर्वसाधारण के लिए उपयुक्त नहीं। सिर का मुण्डन कराना किसी समय साधारण बात रही होगी। आज कोई व्यक्ति समाज में इस प्रकार रहे तो उस पर व्यंग-बाण छोड़े जायेंगे और मूर्ख ठहराया जायगा। सधवा महिलाओं के लिए तो यह एक प्रकार से असम्भव ही होगा। इसी प्रकार पूरे भोजन में जितने ग्रासों की सीमा नियत है उतने मात्र से गुजारा भी कठिन है। जप तथा होम, दान आदि का जो विस्तृत वर्णन है, उतना भी सबसे नहीं निभ सकता। इसलिए वर्तमान परिस्थितियों में मृदु चान्द्रायण व्रत ही सर्वसाधारण के लिए उपयोगी हो सकता है।


मृदु चान्द्रायण करते हुए भी गायत्री पुरश्चरण करने से अन्तःकरण में सात्विकता एवं आत्म-बल की असाधारण वृद्धि होती देखी गई है। इस एक महीने की अवधि में मनोभूमि में आशाजनक परिवर्तन होता है। कुविचारों और कुकर्मों की ओर से मन में घृणा उत्पन्न होती है और भविष्य में शुद्ध जीवन व्यतीत करने की भावना स्वयमेव जागृत होने लगती हैं। पिछले किये हुए पापों के प्रति आत्म-ग्लानि और प्रायश्चित की आकाँक्षा जागृत होने से मनुष्य का अन्तरात्मा अपने को धिक्कारता है और जो हानि समाज को पहुँचाई है उसे उस रूप में ज्यों की त्यों न सही किसी दूसरी प्रकार से पूर्ण करने की योजना बनाता है। शरीर से कष्ट सहकर उपवास करना, मन से आत्म-निरीक्षण करते हुए अपनी भूलों को ढूँढ़ना, हटाना और जो अशुभ अब तक बन पड़ा है उसकी क्षतिपूर्ति के लिए किन्हीं पुण्य कर्मों का आयोजन करना यही चान्द्रायण व्रत का मूल आधार है। यदि आधार स्थिर रहे तो चान्द्रायण व्रत का पूरा-पूरा लाभ साधक को मिल सकता है, भले ही आहार तथा आकार सम्बन्धी विषयों में थोड़ी ढील भी रखी जाय। वृहद् चान्द्रायण का विधान कठिन और मृदु चान्द्रायण का सुगम है। स्थिति के अनुसार ही इनमें से एक का चुनाव करना चाहिए। आज की स्थिति मृदु चान्द्रायण की ही है पर उसमें भी भावनात्मक उत्कृष्टता बनी रहे तो प्रतिफल में कोई विशेष अन्तर नहीं आता।


विशेष... विशिष्ट विषय वस्तु अपने आचार्य पुरोहित या जिन्होने इस व्रत को किया हो उन्हीं का मार्गदर्शन लें।



  नारायण

🪷🌷🪷

                        🚩 हर हर महादेव 🚩


मंगलवार, 12 नवंबर 2024

सरल हवन विधि

 सरल हवन विधि 

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मित्रो, नवरात्र के अंत मे पूर्ण सिद्धि हेतु हवन की परंपरा रही है अतः यहां पर हम सरल, संक्षिप्त हवन की विधि प्रस्तुत कर रहे हैं। इसे अपनाकर लाभ लें। 


आवश्यक सामग्री :-


1. दशांग या हवन सामग्री , दुकान पर आपको मिल जाएगा. पंचमेवा, लोंग, कालीमिर्च, गूगल, लोबान, अगर-तगर, चंदन चूरा, काले तिल, जौ, अक्षत (साबुत चावल) , बूरा/गुड़ की शक्कर, घी, पीली सरसों, 


2. घी ( अच्छा वाला लें , भले कम लें , पूजा वाला घी न लें क्योंकि वह ऐसी चीजों से बनता है जिसे आपको खाने से दुकानदार मना करता है तो ऐसी चीज आप देवी को कैसे अर्पित कर सकते हैं )


3. कपूर आग जलाने के लिए .


