शनिवार, 30 जुलाई 2022

रुद्राभिषेक के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी

 सर्वदोष नाश के लिये रुद्राभिषेक विधि

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रुद्राभिषेक अर्थात रूद्र का अभिषेक करना यानि कि शिवलिंग पर रुद्रमंत्रों के द्वारा अभिषेक करना। जैसा की वेदों में वर्णित है शिव और रुद्र परस्पर एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। शिव को ही रुद्र कहा जाता है। क्योंकि- रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: यानि की भोले सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं। हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दु:खों के कारण हैं। रुद्राभिषेक करना शिव आराधना का सर्वश्रेष्ठ तरीका माना गया है। रूद्र शिव जी का ही एक स्वरूप हैं। रुद्राभिषेक मंत्रों का वर्णन ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में भी किया गया है। शास्त्र और वेदों में वर्णित हैं की शिव जी का अभिषेक करना परम कल्याणकारी है।



रुद्रार्चन और रुद्राभिषेक से हमारे पटक-से पातक कर्म भी जलकर भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है तथा भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है।


रूद्रहृदयोपनिषद में शिव के बारे में कहा गया है कि- सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका: अर्थात् सभी देवताओं की आत्मा में रूद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रूद्र की आत्मा हैं।


वैसे तो रुद्राभिषेक किसी भी दिन किया जा सकता है परन्तु त्रियोदशी तिथि,प्रदोष काल और सोमवार को इसको करना परम कल्याण कारी है। श्रावण मास में किसी भी दिन किया गया रुद्राभिषेक अद्भुत व् शीघ्र फल प्रदान करने वाला होता है।


रुद्राभिषेक क्या है ?

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अभिषेक शब्द का शाब्दिक अर्थ है – स्नान करना अथवा कराना। रुद्राभिषेक का अर्थ है भगवान रुद्र का अभिषेक अर्थात शिवलिंग पर रुद्र के मंत्रों के द्वारा अभिषेक करना। यह पवित्र-स्नान रुद्ररूप शिव को कराया जाता है। वर्तमान समय में अभिषेक रुद्राभिषेक के रुप में ही विश्रुत है। अभिषेक के कई रूप तथा प्रकार होते हैं। शिव जी को प्रसंन्न करने का सबसे श्रेष्ठ तरीका है रुद्राभिषेक करना अथवा श्रेष्ठ ब्राह्मण विद्वानों के द्वारा कराना। वैसे भी अपनी जटा में गंगा को धारण करने से भगवान शिव को जलधाराप्रिय माना गया है।


रुद्राभिषेक क्यों किया जाता हैं?

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रुद्राष्टाध्यायी के अनुसार शिव ही रूद्र हैं और रुद्र ही शिव है। रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: अर्थात रूद्र रूप में प्रतिष्ठित शिव हमारे सभी दु:खों को शीघ्र ही समाप्त कर देते हैं। वस्तुतः जो दुःख हम भोगते है उसका कारण हम सब स्वयं ही है हमारे द्वारा जाने अनजाने में किये गए प्रकृति विरुद्ध आचरण के परिणाम स्वरूप ही हम दुःख भोगते हैं।


रुद्राभिषेक का आरम्भ कैसे हुआ ?

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प्रचलित कथा के अनुसार भगवान विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्माजी जबअपने जन्म का कारण जानने के लिए भगवान विष्णु के पास पहुंचे तो उन्होंने ब्रह्मा की उत्पत्ति का रहस्य बताया और यह भी कहा कि मेरे कारण ही आपकी उत्पत्ति हुई है। परन्तु ब्रह्माजी यह मानने के लिए तैयार नहीं हुए और दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध से नाराज भगवान रुद्र लिंग रूप में प्रकट हुए। इस लिंग का आदि अन्त जब ब्रह्मा और विष्णु को कहीं पता नहीं चला तो हार मान लिया और लिंग का अभिषेक किया, जिससे भगवान प्रसन्न हुए। कहा जाता है कि यहीं से रुद्राभिषेक का आरम्भ हुआ।


एक अन्य कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव सपरिवार वृषभ पर बैठकर विहार कर रहे थे। उसी समय माता पार्वती ने मर्त्यलोक में रुद्राभिषेक कर्म में प्रवृत्त लोगो को देखा तो भगवान शिव से जिज्ञासा कि की हे नाथ मर्त्यलोक में इस इस तरह आपकी पूजा क्यों की जाती है? तथा इसका फल क्या है? भगवान शिव ने कहा – हे प्रिये! जो मनुष्य शीघ्र ही अपनी कामना पूर्ण करना चाहता है वह आशुतोषस्वरूप मेरा विविध द्रव्यों से विविध फल की प्राप्ति हेतु अभिषेक करता है। जो मनुष्य शुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी से अभिषेक करता है उसे मैं प्रसन्न होकर शीघ्र मनोवांछित फल प्रदान करता हूँ। जो व्यक्ति जिस कामना की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक करता है वह उसी प्रकार के द्रव्यों का प्रयोग करता है अर्थात यदि कोई वाहन प्राप्त करने की इच्छा से रुद्राभिषेक करता है तो उसे दही से अभिषेक करना चाहिए यदि कोई रोग दुःख से छुटकारा पाना चाहता है तो उसे कुशा के जल से अभिषेक करना या कराना चाहिए।


रुद्राभिषेक की पूर्ण विधि 

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रुद्राभिषेक पाठ एवं उसके भेद

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पूरा संसार अपितु पाताल से लेकर मोक्ष तक जिस अक्षर की सीमा नही ! ब्रम्हा आदि देवता भी जिस अक्षर का सार न पा सके उस आदि अनादी से रहित निर्गुण स्वरुप ॐ के स्वरुप में विराजमान जो अदितीय शक्ति भूतभावन कालो के भी काल गंगाधर भगवान महादेव को प्रणाम करते है ।


अपितु शास्त्रों और पुरानो में पूजन के कई प्रकार बताये गए है लेकिन जब हम शिव लिंग स्वरुप महादेव का अभिषेक करते है तो उस जैसा पुण्य अश्वमेघ जैसेयाग्यों से भी प्राप्त नही होता !


स्वयं श्रृष्टि कर्ता ब्रह्मा ने भी कहा है की जब हम अभिषेक करते है तो स्वयं महादेव साक्षात् उस अभिषेक को ग्रहण करने लगते है । संसार में ऐसी कोई वस्तु , कोई भी वैभव , कोई भी सुख , ऐसी कोई भी वास्तु या पदार्थ नही है जो हमें अभिषेक से प्राप्त न हो सके! वैसे तो अभिषेक कई प्रकार से बताये गये है । लेकिन मुख्या पांच ही प्रकार है ! 


(1) रूपक या षडड पाठ - रूद्र के छः अंग कहे गये है इन छह अंग का यथा विधि पाठ षडंग पाठ खा गया है ।


शिव कल्प शुक्त --- 1. प्रथम हृदय रूपी अंग है 


पुरुष शुक्त --- 2. द्वितीय सर रूपी अंग है ।


अप्रतिरथ सूक्त --- 3. कवचरूप चतुर्थ अंग है ।


मैत्सुक्त --- 4. नेत्र रूप पंचम अंग कहा गया है ।


शतरुद्रिय --- 5. अस्तरूप षष्ठ अंग कहा गया है।


इस प्रकार - सम्पूर्ण रुद्रश्त्ध्ययि के दस अध्यायों का षडडंग रूपक पाठ कहलाता है षडडंग पाठ में विशेष बात है की इसमें आठवें अध्याय के साथ पांचवे अध्याय की आवृति नही होती है।


(2) रुद्री या एकादिशिनि - रुद्राध्याय की गयी ग्यारह आवृति को रुद्री या एकादिशिनी कहते है रुद्रो की संख्या ग्यारह होने के कारण ग्यारह अनुवाद में विभक्त किया गया है।


(3) लघुरुद्र- एकादिशिनी रुद्री की ग्यारह अव्रितियों के पाठ के लघुरुद्र पाठ कहा गया है।


यह लघु रूद्र अनुष्ठान एक दिन में ग्यारह ब्राह्मणों का वरण करके एक साथ संपन्न किया जा सकता है । तथा एक ब्राह्मण द्वारा अथवा स्वयं ग्यारह दिनों तक एक एकादिशिनी पाठ नित्य करने पर भी लघु रूद्र संपन्न होती है।


(4) महारुद्र -- लघु रूद्र की ग्यारह आवृति अर्थात एकादिशिनी रुद्री का 121 आवृति पाठ होने पर महारुद्र अनुष्ठान होता है । यह पाठ ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा 11 दिन तक कराया जाता है । 


(5) अतिरुद्र - महारुद्र की 11 आवृति अर्थात एकादिशिनी रुद्री का 1331 आवृति पथ होने से अतिरुद्र अनुष्ठान संपन्न होता है ये (1)अनुष्ठात्मक 

(2) अभिषेकात्मक 

(3) हवनात्मक , 


तीनो प्रकार से किये जा सकते है शास्त्रों में इन अनुष्ठानो की अत्यधिक फल है व तीनो का फल समान है। 


गत पोस्ट में हमने भक्तो की सुविधा हेतु महादेव का आसान लौकिक मंत्रो से पूजन विधि बताई थी पूजा समाप्ति के उपरांत शिव अभिषेक का नियम है इसके लिये आवश्यक सामग्री पहले ही एकत्रित करलें।


सामग्री👉 बाल्टी अथवा बड़ा पात्र जल के लिये संभव हो तो गंगाजल से अभिषेक करे। श्रृंगी (गाय के सींग से बना अभिषेक का पात्र) श्रृंगी पीतल एवं अन्य धातु की भी बाजार में सहज उपलब्ध हो जाती है।, लोटा आदि।


