सोमवार, 29 अगस्त 2022

हरतालिका तीज व्रत, HARTALIKA TEEJ VRAT

 हरतालिका तीज (गौरी तृतीया) व्रत 



हरतालिका तीज का व्रत हिन्दू धर्म में सबसे बड़ा व्रत माना जाता हैं। यह तीज का त्यौहार भाद्रपद मास शुक्ल की तृतीया तिथि को मनाया जाता है।


खासतौर पर महिलाओं द्वारा यह त्यौहार मनाया जाता हैं। कम उम्र की लड़कियों के लिए भी यह हरतालिका का व्रत श्रेष्ठ समझा गया हैं।


विधि-विधान से हरितालिका तीज का व्रत करने से जहाँ कुंवारी कन्याओं को मनचाहे वर की प्राप्ति होती है, वहीं विवाहित महिलाओं को अखंड सौभाग्य मिलता है।

 

हरतालिका तीज में भगवान शिव, माता गौरी एवम गणेश जी की पूजा का महत्व हैं।  यह व्रत निराहार एवं निर्जला किया जाता हैं। शिव जैसा पति पाने के लिए कुँवारी कन्या इस व्रत को विधि विधान से करती हैं।


महिलाओं में संकल्प शक्ति बढाता है हरितालिका तीज का व्रत

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हरितालिका तीज का व्रत महिला प्रधान है।इस दिन महिलायें बिना कुछ खायें -पिये व्रत रखती है।यह व्रत संकल्प शक्ती का एक अनुपम उदाहरण है। संकल्प अर्थात किसी कर्म के लिये मन मे निश्चित करना कर्म का मूल संकल्प है।इस प्रकार संकल्प हमारी अन्तरीक शक्तियोंका सामोहिक निश्चय है।इसका अर्थ है-व्रत संकल्प से ही उत्पन्न होता है।व्रत का संदेश यह है कि हम जीवन मे लक्ष्य प्राप्ति का संकल्प लें ।संकल्प शक्ति के आगे असंम्भव दिखाई देता लक्ष्य संम्भव हो जाता है।माता पार्वती ने जगत को दिखाया की संकल्प शक्ति के सामने ईश्वर भी झुक जाता है।

अच्छे कर्मो का संकल्प सदा सुखद परिणाम देता है। इस व्रत का एक सामाजिक संदेश विषेशतः महिलाओं के संदर्भ मे यह है कि आज समाज मे महिलायें बिते समय की तुलना मे अधिक आत्मनिर्भर व स्वतंत्र है।महिलाओं की भूमिका मे भी बदलाव आये है ।घर से बाहर निकलकर पुरुषों की भाँति सभी कार्य क्षेत्रों मे सक्रिय है।ऎसी स्थिति मे परिवार व समाज इन महिलाओं की भावनाओ एवं इच्छाओं का सम्मान करें,उनका विश्वास बढाएं,ताकि स्त्री व समाज सशक्त बनें।


हरतालिका तीज व्रत विधि और नियम 

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हरतालिका पूजन प्रदोष काल में किया जाता हैं। प्रदोष काल अर्थात दिन रात के मिलने का समय। हरतालिका पूजन के लिए शिव, पार्वती, गणेश एव रिद्धि सिद्धि जी की प्रतिमा बालू रेत अथवा काली मिट्टी से बनाई जाती हैं।


विविध पुष्पों से सजाकर उसके भीतर रंगोली डालकर उस पर चौकी रखी जाती हैं। चौकी पर एक अष्टदल बनाकर उस पर थाल रखते हैं। उस थाल में केले के पत्ते को रखते हैं। सभी प्रतिमाओ को केले के पत्ते पर रखा जाता हैं। सर्वप्रथम कलश के ऊपर नारियल रखकर लाल कलावा बाँध कर पूजन किया जाता हैं  कुमकुम, हल्दी, चावल, पुष्प चढ़ाकर विधिवत पूजन होता हैं। कलश के बाद गणेश जी की पूजा की जाती हैं।


उसके बाद शिव जी की पूजा जी जाती हैं। तत्पश्चात माता गौरी की पूजा की जाती हैं। उन्हें सम्पूर्ण श्रृंगार चढ़ाया जाता हैं। इसके बाद अन्य देवताओं का आह्वान कर षोडशोपचार पूजन किया जाता है। 


इसके बाद हरतालिका व्रत की कथा पढ़ी जाती हैं। इसके पश्चात आरती की जाती हैं जिसमे सर्वप्रथम गणेश जी की पुनः शिव जी की फिर माता गौरी की आरती की जाती हैं। इस दिन महिलाएं रात्रि जागरण भी करती हैं और कथा-पूजन के साथ कीर्तन करती हैं। प्रत्येक प्रहर में भगवान शिव को सभी प्रकार की वनस्पतियां जैसे बिल्व-पत्र, आम के पत्ते, चंपक के पत्ते एवं केवड़ा अर्पण किया जाता है। आरती और स्तोत्र द्वारा आराधना की जाती है। हरतालिका व्रत का नियम हैं कि इसे एक बार प्रारंभ करने के बाद छोड़ा नहीं जा सकता।


प्रातः अन्तिम पूजा के बाद माता गौरी को जो सिंदूर चढ़ाया जाता हैं उस सिंदूर से सुहागन स्त्री सुहाग लेती हैं। ककड़ी एवं हलवे का भोग लगाया जाता हैं। उसी ककड़ी को खाकर उपवास तोडा जाता हैं। अंत में सभी सामग्री को एकत्र कर पवित्र नदी एवं कुण्ड में विसर्जित किया जाता हैं।


भगवती-उमा की पूजा के लिए ये मंत्र बोलना चाहिए 👇


उमायै नम:

 पार्वत्यै नम:

जगद्धात्र्यै नम:

 जगत्प्रतिष्ठयै नम:

 शांतिरूपिण्यै नम:

 शिवायै नम:


भगवान शिव की आराधना इन मंत्रों से करनी चाहिए 👇


 हराय नम:

महेश्वराय नम:

 शम्भवे नम:

 शूलपाणये नम:

पिनाकवृषे नम:

 शिवाय नम:

 पशुपतये नम:

 महादेवाय नम:


निम्न नामो का उच्चारण कर बाद में पंचोपचार या सामर्थ्य हो तो षोडशोपचार विधि से पूजन किया जाता है। पूजा दूसरे दिन सुबह समाप्त होती है, तब महिलाएं द्वारा अपना व्रत तोडा जाता है और अन्न ग्रहण किया जाता है।


हरतालिका व्रत पूजन की सामग्री 

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1- फुलेरा विशेष प्रकार से  फूलों से सजा होता है।


2- गीली काली मिट्टी अथवा बालू रेत।


3- केले का पत्ता।


4- विविध प्रकार के फल एवं फूल पत्ते।


5- बेल पत्र, शमी पत्र, धतूरे का फल एवं फूल, तुलसी मंजरी।


6- जनेऊ , मौली, वस्त्र,।


7- माता गौरी के लिए पूरा सुहाग का सामग्री, जिसमे चूड़ी, बिछिया, काजल, बिंदी, कुमकुम, सिंदूर, कंघी, महावर, मेहँदी आदि एकत्र की जाती हैं। इसके अलावा बाजारों में सुहाग पूड़ा मिलता हैं जिसमे सभी सामग्री होती हैं।