4. एक नारियल गोला या सूखा नारियल पूर्णाहुति के लिए ,


★ हवनकुंड हो तो बढ़िया . 


★ हवनकुंड न हो तो गोल बर्तन मे कर सकते हैं .

फर्श गरम हो जाता है इसलिए नीचे ईंट , यमुना रेती रखें उसपर पात्र रखें.   


★ लकड़ी जमा लें और उसके नीचे में कपूर रखकर जला दें. हवनकुंड की अग्नि प्रज्जवलित हो जाए तो पहले घी की आहुतियां दी जाती हैं.


★ सात बार अग्नि देवता को आहुति दें और अपने हवन की पूर्णता की प्रार्थना करें


“ ॐ अग्नये स्वाहा “........7 घृत आहुति दें।


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इन मंत्रों से शुद्ध घी की आहुति दें-


ॐ प्रजापतये स्वाहा । इदं प्रजापतये न मम् ।


ॐ इन्द्राय स्वाहा । इदं इन्द्राय न मम् ।


ॐ अग्नये स्वाहा । इदं अग्नये न मम ।


ॐ सोमाय स्वाहा । इदं सोमाय न मम ।


ॐ भूः स्वाहा ।.........एक घृत आहुति

ॐ भुवः स्वाहा ।.......एक घृत आहुति

ॐ स्व: स्वाहा ।.......एक घृत आहुति

ॐ भूर्भुवः स्व: स्वाहा ।.......एक घृत आहुति


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अब इन मंत्रों से हवन सामग्री से आहूति दें


ऊं गं गणपतये नमः स्वाहा, ...... 3 आहुति दें। 


ऊं भ्रं अष्टभैरवाय नम: स्वाहा,......3 आहुति दें। 


ऊं गुं गुरुभ्यो नम: स्वाहा,......3 आहुति दें। 


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उसके बाद हवन सामग्री से हवन करें .


नवग्रह मंत्र :-


ऊँ घृणि सूर्याय नमः स्वाहा


ऊँ सों सोमाय नमः स्वाहा


ऊं अं अंगारकाय नमः स्वाहा


ऊँ बुं बुधाय नमः स्वाहा


ऊँ बृं बृहस्पतये नमः स्वाहा


ऊँ शुं शुक्राय नमः स्वाहा


ऊँ शं शनये नमः स्वाहा


ऊँ रां राहवे नमः स्वाहा


ऊँ कें केतवे नमः स्वाहा


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गायत्री मंत्र :-


ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् स्वाहा....3 आहुति दें।


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ऊं कुल देवताभ्यो नम: स्वाहा,......3 आहुति दें। 


ऊं स्थान देवताभ्यो नम: स्वाहा,......3 आहुति दें। 


ऊं वास्तु देवताभ्यो नम: स्वाहा,......3 आहुति दें। 


ऊं ग्राम देवताभ्यो नम: स्वाहा,......3 आहुति दें। 


ॐ सर्वेभ्यो गुरुभ्यो नमः स्वाहा ,......3 आहुति दें। 


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   ★ नीचे लिखे मंत्रों से भी 3-3आहुति दें। 


ऊं सरस्वती सहित ब्रह्माय नम: स्वाहा। 


ऊं लक्ष्मी सहित विष्णुवे नम: स्वाहा,


ऊं शक्ति सहित शिवाय नम: स्वाहा


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माता के नर्वाण मंत्र से 108 बार आहुतियां दे


ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै स्वाहा....... 108 आहुति ।


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हवन के बाद नारियल के गोले में कलावा बांध लें. चाकू से उसके ऊपर के भाग को काट लें. उसके मुंह में घी, हवन सामग्री, (ऐच्छीक पंचमेवा, जायफल, बूरा) आदि डाल दें.


