रविवार, 7 अक्टूबर 2018

पक्षीराज गरुड़

महर्षि कश्यप की तेरह पत्नियां थी। लेकिन विनता और कद्रू नामक अपनी दो पत्नियों से वे विशेष प्रेम करते थे।
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एक दिन महर्षि जब आनंद भाव में बैठे थे तो उनकी दोनों पत्नियां उनके समीप पहुंची और पति के पांव दबाने लगी। प्रसन्न होकर महर्षि ने बारी-बारी से दोनों को सम्बोधित किया-
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तुम दोनों ही मुझे विशेष प्रिय हो। तुम्हारी कोई इच्छा हो तो बताओ।
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कद्रू बोली- स्वामी ! मेरी इच्छा है कि मैं हजार पुत्रो की माँ बनूं।
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फिर महर्षि ने विनता से पूछा। विनता ने कहा- मैं भी माँ बनना चाहती हूं स्वामी ! किन्तु हजार पुत्रो की नहीं, बल्कि सिर्फ एक ही पुत्र की।
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लेकिन मेरा पुत्र इतना बलवान हो कि कद्रू के हजार पुत्र भी उसकी बराबरी न कर सके।
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महर्षि बोले- शीघ्र ही मैं एक यज्ञ करने वाला हूं। यज्ञोपरांत तुम दोनों की माँ बनने की इच्छाएं अवश्य पूरी होगी।
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महर्षि कश्यप ने यज्ञ किया। देवता और ऋषि-मुनियों ने सहर्ष यज्ञ में हिस्सा लिया। यज्ञ सम्पूर्ण करके महर्षि कश्यप पुनः तपस्या करने चले गए।
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कुछ माह पश्चात विनता ने दो तथा कद्रु ने एक हजार अंडे दिए। कुछ काल के पश्चात कद्रु ने अपने अंडे फोड़े तो उनमे से काले नागों के बच्चे निकल पड़े।
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कद्रु ने ख़ुशी से चहकते हुए विनता को पुकारा- विनता ! देखो तो मेरे अन्डो से कितने प्यारे बच्चे बाहर निकले है।
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विनता बोली- सचमुच बहुत खूबसूरत है कद्रू ! बधाई हो, अब मैं भी अपने दोनों अंडो को फोड़कर देखती हूं।
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यह कहकर विनता अपने दोनों अंडो के पास गई। उसने एक अंडा फोड़ दिया,
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लेकिन अंडे के अंदर से एक बच्चे का आधा बना शरीर देखकर वह सहम गई। बोली- हे भगवान ! जल्दीबाजी में मैने ये क्या कर डाला। यह बच्चा तो अभी अपूर्ण है।
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तभी फूटे हुए अंडे के अंदर से बालक बोल पड़ा- जल्दबाजी में अंडा फोड़कर तुमने बहुत बड़ा अपराध कर डाला है। फलस्वरूप तुम्हे कुछ समय तक दासता करनी होगी।
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विनता बोली- अपराध तो मुझसे हो ही गया। लेकिन इसका निराकरण कैसे होगा पुत्र ?
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अपूर्ण बालक बोला- दूसरे अंडे को फोड़ने में जल्दबाजी मत करना। यदि तुमने ऐसा किया तो जीवन भर दासता से मुक्त नहीं हो पाओगी।
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क्योंकि उसी अंडे से पैदा होने वाला तुम्हारा पुत्र तुम्हे दासता से मुक्ति दिलाएगा।
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इतना कहकर अंडे से उत्पन्न अपूर्ण बालक आकाश में उड़ गया और विनता दूसरे अंडे के पकने तक इंतजार करने लगी।
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समय पाकर अंडा फूटा और उसमे से एक महान तेजस्वी बालक उत्पन्न हुआ, जिसका नाम गरुड़ रखा गया।
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गरुड़ दिन-प्रतिदिन बड़ा होने लगा और कद्रू के हजार पुत्रों पर भारी पड़ने लगा।
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परिणामस्वरूप विनता और कद्रू के संबंध दिन-प्रतिदिन कटु से कटुतर होते गए।
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फिर एक दिन जब विनता और कद्रू भृमण कर रही थी। कद्रू ने सागर के किनारे दूर खड़े सफेद घोड़े को देखकर विनता से कहा-
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बता सकती हो विनता ! दूर खड़ा वह घोड़ा किस रंग का है ?