रुद्राभिषेक से लाभ

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शिव पुराण के अनुसार किस द्रव्य से अभिषेक करने से क्या फल मिलता है अर्थात आप जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतु रुद्राभिषेक करा रहे है उसके लिए किस द्रव्य का इस्तेमाल करना चाहिए का उल्लेख शिव पुराण में किया गया है उसका सविस्तार विवरण प्रस्तुत कर रहा हू और आप से अनुरोध है की आप इसी के अनुरूप रुद्राभिषेक कराये तो आपको पूर्ण लाभ मिलेगा। रुद्राभिषेक अनेक पदार्थों से किया जाता है और हर पदार्थ से किया गया रुद्राभिषेक अलग फल देने में सक्षम है जो की इस प्रकार से हैं ।


श्लोक

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जलेन वृष्टिमाप्नोति व्याधिशांत्यै कुशोदकै


दध्ना च पशुकामाय श्रिया इक्षुरसेन वै।


मध्वाज्येन धनार्थी स्यान्मुमुक्षुस्तीर्थवारिणा।


पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति पयसा चाभिषेचनात।।


बन्ध्या वा काकबंध्या वा मृतवत्सा यांगना।


जवरप्रकोपशांत्यर्थम् जलधारा शिवप्रिया।।


घृतधारा शिवे कार्या यावन्मन्त्रसहस्त्रकम्।


तदा वंशस्यविस्तारो जायते नात्र संशयः।


प्रमेह रोग शांत्यर्थम् प्राप्नुयात मान्सेप्सितम।


केवलं दुग्धधारा च वदा कार्या विशेषतः।


शर्करा मिश्रिता तत्र यदा बुद्धिर्जडा भवेत्।


श्रेष्ठा बुद्धिर्भवेत्तस्य कृपया शङ्करस्य च!!


सार्षपेनैव तैलेन शत्रुनाशो भवेदिह!


पापक्षयार्थी मधुना निर्व्याधिः सर्पिषा तथा।।


जीवनार्थी तू पयसा श्रीकामीक्षुरसेन वै।


पुत्रार्थी शर्करायास्तु रसेनार्चेतिछवं तथा।


महलिंगाभिषेकेन सुप्रीतः शंकरो मुदा।


कुर्याद्विधानं रुद्राणां यजुर्वेद्विनिर्मितम्।


   अर्थात

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जल से रुद्राभिषेक करने पर — वृष्टि होती है।


कुशा जल से अभिषेक करने पर — रोग, दुःख से छुटकारा मिलती है।


दही से अभिषेक करने पर — पशु, भवन तथा वाहन की प्राप्ति होती है।


गन्ने के रस से अभिषेक करने पर — लक्ष्मी प्राप्ति


मधु युक्त जल से अभिषेक करने पर — धन वृद्धि के लिए। 


तीर्थ जल से अभिषेक करने पर — मोक्ष की प्राप्ति होती है।


इत्र मिले जल से अभिषेक करने से — बीमारी नष्ट होती है ।


दूध् से अभिषेककरने से — पुत्र प्राप्ति,प्रमेह रोग की शान्ति तथा मनोकामनाएं पूर्ण


गंगाजल से अभिषेक करने से — ज्वर ठीक हो जाता है।


दूध् शर्करा मिश्रित अभिषेक करने से — सद्बुद्धि प्राप्ति हेतू।


घी से अभिषेक करने से — वंश विस्तार होती है।


सरसों के तेल से अभिषेक करने से — रोग तथा शत्रु का नाश होता है।


शुद्ध शहद रुद्राभिषेक करने से —- पाप क्षय हेतू।


इस प्रकार शिव के रूद्र रूप के पूजन और अभिषेक करने से जाने-अनजाने होने वाले पापाचरण से भक्तों को शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है और साधक में शिवत्व रूप सत्यं शिवम सुन्दरम् का उदय हो जाता है उसके बाद शिव के शुभाशीर्वाद सेसमृद्धि, धन-धान्य, विद्या और संतान की प्राप्ति।


रुद्राभिषेक कैसे करे

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1 जल से अभिषेक

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👉 हर तरह के दुखों से छुटकारा पाने के लिए भगवान शिव का जल से अभिषेक करें। सर्वप्रथम भगवान शिव के बाल स्वरूप का मानसिक ध्यान करें तत्पश्चाततांबे को छोड़ अन्य किसी भी पात्र विशेषकर चांदी के पात्र में ‘शुद्ध जल’ भर कर पात्र पर कुमकुम का तिलक करें, ॐ इन्द्राय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय” का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर जल की पतली धार बनाते हुए रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करेत हुए ॐ तं त्रिलोकीनाथाय स्वाहा मंत्र का जाप करें, शिवलिंग को वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें


2 दूध से अभिषेक

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👉 शिव को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद पाने के लिए दूध से अभिषेक करें

👉 भगवान शिव के ‘प्रकाशमय’ स्वरूप का मानसिक ध्यान करें।

अभिषेक के लिए तांबे के बर्तन को छोड़कर किसी अन्य धातु के बर्तन का उपयोग करना चाहिए। खासकर तांबे के बरतन में दूध, दही या पंचामृत आदि नहीं डालना चाहिए। इससे ये सब मदिरा समान हो जाते हैं। तांबे के पात्र में जल का तो अभिषेक हो सकता है लेकिन तांबे के साथ दूध का संपर्क उसे विष बना देता है इसलिए तांबे के पात्र में दूध का अभिषेक बिल्कुल वर्जित होता है। क्योंकि तांबे के पात्र में दूध अर्पित या उससे भगवान शंकर को अभिषेक कर उन्हें अनजाने में आप विष अर्पित करते हैं। पात्र में ‘दूध’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें, ॐ श्री कामधेनवे नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय’ का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर दूध की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करते हुए ॐ सकल लोकैक गुरुर्वै नम: मंत्र का जाप करें, शिवलिंग को साफ जल से धो कर वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें


3👉 फलों का रस

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👉 अखंड धन लाभ व हर तरह के कर्ज से मुक्ति के लिए भगवान शिव का फलों के रस से अभिषेक करें।

 भगवान शिव के ‘नील कंठ’ स्वरूप का मानसिक ध्यान करें, ताम्बे के पात्र में ‘गन्ने का रस’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें, ॐ कुबेराय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर फलों का रस की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करते हुए -ॐ ह्रुं नीलकंठाय स्वाहा मंत्र का जाप करें, शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें


4 सरसों के तेल से अभिषेक

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👉 ग्रहबाधा नाश हेतु भगवान शिव का सरसों के तेल से अभिषेक करें।

भगवान शिव के ‘प्रलयंकर’ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें फिर ताम्बे के पात्र में ‘सरसों का तेल’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें ॐ भं भैरवाय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय” का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर सरसों के तेल की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करते हुए ॐ नाथ नाथाय नाथाय स्वाहा मंत्र का जाप करें, शिवलिंग को साफ जल से धो कर वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें


5 चने की दाल

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👉 किसी भी शुभ कार्य के आरंभ होने व कार्य में उन्नति के लिए भगवान शिव का चने की दाल से अभिषेक करें।

भगवान शिव के ‘समाधी स्थित’ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें फिर ताम्बे के पात्र में ‘चने की दाल’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें, ॐ यक्षनाथाय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर चने की दाल की धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करते हुए -ॐ शं शम्भवाय नम: मंत्र का जाप करें, शिवलिंग को साफ जल से धो कर वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें


6 काले तिल से अभिषेक

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👉 तंत्र बाधा नाश हेतु व बुरी नजर से बचाव के लिए काले तिल से अभिषेक करें। इसके लिये सर्वप्रथम भगवान शिव के ‘नीलवर्ण’ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें, ताम्बे के पात्र में ‘काले तिल’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें, ॐ हुं कालेश्वराय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर काले तिल की धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करते हुए -ॐ क्षौं ह्रौं हुं शिवाय नम: का जाप करें, शिवलिंग को साफ जल से धो कर वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें


7 शहद मिश्रित गंगा जल

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👉 संतान प्राप्ति व पारिवारिक सुख-शांति हेतु शहद मिश्रित गंगा जल से अभिषेक करें।

सबसे पहले भगवान शिव के ‘चंद्रमौलेश्वर’ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें, ताम्बे के पात्र में ” शहद मिश्रित गंगा जल” भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें, ॐ चन्द्रमसे नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय’ का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर शहद मिश्रित गंगा जल की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें अभिषेक करते हुए -ॐ वं चन्द्रमौलेश्वराय स्वाहा’ का जाप करें शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें।


8 घी व शहद

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👉 रोगों के नाश व लम्बी आयु के लिए घी व शहद से अभिषेक करें।

इसके लिये सर्वप्रथम भगवान शिव के ‘त्रयम्बक’ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें, ताम्बे के पात्र में ‘घी व शहद’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें फिर ॐ धन्वन्तरयै नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय” का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें शिवलिंग पर घी व शहद की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें अभिषेक करते हुए -ॐ ह्रौं जूं स: त्रयम्बकाय स्वाहा” का जाप करें शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें


9 कुमकुम केसर मिश्रित जल

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👉 आकर्षक व्यक्तित्व का प्राप्ति हेतु भगवान शिव का कुमकुम केसर के मिश्रण से अभिषेक करें।


सर्वप्रथम भगवान शिव के ‘नीलकंठ’ स्वरूप का मानसिक ध्यान करें चाँदी अथवा स्टील के पात्र में ‘कुमकुम केसर और पंचामृत’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें – ‘ॐ उमायै नम:’ का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें पंचाक्षरी मंत्र ‘ॐ नम: शिवाय’ का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें पंचाक्षरी मंत्र पढ़ते हुए पात्र में फूलों की कुछ पंखुडियां दाल दें-‘ॐ नम: शिवाय’ फिर शिवलिंग पर पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें. अभिषेक का मंत्र-ॐ ह्रौं ह्रौं ह्रौं नीलकंठाय स्वाहा’ शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें।

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सोमवार, 11 जुलाई 2022

भगवान शिव का विभिन्न द्रव्यों से स्नान और उनका फल!!!!!!!