पूर्ण आहुति मंत्र पढ़ते हुए उसे हवनकुंड की अग्नि में रख दें.


पूर्णाहुति मंत्र-


ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।


इसका अर्थ है :-


वह पराशक्ति या महामाया पूर्ण है , उसके द्वारा उत्पन्न यह जगत भी पूर्ण हूँ , उस पूर्ण स्वरूप से पूर्ण निकालने पर भी वह पूर्ण ही रहता है ।


वही पूर्णता मुझे भी प्राप्त हो और मेरे कार्य , अभीष्ट मे पूर्णता मिले ....  


इस मंत्र को कहते हुए पूर्ण आहुति देनी चाहिए.


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★ उसके बाद यथाशक्ति दक्षिणा माता के पास रख दें,


★ फिर आरती करें.


★ अंत मे क्षमा प्रार्थना करें.


★ माताजी को समर्पित दक्षिण किसी गरीब महिला या कन्या को दान मे दें ।


★★★ हवन के अंत मे हाथ न तो झटके और न झाड़े, साफ सूखे कपड़े से आराम से पोंछ लें। उस कपड़े को भी न झाड़े वरना सारा हवन कर्म व्यर्थ हो जाएगा। 


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शनिवार, 9 नवंबर 2024

मनुष्य को किस किस अवस्थाओं में भगवान विष्णु को किस किस नाम से स्मरण करना चाहिए।?

 मनुष्य को किस किस अवस्थाओं में भगवान विष्णु को किस किस नाम से स्मरण करना चाहिए।

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भगवान विष्णु के 16 नामों का एक छोटा श्लोक प्रस्तुत है।



