सोमवार, 28 मार्च 2022

पापमोचनी एकादशी विशेष

 पापमोचिनी एकादशी 28 मार्च विशेष

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हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। हिन्दू धर्म में कहा गया है कि संसार में उत्पन्न होने वाला कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं है जिससे जाने अनजाने पाप नहीं हुआ हो। पाप एक प्रकार की ग़लती है जिसके लिए हमें दंड भोगना होता है। ईश्वरीय विधान के अनुसार पाप के दंड से बचा जा सकता हैं अगर पापमोचिनी एकादशी का व्रत रखें।


पौराणिक संदर्भ

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पुराणों के अनुसार चैत्र कृष्ण पक्ष की एकादशी पाप मोचिनी कहलाती है अर्थात पाप को नष्ट करने वाली। स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने इसे अर्जुन से कहा है। कथा के अनुसार भगवान अर्जुन से कहते हैं, राजा मान्धाता ने एक समय में लोमश ऋषि से जब पूछा कि प्रभु यह बताएं कि मनुष्य जो जाने अनजाने पाप कर्म करता है उससे कैसे मुक्त हो सकता है। इस वर्ष पाप मोचिनी एकादशी का व्रत 7 अप्रैल को स्मार्त एवं वैष्णव सम्प्रदाय से जुड़े भक्तो द्वारा एवं 8 अप्रैल के दिन निम्बार्क सम्प्रदाय से जुड़े भक्तो द्वारा किया जाएगा।


पाप मोचनी एकादशी व्रत विधि 

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इस व्रत के विषय में भविष्योत्तर पुराण में विस्तार से वर्णन किया गया है। इस व्रत में भगवान विष्णु के चतुर्भुज रूप की पूजा की जाती है। व्रती दशमी तिथि को एक बार सात्विक भोजन करे और मन से भोग विलास की भावना को निकालकर हरि में मन को लगाएं। एकादशी के दिन सूर्योदय काल में स्नान करके व्रत का संकल्प करें। संकल्प के उपरान्त षोड्षोपचार अथवा सामर्थ्य अनुसार भगवान विष्णु की चतुर्भुज रूप की पूजा करें. उन्हें पीले वस्र धारण कराएं और सवा मीटर पीले वस्त्र पर उन्हें स्थापित करें. भगवान को 11 पीले फल, 11 फूल और 11 पीली मिठाई अर्पित करें. इसके बाद उन्हें पीला चंदन और पीला जनेऊ अर्पित करें.  इसके बाद पीले आसन पर बैठकर भगवत कथा का पाठ या विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करें. एकादशी तिथि को जागरण करने से कई गुणा पुण्य मिलता है अत: रात्रि में भी निराहार रहकर भजन कीर्तन करते हुए जागरण करें। द्वादशी के दिन प्रात: स्नान करके विष्णु भगवान की पूजा करें फिर ब्रह्मणों को भोजन करवाकर दक्षिणा सहित विदा करें पश्चात स्वयं भोजन करें।


पापमोचिनी एकादशी कथा

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भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: हे अर्जुन! चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को पापमोचनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। एक बार की बात है, पृथ्वीपति राजा मान्धाता ने लोमश ऋषि से यही प्रश्न किया था, जो तुमने मुझसे किया है। अतः जो कुछ भी ऋषि लोमश ने राजा मान्धाता को बतलाया, वही मैं तुमसे कह रहा हूँ।


राजा मान्धाता ने धर्म के गुह्यतम रहस्यों के ज्ञाता महर्षि लोमश से पूछा: हे ऋषिश्रेष्ठ! मनुष्य के पापों का मोचन किस प्रकार सम्भव है? कृपा कर कोई ऐसा सरल उपाय बतायें, जिससे सभी को सहज ही पापों से छुटकारा मिल जाए।


राजा मान्धाता के इस प्रश्न के जवाब में लोमश ऋषि ने राजा को एक कहानी सुनाई।


महर्षि लोमश ने कहा: हे नृपति! चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम पापमोचिनी एकादशी है। उसके व्रत के प्रभाव से मनुष्यों के अनेक पाप नष्ट हो जाते हैं। मैं तुम्हें इस व्रत की कथा सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण करो।


प्राचीन समय में चैत्ररथ नामक एक वन था। उसमें अप्सराएँ किन्नरों के साथ विहार किया करती थीं। वहाँ सदैव वसन्त का मौसम रहता था, अर्थात उस जगह सदा नाना प्रकार के पुष्प खिले रहते थे। कभी गन्धर्व कन्‍याएँ विहार किया करती थीं, कभी देवेन्द्र अन्य देवताओं के साथ क्रीड़ा किया करते थे।


उसी वन में मेधावी नाम के एक ऋषि भी तपस्या में लीन रहते थे। वे शिवभक्त थे। एक दिन मञ्जुघोषा नामक एक अप्सरा ने उनको मोहित कर उनकी निकटता का लाभ उठाने की चेष्टा की, इसलिए वह कुछ दूरी पर बैठ वीणा बजाकर मधुर स्वर में गाने लगी।


उसी समय शिव भक्त महर्षि मेधावी को कामदेव भी जीतने का प्रयास करने लगे। कामदेव ने उस सुन्दर अप्सरा के भ्रू का धनुष बनाया। कटाक्ष को उसकी प्रत्यन्चा बनाई और उसके नेत्रों को मञ्जुघोषा अप्सरा का सेनापति बनाया। इस तरह कामदेव अपने शत्रुभक्त को जीतने को तैयार हुआ।


उस समय महर्षि मेधावी भी युवावस्था में थे और काफी हृष्ट-पुष्ट थे। उन्होंने यज्ञोपवीत तथा दण्ड धारण कर रखा था। वे दूसरे कामदेव के समान प्रतीत हो रहे थे। उस मुनि को देखकर कामदेव के वश में हुई मञ्जुघोषा ने धीरे-धीरे मधुर वाणी से वीणा पर गायन शुरू किया तो महर्षि मेधावी भी मञ्जुघोषा के मधुर गाने पर तथा उसके सौन्दर्य पर मोहित हो गए। वह अप्सरा मेधावी मुनि को कामदेव से पीड़ित जानकर उनसे आलिङ्गन करने लगी।


महर्षि मेधावी उसके सौन्दर्य पर मोहित होकर शिव रहस्य को भूल गए और काम के वशीभूत होकर उसके साथ रमण करने लगे।


