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Jagadguru Shri Rambhadracharya in court in ayodhya matter

तुलसीदासजी द्वारा बाबरी मस्जिद का वर्णन ! एक तर्क हमेशा दिया जाता है कि अगर बाबर ने राम मंदिर तोड़ा होता तो यह कैसे सम्भव होता कि महान रामभक्त और राम चरित मानस के रचइता गोस्वामी  तुलसीदास इसका वर्णन पाने इस ग्रन्थ में नहीं करते। ये बात सही है कि राम चरित मानस में गोस्वामी जी ने मंदिर विध्वंस और बाबरी मस्जिद का कोई वर्णन नहीं किया है। हमारे वामपंथी इतिहासकारों ने इसको खूब प्रचारित किया और जन मानस में यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि कोई मंदिर टूटा ही नहीं था अरु यह सब मिथ्या है। यह प्रश्न इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष भी था। इलाहाबाद उच्च नयायालय में जब बहस शुरू हुयी तो श्री रामभद्राचार्य जी को Indian Evidence Act के अंतर्गत एक expert witness के तौर पर बुलाया गया और इस सवाल का उत्तर पूछा गया। उन्होंने कहा कि यह सही है कि श्री राम चरित मानस में इस घटना का वर्णन नहीं है लेकिन तुलसीदास जी ने इसका वर्णन अपनी अन्य कृति 'तुलसी शतक' में किया है जो कि श्री राम चरित मानस से कम प्रचलित है। अतः यह गलत है कि तुलसी दास जो कि बाबर के समकालीन भी थे,ने इस घटना का वर्णन नहीं किया है

Mata ji ke 32name

दुर्गा माँ के 32 नाम स्तोत्र का (प्रयोग) स्तोत्र : ऊँ  दुर्गा दुर्गतिशमनी दुर्गाद्विनिवारिणी दुर्गमच्छेदनी  दुर्गसाधिनी  दुर्गनाशिनी दुर्गतोद्धारिणी दुर्गनिहन्त्री दुर्गमापहा  दुर्गमज्ञानदा  दुर्गदैत्यलोकदवानला दुर्गमा दुर्गमालोका  दुर्गमात्मस्वरुपिणी  दुर्गमार्गप्रदा दुर्गम विद्या दुर्गमाश्रिता  दुर्गमज्ञान संस्थाना  दुर्गमध्यान भासिनी दुर्गमोहा दुर्गमगा  दुर्गमार्थस्वरुपिणी दुर्गमासुर  संहंत्रि दुर्गमायुध धारिणी दुर्गमांगी  दुर्गमता दुर्गम्या दुर्गमेश्वरी  दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्गमो दुर्गदारिणी  नामावलिमिमां यस्तु दुर्गाया मम  मानवः पठेत् सर्वभयान्मुक्तो भविष्यति न  संशयः। विधान : पहले एक पाठ कीजिये,अब दूसरा पाठ दुसरे नाम से आरम्भ कीजिये और पहले नाम पर समाप्त कीजिये, तीसरा पाठ तीसरे नाम से प्रारंभ करके दुसरे पर समाप्त कीजिये, ऐसे ही क्रम से पाठ करते जाइये, अर्थात बत्तीसवा पाठ बत्तीसवे नाम से प्रारंभ होकर इक्तीसवे नाम पर समाप्त हो जायेगा, इस प्रकार ये क्रम सृष्टी स्थिति और संहार क्रम से स्वतः ही हो जायेगा, प्रत्येक पाठ पर लाजा (खील) को गाय के घी मैं मिलकर सम्मुख अग्नि मैं