औषधे चिंतयते विष्णुं, भोजन च जनार्दनम।

शयने पद्मनाभं च विवाहे च प्रजापतिं ॥

युद्धे चक्रधरं देवं प्रवासे च त्रिविक्रमं।

नारायणं तनु त्यागे श्रीधरं प्रिय संगमे ॥

दुःस्वप्ने स्मर गोविन्दं संकटे मधुसूदनम् ।

कानने नारसिंहं च पावके जलशायिनाम ॥

जल मध्ये वराहं च पर्वते रघुनन्दनम् ।

गमने वामनं चैव सर्व कार्येषु माधवम् ॥

षोडश एतानि नामानि प्रातरुत्थाय य: पठेत । 

सर्व पाप विनिर्मुक्ते, विष्णुलोके महियते ॥


(1) औषधि लेते समय विष्णु

(2) भोजन के समय - जनार्दन

(3) शयन करते समय - पद्मनाभ  

(4) विवाह के समय - प्रजापति

(5) युद्ध के समय चक्रधर

(6) यात्रा के समय त्रिविक्रम

(7) शरीर त्यागते समय - नारायण

(8) पत्नी के साथ - श्रीधर

(9) नींद में बुरे स्वप्न आते समय - गोविंद 

(10) संकट के समय - मधुसूदन 

(11) जंगल में संकट के समय - नृसिंह

(12) अग्नि के संकट के समय जलाशयी 

(13) जल में संकट के समय - वाराह

(14) पहाड़ पर संकट के समय - रघुनंदन

(15) गमन करते समय वामन

(16) अन्य सभी शेष कार्य करते समय - माधव


ॐ विष्णवै नमः

शुक्रवार, 8 नवंबर 2024

पंचमुखी क्यों हुए हनुमानजी

 *!!~"पंचमुखी क्यों हुए हनुमानजी,?"~!!*

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लंका में महा बलशाली मेघनाद के साथ बड़ा ही भीषण युद्ध चला, अंतत: मेघनाद मारा गया। रावण जो अब तक मद में चूर था राम सेना, खास तौर पर लक्ष्मण का पराक्रम सुनकर थोड़ा तनाव में आया। रावण को कुछ दुःखी देखकर रावण की मां कैकसी ने उसके पाताल में बसे दो भाइयों अहिरावण और महिरावण की याद दिलाई, रावण को याद आया कि यह दोनों तो उसके बचपन के मित्र रहे हैं।लंका का राजा बनने के बाद उनकी सुध ही नहीं रही थी। रावण यह भली प्रकार जानता था कि अहिरावण व महिरावण तंत्र-मंत्र के महा पंडित, जादू टोने के धनी और मां कामाक्षी के परम भक्त हैं। रावण ने उन्हें बुलावा भेजा और कहा कि वह अपने छल-बल-कौशल से श्री राम व लक्ष्मण का सफाया कर दे। यह बात दूतों के जरिए विभीषण को पता लग गयी। युद्ध में अहिरावण व महिरावण जैसे परम मायावी के शामिल होने से विभीषण चिंता में पड़ गए।विभीषण को लगा कि भगवान श्री राम और लक्ष्मण की सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी करनी पड़ेगी। इसके लिए उन्हें सबसे बेहतर लगा कि इसका जिम्मा परम वीर हनुमान जी को राम-लक्ष्मण को सौंप कर दिया जाए। साथ ही वे अपने भी निगरानी में लगे थे। राम-लक्ष्मण की कुटिया लंका में सुवेल पर्वत पर बनी थी। हनुमान जी ने भगवान श्री राम की कुटिया के चारों ओर एक सुरक्षा घेरा खींच दिया। कोई जादू टोना तंत्र-मंत्र का असर या मायावी राक्षस इसके भीतर नहीं घुस सकता था।अहिरावण और महिरावण श्री राम और लक्ष्मण को मारने उनकी कुटिया तक पहुंचे, पर इस सुरक्षा घेरे के आगे उनकी एक न चली, असफल रहे। ऐसे में उन्होंने एक चाल चली, महिरावण विभीषण का रूप धर के कुटिया में घुस गया। राम व लक्ष्मण पत्थर की सपाट शिलाओं पर गहरी नींद सो रहे थे। दोनों राक्षसों ने बिना आहट के शिला समेत दोनो भाइयों को उठा लिया और अपने निवास पाताल की ओर लेकर चल दिए। विभीषण लगातार सतर्क थे, उन्हें कुछ देर में ही पता चल गया कि कोई अनहोनी घट चुकी है। विभीषण को महिरावण पर शक था, उन्हें राम-लक्ष्मण की जान की चिंता सताने लगी।