 भगवान शिव का विभिन्न द्रव्यों से स्नान और उनका फल!!!!!!!


समुद्र-मंथन से उत्पन्न कालकूट विष की ज्वाला से दग्ध संसार की रक्षा के लिए भगवान शिव ने स्वयं ही उस महाविष का हथेली पर रखकर आचमन कर लिया और नीलकण्ठ कहलाए । उस विष की अग्नि को शांत करने के लिए भगवान शिव का शीतल वस्तुओं से अभिषेक किया जाता है । जैसे–कच्चा दूध, गंगाजल, पंचामृत, गुलाबजल, इक्षु रस (गन्ने का रस), चंदन मिश्रित जल, कुश-पुष्पयुक्त जल, सुवर्ण एवं रत्नयुक्त जल (रत्नोदक), नारियल का जल आदि । 


भोले-भण्डारी भगवान सदाशिव को अभिषेक अत्यन्त प्रिय है; इसीलिए कहा जाता है—अभिषेक प्रिय: शिव:’ । श्रावणमास में तो इसका महत्त्व बहुत ज्यादा है । 


विभिन्न पुराणों में भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए विभिन्न वस्तुओं से उनके स्नान व विभिन्न प्रकार के फूलों से पूजा बताई गयी है । 

वामनपुराण में वर्णित भगवान शिव के विभिन्न स्नान!!!!!!!


वामन पुराण में भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए विविध वस्तुओं से स्नान और विभिन्न पुष्पों से पूजा करने के साथ ही उनके विभिन्न नामों का उच्चारण करने की विधि इस प्रकार बताई गयी है—


▪️गन्ने के रस से स्नान व कमलपुष्पों से पूजन करने पर विरुपाक्ष (त्रिनेत्र) शिव प्रसन्न हों ।


▪️दूध से स्नान और कनेर के फूलों से पूजा करने पर शिव प्रसन्न हों ।


▪️दधि से स्नान व कनेर के फूलों से पूजा से शर्व प्रसन्न हों ।


▪️घृत से स्नान व तगर के फूलों से पूजा से त्र्यम्बक प्रसन्न हों ।


▪️कुश के जल से स्नान व कस्तूरी से पूजा करने पर महादेव उमापति प्रसन्न हों।


▪️पंचगव्य से स्नान और कुन्द के फूलों से पूजा करने पर रुद्र प्रसन्न हों ।


▪️गूलर के फल के जल से स्नान व मदार के फूलों से पूजा से नाट्येश्वर शिव प्रसन्न हों ।


▪️सुगन्धित फूलों के जल से स्नान व आम की मंजरियों से पूजा करने पर कालघ्न शिव प्रसन्न हों ।


▪️आंवले के जल से स्नान व मदार के फूलों से पूजा से पूषा के दांत तोड़ने वाले भगनेत्रघ्न शिव प्रसन्न हों ।


▪️बिल्व के जल से स्नान व धतूरे के उजले फूलों से पूजा करने से दक्ष-यज्ञ का विनाश करने वाले शिव प्रसन्न हों ।


▪️जटामासी के जल से स्नान व बिल्वपत्र व फल सहित पूजा से गंगाधर प्रसन्न हों ।


▪️धतूरे के पुष्पों से शंकर की पूजा करने से विरुपाक्ष (त्रिनेत्र) प्रसन्न हों ।


नारद-विष्णु पुराण में वर्णित शिव के विभिन्न स्नान!!!!!!!


नारद-विष्णु पुराण के अनुसार—


▪️जो मनुष्य कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी और सोमवार के दिन भगवान शंकर को दूध से नहलाता है, वह शिव सायुज्य प्राप्त कर लेता है ।


▪️अष्टमी अथवा सोमवार को जो मनुष्य नारियल के जल से भगवान शिव को स्नान कराता है, वह शिव-सायुज्य प्राप्त करता है ।


▪️शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी अथवा अष्टमी को घी और शहद से भगवान शिव को स्नान कराने से मनुष्य उनका सारुप्य प्राप्त कर लेता है ।


▪️तिल के तेल से भगवान शिव को स्नान कराकर मनुष्य सात पीढ़ियों के साथ उनका सारुप्य प्राप्त कर लेता है ।


▪️जो मनुष्य भगवान शिव को ईख के रस के स्नान कराता है, वह सात पीढ़ियों तक शिव लोक में निवास करता है ।


▪️साथ ही आक के फूलों से शिव पूजन करके मनुष्य उनका सालोक्य प्राप्त करता है और गुग्गुल धूप दिखाने से पापों से छूट जाता है ।


▪️भगवान शिव के समक्ष तिल के तेल से दीपदान करने पर मनुष्य की समस्त कामनाओं की पूर्ति होती है । घी के दीपदान करने से मनुष्य पापों से मुक्त होकर गंगास्नान का फल प्राप्त करता है ।


भगवान शिव सबके एकमात्र मूल हैं, उनकी पूजा ही सबसे बढ़कर है; क्योंकि मूल के सींचे जाने पर शाखा रूपी समस्त देवता स्वत: तृप्त हो जाते हैं । भगवान शिव के विधिवत् पूजन से जीवन में कभी दु:ख की अनुभूति नहीं होती है । अनिष्टकारक दुर्योगों में शिवलिंग के अभिषेक से भगवान आशुतोष की प्रसन्नता प्राप्त हो जाती है, सभी ग्रहजन्य बाधाएं शान्त हो जाती हैं, अपमृत्यु भाग जाती है और सभी प्रकार के सुखभोग प्राप्त हो जाते हैं । शिवलिंग के अर्चन से मनुष्य को भूमि, विद्या, पुत्र, बान्धव, श्रेष्ठता, ज्ञान एवं मुक्ति सब कुछ प्राप्त हो जाता है ।

भक्ष्य अभक्ष्य निर्णय

 भक्ष्य अभक्ष्य निर्णय 

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प्रतिपत्सु च कुष्माण्डमभक्ष्यमर्थनाशनम्!!

द्वितीयायां च वृहती भोजने न स्मरेद्धरिम्!!

अभक्ष्यं च पटोलं च शत्रुवृद्धि करं परम्!

तृतीयायां चतुर्थ्यां च मूलकं धन नाशनं !!

कलंकारणम् चैव पँचम्यां विल्वभक्षणं!

रोग वृद्धिकरं चैव नराणां ताल भक्षणं!!

सप्तम्यां तथा तालं शरीरस्य च नाशनम्!

नारिकेल फलं भक्ष्यमष्टम्यां वुद्धिनाशनम्!!

तुम्बी नवम्यां गोमांसं दशम्यां च कलम्बिका !

एकादश्यां तथा शिम्बी द्वादश्यां पूतिका तथा!!

त्र्योदश्यां च वार्ताकी भक्षणं पुत्र नाशनम्!!


-------प्रतिपदा को कुष्माण्ड न खाएं!!

द्वितीया की वृहती(भटकटैया) निषेध है!!

तृतीया को परवल निषेध है--शत्रुओ की वृद्धि होती है!!

चतुर्थी को मूली धन का नाश करने वाली है!!

पंचमी को बेल खाने से कलंक लगता है!!

षष्ठी को नीम की पत्ती ,फल या दातुन मुंह मे डालने से नीच योनियों की प्राप्ति होती है!!

सप्तमी को ताड़ का फल खाने से रोग बढ़ता है तथा शरीर क्षीण होता है!!

अष्टमी को नारियल खाने से वुद्धि क्षीण होती है!!

नवमी को गोल लौकी त्याज्य है!!

दशमी को कलम्बी का शाक त्याज्य है!!

एकादशी को शिम्बी खाने से सन्तति की हानि होती है!!

द्वादशी को पूतिका खाने से भी सन्तति की क्षति होती है!!

त्रयोदशी को वैगन खाने से पुत्र पक्ष को हानि होती है!!


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कुहूपूर्णेन्दुसंक्रांतिचतुर्दश्यष्टमीषु च!

  रवौ श्राद्धे व्रताहे च दुष्टं स्त्री तिलतैलकम्!!


----अमावश्या -पूर्णिमा -संक्रांति- चतुर्दशी ओर अष्टमी तिथि- रविवार ,श्राद्ध ओर ब्रत के दिन तिल का तेल निषिद्ध है!!

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आर्द्रकं रक्तशाकं च रवौ च परिवर्जयेत्!!

 अभक्ष्यमार्द्रकं चैव सर्वेषां च रवेर्दिने!!


---रविवार के दिन अदरख ओर लाल रंग का शाक नही खाना चाहिए!!

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सर्वं च तिलसमबद्धं नाद्यादस्तमिते रवौ!!

 रात्रौ च तिलसमबद्धं प्रयत्नेन दधिं त्यजेत्!!


---सूर्यास्त के उपरांत कोई भी तिलयुक्त पदार्थ नही खाना चाहिए!!

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रात्रौ दधि च सक्तूंश्च नित्यमेव व्यवर्जयन्!!

न पाणौ लवणं विद्वान प्राश्नीयान्न च रात्रिषु !

  दधिसक्तून न भुंजीत्............!!

 रात्रौ न दधि भोक्तव्यं "

 न नक्तं दधि भुंजीत्''

 भक्ष्येद् दधि नो निशि ""

 रात्रौ च दधिभक्ष्यं च शयनं सन्ध्ययोर्दिने ---!!


----लक्ष्मी की इच्छा रखने वाले स्त्री-पुरुष को रात्रि में दही एवं सत्तू नही खाना चाहिए!ऐसा करने से निश्चित ही शारीरिक स्थिति क्षीण होती है!!