कीवी फल के फ़ायदे

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कीवी फल के फ़ायदे Kiwi fruit benefits in hindi रोग प्रतिरोधी क्षमता – विटामिन ई और एंटी ऑक्सीडेंट्स की मात्रा कीवी में ज्यादा होने के कारण इस से रोग प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाती है। शारीरिक कमजोरी को दूर कर के दिन भर की थकान को मिटाने का भी एक अद्भुत इलाज है कीवी और साथ ही ये स्फूर्ति बनाए रखता है, इसलिए इसे नाश्ते में ओट्स इत्यादि के साथ खाना लाभदायी होता है। विटामिन सी से भरपूर कीवी हमारे शरीर की आयरन सोखने में मदद करता है और यही कारण है कि अनीमिया के मरीजों के लिए कीवी एक उत्तम फल है। अनिद्रा के लिए कीवी बड़ी ही काम की चीज़ है क्यूंकि इस में मौजूद सेरोटिनिन आपको तनाव दूर कर के अच्छी नींद लाने में सहायक है। गर्भावस्था में फायदेमंद (Kiwi fruit in pregnancy) -कीवी जैसा अद्भुत फल गर्भवती महिलाओं के लिए वरदान से कम नहीं है, क्यूंकि गर्भावस्था में ज़रूरी तत्व फोलिक एसिड भी कीवी में पाया जाता है, ऐसा कहा जाता है कि  माता द्वारा गर्भावस्था में कीवी के सेवन से बच्चे के दिमाग़ के विकास में बहुत फायदा मिल सकता है। ह्रदय रोग में लाभ – कीवी में मौजूद फाइबर और पोटैशियम दिल की बीमारियों को हमसे दूर र

MADHURASHTAKAM

अधरं मधुरं वदनं मधुरं, नयनं मधुरं हसितं मधुरम्। हृदयं मधुरं गमनं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥१॥  भावार्थ :  हे भगवान श्रीकृष्ण! आपके होंठ मधुर हैं, आपका मुख मधुर है, आपकी ऑंखें मधुर हैं, आपकी मुस्कान मधुर है, आपका हृदय मधुर है, आपकी चाल मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥१॥  वचनं मधुरं चरितं मधुरं, वसनं मधुरं वलितं मधुरम्। चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥२॥  भावार्थ :  हे भगवान श्रीकृष्ण! आपका बोलना मधुर है, आपका चरित्र मधुर है, आपके वस्त्र मधुर हैं, आपके वलय मधुर हैं, आपका चलना मधुर है, आपका घूमना मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥२॥  वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः, पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ। नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥३॥  भावार्थ :  हे भगवान श्रीकृष्ण! आपकी बांसुरी मधुर है, आपके लगाये हुए पुष्प मधुर हैं, आपके हाथ मधुर हैं, आपके चरण मधुर हैं , आपका नृत्य मधुर है, आपकी मित्रता मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥३॥  गीतं मधुरं पीतं मधुरं, भुक्तं

RADHAKRIPAKATAKSHA

मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी। व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१) भावार्थ : समस्त मुनिगण आपके चरणों की वंदना करते हैं, आप तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली हैं, आप प्रसन्नचित्त प्रफुल्लित मुख कमल वाली हैं, आप धरा पर निकुंज में विलास करने वाली हैं। आप राजा वृषभानु की राजकुमारी हैं, आप ब्रजराज नन्द किशोर श्री कृष्ण की चिरसंगिनी है, हे जगज्जननी श्रीराधे माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१) अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ् कोमले। वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (२) भावार्थ : आप अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए मंदिर में विराजमान हैं, आप सूर्य की प्रचंड अग्नि की लाल ज्वालाओं के समान कोमल चरणों वाली हैं, आप भक्तों को अभीष्ट वरदान, अभय दान देने के लिए सदैव उत्सुक रहने वाली हैं। आप के हाथ सुन्दर कमल के समान हैं, आप अपार ऐश्वर्य की भंङार स्वामिनी हैं, हे सर्वेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ क