विभीषण ने हनुमान जी को महिरावण के बारे में बताते हुए कहा कि वे उसका पीछा करें। लंका में अपने रूप में घूमना राम भक्त हनुमान के लिए ठीक न था, सो उन्होंने पक्षी का रूप धारण कर लिया और पक्षी का रूप में ही निकुंभला नगर पहुंच गये। निकुंभला नगरी में पक्षी रूप धरे हनुमान जी ने कबूतर और कबूतरी को आपस में बतियाते सुना। कबूतर, कबूतरी से कह रहा था कि अब रावण की जीत पक्की है। अहिरावण व महिरावण राम-लक्ष्मण को बलि चढा देंगे, बस सारा युद्ध समाप्त।कबूतर की बातों से ही बजरंगबली को पता चला कि दोनों राक्षस राम लक्ष्मण को सोते में ही उठाकर कामाक्षी देवी को बलि चढाने पाताल लोक ले गये हैं। हनुमान जी वायु वेग से रसातल की और बढ़े और तुरंत वहां पहुंचे। हनुमान जी को रसातल के प्रवेश द्वार पर एक अद्भुत पहरेदार मिला। इसका आधा शरीर वानर का और आधा मछली का था, उसने हनुमान जी को पाताल में प्रवेश से रोक दिया। द्वारपाल हनुमान जी से बोला कि मुझ को परास्त किए बिना तुम्हारा भीतर जाना असंभव है। दोनों में लड़ाई ठन गयी। हनुमान जी की आशा के विपरीत यह बड़ा ही बलशाली और कुशल योद्धा निकला।दोनों ही बड़े बलशाली थे, दोनों में बहुत भयंकर युद्ध हुआ, परंतु वह बजरंगबली के आगे न टिक सका। आखिर कार हनुमान जी ने उसे हरा तो दिया पर उस द्वारपाल की प्रशंसा करने से नहीं रह सके। हनुमान जी ने उस वीर से पूछा कि हे वीर तुम अपना परिचय दो। तुम्हारा स्वरूप भी कुछ ऐसा है कि उससे कौतुहल हो रहा है। उस वीर ने उत्तर दिया- मैं हनुमान का पुत्र हूं और एक मछली से पैदा हुआ हूं, मेरा नाम है मकरध्वज। हनुमान जी ने यह सुना तो आश्चर्य में पड़ गए। वह वीर की बात सुनने लगे, मकरध्वज ने कहा- लंका दहन के बाद हनुमान जी समुद्र में अपनी अग्नि शांत करने पहुंचे, उनके शरीर से पसीने के रूप में तेज गिरा।उस समय मेरी मां ने आहार के लिए मुख खोला था। वह तेज मेरी माता ने अपने मुख में ले लिया और गर्भवती हो गई. उसी से मेरा जन्म हुआ है। हनुमान जी ने जब यह सुना तो मकरध्वज को बताया कि वह ही हनुमान हैं। मकरध्वज ने हनुमान जी के चरण स्पर्श किए और हनुमान जी ने भी अपने बेटे को गले लगा लिया और वहां आने का पूरा कारण बताया। उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि अपने पिता के स्वामी की रक्षा में सहायता करो। मकरध्वज ने हनुमान जी को बताया कि कुछ ही देर में राक्षस बलि के लिए आने वाले हैं। बेहतर होगा कि आप रूप बदल कर कामाक्षी के मंदिर में जा कर बैठ जाएं। उनको सारी पूजा झरोखे से करने को कहें!हनुमान जी ने पहले तो मधुमक्खी का वेश धरा और मां कामाक्षी के मंदिर में घुस गये। हनुमान जी ने मां कामाक्षी को नमस्कार कर सफलता की कामना की और फिर पूछा- हे मां क्या आप वास्तव में श्री राम जी और लक्ष्मण जी की बलि चाहती हैं ? हनुमान जी के इस प्रश्न पर मां कामाक्षी ने उत्तर दिया कि नहीं। मैं तो दुष्ट अहिरावण व महिरावण की बलि चाहती हूं। यह दोनों मेरे भक्त तो हैं पर अधर्मी और अत्याचारी भी हैं। आप अपने प्रयत्न करो. सफल रहोगे। मंदिर में पांच दीप जल रहे थे अलग-अलग दिशाओं और स्थान पर, मां ने कहा यह दीप अहिरावण ने मेरी प्रसन्नता के लिए जलाये हैं जिस दिन ये एक साथ बुझा दिए जा सकेंगे, उसका अंत सुनिश्चित हो सकेगा।