काम के वशीभूत होने के कारण मुनि को उस समय दिन-रात का कुछ भी ज्ञान न रहा और काफी समय तक वे रमण करते रहे। तदुपरान्त मञ्जुघोषा उस मुनि से बोली: हे ऋषिवर! अब मुझे बहुत समय हो गया है, अतः स्वर्ग जाने की आज्ञा दीजिये।


अप्सरा की बात सुनकर ऋषि ने कहा: हे मोहिनी! सन्ध्या को तो आयी हो, प्रातःकाल होने पर चली जाना।


ऋषि के ऐसे वचनों को सुनकर अप्सरा उनके साथ रमण करने लगी। इसी प्रकार दोनों ने साथ-साथ बहुत समय बिताया।


मञ्जुघोषा ने एक दिन ऋषि से कहा: हे विप्र! अब आप मुझे स्वर्ग जाने की आज्ञा दीजिये।


मुनि ने इस बार भी वही कहा: हे रूपसी! अभी ज्यादा समय व्यतीत नहीं हुआ है, कुछ समय और ठहरो।


मुनि की बात सुन अप्सरा ने कहा: हे ऋषिवर! आपकी रात तो बहुत लम्बी है। आप स्वयं ही सोचिये कि मुझे आपके पास आये कितना समय हो गया। अब और ज्यादा समय तक ठहरना क्या उचित है?


अप्सरा की बात सुन मुनि को समय का बोध हुआ और वह गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगे। जब उन्हें समय का ज्ञान हुआ कि उन्हें रमण करते सत्तावन (57) वर्ष व्यतीत हो चुके हैं तो उस अप्सरा को वह काल का रूप समझने लगे।


इतना ज्यादा समय भोग-विलास में व्यर्थ चला जाने पर उन्हें बड़ा क्रोध आया। अब वह भयंकर क्रोध में जलते हुए उस तप नाश करने वाली अप्सरा की तरफ भृकुटी तानकर देखने लगे। क्रोध से उनके अधर काँपने लगे और इन्द्रियाँ बेकाबू होने लगीं।


क्रोध से थरथराते स्वर में मुनि ने उस अप्सरा से कहा: मेरे तप को नष्ट करने वाली दुष्टा! तू महा पापिन और बहुत ही दुराचारिणी है, तुझ पर धिक्कार है। अब तू मेरे श्राप से पिशाचिनी बन जा।


मुनि के क्रोधयुक्त श्राप से वह अप्सरा पिशाचिनी बन गई। यह देख वह व्यथित होकर बोली: हे ऋषिवर! अब मुझ पर क्रोध त्यागकर प्रसन्न होइए और कृपा करके बताइये कि इस शाप का निवारण किस प्रकार होगा? विद्वानों ने कहा है, साधुओं की सङ्गत अच्छा फल देने वाली होती है और आपके साथ तो मेरे बहुत वर्ष व्यतीत हुए हैं, अतः अब आप मुझ पर प्रसन्न हो जाइए, अन्यथा लोग कहेंगे कि एक पुण्य आत्मा के साथ रहने पर मञ्जुघोषा को पिशाचिनी बनना पड़ा।


मञ्जुघोषा की बात सुनकर मुनि को अपने क्रोध पर अत्यन्त ग्लानि हुई साथ ही अपनी अपकीर्ति का भय भी हुआ, अतः पिशाचिनी बनी मञ्जुघोषा से मुनि ने कहा: तूने मेरा बड़ा बुरा किया है, किन्तु फिर भी मैं तुझे इस श्राप से मुक्ति का उपाय बतलाता हूँ। चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की जो एकादशी है, उसका नाम पापमोचिनी है। उस एकादशी का उपवास करने से तेरी पिशाचिनी की देह से मुक्ति हो जाएगी।


ऐसा कहकर मुनि ने उसको व्रत का सब विधान समझा दिया। फिर अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए वे अपने पिता च्यवन ऋषि के पास गये।


च्यवन ऋषि ने अपने पुत्र मेधावी को देखकर कहा: हे पुत्र! ऐसा क्या किया है तूने कि तेरे सभी तप नष्ट हो गए हैं? जिससे तुम्हारा समस्त तेज मलिन हो गया है?


मेधावी मुनि ने लज्जा से अपना सिर झुकाकर कहा: पिताश्री! मैंने एक अप्सरा से रमण करके बहुत बड़ा पाप किया है। इसी पाप के कारण सम्भवतः मेरा सारा तेज और मेरे तप नष्ट हो गए हैं। कृपा करके आप इस पाप से छूटने का उपाय बतलाइये।


ऋषि ने कहा: हे पुत्र! तुम चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की पापमोचिनी एकादशी का विधि तथा भक्तिपूर्वक उपवास करो, इससे तुम्हारे सभी पाप नष्ट हो जाएंगे।


अपने पिता च्यवन ऋषि के वचनों को सुनकर मेधावी मुनि ने पापमोचिनी एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। उसके प्रभाव से उनके सभी पाप नष्ट हो गए।


मञ्जुघोषा अप्सरा भी पापमोचिनी एकादशी का उपवास करने से पिशाचिनी की देह से छूट गई और पुनः अपना सुन्दर रूप धारण कर स्वर्गलोक चली गई।


लोमश मुनि ने कहा: हे राजन! इस पापमोचिनी एकादशी के प्रभाव से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस एकादशी की कथा के श्रवण व पठन से एक हजार गौदान करने का फल प्राप्त होता है। इस उपवास के करने से ब्रह्म हत्या करने वाले, स्वर्ण चुराने वाले, मद्यपान करने वाले, अगम्या गमन करने वाले आदि भयंकर पाप भी नष्ट हो जाते हैं और अन्त में स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है।


पापमोचनी एकादशी व्रत का शुभ मुहूर्त

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एकादशी तिथि आरंभ👉 27 मार्च रविवार, सायं 06 बजकर 03 मिनट से


एकादशी तिथि समाप्त- 28 मार्च सोमवार, दिन 04 बजकर 15 मिनट पर


एकादशी व्रत पारण समय- 29 मार्च मंगलवार, प्रातः 06 बजकर 09 मिनट से  08 बजकर 37 मिनट तक


भगवान जगदीश्वर जी की आरती

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ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी! जय जगदीश हरे।


भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करे॥


जो ध्यावै फल पावै, दुख बिनसे मन का।

सुख-संपत्ति घर आवै, कष्ट मिटे तन का॥ ॐ जय...॥


मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूं किसकी।

तुम बिनु और न दूजा, आस करूं जिसकी॥ ॐ जय...॥


तुम पूरन परमात्मा, तुम अंतरयामी॥

पारब्रह्म परेमश्वर, तुम सबके स्वामी॥ ॐ जय...॥


तुम करुणा के सागर तुम पालनकर्ता।

मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥ ॐ जय...॥


तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।

किस विधि मिलूं दयामय! तुमको मैं कुमति॥ ॐ जय...॥


दीनबंधु दुखहर्ता, तुम ठाकुर मेरे।

अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे॥ ॐ जय...॥


विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।

श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा॥ ॐ जय...॥


तन-मन-धन और संपत्ति, सब कुछ है तेरा।

तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा॥ ॐ जय...॥


जगदीश्वरजी की आरती जो कोई नर गावे।

कहत शिवानंद स्वामी, मनवांछित फल पावे॥ ॐ जय...॥


क्षमायाचना का मंत्र और उसका अर्थ

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आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्. पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर..


मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन. यत्पूजितं मया देव. परिपूर्ण तदस्तु मे..


अर्थात👉 हे ईश्वर मैं आपका “आवाह्न” अर्थात् आपको बुलाना नहीं जानता हूं न विसर्जनम् अर्थात् न ही आपको विदा करना जानता हूं मुझे आपकी पूजा भी करनी नहीं आती है. कृपा करके मुझे क्षमा करें. न मुझे मंत्र का ज्ञान है न ही क्रिया का, मैं तो आपकी भक्ति करना भी नहीं जानता. यथा संभव पूजा कर रहा हूं, कृपा करके मेरी भूल को क्षमा कर दें और पूजा को पूर्णता प्रदान करें. मैं भक्त हूं मुझसे गलती हो सकती है, हे ईश्वर मुझे क्षमा कर दें. मेरे अहंकार को दूर कर दें. मैं आपकी शरण में हूं।


इन चार परिस्थितियों में भागना उचित है

 चाणक्य नीति: जब हो जाए

ऐसी 4 बातें तो तुरंत भाग जाना चाहिए -

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जीवन में कभी-कभी ऐसे हालात निर्मित हो

जाते हैं, जब यदि हम त्वरित निर्णय न लें तो किसी भयंकर

परेशानी में फंस सकते हैं। आचार्य चाणक्य ने चार ऐसे हालात बताए हैं, जब व्यक्ति को तुरंत भाग निकलना चाहिए। 

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यहां जानिए ऐसे चार हालात कौन-

कौन से हैं और वहां से भागना क्यों चाहिए…

आचार्य चाणक्य कहते हैं-

उपसर्गेऽन्यचक्रे च दुर्भिक्षे च भयावहे।

असाधुजनसंपर्के य: पलायति स जीवति।।

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हालात- 1

इस श्लोक में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यदि किसी स्थान पर

दंगा या उपद्रव हो जाता है तो उस स्थान से तुरंत भाग जाना चाहिए। यदि हम दंगा

क्षेत्र में खड़े रहेंगे तो उपद्रवियों की हिंसा का शिकार हो सकते हैं।

साथ ही, शासन-प्रसाशन द्वारा उपद्रवियों के खिलाफ की

जाने वाली कार्यवाही में भी फंस सकते हैं।

अत: ऐसे स्थान से तुरंत भाग निकलना चाहिए।

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हालात- 2

इस श्लोक में चाणक्य कहते हैं कि यदि हमारे राज्य पर किसी दूसरे

राजा ने आक्रमण कर दिया है और हमारी सेना की हार

तय हो गई है तो ऐसे राज्य से भाग जाना चाहिए। अन्यथा शेष पूरा

जीवन दूसरे राजा के अधीन रहना पड़ेगा या हमारे प्राणों का

संकट भी खड़ा हो सकता है।

यह बात चाणक्य के दौर के अनुसार लिखी गई है, जब राजा-

महाराजाओं का दौर था। उस काल में एक राजा दूसरे राज्य पर कभी

भी आक्रमण कर दिया करता था। तब हारने वाले राज्य के आम लोगों

को भी जीतने वाले राजा के अधीन रहना पड़ता

था।

आज के दौर में ये बात इस प्रकार देखी जा सकती है कि

यदि हमारा कोई शत्रु है और वह हम पर पूरे बल के साथ एकाएक हमला कर

देता है तो हमें उस स्थान से तुरंत भाग निकलना चाहिए। शत्रु जब

भी वार करेगा तो वह पूरी तैयारी और पूरे बल

के साथ ही वार करेगा, ऐसे में हमें सबसे पहले अपने प्राणों

की रक्षा करनी चाहिए। प्राण रहेंगे तो शत्रुओं से बाद में

भी निपटा जा सकता है।

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हालात-3

यदि हमारे क्षेत्र में अकाल पड़ गया हो और खाने-पीने, रहने के

संसाधन समाप्त हो गए हों तो ऐसे स्थान से तुरंत भाग जाना चाहिए। यदि हम

अकाल वाले स्थान पर रहेंगे तो निश्चित ही प्राणों का संकट खड़ा हो

जाएगा। खान-पीने की चीजों के बिना अधिक दिन

जीवित रह पाना असंभव है। अत: अकाल वाले स्थान को छोड़कर

किसी उपयुक्त पर चले जाना चाहिए।

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हालात-4

चाणक्य कहते हैं यदि हमारे पास कोई नीच व्यक्ति आ जाए तो उस

स्थान से किसी भी प्रकार भाग निकलना चाहिए।

नीच व्यक्ति की संगत किसी भी

पल परेशानियों को बढ़ा सकती है। जिस प्रकार कोयले की

खान में जाने वाले व्यक्ति के कपड़ों पर दाग लग जाते हैं, ठीक

उसी प्रकार नीच व्यक्ति की संगत

हमारी प्रतिष्ठा पर दाग लगा सकती है। अत: ऐसे लोगों से

दूर ही रहना चाहिए।

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आचार्य चाणक्य का परिचय -

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प्राचीन समय में आचार्य चाणक्य तक्षशिला के गुरुकुल में

अर्थशास्त्र के आचार्य थे। चाणक्य की राजनीति में

गहरी पकड़ थी। इनके पिता का नाम आचार्य

चणीक था, इसी वजह से इन्हें चणी पुत्र

चाणक्य भी कहा जाता है। संभवत: पहली बार

कूटनीति का प्रयोग आचार्य चाणक्य द्वारा ही किया गया

था। जब इन्होंने अपनी कूटनीति के बल पर सम्राट

सिकंदर को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया। इसके अतिरिक्त

कूटनीति से ही इन्होंने चंद्रगुप्त जैसे सामान्य बालक को

अखंड भारत का सम्राट भी बनाया। आचार्य चाणक्य द्वारा श्रेष्ठ

जीवन के लिए चाणक्य नीति ग्रंथ रचा गया है। इसमें

दी गई नीतियों का पालन करने पर जीवन में

सफलताएं प्राप्त होती हैं |


शुभप्रभात जय श्री राधेकृष्णा । जय जय श्री राम । हर हर महादेव । जय श्री महाँकाल । जय मां भारती।आपका दिन मंगलमय हो..........................