8- घी, तेल, दीपक, कपूर, कुमकुम, सिंदूर, अबीर, चन्दन, नारियल, कलश।


9- पञ्चामृत - घी, दही, शक्कर, दूध, शहद।


हरतालिका तीज व्रत कथा 

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भगवान शिव ने पार्वतीजी को उनके पूर्व जन्म का स्मरण कराने के उद्देश्य से इस व्रत के माहात्म्य की कथा कही थी।


श्री भोलेशंकर बोले- हे गौरी! पर्वतराज हिमालय पर स्थित गंगा के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में बारह वर्षों तक अधोमुखी होकर घोर तप किया था। इतनी अवधि तुमने अन्न न खाकर पेड़ों के सूखे पत्ते चबा कर व्यतीत किए। माघ की विक्राल शीतलता में तुमने निरंतर जल में प्रवेश करके तप किया। वैशाख की जला देने वाली गर्मी में तुमने पंचाग्नि से शरीर को तपाया। श्रावण की मूसलधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न-जल ग्रहण किए समय व्यतीत किया।


तुम्हारे पिता तुम्हारी कष्ट साध्य तपस्या को देखकर बड़े दुखी होते थे। उन्हें बड़ा क्लेश होता था। तब एक दिन तुम्हारी तपस्या तथा पिता के क्लेश को देखकर नारदजी तुम्हारे घर पधारे। तुम्हारे पिता ने हृदय से अतिथि सत्कार करके उनके आने का कारण पूछा।


नारदजी ने कहा- गिरिराज! मैं भगवान विष्णु के भेजने पर यहां उपस्थित हुआ हूं। आपकी कन्या ने बड़ा कठोर तप किया है। इससे प्रसन्न होकर वे आपकी सुपुत्री से विवाह करना चाहते हैं। इस संदर्भ में आपकी राय जानना चाहता हूं।


नारदजी की बात सुनकर गिरिराज गद्‍गद हो उठे। उनके तो जैसे सारे क्लेश ही दूर हो गए। प्रसन्नचित होकर वे बोले- श्रीमान्‌! यदि स्वयं विष्णु मेरी कन्या का वरण करना चाहते हैं तो भला मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। वे तो साक्षात ब्रह्म हैं। हे महर्षि! यह तो हर पिता की इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख-सम्पदा से युक्त पति के घर की लक्ष्मी बने। पिता की सार्थकता इसी में है कि पति के घर जाकर उसकी पुत्री पिता के घर से अधिक सुखी रहे।


तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर नारदजी विष्णु के पास गए और उनसे तुम्हारे ब्याह के निश्चित होने का समाचार सुनाया। मगर इस विवाह संबंध की बात जब तुम्हारे कान में पड़ी तो तुम्हारे दुख का ठिकाना न रहा। 


तुम्हारी एक सखी ने तुम्हारी इस मानसिक दशा को समझ लिया और उसने तुमसे उस विक्षिप्तता का कारण जानना चाहा। तब तुमने बताया - मैंने सच्चे हृदय से भगवान शिवशंकर का वरण किया है, किंतु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी से निश्चित कर दिया। मैं विचित्र धर्म-संकट में हूं। अब क्या करूं? प्राण छोड़ देने के अतिरिक्त अब कोई भी उपाय शेष नहीं बचा है। तुम्हारी सखी बड़ी ही समझदार और सूझबूझ वाली थी। 


उसने कहा- सखी! प्राण त्यागने का इसमें कारण ही क्या है? संकट के मौके पर धैर्य से काम लेना चाहिए। नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि पति-रूप में हृदय से जिसे एक बार स्वीकार कर लिया, जीवनपर्यंत उसी से निर्वाह करें। सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो ईश्वर को भी समर्पण करना पड़ता है। मैं तुम्हें घनघोर जंगल में ले चलती हूं, जो साधना स्थली भी हो और जहां तुम्हारे पिता तुम्हें खोज भी न पाएं। वहां तुम साधना में लीन हो जाना। मुझे विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे।


तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हें घर पर न पाकर बड़े दुखी तथा चिंतित हुए। वे सोचने लगे कि तुम जाने कहां चली गई। मैं विष्णुजी से उसका विवाह करने का प्रण कर चुका हूं। यदि भगवान विष्णु बारात लेकर आ गए और कन्या घर पर न हुई तो बड़ा अपमान होगा। मैं तो कहीं मुंह दिखाने के योग्य भी नहीं रहूंगा। यही सब सोचकर गिरिराज ने जोर-शोर से तुम्हारी खोज शुरू करवा दी।


इधर तुम्हारी खोज होती रही और उधर तुम अपनी सखी के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में लीन थीं। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र था। उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण करके व्रत किया। रात भर मेरी स्तुति के गीत गाकर जागीं। तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन डोलने लगा। मेरी समाधि टूट गई। मैं तुरंत तुम्हारे समक्ष जा पहुंचा और तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर तुमसे वर मांगने के लिए कहा।


तब अपनी तपस्या के फलस्वरूप मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा - मैं हृदय से आपको पति के रूप में वरण कर चुकी हूं। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर आप यहां पधारे हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिए।


तब मैं 'तथास्तु' कह कर कैलाश पर्वत पर लौट आया। प्रातः होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री को नदी में प्रवाहित करके अपनी सहेली सहित व्रत का पारणा किया। उसी समय अपने मित्र-बंधु व दरबारियों सहित गिरिराज तुम्हें खोजते-खोजते वहां आ पहुंचे और तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या का कारण तथा उद्देश्य पूछा। उस समय तुम्हारी दशा को देखकर गिरिराज अत्यधिक दुखी हुए और पीड़ा के कारण उनकी आंखों में आंसू उमड़ आए थे।


तुमने उनके आंसू पोंछते हुए विनम्र स्वर में कहा- पिताजी! मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय कठोर तपस्या में बिताया है। मेरी इस तपस्या का उद्देश्य केवल यही था कि मैं महादेव को पति के रूप में पाना चाहती थी। आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूं। आप क्योंकि विष्णुजी से मेरा विवाह करने का निर्णय ले चुके थे, इसलिए मैं अपने आराध्य की खोज में घर छोड़कर चली आई। अब मैं आपके साथ इसी शर्त पर घर जाऊंगी कि आप मेरा विवाह विष्णुजी से न करके महादेवजी से करेंगे।


गिरिराज मान गए और तुम्हें घर ले गए। कुछ समय के पश्चात शास्त्रोक्त विधि-विधानपूर्वक उन्होंने हम दोनों को विवाह सूत्र में बांध दिया। 


हे पार्वती! भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के फलस्वरूप मेरा तुमसे विवाह हो सका। इसका महत्व यह है कि मैं इस व्रत को करने वाली कुंआरियों को मनोवांछित फल देता हूं। इसलिए सौभाग्य की इच्छा करने वाली प्रत्येक युवती को यह व्रत पूरी एकनिष्ठा तथा आस्था से करना चाहिए।


हरतालिका तीज व्रत पूजा विधि

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👉  हरतालिका तीज प्रदोषकाल में किया जाता है। सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्त को प्रदोषकाल कहा जाता है। यह दिन और रात के मिलन का समय होता है।


👉  हरतालिका पूजन के लिए भगवान शिव, माता पार्वती और भगवान गणेश की बालू रेत व काली मिट्टी की प्रतिमा हाथों से बनाएं।


👉  पूजा स्थल को फूलों से सजाकर एक चौकी रखें और उस चौकी पर केले के पत्ते रखकर भगवान शंकर, माता पार्वती और भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित करें।


