शुक्रवार, 31 मार्च 2017

Jagadguru Shri Rambhadracharya in court in ayodhya matter

तुलसीदासजी द्वारा बाबरी मस्जिद
का वर्णन !

एक तर्क हमेशा दिया जाता है कि अगर बाबर ने राम मंदिर तोड़ा होता तो यह कैसे सम्भव होता कि महान रामभक्त और राम चरित मानस के रचइता गोस्वामी  तुलसीदास इसका वर्णन पाने इस ग्रन्थ में नहीं करते।
ये बात सही है कि राम चरित मानस
में गोस्वामी जी ने मंदिर विध्वंस और बाबरी मस्जिद का कोई वर्णन नहीं किया है। हमारे वामपंथी इतिहासकारों ने इसको खूब प्रचारित किया और जन मानस में यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि कोई मंदिर टूटा ही नहीं था अरु यह सब मिथ्या है।
यह प्रश्न इलाहाबाद उच्च न्यायालय
के समक्ष भी था।
इलाहाबाद उच्च नयायालय में जब बहस शुरू हुयी तो श्री रामभद्राचार्य जी को Indian Evidence Act के अंतर्गत एक expert witness के तौर पर बुलाया गया और इस सवाल का उत्तर पूछा गया।
उन्होंने कहा कि यह सही है कि श्री राम चरित मानस में इस घटना का वर्णन नहीं है लेकिन तुलसीदास जी
ने इसका वर्णन अपनी अन्य कृति 'तुलसी शतक' में किया है जो कि
श्री राम चरित मानस से कम प्रचलित है।
अतः यह गलत है कि तुलसी दास जो कि बाबर के समकालीन भी थे,ने इस घटना का वर्णन नहीं किया है और जहाँ तक राम चरित मानस कि बात है उसमे तो कहीं भी मुग़ल कि भी चर्चा नहीं है इसका मतलब वे भी नहीं ऐसा तो नहीं निकाला जा सकता है।
गोस्वामी जी तुलसी शतक में लिखते हैं कि,

मंत्र उपनिषद ब्रह्माण्हू बहु पुराण इतिहास।
जवन जराए रोष भरी करी तुलसी परिहास।।

सिखा सूत्र से हीन करी, बल ते हिन्दू लोग।
भमरी भगाए देश ते, तुलसी कठिन कुयोग।।

सम्बत सर वसु बाण नभ, ग्रीष्म ऋतू अनुमानि।
तुलसी अवधहि जड़ जवन, अनरथ किये अनमानि।।

रामजनम महीन मंदिरहिं, तोरी मसीत बनाए।
जवहि बहु हिंदुन हते, तुलसी किन्ही हाय।।

दल्यो मीरबाकी अवध मंदिर राम समाज।
तुलसी ह्रदय हति, त्राहि त्राहि रघुराज।।

रामजनम मंदिर जहँ, लसत अवध के बीच।
तुलसी रची मसीत तहँ, मीरबांकी खाल नीच।।

रामायण घरी घंट जहन, श्रुति पुराण उपखान।
तुलसी जवन अजान तहँ, कइयों कुरान अजान।।

अर्थात :

('Yavan' that is barbarians/ mohammedans, ridicule hymns, several Upanishads and treatise like Brahmans, Purnas, Itihas and also Hindu sociiety having faith in them. They exploits the Hindu society in different ways.)

(Forcible attempts are being made by Muslims to expel the followers of Hinduism from their own native place, forcibly divesting them to their shikhas and yagyopaveet and causing them to deviate from their religion. He terms it as as hard and horrowing time.)

(Describing the barbaric attack of babur, Goswami says that he indulged in gruesome genocide of the natives of that place, using swords. He says countless atrocities were committed by foolish Yavans in Awadh in and around the summer of samvat 1585, that is 1528AD.)

(Describing the attacks made by Yavans on Shri Ramjanm Bhoomi temple, Tulsidas says that after a number of Hindus have been mercilessly killed, Shri Ramjanm Bhoomi was broken to make it a mosque. Looking at ruthless killing of Hindus Tulsidas says that his heart felt aggrieved)

(Seeing the mosque constructed by Mir Baqui in Awadh, in the wake of demolition of Shri Ramjanm bhoomi Temple preceded by grisly killing of followers of Hinduism having faith in Ram and also seeing the bad plight of the temple of his favoured diety Ram, the heart of Tulsi begane to cry for Raghuraj)

(Tulsidas says that the mosque was constructed by the wicked Mir Baqui after demolishing Sri Ramjanm Bhumi temple situated in the middle of Awadh.)

(Tulsidas says that the the Quran as well as Ajaan call is heard from the holy place of shri Ramjanm Bhumi where discourses from Shrutis, Vedas, Purans, Upnishads etc used to be always heard anbd which to be constantly reververated with sweet sounds of bells.)
उपरोक्त इलाहबाद उच्च न्यायलय के निर्णय से जैसा है वैसा ही लिया हुआ है
सदा सर्वदा सुमंगल,
हर हर महादेव,
जय भवानी,
जय श्री राम

शनिवार, 25 मार्च 2017

Mata ji ke 32name

दुर्गा माँ के 32 नाम स्तोत्र का (प्रयोग)

स्तोत्र :
ऊँ  दुर्गा दुर्गतिशमनी दुर्गाद्विनिवारिणी दुर्गमच्छेदनी  दुर्गसाधिनी  दुर्गनाशिनी दुर्गतोद्धारिणी दुर्गनिहन्त्री दुर्गमापहा  दुर्गमज्ञानदा  दुर्गदैत्यलोकदवानला दुर्गमा दुर्गमालोका  दुर्गमात्मस्वरुपिणी  दुर्गमार्गप्रदा दुर्गम विद्या दुर्गमाश्रिता  दुर्गमज्ञान संस्थाना  दुर्गमध्यान भासिनी दुर्गमोहा दुर्गमगा  दुर्गमार्थस्वरुपिणी दुर्गमासुर  संहंत्रि दुर्गमायुध धारिणी दुर्गमांगी  दुर्गमता दुर्गम्या दुर्गमेश्वरी  दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्गमो दुर्गदारिणी  नामावलिमिमां यस्तु दुर्गाया मम  मानवः पठेत् सर्वभयान्मुक्तो भविष्यति न  संशयः।

विधान :
पहले एक पाठ कीजिये,अब दूसरा पाठ दुसरे नाम से आरम्भ कीजिये और पहले नाम पर समाप्त कीजिये,
तीसरा पाठ तीसरे नाम से प्रारंभ करके दुसरे पर समाप्त कीजिये, ऐसे ही क्रम से पाठ करते जाइये,

अर्थात बत्तीसवा पाठ बत्तीसवे नाम से प्रारंभ होकर इक्तीसवे नाम पर समाप्त हो जायेगा,
इस प्रकार ये क्रम सृष्टी स्थिति और संहार क्रम से स्वतः ही हो जायेगा,
प्रत्येक पाठ पर लाजा (खील) को गाय के घी मैं मिलकर सम्मुख अग्नि मैं आहुति देते रहें।

अद्भुत एवं अनुभूत प्रयोग है !
असाध्य कर्मो मैं भी सहजता से सफलता मिलती है और माँ दुर्गा की असीम अनुकम्पा।

शत्रु सदैव काग वत भ्रमण करते रहेंगे,
लक्ष्मी की प्राप्ति होगी,
अन्य सभी कार्यों मैं प्रगति और प्रसन्नता प्राप्त होगी।

प्रातः या रात्रि मैं किसी भी समय किया जा सकता है,पहले गुरु,गणेश आदि का और फिर माँ दुर्गा का पूजन कर लें उसके बात नामावली का पाठ कर ले,फल श्रुति अंतिम पाठ पर ही होगी।

जिन कन्याओं के विवाह मैं बाधा आ रही है वो यदि बताई गयी रीति से इसका पाठ करे तो उन्हें सुयोग्य वर की प्राप्ति होगी मैंने अनेको बार इसका अनुभव किया है।

जिस कामना से संकल्प लेंगे उसमे लाभ
होगा।
यह अद्भुत और महिमाशाली विधान है।
Radhe Radhe 

सोमवार, 20 मार्च 2017

कीवी फल के फ़ायदे

कीवी फल के फ़ायदे
Kiwi fruit benefits in hindi
रोग प्रतिरोधी क्षमता – विटामिन ई और एंटी ऑक्सीडेंट्स की मात्रा कीवी में ज्यादा होने के कारण इस से रोग प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाती है। शारीरिक कमजोरी को दूर कर के दिन भर की थकान को मिटाने का भी एक अद्भुत इलाज है कीवी और साथ ही ये स्फूर्ति बनाए रखता है, इसलिए इसे नाश्ते में ओट्स इत्यादि के साथ खाना लाभदायी होता है। विटामिन सी से भरपूर कीवी हमारे शरीर की आयरन सोखने में मदद करता है और यही कारण है कि अनीमिया के मरीजों के लिए कीवी एक उत्तम फल है। अनिद्रा के लिए कीवी बड़ी ही काम की चीज़ है क्यूंकि इस में मौजूद सेरोटिनिन आपको तनाव दूर कर के अच्छी नींद लाने में सहायक है।
गर्भावस्था में फायदेमंद (Kiwi fruit in pregnancy) -कीवी जैसा अद्भुत फल गर्भवती महिलाओं के लिए वरदान से कम नहीं है, क्यूंकि गर्भावस्था में ज़रूरी तत्व फोलिक एसिड भी कीवी में पाया जाता है, ऐसा कहा जाता है कि  माता द्वारा गर्भावस्था में कीवी के सेवन से बच्चे के दिमाग़ के विकास में बहुत फायदा मिल सकता है।
ह्रदय रोग में लाभ – कीवी में मौजूद फाइबर और पोटैशियम दिल की बीमारियों को हमसे दूर रखते हैं, ह्रदय रोग में जब मरीज़ कम सोडियम लेने के साथ अपनी पोटैशियम लेने की आदत को बढ़ा लेता है, तो इस से बीमारी बढ़ने का खतरा काफी कम हो जाता है। इसके अलावा कीवी बुरे कोलेस्ट्रोल को कम करने में भी सहायक है तथा ये अच्छे कोलेस्ट्रोल को बनाता है और कोलेस्ट्रोल से होने वाली दिल की बीमारी का ख़तरा भी कम करता है। कहा जाता है कि कीवी के नियमित सेवन से खून में ट्राय ग्लिसरोइड की मात्रा घटती है और इस से शरीर में चर्बी जमने पर रोक लगती है तथा खून में थक्का जमने का ख़तरा भी कम होता जाता है.
डायबिटीज पर नियंत्रण – कीवी से खून में गलूकोज का स्तर नहीं बढ़ता और इसी कारण से कीवी का सेवन  डायबिटीज, दिल के रोग और वज़न कम करने में बहुत फायदेमंद है।
पेट की बीमारियों में फ़ायदा – आमतौर पर होने वाली पेट की छोटी मोटी बीमारियों के लिए तो कीवी मानो राम बाण इलाज है, जैसे की इस से पेटदर्द, दस्त, बवासीर वगेरह से भी आराम मिलता है। साथ ही इसका रेशा यानि फाइबर हमारे पाचन तंत्र को सही तरीके से काम करते रहने में मदद करता है, और कब्ज़ के मरीज़ों के लिए तो कीवी अमृत समान है।
अस्थि रोगों एवं जोड़ों के दर्द में आराम– पोटैशियम नामक तत्व जो हड्डियों और मांसपेशियों को मजबूत करने में मदद करता है, वो भी कीवी में मौजूद है और इसीलिए इसे महिलाओं में ढलती उम्र में होने वाले अस्थिरोग ओस्टियोपोरोसिस के लिए फायदेमंद माना गया है।  साथ ही जोड़ों के दर्द और आर्थराइटिस जैसी समस्याओं के होने पर भी कीवी का उपयोग करने से बड़ा आराम मिलता है।
अन्य फ़ायदे – हमारी त्वचा में मौजूद कोलाजन को हमारी त्वचा स्वस्थ और सुन्दर बनाये रखने में विटामिन सी की बहुत ज़रुरत होती है और विटामिन सी की अधिकता की वजह से कीवी के सेवन से हमारी त्वचा काफी मुलायम और चमकदार हो जाती है। इस से शरीर की फैट  तो कम होती ही है, पर साथ में इस से हमारी त्वचा में मुलायम, चमकदार और झुर्रियों से रहित बनी रहती है और हम जवान बने रहते हैं. इस से बीमारियों के अलावा तनाव भी दूर होता है मुहांसे, सर्दी ज़ुकाम जैसी छोटी मोती तकलीफों से भी निजात मिलती है

MADHURASHTAKAM

अधरं मधुरं वदनं मधुरं, नयनं मधुरं हसितं मधुरम्।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥१॥ 
भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपके होंठ मधुर हैं, आपका मुख मधुर है, आपकी ऑंखें मधुर हैं, आपकी मुस्कान मधुर है, आपका हृदय मधुर है, आपकी चाल मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥१॥ 