रविवार, 13 मार्च 2022

आमलकी एकादशी विशेष

युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा : श्रीकृष्ण ! मुझे फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम और माहात्म्य बताने की कृपा कीजिये।"*



🙏🏻 *भगवान श्रीकृष्ण बोले: महाभाग धर्मनन्दन ! फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम ‘आमलकी’ है। इसका पवित्र व्रत विष्णुलोक की प्राप्ति करानेवाला है। राजा मान्धाता ने भी महात्मा वशिष्ठजी से इसी प्रकार का प्रश्न पूछा था, जिसके जवाब में वशिष्ठजी ने कहा था*


🙏🏻 *'महाभाग ! भगवान विष्णु के थूकने पर उनके मुख से चन्द्रमा के समान कान्तिमान एक बिन्दु प्रकट होकर पृथ्वी पर गिरा। उसी से आमलक (आँवले) का महान वृक्ष उत्पन्न हुआ, जो सभी वृक्षों का आदिभूत कहलाता है। इसी समय प्रजा की सृष्टि करने के लिए भगवान ने ब्रह्माजी को उत्पन्न किया और ब्रह्माजी ने देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग तथा निर्मल अंतःकरण वाले महर्षियों को जन्म दिया। उनमें से देवता और ॠषि उस स्थान पर आये, जहाँ विष्णुप्रिय आमलक का वृक्ष था। महाभाग ! उसे देख कर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ क्योंकि उस वृक्ष के बारे में वे नहीं जानते थे। उन्हें इस प्रकार विस्मित देख आकाशवाणी हुई: ‘महर्षियो ! यह सर्वश्रेष्ठ आमलक का वृक्ष है, जो विष्णु को प्रिय है। इसके स्मरणमात्र से गोदान का फल मिलता है। स्पर्श करने से इससे दुगना और फल भक्षण करने से तिगुना पुण्य प्राप्त होता है। यह सब पापों को हरने वाला वैष्णव वृक्ष है। इसके मूल में विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, स्कन्ध में परमेश्वर भगवान रुद्र, शाखाओं में मुनि, टहनियों में देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुद्गण तथा फलों में समस्त प्रजापति वास करते हैं। आमलक सर्वदेवमय है। अत: विष्णुभक्त पुरुषों के लिए यह परम पूज्य है। इसलिए सदा प्रयत्नपूर्वक आमलक का सेवन करना चाहिए।’*


🙏🏻 *ॠषि बोले : आप कौन हैं ? देवता हैं या कोई और ? हमें ठीक ठीक बताइये।*


🙏🏻 *पुन : आकाशवाणी हुई : जो सम्पूर्ण भूतों के कर्त्ता और समस्त भुवनों के स्रष्टा हैं, जिन्हें विद्वान पुरुष भी कठिनता से देख पाते हैं, मैं वही सनातन विष्णु हूँ।*


🙏🏻 *देवाधिदेव भगवान विष्णु का यह कथन सुनकर वे ॠषिगण भगवान की स्तुति करने लगे। इससे भगवान श्रीहरि संतुष्ट हुए और बोले : ‘महर्षियो ! तुम्हें कौन सा अभीष्ट वरदान दूँ ?*


🙏🏻 *ॠषि बोले : भगवन् ! यदि आप संतुष्ट हैं तो हम लोगों के हित के लिए कोई ऐसा व्रत बतलाइये, जो स्वर्ग और मोक्षरुपी फल प्रदान करनेवाला हो।*


🙏🏻 *श्रीविष्णुजी बोले : महर्षियो ! फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष में यदि पुष्य नक्षत्र से युक्त एकादशी हो तो वह महान पुण्य देने वाली और बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाली होती है। इस दिन आँवले के वृक्ष के पास जाकर वहाँ रात्रि में जागरण करना चाहिए। इससे मनुष्य सब पापों से छुट जाता है और सहस्र गोदान का फल प्राप्त करता है। विप्रगण ! यह व्रत सभी व्रतों में उत्तम है, जिसे मैंने तुम लोगों को बताया है।*


🙏🏻 *ॠषि बोले : भगवन् ! इस व्रत की विधि बताइये । इसके देवता और मंत्र क्या हैं ? पूजन कैसे करें? उस समय स्नान और दान कैसे किया जाता है?*


🙏🏻 *भगवान श्रीविष्णुजी ने कहा : द्विजवरो ! इस एकादशी को व्रती प्रात:काल दन्तधावन करके यह संकल्प करे कि ‘हे पुण्डरीकाक्ष ! हे अच्युत ! मैं एकादशी को निराहार रहकर दुसरे दिन भोजन करुँगा। आप मुझे शरण में रखें।’ ऐसा नियम लेने के बाद पतित, चोर, पाखण्डी, दुराचारी, गुरुपत्नीगामी तथा मर्यादा भंग करनेवाले मनुष्यों से वह वार्तालाप न करे। अपने मन को वश में रखते हुए नदी में, पोखरे में, कुएँ पर अथवा घर में ही स्नान करे। स्नान के पहले शरीर में मिट्टी लगाये।*


🌷 *मृत्तिका लगाने का मंत्र–*

*अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे।*

*मृत्तिके हर मे पापं जन्मकोटयां समर्जितम्॥*


🙏🏻 *वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामन अवतार के समय भगवान विष्णु ने भी तुम्हें अपने पैरों से नापा था। मृत्तिके ! मैंने करोड़ों जन्मों में जो पाप किये हैं, मेरे उन सब पापों को हर लो।’*


