*कन्या के पिता से धन लेकर विवाह करनेवाले को "कर्मचण्डाल" कहते हैं।*
*स्कन्दपुराण के, रेवाखण्ड के,50 वें ,अध्याय के, 30 वें,33 वें 34 वें और 35 वें श्लोक में,कन्यादान के महत्त्व के साथ साथ, कन्यादान के साथ साथ,कन्या के पिता से धन की याचना करनेवाले की "कर्मचण्डाल" संज्ञा देते हुए, उनके यहां भोजन करने तक का निषेध करते हुए, भगवान शिव ने, महाराज उत्तानपाद से कहा कि -*
*सर्वेषामेव दानानां,कन्यादानं विशिष्यते।*
*यो दद्यात् परया भक्त्याभिगम्य तनयां निजाम्।।30।।*
*भगवान शिव ने कहा कि - हे राजन्! किसी धर्मात्मा का सत्कर्म करते रहना,दान देना, परोपकार करना आदि परमधर्म है।*
*धर्म पालन के कारण ही तो, मनुष्य को "धर्मात्मा,धर्मज्ञ, धर्मपालक" आदि शब्दों से उसके गुणों को जाना जाता है।*
*सर्वेषामेव दानानां कन्यादानं विशिष्यते।*
सभी प्रकार के दानों में, कन्यादान, विशिष्ट दान है। कन्यादान से ही,कुल गोत्र की रक्षा होती है। कुल वृद्धि होती है। माता पिता के पुत्र उत्पत्ति की सार्थकता होती है। यदि किसी गृहस्थ के, पुत्र का विवाह ही नहीं हो,उसको कोई कन्यादान ही न करे, तो उस वंश का उच्छेदन हो जाता है।
वंश की समाप्ति से रक्षा करनेवाला,कन्यापिता, श्रेष्ठ होता है। पुत्र के पिता से,कन्या पिता श्रेष्ठ होता है। क्यों कि - दान देनेवाला ही श्रेष्ठ होता है। दानग्रहीता पुरुष, श्रेष्ठ नहीं होता है।
कन्या के पिता को,कुलीन,सुशील,समान आयु वाले,गुणवाले, बुद्धिमान व्यक्ति को,अच्छे लग्न मुहूर्त में,कन्या दान करना चाहिए।
*यो दद्यात् परया भक्त्याभिगम्य तनयां निजाम्।।*
कन्या के पिता को,ऐसी भावना करना चाहिए कि - भगवान ने,किसी अच्छे कुलीन वंश की रक्षा के लिए,मुझे कन्या प्रदान की है। ऐसी परा भक्ति से युक्त होकर कन्यादान करना चाहिए।
अब 33 वें श्लोक में, *"कन्यादान"* का माहात्म्य देखिए!
*येनात्र दुहिता दत्ता प्राणेभ्योऽपि गरीयसी।*
*तेन सर्वमिदं दत्तं त्रैलोक्यं सचराचरम्।।33।।*
भगवान शिव ने कहा कि - हे उत्तानपाद! कन्या का पिता,जब अपनी प्राणों से भी अधिक प्रियतमा कन्या का दान,किसी पुरुष को करता है,तो उसने क्या दान नहीं कर दिया।
*अर्थात - सर्वस्व दान कर दिया।*
*"प्राणेभ्योऽपि गरीयसी" अर्थात प्राणों से भी अधिक,गरीयसी अर्थात प्रिय।*
माता पिता के यहां,जब कन्या का जन्म होता है तो,पिता को,कन्या ही, पुत्र से अधिक प्रिय होती है।
*कन्यादान लेनेवाले, पुरुष को,कन्या के माता पिता की इस सद्भावना को समझना चाहिए।*
*तेन सर्वमिदं दत्तम्।*
****************
जिन माता पिता ने, कन्यादान किया है,समझिए कि - *उसने "सर्वं दत्तम्",* सबकुछ दान कर दिया है। सर्वस्वदान ही कन्यादान है,तथा कन्यादान ही सर्वदान है।
*त्रैलोक्यं सचराचरम्।*
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जो शरीरधारी हैं,उनको चर शब्द से कहा जाता। वस्तुओं को अचर कहा जाता है। जिसने अपनी कन्या का दान किया है,समझिए कि - उसने तीनों लोकों का सम्पूर्ण दान कर दिया है।
अति आत्मीयता से पालित पोषित,शील,सदाचार आदि गुणों से युक्त कन्या का दान सर्वस्वदान है।
माता पिता,कन्या के धर्म और शरीर, दोनों के सतर्क प्रहरी हैं। शिक्षा और सद्गुणों के दाता गुरु हैं। जन्मदाता पालक जनक हैं।
*कन्यादान गृहीता पुरुष को,कन्यापिता की सद्भावना का, तथा उनकी आत्मीयता का, और कन्यादान के महत्त्व का आत्मबोध करना चाहिए।*
जो पुरुष,कन्या के माता पिता की, सेवा भावना को नहीं समझते हैं,तथा कन्यादान का माहात्म्य नहीं समझते हैं,ऐसे लोभी स्त्री पुरुषों की निंदा करते हुए, उनको दोषयुक्त बताते हुए, 34 वें श्लोक भगवान शिव ने कहा कि -