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विनता बोली- सफेद रंग का।
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कद्रू बोली- शर्त लगाकर कह सकती हो कि घोड़ा सफेद रंग का ही है। मुझे तो इसकी पूंछ काले रंग की नजर आ रही है।
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विनता बोली- “तुम्हारा विचार गलत है। घोड़ा पूंछ समेत सफेद रंग का है।
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दोनों में काफी देर तक यही बहस छिड़ी रही। आखिर में कद्रू ने कहा- तो फिर हम दोनों में शर्त हो गई।
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कल घोड़े को चलकर देखते है। यदि वह सम्पूर्ण सफेद रंग का हुआ तो मैं हारी, और यदि उसकी पूंछ काली निकली तो मैं जीत जाऊंगी।
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उस हालत में जो भी हम दोनों में से जीतेगी, तो हारने वाली को जीतने वाली की दासी बनना पड़ेगा। बोलो तुम्हे मंजूर है ?
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विनता बोली- मुझे मंजूर है।
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रात को ही कद्रू ने अपने सर्प पुत्रों को बुलाकर कहा- आज रात को तुम सब उच्चेः श्रवा घोड़े की पूंछ से जाकर लिपट जाना। ताकि सुबह जब विनता देखे तो उसे घोड़े की पूंछ काली नजर आए।
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योजनानुसार नाग उच्चेः श्रवा घोड़े की पूंछ से जाकर लिपट गए। परिणाम स्वरूप सुबह जब कद्रू ने विनता को घोड़े की पूंछ काले रंग की दिखाई तो वह हैरान रह गई।
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बोली- ऐसा कैसे हो गया। कल तो इसकी पूंछ बिलकुल सफेद थी।
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कद्रू बोली- खूब तसल्ली से देख लो। घोड़े की पूंछ आरम्भ से ही काली है। शर्त के मुताबित तुम हार चुकी हो। इसलिए अब तुम्हे मेरी दासी बनकर रहना पड़ेगा।
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विवशतापूर्वक विनता को कद्रू की दासता स्वीकार करनी पड़ी।
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माता को उदास देखकर गरुड़ ने पूछा- क्या ऐसा कोई उपाय नहीं है जिससे आप कद्रू की दासता से मुक्त हो जाए ?
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विनता बोली- यह तो कद्रू से ही पूछना पड़ेगा। यदि वह प्रसन्न हो जाती है तो मुझे दासता से मुक्त कर देगी।
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गरुड़ अपनी माता विनता को लेकर कद्रू के पास पहुंचा और कहा- क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप मेरी माता को अपनी दासता से मुक्त कर दे।
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कद्रू बोली- हो सकता है। बशर्ते कि तुम मेरे पुत्रों को अमृत लाकर दे दो।
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यह सुनकर गरुड़ सोच में पड़ गया। उसने अपनी माता से पूछा- माँ ! अमृत कहा मिलेगा जिसे लेकर मैं तुम्हे दासी जीवन से मुक्त कर संकू।
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विनता ने कहा- अमृत का पता तुम्हारे पिता बता सकते है पुत्र ! तुम उन्हीं के पास जाकर पूछो।
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गरुड़ महर्षि कश्यप के पास पहुंचा। कश्यप अपने पुत्र को देखकर बहुत प्रसन्न हुए।
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गरुड़ ने उनसे पूछा- पिताश्री ! मैं अमृत लेकर अपनी माता को दासता से मुक्ति दिलाना चाहता हूं। कृपया मुझे बताइये कि अमृत कहा मिलेगा।
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महर्षि बोले- पुत्र ! देवराज इंद्र ने अमृत की सुरक्षा के लिए बहुत व्यापक प्रबंध कर रखा है। वहां तक पहुचना कठिन है।
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गरुड़ बोला- इंद्र ने कितनी ही कड़ी सुरक्षा प्रबंध क्यों न कर रखे हो। मगर मैं अमृत ले आऊंगा। आप मुझे सिर्फ उस स्थान का पता बता दीजिये।
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महर्षि कश्यप ने गरुड़ को इंद्र का पता बता दिया। गरुड़ ने फिर पूछा- पिता जी ! मुझे भूख बहुत लगती है। कृपया मुझे यह भी बता दीजिये कि इस लम्बे मार्ग में क्या खाकर अपना पेट भरु।
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महर्षि बोले- अमृत जिस स्थान पर रखा है उस सरोवर तक पहुंचने में तुम्हे वक्त लग जाएगा। इस बीच समुद्र के किनारे तुम्हे निषादों की अनेक बस्तिया मिलेगी।
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ये निषाद बहुत पतित है और इनके आचरण असुरो जैसे है। तुम इन्हे खाकर अपनी भूख मिटा लेना।
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गरुड़ बोला- और उसके बाद भी मेरा पेट न भरा तो ?