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नाश्नीयात् पयसा तक्रम्!

दूध के साथ मट्ठा नही लेना चाहिए!!

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अभक्ष्यं मधुमिश्रम् च घृतं तैलं गुडं तथा!

आर्द्रकं गुडसंयुक्तमभक्ष्यं श्रुतिसम्मतम्!!

सगुडं दधि सगुडमार्द्रकं च मद्यसमम् !!


--मधु मिला हुया घी -तेल और गुड़ अभक्ष्य है !गुड़ सहित दही और गुड सहित अदरक भी निषेध है!!

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पानीयं पायसं चूर्णं घृतं लवणमेव च!

स्वस्तिकं गुडक़ं चैव क्षीरं तक्रं तथा मधु !

 !हस्ताद्धस्तगृहीतं च सद्यो गोमांस एव च!'


पीने का जल ,खीर ,चूर्ण,घी,नमक,स्वस्तिक, गुड दूध,मट्ठा, तथा मधु-ये एक हाथ से दूसरे हाथ पर ग्रहण करने से तत्काल मभक्ष्य हो जाते है!!

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ताम्रपात्रे पयःपानमुच्छिष्टँ घृतभोजनम्!

दुग्धं सलवणं चैव सद्यो गोमांसभक्षणम्!!

ताम्रपात्रे पयःपानमुच्छिष्टे घृतभोजनम्!

दुग्धं लवणसार्द्धं च सद्योगोमांस भक्षणम्!!


--ताँबे के पात्र में दूध पीना ,जूठे भोजन में घी डालकर खाना,ओर नमक के साथ दूध पीना-- अभक्ष्य ओर पाप कारक है!!

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अय:पात्रे पयः पानं गव्यं सिद्धान्नमेव च!

भ्रष्टादिकं मधु गुडं नारिकेलोदकं तथा!!

  फलं मुलं च यत्किंचिदभक्ष्यं मनुरब्रवीत् !


----ग्रहण करते समय लोहे के बर्तन में रखा हुआ जल ,उसमे रखा हुआ गाय का दूध, दही, घी,पकाया हुआ अन्न ,भुना हुआ पदार्थ,मधु ,गुड़, नारियल का जल,फल, मूल आदि सभी पदार्थ अभक्ष्य हो जाते है!

अतः खान-पान में लोहे के पात्र काम मे नही लेना चाहिये!

---- जिस धातु में मोर्चा लग जाता है वही लोहा होता है!!

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 हस्तदत्तास्तु ये स्नेहा लवणव्यंजनानि च !

दातारं नोपतिष्ठन्ति भोक्ता भुंजीत किल्विषम्!!

 प्रदद्यान्न तु हस्तेन नाSSयासेन कदाचन्!वशिष्ट!!

हस्तदत्तं तु यत् स्नेहलवणव्यंजनादिकम्!

दातुश्च नोपतिष्ठेत भोक्ता भुंजीत किल्विषम्!!दालभ्यस्मृति!!

हस्तदत्तास्तु ये स्नेहा लवणव्यंजनादय:!

 दातारं नोपतिष्ठन्ति भोक्ता भुंक्ते च किल्विषम्!!लघुशङ्ख!!

हस्तदत्तास्तु ये स्नेहाल्लवणव्यंजनादि च !-------!!अत्रिस्मृति!!

हस्ते दत्त्वा तु वै स्नेहाल्लवणं व्यंजनानि च!

आयसेन च पात्रेण तद्वै रक्षांसि भुंजते!!स्कंद-प्रभास!!

आयसेन तु पात्रेण यदन्नमुपदीयते!

अन्नं विष्ठासमं भोक्तुर्दाता च नरकं व्रजेत्!!लघु!!

इतरेण तु पात्रेण दीयमानं विचक्षण:!

  न दद्याद्वामहस्तेन आयसेन कदाचन्!!अत्रि!!

लोहपात्रेषु यत्पक्वं तदन्नं काकमांसवत्!

भुक्त्वा चाँद्रायणं कुर्याच्छ्राद्धेनान्येषु कर्मसु!!

ताम्रपात्रे न गोक्षीरं पचेदन्नं न लोहजे!

क्रमेण घृततैलाक्ते ताम्रलौहे न दुष्यत:!!प्रजापति!!

आयसेनैव पात्रेण यदन्नमुपदीयते !

 भोक्ता तद्विट्समं भुंक्ते दाता च नरकं व्रजेत्!!


-----हाथ मे दिया हुआ नमक,तेल व व्यंजन (खीर आदि रसीले पदार्थ) और लोहे के पात्र में दिया हुआ तथा वाये हाथ से दिया हुआ अन्न जल अभक्ष्य होता है !लोहे के पात्र में पकाया हुआ अन्न (चावल) भी मभक्ष्य है!!

++परन्तु लोहे के पात्र में तेल और तांबे के पात्र में घी दूषित नही होता!!

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नारिकेलोदकं कांस्ये ताम्रपात्रे स्थितं मधु!

गव्यं च ताम्र पात्रस्थं सर्वं मद्यं घृतं विना!!ब्रह्मवैवर्त!!

नारिकेलोदकं ....ऐक्षवं ताम्रपात्रस्थं सुरातुल्यं न संशयः!!उपरोक्त!!


-----कांसे के पात्र में नारियल का जल और तांबे के पात्र में ईख का रस एवं सभी गव्य पदार्थ (घी के सिवाय दूध,दही आदि) मदिरा तुल्य अभक्ष्य हो जाते है

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कर्पूरं रौप्यपात्रस्थभक्ष्यं श्रुतिसम्मतम्!!व्रह्मवैवर्त!!


------चांदी के पात्र में रखा हुआ कपूर अभक्ष्य हो जाता है!!

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नोत्सङ्गे भक्ष्येत्भक्ष्यान्नं पाणौ लवणं तथा!!विष्णुधर्मोत्तर!!

न पाणौ लवणं विद्वान् प्राश्नीयात्!!महाभारत अनु!!


----हाथ मे नमक लेकर चाटना नही चाहिये!!

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लशुनं गुंजनं चैव पलाण्डुम् कवनानि च !,

अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्य प्रभवाणि च!!मनु!!

लशुनं गुंजनं चैव पलाण्डुम् कवनानि च !

वार्ताकं नालिकेरं तु मूलकं जातिदुष्टकम्!!भविष्य!!


लहसुन ,गाजर,प्याज,कुकरमुत्ता,वैगन,करेमु, ओर अपवित्र स्थान (श्मशान आदि)--आदि में उत्पन्न शाक जात्या दूषित है ओर द्विजातियो के लिये अभक्ष्य है!!

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लोहितान्वृक्षनिर्यासान्वृश्चनप्रभवांस्तथा!

शेलुं गव्यं च पेयूषं प्रयत्नेन विवर्जयेत् !!मनु!!

लोहितान्व्रश्चनास्तथा--याज्ञवल्क्य!!


------पेड़ो का लाल गोंद,वृक्ष काटने से निकलने वाला गोंद,ओर गाय का पेयूष त्याज्य है!!


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अंगुल्या दन्तकाष्ठं च प्रत्यक्षं लवणं तथा !

मृत्तिका भक्षणं चैव तुल्यं गोमांस भक्षणं !!अत्रि/वृहत्पाराशर स्मृति!!

अंगुल्या दन्तधावेन प्रत्यक्षलवणेन च!मृत्तिकाभक्षणं-----!!दाल्भ्य!!


------प्रत्यक्ष नमक भक्षण एवम मिट्टी खाना भी मभक्ष्य होता है!!


 अदेयं चाप्यपेयं च तथैवास्पृश्यमेव च !

द्विजातीनामनालोक्यं नित्यं मद्यमिति स्थिति:!!

तस्मात् सर्वप्रकारेण (सर्वप्रयत्नेन)मद्यं नित्यं विवर्जयेत्!पीत्वा पतति कर्मभ्यस्त्वसम्भाष्यो भवेद् द्विजः!!कूर्म पद्म द्वय!!


-----द्विजातियो के लिए किसी को मदिरा देना,स्वयं उसे पीना,उसका स्पर्श करना, तथा उसकी ओर देखना भी पाप है!

उससे सदा दूर ही रहना चाहिए यही सनातनी मर्यादा है!

इसलिये पूर्ण प्रयत्न करके सर्वदा मदिरा का त्याग करें!जो द्विजे मद्यपान करता है ,वह द्विजोचित कर्मो से भ्रष्ट हो जाता है ,उससे बात भी नही करनी चाहिए और उसका वहिष्कार अवश्य करना चाहिए!!


घृतिं लज्जा च बुद्धिं च पानं पीतं प्रणाशयेत्!-----एवं बहुबिधा दोषा:पनपे सन्ति शोभने!

केवलं नरकं यान्ति नास्ति तत्र विचारणा!!महाभारत!!


---मदिरा पीने से मनुष्य के धैर्य ,लज्जा,ओर बुद्धि का नाश हो जाता है!

उसका निश्चय ही इहलोक ओर परलौक नष्ट होता है!!


सुरा भाँडोदरो वारि पीत्वा चाँद्रायणं चरेत्!!कूर्म!!

----मदिरा के पात्र में जल पीने पर 

चांद्रायण -व्रत करना चाहिए!!


सुरा स्पृष्ट्वा द्विजः कुर्यात् प्राणायाम त्रयं शुचि:!!

----मदिरा का स्पर्श मात्र होने से द्विज को प्रायश्चित्त स्वरूप तीन प्राणायाम एवम गायत्री का जप करना चाहिए तभी वह शुद्ध होता है!!


यः स्वार्थ मांसपचनं कुरुते पाप मोहित:!

यावन्त्यस्य तु रोमाणि तावत्स नरके वसेत्!!