इस बीच गाजे-बाजे का शोर सुनाई पड़ने लगा। अहिरावण, महिरावण बलि चढाने के लिए आ रहे थे। हनुमान जी ने अब मां कामाक्षी का रूप धरा। जब अहिरावण और महिरावण मंदिर में प्रवेश करने ही वाले थे कि हनुमान जी का महिला स्वर गूंजा। हनुमान जी बोले- मैं कामाक्षी देवी हूं और आज मेरी पूजा झरोखे से करो। झरोखे से पूजा आरंभ हुई ढेर सारा चढावा मां कामाक्षी को झरोखे से चढाया जाने लगा। अंत में बंधक बलि के रूप में राम लक्ष्मण को भी उसी से डाला गया. दोनों बंधन में बेहोश थे। हनुमान जी ने तुरंत उन्हें बंधन मुक्त किया। अब पाताल लोक से निकलने की बारी थी, पर उससे पहले मां कामाक्षी के सामने अहिरावण महिरावण की बलि देकर उनकी इच्छा पूरी करना और दोनों राक्षसों को उनके किए की सज़ा देना शेष था।अब हनुमान जी ने मकरध्वज को कहा कि वह अचेत अवस्था में लेटे हुए भगवान राम और लक्ष्मण का खास ख्याल रखे और उसके साथ मिलकर दोनों राक्षसों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। पर यह युद्ध आसान न था। अहिरावण और महिरावण बडी मुश्किल से मरते तो फिर पाँच पाँच के रूप में जिदां हो जाते। इस विकट स्थिति में मकरध्वज ने बताया कि अहिरावण की एक पत्नी नागकन्या है। अहिरावण उसे हर लाया है. वह उसे पसंद नहीं करती, पर मन मार के उसके साथ है, वह अहिरावण के राज जानती होगी। उससे उसकी मृ त्यु का उपाय पूछा जाये. आप उसके पास जाएं और सहायता मांगे।मकरध्वज ने राक्षसों को युद्ध में उलझाये रखा और उधर हनुमान अहिरावण की पत्नी के पास पहुंचे। नागकन्या से उन्होंने कहा कि यदि तुम अहिरावण के मृ त्यु का भेद बता दो तो हम उसे मारकर तुम्हें उसके चंगुल से मुक्ति दिला देंगे। अहिरावण की पत्नी ने कहा- मेरा नाम चित्रसेना है। मैं भगवान विष्णु की भक्त हूं। मेरे रूप पर अहिरावण मर मिटा और मेरा अपहरण कर यहां कैद किये हुए है, पर मैं उसे नहीं चाहती. लेकिन मैं अहिरावण का भेद तभी बताउंगी, जब मेरी इच्छा पूरी की जायेगी। हनुमान जी ने अहिरावण की पत्नी नागकन्या चित्रसेना से पूछा कि आप अहिरावण की मृत्यु का रहस्य बताने के बदले में क्या चाहती हैं ? आप मुझसे अपनी शर्त बताएं, मैं उसे जरूर मानूंगा।चित्रसेना ने कहा- दुर्भाग्य से अहिरावण जैसा असुर मुझे हर लाया. इससे मेरा जीवन खराब हो गया। मैं अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलना चाहती हूं. आप अगर मेरा विवाह श्री राम से कराने का वचन दें तो मैं अहिरावण के वध का रहस्य बताऊंगी। हनुमान जी सोच में पड़ गए. भगवान श्री राम तो एक पत्नी निष्ठ हैं. अपनी धर्म पत्नी देवी सीता को मुक्त कराने के लिए असुरों से युद्ध कर रहे हैं. वह किसी और से विवाह की बात तो कभी न स्वीकारेंगे. मैं कैसे वचन दे सकता हूं ? फिर सोचने लगे कि यदि समय पर उचित निर्णय न लिया तो स्वामी के प्राण ही संकट में हैं। असमंजस की स्थिति में बेचैन हनुमानजी ने ऐसी राह निकाली कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।