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महर्षि बोले- सरोवर के अंदर एक विशाल कछुआ रहता है और उसके साथ ही वन में एक महा भयंकर हाथी भी रहता है।
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दोनों ही बहुत क्रूर और आसुरी प्रवृति के है। तुम उन्हें भी खा सकते हो।
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पिता का आदेश पाते ही गरुड़ अमृत सरोवर की ओर बढ़ चला। मार्ग में उसने निषादों को खाकर अपनी भूख मिटाई।
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फिर अमृत सरोवर पर पहुंचकर कच्छप और हाथी को अपने पंजो में दबाया और दोनों को खाने के लिए किसी उचित जगह की तलाश में उड़ चला।
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सोमगिरि पर्वत पर लहलहाते ऊंचे वृक्षों को देखकर जैसे ही उसने एक वृक्ष पर बैठना चाहा तो उनके भार से वृक्ष की शाखा टूटकर नीचे गिरने लगी।
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यह देख गरुड़ तुरंत उड़ा और दूसरे वृक्ष पर जा बैठा। जिस शाखा पर वह बैठा उस शाखा पर उसने उलटे लटके कुछ ऋषियों को तपस्या करते देखा।
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लेकिन वह शाखा उनके भार से टूटकर नीचे गिरने लगी। यह देख गरुड़ ने शाखा को चोंच में दबाया और हाथी तथा कच्छप को पंजे में दबाए हुए वह अपने पिता के आश्रम की ओर उड चला।
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कश्यप के आश्रम में गरुड़ ने उड़ते-उड़ते अपने पिता से पूछा- पिताजी ! मेरे भार से उस पेड़ की शाखा टूट गई है जिस पर कुछ ऋषि उलटे लटके तपस्या कर रहे थे।
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मुझे बताइये अब मैं इस शाखा को कहां छोडूं ?
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महर्षि कश्यप बोले- तुमने बहुत अच्छा किया पुत्र ! जो सीधे यहां चले आए। शाखा, से उलटे लटके हुए ये बालखिल्य ऋषिगण है।
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अगर इन्हे कष्ट पहुंचा तो ये शाप देकर तुम्हे भस्म कर देंगे।
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गरुड़ बोले- तो फिर बताइये अब मैं क्या करूं ?
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महर्षि बोले- ठहरो, मैं ऋषिगण से प्रार्थना करता हूं कि वे अपना स्थान छोड़कर नीचे आ जाए।
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महर्षि कश्यप ने ऋषि गणो से प्रार्थना की। बालखिल्य ऋषियों ने कश्यप की प्रार्थना स्वीकार कर शाखा छोड़ दी और वे हिमालय में तपस्या करने चले गए।
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चोंच में दबी शाखा को नीचे फेंककर गरुड़ ने भी आनंद से कछुए और हाथी का आहार किया और तृप्त होकर पुनः अमृत लाने के लिए उड़ चला।
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गरुड़ अमृत सरोवर के पास पहुंचा तो अमृत की रक्षा करते हुए महाकाय देवो और अमृत कलश के चारो ओर घूमते हुए चक्र को देखकर वह हैरान हो गया।
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उसने सोचा कि ये देव और चक्र देवराज इंद्र ने अमृत कलश की सुरक्षा के लिए लगाए हुए है।
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चक्र में फंसकर मेरे पंख कट सकते है। इसलिए मैं अत्यंत छोटा रूप धारण कर इसके मध्य में प्रवेश करूंगा।
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गरुड़ को देखकर एक देव ने कहा- यह कोई असुर है जो वेश बदलकर अमृत चुराने यहां तक पहुंचा है। हमे इसे खत्म कर देना चाहिए।
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दोनों देव विद्युत गति से गरुड़ पर टूट पड़े। लेकिन गरुड़ ने अपने पैने पंजो और तीखी चोंच से इन्हे इतना घायल कर दिया कि शीघ्र ही वे दोनों बेहोश होकर गिर पड़े।
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गरुड़ ने अमृत कलश पंजो में दबाया और वापस उड़ गया।
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होश में आते ही दोनों रक्षक देव घबराए हुए इंद्र के पास पहुंचे और गरुड़ द्वारा अमृत कलश ले उड़ने की घटना बता दी।
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यह सुनके इंद्र चकित होकर बोला- ऐसा कैसे हो गया। सरोवर में रहने वाले विशाल कच्छप और तट पर रहने वाले महाकाय हाथी का क्या हुआ ?
