गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

Shiv Vandana

नमामि शमीशान निर्वाण रूपं

विभुं व्यापकं ब्रम्ह्वेद स्वरूपं

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं

चिदाकाश माकाश वासं भजेयम

निराकार मोंकार मूलं तुरीयं

गिराज्ञान गोतीत मीशं गिरीशं

करालं महाकाल कालं कृपालं

गुणागार संसार पारं नतोहं

तुषाराद्रि संकाश गौरं गम्भीरं .

मनोभूति कोटि प्रभा श्री शरीरं

स्फुरंमौली कल्लो लीनिचार गंगा

लसद्भाल बालेन्दु कंठे भुजंगा

चलत्कुण्डलं भू सुनेत्रं विशालं

प्रसन्नाननम नीलकंठं दयालं

म्रिगाधीश चर्माम्बरम मुंडमालं

प्रियम कंकरम सर्व नाथं भजामि

प्रचंद्म प्रकिष्ट्म प्रगल्भम परेशं

अखंडम अजम भानु कोटि प्रकाशम

त्रयः शूल निर्मूलनम शूलपाणीम

भजेयम भवानी पतिम भावगम्यं

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी

सदा सज्ज्नानंद दाता पुरारी

चिदानंद संदोह मोहापहारी

प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी

न यावत उमानाथ पादार विन्दम

भजंतीह लोके परे वा नाराणं

न तावत सुखं शान्ति संताप नाशं

प्रभो पाहि आपन्न मामीश शम्भो ।

रविवार, 19 फ़रवरी 2017

सीता जयन्ती


सीता एक ऐसा चरित्र जिसे सभी को ज्ञान मिलता हैं . सीता माता के चरित्र का वर्णन सभी वेदों में बहुत सुंदर शब्दों में किया गया हैं . वाल्मीकि रामायण में भी देवी सीता को शक्ति स्वरूपा, ममतामयी, राक्षस नाशिनी, पति व्रता आदि कई गुणों से सज्जित बताया गया हैं . सीता मैया के जन्म दिवस को सीता अथवा जानकी जयंती के रूप में मनाया जाता हैं . सीता जयंती को पुरे देश में उत्साह से मनाया जाता हैं .इसे विवाहित स्त्रियाँ पति की आयु के लिए करती हैं . सीता मैया को जानकी भी कहा जाता हैं अतः उनकी जयंती को जानकी जयंती भी कहा जाता हैं . उनके पिता का नाम जनक था और सीता जनक की गोद ली हुई पुत्री थी . सीता, मिथिला के राजा को यज्ञ के लिए खेत जोतते हुए धरती मैया से प्रकट होती हुई प्राप्त हुई थी इसलिये इनका एक नाम भूमिजा भी हैं . राजा जनक की कोई संतान नहीं थी उन्होंने और पत्नी सुनैना ने सीता को गोद लिया और अपनी बेटी के रूप में पाला . बाद में इन्ही सीता का विवाह भगवान राम से हुआ .

सीता/ जानकी जयंती कब मनाई जाती हैं
फाल्गुन माह शुक्ल पक्ष की नवमी को सीता जी का जन्म हुआ था . अतः इस दिन को सीता नवमी अथवा सीता जयंती, जानकी जयंती के रूप में मनाया जाता हैं . नेपाल में इस दिन को बहुत उत्साह से मनाते हैं . वर्तमान में मिथिला नेपाल का हिस्सा हैं और रानी सीता मिथिला की राजकुमारी थी जिन्हें राजा जनक और रानी सुनैना ने सीता को गोद लिया था. वास्तव में सीता, भूमिजा कहलाई क्यूंकि राजा जनक ने उन्हें भूमि से प्राप्त किया था . इस सन्दर्भ में बहुत ही रोचक कथा कही जाती हैं जिसे विस्तार से लिखा गया हैं