परप्राणैस्तु ये प्राणान् स्वान् पुष्णन्ति हि दुर्धियः!

आकल्पं नरकान् भुक्त्वा ते भुज्यन्तेSत्र तै:पुनः!!

जातु मांसं न भोक्तव्यं प्रानै:कंठ गतैरपि!!स्कंद!!


----जो मनुष्य पाप से मोहित होकर मांस पकाता है,वह उस पशु के शरीर मे जितने रोम होते है उतने वर्ष पर्यंत नरक में निवास करता है!

जो दूषित वुद्धिवाले मनुष्य पराए प्राणों से अपने प्राणों का पोषण करता है ,वे एक कल्प तक नरक यातना भोगकर पुनः जन्म लेते है और उन्ही प्राणियों के खाद्य बनते है!!

यदि भूख से प्राण निकलकर कंठ तक आ गए हो तब भी मांस भक्षण नही करना चाहिए!!

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चूर्णपत्रे त्वया वास:सदा कार्यो दरिद्र भो:!

ताम्बूलस्य तो पर्णाग्रे भार्यया मम वाक्यत:!!

पर्णानां चैव वृंतेषु सर्वेषु त्वत्सुतेन च!

रात्रौ खदिरसारे च त्वं ताभ्यां सर्वदा वस!!!!


----ताम्बूल(पान)--पान के पत्ते के अग्रभाग में पत्नि के साथ तथा डंठल में पुत्र के साथ दारिद्र्य निवास करता है !

रात्रि के समय ये तीनो कत्थे में निवास करते है !!

सुरती (खेनी)-में सदा दारिद्र्य निवास करता है!!


ताम्बूलं विधवास्त्रीणां यतीनां व्रह्मचारिणम्!तपस्विनां च विप्रेन्द्र गोमांस सदृशं ध्रुवं!!व्रह्मवैवर्त!!

ताम्बूलं------!!सन्यासिनां च गोमांससुरातुल्यं श्रुतौ श्रुतम्!!व्र-वै,कृष्ण!!

-------विधवा स्त्री ,सन्यासी,ब्रह्मचारी, तथा तपस्वी के लिए ताम्बूल सदा ही अभक्ष्य है!!


परिवेषणकारी चेद्भोक्तारं स्पृशते यदि!

अभक्ष्यं च तदन्नं च सर्वेषामेव सम्मतम् !!व्रह्मवैवर्त!!


-------यदि परोसने वाला व्यक्ति भोजन करने वाले व्यक्ति को स्पर्श कर दे वह अन्न अभक्ष्य हो जाता है!!


--------¥¥अंकुरित अन्न नही खाना चाहिए ,क्योकि अंकुरण के समय जीव उत्पन्न हो जाने के कारण जीव हिंसाजन्य दोष लगता है!!


====जो म्लेच्छ है आचार विचार से --हीन है --उन दानवी वृत्ति वालों के लिए यह लेख नही है!!

>>>कण्टकादिजन्य दोषेण मदीय वुद्धि भ्रम दोषेण वा यानि स्खलितानि गुणैक पक्ष पातिनेधियो विद्वांश: संशोध्य व्यवहन्त्विति प्रार्थये!!

शास्त्र के अनुसार हाथ के नाखूनों से भी व्यक्ति के स्वभाव और जीवन के बारे मे एक जानकारी??

 शास्त्र के अनुसार हाथ के नाखूनों से भी व्यक्ति के स्वभाव और जीवन के बारे मे एक जानकारी?? 



"ताम्रस्निग्धोच्छिखोत्तुंग पर्वार्धोर्त्था नखा: शुभा: !

 श्वेतैर्यैतित्वमस्थानै र्नखै: पीतै: सरोगता !!"


अर्थात -  यदि नख(नाखून) कुछ चिकनाई और ललाई लिये हुए हों, अंगुली के अग्रभाग से कुछ आगे बढ़े हुए, अंगुली के पर्व की लम्बाई से आधे, कुछ ऊँचे नाखून हों, तो शुभ लक्षण है ! 


"कूर्मोन्नतेंगुष्ठनखे नर: स्याद् भाग्यवर्जिता: !"


अर्थात: यदि अंगूठे का नाखून कछुए की पीठ की तरह उन्नत हो - ऊपर उठा हुआ हो, तो मनुष्य भाग्यहीन होता है !


स्त्री के नाखूनो के संदर्भ में 'भविष्य पुराण' में वर्णित है -


"बन्धु जीवारूणैस्तुंगैर्नखैरैश्वर्य माप्नुयात् !

 खरैर्वक्त्रैर्विवर्णाभै: श्वेत पीतैरनीशताम् !!"


अर्थात: यदि नख बन्धूक पुष्प की तरह लाल, कुछ ऊँचाई लिए हुए हों, तो ऐसी स्त्री ऐश्वर्यशालिनी होती है ! 


'गर्ग संहिता' के अनुसार नाखून लाल, चमकीले, चिकने तथा उठे हुए हों, तो व्यक्ति सौभाग्यशाली होता है !


'गरूड़ पुराण' के अनुसार नाखूनो का रंग पीला हो, तो व्यक्ति को संतान का सुख नहीं प्राप्त होता है ! 


नाखूनो पर अर्धचंद्र बने हों, तो उन्नति की ओर संकेत करते हैं, ऐसा व्यक्ति भविष्य में बहुत उन्नति करता है ! अर्धचंद्र आकस्मिक धन प्राप्ति का भूी सूचक है !


छोटे नाखून वाला व्यक्ति घोर स्वार्थी तथा असभ्य होता है ! स्वार्थपूर्ति हेतु निम्न से निम्न कार्य कपने से भी नहीं झिझकता है !


पुरूष के नाखूनों पर सफेद बिंदु दु:खकारक होते हैं !


नाखूनो पर आड़ी रेखा शक्ति का ह्रास प्रकट करती है !


बड़े, चौड़े तथा अच्छे नख अच्छे स्वास्थ्य के सूचक हैं !


नाखून लम्बे कम किंतु चौड़े अधिक हों, तो व्यक्ति आलोचात्मक प्रवृति का होता है ! हर समय दूसरों की आलोचना ही करता रहता है !


नाखून लाल हों तथा चौड़े और चौकोर हों तथा बगल में गोलाई लिए हों, तो व्यक्ति निष्कपट होता है ! जो दिल में होता है, मुख पर साफ-साफ कह देता है !


नाखूने की जड़ में नीलापन हो, तो हृदय रोग सूचित करता है !


छोटे तथा पीले नाखून व्यक्ति की मक्कारी को दर्शाते हैं !


स्त्री के नखों पर सफेद बिंदु हों, तो स्त्री व्यभिचारिणी होती है ! 


स्त्री के पीले, कान्तिहीन, नीचे धंसे हुए या सुंदर रंग से युक्त न हों, तो दरिद्रता के सूचक हैं !


टेढ़े, खुरदरे, कान्तिहीन, सफेद या पीलापन लिये हुए या चकत्तेदीर नाखून हों, तो स्त्री दरिद्रा (दरिद्र) होती है

सोम प्रदोष व्रत परिचय एवं प्रदोष व्रत विस्तृत विधि

 सोम प्रदोष व्रत परिचय एवं प्रदोष व्रत विस्तृत विधि 

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प्रत्येक चन्द्र मास की त्रयोदशी तिथि के दिन प्रदोष व्रत रखने का विधान है. यह व्रत कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों को किया जाता है. सूर्यास्त के बाद के 2 घण्टे 24 मिनट का समय प्रदोष काल के नाम से जाना जाता है. प्रदेशों के अनुसार यह बदलता रहता है. सामान्यत: सूर्यास्त से लेकर रात्रि आरम्भ तक के मध्य की अवधि को प्रदोष काल में लिया जा सकता है।


ऐसा माना जाता है कि प्रदोष काल में भगवान भोलेनाथ कैलाश पर्वत पर प्रसन्न मुद्रा में नृ्त्य करते है. जिन जनों को भगवान श्री भोलेनाथ पर अटूट श्रद्धा विश्वास हो, उन जनों को त्रयोदशी तिथि में पडने वाले प्रदोष व्रत का नियम पूर्वक पालन कर उपवास करना चाहिए।


यह व्रत उपवासक को धर्म, मोक्ष से जोडने वाला और अर्थ, काम के बंधनों से मुक्त करने वाला होता है. इस व्रत में भगवान शिव की पूजन किया जाता है. भगवान शिव कि जो आराधना करने वाले व्यक्तियों की गरीबी, मृ्त्यु, दु:ख और ऋणों से मुक्ति मिलती है।


प्रदोष व्रत की महत्ता

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शास्त्रों के अनुसार प्रदोष व्रत को रखने से दौ गायों को दान देने के समान पुन्य फल प्राप्त होता है. प्रदोष व्रत को लेकर एक पौराणिक तथ्य सामने आता है कि " एक दिन जब चारों और अधर्म की स्थिति होगी, अन्याय और अनाचार का एकाधिकार होगा, मनुष्य में स्वार्थ भाव अधिक होगी. तथा व्यक्ति सत्कर्म करने के स्थान पर नीच कार्यो को अधिक करेगा।


उस समय में जो व्यक्ति त्रयोदशी का व्रत रख, शिव आराधना करेगा, उस पर शिव कृ्पा होगी. इस व्रत को रखने वाला व्यक्ति जन्म- जन्मान्तर के फेरों से निकल कर मोक्ष मार्ग पर आगे बढता है. उसे उतम लोक की प्राप्ति होती है।


व्रत से मिलने वाले फल

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अलग- अलग वारों के अनुसार प्रदोष व्रत के लाभ प्राप्त होते है।