लिङ्गाष्टकम्

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||लिङ्गाष्टकम्|| ************ [NOTE::इसके पाठ से रोग और कष्ट का निवारण होता है] ब्रह्ममुरारिसुरार्चितलिङ्गम् निर्मलभासितशोभितलिङ्गम् । जन्मजदुःखविनाशकलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥१॥ देवमुनिप्रवरार्चितलिङ्गम् कामदहम् करुणाकरलिङ्गम् । रावणदर्पविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥२॥ सर्वसुगन्धिसुलेपितलिङ्गम् बुद्धिविवर्धनकारणलिङ्गम् । सिद्धसुरासुरवन्दितलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥३॥ कनकमहामणिभूषितलिङ्गम् फणिपतिवेष्टितशोभितलिङ्गम् । दक्षसुयज्ञविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥४॥ कुङ्कुमचन्दनलेपितलिङ्गम् पङ्कजहारसुशोभितलिङ्गम् । सञ्चितपापविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥५॥ देवगणार्चितसेवितलिङ्गम् भावैर्भक्तिभिरेव च लिङ्गम् । दिनकरकोटिप्रभाकरलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥६॥ अष्टदलोपरिवेष्टितलिङ्गम् सर्वसमुद्भवकारणलिङ्गम् । अष्टदरिद्रविनाशितलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥७॥ सुरगुरुसुरवरपूजितलिङ्गम् सुरवनपुष्पसदार्चितलिङ्गम् । परात्परं परमात्मकलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥८॥ लिङ्गाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत् शिवसन्न

माता सीता बन गई चण्डी

(((((( माता सीता बन गई चण्डी )))))) . भगवान् श्री राम राज सभा में विराज रहे थे उसी समय विभीषण वहां पहुंचे. वे बहुत भयभीत और हडबड़ी में लग रहे थे. सभा में प्रवेश करते ही वे कहने लगे – हे राम ! मुझे बचाइये, कुम्भकर्ण का बेटा मूलकासुर आफत ढा रहा है .अब लगता है न लंका बचेगी और न मेरा राज पाट. . भगवान श्री राम द्वारा ढांढस बंधाये जाने और पूरी बात बताये जाने पर विभीषण ने बताया कि कुम्भकर्ण का एक बेटा मूल नक्षत्र में पैदा हुआ था. इसलिये उस का नाम मूलकासुर रखा गया. इसे अशुभ जान कुंभकर्ण ने जंगल में फिंकवा दिया था. . जंगल में मधुमक्खियों ने मूलकासुर को पाल लिया. मूलकासुर बड़ा हुआ तो उसने कठोर तपस्या कर के ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया, अब उनके दिये वर और बल के घमंड में भयानक उत्पात मचा रखा है. जब जंगल में उसे पता चला कि आपने उसके खानदान का सफाया कर लंका जीत ली और राज पाट मुझे सौंप दिया है वह भन्नाया हुआ है. . भगवन आपने जिस दिन मुझे राज पाट सौंपा उसके कुछ दिन बाद ही वह पाताल वासियों के साथ लंका पहुँच कर मुझ पर धावा बोल दिया. मैंने छः महिने तक मुकाबला किया पर ब्र्ह्मा जी के वरदान ने उसे इतन

दशरथ मोह

🌹🌹जय श्री राम,,,,, फ़्रेंडस🌹🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹((अयोध्याकाण्ड ))🌹🌹🌹🌹🌹🌹 ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~पांचवा संस्करण~~~~~~~ ππππ ™दशरथ-कैकेयी संवाद और दशरथ शोक, सुमन्त्र का महल में जाना और वहाँ से लौटकर श्री रामजी को महल में भेजना_____ ~~~|~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ छन्द: * केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई। मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥ दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई। तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥ भावार्थ:-'हे रानी! किसलिए रूठी हो?' यह कहकर राजा उसे हाथ से स्पर्श करते हैं, तो वह उनके हाथ को (झटककर) हटा देती है और ऐसे देखती है मानो क्रोध में भरी हुई नागिन क्रूर दृष्टि से देख रही हो। दोनों (वरदानों की) वासनाएँ उस नागिन की दो जीभें हैं और दोनों वरदान दाँत हैं, वह काटने के लिए मर्मस्थान देख रही है। तुलसीदासजी कहते हैं कि राजा दशरथ होनहार के वश में होकर इसे (इस प्रकार हाथ झटकने और नागिन की भाँति देखने को) कामदेव की क्रीड़ा ही समझ रहे हैं। सोरठा: * बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचनि पिक