🙏🏻 *स्नान का मंत्र-*

*त्वं मात: सर्वभूतानां जीवनं तत्तु रक्षकम्।*

*स्वेदजोद्भिज्जजातीनां रसानां पतये नम:॥*

*स्नातोSहं सर्वतीर्थेषु ह्रदप्रस्रवणेषु च्।*

*नदीषु देवखातेषु इदं स्नानं तु मे भवेत्॥*


🙏🏻 *‘जल की अधिष्ठात्री देवी ! मातः ! तुम सम्पूर्ण भूतों के लिए जीवन हो। वही जीवन, जो स्वेदज और उद्भिज्ज जाति के जीवों का भी रक्षक है। तुम रसों की स्वामिनी हो। तुम्हें नमस्कार है। आज मैं सम्पूर्ण तीर्थों, कुण्डों, झरनों, नदियों और देवसम्बन्धी सरोवरों में स्नान कर चुका। मेरा यह स्नान उक्त सभी स्नानों का फल देने वाला हो।’*


🙏🏻 *विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह परशुरामजी की सोने की प्रतिमा बनवाये। प्रतिमा अपनी शक्ति और धन के अनुसार एक या आधे माशे सुवर्ण की होनी चाहिए। स्नान के पश्चात् घर आकर पूजा और हवन करे। इसके बाद सब प्रकार की सामग्री लेकर आँवले के वृक्ष के पास जाय। वहाँ वृक्ष के चारों ओर की जमीन झाड़ बुहार, लीप पोतकर शुद्ध करे। शुद्ध की हुई भूमि में मंत्रपाठपूर्वक जल से भरे हुए नवीन कलश की स्थापना करे। कलश में पंचरत्न और दिव्य गन्ध आदि छोड़ दे। श्वेत चन्दन से उसका लेपन करे। उसके कण्ठ में फूल की माला पहनाये। सब प्रकार के धूप की सुगन्ध फैलाये। जलते हुए दीपकों की श्रेणी सजाकर रखे। तात्पर्य यह है कि सब ओर से सुन्दर और मनोहर दृश्य उपस्थित करे । पूजा के लिए नवीन छाता, जूता और वस्त्र भी मँगाकर रखे। कलश के ऊपर एक पात्र रखकर उसे श्रेष्ठ लाजों (खीलों) से भर दे। फिर उसके ऊपर परशुरामजी की मूर्ति (सुवर्ण की) स्थापित करे।*


🌷 *‘विशोकाय नम:’ कहकर उनके चरणों की,*

*‘विश्वरुपिणे नम:’ से दोनों घुटनों की,*

*‘उग्राय नम:’ से जाँघो की,*

*‘दामोदराय नम:’ से कटिभाग की,*

*‘पधनाभाय नम:’ से उदर की,*

*‘श्रीवत्सधारिणे नम:’ से वक्ष: स्थल की,*

*‘चक्रिणे नम:’ से बायीं बाँह की,*

*‘गदिने नम:’ से दाहिनी बाँह की,*

*‘वैकुण्ठाय नम:’ से कण्ठ की,*

*‘यज्ञमुखाय नम:’ से मुख की,*

*‘विशोकनिधये नम:’ से नासिका की,*

*‘वासुदेवाय नम:’ से नेत्रों की,*

*‘वामनाय नम:’ से ललाट की,*

*‘सर्वात्मने नम:’ से संपूर्ण अंगो तथा मस्तक की पूजा करे।*


🙏🏻 *ये ही पूजा के मंत्र हैं। तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से शुद्ध फल के द्वारा देवाधिदेव परशुरामजी को अर्ध्य प्रदान करे। अर्ध्य का मंत्र इस प्रकार है-*


🌷 *नमस्ते देवदेवेश जामदग्न्य नमोSस्तु ते।*

*गृहाणार्ध्यमिमं दत्तमामलक्या युतं हरे॥*


🙏🏻 *‘देवदेवेश्वर ! जमदग्निनन्दन ! श्री विष्णुस्वरुप परशुरामजी ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आँवले के फल के साथ दिया हुआ मेरा यह अर्ध्य ग्रहण कीजिये।’*


🙏🏻 *तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से जागरण करे। नृत्य, संगीत, वाघ, धार्मिक उपाख्यान तथा श्रीविष्णु संबंधी कथा वार्ता आदि के द्वारा वह रात्रि व्यतीत करे। उसके बाद भगवान विष्णु के नाम ले लेकर आमलक वृक्ष की परिक्रमा एक सौ आठ या अट्ठाईस बार करे। फिर सवेरा होने पर श्रीहरि की आरती करे। ब्राह्मण की पूजा करके वहाँ की सब सामग्री उसे निवेदित कर दे। परशुरामजी का कलश, दो वस्त्र, जूता आदि सभी वस्तुएँ दान कर दे और यह भावना करे कि : ‘परशुरामजी के स्वरुप में भगवान विष्णु मुझ पर प्रसन्न हों।’ तत्पश्चात् आमलक का स्पर्श करके उसकी प्रदक्षिणा करे और स्नान करने के बाद विधिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराये। तदनन्तर कुटुम्बियों के साथ बैठकर स्वयं भी भोजन करे।*


🙏🏻 *सम्पूर्ण तीर्थों के सेवन से जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकार के दान देने दे जो फल मिलता है, वह सब उपर्युक्त विधि के पालन से सुलभ होता है। समस्त यज्ञों की अपेक्षा भी अधिक फल मिलता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। यह व्रत सब व्रतों में उत्तम है।’*


🙏🏻 *वशिष्ठजी कहते हैं : महाराज ! इतना कहकर देवेश्वर भगवान विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् उन समस्त महर्षियों ने उक्त व्रत का पूर्णरुप से पालन किया। नृपश्रेष्ठ ! इसी प्रकार तुम्हें भी इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए।*


🙏🏻 *भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! यह दुर्धर्ष व्रत मनुष्य को सब पापों से मुक्त करनेवाला है।*


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मंगलवार, 8 मार्च 2022

गरीबी मिटाने के लिए चौपाइयां

 धन कितना आयेगा पता नहीं पर घर में कभी गरीबी नहीं आयेगी , रामायण की इन आठ चौपाईयों का नित्य पाठ करें!!!!!



* जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥

भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥


भावार्थ:-जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आए, तब से (अयोध्या में) नित्य नए मंगल हो रहे हैं और आनंद के बधावे बज रहे हैं। चौदहों लोक रूपी बड़े भारी पर्वतों पर पुण्य रूपी मेघ सुख रूपी जल बरसा रहे हैं॥


* रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥

मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥


भावार्थ:-ऋद्धि-सिद्धि और सम्पत्ति रूपी सुहावनी नदियाँ उमड़-उमड़कर अयोध्या रूपी समुद्र में आ मिलीं। नगर के स्त्री-पुरुष अच्छी जाति के मणियों के समूह हैं, जो सब प्रकार से पवित्र, अमूल्य और सुंदर हैं॥


* कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥

सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥


भावार्थ:-नगर का ऐश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता। ऐसा जान पड़ता है, मानो ब्रह्माजी की कारीगरी बस इतनी ही है। सब नगर निवासी श्री रामचन्द्रजी के मुखचन्द्र को देखकर सब प्रकार से सुखी हैं॥


* मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥

राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥


भावार्थ:-सब माताएँ और सखी-सहेलियाँ अपनी मनोरथ रूपी बेल को फली हुई देखकर आनंदित हैं। श्री रामचन्द्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को देख-सुनकर राजा दशरथजी बहुत ही आनंदित होते हैं॥

जय महादेव

रविवार, 6 मार्च 2022

विल्व पत्र चढ़ाने का मंत्र

 *।।बिल्वपत्र चढाने के 108मन्त्र।।* 

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त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रियायुधम् ।