वचनं मधुरं चरितं मधुरं, वसनं मधुरं वलितं मधुरम्।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥२॥ 
भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपका बोलना मधुर है, आपका चरित्र मधुर है, आपके वस्त्र मधुर हैं, आपके वलय मधुर हैं, आपका चलना मधुर है, आपका घूमना मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥२॥ 

वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः, पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥३॥ 
भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपकी बांसुरी मधुर है, आपके लगाये हुए पुष्प मधुर हैं, आपके हाथ मधुर हैं, आपके चरण मधुर हैं , आपका नृत्य मधुर है, आपकी मित्रता मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥३॥ 

गीतं मधुरं पीतं मधुरं, भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥४॥
भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपके गीत मधुर हैं, आपका पीताम्बर मधुर है, आपका खाना मधुर है, आपका सोना मधुर है, आपका रूप मधुर है, आपका टीका मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥४॥ 

करणं मधुरं तरणं मधुरं, हरणं मधुरं रमणं मधुरम्।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥५॥ 
भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपके कार्य मधुर हैं, आपका तैरना मधुर है, आपका चोरी करना मधुर है, आपका प्यार करना मधुर है, आपके शब्द मधुर हैं, आपका शांत रहना मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥५॥ 

गुंजा मधुरा माला मधुरा, यमुना मधुरा वीची मधुरा।
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥६॥ 
भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपकी गर्दन मधुर है, आपकी माला मधुर है, आपकी यमुना मधुर है, उसकी लहरें मधुर हैं, उसका पानी मधुर है, उसके कमल मधुर हैं, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥६॥ 

गोपी मधुरा लीला मधुरा, युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरम् ।
दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥७॥ 
भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपकी गोपियाँ मधुर हैं, आपकी लीला मधुर है, आप उनके साथ मधुर हैं, आप उनके बिना मधुर हैं, आपका देखना मधुर है, आपकी शिष्टता मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥७॥ 

गोपा मधुरा गावो मधुरा, यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा।
दलितं मधुरं फलितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥८॥ 
भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपके गोप मधुर हैं, आपकी गायें मधुर हैं, आपकी छड़ी मधुर है, आपकी सृष्टि मधुर है, आपका विनाश करना मधुर है, आपका वर देना मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥८॥<script async src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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RADHAKRIPAKATAKSHA

मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी।
व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१)

भावार्थ : समस्त मुनिगण आपके चरणों की वंदना करते हैं, आप तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली हैं, आप प्रसन्नचित्त प्रफुल्लित मुख कमल वाली हैं, आप धरा पर निकुंज में विलास करने वाली हैं। आप राजा वृषभानु की राजकुमारी हैं, आप ब्रजराज नन्द किशोर श्री कृष्ण की चिरसंगिनी है, हे जगज्जननी श्रीराधे माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१)

अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ् कोमले।
वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (२)

भावार्थ : आप अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए मंदिर में विराजमान हैं, आप सूर्य की प्रचंड अग्नि की लाल ज्वालाओं के समान कोमल चरणों वाली हैं, आप भक्तों को अभीष्ट वरदान, अभय दान देने के लिए सदैव उत्सुक रहने वाली हैं। आप के हाथ सुन्दर कमल के समान हैं, आप अपार ऐश्वर्य की भंङार स्वामिनी हैं, हे सर्वेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (२)

अनंगरंगमंगल प्रसंगभंगुरभ्रुवां, सुविभ्रम ससम्भ्रम दृगन्तबाणपातनैः।
निरन्तरं वशीकृत प्रतीतनन्दनन्दने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (३)

भावार्थ : रास क्रीड़ा के रंगमंच पर मंगलमय प्रसंग में आप अपनी बाँकी भृकुटी से आश्चर्य उत्पन्न करते हुए सहज कटाक्ष रूपी वाणों की वर्षा करती रहती हैं। आप श्री नन्दकिशोर को निरंतर अपने बस में किये रहती हैं, हे जगज्जननी वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (३)

तड़ित्सुवणचम्पक प्रदीप्तगौरविगहे, मुखप्रभापरास्त-कोटिशारदेन्दुमण्ङले।
विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशावलोचने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (४)

भावार्थ : आप बिजली के सदृश, स्वर्ण तथा चम्पा के पुष्प के समान सुनहरी आभा वाली हैं, आप दीपक के समान गोरे अंगों वाली हैं, आप अपने मुखारविंद की चाँदनी से शरद पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमा को लजाने वाली हैं। आपके नेत्र पल-पल में विचित्र चित्रों की छटा दिखाने वाले चंचल चकोर शिशु के समान हैं, हे वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (४)

मदोन्मदातियौवने प्रमोद मानमणि्ते, प्रियानुरागरंजिते कलाविलासपणि्डते।
अनन्यधन्यकुंजराज कामकेलिकोविदे कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (५)

भावार्थ : आप अपने चिर-यौवन के आनन्द के मग्न रहने वाली है, आनंद से पूरित मन ही आपका सर्वोत्तम आभूषण है, आप अपने प्रियतम के अनुराग में रंगी हुई विलासपूर्ण कला पारंगत हैं। आप अपने अनन्य भक्त गोपिकाओं से धन्य हुए निकुंज-राज के प्रेम क्रीड़ा की विधा में भी प्रवीण हैं, हे निकुँजेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (५)

अशेषहावभाव धीरहीर हार भूषिते, प्रभूतशातकुम्भकुम्भ कुमि्भकुम्भसुस्तनी।
प्रशस्तमंदहास्यचूणपूणसौख्यसागरे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (६)

भावार्थ : आप संपूर्ण हाव-भाव रूपी श्रृंगारों से परिपूर्ण हैं, आप धीरज रूपी हीरों के हारों से विभूषित हैं, आप शुद्ध स्वर्ण के कलशों के समान अंगो वाली है, आपके पयोंधर स्वर्ण कलशों के समान मनोहर हैं। आपकी मंद-मंद मधुर मुस्कान सागर के समान आनन्द प्रदान करने वाली है, हे कृष्णप्रिया माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (६)

मृणालबालवल्लरी तरंगरंगदोलते, लतागलास्यलोलनील लोचनावलोकने।
ललल्लुलमि्लन्मनोज्ञ मुग्ध मोहनाश्रये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (७)

भावार्थ : जल की लहरों से कम्पित हुए नूतन कमल-नाल के समान आपकी सुकोमल भुजाएँ हैं, आपके नीले चंचल नेत्र पवन के झोंकों से नाचते हुए लता के अग्र-भाग के समान अवलोकन करने वाले हैं। सभी के मन को ललचाने वाले, लुभाने वाले मोहन भी आप पर मुग्ध होकर आपके मिलन के लिये आतुर रहते हैं ऎसे मनमोहन को आप आश्रय देने वाली हैं, हे वृषभानुनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (७)

सुवर्ण्मालिकांचिते त्रिरेखकम्बुकण्ठगे, त्रिसुत्रमंगलीगुण त्रिरत्नदीप्तिदीधिअति।
सलोलनीलकुन्तले प्रसूनगुच्छगुम्फिते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (८)

भावार्थ : आप स्वर्ण की मालाओं से विभूषित है, आप तीन रेखाओं युक्त शंख के समान सुन्दर कण्ठ वाली हैं, आपने अपने कण्ठ में प्रकृति के तीनों गुणों का मंगलसूत्र धारण किया हुआ है, इन तीनों रत्नों से युक्त मंगलसूत्र समस्त संसार को प्रकाशमान कर रहा है। आपके काले घुंघराले केश दिव्य पुष्पों के गुच्छों से अलंकृत हैं, हे कीरतिनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (८)

नितम्बबिम्बलम्बमान पुष्पमेखलागुण, प्रशस्तरत्नकिंकणी कलापमध्यमंजुले।
करीन्द्रशुण्डदण्डिका वरोहसोभगोरुके, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (९)

भावार्थ : आपका उर भाग में फूलों की मालाओं से शोभायमान हैं, आपका मध्य भाग रत्नों से जड़ित स्वर्ण आभूषणों से सुशोभित है। आपकी जंघायें हाथी की सूंड़ के समान अत्यन्त सुन्दर हैं, हे ब्रजनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (९)

अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत्, समाजराजहंसवंश निक्वणातिग।
विलोलहेमवल्लरी विडमि्बचारूचं कमे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१०)

भावार्थ : आपके चरणों में स्वर्ण मण्डित नूपुर की सुमधुर ध्वनि अनेकों वेद मंत्रो के समान गुंजायमान करने वाले हैं, जैसे मनोहर राजहसों की ध्वनि गूँजायमान हो रही है। आपके अंगों की छवि चलते हुए ऐसी प्रतीत हो रही है जैसे स्वर्णलता लहरा रही है, हे जगदीश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१०)

अनन्तकोटिविष्णुलोक नमपदमजाचिते, हिमादिजा पुलोमजा-विरंचिजावरप्रदे।
अपारसिदिवृदिदिग्ध -सत्पदांगुलीनखे, कदा करिष्यसीह मां कृपा -कटाक्ष भाजनम्॥ (११)

भावार्थ : अनंत कोटि बैकुंठो की स्वामिनी श्रीलक्ष्मी जी आपकी पूजा करती हैं, श्रीपार्वती जी, इन्द्राणी जी और सरस्वती जी ने भी आपकी चरण वन्दना कर वरदान पाया है। आपके चरण-कमलों की एक उंगली के नख का ध्यान करने मात्र से अपार सिद्धि की प्राप्ति होती है, हे करूणामयी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (११)

मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी, त्रिवेदभारतीयश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी।
रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी, ब्रजेश्वरी ब्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते॥ (१२)

भावार्थ : आप सभी प्रकार के यज्ञों की स्वामिनी हैं, आप संपूर्ण क्रियाओं की स्वामिनी हैं, आप स्वधा देवी की स्वामिनी हैं, आप सब देवताओं की स्वामिनी हैं, आप तीनों वेदों की स्वामिनी है, आप संपूर्ण जगत पर शासन करने वाली हैं। आप रमा देवी की स्वामिनी हैं, आप क्षमा देवी की स्वामिनी हैं, आप आमोद-प्रमोद की स्वामिनी हैं, हे ब्रजेश्वरी! हे ब्रज की अधीष्ठात्री देवी श्रीराधिके! आपको मेरा बारंबार नमन है। (१२)

इतीदमतभुतस्तवं निशम्य भानुननि्दनी, करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम्।
भवेत्तादैव संचित-त्रिरूपकमनाशनं, लभेत्तादब्रजेन्द्रसूनु मण्डलप्रवेशनम्॥ (१३)

भावार्थ : हे वृषभानु नंदिनी! मेरी इस निर्मल स्तुति को सुनकर सदैव के लिए मुझ दास को अपनी दया दृष्टि से कृतार्थ करने की कृपा करो। केवल आपकी दया से ही मेरे प्रारब्ध कर्मों, संचित कर्मों और क्रियामाण कर्मों का नाश हो सकेगा, आपकी कृपा से ही भगवान श्रीकृष्ण के नित्य दिव्यधाम की लीलाओं में सदा के लिए प्रवेश हो जाएगा। (१३)

लिङ्गाष्टकम्

||लिङ्गाष्टकम्||
************
[NOTE::इसके पाठ से रोग और कष्ट का निवारण होता है]

ब्रह्ममुरारिसुरार्चितलिङ्गम् निर्मलभासितशोभितलिङ्गम् ।
जन्मजदुःखविनाशकलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥१॥
देवमुनिप्रवरार्चितलिङ्गम् कामदहम् करुणाकरलिङ्गम् ।
रावणदर्पविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥२॥

सर्वसुगन्धिसुलेपितलिङ्गम् बुद्धिविवर्धनकारणलिङ्गम् ।
सिद्धसुरासुरवन्दितलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥३॥
कनकमहामणिभूषितलिङ्गम् फणिपतिवेष्टितशोभितलिङ्गम् ।
दक्षसुयज्ञविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥४॥

कुङ्कुमचन्दनलेपितलिङ्गम् पङ्कजहारसुशोभितलिङ्गम् ।
सञ्चितपापविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥५॥
देवगणार्चितसेवितलिङ्गम् भावैर्भक्तिभिरेव च लिङ्गम् ।
दिनकरकोटिप्रभाकरलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥६॥

अष्टदलोपरिवेष्टितलिङ्गम् सर्वसमुद्भवकारणलिङ्गम् ।
अष्टदरिद्रविनाशितलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥७॥
सुरगुरुसुरवरपूजितलिङ्गम् सुरवनपुष्पसदार्चितलिङ्गम् ।
परात्परं परमात्मकलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥८॥

लिङ्गाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत् शिवसन्निधौ ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥

ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !

शनिवार, 18 मार्च 2017

माता सीता बन गई चण्डी

(((((( माता सीता बन गई चण्डी ))))))
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भगवान् श्री राम राज सभा में विराज रहे थे उसी समय विभीषण वहां पहुंचे. वे बहुत भयभीत और हडबड़ी में लग रहे थे. सभा में प्रवेश करते ही वे कहने लगे – हे राम ! मुझे बचाइये, कुम्भकर्ण का बेटा मूलकासुर आफत ढा रहा है .अब लगता है न लंका बचेगी और न मेरा राज पाट.
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भगवान श्री राम द्वारा ढांढस बंधाये जाने और पूरी बात बताये जाने पर विभीषण ने बताया कि कुम्भकर्ण का एक बेटा मूल नक्षत्र में पैदा हुआ था. इसलिये उस का नाम मूलकासुर रखा गया. इसे अशुभ जान कुंभकर्ण ने जंगल में फिंकवा दिया था.
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जंगल में मधुमक्खियों ने मूलकासुर को पाल लिया. मूलकासुर बड़ा हुआ तो उसने कठोर तपस्या कर के ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया, अब उनके दिये वर और बल के घमंड में भयानक उत्पात मचा रखा है. जब जंगल में उसे पता चला कि आपने उसके खानदान का सफाया कर लंका जीत ली और राज पाट मुझे सौंप दिया है वह भन्नाया हुआ है.
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भगवन आपने जिस दिन मुझे राज पाट सौंपा उसके कुछ दिन बाद ही वह पाताल वासियों के साथ लंका पहुँच कर मुझ पर धावा बोल दिया. मैंने छः महिने तक मुकाबला किया पर ब्र्ह्मा जी के वरदान ने उसे इतना ताकत वर बना दिया है कि मुझे भागना पड़ा.
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अपने बेटे, मन्त्रियों तथा स्त्री के साथ किसी प्रकार सुरंग के जरिये भाग कर यहाँ पहुँचा हूँ. उसने कहा कि ‘पहले धोखेबाज भेदिया विभीषण को मारुंगा फिर पिता की हत्या करने वाले राम को भी मार डालूँगा. वह आपके पास भी आता ही होगा.
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समय कम है, लंका और अयोध्या दोनों खतरे में हैं. जो उचित समझते हों तुरन्त कीजिये. भक्त की पुकार सुन श्रीराम जी हनुमान तथा लक्ष्मण सहित सेना को तैयार कर पुष्पक यान पर चढ़ झट लंका की ओर चल पड़े.
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मूलकासुर को श्री राम चंद्र के आने की बात मालूम हुई, वह भी सेना लेकर लड़ने के लिये लंका के बाहर आ डटा. भयानक युद्ध छिड़ गया. सात दिनों तक घोर युद्ध होता रहा. मूलकासुर भगवान श्री राम की सेना पर अकेले ही भारी पड़ रहा था.
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अयोध्या से सुमन्त्र आदि सभी मन्त्री भी आ पहुँचे. हनुमान् जी संजीवनी लाकर वानरों, भालुओं तथा मानुषी सेना को जिलाते जा रहे थे. सब कुछ होते हुये भी पर युद्ध का नतीजा उनके पक्ष में जाता नहीं दीख रहा था. भगवान् चिन्ता में थे.
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विभीषण ने बताया कि इस समय मूलकासुर तंत्र साधना करने गुप्त गुफा में गया है. उसी समय ब्रह्मा जी वहाँ आये और भगवान से कहने लगे – ‘रघुनन्दन ! इसे तो मैंने स्त्री के हाथों मरने का वरदान दिया है. आपका प्रयास बेकार ही जायेगा.
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श्री राम, इससे संबंधित एक बात और है, उसे भी जान लेना फायदे मंद हो सकता है.जब इसके भाई बिरादर लंका युद्ध में मारे जा चुके तो एक दिन इसने मुनियों के बीच दुखी हो कर कहा, ‘चण्डी सीता के कारण मेरा समूचा कुल नष्ट हुआ’.
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इस पर एक मुनि ने नाराज होकर उसे शाप दे दिया – ‘दुष्ट ! तुने जिसे चण्डी कहा है, वही सीता तेरी जान लेगी. ’ मुनि का इतना कहना था कि वह उन्हें खा गया.बाकी मुनि उस के डर से चुप चाप खिसक गये.
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तो हे राम, अब कोई दूसरा उपाय नहीं है.अब तो केवल सीता ही इसका वध कर सकती हैं. आप उन्हें यहाँ बुला कर इसका वध करवाइये, इतना कह कर ब्रह्मा जी चले गये. भगवान् श्री राम ने हनुमान जी और गरुड़ को तुरन्त पुष्पक विमान से सीता जी को लाने भेजा.
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इधर सीता देवी-देवताओं की मनौती मनातीं, तुलसी, शिव-प्रतिमा, पीपल आदि के फेरे लगातीं, ब्राह्मणों से ‘पाठ, रुद्रीय’ का जप करातीं, दुर्गा जी की पूजा करती कि विजयी श्री राम शीघ्र लौटें. तभी गरुड़ और हनुमान् जी उनके पास पहुँचे.
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पति के संदेश को सुन कर सीता तुरन्त चल दीं. भगवान श्री राम ने उन्हें मूलकासुर के बारे में सारा कुछ बताया. फिर तो भगवती सीता को गुस्सा आ गया . उनके शरीर से एक दूसरी तामसी शक्ति निकल पड़ी, उसका स्वर बड़ा भयानक था.
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यह छाया सीता चण्डी के वेश में लंका की ओर बढ चलीं . इधर श्री राम ने वानर सेना को इशारा किया कि मूलकासुर जो तांत्रिक क्रियाएं कर रहा है उसको उसकी गुप्त गुफा में जा कर तहस नहस करें.
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वानर गुफा के भीतर पहुंच कर उत्पात मचाने लगे तो मूलकासुर दांत किट किटाता हुआ सब छोड़ छाड़ कर वानर सेना के पीछे दौड़ा. हड़बड़ी में उसका मुकुट गिर पड़ा. फिर भी भागता हुआ वह युद्ध के मैदान में आ गया.
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युद्ध के मैदान में छाया सीता को देखकर मूलकासुर गरजा, तू कौन ? अभी भाग जा. मैं औरतों पर मर्दानगी नही दिखाता. छाया सीता ने भी भीषण आवाज करते हुये कहा, ‘मैं तुम्हारी मौत-चण्डी हूँ. तूने मेरा पक्ष लेने वाले मुनियों और ब्राह्मणों को खा डाला था, अब मैं तुम्हें मार कर उसका बदला चुकाउंगी.
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इतना कह कर छाया सीता ने मूलकासुर पर पाँच बाण चलाये. मूलकासुर ने भी जवाब में बाण चलाये. कुछ देर तक घोर युद्द हुआ पर अन्त में ‘चण्डिकास्त्र’ चला कर छाया सीता ने मूलकासुर का सिर उड़ा दिया. वह लंका के दरवाजे पर जा गिरा.
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राक्षस हाहाकार करते हुए इधर उधर भाग खड़े हुए. छाया सीता लौट कर सीता के शरीर में प्रवेश कर गयी. मूलका सुर से दुखी लंका की जनता ने मां सीता की जय जयकार की और विभीषन ने उन्हें धन्यवाद दिया. कुछ दिनों तक लंका में रहकर श्री राम सीता सहित पुष्पक विमान से अयोध्या लौट आये ।

बुधवार, 15 मार्च 2017

दशरथ मोह

🌹🌹जय श्री राम,,,,, फ़्रेंडस🌹🌹🌹
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~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~पांचवा संस्करण~~~~~~~
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™दशरथ-कैकेयी संवाद और दशरथ शोक, सुमन्त्र का महल में जाना और वहाँ से लौटकर श्री रामजी को महल में भेजना_____
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छन्द:

* केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥

भावार्थ:-'हे रानी! किसलिए रूठी हो?' यह कहकर राजा उसे हाथ से स्पर्श करते हैं, तो वह उनके हाथ को (झटककर) हटा देती है और ऐसे देखती है मानो क्रोध में भरी हुई नागिन क्रूर दृष्टि से देख रही हो। दोनों (वरदानों की) वासनाएँ उस नागिन की दो जीभें हैं और दोनों वरदान दाँत हैं, वह काटने के लिए मर्मस्थान देख रही है। तुलसीदासजी कहते हैं कि राजा दशरथ होनहार के वश में होकर इसे (इस प्रकार हाथ झटकने और नागिन की भाँति देखने को) कामदेव की क्रीड़ा ही समझ रहे हैं।
सोरठा:

* बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचनि पिकबचनि।
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर॥25॥

भावार्थ:-राजा बार-बार कह रहे हैं- हे सुमुखी! हे सुलोचनी! हे कोकिलबयनी! हे गजगामिनी! मुझे अपने क्रोध का कारण तो सुना॥25॥

चौपाई:

* अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥
कहु केहि रंकहि करौं नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥1॥

भावार्थ:-हे प्रिये! किसने तेरा अनिष्ट किया? किसके दो सिर हैं? यमराज किसको लेना (अपने लोक को ले जाना) चाहते हैं? कह, किस कंगाल को राजा कर दूँ या किस राजा को देश से निकाल दूँ?॥1॥

* सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी॥
जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू॥2॥

भावार्थ:-तेरा शत्रु अमर (देवता) भी हो, तो मैं उसे भी मार सकता हूँ। बेचारे कीड़े-मकोड़े सरीखे नर-नारी तो चीज ही क्या हैं। हे सुंदरी! तू तो मेरा स्वभाव जानती ही है कि मेरा मन सदा तेरे मुख रूपी चन्द्रमा का चकोर है॥2॥

* प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥
जौं कछु कहौं कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही॥3॥

भावार्थ:-हे प्रिये! मेरी प्रजा, कुटम्बी, सर्वस्व (सम्पत्ति), पुत्र, यहाँ तक कि मेरे प्राण भी, ये सब तेरे वश में (अधीन) हैं। यदि मैं तुझसे कुछ कपट करके कहता होऊँ तो हे भामिनी! मुझे सौ बार राम की सौगंध है॥3॥

* बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता॥।
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू॥4॥

भावार्थ:-तू हँसकर (प्रसन्नतापूर्वक) अपनी मनचाही बात माँग ले और अपने मनोहर अंगों को आभूषणों से सजा। मौका-बेमौका तो मन में विचार कर देख। हे प्रिये! जल्दी इस बुरे वेष को त्याग दे॥4॥

दोहा:

* यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।
भूषन सजति बिलोकिमृगु मनहुँ किरातिनि फंद॥26॥

भावार्थ:-यह सुनकर और मन में रामजी की बड़ी सौंगंध को विचारकर मंदबुद्धि कैकेयी हँसती हुई उठी और गहने पहनने लगी, मानो कोई भीलनी मृग को देखकर फंदा तैयार कर रही हो!॥26॥

चौपाई:

* पुनि कह राउ सुहृद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥
भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥1॥

भावार्थ:-अपने जी में कैकेयी को सुहृद् जानकर राजा दशरथजी प्रेम से पुलकित होकर कोमल और सुंदर वाणी से फिर बोले- हे भामिनि! तेरा मनचीता हो गया। नगर में घर-घर आनंद के बधावे बज रहे हैं॥1॥

* रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू॥
दलकि उठेउ सुनि हृदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥2॥

भावार्थ:-मैं कल ही राम को युवराज पद दे रहा हूँ, इसलिए हे सुनयनी! तू मंगल साज सज। यह सुनते ही उसका कठोर हृदय दलक उठा (फटने लगा)। मानो पका हुआ बालतोड़ (फोड़ा) छू गया हो॥2॥

* ऐसिउ पीर बिहसि तेहिं गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई॥3॥

भावार्थ:-ऐसी भारी पीड़ा को भी उसने हँसकर छिपा लिया, जैसे चोर की स्त्री प्रकट होकर नहीं रोती (जिसमें उसका भेद न खुल जाए)। राजा उसकी कपट-चतुराई को नहीं लख रहे हैं, क्योंकि वह करोड़ों कुटिलों की शिरोमणि गुरु मंथरा की पढ़ाई हुई है॥3॥

* जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥
कपट सनेहु बढ़ाई बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥4॥

भावार्थ:-यद्यपि राजा नीति में निपुण हैं, परन्तु त्रियाचरित्र अथाह समुद्र है। फिर वह कपटयुक्त प्रेम बढ़ाकर (ऊपर से प्रेम दिखाकर) नेत्र और मुँह मोड़कर हँसती हुई बोली-॥4॥

दोहा:

* मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु॥27॥

भावार्थ:-हे प्रियतम! आप माँग-माँग तो कहा करते हैं, पर देते-लेते कभी कुछ भी नहीं। आपने दो वरदान देने को कहा था, उनके भी मिलने में संदेह है॥27॥

चौपाई:

* जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥
थाती राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥1॥

भावार्थ:-राजा ने हँसकर कहा कि अब मैं तुम्हारा मर्म (मतलब) समझा। मान करना तुम्हें परम प्रिय है। तुमने उन वरों को थाती (धरोहर) रखकर फिर कभी माँगा ही नहीं और मेरा भूलने का स्वभाव होने से मुझे भी वह प्रसंग याद नहीं रहा॥1॥

* झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ परु बचनु न जाई॥2॥

भावार्थ:-मुझे झूठ-मूठ दोष मत दो। चाहे दो के बदले चार माँग लो। रघुकुल में सदा से यह रीति चली आई है कि प्राण भले ही चले जाएँ, पर वचन नहीं जाता॥2॥

* नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥3॥

भावार्थ:-असत्य के समान पापों का समूह भी नहीं है। क्या करोड़ों घुँघचियाँ मिलकर भी कहीं पहाड़ के समान हो सकती हैं। 'सत्य' ही समस्त उत्तम सुकृतों (पुण्यों) की जड़ है। यह बात वेद-पुराणों में प्रसिद्ध है और मनुजी ने भी यही कहा है॥3॥

* तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥
बाद दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥4॥

भावार्थ:-उस पर मेरे द्वारा श्री रामजी की शपथ करने में आ गई (मुँह से निकल पड़ी)। श्री रघुनाथजी मेरे सुकृत (पुण्य) और स्नेह की सीमा हैं। इस प्रकार बात पक्की कराके दुर्बुद्धि कैकेयी हँसकर बोली, मानो उसने कुमत (बुरे विचार) रूपी दुष्ट पक्षी (बाज) (को छोड़ने के लिए उस) की कुलही (आँखों पर की टोपी) खोल दी॥4॥

दोहा:

* भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।
भिल्लिनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु॥28॥

भावार्थ:-राजा का मनोरथ सुंदर वन है, सुख सुंदर पक्षियों का समुदाय है। उस पर भीलनी की तरह कैकेयी अपना वचन रूपी भयंकर बाज छोड़ना चाहती है॥28॥

मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम

चौपाई:

* सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥1॥

भावार्थ:-(वह बोली-) हे प्राण प्यारे! सुनिए, मेरे मन को भाने वाला एक वर तो दीजिए, भरत को राजतिलक और हे नाथ! दूसरा वर भी मैं हाथ जोड़कर माँगती हूँ, मेरा मनोरथ पूरा कीजिए-॥1॥

* तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥2॥

भावार्थ:-तपस्वियों के वेष में विशेष उदासीन भाव से (राज्य और कुटुम्ब आदि की ओर से भलीभाँति उदासीन होकर विरक्त मुनियों की भाँति) राम चौदह वर्ष तक वन में निवास करें। कैकेयी के कोमल (विनययुक्त) वचन सुनकर राजा के हृदय में ऐसा शोक हुआ जैसे चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से चकवा विकल हो जाता है॥2॥

* गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥3॥

भावार्थ:-राजा सहम गए, उनसे कुछ कहते न बना मानो बाज वन में बटेर पर झपटा हो। राजा का रंग बिलकुल उड़ गया, मानो ताड़ के पेड़ को बिजली ने मारा हो (जैसे ताड़ के पेड़ पर बिजली गिरने से वह झुलसकर बदरंगा हो जाता है, वही हाल राजा का हुआ)॥3॥

* माथें हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥4॥

भावार्थ:-माथे पर हाथ रखकर, दोनों नेत्र बंद करके राजा ऐसे सोच करने लगे, मानो साक्षात्‌ सोच ही शरीर धारण कर सोच कर रहा हो। (वे सोचते हैं- हाय!) मेरा मनोरथ रूपी कल्पवृक्ष फूल चुका था, परन्तु फलते समय कैकेयी ने हथिनी की तरह उसे जड़ समेत उखाड़कर नष्ट कर डाला॥4॥

* अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हिसि अचल बिपति कै नेईं॥5॥

भावार्थ:-कैकेयी ने अयोध्या को उजाड़ कर दिया और विपत्ति की अचल (सुदृढ़) नींव डाल दी॥5॥

दोहा:

* कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास॥29॥

भावार्थ:-किस अवसर पर क्या हो गया! स्त्री का विश्वास करके मैं वैसे ही मारा गया, जैसे योग की सिद्धि रूपी फल मिलने के समय योगी को अविद्या नष्ट कर देती है॥29॥

चौपाई:

* एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥
भरतु कि राउर पूत न होंही। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥1॥

भावार्थ:-इस प्रकार राजा मन ही मन झींख रहे हैं। राजा का ऐसा बुरा हाल देखकर दुर्बुद्धि कैकेयी मन में बुरी तरह से क्रोधित हुई। (और बोली-) क्या भरत आपके पुत्र नहीं हैं? क्या मुझे आप दाम देकर खरीद लाए हैं? (क्या मैं आपकी विवाहिता पत्नी नहीं हूँ?)॥1॥

* जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारें॥
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं॥2॥

भावार्थ:-जो मेरा वचन सुनते ही आपको बाण सा लगा तो आप सोच-समझकर बात क्यों नहीं कहते? उत्तर दीजिए- हाँ कीजिए, नहीं तो नाहीं कर दीजिए। आप रघुवंश में सत्य प्रतिज्ञा वाले (प्रसिद्ध) हैं!॥2॥

* देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहु सत्य जग अपजसु लेहू॥
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना॥3॥

भावार्थ:-आपने ही वर देने को कहा था, अब भले ही न दीजिए। सत्य को छोड़ दीजिए और जगत में अपयश लीजिए। सत्य की बड़ी सराहना करके वर देने को कहा था। समझा था कि यह चबेना ही माँग लेगी!॥3॥

* सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई॥4॥

भावार्थ:-राजा शिबि, दधीचि और बलि ने जो कुछ कहा, शरीर और धन त्यागकर भी उन्होंने अपने वचन की प्रतिज्ञा को निबाहा। कैकेयी बहुत ही कड़ुवे वचन कह रही है, मानो जले पर नमक छिड़क रही हो॥4॥

दोहा:

* धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ॥30॥

भावार्थ:-धर्म की धुरी को धारण करने वाले राजा दशरथ ने धीरज धरकर नेत्र खोले और सिर धुनकर तथा लंबी साँस लेकर इस प्रकार कहा कि इसने मुझे बड़े कुठौर मारा (ऐसी कठिन परिस्थिति उत्पन्न कर दी, जिससे बच निकलना कठिन हो गया)॥30॥

चौपाई:

* आगें दीखि जरत सिर भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई॥1॥

भावार्थ:-प्रचंड क्रोध से जलती हुई कैकेयी सामने इस प्रकार दिखाई पड़ी, मानो क्रोध रूपी तलवार नंगी (म्यान से बाहर) खड़ी हो। कुबुद्धि उस तलवार की मूठ है, निष्ठुरता धार है और वह कुबरी (मंथरा) रूपी सान पर धरकर तेज की हुई है॥1॥

* लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा॥
बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती॥2॥

भावार्थ:-राजा ने देखा कि यह (तलवार) बड़ी ही भयानक और कठोर है (और सोचा-) क्या सत्य ही यह मेरा जीवन लेगी? राजा अपनी छाती कड़ी करके, बहुत ही नम्रता के साथ उसे (कैकेयी को) प्रिय लगने वाली वाणी बोले-॥2॥

* प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती॥
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरु साखी॥3॥

भावार्थ:-हे प्रिये! हे भीरु! विश्वास और प्रेम को नष्ट करके ऐसे बुरी तरह के वचन कैसे कह रही हो। मेरे तो भरत और रामचन्द्र दो आँखें (अर्थात एक से) हैं, यह मैं शंकरजी की साक्षी देकर सत्य कहता हूँ॥3॥

* अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता॥
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई॥4॥

भावार्थ:-मैं अवश्य सबेरे ही दूत भेजूँगा। दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) सुनते ही तुरंत आ जाएँगे। अच्छा दिन (शुभ मुहूर्त) शोधवाकर, सब तैयारी करके डंका बजाकर मैं भरत को राज्य दे दूँगा॥4॥

दोहा:

* लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।
मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥31॥

भावार्थ:-राम को राज्य का लोभ नहीं है और भरत पर उनका बड़ा ही प्रेम है। मैं ही अपने मन में बड़े-छोटे का विचार करके राजनीति का पालन कर रहा था (बड़े को राजतिलक देने जा रहा था)॥31॥

चौपाई:

* राम सपथ सत कहउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥1॥

भावार्थ:-राम की सौ बार सौगंध खाकर मैं स्वभाव से ही कहता हूँ कि राम की माता (कौसल्या) ने (इस विषय में) मुझसे कभी कुछ नहीं कहा। अवश्य ही मैंने तुमसे बिना पूछे यह सब किया। इसी से मेरा मनोरथ खाली गया॥1॥

* रिस परिहरु अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू॥
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा॥2॥

भावार्थ:-अब क्रोध छोड़ दे और मंगल साज सज। कुछ ही दिनों बाद भरत युवराज हो जाएँगे। एक ही बात का मुझे दुःख लगा कि तूने दूसरा वरदान बड़ी अड़चन का माँगा॥2॥

* अजहूँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा॥
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥3॥

भावार्थ:-उसकी आँच से अब भी मेरा हृदय जल रहा है। यह दिल्लगी में, क्रोध में अथवा सचमुच ही (वास्तव में) सच्चा है? क्रोध को त्यागकर राम का अपराध तो बता। सब कोई तो कहते हैं कि राम बड़े ही साधु हैं॥3॥

* तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू॥
जासु सुभाउ अरिहि अनूकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥4॥

भावार्थ:-तू स्वयं भी राम की सराहना करती और उन पर स्नेह किया करती थी। अब यह सुनकर मुझे संदेह हो गया है (कि तुम्हारी प्रशंसा और स्नेह कहीं झूठे तो न थे?) जिसका स्वभाव शत्रु को भी अनूकल है, वह माता के प्रतिकूल आचरण क्यों कर करेगा?॥4॥

दोहा:

* प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।
जेहिं देखौं अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु॥32॥

भावार्थ:-हे प्रिये! हँसी और क्रोध छोड़ दे और विवेक (उचित-अनुचित) विचारकर वर माँग, जिससे अब मैं नेत्र भरकर भरत का राज्याभिषेक देख सकूँ॥32॥

चौपाई:

* जिऐ मीन बरु बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥1॥

भावार्थ:-मछली चाहे बिना पानी के जीती रहे और साँप भी चाहे बिना मणि के दीन-दुःखी होकर जीता रहे, परन्तु मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, मन में (जरा भी) छल रखकर नहीं कि मेरा जीवन राम के बिना नहीं है॥1॥

* समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना॥
सुनि मृदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई॥2॥

भावार्थ:-हे चतुर प्रिये! जी में समझ देख, मेरा जीवन श्री राम के दर्शन के अधीन है। राजा के कोमल वचन सुनकर दुर्बुद्धि कैकेयी अत्यन्त जल रही है। मानो अग्नि में घी की आहुतियाँ पड़ रही हैं॥2॥

* कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया॥
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं॥3॥

भावार्थ:-(कैकेयी कहती है-) आप करोड़ों उपाय क्यों न करें, यहाँ आपकी माया (चालबाजी) नहीं लगेगी। या तो मैंने जो माँगा है सो दीजिए, नहीं तो 'नाहीं' करके अपयश लीजिए। मुझे बहुत प्रपंच (बखेड़े) नहीं सुहाते॥3॥

* रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने॥
जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका॥4॥

भावार्थ:-राम साधु हैं, आप सयाने साधु हैं और राम की माता भी भली है, मैंने सबको पहचान लिया है। कौसल्या ने मेरा जैसा भला चाहा है, मैं भी साका करके (याद रखने योग्य) उन्हें वैसा ही फल दूँगी॥4॥

दोहा:

* होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।
मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥33॥

भावार्थ:-(सबेरा होते ही मुनि का वेष धारण कर यदि राम वन को नहीं जाते, तो हे राजन्‌! मन में (निश्चय) समझ लीजिए कि मेरा मरना होगा और आपका अपयश!॥33॥

चौपाई:

* अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी॥
पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥1॥

भावार्थ:-ऐसा कहकर कुटिल कैकेयी उठ खड़ी हुई, मानो क्रोध की नदी उमड़ी हो। वह नदी पाप रूपी पहाड़ से प्रकट हुई है और क्रोध रूपी जल से भरी है, (ऐसी भयानक है कि) देखी नहीं जाती!॥1॥

* दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा॥
ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनूकूला॥2॥

भावार्थ:-दोनों वरदान उस नदी के दो किनारे हैं, कैकेयी का कठिन हठ ही उसकी (तीव्र) धारा है और कुबरी (मंथरा) के वचनों की प्रेरणा ही भँवर है। (वह क्रोध रूपी नदी) राजा दशरथ रूपी वृक्ष को जड़-मूल से ढहाती हुई विपत्ति रूपी समुद्र की ओर (सीधी) चली है॥2॥

* लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची॥
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी॥3॥

