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Shiv Vandana

नमामि शमीशान निर्वाण रूपं विभुं व्यापकं ब्रम्ह्वेद स्वरूपं निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाश माकाश वासं भजेयम निराकार मोंकार मूलं तुरीयं गिराज्ञान गोतीत मीशं गिरीशं करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसार पारं नतोहं तुषाराद्रि संकाश गौरं गम्भीरं . मनोभूति कोटि प्रभा श्री शरीरं स्फुरंमौली कल्लो लीनिचार गंगा लसद्भाल बालेन्दु कंठे भुजंगा चलत्कुण्डलं भू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननम नीलकंठं दयालं म्रिगाधीश चर्माम्बरम मुंडमालं प्रियम कंकरम सर्व नाथं भजामि प्रचंद्म प्रकिष्ट्म प्रगल्भम परेशं अखंडम अजम भानु कोटि प्रकाशम त्रयः शूल निर्मूलनम शूलपाणीम भजेयम भवानी पतिम भावगम्यं कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्ज्नानंद दाता पुरारी चिदानंद संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी न यावत उमानाथ पादार विन्दम भजंतीह लोके परे वा नाराणं न तावत सुखं शान्ति संताप नाशं प्रभो पाहि आपन्न मामीश शम्भो ।

सीता जयन्ती

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 सीता एक ऐसा चरित्र जिसे सभी को ज्ञान मिलता हैं . सीता माता के चरित्र का वर्णन सभी वेदों में बहुत सुंदर शब्दों में किया गया हैं . वाल्मीकि रामायण में भी देवी सीता को शक्ति स्वरूपा, ममतामयी, राक्षस नाशिनी, पति व्रता आदि कई गुणों से सज्जित बताया गया हैं . सीता मैया के जन्म दिवस को सीता अथवा जानकी जयंती के रूप में मनाया जाता हैं . सीता जयंती को पुरे देश में उत्साह से मनाया जाता हैं .इसे विवाहित स्त्रियाँ पति की आयु के लिए करती हैं . सीता मैया को जानकी भी कहा जाता हैं अतः उनकी जयंती को जानकी जयंती भी कहा जाता हैं . उनके पिता का नाम जनक था और सीता जनक की गोद ली हुई पुत्री थी . सीता, मिथिला के राजा को यज्ञ के लिए खेत जोतते हुए धरती मैया से प्रकट होती हुई प्राप्त हुई थी इसलिये इनका एक नाम भूमिजा भी हैं . राजा जनक की कोई संतान नहीं थी उन्होंने और पत्नी सुनैना ने सीता को गोद लिया और अपनी बेटी के रूप में पाला . बाद में इन्ही सीता का विवाह भगवान राम से हुआ . सीता/ जानकी जयंती कब मनाई जाती हैं फाल्गुन माह शुक्ल पक्ष की नवमी को सीता जी का जन्म हुआ था . अतः इस दिन को सीता नवमी अथवा सीता जयंत

कहानी

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एक बार श्री कृष्ण और अर्जुन भ्रमण पर निकले तो उन्होंने मार्ग में एक निर्धन ब्राहमण को भिक्षा मागते देखा.... अर्जुन को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस ब्राहमण को स्वर्ण मुद्राओ से भरी एक पोटली दे दी। जिसे पाकर ब्राहमण प्रसन्नता पूर्वक अपने सुखद भविष्य के सुन्दर स्वप्न देखता हुआ घर लौट चला। किन्तु उसका दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था, राह में एक लुटेरे ने उससे वो पोटली छीन ली। ब्राहमण दुखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया।अगले दिन फिर अर्जुन की दृष्टि जब उस ब्राहमण पर पड़ी तो उन्होंने उससे इसका कारण पूछा। ब्राहमण ने सारा विवरण अर्जुन को बता दिया, ब्राहमण की व्यथा सुनकर अर्जुन को फिर से उस पर दया आ गयी अर्जुन ने विचार किया और इस बार उन्होंने ब्राहमण को मूल्यवान एक माणिक दिया। ब्राहमण उसे लेकर घर पंहुचा उसके घर में एक पुराना घड़ा था जो बहुत समय से प्रयोग नहीं किया गया था,ब्राह्मण ने चोरी होने के भय से माणिक उस घड़े में छुपा दिया। किन्तु उसका दुर्भाग्य, दिन भर का थका मांदा होने के कारण उसे नींद आ गयी... इस बीच ब्राहमण की स्त्री नदी में जल लेने चली गयी किन्तु मार्ग में ही उसक