त्रिजन्म पापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१॥

त्रिशाखैः बिल्वपत्रैश्च अच्छिद्रैः कोमलैः शुभैः ।

तव पूजां करिष्यामि एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२॥

सर्वत्रैलोक्यकर्तारं सर्वत्रैलोक्यपालनम् ।

सर्वत्रैलोक्यहर्तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३॥

नागाधिराजवलयं नागहारेण भूषितम् ।

नागकुण्डलसंयुक्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४॥

अक्षमालाधरं रुद्रं पार्वतीप्रियवल्लभम् ।

चन्द्रशेखरमीशानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५॥

त्रिलोचनं दशभुजं दुर्गादेहार्धधारिणम् ।

विभूत्यभ्यर्चितं देवं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६॥

त्रिशूलधारिणं देवं नागाभरणसुन्दरम् ।

चन्द्रशेखरमीशानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७॥

गङ्गाधराम्बिकानाथं फणिकुण्डलमण्डितम् ।

कालकालं गिरीशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८॥

शुद्धस्फटिक सङ्काशं शितिकण्ठं कृपानिधिम् ।

सर्वेश्वरं सदाशान्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९॥

सच्चिदानन्दरूपं च परानन्दमयं शिवम् ।

वागीश्वरं चिदाकाशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०॥

शिपिविष्टं सहस्राक्षं कैलासाचलवासिनम् ।

हिरण्यबाहुं सेनान्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥११॥

अरुणं वामनं तारं वास्तव्यं चैव वास्तवम् ।

ज्येष्टं कनिष्ठं गौरीशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१२॥

हरिकेशं सनन्दीशं उच्चैर्घोषं सनातनम् ।

अघोररूपकं कुम्भं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१३॥

पूर्वजावरजं याम्यं सूक्ष्मं तस्करनायकम् ।

नीलकण्ठं जघन्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१४॥

सुराश्रयं विषहरं वर्मिणं च वरूधिनम् I

महासेनं महावीरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१५॥

कुमारं कुशलं कूप्यं वदान्यञ्च महारथम् ।

तौर्यातौर्यं च देव्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१६॥

दशकर्णं ललाटाक्षं पञ्चवक्त्रं सदाशिवम् ।

अशेषपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१७॥

नीलकण्ठं जगद्वन्द्यं दीननाथं महेश्वरम् ।

महापापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१८॥

चूडामणीकृतविभुं वलयीकृतवासुकिम् ।

कैलासवासिनं भीमं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१९॥

कर्पूरकुन्दधवलं नरकार्णवतारकम् ।

करुणामृतसिन्धुं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२०॥

महादेवं महात्मानं भुजङ्गाधिपकङ्कणम् ।

महापापहरं देवं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२१॥

भूतेशं खण्डपरशुं वामदेवं पिनाकिनम् ।

वामे शक्तिधरं श्रेष्ठं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२२॥

फालेक्षणं विरूपाक्षं श्रीकण्ठं भक्तवत्सलम् ।

नीललोहितखट्वाङ्गं एकबिल्वं शिवार्पणम् 

॥२३॥

कैलासवासिनं भीमं कठोरं त्रिपुरान्तकम् ।

वृषाङ्कं वृषभारूढं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२४॥

सामप्रियं सर्वमयं भस्मोद्धूलितविग्रहम् ।

मृत्युञ्जयं लोकनाथं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२५॥

दारिद्र्यदुःखहरणं रविचन्द्रानलेक्षणम् ।

मृगपाणिं चन्द्रमौळिं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२६॥

सर्वलोकभयाकारं सर्वलोकैकसाक्षिणम् ।

निर्मलं निर्गुणाकारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२७॥

सर्वतत्त्वात्मकं साम्बं सर्वतत्त्वविदूरकम् ।

सर्वतत्त्वस्वरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२८॥

सर्वलोकगुरुं स्थाणुं सर्वलोकवरप्रदम् ।

सर्वलोकैकनेत्रं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II२९॥

मन्मथोद्धरणं शैवं भवभर्गं परात्मकम् ।

कमलाप्रियपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३०॥

तेजोमयं महाभीमं उमेशं भस्मलेपनम् ।

भवरोगविनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३१॥

स्वर्गापवर्गफलदं रघुनाथवरप्रदम् ।

नगराजसुताकान्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३२॥

मञ्जीरपादयुगलं शुभलक्षणलक्षितम् ।

फणिराजविराजं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३३॥

निरामयं निराधारं निस्सङ्गं निष्प्रपञ्चकम् ।

तेजोरूपं महारौद्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३४॥

सर्वलोकैकपितरं सर्वलोकैकमातरम् ।

सर्वलोकैकनाथं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३५॥

चित्राम्बरं निराभासं वृषभेश्वरवाहनम् ।

नीलग्रीवं चतुर्वक्त्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३६॥

रत्नकञ्चुकरत्नेशं रत्नकुण्डलमण्डितम् ।

नवरत्नकिरीटं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३७॥

दिव्यरत्नाङ्गुलीस्वर्णं कण्ठाभरणभूषितम् ।

नानारत्नमणिमयं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३८॥

रत्नाङ्गुलीयविलसत्करशाखानखप्रभम् ।

भक्तमानसगेहं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३९॥

वामाङ्गभागविलसदम्बिकावीक्षणप्रियम् ।

पुण्डरीकनिभाक्षं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४०॥

सम्पूर्णकामदं सौख्यं भक्तेष्टफलकारणम् ।

सौभाग्यदं हितकरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४१॥

नानाशास्त्रगुणोपेतं स्फुरन्मङ्गल विग्रहम् ।

विद्याविभेदरहितं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II४२॥

अप्रमेयगुणाधारं वेदकृद्रूपविग्रहम् ।

धर्माधर्मप्रवृत्तं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II४३॥

गौरीविलाससदनं जीवजीवपितामहम् ।

कल्पान्तभैरवं शुभ्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४४॥

सुखदं सुखनाशं च दुःखदं दुःखनाशनम् ।

दुःखावतारं भद्रं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४५॥

सुखरूपं रूपनाशं सर्वधर्मफलप्रदम् ।

अतीन्द्रियं महामायं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४६॥

सर्वपक्षिमृगाकारं सर्वपक्षिमृगाधिपम् ।

सर्वपक्षिमृगाधारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II४७॥

जीवाध्यक्षं जीववन्द्यं जीवजीवनरक्षकम् ।

जीवकृज्जीवहरणं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४८॥

विश्वात्मानं विश्ववन्द्यं वज्रात्मावज्रहस्तकम् ।

वज्रेशं वज्रभूषं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II४९॥

गणाधिपं गणाध्यक्षं प्रलयानलनाशकम् ।

जितेन्द्रियं वीरभद्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५०॥

त्र्यम्बकं मृडं शूरं अरिषड्वर्गनाशनम् ।

दिगम्बरं क्षोभनाशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५१॥

कुन्देन्दुशङ्खधवलं भगनेत्रभिदुज्ज्वलम् ।

कालाग्निरुद्रं सर्वज्ञं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५२॥

कम्बुग्रीवं कम्बुकण्ठं धैर्यदं धैर्यवर्धकम् ।

शार्दूलचर्मवसनं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II५३॥

जगदुत्पत्तिहेतुं च जगत्प्रलयकारणम् ।

पूर्णानन्दस्वरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५४॥

सर्गकेशं महत्तेजं पुण्यश्रवणकीर्तनम् ।

ब्रह्माण्डनायकं तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५५॥

मन्दारमूलनिलयं मन्दारकुसुमप्रियम् ।

बृन्दारकप्रियतरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II५६॥

महेन्द्रियं महाबाहुं विश्वासपरिपूरकम् ।

सुलभासुलभं लभ्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ५७॥

बीजाधारं बीजरूपं निर्बीजं बीजवृद्धिदम् ।

परेशं बीजनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II५८॥

युगाकारं युगाधीशं युगकृद्युगनाशनम् ।

परेशं बीजनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II५९॥

धूर्जटिं पिङ्गलजटं जटामण्डलमण्डितम् ।

कर्पूरगौरं गौरीशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II६०॥

सुरावासं जनावासं योगीशं योगिपुङ्गवम् ।

योगदं योगिनां सिंहं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६१॥

उत्तमानुत्तमं तत्त्वं अन्धकासुरसूदनम् ।

भक्तकल्पद्रुमस्तोमं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६२॥

विचित्रमाल्यवसनं दिव्यचन्दनचर्चितम् ।

विष्णुब्रह्मादि वन्द्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् 

॥६३॥

कुमारं पितरं देवं श्रितचन्द्रकलानिधिम् ।

ब्रह्मशत्रुं जगन्मित्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६४॥

लावण्यमधुराकारं करुणारसवारधिम् ।

भ्रुवोर्मध्ये सहस्रार्चिं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६५॥

जटाधरं पावकाक्षं वृक्षेशं भूमिनायकम् ।

कामदं सर्वदागम्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II६६॥

शिवं शान्तं उमानाथं महाध्यानपरायणम् ।

ज्ञानप्रदं कृत्तिवासं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६७॥

वासुक्युरगहारं च लोकानुग्रहकारणम् ।

ज्ञानप्रदं कृत्तिवासं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६८॥

शशाङ्कधारिणं भर्गं सर्वलोकैकशङ्करम् I

शुद्धं च शाश्वतं नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६९॥

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणम् ।

गम्भीरं च वषट्कारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७०॥

भोक्तारं भोजनं भोज्यं जेतारं जितमानसम् I

करणं कारणं जिष्णुं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७१॥

क्षेत्रज्ञं क्षेत्रपालञ्च परार्धैकप्रयोजनम् ।

व्योमकेशं भीमवेषं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७२॥

भवज्ञं तरुणोपेतं चोरिष्टं यमनाशनम् ।

हिरण्यगर्भं हेमाङ्गं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७३॥

दक्षं चामुण्डजनकं मोक्षदं मोक्षनायकम् ।

हिरण्यदं हेमरूपं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II७४॥

महाश्मशाननिलयं प्रच्छन्नस्फटिकप्रभम् ।

वेदास्यं वेदरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II७५॥

स्थिरं धर्मं उमानाथं ब्रह्मण्यं चाश्रयं विभुम् I

जगन्निवासं प्रथममेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II७६॥

रुद्राक्षमालाभरणं रुद्राक्षप्रियवत्सलम् ।

रुद्राक्षभक्तसंस्तोममेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७७॥

फणीन्द्रविलसत्कण्ठं भुजङ्गाभरणप्रियम् I

दक्षाध्वरविनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७८॥

नागेन्द्रविलसत्कर्णं महीन्द्रवलयावृतम् ।

मुनिवन्द्यं मुनिश्रेष्ठमेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II७९॥

