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तिरुपति बालाजी

 "तिरुपति बालाजी"

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 "कर्ज में डूबे भगवान"

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           एक बार भृगु ऋषि ने जानना चाहा कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कौन सबसे श्रेष्ठ है ? वह बारी-बारी से सबके पास गये। ब्रह्मा और महेश ने भृगु को पहचाना तक नही, न ही आदर किया। इसके बाद भृगु विष्णु के यहाँँ गये। विष्णु भगवान विश्राम कर रहे थे और माता लक्ष्मी उनके पैर दबा रही थी। भृगु ने पहुँचते ही न कुछ कहा, न सुना और भगवान विष्णु की छाती पर पैर से प्रहार कर दिया। लक्ष्मी जी यह सब देखकर चकित रह गयी किन्तु विष्णु भगवान ने भृगु का पैर पकडकर विनीत भाव से कहा ”मुनिवर ! आपके कोमल पैर में चोट लगी होगी। इसके लिए क्षमा करें।“


           लक्ष्मी जी को भगवान विष्णु की इस विन्रमता पर बड़ा क्रोध आया। वह भगवान विष्णु से नाराज होकर भू-लोक में आ गयीं तथा कोल्हापुर में रहने लगीं। लक्ष्मी जी के चले जाने से विष्णु भगवान को लगा कि उनका श्री और वैभव ही नष्ट हो गया और उनका मन बड़ा अशान्त रहने लगा। लक्ष्मी जी को ढूँढ़ने के लिए वह श्रीनिवास के नाम से भू-लोक आये। घूमते घुमाते वेंकटचल पर्वत क्षेत्र में बकुलामाई के आश्रम में पहुँचे। बकुलामाई ने उनकी बड़ी आवाभगत की। उन्हें आश्रम में ही रहने को कहा।


           एक दिन जंगल में एक मतवाला हाथी आ गया। आश्रमवासी डरकर इधर उधर भागने लगे। श्री निवास ने यह देखा तो धनुष बाण लेकर हाथी का पीछा किया। हाथी डरकर भागा और घने जंगल में अदृश्य हो गया। श्री निवास उसका पीछा करते-करते थक गये थे। वह एक सरोवर के किनारे वृक्ष की छाया में लेट गये और उन्हें हल्की सी झपकी आ गयी। थोड़ी देर में शोर सुनकर वह जागे तो देखा कि चार-छ युवतियाँ उन्हें घेरे खडी है। श्रीनिवास को जागा हुआ देखकर वे डपटकर बोली, “यह हमारी राजकुमारी पद्मावती का सुरक्षित उपवन है और यहाँँ पुरुषों का आना मना है। तुम यहाँ कैसे और क्यों आये हो ?”


           श्रीनिवास कुछ जवाब दे इससे पहले ही उनकी दृष्टि वृक्ष की ओट से झांकती राजकुमारी की ओर गयी। श्रीनिवास पद्मावती को एकटक देखते रह गये। थोडा संयत होकर कहा, “देवियों ! मुझे पता नही था, मैं शिकार का पीछा करता हुआ यहाँँ आया था। थक जाने पर मुझे नींद आ गयी इसलिए क्षमा करें।“ श्रीनिवास आश्रम में तो लौट आये किन्तु बड़े उदास रहने लगे। एक दिन बकुलामाई ने बड़े प्यार से उनकी उदासी का कारण पूछा तो श्रीनिवास ने पद्मावती से भेंट होने की सारी कहानी कह सुनाई फिर कहा, “उसके बिना मै नही रह सकता।“


           बकुलामाई बोली, “ऐसा सपना मत देखो। कहाँ वह प्रतापी चोल नरेश आकाशराज की बेटी और कहाँ तुम आश्रम में पलने वाले एक कुल गोत्रहीन युवक।” श्रीनिवास बोले, “माँ ! एक उपाय है तुम मेरा साथ दो तो सब सम्भव है।“ बकुलामाई ने श्रीनिवास का सच्चा प्यार देखकर हाँ कर दी। श्रीनिवास ज्योतिष जानने वाली औरत का वेश बनाकर राजा आकाश की राजधानी नारायणपुर पहुँचे। उसकी चर्चा सुन पद्मावती ने भी उस औरत को महल बुलाकर अपना हाथ दिखाया।


           राजकुमारी के हस्त रेखा देखकर वह बोली, “राजकुमारी ! कुछ दिन पहले तुम्हारी भेंट तुम्हारे सुरक्षित उद्यान में किसी युवक से हुयी थी। तुम दोनों की दृष्टि मिली थी। उसी युवक से तुम्हारी शादी का योग बनता है।” पद्मावती की माँ धरणा देवी ने पूछा, “यह कैसे हो सकता है ?” ज्योतिषी औरत बोली, “ऐसा ही योग है। ग्रह कहते है कोई औरत अपने बेटे के लिए आपकी बेटी माँगने स्वयं आयेगी।”