जैसे👉  सोमवार के दिन त्रयोदशी पडने पर किया जाने वाला वर्त आरोग्य प्रदान करता है। सोमवार के दिन जब त्रयोदशी आने पर जब प्रदोष व्रत किया जाने पर, उपवास से संबन्धित मनोइच्छा की पूर्ति होती है। जिस मास में मंगलवार के दिन त्रयोदशी का प्रदोष व्रत हो, उस दिन के व्रत को करने से रोगों से मुक्ति व स्वास्थय लाभ प्राप्त होता है एवं बुधवार के दिन प्रदोष व्रत हो तो, उपवासक की सभी कामना की पूर्ति होने की संभावना बनती है।


गुरु प्रदोष व्रत शत्रुओं के विनाश के लिये किया जाता है। शुक्रवार के दिन होने वाल प्रदोष व्रत सौभाग्य और दाम्पत्य जीवन की सुख-शान्ति के लिये किया जाता है। अंत में जिन जनों को संतान प्राप्ति की कामना हो, उन्हें शनिवार के दिन पडने वाला प्रदोष व्रत करना चाहिए। अपने उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए जब प्रदोष व्रत किये जाते है, तो व्रत से मिलने वाले फलों में वृ्द्धि होती है।


व्रत विधि

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सुबह स्नान के बाद भगवान शिव, पार्वती और नंदी को पंचामृत और जल से स्नान कराएं। फिर गंगाजल से स्नान कराकर बेल पत्र, गंध, अक्षत (चावल), फूल, धूप, दीप, नैवेद्य (भोग), फल, पान, सुपारी, लौंग और इलायची चढ़ाएं। फिर शाम के समय भी स्नान करके इसी प्रकार से भगवान शिव की पूजा करें। फिर सभी चीजों को एक बार शिव को चढ़ाएं।और इसके बाद भगवान शिव की सोलह सामग्री से पूजन करें। बाद में भगवान शिव को घी और शक्कर मिले जौ के सत्तू का भोग लगाएं। इसके बाद आठ दीपक आठ दिशाओं में जलाएं। जितनी बार आप जिस भी दिशा में दीपक रखेंगे, दीपक रखते समय प्रणाम जरूर करें। अंत में शिव की आरती करें और साथ ही शिव स्त्रोत, मंत्र जाप करें। रात में जागरण करें।


प्रदोष व्रत समापन पर उद्धापन 

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इस व्रत को ग्यारह या फिर 26 त्रयोदशियों तक रखने के बाद व्रत का समापन करना चाहिए. इसे उद्धापन के नाम से भी जाना जाता है।


उद्धापन करने की विधि 

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इस व्रत को ग्यारह या फिर 26 त्रयोदशियों तक रखने के बाद व्रत का समापन करना चाहिए. इसे उद्धापन के नाम से भी जाना जाता है।


इस व्रत का उद्धापन करने के लिये त्रयोदशी तिथि का चयन किया जाता है. उद्धापन से एक दिन पूर्व श्री गणेश का पूजन किया जाता है. पूर्व रात्रि में कीर्तन करते हुए जागरण किया जाता है. प्रात: जल्द उठकर मंडप बनाकर, मंडप को वस्त्रों या पद्म पुष्पों से सजाकर तैयार किया जाता है. "ऊँ उमा सहित शिवाय नम:" मंत्र का एक माला अर्थात 108 बार जाप करते हुए, हवन किया जाता है. हवन में आहूति के लिये खीर का प्रयोग किया जाता है।


हवन समाप्त होने के बाद भगवान भोलेनाथ की आरती की जाती है। और शान्ति पाठ किया जाता है. अंत: में दो ब्रह्माणों को भोजन कराया जाता है. तथा अपने सामर्थ्य अनुसार दान दक्षिणा देकर आशिर्वाद प्राप्त किया जाता है।


सोम प्रदोष व्रत

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सूत जी बताने लगे- “सोम त्रयोदशी प्रदोष व्रत से शिव-पार्वती प्रसन्न होते हैं । व्रती के समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं ।”व्रत कथा

एक नगर में एक ब्राह्मणी रहती थी । उसके पति का स्वर्गवास हो गया था । उसका अब कोई आश्रयदाता नहीं था, इसलिए प्रातः होते ही वह अपने पुत्र के साथ भीख मांगने निकल पड़ती थी । भिक्षाटन से ही वह स्वयं व पुत्र का पेट पालती थी ।

एक दिन ब्राह्मणी घर लौट रही थी तो उसे एक लड़का घायल अवस्था में कराहता हुआ मिला । ब्राह्मणी दयावश उसे अपने घर ले आई । वह लड़का विदर्भ का राजकुमार था । शत्रु सैनिकों ने उसके राज्य पर आक्रमण कर उसके पिता को बन्दी बना लिया था और राज्य पर नियंत्रण कर लिया था, इसलिए वह मारा-मारा फिर रहा था । राजकुमार ब्राह्मण-पुत्र के साथ ब्राह्मणी के घर रहने लगा । एक दिन अंशुमति नामक एक गंधर्व कन्या ने राजकुमार को देखा और उस पर मोहित हो गई । अगले दिन अंशुमति अपने माता-पिता को राजकुमार से मिलाने लाई । उन्हें भी राजकुमार भा गया । कुछ दिओं बाद अंशुमति के माता-पिता को शंकर भगवान ने स्वप्न में आदेश दिया कि राजकुमार और अंशुमति का विवाह कर दिया जाए ।उन्होंने वैसा ही किया । ब्राह्मणी प्रदोष व्रत करती थी । उसके व्रत के प्रभाव और गंधर्वराज की सेना की सहायता से राजकुमार ने विदर्भ से शत्रुओं को खदेड़ दिया और पिता के राज्य को पुनः प्राप्त कर आनन्दपूर्वक रहने लगा । राजकुमार ने ब्राह्मण-पुत्र को अपना प्रधानमंत्री बनाया । ब्राह्मणी के प्रदोष व्रत के माहात्म्य से जैसे राजकुमार और ब्राह्मण-पुत्र के दिन फिरे, वैसे ही शंकर भगवान अपने दुसरे भक्तों के दिन भी फेरते हैं।”


प्रदोषस्तोत्रम् 

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।। श्री गणेशाय नमः।। 


जय देव जगन्नाथ जय शङ्कर शाश्वत । जय सर्वसुराध्यक्ष जय सर्वसुरार्चित ॥ १॥ 


जय सर्वगुणातीत जय सर्ववरप्रद । 

जय नित्य निराधार जय विश्वम्भराव्यय ॥ २॥ 


जय विश्वैकवन्द्येश जय नागेन्द्रभूषण । 

जय गौरीपते शम्भो जय चन्द्रार्धशेखर ॥ ३॥ 


जय कोट्यर्कसङ्काश जयानन्तगुणाश्रय । जय भद्र विरूपाक्ष जयाचिन्त्य निरञ्जन ॥ ४॥ 


जय नाथ कृपासिन्धो जय भक्तार्तिभञ्जन । जय दुस्तरसंसारसागरोत्तारण प्रभो ॥ ५॥ 


प्रसीद मे महादेव संसारार्तस्य खिद्यतः । सर्वपापक्षयं कृत्वा रक्ष मां परमेश्वर ॥ ६॥ 


महादारिद्र्यमग्नस्य महापापहतस्य च । महाशोकनिविष्टस्य महारोगातुरस्य च ॥ ७॥ 


ऋणभारपरीतस्य दह्यमानस्य कर्मभिः । ग्रहैः प्रपीड्यमानस्य प्रसीद मम शङ्कर ॥ ८॥ 


दरिद्रः प्रार्थयेद्देवं प्रदोषे गिरिजापतिम् । अर्थाढ्यो वाऽथ राजा वा प्रार्थयेद्देवमीश्वरम् ॥ ९॥ 


दीर्घमायुः सदारोग्यं कोशवृद्धिर्बलोन्नतिः । 

ममास्तु नित्यमानन्दः प्रसादात्तव शङ्कर ॥ १०॥ 


शत्रवः संक्षयं यान्तु प्रसीदन्तु मम प्रजाः । नश्यन्तु दस्यवो राष्ट्रे जनाः सन्तु निरापदः ॥ ११॥ 


दुर्भिक्षमरिसन्तापाः शमं यान्तु महीतले । सर्वसस्यसमृद्धिश्च भूयात्सुखमया दिशः ॥ १२॥ 


एवमाराधयेद्देवं पूजान्ते गिरिजापतिम् । ब्राह्मणान्भोजयेत् पश्चाद्दक्षिणाभिश्च पूजयेत् ॥ १३॥ 


सर्वपापक्षयकरी सर्वरोगनिवारणी । शिवपूजा मयाऽऽख्याता सर्वाभीष्टफलप्रदा ॥ १४॥ 


॥ इति प्रदोषस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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कथा एवं स्तोत्र पाठ के बाद महादेव जी की आरती करें


ताम्बूल, दक्षिणा, जल -आरती 

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 तांबुल का मतलब पान है। यह महत्वपूर्ण पूजन सामग्री है। फल के बाद तांबुल समर्पित किया जाता है। ताम्बूल के साथ में पुंगी फल (सुपारी), लौंग और इलायची भी डाली जाती है । दक्षिणा अर्थात् द्रव्य समर्पित किया जाता है। भगवान भाव के भूखे हैं। अत: उन्हें द्रव्य से कोई लेना-देना नहीं है। द्रव्य के रूप में रुपए, स्वर्ण, चांदी कुछ भी अर्पित किया जा सकता है।


आरती पूजा के अंत में धूप, दीप, कपूर से की जाती है। इसके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। आरती में एक, तीन, पांच, सात यानि विषम बत्तियों वाला दीपक प्रयोग किया जाता है।


भगवान शिव जी की आरती

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ॐ जय शिव ओंकारा,भोले हर शिव ओंकारा।