सीता के जन्म का रहस्य

सीता मैया जो कि मिथिला नरेश जनक की पुत्री कही जाती हैं, वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब राजा जनक ने धरती को जोता था, तब निर्मित हुई क्यारी में उन्हें एक छोटी से कन्या मिली थी, तब ही राजा जनक ने इन्हें धरती माता की पुत्री के रूप में अपना लिया था . यह भी कहा जाता हैं जब राजा जनक ने यज्ञ कार्य हेतु धरती को जोता , तब धरती में एक गहरी दरार उत्पन्न हुई ,उस दरार से एक सोने की डलिया में मिट्टी में लिपटी हुई सुंदर छवि वाली कन्या प्राप्त हुई . राजा जनक की कोई संतान नहीं थी इसलिए इस छोटी सी कन्या को जैसे ही उन्होंने अपने हाथों में लिया , उन्हें पिता प्रेम की अनुभूति हुई और उन्होंने उस कन्या को सीता नाम दिया और उसे अपनी बेटी के रूप में सम्मान दिया . राजा जनक मिथिला के राजा थे जनक उनके पूर्वजों द्वारा दी गई उपाधि थी उनका असली नाम सीराध्वाज था एवं उनकी पत्नी का नाम महारानी सुनैना था . सीता इन दोनों की एकमात्र पुत्री थी .

सीता कौन थी ?
कई मतों के अनुसार सीता के जन्म के विषय में एक कथा कही जाती हैं जिसमे स्पष्ट किया गया हैं कि सीता कौन थी और वो क्यूँ रावण की मृत्यु का कारण बनी ?

असल में सीता रावण और मंदोदरी की बेटी थी इसके पीछे बहुत बड़ा कारण थी वेदवती . सीता वेदवती का पुनर्जन्म जन्म थी .वेदवती एक बहुत सुंदर, सुशिल धार्मिक कन्या थी जो कि भगवान विष्णु की उपासक थी और उन्ही से विवाह करना चाहती थी . अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए वेदवती ने कठिन तपस्या की . उसने सांसारिक जीवन छोड़ स्वयं को तपस्या में लीन कर दिया था . वेदवती उपवन में कुटिया बनाकर रहने लगी .

एक दिन वेदवती उपवन में तपस्या कर रही थी . तब ही रावण वहां से निकला और वेदवती के स्वरूप को देख उस पर मोहित हो गया और उसने वेदवती के साथ दुर्व्यवहार करना चाहा, जिस कारण वेदवती ने हवन कुंड में कूदकर आत्मदाह कर लिया और वेदवती ने ही मरने से पूर्व रावण को श्राप दिया कि वो खुद रावण की पुत्री के रूप में जन्म लेगी और रावण की मृत्यु का कारण बनेगी .
कुछ समय बाद रावण को मंदोदरी से एक पुत्री प्राप्त हुई जिसे उसने जन्म लेते ही सागर में फेंक दिया.सागर ने डूबती वह कन्या सागर की देवी वरुणी को मिली और वरुणी ने उसे धरती की देवी पृथ्वी को सौंप दिया और देवी पृथ्वी ने उस कन्या को राजा जनक और माता सुनैना को सौंप दिया,जिसके बाद वह कन्या सीता के रूप में जानी गई और बाद में इसी सीता के अपहरण के कारण भगवान राम ने रावण का वध किया .

जिस तरह सीता मैया धरती से प्रकट हुई थी , उसी प्रकार वह धरती में समा गई थी . रावण के संहार के बाद , जब राम अयोध्या पहुंचे , तब उन्हें किन्ही कारणों से सीता का त्याग करना पड़ा . उस समय सीता ने अपना जीवन वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में व्यतीत किया और दो सुंदर राजकुमार लव कुश को जन्म दिया . राम इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनकी दो अतिबलशाली संतान हैं . जब राम ने अश्वमेध यज्ञ के लिये अपने अश्व को छोड़ा , तब इन दोनों राजकुमारों ने उस अश्व को पकड़ लिया और कहा कि अपने राजा को बोलो कि हमसे युद्ध करे . लव कुश भी अपने जन्म के रहस्य को नहीं जानते थे . लव कुश के साथ हनुमान जैसे सभी योद्धाओं ने युद्ध किया लेकिन कोई उन से जीत नहीं पाया . तब आखरी में राम वहाँ आये , तब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि यह दोनों दिव्य बालक उनकी और सीता की संतान हैं . तब सीता को वापस अयोध्या आने को कहा गया . तब सीता अयोध्या की भरी सभा में गई और उन्होंने धरती माँ का आव्हाहन किया और लव कुश को पिता को सौंप . स्वयं को धरती माँ को सौंप दिया . इस प्रकार जिस प्रकार दिव्य जन्म के साथ सीता मैया प्रकट हुई, उसी तरह से वो धरती में समां गई .

