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यम नियम

उद्धवजी ने कहा– भगवन! यम और नियम कितने प्रकार के है?
*शम क्या है?
*तितिक्षा और धैर्य क्या है?
*आप मुझे दान, तपस्या, शूरता, सत्य, का भी स्वरुप बताईये?
*त्याग क्या है? अभीष्ट धन कौन-सा है? यज्ञ किसे कहते है?
*दक्षिणा क्या वस्तु है? पुरुष का सच्चा बल क्या है? लाभ क्या वस्तु है?
*पंडित और मूर्ख के लक्षण क्या है ? स्वर्ग और नरक क्या है?
*भाई-बंधू किसे मानना चाहिये? और घर क्या है?
*धनवान और निर्धन किसे कहते है कृपण कौन है? ईश्वर किसे कहते है?
आप मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दीजिए और साथ ही इनके विरोधी भावो की भी व्याख्या कीजिये.
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- यम बारह है- अहिंसा, सत्य, अस्तेय(चोरी न करना), असंगता, लज्जा, असंचय(आवश्यकता से
अधिक धन न जोडना), आस्तिकता ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमता, और अभय.
नियमों की संख्या भी बारह ही है- शौच(बाहरी और भीतरी पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथिसेवा, मेरी पूजा, तीर्थ यात्रा, परोपकार, की चेष्टा, संतोष, और गुरुसेवा-
इस प्रकार यम और नियम दोनो की संख्या बारह-बारह है -ये सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के साधको के लिए उपयोगी है.जो पुरुष इनका पालन करते है वे यम और नियम उनके इच्छानुसार उन्हें भोग और मोक्ष दोनों प्रदान करते है.
*बुद्धि का मुझमे लग जाना ही ‘शम’ है, इन्द्रियों के संयम का नाम ‘दम’ है *न्याय से प्राप्त दुःख के सहने का नाम ‘तितिक्षा’ है,
*जिव्हा और जनेन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना ‘धैर्य’ है,
*किसी से द्रोह न करना सबको अभय देना ‘दान’ है,
*कामनाओ का त्याग करना ही ‘तप’ है, अपनी वासनाओ पर विजय प्राप्त करना ही ‘शूरता’ है,
*सर्वत्र समस्वरूप, सत्यस्वरूप परमात्मा का दर्शन ही ‘सत्य’ है, इसी प्रकार  सत्य औ़र मधुर भाषण को ही महात्माओ ने ‘ऋत’ कहा है,
*कर्मो में आसक्त न होना ही ‘शौच’ है, कामनाओ का त्याग ही सच्चा ‘संन्यास’ है,
*धर्म ही मनुष्यों का अभीष्ट ‘धन’ है, मै परमेश्वर ही ‘यज्ञ’ हूँ, ज्ञान का उपदेश देना ही ‘दक्षिणा है,
*प्राणायाम ही श्रेष्ठ बल है, मेरी श्रेष्ठ भक्ति ही उत्तम ‘लाभ’ है,
*सच्ची ‘विद्या’ वही है जिससे ब्रह् और आत्मा का भेद मिट जाता है,
*पाप करने से घ्रृणा होने का नाम ही ‘लज्जा’ है,
*निरपेक्षता आदि गुण ही शरीर का सच्चा सौंदर्य – ‘श्री’ है, दुःख और सुख दोनों की भावना का सदा के लिए नष्ट हो जाना ही ‘सुख’ है, विषयभोगो की कामना ही ‘दुःख’ है,
*जो बंधन और मोक्ष का तत्व जानता है वही ‘पंडित’ है, शरीर आदि में जिसका मैपन है वही ‘मूर्ख’ है, जो संसार की ओर से निवृत करके मुझे प्राप्त करा देता है वही सच्चा ‘सुमार्ग’ है, चित्त की बहिमुर्खता ही ‘कुमार्ग’ है
*सत्त्वगुण की वृद्धि ही ‘स्वर्ग’ और तमोगुण की वृद्धि ही ‘नरक’ है, गुरु ही सच्चा ‘भाई-बंधू’ है, और वह गुरु मै हूँ,
*यह मनुष्य शरीर ही सच्चा ‘घर’ है,
*सच्चा धनी वह है जो गुणों से संपन्न है जिसके पास गुणों का खजाना है. जिसके चित्त में असंतोष है, अभाव का बोध है, वही ‘दरिद्र’ है,
*जो जितेन्द्रीय नहीं है,वही ‘कृपण’ है,
*समर्थ, स्वतंत्र, और ‘ईश्वर’ वह है, जिसकी चित्तवृति विषयों में आसक्त नहीं है, इसके विपरीत जो विषयों में आसक्त है, वही सर्वथा ‘असमर्थ’ है,
सबका सार इतने में ही समझ लो कि गुणों और दोषों पर द्रष्टि जाना ही –‘सबसे बड़ा दोष है’और गुणदोषों पर द्रष्टि न जाकर अपने शांत निस्संकल्प स्वरुप में स्थिर रहे - वही सबसे बड़ा गुण है.
"जय जय श्री राधे "

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