👉  इसके बाद देवताओं का आह्वान करते हुए भगवान शिव, माता पार्वती और भगवान गणेश का षोडशोपचार पूजन करें।


👉  सुहाग की पिटारी में सुहाग की सारी वस्तु रखकर माता पार्वती को चढ़ाना इस व्रत की मुख्य परंपरा है।


👉  इसमें शिव जी को धोती और अंगोछा चढ़ाया जाता है। यह सुहाग सामग्री सास के चरण स्पर्श करने के बाद ब्राह्मणी और ब्राह्मण को दान देना चाहिए।


👉  इस प्रकार पूजन के बाद कथा सुनें और रात्रि जागरण करें। आरती के बाद सुबह माता पार्वती को सिंदूर चढ़ाएं व ककड़ी-हलवे का भोग लगाकर व्रत खोलें।


हरितालका तीज पूजा मुहूर्त

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हरितालिका पूजन प्रातःकाल ना करके प्रदोष काल यानी सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्त में किया जाना ही शास्त्रसम्मत है।


प्रदोषकाल निकालने के लिये आपके स्थानीय सूर्यास्त में आगे के 96 मिनट जोड़ दें तो यह एक घंटे 36 मिनट के लगभग का समय प्रदोष काल माना जाता है।


 

गुरुवार, 25 अगस्त 2022

भाद्रपद कुशोत्पाटिनी (पिठौरी) अमावस्या विशेष

 भाद्रपद कुशोत्पाटिनी (पिठौरी) अमावस्या विशेष

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हिन्दू धर्म में अमावस्या की तिथि पितरों की आत्म शांति, दान-पुण्य और काल-सर्प दोष निवारण के लिए विशेष रूप से महत्व रखती है। चूंकि भाद्रपद माह भगवान श्री कृष्ण की भक्ति का महीना होता है इसलिए भाद्रपद अमावस्या का महत्व और भी बढ़ जाता है। इस अमावस्या पर धार्मिक कार्यों के लिये कुशा एकत्रित की जाती है। कहा जाता है कि धार्मिक कार्यों, श्राद्ध कर्म आदि में इस्तेमाल की जाने वाली कुशा यदि इस दिन एकत्रित की जाये तो वह पुण्य फलदायी होती है। अध्यात्म और कर्मकांड शास्त्र में प्रमुख रूप से काम आने वाली वनस्पतियों में कुशा का प्रमुख स्थान है। इसका वैज्ञानिक नाम Eragrostis cynosuroides है। इसको कांस अथवा ढाब भी कहते हैं। जिस प्रकार अमृतपान के कारण केतु को अमरत्व का वर मिला है, उसी प्रकार कुशा भी अमृत तत्त्व से युक्त है। 


अत्यन्त पवित्र होने के कारण इसका एक नाम पवित्री भी है। इसके सिरे नुकीले होते हैं। इसको उखाड़ते समय सावधानी रखनी पड़ती है कि यह जड़ सहित उखड़े और हाथ भी न कटे। कुशल शब्द इसीलिए बना।


इस वर्ष कुशोत्पाटिनी अमावस्या कुश एकत्रित करने के लिये 7 सितम्बर को मानी जायेगी। कुशोत्पाटिनी अमावस्या मुख्यत: पूर्वान्ह में मानी जाती है।


भाद्रपद्र कुशोत्पाटिनी अमावस्या व्रत में किये जाने वाले धार्मिक कर्म

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स्नान, दान और तर्पण के लिए अमावस्या की तिथि का अधिक महत्व होता है।भाद्रपद कुशोत्पाटिनी अमावस्या के दिन किये जाने वाले धार्मिक कार्य इस प्रकार हैं।


👉 इस दिन प्रातःकाल उठकर किसी नदी, जलाशय या कुंड में स्नान करें और सूर्य देव को अर्घ्य देने के बाद बहते जल में तिल प्रवाहित करें।


👉 नदी के तट पर पितरों की आत्म शांति के लिए पिंडदान करें और किसी गरीब व्यक्ति या ब्राह्मण को दान-दक्षिणा दें।


👉 इस दिन कालसर्प दोष निवारण के लिए पूजा-अर्चना भी की जा सकती है।


👉 अमावस्या के दिन शाम को पीपल के पेड़ के नीचे सरसो के तेल का दीपक लगाएं और अपने पितरों को स्मरण करें। पीपल की सात परिक्रमा लगाएं।


👉 अमावस्या शनिदेव का दिन भी माना जाता है। इसलिए इस दिन उनकी पूजा करना जरूरी है।


भाद्रपद अमावस्या का महत्व

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पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि:।

कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया॥


हर माह में आने वाली अमावस्या की तिथि का अपना विशेष महत्व होता है। हिन्दू धर्म में कुश के बिना किसी भी पूजा को सफल नहीं माना जाता है। भाद्रपद अमावस्या के दिन धार्मिक कार्यों के लिये कुशा एकत्रित की जाती है, इसलिए इसे कुशग्रहणी या कुशोत्पाटिनी अमावस्या भी कहा जाता है। वहीं पौराणिक ग्रंथों में इसे कुशोत्पाटिनी अमावस्या भी कहा गया है। यदि भाद्रपद अमावस्या सोमवार के दिन हो तो इस कुशा का उपयोग 12 सालों तक किया जा सकता है।


किसी भी पूजन के अवसर पर पुरोहित यजमान को अनामिका उंगली में कुश की बनी पवित्री पहनाते हैं। शास्त्रों में 10 प्रकार के कुश का वर्णन है। 


कुशा:काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका:।

गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा: सबल्वजा:।।


मान्यता है कि घास के इन दस प्रकारों में जो भी घास सुलभ एकत्रित की जा सकती हो इस दिन कर लेनी चाहिये। लेकिन ध्यान रखना चाहिये कि घास को केवल हाथ से ही एकत्रित करना चाहिये और उसकी पत्तियां पूरी की पूरी होनी चाहिये आगे का भाग टूटा हुआ न हो। इस कर्म के लिये सूर्योदय का समय उचित रहता है। 


इनमें जो भी आपको मिल सके, उसे पूजा के समय या धार्मिक अनुष्ठान के समय ग्रहण करें।


ऐसे कुश का प्रयोग वर्जित

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जिस कुश का मूल सुतीक्ष्ण हो, अग्रभाग कटा न हो और हरा हो, वह देव और पितृ दोनों कार्यों में वर्जित होता है।


कुश उखाड़ने की प्रक्रिया

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अमावस्या के दिन दर्भस्थल में जाकर व्यक्ति को पूर्व या उत्तर मुख करके बैठना चाहिए। फिर कुश उखाड़ने के पूर्व निम्न मंत्र पढ़कर प्रार्थना करनी चाहिए।


कुशाग्रे वसते रुद्र: कुश मध्ये तु केशव:।

कुशमूले वसेद् ब्रह्मा कुशान् मे देहि मेदिनी।।


'विरञ्चिना सहोत्पन्न परमेष्ठिन्निसर्गज।

नुद सर्वाणि पापानि दर्भ स्वस्तिकरो भव।।


मंत्र पढ़ने के बाद "ऊँ हूँ फट्" मंत्र का उच्चारण करते कुशा दाहिने हाथ से उखाड़ें। इस वर्ष आपके घर जो भी पूजा या धार्मिक कार्यों का आयोजन हो, उसमें इस कुश का प्रयोग करें। यह पूरे वर्षभर के लिए उपयोगी और फलदायी होता है।