सीता मैया एक दिव्य स्वरूपा मानी जाती हैं इसलिए कहते हैं कि जब रावण उनका अपहरण करने आया था उसके पहले ही सीता के वास्तविक शरीर को अग्नि देव को सौंप दिया गया था क्यूंकि अगर रावण वास्तविक सीता को बुरी निगाह से देखता तो उसे देखकर ही भस्म हो जाता . अगर ऐसा होता तो मनुष्य को जाति को नारी के साथ अपनी मर्यादा का सबक नहीं मिलता जो कि रावण के अंत और उसके घमंड के अंत के साथ मिला . इसलिए अंत में भगवान राम ने अग्नि परीक्षा के रूप में अग्नि देवता से सीता को पुनः प्राप्त किया .<iframe style="width:120px;height:240px;" marginwidth="0" marginheight="0" scrolling="no" frameborder="0" src="//ws-in.amazon-adsystem.com/widgets/q?ServiceVersion=20070822&OneJS=1&Operation=GetAdHtml&MarketPlace=IN&source=ac&ref=tf_til&ad_type=product_link&tracking_id=radrad0c-21&marketplace=amazon&region=IN&placement=B01NCZ738X&asins=B01NCZ738X&linkId=9849736022d65e6498af36e91690bacb&show_border=false&link_opens_in_new_window=false&price_color=333333&title_color=0066C0&bg_color=FFFFFF"> </iframe>

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

कहानी

एक बार श्री कृष्ण और अर्जुन भ्रमण पर निकले तो उन्होंने मार्ग में एक निर्धन ब्राहमण को भिक्षा मागते देखा....

अर्जुन को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस ब्राहमण को स्वर्ण मुद्राओ से भरी एक पोटली दे दी।

जिसे पाकर ब्राहमण प्रसन्नता पूर्वक अपने सुखद भविष्य के सुन्दर स्वप्न देखता हुआ घर लौट चला।

किन्तु उसका दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था, राह में एक लुटेरे ने उससे वो पोटली छीन ली।

ब्राहमण दुखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया।अगले दिन फिर अर्जुन की दृष्टि जब उस ब्राहमण पर पड़ी तो उन्होंने उससे इसका कारण पूछा।

ब्राहमण ने सारा विवरण अर्जुन को बता दिया, ब्राहमण की व्यथा सुनकर अर्जुन को फिर से उस पर दया आ गयी अर्जुन ने विचार किया और इस बार उन्होंने ब्राहमण को मूल्यवान एक माणिक दिया।

ब्राहमण उसे लेकर घर पंहुचा उसके घर में एक पुराना घड़ा था जो बहुत समय से प्रयोग नहीं किया गया था,ब्राह्मण ने चोरी होने के भय से माणिक उस घड़े में छुपा दिया।

किन्तु उसका दुर्भाग्य, दिन भर का थका मांदा होने के कारण उसे नींद आ गयी... इस बीच
ब्राहमण की स्त्री नदी में जल लेने चली गयी किन्तु मार्ग में
ही उसका घड़ा टूट गया, उसने सोंचा, घर में जो पुराना घड़ा पड़ा है उसे ले आती हूँ, ऐसा विचार कर वह घर लौटी और उस पुराने घड़े को ले कर
चली गई और जैसे ही उसने घड़े
को नदी में डुबोया वह माणिक भी जल की धारा के साथ बह गया।

ब्राहमण को जब यह बात पता चली तो अपने भाग्य को कोसता हुआ वह फिर भिक्षावृत्ति में लग गया।

अर्जुन और श्री कृष्ण ने जब फिर उसे इस दरिद्र अवस्था में देखा तो जाकर उसका कारण पूंछा।

सारा वृतांत सुनकर अर्जुन को बड़ी हताशा हुई और मन ही मन सोचने लगे इस अभागे ब्राहमण के जीवन में कभी सुख नहीं आ सकता।

अब यहाँ से प्रभु की लीला प्रारंभ हुई।उन्होंने उस ब्राहमण को दो पैसे दान में दिए।

तब अर्जुन ने उनसे पुछा “प्रभु
मेरी दी मुद्राए और माणिक
भी इस अभागे की दरिद्रता नहीं मिटा सके तो इन दो पैसो से
इसका क्या होगा” ?

यह सुनकर प्रभु बस मुस्कुरा भर दिए और अर्जुन से उस
ब्राहमण के पीछे जाने को कहा।

रास्ते में ब्राहमण सोचता हुआ जा रहा था कि "दो पैसो से तो एक व्यक्ति के लिए भी भोजन नहीं आएगा प्रभु ने उसे इतना तुच्छ दान क्यों दिया ? प्रभु की यह कैसी लीला है "?