यम नियम

उद्धवजी ने कहा– भगवन! यम और नियम कितने प्रकार के है? *शम क्या है? *तितिक्षा और धैर्य क्या है? *आप मुझे दान, तपस्या, शूरता, सत्य, का भी स्वरुप बताईये? *त्याग क्या है? अभीष्ट धन कौन-सा है? यज्ञ किसे कहते है? *दक्षिणा क्या वस्तु है? पुरुष का सच्चा बल क्या है? लाभ क्या वस्तु है? *पंडित और मूर्ख के लक्षण क्या है ? स्वर्ग और नरक क्या है? *भाई-बंधू किसे मानना चाहिये? और घर क्या है? *धनवान और निर्धन किसे कहते है कृपण कौन है? ईश्वर किसे कहते है? आप मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दीजिए और साथ ही इनके विरोधी भावो की भी व्याख्या कीजिये. भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- यम बारह है- अहिंसा, सत्य, अस्तेय(चोरी न करना), असंगता, लज्जा, असंचय(आवश्यकता से अधिक धन न जोडना), आस्तिकता ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमता, और अभय. नियमों की संख्या भी बारह ही है- शौच(बाहरी और भीतरी पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथिसेवा, मेरी पूजा, तीर्थ यात्रा, परोपकार, की चेष्टा, संतोष, और गुरुसेवा- इस प्रकार यम और नियम दोनो की संख्या बारह-बारह है -ये सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के साधको के लिए उपयोगी है.जो पुरुष इनका पालन

वृषभ अवतार

विष्णु पुत्रों का संहार करने के लिए लिया था भगवन शिव ने वृषभ अवतार समुद्र मंथन के उपरांत जब अमृत कलश उत्पन्न हुआ तो उसे दैत्यों की नजर से बचाने के लिए श्री हरि विष्णु ने अपनी माया से बहुत सारी अप्सराओं की सर्जना की। दैत्य अप्सराओं को देखते ही उन पर मोहित हो गए और उन्हें जबरन उठाकर पाताल लोक ले गए। उन्हें वहां बंधी बना कर अमृत कलश को पाने के लिए वापिस आए तो समस्त देव अमृत का सेवन कर चुके थे। जब दैत्यों को इस घटना का पता चला तो उन्होंने पुन: देवताओं पर चढ़ाई कर दी। लेकिन अमृत पीने से देवता अजर-अमर हो चुके थे। अत: दैत्यों को हार का सामना करना पड़ा। स्वयं को सुरक्षित करने के लिए वह पाताल की ओर भागने लगे। दैत्यों के संहार की मंशा लिए हुए श्री हरि विष्णु उनके पीछे-पीछे पाताल जा पहुंचे और वहां समस्त दैत्यों का विनाश कर दिया। दैत्यों का नाश होते ही अप्सराएं मुक्त हो गई। जब उन्होंने मनमोहिनी मूर्त वाले श्री हरि विष्णु को देखा तो वे उन पर आसक्त हो गई और उन्होंने भगवान शिव से श्री हरि विष्णु को उनका स्वामी बन जाने का वरदान मांगा। अपने भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए भगवान शिव सदैव तत्पर