कुशा:काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका:।

गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा: सबल्वजा:।।


यह पौधा पृथ्वी लोक का पौधा न होकर अंतरिक्ष से उत्पन्न माना गया है। मान्यता है कि जब सीता जी पृथ्वी में समाई थीं तो राम जी ने जल्दी से दौड़ कर उन्हें रोकने का प्रयास किया, किन्तु उनके हाथ में केवल सीता जी के केश ही आ पाए। ये केश राशि ही कुशा के रूप में परिणत हो गई। सीतोनस्यूं पौड़ी गढ़वाल में जहाँ पर माना जाता है कि माता सीता धरती में समाई थी, उसके आसपास की घास अभी भी नहीं काटी जाती है।


भारत में हिन्दू लोग इसे पूजा /श्राद्ध में काम में लाते हैं। श्राद्ध तर्पण विना कुशा के सम्भव नहीं हैं । 


कुशा से बनी अंगूठी पहनकर पूजा /तर्पण के समय पहनी जाती है जिस भाग्यवान् की सोने की अंगूठी पहनी हो उसको जरूरत नहीं है। कुशा प्रत्येक दिन नई उखाडनी पडती है लेकिन अमावस्या की तोडी कुशा पूरे महीने काम दे सकती है और भादों की अमावस्या के दिन की तोडी कुशा पूरे साल काम आती है। इसलिए लोग इसे तोड के रख लते हैं। 


केतु शांति विधानों में कुशा की मुद्रिका और कुशा की आहूतियां विशेष रूप से दी जाती हैं। रात्रि में जल में भिगो कर रखी कुशा के जल का प्रयोग कलश स्थापना में सभी पूजा में देवताओं के अभिषेक, प्राण प्रतिष्ठा, प्रायश्चित कर्म, दशविध स्नान आदि में किया जाता है।


केतु को अध्यात्म और मोक्ष का कारक माना गया है। देव पूजा में प्रयुक्त कुशा का पुन: उपयोग किया जा सकता है, परन्तु पितृ एवं प्रेत कर्म में प्रयुक्त कुशा अपवित्र हो जाती है। देव पूजन, यज्ञ, हवन, यज्ञोपवीत, ग्रहशांति पूजन कार्यो में रुद्र कलश एवं वरुण कलश में जल भर कर सर्वप्रथम कुशा डालते हैं। कलश में कुशा डालने का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कलश में भरा हुआ जल लंबे समय तक जीवाणु से मुक्त रहता है। पूजा समय में यजमान अनामिका अंगुली में कुशा की नागमुद्रिका बना कर पहनते हैं। 


कुशा आसन का महत्त्व

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धार्मिक अनुष्ठानों में कुश (दर्भ) नामक घास से निर्मित आसान बिछाया जाता है। पूजा पाठ आदि कर्मकांड करने से व्यक्ति के भीतर जमा आध्यात्मिक शक्ति पुंज का संचय कहीं लीक होकर अर्थ न हो जाए, अर्थात पृथ्वी में न समा जाए, उसके लिए कुश का आसन विद्युत कुचालक का कार्य करता है। इस आसन के कारण पार्थिव विद्युत प्रवाह पैरों के माध्यम से शक्ति को नष्ट नहीं होने देता है।


इस पर बैठकर साधना करने से आरोग्य, लक्ष्मी प्राप्ति, यश और तेज की भी वृद्घि होती है और साधक की एकाग्रता भंग नहीं होती। कुशा की पवित्री उन लोगों को जरूर धारण करनी चाहिए, जिनकी राशि पर ग्रहण पड़ रहा है। कुशा मूल की माला से जाप करने से अंगुलियों के एक्यूप्रेशर बिंदु दबते रहते हैं, जिससे शरीर में रक्त संचार ठीक रहता है। 


यह भी कहा जाता है कि कुश के बने आसन पर बैठकर मंत्र जप करने से सभी मंत्र सिद्ध होते हैं। नास्य केशान् प्रवपन्ति, नोरसि ताडमानते। -देवी भागवत 19/32 अर्थात कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं झडते और छाती में आघात यानी दिल का दौरा नहीं होता। उल्लेखनीय है कि वेद ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है। 


आपको पता होगा कि कुश के ऊपर अमृत कलश रखा गया था। इसलिए इस पर अमृत का संयोग भी है। रक्षा करने वाले नागों ने जब कुश चाटने शुरू किये तब जीभ कुशों के कारण फटी थी उसकी कथा इस प्रकार से है।

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सभी साँप और गरुड़ दोनों सौतेले भाई थे, लेकिन साँपों की माँ कद्रू ने गरुड़ की माँ विनता को छल से अपनी दासी बना लिया। सभी साँपों ने गरुड़ के सामने यह शर्त रखी कि अगर वह स्वर्ग से उनके लिए अमृत लेकर आयेगा तो उसकी माँ को दासता से मुक्त कर दिया जायेगा। यह सुनकर गरुड़ ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और सभी को परास्त कर दिया। युद्ध में स्वर्ग के देवता इन्द्र को भी उसने मारकर मूर्छित कर दिया। उसका यह पराक्रम देखकर भगवान विष्णु बहुत प्रसन्न हुए और उसे अपना वाहन बना लिया। गरुड़ ने भगवान् विष्णु से यह वरदान भी माँग लिया कि वह हमेशा अमर रहेगा और उसे कोई नहीं मार सकेगा।


अमृत लेकर गरुड़ वापस धरती पर आ रहा था कि तभी इंद्र ने उस पर अपने वज्र से प्रहार कर दिया। गरुड़ को अमरता का वरदान मिला था, इसलिए उस पर वज्र के प्रहार का कोई असर नहीं हुआ, लेकिन गरुड़ ने इंद्र से कहा कि आपका वज्र दधीचि के हड्डियों से बना हुआ है, इसलिए मैं उनके सम्मान में अपना एक पंख गिरा देता हूँ। यह देखकर इंद्र ने कहा कि तुम जो अमृत साँपों के लिए ले जा रहे हो, उससे वह पूरी सृष्टि का विनाश कर देंगे, इसलिए अमृत को स्वर्ग में ही रहने दो।


इंद्र की बात सुनकर गरुड़ ने कहा इस अमृत को देकर वह अपनी माँ को दासता से मुक्त कराना चाहता है। वह इन्द्र से कहता है- मैं इस अमृत को जहाँ रख दूंगा, आप वहाँ से उठा लीजियेगा। गरुड़ की यह बात सुनकर इंद्र बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि तुम मुझसे कोई वर मांगो। गरुड़ ने कहा कि जिन साँपों ने मेरी माँ को अपनी दासी बनाया है, वे सभी मेरा प्रिय भोजन बने। गरुड़ अमृत लेकर साँपों के पास पहुँचा और साँपों से बोला कि मैं अमृत ले आया हूं। अब तुम मेरी माँ को अपनी दासता से मुक्त कर दो। साँपों ने ऐसा ही किया और उसकी माँ को मुक्त कर दिया। गरुड़ अमृत को एक कुश के आसन पर रख कर बोलता है कि तुम सभी पवित्र होकर इसको पी सकते हो।