ऐसा विचार करता हुआ वह
चला जा रहा था उसकी दृष्टि एक मछुवारे पर पड़ी, उसने देखा कि मछुवारे के जाल में एक
मछली फँसी है, और वह छूटने के लिए तड़प रही है ।

ब्राहमण को उस मछली पर दया आ गयी। उसने सोचा"इन दो पैसो से पेट की आग तो बुझेगी नहीं।क्यों? न इस मछली के प्राण ही बचा लिए जाये"।

यह सोचकर उसने दो पैसो में उस मछली का सौदा कर लिया और मछली को अपने कमंडल में डाल लिया। कमंडल में जल भरा और मछली को नदी में छोड़ने चल पड़ा।

तभी मछली के मुख से कुछ निकला।उस निर्धन ब्राह्मण ने देखा ,वह वही माणिक था जो उसने घड़े में छुपाया था।

ब्राहमण प्रसन्नता के मारे चिल्लाने लगा “मिल गया, मिल गया ”..!!!

तभी भाग्यवश वह लुटेरा भी वहाँ से गुजर रहा था जिसने ब्राहमण की मुद्राये लूटी थी।

उसने ब्राह्मण को चिल्लाते हुए सुना “ मिल गया मिल गया ” लुटेरा भयभीत हो गया। उसने सोंचा कि ब्राहमण उसे पहचान गया है और इसीलिए चिल्ला रहा है, अब जाकर राजदरबार में उसकी शिकायत करेगा।

इससे डरकर वह ब्राहमण से रोते हुए क्षमा मांगने लगा। और उससे लूटी हुई सारी मुद्राये भी उसे वापस कर दी।

यह देख अर्जुन प्रभु के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके।

अर्जुन बोले,प्रभु यह कैसी लीला है? जो कार्य थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक नहीं कर सका वह आपके दो पैसो ने कर दिखाया।

श्री कृष्णा ने कहा “अर्जुन यह अपनी सोंच का अंतर है, जब तुमने उस निर्धन को थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक दिया तब उसने मात्र अपने सुख के विषय में सोचा। किन्तु जब मैनें उसको दो पैसे दिए। तब उसने दूसरे के दुःख के विषय में सोचा। इसलिए हे अर्जुन-सत्य तो यह है कि, जब आप दूसरो के दुःख के विषय में सोंचते है, जब आप दूसरे का भला कर रहे होते हैं, तब आप ईश्वर का कार्य कर रहे होते हैं, और तब ईश्वर आपके साथ होते हैं।

🙏 

शीतला माता

ज्येष्ठा हिन्दू धर्म की देवी हैं। ज्येष्ठा सौभाग्य और सुंदरता की देवी लक्ष्मी जी की बड़ी बहन मानी जाती हैं जो कि बिलकुल उनके विपरीत हैं। यह अशुभ घटनाओं और पापियों के अलावा आलस, गरीबी, दुख, कुरूपता से भी संबंधित मानी जाती हैं। इन्हें दुर्भाग्य की देवी कहा जाता है। इन्हें अपने घर से दूर रखने के लिए ही लोग इनकी पूजा करते हैं। इन्हें अलक्ष्मी के नाम से भी जाना जाता है।
पद्मपुराण का एक कथा के अनुसार जब देवताओं और राक्षसों के बीच अमृत पाने के लिए समुद्र मंथन किया गया तो सबसे पहले समुद्र से विष निकला जिसे शिव जी ने अपने कंठ में भर लिया। इसके बाद समुद्र मंथन से देवी ज्येष्ठा की उत्पत्ति हुई। उस समय उन्होंने लाल रंग के वस्त्र धारण कर रखें थे। इनकी पीठ ठीक लक्ष्मी जी के विपरीत थी। यानि जिस तरह यह जाती हैं उसकी दूसरी तरह लक्ष्मी जी का वास होता है।
पद्मपुराण का एक कथा के अनुसार जब देवताओं और राक्षसों के बीच अमृत पाने के लिए समुद्र मंथन किया गया तो सबसे पहले समुद्र से विष निकला जिसे शिव जी ने अपने कंठ में भर लिया। इसके बाद समुद्र मंथन से देवी ज्येष्ठा की उत्पत्ति हुई। उस समय उन्होंने लाल रंग के वस्त्र धारण कर रखें थे। इनकी पीठ ठीक लक्ष्मी जी के विपरीत थी। यानि जिस तरह यह जाती हैं उसकी दूसरी तरह लक्ष्मी जी का वास होता है।
देवी ज्येष्ठ का रूप बहुत ही सुंदर है। वह सदा लाल रंग के वस्त्र पहने रहती हैं। उनके चार हाथ है जिनमें से दो अभय और वर मुद्रा में रहते हैं तथा अन्य दो हाथों में तीर धनुष रहता है। इनका वाहन कौआ है। यह सदा कमल पर विराजमान रहती हैं। पीपल के पेड़ में अलक्ष्मी या माता ज्येष्ठा का वास होता है।
देवी ज्येष्ठा का जन्म समुद्र मंथन के दौरान हुआ था। उनकी छोटी बहन लक्ष्मी जी हैं। देवी ज्येष्ठा का विवाह एक दुःसह नामक ब्राह्मण के साथ हुआ था। यह नास्तिक और पापियों के घर में निवास करती हैं।
भारत के कुछ हिस्सों में इन्हें शीतला देवी के नाम से भी पूजा जाता है।


सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

ऋणमोचन मंगल स्तोत्र

॥ऋणमोचन मंगल स्तोत्र॥
मंगलो भूमिपुत्रश्च ऋणहर्ता धनप्रद:।
स्थिरासनो महाकाय: सर्वकामविरोधक: ॥१॥

लोहितो लोहिताक्षश्च सामगानां कृपाकर:।
धरात्मज: कुजो भौमो भूतिदो भूमिनन्दन: ॥२॥

अङ्गारको यमश्चैव सर्वरोगापहारक:।
वृष्टे: कर्ताऽपहर्ता च सर्वकामफलप्रद: ॥३॥

एतानि कुजनामानि नित्यं य: श्रद्धया पठेत्।
ऋणं न जायते तस्य धनं शीघ्रमवाप्नुयात् ॥४॥

धरणीगर्भसम्भूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम्।
कुमारं शक्तिहस्तं च मङ्गलं प्रणमाम्यहम् ॥५॥

स्तोत्रमङ्गारकस्यैतत्पठनीयं सदा नृभि:।
न तेषां भौमजा पीडा स्वल्पापि भवति क्वचित् ॥६॥

अङ्गारक महाभाग भगवन् भक्तवत्सल।
त्वां नमामि ममाशेषमृणमाशु विनाशय: ॥७॥

ऋणरोगादिदारिद्रयं ये चान्ये चापमृत्यव:।
भयक्लेशमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा ॥८॥

अतिवक्रदुरारा भोगमुक्तजितात्मन:।
तुष्टो ददासि साम्राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ॥९॥

विरञ्चि शक्रविष्णूनां मनुष्याणां तु का कथा।
तेन त्वं सर्वसत्वेन ग्रहराजो महाबल: ॥१०॥

पुत्रान्देहि धनं देहि त्वामस्मि शरणं गत:।
ऋणदारिद्रयदु:खेन शत्रुणां च भयात्तत: ॥११॥

एभिर्द्वादशभि: श्लोकैर्य: स्तौति च धरासुतम्।
महतीं श्रियमाप्नोति ह्यपरो धनदो युवा ॥१२॥

॥इति श्रीस्कन्दपुराणे भार्गवप्रोक्तं ऋणमोचन मंगल स्तोत्रम् सम्पूर्णम्॥

नाग स्तोत्र

॥नाग स्तोत्रम्॥
ब्रह्म लोके च ये सर्पाः शेषनागाः पुरोगमाः।
नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥१॥
विष्णु लोके च ये सर्पाः वासुकि प्रमुखाश्चये।
नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥२॥
रुद्र लोके च ये सर्पाः तक्षकः प्रमुखास्तथा।
नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥३॥
खाण्डवस्य तथा दाहे स्वर्गन्च ये च समाश्रिताः।
नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥४॥
सर्प सत्रे च ये सर्पाः अस्थिकेनाभि रक्षिताः।
नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥५॥
प्रलये चैव ये सर्पाः कार्कोट प्रमुखाश्चये।
नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥६॥
धर्म लोके च ये सर्पाः वैतरण्यां समाश्रिताः।
नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥७॥
ये सर्पाः पर्वत येषु धारि सन्धिषु संस्थिताः।
नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥८॥
ग्रामे वा यदि वारण्ये ये सर्पाः प्रचरन्ति च।
नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥९॥
पृथिव्याम् चैव ये सर्पाः ये सर्पाः बिल संस्थिताः।
नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥१०॥
रसातले च ये सर्पाः अनन्तादि महाबलाः।
नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा॥११॥
॥इति नाग स्तोत्रम् संपूर्णं॥

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...