भावार्थ:-राजा ने समझ लिया कि बात सचमुच (वास्तव में) सच्ची है, स्त्री के बहाने मेरी मृत्यु ही सिर पर नाच रही है। (तदनन्तर राजा ने कैकेयी के) चरण पकड़कर उसे बिठाकर विनती की कि तू सूर्यकुल (रूपी वृक्ष) के लिए कुल्हाड़ी मत बन॥3॥

* मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही॥
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती॥4॥

भावार्थ:-तू मेरा मस्तक माँग ले, मैं तुझे अभी दे दूँ। पर राम के विरह में मुझे मत मार। जिस किसी प्रकार से हो तू राम को रख ले। नहीं तो जन्मभर तेरी छाती जलेगी॥4॥

दोहा:

* देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ॥34॥

भावार्थ:-राजा ने देखा कि रोग असाध्य है, तब वे अत्यन्त आर्तवाणी से 'हा राम! हा राम! हा रघुनाथ!' कहते हुए सिर पीटकर जमीन पर गिर पड़े॥34॥

चौपाई:

* ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥
कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥1॥

भावार्थ:-राजा व्याकुल हो गए, उनका सारा शरीर शिथिल पड़ गया, मानो हथिनी ने कल्पवृक्ष को उखाड़ फेंका हो। कंठ सूख गया, मुख से बात नहीं निकलती, मानो पानी के बिना पहिना नामक मछली तड़प रही हो॥1॥

* पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई॥
जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥2॥

भावार्थ:-कैकेयी फिर कड़वे और कठोर वचन बोली, मानो घाव में जहर भर रही हो। (कहती है-) जो अंत में ऐसा ही करना था, तो आपने 'माँग, माँग' किस बल पर कहा था?॥2॥

* दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥
दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई॥3॥

भावार्थ:-हे राजा! ठहाका मारकर हँसना और गाल फुलाना- क्या ये दोनों एक साथ हो सकते हैं? दानी भी कहाना और कंजूसी भी करना। क्या रजपूती में क्षेम-कुशल भी रह सकती है?(लड़ाई में बहादुरी भी दिखावें और कहीं चोट भी न लगे!)॥3॥

* छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू॥
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी॥4॥

भावार्थ:-या तो वचन (प्रतिज्ञा) ही छोड़ दीजिए या धैर्य धारण कीजिए। यों असहाय स्त्री की भाँति रोइए-पीटिए नहीं। सत्यव्रती के लिए तो शरीर, स्त्री, पुत्र, घर, धन और पृथ्वी- सब तिनके के बराबर कहे गए हैं॥4॥

दोहा:

* मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।
लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर॥35॥

भावार्थ:-कैकेयी के मर्मभेदी वचन सुनकर राजा ने कहा कि तू जो चाहे कह, तेरा कुछ भी दोष नहीं है। मेरा काल तुझे मानो पिशाच होकर लग गया है, वही तुझसे यह सब कहला रहा है॥35॥

चौपाई:

* चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें॥
सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥

भावार्थ:-भरत तो भूलकर भी राजपद नहीं चाहते। होनहारवश तेरे ही जी में कुमति आ बसी। यह सब मेरे पापों का परिणाम है, जिससे कुसमय (बेमौके) में विधाता विपरीत हो गया॥1॥

* सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई॥
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई॥2॥

भावार्थ:- (तेरी उजाड़ी हुई) यह सुंदर अयोध्या फिर भलीभाँति बसेगी और समस्त गुणों के धाम श्री राम की प्रभुता भी होगी। सब भाई उनकी सेवा करेंगे और तीनों लोकों में श्री राम की बड़ाई होगी॥2॥

* तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटिहि न जाइहि काऊ॥
अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई॥3॥

भावार्थ:-केवल तेरा कलंक और मेरा पछतावा मरने पर भी नहीं मिटेगा, यह किसी तरह नहीं जाएगा। अब तुझे जो अच्छा लगे वही कर। मुँह छिपाकर मेरी आँखों की ओट जा बैठ (अर्थात मेरे सामने से हट जा, मुझे मुँह न दिखा)॥3॥

* जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी॥
फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारू लागी॥4॥

भावार्थ:-मैं हाथ जोड़कर कहता हूँ कि जब तक मैं जीता रहूँ, तब तक फिर कुछ न कहना (अर्थात मुझसे न बोलना)। अरी अभागिनी! फिर तू अन्त में पछताएगी जो तू नहारू (ताँत) के लिए गाय को मार रही है॥4॥

दोहा:

* परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।
कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु॥36॥

भावार्थ:-राजा करोड़ों प्रकार से (बहुत तरह से) समझाकर (और यह कहकर) कि तू क्यों सर्वनाश कर रही है, पृथ्वी पर गिर पड़े। पर कपट करने में चतुर कैकेयी कुछ बोलती नहीं, मानो (मौन होकर) मसान जगा रही हो (श्मशान में बैठकर प्रेतमंत्र सिद्ध कर रही हो)॥36॥

चौपाई:

* राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥
हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई॥1॥

भावार्थ:-राजा 'राम-राम' रट रहे हैं और ऐसे व्याकुल हैं, जैसे कोई पक्षी पंख के बिना बेहाल हो। वे अपने हृदय में मनाते हैं कि सबेरा न हो और कोई जाकर श्री रामचन्द्रजी से यह बात न कहे॥1॥

* उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर॥
भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई॥2॥

भावार्थ:-हे रघुकुल के गुरु (बड़ेरे, मूलपुरुष) सूर्य भगवान्‌! आप अपना उदय न करें। अयोध्या को (बेहाल) देखकर आपके हृदय में बड़ी पीड़ा होगी। राजा की प्रीति और कैकेयी की निष्ठुरता दोनों को ब्रह्मा ने सीमा तक रचकर बनाया है (अर्थात राजा प्रेम की सीमा है और कैकेयी निष्ठुरता की)॥2॥

* बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा॥
पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक॥3॥

भावार्थ:-विलाप करते-करते ही राजा को सबेरा हो गया! राज द्वार पर वीणा, बाँसुरी और शंख की ध्वनि होने लगी। भाट लोग विरुदावली पढ़ रहे हैं और गवैये गुणों का गान कर रहे हैं। सुनने पर राजा को वे बाण जैसे लगते हैं॥3॥

* मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें॥
तेहि निसि नीद परी नहिं काहू। राम दरस लालसा उछाहू॥4॥

भावार्थ:-राजा को ये सब मंगल साज कैसे नहीं सुहा रहे हैं, जैसे पति के साथ सती होने वाली स्त्री को आभूषण! श्री रामचन्द्रजी के दर्शन की लालसा और उत्साह के कारण उस रात्रि में किसी को भी नींद नहीं आई॥4॥

दोहा:

* द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।
जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥37॥

भावार्थ:-राजद्वार पर मंत्रियों और सेवकों की भीड़ लगी है। वे सब सूर्य को उदय हुआ देखकर कहते हैं कि ऐसा कौन सा विशेष कारण है कि अवधपति दशरथजी अभी तक नहीं जागे?॥37॥

चौपाई:

* पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥1॥

भावार्थ:-राजा नित्य ही रात के पिछले पहर जाग जाया करते हैं, किन्तु आज हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है। हे सुमंत्र! जाओ, जाकर राजा को जगाओ। उनकी आज्ञा पाकर हम सब काम करें॥1॥

* गए सुमंत्रु तब राउर माहीं। देखि भयावन जात डेराहीं॥
धाइ खाई जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥2॥

भावार्थ:-तब सुमंत्र रावले (राजमहल) में गए, पर महल को भयानक देखकर वे जाते हुए डर रहे हैं। (ऐसा लगता है) मानो दौड़कर काट खाएगा, उसकी ओर देखा भी नहीं जाता। मानो विपत्ति और विषाद ने वहाँ डेरा डाल रखा हो॥2॥

* पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेहिं भवन भूप कैकेई॥
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। देखि भूप गति गयउ सुखाई॥3॥

भावार्थ:-पूछने पर कोई जवाब नहीं देता। वे उस महल में गए, जहाँ राजा और कैकेयी थे 'जय जीव' कहकर सिर नवाकर (वंदना करके) बैठे और राजा की दशा देखकर तो वे सूख ही गए॥3॥

* सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहु कमल मूलु परिहरेऊ॥
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूँछी॥4॥

भावार्थ:-(देखा कि-) राजा सोच से व्याकुल हैं, चेहरे का रंग उड़ गया है। जमीन पर ऐसे पड़े हैं, मानो कमल जड़ छोड़कर (जड़ से उखड़कर) (मुर्झाया) पड़ा हो। मंत्री मारे डर के कुछ पूछ नहीं सकते। तब अशुभ से भरी हुई और शुभ से विहीन कैकेयी बोली-॥4॥

दोहा:

* परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।
रामु रामु रटि भोरु किय कहइ ना मरमु महीसु॥38॥

भावार्थ:-राजा को रातभर नींद नहीं आई, इसका कारण जगदीश्वर ही जानें। इन्होंने 'राम राम' रटकर सबेरा कर दिया, परन्तु इसका भेद राजा कुछ भी नहीं बतलाते॥38॥

चौपाई:

* आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥
चलेउ सुमंत्रु राय रुख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥1॥

भावार्थ:-तुम जल्दी राम को बुला लाओ। तब आकर समाचार पूछना। राजा का रुख जानकर सुमंत्रजी चले, समझ गए कि रानी ने कुछ कुचाल की है॥1॥

* सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ॥
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूँछहिं सकल देखि मनु मारें॥2॥

भावार्थ:-सुमंत्र सोच से व्याकुल हैं, रास्ते पर पैर नहीं पड़ता (आगे बढ़ा नहीं जाता), (सोचते हैं-) रामजी को बुलाकर राजा क्या कहेंगे? किसी तरह हृदय में धीरज धरकर वे द्वार पर गए। सब लोग उनको मन मारे (उदास) देखकर पूछने लगे॥2॥

* समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका॥
राम सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा॥3॥

भावार्थ:-सब लोगों का समाधान करके (किसी तरह समझा-बुझाकर) सुमंत्र वहाँ गए, जहाँ सूर्यकुल के तिलक श्री रामचन्द्रजी थे। श्री रामचन्द्रजी ने सुमंत्र को आते देखा तो पिता के समान समझकर उनका आदर किया॥3॥

* निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई॥
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥4॥

भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी के मुख को देखकर और राजा की आज्ञा सुनाकर वे रघुकुल के दीपक श्री रामचन्द्रजी को (अपने साथ) लिवा चले। श्री रामचन्द्रजी मंत्री के साथ बुरी तरह से (बिना किसी लवाजमे के) जा रहे हैं, यह देखकर लोग जहाँ-तहाँ विषाद कर रहे हैं॥4॥

दोहा:

* जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु।
सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु॥39॥

भावार्थ:-रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी ने जाकर देखा कि राजा अत्यन्त ही बुरी हालत में पड़े हैं, मानो सिंहनी को देखकर कोई बूढ़ा गजराज सहमकर गिर पड़ा हो॥39॥

चौपाई:

* सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू॥
सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरीं गनि लेई॥1॥

भावार्थ:-राजा के होठ सूख रहे हैं और सारा शरीर जल रहा है, मानो मणि के बिना साँप दुःखी हो रहा हो। पास ही क्रोध से भरी कैकेयी को देखा, मानो (साक्षात) मृत्यु ही बैठी (राजा के जीवन की अंतिम) घड़ियाँ गिन रही हो॥1॥🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

