रजस्वला_स्त्री_के_लिए_त्याज्य_कर्म
~ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन न सम्भाष्या रजस्वला ।
प्रथमेऽहनि चाण्डाली यथा वर्ज्या तथाङ्गना ।।
द्वितीयेऽहनि विप्रा हि यथा वै ब्रह्मघातनी ।
तृतीयेऽह्नि तदर्धेन चतुर्थेऽहनि सुव्रताः ।।
पहले दिन रजस्वला स्त्री चाण्डाली की भाँति वर्ज्य होती है -- हे विप्रो ! दूसरे दिन वह ब्रह्मघातनी के समान होती है और तीसरे दिन उसके आधे पाप से युक्त रहती है ---
चौथे दिन स्नान करके वह आधे महीने तक देवपूजन आदि के लिए शुद्ध रहती है---
पाँचवे दिन से सोलहवें दिन तक रजोदोष रहने के कारण स्त्री स्पर्श आदि की शुद्धि मूत्रोत्सर्ग की शुद्धि की तरह कही गई है -- इसके बाद ही वह पूर्ण शुद्ध होती है ----
स्नानं शौचं तथा गानं रोदनं हसनं तथा ।
यानमभ्यञ्जनं नारी द्यूतं चैवानुलेपनम् ।।
दिवास्वप्नं विशेषेण तथा वै दन्तधावनम् ।
मैथुनं मानसं वापि वाचिकं देवतार्चनम् ।।
रजस्वला स्त्री को स्नान - शौच - गायन - रोदन - हास - परिहास - यात्रा करना - अभ्यंग - द्यूत - अनुलेपन - विशेष रूप से दिन में शयन - दन्तधावन - मैथुन - मन तथा वाणी से भी देवपूजन - नमस्कार आदि को प्रयत्नपूर्वक त्याग देना चाहिए---
रजस्वला को चाहिए कि अन्य रजस्वला स्त्री के अंगस्पर्श तथा उसके साथ बातचीत का त्याग कर दे -- उसे पूर्ण प्रयत्न के साथ वस्त्र बदलने का त्याग कर देना चाहिए --
वह ऋतुस्नान से शुद्ध होकर ही पुरूष का स्पर्श करे - सूर्य देव का दर्शन करे - तदनन्तर आत्मशुद्धि के लिए ब्रह्मकूर्च अथवा केवल पञ्चगव्य अथवा दुग्ध का पान करे -----
स्त्री ऐसी स्थिति में या अन्य किसी भी स्थिति में खेलकूद - नाचना - तैरना - साइकिल चलाना - या द्रुतगति से चलना करे तो उसके गृभास्य में विकृति आती है - उसका गृभास्य संकुचित हो जाता है - और उसकी प्रजनन क्रिया बिगड़ जाती है ।
हर हर महादेव
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