ब्रह्मा विष्णु सदा शिव अर्द्धांगी धारा ॥ ॐ हर हर हर महादेव...॥


एकानन चतुरानन पंचानन राजे।

हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहे।

तीनों रूपनिरखता त्रिभुवन जन मोहे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


अक्षमाला बनमाला मुण्डमाला धारी।

चंदन मृगमद सोहै भोले शशिधारी ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे।

सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता।

जगकर्ता जगभर्ता जगपालन करता ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका।

प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रह्मचारी।

नित उठि दर्शन पावत रुचि रुचि भोग लगावत महिमा अति भारी ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


लक्ष्मी व सावित्री, पार्वती संगा ।

पार्वती अर्धांगनी, शिवलहरी गंगा ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।


पर्वत सौहे पार्वती, शंकर कैलासा।

भांग धतूर का भोजन, भस्मी में वासा ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।


जटा में गंगा बहत है, गल मुंडल माला।

शेष नाग लिपटावत, ओढ़त मृगछाला ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।


त्रिगुण शिवजीकी आरती जो कोई नर गावे।

कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


ॐ जय शिव ओंकारा भोले हर शिव ओंकारा

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अर्द्धांगी धारा ।। ॐ हर हर हर महादेव।।


कर्पूर आरती

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कर्पूरगौरं करुणावतारं, संसारसारम् भुजगेन्द्रहारम्।

सदावसन्तं हृदयारविन्दे, भवं भवानीसहितं नमामि॥


मंगलम भगवान शंभू

मंगलम रिषीबध्वजा ।

मंगलम पार्वती नाथो

मंगलाय तनो हर ।।


मंत्र पुष्पांजलि 

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मंत्र पुष्पांजली मंत्रों द्वारा हाथों में फूल लेकर भगवान को पुष्प समर्पित किए जाते हैं तथा प्रार्थना की जाती है। भाव यह है कि इन पुष्पों की सुगंध की तरह हमारा यश सब दूर फैले तथा हम प्रसन्नता पूर्वक जीवन बीताएं।


ॐ यज्ञेन यज्ञमयजंत देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।


ते हं नाकं महिमान: सचंत यत्र पूर्वे साध्या: संति देवा:


ॐ राजाधिराजाय प्रसह्ये साहिने नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे स मे कामान्कामकामाय मह्यम् कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु।

कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नम:


ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं

पारमेष्ठ्यं राज्यं माहाराज्यमाधिपत्यमयं समंतपर्यायी सार्वायुष आंतादापरार्धात्पृथिव्यै समुद्रपर्यंता या एकराळिति तदप्येष श्लोकोऽभिगीतो मरुत: परिवेष्टारो मरुत्तस्यावसन्गृहे आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वेदेवा: सभासद इति।


ॐ विश्व दकचक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात संबाहू ध्यानधव धिसम्भत त्रैत्याव भूमी जनयंदेव एकः।

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि

तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥


नाना सुगंध पुष्पांनी यथापादो भवानीच

पुष्पांजलीर्मयादत्तो रुहाण परमेश्वर

ॐ भूर्भुव: स्व: भगवते श्री सांबसदाशिवाय नमः। मंत्र पुष्पांजली समर्पयामि।।


प्रदक्षिणा

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नमस्कार, स्तुति -प्रदक्षिणा का अर्थ है परिक्रमा। आरती के उपरांत भगवन की परिक्रमा की जाती है, परिक्रमा हमेशा क्लॉक वाइज (clock-wise) करनी चाहिए। स्तुति में क्षमा प्रार्थना करते हैं, क्षमा मांगने का आशय है कि हमसे कुछ भूल, गलती हो गई हो तो आप हमारे अपराध को क्षमा करें।

 

यानि कानि च पापानि जन्मांतर कृतानि च। तानि सवार्णि नश्यन्तु प्रदक्षिणे पदे-पदे।।


अर्थ: जाने अनजाने में किए गए और पूर्वजन्मों के भी सारे पाप प्रदक्षिणा के साथ-साथ नष्ट हो जाए। 


रजस्वला_स्त्री_के_लिए_त्याज्य_कर्म

  रजस्वला_स्त्री_के_लिए_त्याज्य_कर्म


~ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन न सम्भाष्या रजस्वला ।

  प्रथमेऽहनि चाण्डाली यथा वर्ज्या तथाङ्गना ।।

  द्वितीयेऽहनि विप्रा हि यथा वै ब्रह्मघातनी ।

  तृतीयेऽह्नि तदर्धेन चतुर्थेऽहनि सुव्रताः ।। 

                  पहले दिन रजस्वला स्त्री चाण्डाली की भाँति वर्ज्य होती है -- हे विप्रो ! दूसरे दिन वह ब्रह्मघातनी के समान होती है और तीसरे दिन उसके आधे पाप से युक्त रहती है ---

              चौथे दिन स्नान करके वह आधे महीने तक देवपूजन आदि के लिए शुद्ध रहती है---

               पाँचवे दिन से सोलहवें दिन तक रजोदोष रहने के कारण स्त्री स्पर्श आदि की शुद्धि मूत्रोत्सर्ग की शुद्धि की तरह कही गई है -- इसके बाद ही वह पूर्ण शुद्ध होती है ----

 स्नानं शौचं तथा गानं रोदनं हसनं तथा ।

  यानमभ्यञ्जनं नारी द्यूतं चैवानुलेपनम् ।।

  दिवास्वप्नं विशेषेण तथा वै दन्तधावनम् ।

  मैथुनं मानसं वापि वाचिकं देवतार्चनम् ।। 

               रजस्वला स्त्री को स्नान - शौच - गायन - रोदन - हास - परिहास - यात्रा करना - अभ्यंग - द्यूत - अनुलेपन - विशेष रूप से दिन में शयन - दन्तधावन - मैथुन - मन तथा वाणी से भी देवपूजन - नमस्कार आदि को प्रयत्नपूर्वक त्याग देना चाहिए---

                 रजस्वला को चाहिए कि अन्य रजस्वला स्त्री के अंगस्पर्श तथा उसके साथ बातचीत का त्याग कर दे -- उसे पूर्ण प्रयत्न के साथ वस्त्र बदलने का त्याग कर देना चाहिए -- 

              वह ऋतुस्नान से शुद्ध होकर ही पुरूष का स्पर्श करे - सूर्य देव का दर्शन करे - तदनन्तर आत्मशुद्धि के लिए ब्रह्मकूर्च अथवा केवल पञ्चगव्य अथवा दुग्ध का पान करे -----

              स्त्री ऐसी स्थिति में या अन्य किसी भी स्थिति में खेलकूद - नाचना - तैरना - साइकिल चलाना - या द्रुतगति से चलना करे तो उसके गृभास्य में विकृति आती है - उसका गृभास्य संकुचित हो जाता है - और उसकी प्रजनन क्रिया बिगड़ जाती है ।

            

  हर हर महादेव

गुरुवार, 7 जुलाई 2022

पूजा से पहले शौच और आचमन करना क्यों जरूरी??

 पूजा से पहले शौच और आचमन करना क्यों जरूरी???????

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* सकल सौच करि राम नहावा। सुचि सुजान बट छीर मगावा॥

अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए॥


भावार्थ:-शौच के सब कार्य करके (नित्य) पवित्र और सुजान श्री रामचन्द्रजी ने स्नान किया। फिर बड़ का दूध मँगाया और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित उस दूध से सिर पर जटाएँ बनाईं। यह देखकर सुमंत्रजी के नेत्रों में जल छा गया॥


संध्या वंदन के समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। संधिकाल में ही संध्या वंदन किया जाता है। वेदज्ञ और ईश्‍वरपरायण लोग इस समय प्रार्थना करते हैं। ज्ञानीजन इस समय ध्‍यान करते हैं। भक्तजन कीर्तन करते हैं।  


पुराणिक लोग देवमूर्ति के समक्ष इस समय पूजा या आरती करते हैं। तब सिद्ध हुआ की संध्योपासना या हिन्दू प्रार्थना के चार प्रकार हो गए हैं- (1)प्रार्थना-स्तुति, (2)ध्यान-साधना, (3)कीर्तन-भजन और (4)पूजा-आरती।


व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है।   


भारतीय परंपरा में पूजा, प्रार्थना और दर्शन से पहले शौच और आचमन करने का विधान है। बहुत से लोग मंदिर में बगैर शौच या आचमन किए जले जाते हैं जो कि अनुचित है। प्रात्येक मंदिर के बाहर या प्रांगण में नल जल की उचित व्यवस्था होनी चाहिए जहां व्यक्ति बैठकर अच्छे से खुद को शुद्ध कर सके। जल का उचित स्थान नहीं है तो यह मंदिर दोष में गिना जाएगा। 

 

शौच का अर्थ👉 शौच अर्थात शुचिता, शुद्धता, शुद्धि, विशुद्धता, पवित्रता और निर्मलता। शौच का अर्थ शरीर और मन की बाहरी और आंतरिक पवित्रता से है। आचमन से पूर्व शौचादि से निवृत्त हुआ जाता है।


 शौच का अर्थ है अच्छे से मल-मूत्र त्यागना भी है। शौच के दो प्रकार हैं- बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य का अर्थ बाहरी शुद्धि से है और आभ्यन्तर का अर्थ आंतरिक अर्थात मन वचन और कर्म की शुद्धि से है। जब व्यक्ति शरीर, मन, वचन और कर्म से शुद्ध रहता है तब उसे स्वास्थ्‍य और सकारात्मक ऊर्जा का लाभ मिलना शुरू हो जाता है।

 

शौचादि से निवृत्ति होने के बाद पूजा, प्रार्थना के पूर्व आचमन किया जाता है। मंदिर में जाकर भी सबसे पहले आचमन किया जाता है।

 