मृगेन्द्रचर्मवसनं मुनीनामेकजीवनम् ।

सर्वदेवादिपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II८०॥

निधनेशं धनाधीशं अपमृत्युविनाशनम् ।

लिङ्गमूर्तिमलिङ्गात्मं एकबिल्वं शिवार्पणम् 

॥८१॥

भक्तकल्याणदं व्यस्तं वेदवेदान्तसंस्तुतम् ।

कल्पकृत्कल्पनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् 

॥८२॥

घोरपातकदावाग्निं जन्मकर्मविवर्जितम् ।

कपालमालाभरणं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८३॥

मातङ्गचर्मवसनं विराड्रूपविदारकम् ।

विष्णुक्रान्तमनन्तं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८४॥

यज्ञकर्मफलाध्यक्षं यज्ञविघ्नविनाशकम् ।

यज्ञेशं यज्ञभोक्तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II८५॥

कालाधीशं त्रिकालज्ञं दुष्टनिग्रहकारकम् ।

योगिमानसपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८६॥

महोन्नतमहाकायं महोदरमहाभुजम् ।

महावक्त्रं महावृद्धं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८७॥

सुनेत्रं सुललाटं च सर्वभीमपराक्रमम् ।

महेश्वरं शिवतरं एकबिल्वं शिवार्पणम् II८८॥

समस्तजगदाधारं समस्तगुणसागरम् ।

सत्यं सत्यगुणोपेतं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ८९॥

माघकृष्णचतुर्दश्यां पूजार्थं च जगद्गुरोः ।

दुर्लभं सर्वदेवानां एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९०॥

तत्रापि दुर्लभं मन्येत् नभोमासेन्दुवासरे ।

प्रदोषकाले पूजायां एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९१॥

तटाकं धननिक्षेपं ब्रह्मस्थाप्यं शिवालयम्

कोटिकन्यामहादानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९२॥

दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनम् ।

अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् II९३॥

तुलसीबिल्वनिर्गुण्डी जम्बीरामलकं तथा ।

पञ्चबिल्वमिति ख्यातं एकबिल्वं शिवार्पणम् 

॥९४॥

अखण्डबिल्वपत्रैश्च पूजयेन्नन्दिकेश्वरम् ।

मुच्यते सर्वपापेभ्यः एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९५॥

सालङ्कृता शतावृत्ता कन्याकोटिसहस्रकम् ।

साम्राज्यपृथ्वीदानं च एकबिल्वं शिवार्पणम् 

॥९६॥

दन्त्यश्वकोटिदानानि अश्वमेधसहस्रकम् ।

सवत्सधेनुदानानि एकबिल्वं शिवार्पणम् II९७॥

चतुर्वेदसहस्राणि भारतादिपुराणकम् ।

साम्राज्यपृथ्वीदानं च एकबिल्वं शिवार्पणम् 

॥९८॥

सर्वरत्नमयं मेरुं काञ्चनं दिव्यवस्त्रकम् ।

तुलाभागं शतावर्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९९॥

अष्टोत्तरश्शतं बिल्वं योऽर्चयेल्लिङ्गमस्तके ।

अधर्वोक्तं अधेभ्यस्तु एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१००॥

काशीक्षेत्रनिवासं च कालभैरवदर्शनम् ।

अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् II१०१॥

अष्टोत्तरशतश्लोकैः स्तोत्राद्यैः पूजयेद्यथा ।

त्रिसन्ध्यं मोक्षमाप्नोति एकबिल्वं शिवार्पणम् 

॥१०२॥

दन्तिकोटिसहस्राणां भूः हिरण्यसहस्रकम् 

सर्वक्रतुमयं पुण्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् II१०३॥

पुत्रपौत्रादिकं भोगं भुक्त्वा चात्र यथेप्सितम् ।

अन्ते च शिवसायुज्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् 

॥१०४॥

विप्रकोटिसहस्राणां वित्तदानाच्च यत्फलम् ।

तत्फलं प्राप्नुयात्सत्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०५॥

त्वन्नामकीर्तनं तत्त्वं तवपादाम्बु यः पिबेत् 

जीवन्मुक्तोभवेन्नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०६॥

अनेकदानफलदं अनन्तसुकृतादिकम् ।

तीर्थयात्राखिलं पुण्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०७॥

त्वं मां पालय सर्वत्र पदध्यानकृतं तव ।

भवनं शाङ्करं नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०८॥


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पांच जगह बोला गया असत्य पाप नहीं होता है॥

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*न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति,*

*न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाले।*

*प्राणात्यये सर्वधनापहारे,*

*पंचानृतान्याहुरपातकानि।।*

*(महाभारत, आदि प. - ८२/१६)*

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*अर्थात 👉 हे राजन्! परिहासयुक्त वचन असत्य होने पर भी हानिकारक नहीं होता, स्त्री के प्रति, विवाह के समय, प्राण-संकट के समय तथा सर्वस्व का अपहरण होते समय विवश होकर असत्य भाषण करना पड़े तो वह दोषकारक नही होता, ये पाँच प्रकार के असत्य पापशून्य कहे गए हैं।*

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शनिवार, 5 मार्च 2022

घर में कभी गरीबी नही आएगी रामायण की इन आठ चौपाइयों का नित्य पाठ करे-

 🚩घर में कभी गरीबी नही आएगी रामायण की इन आठ चौपाइयों का नित्य पाठ करे--जय श्री राम🚩अदभुद🍁


   जब तें रामु ब्याहि घर आए।

        नित नव मंगल मोद बधाए॥🚩


     भुवन चारिदस भूधर भारी। 

         सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥🚩


    रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। 

         उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥🚩


     मनिगन पुर नर नारि सुजाती।

          सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥🚩


      कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। 

             जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥🚩


     सब बिधि सब पुर लोग सुखारी।

                रामचंद मुख चंदु निहारी॥🚩


      मुदित मातु सब सखीं सहेली। 

          फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥🚩


    राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ।

           प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥🚩


भावार्थ:-जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आए, तब से (अयोध्या में) नित्य नए मंगल हो रहे हैं और आनंद के बधावे बज रहे हैं। चौदहों लोक रूपी बड़े भारी पर्वतों पर पुण्य रूपी मेघ सुख रूपी जल बरसा रहे हैं॥🚩


रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। 

       उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥🚩


मनिगन पुर नर नारि सुजाती।

       सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥🚩


भावार्थ:-ऋद्धि-सिद्धि और सम्पत्ति रूपी सुहावनी नदियाँ उमड़-उमड़कर अयोध्या रूपी समुद्र में आ मिलीं। नगर के स्त्री-पुरुष अच्छी जाति के मणियों के समूह हैं, जो सब प्रकार से पवित्र, अमूल्य और सुंदर हैं॥🚩


कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। 

       जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥🚩


सब बिधि सब पुर लोग सुखारी।

            रामचंद मुख चंदु निहारी॥🚩


भावार्थ:-नगर का ऐश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता। ऐसा जान पड़ता है, मानो ब्रह्माजी की कारीगरी बस इतनी ही है। सब नगर निवासी श्री रामचन्द्रजी के मुखचन्द्र को देखकर सब प्रकार से सुखी हैं॥🚩


मुदित मातु सब सखीं सहेली। 

     फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥🚩


राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ।

      प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥🚩


भावार्थ:-सब माताएँ और सखी-सहेलियाँ अपनी मनोरथ रूपी बेल को फली हुई देखकर आनंदित हैं। श्री रामचन्द्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को देख-सुनकर राजा दशरथजी बहुत ही आनंदित होते हैं॥🚩


➖जय हो प्रभु राम की➖जय हो राजाराम की➖

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...