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उन दोनों को भी उस विशाल गरुड़ ने अपना भोजन बना लिया।
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यह सुनकर इंद्र अपनी देव सेवा की एक टुकड़ी के साथ वज्र उठाए इन्द्रपुरी से निकला और गरुड़ की खोज में बढ़ चला।
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आकाश मार्ग में उड़ते हुए शीघ्र ही उसने गरुड़ को देख लिया और अपना वज्र चला दिया।
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इंद्र के वज्र का गरुड़ पर कोई असर न हुआ। उसके डैनों से सिर्फ एक पंख वज्र से टकराकर नीचे आ गिरा।
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देव गरुड़ पर टूट पड़े लेकिन कुछ ही समय में गरुड़ ने उन्हें अपनी पैनी चोंच की मार से अधमरा कर दिया।
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यह देख इंद्र सोचने लगा- यह तो महान पराक्रमी है। मेरे वज्र का इस पर जरा भी असर नहीं हुआ।
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जबकि मेरे वज्र के प्रहार से पहाड़ तक टूट के चूर्ण बन जाते है। ऐसे पराक्रमी को शत्रुता से नहीं मित्रता से काबू में करना चाहिए।
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यह सोचकर इंद्र ने गरुड़ से कहा- पक्षीराज ! मैं तुम्हारी वीरता से बहुत प्रभावित हुआ हूं। इस अमृत कलश को मुझे सौंप दो और बदले में जो भी वर मांगना चाहते हो मांग लो।
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गरुड़ बोला- यह अमृत मैं अपने लिए नही, अपनी माता को दासता से मुक्त कराने के लिए नाग माता को देने के लिए ले जा रहा हूं। इसलिए यह कलश मैं तुम्हे नहीं दूंगा।
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इंद्र बोला- ठीक है, इस समय तुम कलश ले जाकर नाग माता को सौंप दो किन्तु उन्हें इसे प्रयोग मत करने देना। उचित मौका देखकर मैं वहां से यह कलश गायब कर दूंगा।
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गरुड़ बोला- अगर मैं तुम्हारी बात को मान लूं तो मुझे बदले में क्या मिलेगा ?
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इंद्र बोला- तुम्हारा मनपसंद भरपेट भोजन। तब मैं तुम्हे इन्ही नागो को खाने की इजाजत दे दूंगा।
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गरुड़ बोला- यही तो मैं चाहता हूं। नाग मेरे स्वादिष्ट भोजन है किन्तु एक ही पिता की संतान होने के कारण मैं इन्हे कहते हुए हिचकता हूं।
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अब मेरी हिचक दूर हो गई। अब मैं आपके कथानुसार ही कार्य करूंगा।
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यह कहकर गरुड़ अमृत कलश लेकर कद्रु के पास पहुंचा और उससे बोला- माते ! अपनी प्रतिज्ञानुसार मैं अमृत कलश ले आया हूं। अब आप अपने वचन से मेरी माता को मुक्त कर दे।
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कद्रु ने उसी क्षण विनता को वचन से मुक्त कर दिया और अगली सुबह अमृत नागो को पिलाने का निश्चय कर वहां से चली गई।
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रात को उचित मौका देखकर इंद्र ने अमृत कलश उठा लिया और पुनः उसी स्थान पर पहुंचा दिया।
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दूसरे दिन सुबह नाग जब वहां पहुंचे तो अमृत कलश गायब देखकर दुखी हुए। उन्होंने उस कुशा को ही जिस पर अमृत कलश रखा था चाटना आरम्भ कर दिया जिसके कारण उनकी जीभ दो हिस्सों में फट गई।
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गरुड़ की मातृभक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु गरुड़ के सम्मुख प्रकट हो गए और बोले- मैं तुम्हारी मातृभक्ति देखकर बहुत प्रसन्न हूं पक्षीराज ! मैं चाहता हूं कि अब से तुम मेरे वाहन के रूप में मेरे साथ रहा करो।
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गरुड़ बोला- मैं बहुत भाग्यशाली हूं प्रभु जो स्वयं आपने मुझे अपना वाहन बनाना स्वीकार किया।
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आज से मैं हर क्षण आपकी सेवा में रहूंगा और आपको छोड़कर कही नहीं जाऊंगा।
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इस तरह उसी दिन से पक्षीराज गरुड़ भगवान विष्णु के वाहन के रूप में प्रयुक्त होने लगे।
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गरुड़ के भगवान विष्णु की सेवा में जाते ही देवता भयमुक्त हो गए।
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और चूँकि नागों के छल के कारण गरुड़ की माँ विनीता को दासता स्वीकार करनी पड़ी इसलिए नाग और गरुड़ एक दूसरे के दुश्मन है।

जय श्री राधे

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
 हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।

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