सोमवार, 13 मार्च 2017

यम नियम

उद्धवजी ने कहा– भगवन! यम और नियम कितने प्रकार के है?
*शम क्या है?
*तितिक्षा और धैर्य क्या है?
*आप मुझे दान, तपस्या, शूरता, सत्य, का भी स्वरुप बताईये?
*त्याग क्या है? अभीष्ट धन कौन-सा है? यज्ञ किसे कहते है?
*दक्षिणा क्या वस्तु है? पुरुष का सच्चा बल क्या है? लाभ क्या वस्तु है?
*पंडित और मूर्ख के लक्षण क्या है ? स्वर्ग और नरक क्या है?
*भाई-बंधू किसे मानना चाहिये? और घर क्या है?
*धनवान और निर्धन किसे कहते है कृपण कौन है? ईश्वर किसे कहते है?
आप मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दीजिए और साथ ही इनके विरोधी भावो की भी व्याख्या कीजिये.
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- यम बारह है- अहिंसा, सत्य, अस्तेय(चोरी न करना), असंगता, लज्जा, असंचय(आवश्यकता से
अधिक धन न जोडना), आस्तिकता ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमता, और अभय.
नियमों की संख्या भी बारह ही है- शौच(बाहरी और भीतरी पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथिसेवा, मेरी पूजा, तीर्थ यात्रा, परोपकार, की चेष्टा, संतोष, और गुरुसेवा-
इस प्रकार यम और नियम दोनो की संख्या बारह-बारह है -ये सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के साधको के लिए उपयोगी है.जो पुरुष इनका पालन करते है वे यम और नियम उनके इच्छानुसार उन्हें भोग और मोक्ष दोनों प्रदान करते है.
*बुद्धि का मुझमे लग जाना ही ‘शम’ है, इन्द्रियों के संयम का नाम ‘दम’ है *न्याय से प्राप्त दुःख के सहने का नाम ‘तितिक्षा’ है,
*जिव्हा और जनेन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना ‘धैर्य’ है,
*किसी से द्रोह न करना सबको अभय देना ‘दान’ है,
*कामनाओ का त्याग करना ही ‘तप’ है, अपनी वासनाओ पर विजय प्राप्त करना ही ‘शूरता’ है,
*सर्वत्र समस्वरूप, सत्यस्वरूप परमात्मा का दर्शन ही ‘सत्य’ है, इसी प्रकार  सत्य औ़र मधुर भाषण को ही महात्माओ ने ‘ऋत’ कहा है,
*कर्मो में आसक्त न होना ही ‘शौच’ है, कामनाओ का त्याग ही सच्चा ‘संन्यास’ है,
*धर्म ही मनुष्यों का अभीष्ट ‘धन’ है, मै परमेश्वर ही ‘यज्ञ’ हूँ, ज्ञान का उपदेश देना ही ‘दक्षिणा है,
*प्राणायाम ही श्रेष्ठ बल है, मेरी श्रेष्ठ भक्ति ही उत्तम ‘लाभ’ है,
*सच्ची ‘विद्या’ वही है जिससे ब्रह् और आत्मा का भेद मिट जाता है,
*पाप करने से घ्रृणा होने का नाम ही ‘लज्जा’ है,
*निरपेक्षता आदि गुण ही शरीर का सच्चा सौंदर्य – ‘श्री’ है, दुःख और सुख दोनों की भावना का सदा के लिए नष्ट हो जाना ही ‘सुख’ है, विषयभोगो की कामना ही ‘दुःख’ है,
*जो बंधन और मोक्ष का तत्व जानता है वही ‘पंडित’ है, शरीर आदि में जिसका मैपन है वही ‘मूर्ख’ है, जो संसार की ओर से निवृत करके मुझे प्राप्त करा देता है वही सच्चा ‘सुमार्ग’ है, चित्त की बहिमुर्खता ही ‘कुमार्ग’ है
*सत्त्वगुण की वृद्धि ही ‘स्वर्ग’ और तमोगुण की वृद्धि ही ‘नरक’ है, गुरु ही सच्चा ‘भाई-बंधू’ है, और वह गुरु मै हूँ,
*यह मनुष्य शरीर ही सच्चा ‘घर’ है,
*सच्चा धनी वह है जो गुणों से संपन्न है जिसके पास गुणों का खजाना है. जिसके चित्त में असंतोष है, अभाव का बोध है, वही ‘दरिद्र’ है,
*जो जितेन्द्रीय नहीं है,वही ‘कृपण’ है,
*समर्थ, स्वतंत्र, और ‘ईश्वर’ वह है, जिसकी चित्तवृति विषयों में आसक्त नहीं है, इसके विपरीत जो विषयों में आसक्त है, वही सर्वथा ‘असमर्थ’ है,
सबका सार इतने में ही समझ लो कि गुणों और दोषों पर द्रष्टि जाना ही –‘सबसे बड़ा दोष है’और गुणदोषों पर द्रष्टि न जाकर अपने शांत निस्संकल्प स्वरुप में स्थिर रहे - वही सबसे बड़ा गुण है.
"जय जय श्री राधे "

रविवार, 12 मार्च 2017

वृषभ अवतार

विष्णु पुत्रों का संहार करने के लिए लिया था भगवन शिव ने वृषभ अवतार



समुद्र मंथन के उपरांत जब अमृत कलश उत्पन्न हुआ तो उसे दैत्यों की नजर से बचाने के लिए श्री हरि विष्णु ने अपनी माया से बहुत सारी अप्सराओं की सर्जना की। दैत्य अप्सराओं को देखते ही उन पर मोहित हो गए और उन्हें जबरन उठाकर पाताल लोक ले गए। उन्हें वहां बंधी बना कर अमृत कलश को पाने के लिए वापिस आए तो समस्त देव अमृत का सेवन कर चुके थे।

जब दैत्यों को इस घटना का पता चला तो उन्होंने पुन: देवताओं पर चढ़ाई कर दी। लेकिन अमृत पीने से देवता अजर-अमर हो चुके थे। अत: दैत्यों को हार का सामना करना पड़ा। स्वयं को सुरक्षित करने के लिए वह पाताल की ओर भागने लगे। दैत्यों के संहार की मंशा लिए हुए श्री हरि विष्णु उनके पीछे-पीछे पाताल जा पहुंचे और वहां समस्त दैत्यों का विनाश कर दिया।

दैत्यों का नाश होते ही अप्सराएं मुक्त हो गई। जब उन्होंने मनमोहिनी मूर्त वाले श्री हरि विष्णु को देखा तो वे उन पर आसक्त हो गई और उन्होंने भगवान शिव से श्री हरि विष्णु को उनका स्वामी बन जाने का वरदान मांगा। अपने भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए भगवान शिव सदैव तत्पर रहते हैं अत: उन्होंने अपनी माया से श्री हरि विष्णु को अपने सभी धर्मों व कर्तव्यों को भूल अप्सराओं के साथ पाताल लोक में रहने के लिए कहा।

श्री हरि विष्णु पाताल लोक में निवास करने लगे। उन्हें अप्सराओं से कुछ पुत्रों की प्राप्ति भी हुई लेकिन वह पुत्र राक्षसी प्रवृति के थे। अपनी क्रूरता के बल पर श्री हरि विष्णु के इन पुत्रों ने तीनों लोकों में कोहराम मचा दिया। उनके अत्याचारों से परेशान होकर सभी देवतागण भगवान शिव के समक्ष प्रस्तुत हुए व उनसे श्री हरि विष्णु के पुत्रों का संहार करने की प्रार्थना की।

देवताओं को विष्णु पुत्रों के आतंक से मुक्त करवाने के लिए भगवान शिव एक बैल यानि कि ‘वृषभ’ के रूप में पाताल लोक पहुंचे और वहां जाकर भगवान विष्णु के सभी पुत्रों का संहार कर डाला। तभी श्री हरि विष्णु आए आपने वंश का नाश हुआ देख वह क्रुद्ध हो उठे और भगवान शिव रूपी वृषभ पर आक्रमण कर दिया लेकिन उनके सभी वार निष्फल हो गए।

मान्यता है कि शिव व विष्णु शंकर नारायण का रूप थे इसलिए बहुत समय तक युद्ध चलने के उपरांत भी दोनों में से किसी को भी न तो हानि हुई और न ही कोई लाभ। अंत में जिन अप्सराओं ने श्री हरि विष्णु को अपने वरदान में बांध रखा था उन्होंने उन्हें मुक्त कर दिया। इस घटना के बाद जब श्री हरि विष्णु को इस घटना का बोध हुआ तो उन्होंने भगवान शिव की स्तुति की।

भगवान शिव के कहने पर श्री हरि विष्णु विष्णुलोक लौट गए। जाने से पूर्व वह अपना सुदर्शन चक्र पाताल लोक में ही छोड़ गए। जब वह विष्णुलोक पहुंचे तो वहां उन्हें भगवान शिव द्वारा एक और सुदर्शन चक्र की प्राप्ति हुई।

गुरुवार, 9 मार्च 2017

नरसिंह स्तोत्र

||नरसिंह स्तोत्र||

नरसिंह मंत्र

ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् ।
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ॥

(हे क्रुद्ध एवं शूर-वीर महाविष्णु, तुम्हारी ज्वाला एवं ताप चतुर्दिक फैली हुई है. हे नरसिंहदेव, तुम्हारा चेहरा सर्वव्यापी है, तुम मृत्यु के भी यम हो और मैं तुम्हारे समक्षा आत्मसमर्पण करता हूँ ।)

नरसिंह स्तोत्र

देव कार्य सिध्यर्थं, सभा स्थम्भ समुद्भवं,
श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. 1
लक्ष्म्यलिङ्गिथ वमन्गं, भक्थानां वर दायकं,
श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. 2

आन्त्रमलदरं, संख चरब्जयुधा दरिनं,
श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. 3
स्मरन्तः सर्व पपग्नं, खद्रुजा विष नासनं,
श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. 4

श्रिम्हनदेनाहथ्, दिग्दन्थि भयानसनं,
श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. 5
प्रह्लाद वरदं, स्र्रेसं, दैथ्येस्वर विधरिनं,
श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. 6

क्रूरग्रहै पीदिथानं भक्थानं अभय प्रधं,
श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. 7
वेद वेदन्थ यग्नेसं, ब्रह्म रुद्रधि वन्धिथं,
श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. 8

य इदं पदाथे नित्यं, रुण मोचन संगणकं,
अनृनि जयथे सथ्यो, दानं सीग्रमवप्नुयतः. 9

ॐ नृम नृम नृम नर सिंहाय नमः ।

बुधवार, 8 मार्च 2017

ऑवला एकादशी


फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में आने वाली एकादशी को आमलकी एकादशी कहते हैं। आमलकी यानी आंवला। आंवला को शास्त्रों में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। विष्णु जी ने जब सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा को जन्म दिया, उसी समय उन्होंने आंवले के वृक्ष को जन्म दिया। आंवले को भगवान विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया है। इसके हर अंग में ईश्वर का स्थान माना गया है।
ये है आमलकी एकादशी व्रत की कथा
मांधाता बोले कि हे वशिष्ठजी! यदि आप मुझ पर कृपा करें तो किसी ऐसे व्रत की कथा कहिए जिससे मेरा कल्याण हो। महर्षि वशिष्ठ बोले कि हे राजन्, सब व्रतों से उत्तम और अंत में मोक्ष देने वाले आमलकी एकादशी के व्रत का मैं वर्णन करता हूं।
यह एकादशी फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष में होती है। इस व्रत के करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत का फल एक हजार गौदान के फल के बराबर होता है। अब मैं आपसे एक पौराणिक कथा कहता हूं, आप ध्यानपूर्वक सुनिए।
एक वैदिश नाम का नगर था जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण आनंद सहित रहते थे। उस नगर में सदैव वेद ध्वनि गूंजा करती थी तथा पापी, दुराचारी तथा नास्तिक उस नगर में कोई नहीं था।
उस नगर में चैतरथ नाम का चन्द्रवंशी राजा राज्य करता था। वह अत्यंत विद्वान तथा धर्मी था। उस नगर में कोई भी व्यक्ति दरिद्र व कंजूस नहीं था। सभी नगरवासी विष्णु भक्त थे और आबाल-वृद्ध स्त्री-पुरुष एकादशी का व्रत किया करते थे।
एक समय फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की आमलकी एकादशी आई। उस दिन राजा, प्रजा तथा बाल-वृद्ध सबने हर्षपूर्वक व्रत किया। राजा अपनी प्रजा के साथ मंदिर में जाकर पूर्ण कुंभ स्थापित करके धूप, दीप, नैवेद्य, पंचरत्न आदि से धात्री (आंवले) का पूजन करने लगे और इस प्रकार स्तुति करने लगे।
ऐसे रखें आमलकी एकादशी व्रत
- आमलकी एकादशी व्रत के पहले दिन व्रती को दशमी की रात्रि में एकादशी व्रत के साथ भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए सोना चाहिए।
- आमलकी एकादशी के दिन सुबह स्नान करके भगवान विष्णु की प्रतिमा के समक्ष हाथ में तिल, कुश, मुद्रा और जल लेकर संकल्प करें कि मैं भगवान विष्णु की प्रसन्नता एवं मोक्ष की कामना से आमलकी एकादशी का व्रत रखता हूं। मेरा यह व्रत सफलतापूर्वक पूरा हो इसके लिए श्रीहरि मुझे अपनी शरण में रखें।
- तत्पश्चात निम्न मंत्र से संकल्प लेने के पश्चात षोड्षोपचार सहित भगवान की पूजा करें।
मंत्र
'मम कायिकवाचिकमानसिक
सांसर्गिकपातकोपपातकदुरित
क्षयपूर्वक श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त
फल प्राप्तयै श्री परमेश्वरप्रीति
कामनायै आमलकी
एकादशी व्रतमहं करिष्ये'
- भगवान की पूजा के पश्चात पूजन सामग्री लेकर आंवले के वृक्ष की पूजा करें। सबसे पहले वृक्ष के चारों की भूमि को साफ करें और उसे गाय के गोबर से पवित्र करें।
- पेड़ की जड़ में एक वेदी बनाकर उस पर कलश स्थापित करें। इस कलश में देवताओं, तीर्थों एवं सागर को आमंत्रित करें।
- कलश में सुगंधी और पंच रत्न रखें। इसके ऊपर पंच पल्लव रखें फिर दीप जलाकर रखें। कलश पर श्रीखंड चंदन का लेप करें और वस्त्र पहनाएं।
- अंत में कलश के ऊपर श्री विष्णु के छठे अवतार परशुराम की स्वर्ण मूर्ति स्थापित करें और विधिवत रूप से परशुरामजी की पूजा करें।
- रात्रि में भगवत कथा व भजन-कीर्तन करते हुए प्रभु का स्मरण करें।
- द्वादशी के दिन सुबह ब्राह्मण को भोजन करवा कर दक्षिणा दें साथ ही परशुराम की मूर्तिसहित कलश ब्राह्मण को भेंट करें। इन क्रियाओं के पश्चात परायण करके अन्न जल ग्रहण करें।  

मंगलवार, 7 मार्च 2017

ब्राह्मण तब और अब

*ब्राह्मण  को डुबोने वाली तीन-*
1-दारु , 2-दोगङ , 3-दगा

*ब्राह्मण  के लिये जरुरी तीन-*
1-सँस्कार , 2- मेहनत , 3-भाईचारा ॥

*ब्राह्मण  को प्रिय तीन-*
1-न्याय , 2-नमन , 3-आदर

*ब्राह्मण  को अप्रिय तीन-*
1-अपमान,2- विश्वासघात , 3-अनादर ॥

*ब्राह्मण  को महान बनाने वाले तीन-*
1-शरणागतरक्षक, 2-दयालूता, 3-परोपकार

*ब्राह्मण  के लिये अब जरुरी तीन-*
1-एकता , 2-सँस्कार ,3-धर्म पालन
 
*ब्राह्मण  के लिये छोङने वाली तीन-*
1-बुरी संगत ,2- कुप्रथाएँ ,3- आपसी मनमुटाव ॥

*ब्राह्मण  को जोङने वाली तीन-*
1-गोरवशाली ईतिहास, 2- परम्पराएँ , 3-हमारे
आदर्श...