शीतला माता

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ज्येष्ठा हिन्दू धर्म की देवी हैं। ज्येष्ठा सौभाग्य और सुंदरता की देवी लक्ष्मी जी की बड़ी बहन मानी जाती हैं जो कि बिलकुल उनके विपरीत हैं। यह अशुभ घटनाओं और पापियों के अलावा आलस, गरीबी, दुख, कुरूपता से भी संबंधित मानी जाती हैं। इन्हें दुर्भाग्य की देवी कहा जाता है। इन्हें अपने घर से दूर रखने के लिए ही लोग इनकी पूजा करते हैं। इन्हें अलक्ष्मी के नाम से भी जाना जाता है। पद्मपुराण का एक कथा के अनुसार जब देवताओं और राक्षसों के बीच अमृत पाने के लिए समुद्र मंथन किया गया तो सबसे पहले समुद्र से विष निकला जिसे शिव जी ने अपने कंठ में भर लिया। इसके बाद समुद्र मंथन से देवी ज्येष्ठा की उत्पत्ति हुई। उस समय उन्होंने लाल रंग के वस्त्र धारण कर रखें थे। इनकी पीठ ठीक लक्ष्मी जी के विपरीत थी। यानि जिस तरह यह जाती हैं उसकी दूसरी तरह लक्ष्मी जी का वास होता है। पद्मपुराण का एक कथा के अनुसार जब देवताओं और राक्षसों के बीच अमृत पाने के लिए समुद्र मंथन किया गया तो सबसे पहले समुद्र से विष निकला जिसे शिव जी ने अपने कंठ में भर लिया। इसके बाद समुद्र मंथन से देवी ज्येष्ठा की उत्पत्ति हुई। उस समय उन्होंने लाल रंग क

ऋणमोचन मंगल स्तोत्र

॥ऋणमोचन मंगल स्तोत्र॥ मंगलो भूमिपुत्रश्च ऋणहर्ता धनप्रद:। स्थिरासनो महाकाय: सर्वकामविरोधक: ॥१॥ लोहितो लोहिताक्षश्च सामगानां कृपाकर:। धरात्मज: कुजो भौमो भूतिदो भूमिनन्दन: ॥२॥ अङ्गारको यमश्चैव सर्वरोगापहारक:। वृष्टे: कर्ताऽपहर्ता च सर्वकामफलप्रद: ॥३॥ एतानि कुजनामानि नित्यं य: श्रद्धया पठेत्। ऋणं न जायते तस्य धनं शीघ्रमवाप्नुयात् ॥४॥ धरणीगर्भसम्भूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम्। कुमारं शक्तिहस्तं च मङ्गलं प्रणमाम्यहम् ॥५॥ स्तोत्रमङ्गारकस्यैतत्पठनीयं सदा नृभि:। न तेषां भौमजा पीडा स्वल्पापि भवति क्वचित् ॥६॥ अङ्गारक महाभाग भगवन् भक्तवत्सल। त्वां नमामि ममाशेषमृणमाशु विनाशय: ॥७॥ ऋणरोगादिदारिद्रयं ये चान्ये चापमृत्यव:। भयक्लेशमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा ॥८॥ अतिवक्रदुरारा भोगमुक्तजितात्मन:। तुष्टो ददासि साम्राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ॥९॥ विरञ्चि शक्रविष्णूनां मनुष्याणां तु का कथा। तेन त्वं सर्वसत्वेन ग्रहराजो महाबल: ॥१०॥ पुत्रान्देहि धनं देहि त्वामस्मि शरणं गत:। ऋणदारिद्रयदु:खेन शत्रुणां च भयात्तत: ॥११॥ एभिर्द्वादशभि: श्लोकैर्य: स्तौति च धरासुतम्। महतीं श्रियमाप्

नाग स्तोत्र

॥नाग स्तोत्रम्॥ ब्रह्म लोके च ये सर्पाः शेषनागाः पुरोगमाः। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥१॥ विष्णु लोके च ये सर्पाः वासुकि प्रमुखाश्चये। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥२॥ रुद्र लोके च ये सर्पाः तक्षकः प्रमुखास्तथा। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥३॥ खाण्डवस्य तथा दाहे स्वर्गन्च ये च समाश्रिताः। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥४॥ सर्प सत्रे च ये सर्पाः अस्थिकेनाभि रक्षिताः। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥५॥ प्रलये चैव ये सर्पाः कार्कोट प्रमुखाश्चये। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥६॥ धर्म लोके च ये सर्पाः वैतरण्यां समाश्रिताः। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥७॥ ये सर्पाः पर्वत येषु धारि सन्धिषु संस्थिताः। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥८॥ ग्रामे वा यदि वारण्ये ये सर्पाः प्रचरन्ति च। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥९॥ पृथिव्याम् चैव ये सर्पाः ये सर्पाः बिल संस्थिताः। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे