जब हम पचास वर्ष के होँगे तब जरासंध(काल) हमारी मथुरा नगरी(शरीर) पर आक्रमण करेगा । जरासंध वृद्धावस्था है । हमारी उत्तरावस्था ही जरासंध है जो शरीर के कई अंगो पर धावा बोल देती है ।
पचास वर्ष पूरे होने पर जरासंध आता है जीवन का पूर्वार्ध समाप्त हुआ और अब उत्तरार्ध आया है वृद्धावस्था शुरु हो रही है । जरासंध के आक्रमण से मथुरा का गढ़ टूटने लगता है , आँखो की , कानो की , हाथ पाँव की शक्ति क्षीण होती है ।
श्रीकृष्ण ने जरासंध को सत्तरह बार हराया तो वह अठारहवीँ बार कालयवन को लेकर आया । उसने काल को पहले भेजा ।
जब जरासंध (वृद्धावस्था ) अपने साथ कालयवन (काल) को भी लेकर आता है तब बचना आसान नहीँ है । जरासंध और कालयवन एक साथ आ धमके तो श्रीकृष्ण को मथुरा को छोड़कर द्वारिका जाना पड़ा ।
द्वारिका अर्थात् ब्रह्मविद्या । द्वारिका ब्रह्म धस्या सा ब्रह्मविद्या अर्थात् श्रीकृष्ण ने ब्रह्मविद्या का आश्रय लिया ।
मथुरा (मानव काया) छोड़कर ब्रह्मविद्या का आश्रय भगवान को भी लेना पड़ा । जब वृद्धावस्था अपने साथ काल को भी ले आये तब द्वारिका (ब्रह्म विद्या ) का आश्रय लेना चाहिए । ब्रह्मविद्या (द्वारिका) के द्वार काल और जरासंध के लिए खुल नहीँ सकते ।
जरासंध का त्रास अर्थात् जन्म मृत्यु का त्रास । जन्म लिया तो जरा और मृत्यु की व्यवस्था सहनी ही पड़ेगी ।
नरक क्या है ? शंकर स्वामी कहते है कि यह शरीर ही नरकवास है । जन्म धारण करना ही नरकवास है । किसी भी समय गर्भवास न करना पड़े ऐसा प्रयत्न करना चाहिए।
भगवान की प्रेरणा के कारण कुछ महापुरुष भगवान के कार्यो के लिए जन्म लेते हैँ वह उत्तम है । वासना के बंधनोँ के कारण जन्म लेना नरकवास है . जरासंध और कालयवन के धक्के खाते हुए मथुरा (शरीर) छोड़ना की अपेक्षा समझ बूझकर छोड़ना अधिक अच्छा है । प्रवृत्ति हमेँ छोड़ सके इससे पहले हम ही उसे क्यो न छोड़ देँ ।
भगवान ने विश्वकर्मा को द्वारिका नगरी के निर्माण का आदेश दिया । कहते हैँ कि वहाँ के महल इतने बड़े थे कि लोँगो को द्वार ढूढ़ने पड़ते थे । द्वार कहाँ है ऐसा बार बार पूछा जाने के कारण ही इस नगरी का नाम द्वारिका पड़ा । का अर्थात ब्रह्म । उपनिषद के अनुसार "क" ब्रह्म सूचक है । जहाँ प्रत्येक द्वार पर परमात्मा का वास है वह नगरी द्वारिका है । जिस शरीर रुपी नगरी के इन्द्रियो रुपी द्वारो पर परमात्मा को स्थान दिया जायेगा तो जरासंध और कालयवन सता नहीँ पायेँगे । द्वारिका मेँ ये दोनो घुस नही सकते । प्रत्येक इन्द्रिय से भक्ति करने वाला जीव कालयवन पर विजय पाता है ।
यदि जरासंध पीछा करे तो प्रवर्षण पर निवास करना चाहिए । प्रवर्षण अर्थात् जहाँ ज्ञान और भक्ति की मूसलाधार वर्षा हो रही हो वह स्थान । जहाँ कथा श्रवण का लाभ मिले , भक्ति रस की धारा बहती रहे वहाँ चलना चाहिए ।
इक्यावन बावन वर्ष की वय होते ही गृहस्थाश्रम के लिए हम योग्य नही रह सकते ।
इक्या वन-बा वन अर्थात् वन मे प्रवेश का समय आ गया अब घर की आसक्ति त्याग करना है । विलासी लोगो के बीच विरक्त जीवन जीना आसान नहीँ है । जहाँ भक्ति और ज्ञान की सतत वर्षा हो रही हो वैसी पवित्र भूमि मे बसकर ही जरासंध से पीछा छुड़ा सकते हैँ ।।।
Radhe Radhe
पचास वर्ष पूरे होने पर जरासंध आता है जीवन का पूर्वार्ध समाप्त हुआ और अब उत्तरार्ध आया है वृद्धावस्था शुरु हो रही है । जरासंध के आक्रमण से मथुरा का गढ़ टूटने लगता है , आँखो की , कानो की , हाथ पाँव की शक्ति क्षीण होती है ।
श्रीकृष्ण ने जरासंध को सत्तरह बार हराया तो वह अठारहवीँ बार कालयवन को लेकर आया । उसने काल को पहले भेजा ।
जब जरासंध (वृद्धावस्था ) अपने साथ कालयवन (काल) को भी लेकर आता है तब बचना आसान नहीँ है । जरासंध और कालयवन एक साथ आ धमके तो श्रीकृष्ण को मथुरा को छोड़कर द्वारिका जाना पड़ा ।
द्वारिका अर्थात् ब्रह्मविद्या । द्वारिका ब्रह्म धस्या सा ब्रह्मविद्या अर्थात् श्रीकृष्ण ने ब्रह्मविद्या का आश्रय लिया ।
मथुरा (मानव काया) छोड़कर ब्रह्मविद्या का आश्रय भगवान को भी लेना पड़ा । जब वृद्धावस्था अपने साथ काल को भी ले आये तब द्वारिका (ब्रह्म विद्या ) का आश्रय लेना चाहिए । ब्रह्मविद्या (द्वारिका) के द्वार काल और जरासंध के लिए खुल नहीँ सकते ।
जरासंध का त्रास अर्थात् जन्म मृत्यु का त्रास । जन्म लिया तो जरा और मृत्यु की व्यवस्था सहनी ही पड़ेगी ।
नरक क्या है ? शंकर स्वामी कहते है कि यह शरीर ही नरकवास है । जन्म धारण करना ही नरकवास है । किसी भी समय गर्भवास न करना पड़े ऐसा प्रयत्न करना चाहिए।
भगवान की प्रेरणा के कारण कुछ महापुरुष भगवान के कार्यो के लिए जन्म लेते हैँ वह उत्तम है । वासना के बंधनोँ के कारण जन्म लेना नरकवास है . जरासंध और कालयवन के धक्के खाते हुए मथुरा (शरीर) छोड़ना की अपेक्षा समझ बूझकर छोड़ना अधिक अच्छा है । प्रवृत्ति हमेँ छोड़ सके इससे पहले हम ही उसे क्यो न छोड़ देँ ।
भगवान ने विश्वकर्मा को द्वारिका नगरी के निर्माण का आदेश दिया । कहते हैँ कि वहाँ के महल इतने बड़े थे कि लोँगो को द्वार ढूढ़ने पड़ते थे । द्वार कहाँ है ऐसा बार बार पूछा जाने के कारण ही इस नगरी का नाम द्वारिका पड़ा । का अर्थात ब्रह्म । उपनिषद के अनुसार "क" ब्रह्म सूचक है । जहाँ प्रत्येक द्वार पर परमात्मा का वास है वह नगरी द्वारिका है । जिस शरीर रुपी नगरी के इन्द्रियो रुपी द्वारो पर परमात्मा को स्थान दिया जायेगा तो जरासंध और कालयवन सता नहीँ पायेँगे । द्वारिका मेँ ये दोनो घुस नही सकते । प्रत्येक इन्द्रिय से भक्ति करने वाला जीव कालयवन पर विजय पाता है ।
यदि जरासंध पीछा करे तो प्रवर्षण पर निवास करना चाहिए । प्रवर्षण अर्थात् जहाँ ज्ञान और भक्ति की मूसलाधार वर्षा हो रही हो वह स्थान । जहाँ कथा श्रवण का लाभ मिले , भक्ति रस की धारा बहती रहे वहाँ चलना चाहिए ।
इक्यावन बावन वर्ष की वय होते ही गृहस्थाश्रम के लिए हम योग्य नही रह सकते ।
इक्या वन-बा वन अर्थात् वन मे प्रवेश का समय आ गया अब घर की आसक्ति त्याग करना है । विलासी लोगो के बीच विरक्त जीवन जीना आसान नहीँ है । जहाँ भक्ति और ज्ञान की सतत वर्षा हो रही हो वैसी पवित्र भूमि मे बसकर ही जरासंध से पीछा छुड़ा सकते हैँ ।।।
Radhe Radhe
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