नरसिंह स्तोत्र

||नरसिंह स्तोत्र|| नरसिंह मंत्र ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् । नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ॥ (हे क्रुद्ध एवं शूर-वीर महाविष्णु, तुम्हारी ज्वाला एवं ताप चतुर्दिक फैली हुई है. हे नरसिंहदेव, तुम्हारा चेहरा सर्वव्यापी है, तुम मृत्यु के भी यम हो और मैं तुम्हारे समक्षा आत्मसमर्पण करता हूँ ।) नरसिंह स्तोत्र देव कार्य सिध्यर्थं, सभा स्थम्भ समुद्भवं, श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. 1 लक्ष्म्यलिङ्गिथ वमन्गं, भक्थानां वर दायकं, श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. 2 आन्त्रमलदरं, संख चरब्जयुधा दरिनं, श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. 3 स्मरन्तः सर्व पपग्नं, खद्रुजा विष नासनं, श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. 4 श्रिम्हनदेनाहथ्, दिग्दन्थि भयानसनं, श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. 5 प्रह्लाद वरदं, स्र्रेसं, दैथ्येस्वर विधरिनं, श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. 6 क्रूरग्रहै पीदिथानं भक्थानं अभय प्रधं, श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. 7 वेद वेदन्थ यग्नेसं, ब्रह्म रुद्रधि वन्धिथं, श्री नृसिंहं महावी

ऑवला एकादशी

फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में आने वाली एकादशी को आमलकी एकादशी कहते हैं। आमलकी यानी आंवला। आंवला को शास्त्रों में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। विष्णु जी ने जब सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा को जन्म दिया, उसी समय उन्होंने आंवले के वृक्ष को जन्म दिया। आंवले को भगवान विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया है। इसके हर अंग में ईश्वर का स्थान माना गया है। ये है आमलकी एकादशी व्रत की कथा मांधाता बोले कि हे वशिष्ठजी! यदि आप मुझ पर कृपा करें तो किसी ऐसे व्रत की कथा कहिए जिससे मेरा कल्याण हो। महर्षि वशिष्ठ बोले कि हे राजन्, सब व्रतों से उत्तम और अंत में मोक्ष देने वाले आमलकी एकादशी के व्रत का मैं वर्णन करता हूं। यह एकादशी फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष में होती है। इस व्रत के करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत का फल एक हजार गौदान के फल के बराबर होता है। अब मैं आपसे एक पौराणिक कथा कहता हूं, आप ध्यानपूर्वक सुनिए। एक वैदिश नाम का नगर था जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण आनंद सहित रहते थे। उस नगर में सदैव वेद ध्वनि गूंजा करती थी तथा पापी, दुराचारी तथा नास्तिक उस नगर मे

ब्राह्मण तब और अब

*ब्राह्मण  को डुबोने वाली तीन-* 1-दारु , 2-दोगङ , 3-दगा *ब्राह्मण  के लिये जरुरी तीन-* 1-सँस्कार , 2- मेहनत , 3-भाईचारा ॥ *ब्राह्मण  को प्रिय तीन-* 1-न्याय , 2-नमन , 3-आदर *ब्राह्मण  को अप्रिय तीन-* 1-अपमान,2- विश्वासघात , 3-अनादर ॥ *ब्राह्मण  को महान बनाने वाले तीन-* 1-शरणागतरक्षक, 2-दयालूता, 3-परोपकार *ब्राह्मण  के लिये अब जरुरी तीन-* 1-एकता , 2-सँस्कार ,3-धर्म पालन   *ब्राह्मण  के लिये छोङने वाली तीन-* 1-बुरी संगत ,2- कुप्रथाएँ ,3- आपसी मनमुटाव ॥ *ब्राह्मण  को जोङने वाली तीन-* 1-गोरवशाली ईतिहास, 2- परम्पराएँ , 3-हमारे आदर्श... अगर आप भी ब्राह्मण  है, तो आगे भेजो। *जय परशुराम  ...हर हर महादेव* *ब्राह्मणो का योगदान -* भारत के क्रान्तिकारियो मे *90% क्रान्तिकारी ब्राह्मण* थे जरा देखो कुछ मशहूर ब्राह्मण क्रान्तिकारियो के नाम  *ब्राह्मण स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी* (१) चंद्रशेखर आजाद (२) सुखदेव (३) विनायक दामोदर सावरकर( वीर सावरकर )  (४) बाल गंगाधर तिलक (५) लाल बहाद्दुर शास्त्री (६) रानी लक्ष्मी बाई (७) डा. राजेन्द्र प्रसाद (८) पण्डित रामप्रसाद बि