हनुमान जी बोले- तुम्हारी शर्त स्वीकार है, पर हमारी भी एक शर्त है. यह विवाह तभी होगा, जब तुम्हारे साथ भगवान राम जिस पलंग पर आसीन होंगे, वह सही सलामत रहना चाहिए। यदि वह टूटा तो इसे अपशकुन मानकर वचन से पीछे हट जाऊंगा। जब महाकाय अहिरावण के बैठने से पलंग नहीं टूटता तो भला श्रीराम के बैठने से कैसे टूटेगा ! यह सोच कर चित्रसेना तैयार हो गयी. उसने अहिरावण समेत सभी राक्षसों के अंत का सारा भेद बता दिया। चित्रसेना ने कहा- दोनों राक्षसों के बचपन की बात है. इन दोनों के कुछ शरारती राक्षस मित्रों ने कहीं से एक भ्रामरी को पकड़ लिया. मनोरंजन के लिए वे उसे भ्रामरी को बार-बार काटों से छेड़ रहे थे।भ्रामरी साधारण भ्रामरी न थी. वह भी बहुत मायावी थी, किंतु किसी कारण वश वह पकड़ में आ गई थी. भ्रामरी की पीड़ा सुनकर अहिरावण और महिरावण को दया आ गई और अपने मित्रों से लड़ कर उसे छुड़ा दिया। मायावी भ्रामरी का पति भी अपनी पत्नी की पीड़ा सुनकर आया था. अपनी पत्नी की मुक्ति से प्रसन्न होकर उस भौंरे ने वचन दिया था कि तुम्हारे उपकार का बदला हम सभी भ्रमर जाति मिलकर चुकाएंगे। ये भौंरें अधिकतर उसके शयन कक्ष के पास रहते हैं. ये सब बड़ी भारी संख्या में हैं। दोनों राक्षसों को जब भी मारने का प्रयास हुआ है और ये मरने को हो जाते हैं तब भ्रमर उनके मुख में एक बूंद अमृत का डाल देते हैं।उस अमृत के कारण ये दोनों राक्षस मरकर भी जिंदा हो जाते हैं. इनके कई-कई रूप उसी अमृत के कारण हैं. इन्हें जितनी बार फिर से जीवन दिया गया उनके उतने नए रूप बन गए हैं. इसलिए आपको पहले इन भंवरों को मारना होगा। हनुमान जी रहस्य जानकर लौटे. मकरध्वज ने अहिरावण को युद्ध में उलझा रखा था. तो हनुमान जी ने भंवरों का खात्मा शुरू किया. वे आखिर हनुमान जी के सामने कहां तक टिकते। जब सारे भ्रमर खत्म हो गए और केवल एक बचा तो वह हनुमान जी के चरणों में लोट गया. उसने हनुमान जी से प्राण रक्षा की याचना की. हनुमान जी पसीज गए. उन्होंने उसे क्षमा करते हुए एक काम सौंपा।हनुमान जी बोले- मैं तुम्हें प्राण दान देता हूं पर इस शर्त पर कि तुम यहां से तुरंत चले जाओगे और अहिरावण की पत्नी के पलंग की पाटी में घुसकर जल्दी से जल्दी उसे पूरी तरह खोखला बना दोगे। भंवरा तत्काल चित्रसेना के पलंग की पाटी में घुसने के लिए प्रस्थान कर गया. इधर अहिरावण और महिरावण को अपने चमत्कार के लुप्त होने से बहुत अचरज हुआ पर उन्होंने मायावी युद्ध जारी रखा। भ्रमरों को हनुमान जी ने समाप्त कर दिया फिर भी हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों अहिरावण और महिरावण का अंत नहीं हो पा रहा था. यह देखकर हनुमान जी कुछ चिंतित हुए।