सभी साँपों ने मिलकर विचार किया और स्नान करने चले गये। दूसरी तरफ इंद्र वहुं घात लगाकर बैठे हुए थे। जैसे ही सभी सांप चले जाते हैं, इन्द्र अमृत कलश लेकर स्वर्ग भाग जाते हैं। जब साँप वापस आये तो उन्होंने देखा कि अमृत कलश कुश के आसन पर नहीं है, उन्होंने सोचा कि जिस तरह से हमने छल करके गरुड़ की माँ को अपनी दासी बनाया हुआ था, उसी तरह से हमारे साथ भी छल हुआ है। लेकिन उन्हें थोड़ी देर बाद ध्यान आता है कि अमृत इसी कुश के आसन पर रखा हुआ था, तो हो सकता है, इस पर अमृत की कुछ बूंदे गिरी हों। सभी सांप कुश को अपनी जीभ से चाटने लगते हैं और उनकी जीभ कुशों के कारण बीच से दो भागों में कट जाती है। अमृत कलश के स्पर्श के बाद से कुश और पवित्र भी माने जाते हैं।


कुशा की पवित्री का महत्त्व

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कुश की अंगूठी बनाकर अनामिका उंगली में पहनने का विधान है, ताकि हाथ द्वारा संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए, क्योंकि अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली है। सूर्य से हमें जीवनी शक्ति, तेज और यश प्राप्त होता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकना भी है। कर्मकांड के दौरान यदि भूलवश हाथ भूमि पर लग जाए, तो बीच में कुश का ही स्पर्श होगा। इसलिए कुश को हाथ में भी धारण किया जाता है। इसके पीछे मान्यता यह भी है कि हाथ की ऊर्जा की रक्षा न की जाए, तो इसका दुष्परिणाम हमारे मस्तिष्क और हृदय पर पडता है।


पिथौरा अमावस्या

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भाद्रपद अमावस्या को पिथौरा अमावस्या भी कहा जाता है, इसलिए इस दिन देवी दुर्गा की पूजा की जाती है। इस संदर्भ में पौराणिक मान्यता है कि इस दिन माता पार्वती ने इंद्राणी को इस व्रत का महत्व बताया था। विवाहित स्त्रियों द्वारा संतान प्राप्ति एवं अपनी संतान के कुशल मंगल के लिये उपवास किया जाता है और देवी दुर्गा की पूजा की जाती है।


अमावस्या तिथि आरम्भ👉 26 अगस्त 2022 को दिन 12:23 से 


अमावस्या तिथि समाप्त 27 अगस्त को दिन 01:45 पर।


कुशा एकत्रित करने का मुहूर्त 👉 26 अगस्त प्रातः 07:27 बजे से 09:04 बजे तक लाभ की घड़ी में।


सायं 16.45 बजे से 06.33 बजे तक अमृत की घड़ी में


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इन इक्कीस वस्तुओं को सीधे पृथ्वी पर रखना वर्जित होता है

 इन इक्कीस वस्तुओं को सीधे पृथ्वी पर रखना वर्जित होता है। ये वस्तुयें पृथ्वी की ऊर्जा को अव्यवस्थित करती हैं और उस स्थान को अशुभ बनाती हैं। 



ये वस्तुयें हैं -


(1) मोती 

(2) शुक्ति (सीपी)

(3) शालग्राम 

(4) शिवलिंग

(5) देवी मूर्ति

(6) शंख 

(7) दीपक

(8) यन्त्र 

(9) माणिक्य

(10) हीरा 

(11) यज्ञसूत्र (यज्ञोपवीत)

(12) पुष्प (फूल)

(13) पुष्पमाला

(14) जपमाला 

(15) पुस्तक 

(16) तुलसीदल 

(17) कर्पूर 

(18) स्वर्ण

(19) गोरोचन 

(20) चंदन 

(21) शालिग्राम का स्नान कराया अमृत जल ।


 इन सभी वस्तुओं को किसी आधार पर रख तभी उस पर इनको स्थापित कर पूजित किया जाता है। पृथ्वी पर अक्षत, आसन, काष्ठ या पात्र रख कर इनको उस पर रखते हैं-


मुक्तां शुक्तिं हरेरर्चां शिवलिंगं शिवां तथा ।

शंखं प्रदीपं यन्त्रं च माणिक्यं हीरकं तथा ।।


यज्ञसूत्रं च पुष्पं च पुस्तकं तुलसीदलम् ।

जपमालां पुष्पमालां कर्पूरं च सुवर्णकम् ।।


गोरोचनं च चन्दनं च शालग्रामजलं तथा ।

एतान् वोढुमशक्ताहं क्लिष्टा च भगवन् शृणु।।


       अतएव इन इक्कीस वस्तुओं को सजगता पूर्वक किसी न किसी वस्तु के ऊपर रखना चाहिए। 


प्रायः दीपक को लोग अक्षतपुंज पर रखते हैं। 


पुस्तक को मेज पर रखते हैं। शालिग्राम और देवी की मूर्ति को पीठिका पर रखते हैं।


शंख को त्रिपादी पर रखते हैं। स्वर्ण को डिब्बी में रखते हैं।


फूल, फूलमाला को पुष्पपात्र में तथा यज्ञोपवीत को किसी पत्र पर रखते हैं।

शनिवार, 20 अगस्त 2022

ऋष्यशृंग

 ऋष्यशृंग कौन थे?????


ऋष्यश्रृंग ऋषि का वर्णन पुराणों एवं रामायण में आता है। ब्रह्मदेव के पौत्र महर्षि कश्यप के एक पुत्र थे विभाण्डक। वे स्वाभाव से बहुत उग्र और महान तपस्वी थे। एक बार उनके मन में आया कि वे ऐसी घोर तपस्या करें जैसी आज तक किसी और ने ना की हो। इसी कारण वे घोर तप में बैठे। उनकी तपस्या इतनी उग्र थी कि स्वर्गलोक भी तप्त हो गया।


 जब देवराज इंद्र ने देखा कि ऋषि विभाण्डक घोर तप कर रहे हैं तो उन्होंने उनकी तपस्या भंग करने के लिए कई अप्सराएं भेजी किन्तु वे उनका तप तोड़ने में असफल रहीं। तब इंद्र ने उर्वशी को विभाण्डक के पास भेजा। जब विभाण्डक ऋषि ने उर्वशी को देखा तो उसके सौंदर्य देखकर मुग्ध हो गए और उन्होंने उर्वशी के साथ संसर्ग किया जिससे उनकी तपस्या भंग हो गयी।


दोनों के संयोग से उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसके सर पर मृग की तरह सींघ (श्रृंग) था। उसी कारण उसका नाम "ऋष्यश्रृंग" रखा गया। इस विषय में एक और कथा मिलती है कि उर्वशी का सौंदर्य देख विभाण्डक का तेज स्खलित हो गया जिसे उन्होंने जल में बहा दिया। उस जल को एक मृग ने पिया जिससे वो गर्भवती हो गई और एक बालक को जन्म दिया। 


मृग की संतान होने के कारण उस बालक के सर पर उसी की भांति सींघ था जिससे उसका नाम ऋष्यश्रृंग पड़ा। इन्हे श्रृंगी ऋषि और एकश्रृंग के नाम से भी जाना जाता है। उधर पुत्र का जन्म होते ही उर्वशी का पृथ्वी पर कार्य संपन्न हो गया और वो वापस स्वर्गलोक चली गयी।


 विभाण्डक उर्वशी से अत्यंत प्रेम करते थे इसी कारण उन्हें उसके इस छल से असहनीय पीड़ा हुई और उनका विश्वास नारी जाति से उठ गया। उन्हें उर्वशी के छल से इतना धक्का लगा कि उन्हें स्त्री के नाम से भी घृणा होने लगी और उन्होंने ये निर्णय लिया कि वे अपने पुत्र पर स्त्री की छाया भी नहीं पड़ने देंगे।