शौच के दो प्रकार हैं- बाह्य और आभ्यन्तर।


बाहरी शुद्धि👉 हमेशा दातुन कर स्नान करना एवं पवित्रता बनाए रखना बाह्य शौच है। कितने भी बीमार हों तो भी मिट्टी, साबुन, पानी से थोड़ी मात्रा में ही सही लेकिन बाहरी पवित्रता अवश्य बनाए रखनी चाहिए। आप चाहे तो शरीर के जो छिद्र हैं उन्हें ही जल से साफ और पवित्र बनाएँ रख सकते हैं। बाहरी शुद्धता के लिए अच्छा और पवित्र जल-भोजन करना भी जरूरी है। अपवित्र या तामसिक खानपान से बाहरी शु‍द्धता भंग होती है।

 

आंतरिक शुद्धि👉 आभ्यन्तर शौच उसे कहते हैं जिसमें हृदय से रोग-द्वेष तथा मन के सभी खोटे कर्म को दूर किया जाता है। जैसे क्रोध से मस्तिष्क और स्नायुतंत्र क्षतिग्रस्त होता है।


 लालच, ईर्ष्या, कंजूसी आदि से मन में संकुचन पैदा होता है जो शरीर की ग्रंथियों को भी संकुचित कर देता है। यह सभी हमारी सेहत को प्रभावित करते हैं। मन, वचन और कर्म से पवित्र रहना ही आंतरिक शुद्धता के अंतर्गत आता है अर्थात अच्छा सोचे, बोले और करें।

 

शौच के लाभ👉 ईर्ष्या, द्वेष, तृष्णा, अभिमान, कुविचार और पंच क्लेश को छोड़ने से दया, क्षमा, नम्रता, स्नेह, मधुर भाषण तथा त्याग का जन्म होता है। इससे मन और शरीर में जाग्रति का जन्म होता है। विचारों में सकारात्मकता बढ़कर उसके असर की क्षमता बढ़ती है। रोग और शौक से छुटकारा मिलता है। शरीर स्वस्थ और सेहतमंद अनुभव करता है। निराशा, हताशा और नकारात्मकता दूर होकर व्यक्ति की कार्यक्षमता बढ़ती है।

 

जानिए आचमन के बारे में विस्तार से...

 

आचमन का अर्थ👉 आचमन का अर्थ होता है जल पीना। प्रार्थना, दर्शन, पूजा, यज्ञ आदि आरंभ करने से पूर्व शुद्धि के लिए मंत्र पढ़ते हुए जल पीना ही आचमन कहलाता है। इससे मन और हृदय की शुद्धि होती है। आचमनी का अर्थ एक छोटा तांबे का लोटा और तांबे की चम्मच को आचमनी कहते हैं। छोटे से तांबे के लोटे में जल भरकर उसमें तुलसी डालकर हमेशा पूजा स्थल पर रखा जाता है। यह जल आचमन का जल कहलाता है। इस जल को तीन बार ग्रहण किया जाता है। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है।

 

आचमन विधि👉 वैसे तो आचमन के कई विधान और मंत्र है लेकिन यहां छोटी सी ही विधि प्रस्तुत है। आचमन सदैव उत्तर, ईशान या पूर्व दिशा की ओर मुख करके ही किया जाता है अन्य दिशाओं की ओर मुंह करके कदापि न करें। संध्या के पात्र तांबे का लोटा, तारबन, आचमनी, टूक्कस हाथ धोने के लिए कटोरी, आसन आदि लेकर के गायत्री छंद से इस संध्या की शुरुआत की जाती है। प्रातःकाल की संध्या तारे छिपने के बाद तथा सूर्योदय पूर्व करते हैं।

 

आचमन के लिए जल इतना लें कि हृदय तक पहुंच जाए। अब हथेलियों को मोड़कर गाय के कान जैसा बना लें कनिष्ठा व अंगुष्ठ को अलग रखें। तत्पश्चात जल लेकर तीन बार निम्न मंत्र का उच्चारण करते हैं:- हुए जल ग्रहण करें-

ॐ केशवाय नम: 

ॐ नाराणाय नम:

ॐ माधवाय नम:

ॐ ह्रषीकेशाय नम:, बोलकर ब्रह्मतीर्थ (अंगुष्ठ का मूल भाग) से दो बार होंठ पोंछते हुए हस्त प्रक्षालन करें (हाथ धो लें)। उपरोक्त विधि ना कर सकने की स्थिति में केवल दाहिने कान के स्पर्श मात्र से ही आचमन की विधि की पूर्ण मानी जाती है।

 

आचमन मुद्रा👉 शास्त्रों में कहा गया है कि,,,

 त्रिपवेद आपो गोकर्णवरद् हस्तेन त्रिराचमेत्। यानी आचमन के लिए बाएं हाथ की गोकर्ण मुद्रा ही होनी चाहिए तभी यह लाभदायी रहेगा। गोकर्ण मुद्रा बनाने के लिए दर्जनी को मोड़कर अंगूठे से दबा दें। उसके बाद मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका को परस्पर इस प्रकार मोड़ें कि हाथ की आकृति गाय के कान जैसी हो जाए।

 

भविष्य पुराण के अनुसार जब पूजा की जाए तो आचमन पूरे विधान से करना चाहिए। जो विधिपूर्वक आचमन करता है, वह पवित्र हो जाता है। सत्कर्मों का अधिकारी होता है। आचमन की विधि यह है कि हाथ-पांव धोकर पवित्र स्थान में आसन के ऊपर पूर्व से उत्तर की ओर मुख करके बैठें। दाहिने हाथ को जानु के अंदर रखकर दोनों पैरों को बराबर रखें। फिर जल का आचमन करें।

 

आचमन करते समय हथेली में 5 तीर्थ बताए गए हैं- 1. देवतीर्थ, 2. पितृतीर्थ, 3. ब्रह्मातीर्थ, 4. प्रजापत्यतीर्थ और 5. सौम्यतीर्थ।

 

कहा जाता है कि अंगूठे के मूल में ब्रह्मातीर्थ, कनिष्ठा के मूल में प्रजापत्यतीर्थ, अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ, तर्जनी और अंगूठे के बीच पितृतीर्थ और हाथ के मध्य भाग में सौम्यतीर्थ होता है, जो देवकर्म में प्रशस्त माना गया है।


 आचमन हमेशा ब्रह्मातीर्थ से करना चाहिए। आचमन करने से पहले अंगुलियां मिलाकर एकाग्रचित्त यानी एकसाथ करके पवित्र जल से बिना शब्द किए 3 बार आचमन करने से महान फल मिलता है। आचमन हमेशा 3 बार करना चाहिए।

 

आचमन के बारे में स्मृति ग्रंथ में लिखा है कि

प्रथमं यत् पिबति तेन ऋग्वेद प्रीणाति।

यद् द्वितीयं तेन यजुर्वेद प्रीणाति।

यत् तृतीयं तेन सामवेद प्रीणाति।

 

श्लोक का अर्थ है कि आचमन क्रिया में हर बार एक-एक वेद की तृप्ति प्राप्त होती है। प्रत्येक कर्म के आरंभ में आचमन करने से मन, शरीर एवं कर्म को प्रसन्नता प्राप्त होती है। आचमन करके अनुष्ठान प्रारंभ करने से छींक, डकार और जंभाई आदि नहीं होते हालांकि इस मान्यता के पीछे कोई उद्देश्य नहीं है।

 

पहले आचमन से ऋग्वेद और द्वितीय से यजुर्वेद और तृतीय से सामवेद की तृप्ति होती है। आचमन करके जलयुक्त दाहिने अंगूठे से मुंह का स्पर्श करने से अथर्ववेद की तृप्ति होती है। आचमन करने के बाद मस्तक को अभिषेक करने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं। दोनों आंखों के स्पर्श से सूर्य, नासिका के स्पर्श से वायु और कानों के स्पर्श से सभी ग्रंथियां तृप्त होती हैं। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है।

 

"शौच ईपसु: सर्वदा आचामेद एकान्ते प्राग उदड़्ग मुख:" (मनुस्मृति) 


अर्थात जो पवित्रता की कामना रखता है उसे एकान्त में आचमन अवश्य करना चाहिए। 'आचमन' कर्मकांड की सबसे जरूरी विधि मानी जाती है। वास्तव में आचमन केवल कोई प्रक्रिया नहीं है। यह हमारी बाहरी और भीतरी शुद्धता का प्रतीक है। 

 

“एवं स ब्राह्मणों नित्यमुस्पर्शनमाचरेत्।

ब्रह्मादिस्तम्बपर्यंन्तं जगत् स परितर्पयेत्॥”


प्रत्येक कार्य में आचमन का विधान है। आचमन से हम न केवल अपनी शुद्धि करते हैं अपितु ब्रह्मा से लेकर तृण तक को तृप्त कर देते हैं। जब हम हाथ में जल लेकर उसका आचमन करते हैं तो वह हमारे मुंह से गले की ओर जाता है, यह पानी इतना थोड़ा होता है कि सीधे आंतों तक नहीं पहुंचता। 


हमारे हृदय के पास स्थित ज्ञान चक्र तक ही पहुंच पाता है और फिर इसकी गति धीमी पड़ जाती है। यह इस बात का प्रतीक है कि हम वचन और विचार दोनों से शुद्ध हो गए हैं तथा हमारी मन:स्थिति पूजा के लायक हो गई है। आचमन में तांबे के विशेष पात्र से हथेली में जल लेकर ग्रहण किया जाता है। उसके बाद खुद पर जल छिड़क कर शुद्ध किया जाता है।

 

मनुस्मृति में कहा गया है कि- नींद से जागने के बाद, भूख लगने पर, भोजन करने के बाद, छींक आने पर, असत्य भाषण होने पर, पानी पीने के बाद, और अध्ययन करने के बाद आचमन जरूर करें।


कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...