देव उपासना में निषिद्ध वस्त्र
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“न स्यूते न दग्धेन पारक्येन विशेषतः ।
मूषिकोत्कीर्ण जीर्णेन कर्म कुर्याद्विचक्षणः ||महा भा०||)”
सिले हुए वस्त्र से , जले हुए वस्त्र से, विशेषकर दूसरे के वस्त्र से, चूहे से कटे हुए वस्त्र से धर्मकार्य नहीं करना चाहिए।
“(जीर्णं नीलं संधितं च पारक्यं मैथुने धृतम् ।
छिन्नाग्रमुपवस्त्रं च कुत्सितं धर्मतो विदुः ।।
आचारादर्शे नृसिंहपुराणवचन)”
जीर्ण, नीला, सीला हुआ, दूसरे का, संभोगावस्था में पहना हुआ, जिसका तत्र भाग कटा हो एवं छोर रहित वस्त्र धर्मकी दृष्टि से धारण न करें,
“अहतं यन्त्र निर्मुक्तं वासः प्रोक्तं स्वयंभुवा ।
शस्तं तन् मांगलिक्येषु तावत् कालं न सर्वदा ||कश्यपः||”
यन्त्र(मील) से निकले हुए बने हुए वस्त्र को “अहत” वस्त्र माना हैं | वह यन्त्र से निकला हुआ कपड़ा विवाह आदि मांगलिक कार्य में उतने ही समय तक ठीक हैं, हमेशा के लिए नहीं।
“अन्यत्र यज्ञादौ तु इषद्धौतमिति ।
न_च_यज्ञादिकमपि #मांगलिक्यमेवेत्याशंकनीयम् । विवाहोत्सवादेरैहिकसुखस्याभ्युदयस्य च मांगलिकत्वात् । यज्ञोदेस्तु #धर्मरूपादृष्टफलदत्वेन मांगलिकत्वाभावात् ” ||मदन पारि० शातातपः ||”
म०पारि ग्रन्थ में शातातप नामक ऋषि की व्याख्या अहतवस्त्र का — अन्यत्र यज्ञादि अनुष्ठान में( प्रशस्त )नहीं , यज्ञादि कर्म तो अदृष्ट (अप्रत्यक्ष) फल देनेवाले हैं, इस कारण से वे मांगलिक कर्म में नहीं आते है, निष्कर्ष यह हैं कि विवाहादि मांगलिक कार्यों का प्रत्यक्ष संस्काररूपी फल हैं, ऐसा यज्ञादिकर्मों का दृष्ट फल नहीं ।
“( इषद्धौतमरजकादिना सकृद्धौतमिति नागदेवाह्निके व्याख्यातम् ||मदन पारि०| )—
इषद्धौत का मतलब बिना धोबी के एकबार धुला वस्त्र।
”स्वयं धौतेन कर्त्तव्या क्रिया धर्म्या विपश्चिता ।
न तु तेजकधौतेन नोपभुक्तेन च क्वचित् ||
चतुर्वर्ग चिंता०वृद्धमनुवचन|| )”
विद्वान् कर्मकर्ता को स्वयं(ब्रह्मचारी स्वयं/ गृहस्थी स्वयं वा पत्नी द्वारा)धूले वस्त्र से धार्मिक क्रिया को सम्पन्न करे।
धोबी से धुले हुए एवं भोजन में पहने हुए या दूसरे के पहने हुए वस्त्र से कभी भी धार्मिक कर्म न करे।
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