           दो दिन बाद सचमुच ही बकुलामाई एक तपस्विनी के वेश में राजमहल आयी। उसने अपने युवा बेटे के साथ पद्मावती के विवाह की चर्चा की। राजा आकाश में बकुलामाई को पहचान लिया। उन्होंने पूछा “वह युवक है कौन ?” बकुलामाई बोली, “उसका नाम श्री निवास है। वह चन्द्र वंश में पैदा हुआ है। मेरे आश्रम में रह रहा है। मुझे माँ की तरह मानता है।”


           राजा आकाश ने कुछ सोचकर उत्तर देने के लिए कहा। बकुलामाई के चले जाने पर आकाश ने राज पुरोहित को बुलाकर सारी बात बताई। राज पुरोहित ने गणना की। फिर सहमति देते हुए कहा, ”महाराज ! श्रीनिवास में विष्णु जैसा देवगुण है लक्ष्मी जैसी आपकी बेटी के लिए यह बड़ा सुयोग्य है।”


           राजा आकाश ने तुरन्त बकुलामाई के यहाँ अपनी स्वीकृति के साथ विवाह की लग्न पत्रिका भेज दी। बकुलामाई ने सुना तो वह चिंतित हो उठी। श्री निवास से बोली, “बेटा ! अब तक तो विवाह की ही चिंता थी। अब पैसे न होने की चिंता है। मैं वराहस्वामी के पास जाती हूँ। उनसे पूछती हूँ कि क्या किया जाए ?”


           बकुलामाई श्रीनिवास को लेकर वराहस्वामी के पास गयी और श्रीनिवास के विवाह के लिए धन की समस्या बताई तो वराह स्वामी ने आठों दिग्पालों, इन्द्र, कुबेर, ब्रह्मा, शंकर आदि देवताओ को अपने आश्रम में बुलवाया और फिर श्रीनिवास को बुलाकर कहा, “तुम स्वयं इन्हें अपनी समस्या बताओ।”


           श्रीनिवास ने देवताओ से कहा, “मैं चोल नरेश राजा आकाश की बेटी पद्मावती से विवाह करना चाहता हूँ। मेरी हैसियत राजा के अनुरूप नही है मेरे पास धन नही है, मै क्या करूँ ?”


           इन्द्र ने कुबेर से कहा, “कुबेर ! इस काम के लिए तुम श्रीनिवासन को ऋण दे दो।” कुबेर ने कहा, “ऋण तो दे दूँगा पर उसे यह वापस कब और कैसे करेंगे, इसका निर्णय होना चाहिये ?” श्रीनिवास बोले, “इसकी चिन्ता मत कीजिये। कलियुग के अन्त तक मैं सब ऋण चुका दूँगा।”


           कुबेर ने स्वीकार कर लिया। सब देवताओं की साक्षी में श्रीनिवास के ऋण पत्र लिख दिया। उस धन से श्री निवास और पद्मावती का विवाह बड़ी धूमधाम से हुआ। तभी नारद ने कोल्हापुर जाकर लक्ष्मी को बताया, “विष्णु ने श्रीनिवास के रूप में पद्मावती से विवाह कर लिया है। दोनों वेंकटाचलम् पर्वत पर रह रहे हैं।”


           यह सुनकर लक्ष्मी जी को बड़ा दुःख हुआ। वह सीधे वेंकटाचलम पहुँची। विष्णु जी की सेवा में लगी पद्मावती को भला बुरा कहने लगी, “श्रीनिवास ! विष्णु रूप मेरे पति हैं। तूने इनके साथ विवाह क्यों किया ?”


           दोनों ने वाक् युद्ध होने लगा तो श्री निवास को बड़ा दुःख हुआ। वे पीछे हटे और पत्थर की मूर्ति के रूप में बदल गये। जब दोनों देवियों ने यह देखा तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ कि श्रीनिवास तो अब किसी के न रहे।


           इतने में शिला विग्रह से आवाज आयी, “देवियों मै इस स्थान पर वेंकटेश्वर स्वामी के नाम से, अपने भक्तों का अभीष्ट पूरा करता रहूँगा। उनसे प्राप्त चढावे के धन द्वारा कुबेर के कर्ज का ब्याज चुकाता रहूँगा इसलिए तुम दोनों मेरे लिए आपस में झगड़ा मत करो।”


           यह वाणी सुनते ही लक्ष्मी जी और पद्मावती दोनों ने सिर झुका लिया। लक्ष्मी कोल्हापुर आकर महालक्ष्मी के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी और पद्मावती तिरुनाचुर में शिला विग्रह हो गयी। आज भी तिरुपति क्षेत्र में तिरुमला पहाडी पर भगवान वेंकटेश्वर स्वामी के दर्शन हेतु भक्तगणों से इसी भाव से शुल्क लिया जाता है। उनकी पूजा पुष्प मिष्टान आदि से न होकर धन द्रव्य से होती है। इसी धन से भगवान श्री कृष्ण वेंकटेश्वर स्वामी कुबेर का कर्ज चुका रहे है।                    


                    "जय जय श्री राधे"

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