संत असंत वन्दना

🌹~संत ,,असंत वन्दना ~🌹~~~~` ≠========================= बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥ बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥ भावार्थ:-अब मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह अंतर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते हैं, तब दारुण दुःख देते हैं। (अर्थात्‌ संतों का बिछुड़ना मरने के समान दुःखदायी होता है और असंतों का मिलना।)॥2॥ *उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥ सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥3॥ भावार्थ:-दोनों (संत और असंत) जगत में एक साथ पैदा होते हैं, पर (एक साथ पैदा होने वाले) कमल और जोंक की तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। (कमल दर्शन और स्पर्श से सुख देता है, किन्तु जोंक शरीर का स्पर्श पाते ही रक्त चूसने लगती है।) साधु अमृत के समान (मृत्यु रूपी संसार से उबारने वाला) और असाधु मदिरा के समान (मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करने वाला) है, दोनों को उत्पन्न करने वाला जगत रूपी अगाध समुद्र एक ही है। (

श्रीरामचरितमानस

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> रामायण के सात काण्ड मानव की उन्नति के सात सोपान < 1 बालकाण्ड - बालक प्रभु को प्रिय है क्योकि उसमेँ छल , कपट , नही होता । विद्या , धन एवं प्रतिष्ठा बढने पर भी जो अपना हृदय निर्दोष निर्विकारी बनाये रखता है , उसी को भगवान प्राप्त होते है। बालक जैसा निर्दोष निर्विकारी दृष्टि रखने पर ही राम के स्वरुप को पहचान सकते है। जीवन मेँ सरलता का आगमन संयम एवं ब्रह्मचर्य से होता है ।बालक की भाँति अपने मान अपमान को भूलने से जीवन मेँ सरलता आती है । बालक के समान निर्मोही एवं निर्विकारी बनने पर शरीर अयोध्या बनेगा । जहाँ युद्ध, वैर ,ईर्ष्या नहीँ है , वही अयोध्या है । 2. अयोध्याकाण्ड - यह काण्ड मनुष्य को निर्विकार बनाता है ।जब जीव भक्ति रुपी सरयू नदी के तट पर हमेशा निवास करता है,तभी मनुष्य निर्विकारी बनता है। भक्ति अर्थात् प्रेम ,अयोध्याकाण्ड प्रेम प्रदान करता है । राम का भरत प्रेम , राम का सौतेली माता से प्रेम आदि ,सब इसी काण्ड मेँ है ।राम की निर्विकारिता इसी मेँ दिखाई देती है । अयोध्याकाण्ड का पाठ करने से परिवार मेँ प्रेम बढता है ।उसके घर मेँ लड

श्रीदुर्गासप्तश्लोकी

॥ श्रीदुर्गासप्तश्लोकी ॥ । अथ सप्तश्लोकी दुर्गा । शिव उवाच देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी । कलौ हि कार्यसिद्ध्यर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः ॥ देव्युवाच शृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम् । मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते ॥ ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमहामन्त्रस्य नारायण ऋषिः । अनुष्टुभादीनि छन्दांसि । श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः । श्रीदूर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकी दुर्गापाठे विनियोगः ॥ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा । बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥ १॥ दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि । दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता ॥ २॥ सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ३॥ शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे । सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ४॥ सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते । भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ॥ ५॥ रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् । त्वामाश्रितानां न विप