*य:कन्यार्थं धनं लब्ध्वा भिक्षते चैव तद्धनम्।*
*स भवेत् कर्मचाण्डाल:काष्ठकीलो भवेन्मृत:।34।।*
भगवान शिव ने कहा कि - हे राजन! जो पुरुष,या पुरुष के माता पिता,कन्या के साथ साथ, कन्या के पिता से,धन की याचना करते हैं,उनको "कर्मचण्डाल" शब्द से कहा जाता है।
*भिक्षते चैव तद्धनम्।।*
*भिक्षते अर्थात मांगता है। याचना करता है।*
पुरुष या पुरुष के माता पिता,जब किसी कन्या के पिता से कहते हैं कि - *"इतना धन देंगे,तो हम विवाह करेंगे"* ऐसा कहनेवाले को *"भिक्षुक"* शब्द से कहना चाहिए था।
*किन्तु,वह तो भिक्षुक से भी पतित व्यक्ति है।*
इसीलिए, भगवान शिव ने कहा कि -
*स भवेत् कर्मचाण्डाल:।*
*कन्या के पिता से धन लेकर,कन्या को स्वीकार करनेवाला"कर्मचण्डाल" कहा जाता है।*
*जिस व्यक्ति के किए गए,किसी भी कर्म को,देवता और पितरगण, स्वीकार नहीं करते हैं,ऐसे व्यक्ति को* *"कर्मचण्डाल* शब्द से कहा जाता है।
धन लेकर कन्यादान स्वीकार करनेवाले परिवार के द्वारा किए गए,किसी भी श्राद्ध ,यज्ञ, दान, तप, हवन आदि सत्कर्म को देवता और पितर ग्रहण नहीं करते हैं। ये बहुत अधिक दोष है।
अब 35 वें श्लोक में, आचार्यों को भी ऐसे गृहस्थों के यहां भोजन का निषेध करते हुए भगवान शिव ने कहा कि -
*गृहेऽपि तस्य योऽश्नीयात् जिह्वालौल्यात् कथञ्चन।*
*चान्द्रायणेन शुद्ध्येत तप्तकृच्छ्रेण वा पुनः।।35।।*
*गृहेऽपि तस्य योऽश्नीयात्।*
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धन लेकर कन्या लेनेवाले घर में आचार्यो को भोजन नहीं करना चाहिए। *यदि, कोई व्यक्ति या आचार्य भोजन कर भी लेता है तो, उनका धनदोष का फल, भोजन करनेवाले को भी भोगना पड़ता है।*
*जिह्वा लौल्यात् कथञ्चन।*
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*कथंचन अर्थात यदि कभी जैसे तैसे।* *जिह्वालौल्यात् अर्थात जिह्वा के चंचलता के कारण,* स्वादिष्ट भोजन के लोभ से भी कोई,इनके यहां भोजन कर लेता है तो,उसको प्रायश्चित्त करना चाहिए। क्या प्रायश्चित्त है, तो सुनिए!
*चान्द्रायणेन शुद्ध्येत।।*
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*जो सभी व्रतों में अतिक्लिष्ट चांद्रायण व्रत है। इस व्रत करके ही भोजन करनेवाला, शुद्ध होता है।*
यदि चांद्रायण व्रत नहीं कर सकते हैं तो ---
*तप्तकृच्छ्रेण वा पुनः!*
*भोजन करनेवाले को "तप्तकृच्छ्र" अर्थात घोर तप जप करना होगा,तब भोजनकर्ता शुद्ध होगा।*
*कर्मचण्डाल का अन्न खानेवाले के पितर और देवता भी पूजा श्राद्ध आदि स्वीकार नहीं करते हैं।*
आजकल, स्त्री पुरुष पूछते हैं कि - हमारी पूजा उपासना का फल क्यों नहीं मिलता है? अरे भाई! अपने दोषों को तो देखिए! कोई न कोई अवश्य ही दोष होगा। निज दोषों के कारण ही, सत्कर्म का फल प्राप्त नहीं होता है। मंत्र और विधि, शास्त्र वेद पुराण असत्य नहीं होते हैं। न ही इनमें कोई दोष हैं।
*मनुष्य,अपने दोषों के कारण ही दुखी होता है। अधिक लोभ, अधिक मोह,तथा अधिक काम क्रोध ही तो दुखदायी हैं।*
*धर्म से ही इन दोषों का नियन्त्रण होता है। अन्य कोई उपाय नहीं है।*
*दहेज लेना तो,कन्या के भ्राता का अंश तथा कन्या के माता पिता का अंश लेना है।*
*दहेज लोभी लोग कन्या के पिता से इतना अधिक धन ले लेते हैं कि - उसके शेष पुत्र पुत्री की व्यवस्था में अव्यवस्था हो जाती है। किसी को कष्ट देकर धन लेनेवाले सुखी कैसे हो सकते हैं!*
प्रतिलिपी💐
नारायण
🪷🌷🪷
🚩 हर हर महादेव 🚩
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