अगर आप भी ब्राह्मण  है,
तो आगे भेजो।

*जय परशुराम  ...हर हर महादेव*

*ब्राह्मणो का योगदान -*

भारत के क्रान्तिकारियो मे *90% क्रान्तिकारी ब्राह्मण* थे जरा देखो कुछ मशहूर ब्राह्मण क्रान्तिकारियो के नाम
 *ब्राह्मण स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी*
(१) चंद्रशेखर आजाद
(२) सुखदेव
(३) विनायक दामोदर सावरकर( वीर सावरकर )
 (४) बाल गंगाधर तिलक
(५) लाल बहाद्दुर शास्त्री
(६) रानी लक्ष्मी बाई
(७) डा. राजेन्द्र प्रसाद
(८) पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल
(९) मंगल पान्डेय
(१०) लाला लाजपत राय
(११) देशबन्धु डा. राजीव दीक्षित
(१२) नेताजी सुभाष चन्द्र बोस
(१३) शिवराम राजगुरु
(१४) विनोबा भावे
(१५) गोपाल कृष्ण गोखले
(१६) कर्नल लक्ष्मी सह्गल ( आजाद हिंद फ़ौज
 की पहली महिला )
 (१७) पण्डित मदन मोहन मालवीय
(१८) डा. शंकर दयाल शर्मा
(१९) रवि शंकर व्यास
(२०) मोहनलाल पंड्या
(२१) महादेव गोविंद रानाडे
(२२) तात्या टोपे
(२३) खुदीराम बोस
(२४) बाल गंगाधर तिलक
(२५) चक्रवर्ती राजगोपालाचारी
(२६) बिपिन चंद्र पाल
(२७) नर हरि पारीख
(२८) हरगोविन्द पंत
(२९) गोविन्द बल्लभ पंत
(३०) बदरी दत्त पाण्डे
(३१) प्रेम बल्लभ पाण्डे
(३२) भोलादत पाण्डे
(३३) लक्ष्मीदत्त शास्त्री
(३४) मोरारजी देसाई
(३५) महावीर त्यागी
(३६) बाबा राघव दास
(३७) स्वामी सहजानन्द

 यह है ब्राह्मणो का भारत की क्रांती मे योगदान , तुम्हारा क्या है ? जरा बताओ तो तुम किस अधिकार से स्वयं को भारतीय
 कहते हो और ब्राह्मणो का विरोध करते हो । मुझे गर्व है
 मैं ब्राह्मण हूं
यदि ब्राह्मण नही होगा तो किसी का भी अस्तित्व
 नही होगा

*अथर्व वेद के 5/19/10 मे स्पष्ट लिखा है बाह्मणो की उपेक्षा व तिरस्कार की बात सोचने मात्र से सोचने वाले का सर्वस्व पतन होना शुरू हो जाता है ।*  क्योकि

 ब्राह्मण दान देने पे आया तो
-दधीचि,

दान लेने पे आया तो
 सुदामा

 परीक्षा लेने पे आया तो
-भृगु,

तपोबल पे आया तो
 कपिल मुनि

 अहंकार को दबाने पे आया तो
 अगस्त मुनि

 धर्म को बचाने पे आया तो
 आदि शंकराचार्य

 नीति पे आया तो ...
-चाणकय,

नेतृत्व करने पे आया तो
-अटल बिहारी,

बग़ावत पे आया तो
-मंगल पांडे,

क्रांति पे आया तो
-चंद्रशेखर आज़ाद,

संगठित करने पे आया तो
-केशव बलिराम हेगड़ेवार,

संघर्ष करने पे आया तो
-विनायक राव सावरकर

 निराश हुआ तो
-नाथु राम गोडसे

 और
 क्रोध मे आया तो
-परशुराम

: ब्राह्मण साम्राज्य की टीम ने 2 महीने की मेहनत कर भारत के समस्त राज्यों से ब्राह्मण जनसँख्या जानने की कोशिश की हे जिसके अनुसार सूची तयार हुई हे। उम्मीद है ब्राह्मण अपनी शक्ति पहचाने और एकजुट होकर कार्य करे :

1) जम्मू कश्मीर : 2 लाख + 4 लाख विस्थापित
2) पंजाब : 9 लाख ब्राह्मण
3) हरयाणा : 14 लाख ब्राह्मण
4) राजस्थान : 78 लाख ब्राह्मण
5) गुजरात : 60 लाख ब्राह्मण
6) महाराष्ट्र : 45 लाख ब्राह्मण
7) गोवा : 5 लाख ब्राह्मण
8) कर्णाटक : 45 लाख ब्राह्मण
9) केरल : 12 लाख ब्राह्मण
10) तमिलनाडु : 36 लाख ब्राह्मण
11) आँध्रप्रदेश : 24 लाख ब्राह्मण
12) छत्तीसगढ़ : 24 लाख ब्राह्मण
13) ओद्दिस : 37 लाख ब्राह्मण
14) झारखण्ड : 12 लाख ब्राह्मण
15) बिहार : 90 लाख ब्राह्मण
16) पश्चिम बंगाल : 18 लाख ब्राह्मण
17) मध्य प्रदेश : 42 लाख ब्राह्मण
18) उत्तर प्रदेश : 2 करोड़ ब्राह्मण
19) उत्तराखंड : 20 लाख ब्राह्मण
20) हिमाचल : 45 लाख ब्राह्मण
21) सिक्किम : 1 लाख ब्राह्मण
22) आसाम : 10 लाख ब्राह्मण
23) मिजोरम : 1.5 लाख ब्राह्मण
24) अरुणाचल : 1 लाख ब्राह्मण
25) नागालैंड : 2 लाख ब्राह्मण
26) मणिपुर : 7 लाख ब्राह्मण
27) मेघालय : 9 लाख ब्राह्मण
28) त्रिपुरा : 2 लाख ब्राह्मण

 सबसे ज्यादा ब्राह्मण वाला राज्य: उत्तर प्रदेश

 सबसे कम ब्राह्मण वाला राज्य : सिक्किम

 सबसे ज्यादा ब्राह्मण राजनेतिक वर्चस्व : पश्चिम बंगाल

 सबसे ज्यादा %ब्राह्मण वाला राज्य : उत्तराखंड में जनसँख्या के 20 % ब्राह्मण

 अत्यधिक साक्षर ब्राह्मण राज्य :
केरल और हिमाचल

 सबसे ज्यादा अच्छी आर्थिक स्तिथि में ब्राह्मण : आसाम

 सबसे ज्यादा ब्राह्मण मुख्यमंत्री वाला राज्य : राजस्थान

 सबसे ज्यादा ब्राह्मण विधायक वाला राज्य : उत्तर प्रदेश
--------------------

भारत लोकसभा में ब्राह्मण :
48 %
भारत राज्यसभा में ब्राह्मण : 36 %
भारत में ब्राह्मण राज्यपाल : 50 %
भारत में ब्राह्मण कैबिनेट सचिव : 33 %
भारत में मंत्री सचिव में ब्राह्मण : 54%
भारत में अतिरिक्त सचिव ब्राह्मण : 62%
भारत में पर्सनल सचिव ब्राह्मण : 70%
यूनिवर्सिटी में ब्राह्मण वाईस चांसलर : 51%
*सुप्रीम कोर्ट में ब्राह्मण जज: 56%*
हाई कोर्ट में ब्राह्मण जज :
40 %
भारतीय राजदूत ब्राह्मण : 41%
पब्लिक अंडरटेकिंग ब्राह्मण :
केंद्रीय : 57%
राज्य : 82 %

बैंक में ब्राह्मण : 57 %
एयरलाइन्स में ब्राह्मण : 61%
*IAS ब्राह्मण : 72%*
 *IPS ब्राह्मण : 61%*
टीवी कलाकार एव बॉलीवुड : 83%
 CBI Custom ब्राह्मण 72%

*कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी ।*

 *मिट गये हमे मिटाने वाले*



*ब्रम्हाशक्ति विजयते*

सोमवार, 6 मार्च 2017

संत असंत वन्दना

🌹~संत ,,असंत वन्दना ~🌹~~~~`
≠=========================

बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥

भावार्थ:-अब मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह अंतर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते हैं, तब दारुण दुःख देते हैं। (अर्थात्‌ संतों का बिछुड़ना मरने के समान दुःखदायी होता है और असंतों का मिलना।)॥2॥

*उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥3॥

भावार्थ:-दोनों (संत और असंत) जगत में एक साथ पैदा होते हैं, पर (एक साथ पैदा होने वाले) कमल और जोंक की तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। (कमल दर्शन और स्पर्श से सुख देता है, किन्तु जोंक शरीर का स्पर्श पाते ही रक्त चूसने लगती है।) साधु अमृत के समान (मृत्यु रूपी संसार से उबारने वाला) और असाधु मदिरा के समान (मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करने वाला) है, दोनों को उत्पन्न करने वाला जगत रूपी अगाध समुद्र एक ही है। (शास्त्रों में समुद्रमन्थन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गई है।)॥3॥
*भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥4॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥5॥

भावार्थ:-भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात्‌ कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं, किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है॥4-5॥

दोहा:

*भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥

भावार्थ:-भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किए रहता है। अमृत की सराहना अमर करने में होती है और विष की मारने में॥5॥

चौपाई:

*खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥1॥

भावार्थ:-दुष्टों के पापों और अवगुणों की और साधुओं के गुणों की कथाएँ- दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं। इसी से कुछ गुण और दोषों का वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता॥1॥

*भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥2॥

भावार्थ:-भले-बुरे सभी ब्रह्मा के पैदा किए हुए हैं, पर गुण और दोषों को विचार कर वेदों ने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण-अवगुणों से सनी हुई है॥2॥

*दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥3॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥4॥
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥5॥

भावार्थ:-दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य (ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं।) वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है॥3-5॥

दोहा:

*जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥

भावार्थ:-विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥6॥

चौपाई:

*अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥

भावार्थ:-विधाता जब इस प्रकार का (हंस का सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु) भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं॥1॥

*सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥2॥

भावार्थ:-भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता॥2॥

*लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥3॥

भावार्थ:-जो (वेषधारी) ठग हैं, उन्हें भी अच्छा (साधु का सा) वेष बनाए देखकर वेष के प्रताप से जगत पूजता है, परन्तु एक न एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं, अंत तक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहु का हाल हुआ ॥3॥

*किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥4॥

भावार्थ:-बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत में जाम्बवान्‌ और हनुमान्‌जी का हुआ। बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं॥4॥

*गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥5॥

भावार्थ:-पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं॥5॥

*धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥6॥

भावार्थ:-कुसंग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुंदर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवन के संग से बादल होकर जगत को जीवन देने वाला बन जाता है॥6॥

दोहा:

*ग्रह भेजष जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥7 (क)॥

भावार्थ:-ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र- ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार में बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं॥7 (क)॥

*सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥7 (ख)॥

भावार्थ:-महीने के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परन्तु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है (एक का नाम शुक्ल और दूसरे का नाम कृष्ण रख दिया)। एक को चन्द्रमा का बढ़ाने वाला और दूसरे को उसका घटाने वाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया॥7 (ख)॥🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

रविवार, 5 मार्च 2017

श्रीरामचरितमानस

> रामायण के सात काण्ड
मानव की उन्नति के सात
सोपान <
1 बालकाण्ड - बालक प्रभु
को प्रिय है क्योकि उसमेँ
छल , कपट , नही होता ।
विद्या , धन एवं
प्रतिष्ठा बढने पर
भी जो अपना हृदय
निर्दोष
निर्विकारी बनाये
रखता है ,
उसी को भगवान प्राप्त
होते है। बालक
जैसा निर्दोष
निर्विकारी दृष्टि रखने
पर ही राम के स्वरुप
को पहचान सकते है। जीवन
मेँ सरलता का आगमन संयम
एवं ब्रह्मचर्य से होता है
।बालक की भाँति अपने
मान अपमान को भूलने से
जीवन मेँ सरलता आती है ।
बालक के समान
निर्मोही एवं
निर्विकारी बनने पर
शरीर अयोध्या बनेगा ।
जहाँ युद्ध,
वैर ,ईर्ष्या नहीँ है ,
वही अयोध्या है ।
2. अयोध्याकाण्ड - यह
काण्ड मनुष्य
को निर्विकार बनाता है
।जब जीव भक्ति रुपी सरयू
नदी के तट पर
हमेशा निवास
करता है,तभी मनुष्य
निर्विकारी बनता है।
भक्ति अर्थात्
प्रेम ,अयोध्याकाण्ड प्रेम
प्रदान करता है । राम
का भरत प्रेम , राम
का सौतेली माता से प्रेम
आदि ,सब इसी काण्ड मेँ है
।राम
की निर्विकारिता इसी मेँ
दिखाई देती है ।
अयोध्याकाण्ड का पाठ
करने से परिवार मेँ प्रेम
बढता है ।उसके घर मेँ
लडाई झगडे नहीँ होते ।
उसका घर
अयोध्या बनता है ।कलह
का मूल कारण धन एवं
प्रतिष्ठा है ।
अयोध्याकाण्ड का फल
निर्वैरता है ।सबसे पहले
अपने घर
की ही सभी प्राणियोँ मेँ
भगवद् भाव
रखना चाहिए।
3. अरण्यकाण्ड - यह
निर्वासन प्रदान
करता है ।इसका मनन करने
से वासना नष्ट होगी ।
बिना अरण्यवास(जंगल) के
जीवन मेँ
दिव्यता नहीँ आती ।
रामचन्द्र राजा होकर
भी सीता के साथ वनवास
किया ।वनवास मनुष्य
हृदय को कोमल बनाता है
।तप द्वारा ही काम
रुपी रावण का बध
होगा । इसमेँ
सूपर्णखा(मोह )एवं
शबरी (भक्ति)दोनो ही है।
भगवान राम सन्देश देते हैँ
कि मोह को त्यागकर
भक्ति को अपनाओ ।
4. किष्किन्धाकाण्ड -
जब मनुष्य निर्विकार एवं
निर्वैर होगा तभी जीव
की ईश्वर से
मैत्री होगी ।इसमे
सुग्रीव और राम अर्थात्
जीव और ईश्वर
की मैत्री का वर्णन है।जब
जीव सुग्रीव
की भाँति हनुमान अर्थात्
ब्रह्मचर्य का आश्रय
लेगा तभी उसे राम मिलेँगे
। जिसका कण्ठ सुन्दर है
वही सुग्रीव है।कण्ठ
की शोभा आभूषण से
नही बल्कि राम नाम
का जप करने से है।
जिसका कण्ठ सुन्दर है ,
उसी की मित्रता राम से
होती है किन्तु उसे
हनुमान यानी ब्रह्मचर्य
की सहायता लेनी पडेगी ।
5. सुन्दरकाण्ड - जब जीव
की मैत्री राम से
हो जाती है तो वह सुन्दर
हो जाता है ।इस काण्ड मेँ
हनुमान को सीता के
दर्शन होते है।
सीताजी पराभक्ति है ,
जिसका जीवन सुन्दर
होता है उसे
ही पराभक्ति के दर्शन
होते है ।संसार समुद्र पार
करने वाले
को पराभक्ति सीता के
दर्शन होते है ।ब्रह्मचर्य
एवं रामनाम का आश्रय
लेने वाला संसार सागर
को पार करता है ।संसार
सागर को पार करते समय
मार्ग मेँ
सुरसा बाधा डालने आ
जाती है , अच्छे रस
ही सुरसा है , नये नये रस
की वासना रखने
वाली जीभ ही सुरसा है।
संसार सागर पार करने
की कामना रखने वाले
को जीभ को वश मे
रखना होगा ।
जहाँ पराभक्ति सीता है
वहाँ शोक नही रहता ,
जहाँ सीता है
वहाँ अशोकवन है।
6. लंकाकाण्ड - जीवन
भक्तिपूर्ण होने पर
राक्षसो का संहार
होता है काम
क्रोधादि ही राक्षस हैँ ।
जो इन्हेँ मार
सकता है ,वही काल
को भी मार सकता है ।
जिसे काम मारता है उसे
काल भी मारता है ,
लंका शब्द के
अक्षरो को इधर उधर
करने पर होगा कालं ।
काल सभी को मारता है
किन्तु हनुमान जी काल
को भी मार देते हैँ ।
क्योँकि वे ब्रह्मचर्य
का पालन करते हैँ
पराभक्ति का दर्शन करते
है ।
7. उत्तरकाण्ड - इस काण्ड
मेँ काकभुसुण्डि एवं गरुड
संवाद को बार बार
पढना चाहिए । इसमेँ सब
कुछ है ।जब तक राक्षस ,
काल का विनाश
नहीँ होगा तब तक
उत्तरकाण्ड मे प्रवेश
नही मिलेगा ।इसमेँ
भक्ति की कथा है । भक्त
कौन है ? जो भगवान से एक
क्षण भी अलग
नही हो सकता वही भक्त
है । पूर्वार्ध मे जो काम
रुपी रावण को मारता है
उसी का उत्तरकाण्ड
सुन्दर
बनता है ,वृद्धावस्था मे
राज्य करता है ।
जब जीवन के पूर्वार्ध मे
युवावस्था मे काम
को मारने का प्रयत्न
होगा तभी उत्तरार्ध -
उत्तरकाण्ड सुधर
पायेगा । अतः जीवन
को सुधारने का प्रयत्न
युवावस्था से
ही करना चाहिए ।
-> भावार्थ रामायण से .

शनिवार, 4 मार्च 2017

श्रीदुर्गासप्तश्लोकी

॥ श्रीदुर्गासप्तश्लोकी ॥
 । अथ सप्तश्लोकी दुर्गा ।
शिव उवाच
देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी ।
कलौ हि कार्यसिद्ध्यर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः ॥
देव्युवाच
शृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम् ।
मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते ॥
ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमहामन्त्रस्य नारायण ऋषिः ।
अनुष्टुभादीनि छन्दांसि । श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः ।
श्रीदूर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकी दुर्गापाठे विनियोगः ॥
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥ १॥
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
        स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
        सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता ॥ २॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ३॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ४॥
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते ।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ॥ ५॥
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥ ६॥
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि ।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरि विनाशनम् ॥ ७॥
        ॥ इति दुर्गासप्तश्लोकी सम्पूर्णा ॥

श्रीमज्जगद्गुरुशङ्करभगवत्पूज्यपादाचार्यस्तवः


॥ श्रीमज्जगद्गुरुशङ्करभगवत्पूज्यपादाचार्यस्तवः ॥
ॐ श्री गुरुभ्यो नमः ।
मुदा करेण पुस्तकं दधानमीशरूपिणं
तथाऽपरेण मुद्रिकां नमत्तमोविनाशिनीम् ।
कुसुंभवाससावृतं विभूतिभासिफालकं
नताघनाशने रतं नमामि शङ्करं गुरुम् ॥ १॥
पराशरात्मजप्रियं पवित्रितक्षमातलं
पुराणसारवेदिनं सनंदनादिसेवितम् ।
प्रसन्नवक्त्रपंकजं प्रपन्नलोकरक्षकं
प्रकाशिताद्वितीयतत्त्वमाश्रयामि देशिकं ॥ २॥
सुधांशुशेखारार्चकं सुधीन्द्रसेव्यपादुकं
सुतादिमोहनाशकं सुशान्तिदान्तिदायकम् ।
समस्तवेदपारगं सहस्रसूर्यभासुरं
समाहिताखिलेन्द्रियं सदा भजामि शङ्करम् ॥ ३॥
यमीन्द्रचक्रवर्तिनं यमादियोगवेदिनं
यथार्थतत्त्वबोधकं यमान्तकात्मजार्चकम् ।
यमेव मुक्तिकांक्षया समाश्रयन्ति सज्जना
नमाम्यहं सदा गुरुं तमेव शङ्कराभिधम् ॥ ४॥
स्वबाल्य एव निर्भरं य आत्मनो दयालुतां
दरिद्रविप्रमन्दिरे सुवर्णवृष्टिमानयन् ।
प्रदर्श्य विस्मयाम्बुधौ न्यमज्जयत् समान् जनान्
स एव शङ्करः सदा जगद्गुरुर्गतिर्मम ॥ ५॥
यदीयपुण्यजन्मना प्रसिद्धिमाप कालटी
यदीयशिष्यतां व्रजन् स तोटकोऽपि पप्रथे ।
य एव सर्वदेहिनां विमुक्तिमार्गदर्शको
नराकृतिं सदाशिवं तमाश्रयामि सद्गुरुम् ॥ ६॥
सनातनस्य वर्त्मनः सदैव पालनाय यः
चतुर्दिशासु सन्मठान् चकार लोकविश्रुतान् ।
विभाण्डकात्मजाश्रमादिसुस्थलेषु पावनान्
तमेव लोकशङ्करं नमामि शङ्करं गुरुम् ॥ ७॥
यदीयहस्तवारिजातसुप्रतिष्ठिता सती
प्रसिद्धशृङ्गभूधरे सदा प्रशान्तिभासुरे ।
स्वभक्तपालनव्रता विराजते हि शारदा
स शङ्करः कृपानिधिः करोतु मामनेनसम् ॥ ८॥
इमं स्तवं जगद्गुरोर्गुणानुवर्णनात्मकं
समादरेण यः पठेदनन्यभक्तिसंयुतः ।
समाप्नुयात् समीहितं मनोरथं नरोऽचिरात्
दयानिधेः स शङ्करस्य सद्गुरोः प्रसादतः ॥ ९॥
इति श्रीभारतीतीर्थमहास्वामिभिः विरचितम्
शंकरभगवत्पूज्यपादाचार्यस्तवः सम्पूर्णं ॥

अर्धनारीश्वरस्तोत्रम्

॥ अर्धनारीश्वरस्तोत्रम् ॥
चाम्पेयगौरार्धशरीरकायै कर्पूरगौरार्धशरीरकाय ।
धम्मिल्लकायै च जटाधराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ १ ॥
कस्तूरिकाकुङ्कुमचर्चितायै चितारजःपुञ्जविचर्चिताय ।
कृतस्मरायै विकृतस्मराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ २ ॥
झणत्क्वणत्कङ्कणनूपुरायै पादाब्जराजत्फणिनूपुराय ।
हेमाङ्गदायै भुजगाङ्गदाय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ ३ ॥
विशालनीलोत्पललोचनायै विकासिपङ्केरुहलोचनाय ।
समेक्षणायै विषमेक्षणाय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ ४ ॥
मन्दारमालाकलितालकायै कपालमालाङ्कितकन्धराय ।
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ ५ ॥
अम्भोधरश्यामलकुन्तलायै तडित्प्रभाताम्रजटाधराय ।
निरीश्वरायै निखिलेश्वराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ ६ ॥
प्रपञ्चसृष्ट्युन्मुखलास्यकायै समस्तसंहारकताण्डवाय ।
जगज्जनन्यै जगदेकपित्रे नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ ७ ॥
प्रदीप्तरत्नोज्ज्वलकुण्डलायै स्फुरन्महापन्नगभूषणाय ।
शिवान्वितायै च शिवान्विताय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ ८ ॥
एतत्पठेदष्ठकमिष्टदं यो भक्त्या स मान्यो भुवि दीर्घजीवी ।
प्राप्नोति सौभाग्यमनन्तकालं भूयात्सदा तस्य समस्तसिद्धिः ॥ ९ ॥
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ अर्धनारीश्वरस्तोत्रम् संपूर्णम् ॥

नवनागनामस्तोत्रम्

॥ नवनागनामस्तोत्रम् ॥
श्रीगणेशाय नमः ।
अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम् ।
शङ्खपालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा ॥ १॥
एतानि नवनामानि नागानां च महात्मनाम् ।
सायङ्काले पठेन्नित्यं प्रातःकाले विशेषतः ॥ २॥
तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ ३॥
॥ इति श्रीनवनागनामस्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...