पापमोचिनी एकादशी 28 मार्च विशेष
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हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। हिन्दू धर्म में कहा गया है कि संसार में उत्पन्न होने वाला कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं है जिससे जाने अनजाने पाप नहीं हुआ हो। पाप एक प्रकार की ग़लती है जिसके लिए हमें दंड भोगना होता है। ईश्वरीय विधान के अनुसार पाप के दंड से बचा जा सकता हैं अगर पापमोचिनी एकादशी का व्रत रखें।
पौराणिक संदर्भ
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पुराणों के अनुसार चैत्र कृष्ण पक्ष की एकादशी पाप मोचिनी कहलाती है अर्थात पाप को नष्ट करने वाली। स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने इसे अर्जुन से कहा है। कथा के अनुसार भगवान अर्जुन से कहते हैं, राजा मान्धाता ने एक समय में लोमश ऋषि से जब पूछा कि प्रभु यह बताएं कि मनुष्य जो जाने अनजाने पाप कर्म करता है उससे कैसे मुक्त हो सकता है। इस वर्ष पाप मोचिनी एकादशी का व्रत 7 अप्रैल को स्मार्त एवं वैष्णव सम्प्रदाय से जुड़े भक्तो द्वारा एवं 8 अप्रैल के दिन निम्बार्क सम्प्रदाय से जुड़े भक्तो द्वारा किया जाएगा।
पाप मोचनी एकादशी व्रत विधि
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इस व्रत के विषय में भविष्योत्तर पुराण में विस्तार से वर्णन किया गया है। इस व्रत में भगवान विष्णु के चतुर्भुज रूप की पूजा की जाती है। व्रती दशमी तिथि को एक बार सात्विक भोजन करे और मन से भोग विलास की भावना को निकालकर हरि में मन को लगाएं। एकादशी के दिन सूर्योदय काल में स्नान करके व्रत का संकल्प करें। संकल्प के उपरान्त षोड्षोपचार अथवा सामर्थ्य अनुसार भगवान विष्णु की चतुर्भुज रूप की पूजा करें. उन्हें पीले वस्र धारण कराएं और सवा मीटर पीले वस्त्र पर उन्हें स्थापित करें. भगवान को 11 पीले फल, 11 फूल और 11 पीली मिठाई अर्पित करें. इसके बाद उन्हें पीला चंदन और पीला जनेऊ अर्पित करें. इसके बाद पीले आसन पर बैठकर भगवत कथा का पाठ या विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करें. एकादशी तिथि को जागरण करने से कई गुणा पुण्य मिलता है अत: रात्रि में भी निराहार रहकर भजन कीर्तन करते हुए जागरण करें। द्वादशी के दिन प्रात: स्नान करके विष्णु भगवान की पूजा करें फिर ब्रह्मणों को भोजन करवाकर दक्षिणा सहित विदा करें पश्चात स्वयं भोजन करें।
पापमोचिनी एकादशी कथा
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भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: हे अर्जुन! चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को पापमोचनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। एक बार की बात है, पृथ्वीपति राजा मान्धाता ने लोमश ऋषि से यही प्रश्न किया था, जो तुमने मुझसे किया है। अतः जो कुछ भी ऋषि लोमश ने राजा मान्धाता को बतलाया, वही मैं तुमसे कह रहा हूँ।
राजा मान्धाता ने धर्म के गुह्यतम रहस्यों के ज्ञाता महर्षि लोमश से पूछा: हे ऋषिश्रेष्ठ! मनुष्य के पापों का मोचन किस प्रकार सम्भव है? कृपा कर कोई ऐसा सरल उपाय बतायें, जिससे सभी को सहज ही पापों से छुटकारा मिल जाए।
राजा मान्धाता के इस प्रश्न के जवाब में लोमश ऋषि ने राजा को एक कहानी सुनाई।
महर्षि लोमश ने कहा: हे नृपति! चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम पापमोचिनी एकादशी है। उसके व्रत के प्रभाव से मनुष्यों के अनेक पाप नष्ट हो जाते हैं। मैं तुम्हें इस व्रत की कथा सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण करो।
प्राचीन समय में चैत्ररथ नामक एक वन था। उसमें अप्सराएँ किन्नरों के साथ विहार किया करती थीं। वहाँ सदैव वसन्त का मौसम रहता था, अर्थात उस जगह सदा नाना प्रकार के पुष्प खिले रहते थे। कभी गन्धर्व कन्याएँ विहार किया करती थीं, कभी देवेन्द्र अन्य देवताओं के साथ क्रीड़ा किया करते थे।