वे ऋष्यश्रृंग के साथ एक घने अरण्य में चले गए और वहीँ उन्होंने अपने पुत्र का पालन-पोषण किया। वर्षों बीत गए, ऋष्यश्रृंग युवा हो गए किन्तु उन्होंने आज तक स्त्री का मुख भी नहीं देखा था अतः वे लिंगभेद से अनजान थे। अपने पुत्र के युवा होने पर विभाण्डक उन्हें आश्रम में ही रहने का निर्देश देकर पुनः तपस्या में रम गए। 


जिस अरण्य में वे थे वो अंगदेश की सीमा में पड़ता था। विभाण्डक के घोर तप के कारण अंगदेश में अकाल पड़ गया। अंगदेश के राजा रोमपाद, जिनका एक नाम चित्ररथ भी था इस विपत्ति से विचलित हो गए। उन्होंने देश भर से विद्वानों को बुलाया और उनसे पूछा कि इस असमय दुर्भिक्ष का क्या कारण है। तब उन्होंने बताया कि अंग की सीमा में ऋषि विभाण्डक घोर तप कर रहे हैं जिस कारण अंगदेश में दुर्भिक्ष आ गया है। 


किन्तु उनकी तपस्या को तोडा नहीं जा सकता अन्यथा वे क्रोध में आकर पूरे देश का नाश कर देंगे। इसपर रोमपाद ने पूछा कि फिर इस अकाल को समाप्त करने का क्या उपाय है? तब विद्वानों ने बताया कि अगर वे किसी प्रकार विभाण्डक के पुत्र ऋष्यश्रृंग को अंगदेश बुलाने में सफल हो गए तो उनके पिता की तपस्या टूट जाएगी और दुर्भिक्ष समाप्त हो जाएगा।


तब रोमपाद ने अत्यंत सुन्दर देवदासियों को ऋष्यश्रृंग को बुलाने भेजा। जब ऋष्यश्रृंग ने उन सुन्दर स्त्रियों को देखा तो आचार्यचकित रह गए। उन्होंने ऐसा सौंदर्य और कोमल शरीर कभी नहीं देखा था। उन देवदासियों ने तरह-तरह से ऋष्यश्रृंग को रिझाना शुरू किया। उन स्त्रियों का स्पर्श पा ऋष्यश्रृंग को अपूर्व आनंद प्राप्त हुआ। 


तब वे सभी स्त्रियां उस जंगल से कुछ दूर नगर के पास बनें एक आश्रम में चली गयी। स्त्री का संसर्ग प्राप्त कर चुके ऋष्यश्रृंग को अब उनके बिना कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था इसीलिए वे भी उन्हें ढूंढते हुए उनके आश्रम में पहुँच गए। वहाँ सभी स्त्रियों ने उनकी खूब सेवा की और किसी प्रकार बहला-फुसला कर उन्हें नगर में ले गयी। 


ऋष्यश्रृंग के नगर पहुँचते ही वहाँ वर्षा हों लगी और दुर्भिक्ष समाप्त हो गया। इससे विभाण्डक ऋषि का तप टूटा और अपने पुत्र को आश्रम में ना पाकर वे क्रोध में भर कर अंगदेश की ओर चले।


 इधर जब रोमपाद को ये पता चला कि विभाण्डक क्रोध में उनके नगर में ही आ रहे हैं तो उन्होंने उससे पहले ही अपनी दत्तक पुत्री शांता, जो वास्तव में महाराज दशरथ और महारानी कौशल्या की पुत्री थी, का विवाह ऋष्यश्रृंग से करवा दिया। जब विभाण्डक ऋषि वहाँ पहुँचे तो शांता ने उनका स्वागत किया और उन्हें बताया कि वे उनकी पुत्रवधु हैं। 


शांता और ऋष्यश्रृंग को अपने समक्ष देख विभाण्डक का क्रोध शांत हो गया और वो अपने पुत्र और पुत्रवधु के साथ वापस अपने आश्रम लौट गए। 


जब दशरथ को ये पता चला कि उनकी पुत्री का विवाह हो गया है तो वे बड़े प्रसन्न हुए। किन्तु कोई पुत्र ना होने के कारण वे बड़े दुखी भी थे। जब उन्होंने अपनी ये व्यथा चित्ररथ को बताई तो उन्होंने कहा कि उनके जमाता ऋष्यश्रृंग अत्यंत तपस्वी है और वे अगर चाहें तो दशरथ पुत्र की प्राप्ति कर सकते हैं। 


तब उनके परामर्श पर दशरथ ऋष्यश्रृंग के पास गए और उनसे अपनी व्यथा कही। तब ऋष्यश्रृंग ने अयोध्या आकर "पुत्रेष्टि" यज्ञ संपन्न कराया जिससे शांता के छोटे भाइयों - श्रीराम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। जिस स्थान पर उन्होंने यज्ञ कराया था वो अयोध्या से करीब ३८ किलोमीटर दूर है जहाँ उनका और शांता का एक मंदिर भी है।

राजा भरथरी

 कथा राजा भरथरी (भर्तृहरि) की पत्नी के धोखे से आहत होकर बन गए तपस्वी?


उज्जैन में भरथरी की गुफा स्थित है। इसके संबंध में यह माना जाता है कि यहां भरथरी ने तपस्या की थी। यह गुफा शहर से बाहर एक सुनसान इलाके में है। गुफा के पास ही शिप्रा नदी बह रही है। 


गुफा के अंदर जाने का रास्ता काफी छोटा है। जब हम इस गुफा के अंदर जाते हैं तो सांस लेने में भी कठिनाई महसूस होती है। गुफा की ऊंचाई भी काफी कम है, अत: अंदर जाते समय काफी सावधानी रखनी होती है। यहाँ पर एक गुफा और है जो कि पहली गुफा से छोटी है। यह गोपीचन्द कि गुफा है जो कि भरथरी का भतीजा था।


यहां प्रकाश भी काफी कम है, अंदर रोशनी के लिए बल्ब लगे हुए हैं। इसके बावजूद गुफा में अंधेरा दिखाई देता है। यदि किसी व्यक्ति को डर लगता है तो उसे गुफा के अंदर अकेले जाने में भी डर लगेगा। यहां की छत बड़े-बड़े पत्थरों के सहारे टिकी हुई है।


 गुफा के अंत में राजा भर्तृहरि की प्रतिमा है और उस प्रतिमा के पास ही एक और गुफा का रास्ता है। इस दूसरी गुफा के विषय में ऐसा माना जाता है कि यहां से चारों धामों का रास्ता है। गुफा में भर्तृहरि की प्रतिमा के सामने एक धुनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है।


गौर से देखने पर आपको गुफा के अंत में एक गुप्त रास्ता दिखाई देगा जिसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ से चारो धामों को रास्ता जाता है


पत्नी के धोखे से आहत राजा भरथरी के साधू बनने कि कहानी :-


उज्जैन को उज्जयिनी के नाम से भी जाना जाता था। उज्जयिनी शहर के परम प्रतापी राजा हुए थे विक्रमादित्य। विक्रमादित्य के पिता महाराज गंधर्वसेन थे और उनकी दो पत्नियां थीं। एक पत्नी के पुत्र विक्रमादित्य और दूसरी पत्नी के पुत्र थे भर्तृहरि। गंधर्वसेन के बाद उज्जैन का राजपाठ भर्तृहरि को प्राप्त हुआ, क्योंकि भरथरी विक्रमादित्य से बड़े थे।


 राजा भर्तृहरि धर्म और नीतिशास्त्र के ज्ञाता थे। प्रचलित कथाओं के अनुसार भरथरी की दो पत्नियां थीं, लेकिन फिर भी उन्होंने तीसरा विवाह किया पिंगला से। पिंगला बहुत सुंदर थीं और इसी वजह से भरथरी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित हो गए थे।


कथाओं के अनुसार भरथरी अपनी तीसरी पत्नी पिंगला पर काफी मोहित थे और वे उस पर अंधा विश्वास करते थे। राजा पत्नी मोह में अपने कर्तव्यों को भी भूल गए थे। उस समय उज्जैन में एक तपस्वी गुरु गोरखनाथ का आगमन हुआ। 


गोरखनाथ राजा के दरबार में पहुंचे। भरथरी ने गोरखनाथ का उचित आदर-सत्कार किया। इससे तपस्वी गुरु अति प्रसन्न हुए। प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने राजा एक फल दिया और कहा कि यह खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे, कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी।


यह चमत्कारी फल देकर गोरखनाथ वहां से चले गए। राजा ने फल लेकर सोचा कि उन्हें जवानी और सुंदरता की क्या आवश्यकता है। चूंकि राजा अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे, अत: उन्होंने सोचा कि यदि यह फल पिंगला खा लेगी तो वह सदैव सुंदर और जवान बनी रहेगी। यह सोचकर राजा ने पिंगला को वह फल दे दिया। रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। यह बात राजा नहीं जानते थे। 


जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा। रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया। वह कोतवाल एक वैश्या से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया। ताकि वैश्या सदैव जवान और सुंदर बनी रहे।


 वैश्या ने फल पाकर सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा। नर्क समान जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी। इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेगा तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देता रहेगा। यह सोचकर उसने चमत्कारी फल राजा को दे दिया। राजा वह फल देखकर हतप्रभ रह गए।


राजा ने वैश्या से पूछा कि यह फल उसे कहा से प्राप्त हुआ। वैश्या ने बताया कि यह फल उसे कोतवाल ने दिया है। भरथरी ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया। सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया है। 


जब भरथरी को पूरी सच्चाई मालूम हुई तो वह समझ गया कि पिंगला उसे धोखा दे रही है। पत्नी के धोखे से भरथरी के मन में वैराग्य जाग गया और वे अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में आ गए। इसी गुफा में भरथरी ने 12 वर्षों तक तपस्या की थी।


राजा भरथरी की कठोर तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए। इंद्र ने सोचा की भरथरी वरदान पाकर स्वर्ग पर आक्रमण करेंगे। यह सोचकर इंद्र ने भरथरी पर एक विशाल पत्थर गिरा दिया। तपस्या में बैठे भरथरी ने उस पत्थर को एक हाथ से रोक लिया और तपस्या में बैठे रहे। 


इसी प्रकार कई वर्षों तक तपस्या करने से उस पत्थर पर भरथरी के पंजे का निशान बन गया। यह निशान आज भी भरथरी की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है। यह पंजे का निशान काफी बड़ा है, जिसे देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजा भरथरी की कद-काठी कितनी विशालकाय रही होगी।


भरथरी ने वैराग्य पर वैराग्य शतक की रचना की, जो कि काफी प्रसिद्ध है। इसके साथ ही भरथरी ने श्रृंगार शतक और नीति शतक की भी रचना की। यह तीनों ही शतक आज भी उपलब्ध हैं और पढ़ने योग्य है।


उज्जैन के राजा भरथरी के पास 365 पाकशास्त्री यानि रसोइए थे, जो राजा और उसके परिवार और अतिथियों के लिए भोजन बनाने के लिए। एक रसोइए को वर्ष में केवल एक ही बार भोजन बनाने का मोका मिलता था। लेकिन इस दौरान भरथरी जब गुरु गोरखनाथ जी के चरणों में चले गये तो भिक्षा मांगकर खाने लगे थे।


एक बार गुरु गोरखनाथजी ने अपने शिष्यों से कहा, ‘देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और दृढ़निश्चयी है।


‘ शिष्यों ने कहा, ‘गुरुजी ! ये तो राजाधिराज हैं, इनके यहां 365 तो बावर्ची रहते थे। ऐसे भोग विलास के वातावरण में से आए हुए राजा और कैसे काम, क्रोध, लोभ रहित हो गए?’ गुरु गोरखनाथ जी ने राजा भरथरी से कहा, ‘भरथरी! जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियां ले आओ।’ राजा भरथरी नंगे पैर गए, जंगल से लकड़ियां एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे।


 गोरखनाथ जी ने दूसरे शिष्यों से कहा, ‘जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझ गिर जाए।‘ चेले गए और ऐसा धक्का मारा कि बोझ गिर गया और भरथरी गिर गए। भरथरी ने बोझ उठाया, लेकिन न चेहरे पर शिकन, न आंखों में आग के गोले, न होंठ फड़के। गुरु जी ने चेलों से क, ‘देखा! भरथरी ने क्रोध को जीत लिया है।’


शिष्य बोले, ‘गुरुजी! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए।’ थोड़ा सा आगे जाते ही गुरुजी ने योगशक्ति से एक महल रच दिया। गोरखनाथ जी भरथरी को महल दिखा रहे थे। युवतियां नाना प्रकार के व्यंजन आदि से सेवक उनका आदर सत्कार करने लगे। भरथरी युवतियों को देखकर कामी भी नहीं हुए और उनके नखरों पर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही गए।


गोरखनाथजी ने शिष्यों को कहा, अब तो तुम लोगों को विश्वास हो ही गया है कि भरथरी े काम, क्रोध, लोभ आदि को जीत लिया है। शिष्यों ने कहा, गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिए। गोरखनाथजी ने कहा, अच्छा भरथरी हमारा शिष्य बनने के लिए परीक्षा से गुजरना पड़ता है। 


जाओ, तुमको एक महीना मरुभूमि में नंगे पैर पैदल यात्रा करनी होगी।’ भरथरी अपने निर्दिष्ट मार्ग पर चल पड़े। पहाड़ी इलाका लांघते-लांघते राजस्थान की मरुभूमि में पहुंचे। धधकती बालू, कड़ाके की धूप मरुभूमि में पैर रखो तो बस जल जाए। एक दिन, दो दिन यात्रा करते-करते छः दिन बीत गए। 


सातवें दिन गुरु गोरखनाथजी अदृश्य शक्ति से अपने प्रिय चेलों को भी साथ लेकर वहां पहुंचे। गोरखनाथ जी बोले, ‘देखो, यह भरथरी जा रहा है। मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूं। वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठेगा।’ अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया। चलते-चलते भरथरी का पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े, मानो अंगारों पर पैर पड़ गया हो।


‘मरुभूमि में वृक्ष कैसे आ गया? छायावाले वृक्ष के नीचे पैर कैसे आ गया? गुरु जी की आज्ञा थी मरुभूमि में यात्रा करने की।’ कूदकर दूर हट गए। गुरु जी प्रसन्न हो गए कि देखो! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है। जिसने कभी पैर गलीचे से नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श होने से अंगारे जैसा एहसास करता है।