फिर उन्हें कामाक्षी देवी का वचन याद आया. देवी ने बताया था कि अहिरावण की सिद्धि है कि जब पांचो दीपकों एक साथ बुझेंगे तभी वे नए-नए रूप धारण करने में असमर्थ होंगे और उनका वध हो सकेगा। हनुमान जी ने तत्काल पंचमुखी रूप धारण कर लिया. उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख। उसके बाद हनुमान जी ने अपने पांचों मुख द्वारा एक साथ पांचों दीपक बुझा दिए. अब उनके बार बार पैदा होने और लंबे समय तक जिंदा रहने की सारी आशंकायें समाप्त हो गयीं थी. हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों शीघ्र ही दोनों राक्षस मारे गये।इसके बाद उन्होंने श्री राम और लक्ष्मण जी की मूर्च्छा दूर करने के उपाय किए. दोनो भाई होश में आ गए. चित्रसेना भी वहां आ गई थी. हनुमान जी ने कहा- प्रभो ! अब आप अहिरावण और महिरावण के छल और बंधन से मुक्त हुए। पर इसके लिए हमें इस नागकन्या की सहायता लेनी पड़ी थी. अहिरावण इसे बल पूर्वक उठा लाया था. वह आपसे विवाह करना चाहती है. कृपया उससे विवाह कर अपने साथ ले चलें. इससे उसे भी मुक्ति मिलेगी। श्री राम हनुमान जी की बात सुनकर चकराए. इससे पहले कि वह कुछ कह पाते हनुमान जी ने ही कह दिया- भगवन आप तो मुक्तिदाता हैं. अहिरावण को मारने का भेद इसी ने बताया है. इसके बिना हम उसे मारकर आपको बचाने में सफल न हो पाते।कृपा निधान इसे भी मुक्ति मिलनी चाहिए. परंतु आप चिंता न करें. हम सबका जीवन बचाने वाले के प्रति बस इतना कीजिए कि आप बस इस पलंग पर बैठिए, बाकी का काम मैं संपन्न करवाता हूं। हनुमान जी इतनी तेजी से सारे कार्य करते जा रहे थे कि इससे श्री राम जी और लक्ष्मण जी दोनों चिंता में पड़ गये. वह कोई कदम उठाते कि तब तक हनुमान जी ने भगवान राम की बांह पकड़ ली। हनुमान जी ने भावावेश में प्रभु श्री राम की बांह पकड़ कर चित्रसेना के उस सजे-धजे विशाल पलंग पर बिठा दिया. श्री राम कुछ समझ पाते कि तभी पलंग की खोखली पाटी चरमरा कर टूट गयी।पलंग धराशायी हो गया. चित्रसेना भी जमीन पर आ गिरी. हनुमान जी हंस पड़े और फिर चित्रसेना से बोले- अब तुम्हारी शर्त तो पूरी हुई नहीं, इसलिए यह विवाह नहीं हो सकता. तुम मुक्त हो और हम तुम्हें तुम्हारे लोक भेजने का प्रबंध करते हैं। चित्रसेना समझ गयी कि उसके साथ छल हुआ है. उसने कहा कि उसके साथ छल हुआ है. मर्यादा पुरुषोत्तम के सेवक उनके सामने किसी के साथ छल करें, यह तो बहुत अनुचित है. मैं हनुमान को श्राप दूंगी। चित्रसेना हनुमान जी को श्राप देने ही जा ही रही थी कि श्री राम का सम्मोहन भंग हुआ. वह इस पूरे नाटक को समझ गये. उन्होंने चित्रसेना को समझाया- मैंने एक पत्नी धर्म से बंधे होने का संकल्प लिया है. इसलिए हनुमान जी को यह करना पड़ा. उन्हें क्षमा कर दो।क्रुद्ध चित्रसेना तो उनसे विवाह की जिद पकड़े बैठी थी. श्री राम ने कहा- मैं जब द्वापर में श्री कृष्ण अवतार लूंगा, तब तुम्हें सत्यभामा के रूप में अपनी पटरानी बनाउंगा. इससे वह मान गयी। हनुमान जी ने चित्रसेना को उसके पिता के पास पहुंचा दिया. चित्रसेना को प्रभु ने अगले जन्म में पत्नी बनाने का वरदान दिया था. भगवान विष्णु की पत्नी बनने की चाह में उसने स्वयं को अग्नि में भस्म कर लिया। श्री राम और लक्ष्मण, मकरध्वज और हनुमान जी सहित वापस लंका में सुवेल पर्वत पर लौट आये!


कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...