उसी वन में मेधावी नाम के एक ऋषि भी तपस्या में लीन रहते थे। वे शिवभक्त थे। एक दिन मञ्जुघोषा नामक एक अप्सरा ने उनको मोहित कर उनकी निकटता का लाभ उठाने की चेष्टा की, इसलिए वह कुछ दूरी पर बैठ वीणा बजाकर मधुर स्वर में गाने लगी।
उसी समय शिव भक्त महर्षि मेधावी को कामदेव भी जीतने का प्रयास करने लगे। कामदेव ने उस सुन्दर अप्सरा के भ्रू का धनुष बनाया। कटाक्ष को उसकी प्रत्यन्चा बनाई और उसके नेत्रों को मञ्जुघोषा अप्सरा का सेनापति बनाया। इस तरह कामदेव अपने शत्रुभक्त को जीतने को तैयार हुआ।
उस समय महर्षि मेधावी भी युवावस्था में थे और काफी हृष्ट-पुष्ट थे। उन्होंने यज्ञोपवीत तथा दण्ड धारण कर रखा था। वे दूसरे कामदेव के समान प्रतीत हो रहे थे। उस मुनि को देखकर कामदेव के वश में हुई मञ्जुघोषा ने धीरे-धीरे मधुर वाणी से वीणा पर गायन शुरू किया तो महर्षि मेधावी भी मञ्जुघोषा के मधुर गाने पर तथा उसके सौन्दर्य पर मोहित हो गए। वह अप्सरा मेधावी मुनि को कामदेव से पीड़ित जानकर उनसे आलिङ्गन करने लगी।
महर्षि मेधावी उसके सौन्दर्य पर मोहित होकर शिव रहस्य को भूल गए और काम के वशीभूत होकर उसके साथ रमण करने लगे।
काम के वशीभूत होने के कारण मुनि को उस समय दिन-रात का कुछ भी ज्ञान न रहा और काफी समय तक वे रमण करते रहे। तदुपरान्त मञ्जुघोषा उस मुनि से बोली: हे ऋषिवर! अब मुझे बहुत समय हो गया है, अतः स्वर्ग जाने की आज्ञा दीजिये।
अप्सरा की बात सुनकर ऋषि ने कहा: हे मोहिनी! सन्ध्या को तो आयी हो, प्रातःकाल होने पर चली जाना।
ऋषि के ऐसे वचनों को सुनकर अप्सरा उनके साथ रमण करने लगी। इसी प्रकार दोनों ने साथ-साथ बहुत समय बिताया।
मञ्जुघोषा ने एक दिन ऋषि से कहा: हे विप्र! अब आप मुझे स्वर्ग जाने की आज्ञा दीजिये।
मुनि ने इस बार भी वही कहा: हे रूपसी! अभी ज्यादा समय व्यतीत नहीं हुआ है, कुछ समय और ठहरो।
मुनि की बात सुन अप्सरा ने कहा: हे ऋषिवर! आपकी रात तो बहुत लम्बी है। आप स्वयं ही सोचिये कि मुझे आपके पास आये कितना समय हो गया। अब और ज्यादा समय तक ठहरना क्या उचित है?
अप्सरा की बात सुन मुनि को समय का बोध हुआ और वह गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगे। जब उन्हें समय का ज्ञान हुआ कि उन्हें रमण करते सत्तावन (57) वर्ष व्यतीत हो चुके हैं तो उस अप्सरा को वह काल का रूप समझने लगे।
इतना ज्यादा समय भोग-विलास में व्यर्थ चला जाने पर उन्हें बड़ा क्रोध आया। अब वह भयंकर क्रोध में जलते हुए उस तप नाश करने वाली अप्सरा की तरफ भृकुटी तानकर देखने लगे। क्रोध से उनके अधर काँपने लगे और इन्द्रियाँ बेकाबू होने लगीं।
क्रोध से थरथराते स्वर में मुनि ने उस अप्सरा से कहा: मेरे तप को नष्ट करने वाली दुष्टा! तू महा पापिन और बहुत ही दुराचारिणी है, तुझ पर धिक्कार है। अब तू मेरे श्राप से पिशाचिनी बन जा।
मुनि के क्रोधयुक्त श्राप से वह अप्सरा पिशाचिनी बन गई। यह देख वह व्यथित होकर बोली: हे ऋषिवर! अब मुझ पर क्रोध त्यागकर प्रसन्न होइए और कृपा करके बताइये कि इस शाप का निवारण किस प्रकार होगा? विद्वानों ने कहा है, साधुओं की सङ्गत अच्छा फल देने वाली होती है और आपके साथ तो मेरे बहुत वर्ष व्यतीत हुए हैं, अतः अब आप मुझ पर प्रसन्न हो जाइए, अन्यथा लोग कहेंगे कि एक पुण्य आत्मा के साथ रहने पर मञ्जुघोषा को पिशाचिनी बनना पड़ा।
मञ्जुघोषा की बात सुनकर मुनि को अपने क्रोध पर अत्यन्त ग्लानि हुई साथ ही अपनी अपकीर्ति का भय भी हुआ, अतः पिशाचिनी बनी मञ्जुघोषा से मुनि ने कहा: तूने मेरा बड़ा बुरा किया है, किन्तु फिर भी मैं तुझे इस श्राप से मुक्ति का उपाय बतलाता हूँ। चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की जो एकादशी है, उसका नाम पापमोचिनी है। उस एकादशी का उपवास करने से तेरी पिशाचिनी की देह से मुक्ति हो जाएगी।
ऐसा कहकर मुनि ने उसको व्रत का सब विधान समझा दिया। फिर अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए वे अपने पिता च्यवन ऋषि के पास गये।
च्यवन ऋषि ने अपने पुत्र मेधावी को देखकर कहा: हे पुत्र! ऐसा क्या किया है तूने कि तेरे सभी तप नष्ट हो गए हैं? जिससे तुम्हारा समस्त तेज मलिन हो गया है?