श्रीमज्जगद्गुरुशङ्करभगवत्पूज्यपादाचार्यस्तवः

॥ श्रीमज्जगद्गुरुशङ्करभगवत्पूज्यपादाचार्यस्तवः ॥ ॐ श्री गुरुभ्यो नमः । मुदा करेण पुस्तकं दधानमीशरूपिणं तथाऽपरेण मुद्रिकां नमत्तमोविनाशिनीम् । कुसुंभवाससावृतं विभूतिभासिफालकं नताघनाशने रतं नमामि शङ्करं गुरुम् ॥ १॥ पराशरात्मजप्रियं पवित्रितक्षमातलं पुराणसारवेदिनं सनंदनादिसेवितम् । प्रसन्नवक्त्रपंकजं प्रपन्नलोकरक्षकं प्रकाशिताद्वितीयतत्त्वमाश्रयामि देशिकं ॥ २॥ सुधांशुशेखारार्चकं सुधीन्द्रसेव्यपादुकं सुतादिमोहनाशकं सुशान्तिदान्तिदायकम् । समस्तवेदपारगं सहस्रसूर्यभासुरं समाहिताखिलेन्द्रियं सदा भजामि शङ्करम् ॥ ३॥ यमीन्द्रचक्रवर्तिनं यमादियोगवेदिनं यथार्थतत्त्वबोधकं यमान्तकात्मजार्चकम् । यमेव मुक्तिकांक्षया समाश्रयन्ति सज्जना नमाम्यहं सदा गुरुं तमेव शङ्कराभिधम् ॥ ४॥ स्वबाल्य एव निर्भरं य आत्मनो दयालुतां दरिद्रविप्रमन्दिरे सुवर्णवृष्टिमानयन् । प्रदर्श्य विस्मयाम्बुधौ न्यमज्जयत् समान् जनान् स एव शङ्करः सदा जगद्गुरुर्गतिर्मम ॥ ५॥ यदीयपुण्यजन्मना प्रसिद्धिमाप कालटी यदीयशिष्यतां व्रजन् स तोटकोऽपि पप्रथे । य एव सर्वदेहिनां विमुक्तिमार्गदर्शको नराकृतिं सदाशिवं तमाश्रयामि सद्गुरुम् ॥ ६॥ सनातनस्य वर्

अर्धनारीश्वरस्तोत्रम्

॥ अर्धनारीश्वरस्तोत्रम् ॥ चाम्पेयगौरार्धशरीरकायै कर्पूरगौरार्धशरीरकाय । धम्मिल्लकायै च जटाधराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ १ ॥ कस्तूरिकाकुङ्कुमचर्चितायै चितारजःपुञ्जविचर्चिताय । कृतस्मरायै विकृतस्मराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ २ ॥ झणत्क्वणत्कङ्कणनूपुरायै पादाब्जराजत्फणिनूपुराय । हेमाङ्गदायै भुजगाङ्गदाय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ ३ ॥ विशालनीलोत्पललोचनायै विकासिपङ्केरुहलोचनाय । समेक्षणायै विषमेक्षणाय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ ४ ॥ मन्दारमालाकलितालकायै कपालमालाङ्कितकन्धराय । दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ ५ ॥ अम्भोधरश्यामलकुन्तलायै तडित्प्रभाताम्रजटाधराय । निरीश्वरायै निखिलेश्वराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ ६ ॥ प्रपञ्चसृष्ट्युन्मुखलास्यकायै समस्तसंहारकताण्डवाय । जगज्जनन्यै जगदेकपित्रे नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ ७ ॥ प्रदीप्तरत्नोज्ज्वलकुण्डलायै स्फुरन्महापन्नगभूषणाय । शिवान्वितायै च शिवान्विताय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ ८ ॥ एतत्पठेदष्ठकमिष्टदं यो भक्त्या स मान्यो भुवि दीर्घजीवी । प्राप्नोति सौभाग्यमनन्तकालं भूयात्सदा तस्य समस्तसिद्धिः ॥ ९ ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीग

नवनागनामस्तोत्रम्

॥ नवनागनामस्तोत्रम् ॥ श्रीगणेशाय नमः । अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम् । शङ्खपालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा ॥ १॥ एतानि नवनामानि नागानां च महात्मनाम् । सायङ्काले पठेन्नित्यं प्रातःकाले विशेषतः ॥ २॥ तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ ३॥ ॥ इति श्रीनवनागनामस्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