मेधावी मुनि ने लज्जा से अपना सिर झुकाकर कहा: पिताश्री! मैंने एक अप्सरा से रमण करके बहुत बड़ा पाप किया है। इसी पाप के कारण सम्भवतः मेरा सारा तेज और मेरे तप नष्ट हो गए हैं। कृपा करके आप इस पाप से छूटने का उपाय बतलाइये।
ऋषि ने कहा: हे पुत्र! तुम चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की पापमोचिनी एकादशी का विधि तथा भक्तिपूर्वक उपवास करो, इससे तुम्हारे सभी पाप नष्ट हो जाएंगे।
अपने पिता च्यवन ऋषि के वचनों को सुनकर मेधावी मुनि ने पापमोचिनी एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। उसके प्रभाव से उनके सभी पाप नष्ट हो गए।
मञ्जुघोषा अप्सरा भी पापमोचिनी एकादशी का उपवास करने से पिशाचिनी की देह से छूट गई और पुनः अपना सुन्दर रूप धारण कर स्वर्गलोक चली गई।
लोमश मुनि ने कहा: हे राजन! इस पापमोचिनी एकादशी के प्रभाव से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस एकादशी की कथा के श्रवण व पठन से एक हजार गौदान करने का फल प्राप्त होता है। इस उपवास के करने से ब्रह्म हत्या करने वाले, स्वर्ण चुराने वाले, मद्यपान करने वाले, अगम्या गमन करने वाले आदि भयंकर पाप भी नष्ट हो जाते हैं और अन्त में स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है।
पापमोचनी एकादशी व्रत का शुभ मुहूर्त
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एकादशी तिथि आरंभ👉 27 मार्च रविवार, सायं 06 बजकर 03 मिनट से
एकादशी तिथि समाप्त- 28 मार्च सोमवार, दिन 04 बजकर 15 मिनट पर
एकादशी व्रत पारण समय- 29 मार्च मंगलवार, प्रातः 06 बजकर 09 मिनट से 08 बजकर 37 मिनट तक
भगवान जगदीश्वर जी की आरती
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ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी! जय जगदीश हरे।
भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करे॥
जो ध्यावै फल पावै, दुख बिनसे मन का।
सुख-संपत्ति घर आवै, कष्ट मिटे तन का॥ ॐ जय...॥
मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूं किसकी।
तुम बिनु और न दूजा, आस करूं जिसकी॥ ॐ जय...॥
तुम पूरन परमात्मा, तुम अंतरयामी॥
पारब्रह्म परेमश्वर, तुम सबके स्वामी॥ ॐ जय...॥
तुम करुणा के सागर तुम पालनकर्ता।
मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥ ॐ जय...॥
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।
किस विधि मिलूं दयामय! तुमको मैं कुमति॥ ॐ जय...॥
दीनबंधु दुखहर्ता, तुम ठाकुर मेरे।
अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे॥ ॐ जय...॥
विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।
श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा॥ ॐ जय...॥
तन-मन-धन और संपत्ति, सब कुछ है तेरा।
तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा॥ ॐ जय...॥
जगदीश्वरजी की आरती जो कोई नर गावे।
कहत शिवानंद स्वामी, मनवांछित फल पावे॥ ॐ जय...॥
क्षमायाचना का मंत्र और उसका अर्थ
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आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्. पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर..
मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन. यत्पूजितं मया देव. परिपूर्ण तदस्तु मे..
अर्थात👉 हे ईश्वर मैं आपका “आवाह्न” अर्थात् आपको बुलाना नहीं जानता हूं न विसर्जनम् अर्थात् न ही आपको विदा करना जानता हूं मुझे आपकी पूजा भी करनी नहीं आती है. कृपा करके मुझे क्षमा करें. न मुझे मंत्र का ज्ञान है न ही क्रिया का, मैं तो आपकी भक्ति करना भी नहीं जानता. यथा संभव पूजा कर रहा हूं, कृपा करके मेरी भूल को क्षमा कर दें और पूजा को पूर्णता प्रदान करें. मैं भक्त हूं मुझसे गलती हो सकती है, हे ईश्वर मुझे क्षमा कर दें. मेरे अहंकार को दूर कर दें. मैं आपकी शरण में हूं।