’ गोरखनाथ जी दिल में चेले की दृढ़ता पर बड़े खुश हुए, लेकिन और शिष्यों के मन में ईर्ष्या थी। शिष्य बोले, ‘गुरुजी! यह तो ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई।’ गोरखनाथ जी (रूप बदल कर) भर्तृहरि से मिले और बोले, ‘जरा छाया का उपयोग कर लो।’ भरथरी बोले, ‘नहीं, मेरे गुरुजी की आज्ञा है कि नंगे पैर मरुभूमि में चलूं।’ गोरखनाथ जी ने सोचा, ‘अच्छा! कितना चलते हो देखते हैं।’


 थोड़ा आगे गए तो गोरखनाथ जी ने योगबल से कांटे पैदा कर दिए। ऐसी कंटीली झाड़ी कि कंथा (फटे-पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र) फट गया। पैरों में शूल चुभने लगे, फिर भी भरथरी ने ‘आह’ तक नहीं की। भरथरी तो और अंतर्मुख हो गए, ’यह सब सपना है, गुरु जी ने जो आदेश दिया है, वही तपस्या है। यह भी गुरुजी की कृपा है’।


अंतिम परीक्षा के लिए गुरु गोरखनाथ जी ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया। प्यास के मारे भरथरी के प्राण कंठ तक आ गये। तभी गोरखनाथ जी ने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके नीचे पानी से भरी सुराही और सोने की प्याली रखी थी।


 एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर देखा पर तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरु आज्ञा भंग तो नहीं हो रही है। उनका इतना सोचना ही हुआ कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिए। भरथरी ने दंडवत प्रणाम किया। गुरुजी बोले, ”शाबाश भरथरी, वर मांग लो। अष्टसिद्धि दे दूं, नवनिधि दे दूं। 


तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन ठुकरा दिए, युवतियां तुम्हारे चरण पखारने के लिए तैयार थीं, लेकिन तुम उनके चक्कर में नहीं आए। तुम्हें जो मांगना है, वो मांग लो। भर्तृहरि बोले, ‘गुरुजी! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया। शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता सब कुछ है। आप मुझसे संतुष्ट हुए, मेरे करोड़ों पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गए।’ गोरखनाथ बोले, ‘नहीं भरथरी!


 अनादर मत करो। तुम्हें कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, कुछ-न-कुछ मांगना ही पड़ेगा।’ इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सूई दिखाई दी। उसे उठाकर भरथरी बोले, ‘गुरुजी! कंठा फट गया है, सूई में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंठा सी लूं।’


गोरखनाथ जी और खुश हुए कि ’हद हो गई! कितना निरपेक्ष है, अष्टसिद्धि-नवनिधियां कुछ नहीं चाहिए। मैंने कहा कुछ मांगो, तो बोलता है कि सूई में जरा धागा डाल दो। गुरु का वचन रख लिया। कोई अपेक्षा नहीं? भर्तृहरि तुम धन्य हो गए! कहां उज्जयिनी का सम्राट नंगे पैर मरुभूमि में। एक महीना भी नहीं होने दिया, सात-आठ दिन में ही परीक्षा से उत्तीर्ण हो गए।

जामवंत

 जामवन्त आज भी जिंदा हैं, जानिए उनके जीवन का रहस्य!!!!!!!


जामवन्त को ऋक्षपति कहा जाता है। यह ऋक्ष बिगड़कर रीछ हो गया जिसका अर्थ होता है भालू अर्थात भालू के राजा। लेकिन क्या वे सचमुच भालू मानव थे? रामायण आदि ग्रंथों में तो उनका चित्रण ऐसा ही किया गया है। ऋक्ष शब्द संस्कृत के अंतरिक्ष शब्द से निकला है। 


दरअसल दुनियाभर की पौराणिक कथाओं में इस तरामंडल को अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है, लेकिन सप्तऋषि तारामंडल मंडल को यूनान में बड़ा भालू (larger bear) कहा जाता है। इस तरामंडल के संबंध में प्राचीन भारत और यूनान में कई दंतकथाएं प्राचलित हैं।

 

पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि वशिष्ठ, अत्रि, विश्वामित्र, दुर्वासा, अश्वत्थामा, राजा बलि, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम, मार्कण्डेय ऋषि, वेद व्यास और जामवन्त आदि कई ऋषि, मुनि और देवता सशरीर आज भी जीवित हैं। कहते हैं कि जामवन्तजी बहुत ही विद्वान् हैं। 


वेद उपनिषद् उन्हें कण्ठस्थ हैं। वह निरन्तर पढ़ा ही करते थे और इस स्वाध्यायशीलता के कारण ही उन्होंने लम्बा जीवन प्राप्त किया था। परशुराम और हनुमान के बाद जामवन्त ही एक ऐसे व्यक्ति थे जिनके तीनों युग में होने का वर्णन मिलता है और कहा जाता है कि वे आज भी जिंदा हैं। 


लेकिन परशुराम और हनुमान से भी लंबी उम्र है जामवन्तजी कि क्योंकि उनका जन्म सतयुग में राजा बलि के काल में हुआ था। परशुराम से बड़े हैं जामवन्त और जामवन्त से बड़े हैं राजा बलि।


रामायण काल में हमारे देश में तीन प्रकार की संस्कृतियों का अस्तित्व था। उत्तर भारत में आर्य संस्कृति जिसके प्रमुख राजा दशरथ थे, दक्षिण भारत में अनार्य संस्कृति जिसका प्रमुख रावण था और तीसरी संस्कृति देश के मध्य भारत में आरण्यक संस्कृति (जनजातीय और आदिवासी) के रूप में अस्तित्व में थी जिसके संरक्षक महर्षि अगस्त्य मुनि थे। अगस्त मुनि, वनवासियों के गुरु व मार्ग-दर्शक थे। ऋक्ष और वानर, बाली, सुग्रीव, जामवन्त, हनुमान, नल, नील आदि अस्त्य मुनि के शिष्य थे। 

 

कहा जाता है कि जामवन्त सतयुग और त्रेतायुग में भी थे और द्वापर में भी उनके होने का वर्णन मिलता है। जामवन्त एक रीछ थे या किसी देवता की संतान? आखिर जामवन्तजी इतने लंबे काल तक कैसे जिंदा रहे? यह सब हम जाएंगे अगले पन्ने पर..

 

 पहला रहस्य,अग्नि पुत्र जामवन्त : - प्राचीन काल में इंद्र पुत्र, सूर्य पुत्र, चंद्र पुत्र, पवन पुत्र, वरुण पुत्र, ‍अग्नि पुत्र आदि देवताओं के पुत्रों का अधिक वर्णन मिलता है। उक्त देवताओं को स्वर्ग का निवासी कहा गया है। एक ओर जहां हनुमानजी और भीम को पवन पुत्र माना गया है, वहीं जामवन्तजी को अग्नि पुत्र कहा गया है। जामवन्त की माता एक गंधर्व कन्या थी। जब पिता देव और माता गंधर्व थीं तो वे कैसे रीछमानव हो सकते हैं? 


एक दूसरी मान्यता अनुसार भगवान ब्रह्मा ने एक ऐसा रीछ मानव बनाया था जो दो पैरों से चल सकता था और जो मानवों से संवाद कर सकता था। पुराणों अनुसार वानर और मानवों की तुलना में अधिक विकसित रीछ जनजाति का उल्लेख मिलता है। वानर और किंपुरुष के बीच की यह जनजाति अधिक विकसित थी। हालांक‍ि इस संबंध में अधिक शोध किए जाने की आवश्यकता है।

 

दूसरा रहस्य,जामवन्त का जन्म : - माना जाता है कि देवासुर संग्राम में देवताओं की सहायता के लिए जामवन्त का जन्म ‍अग्नि के पुत्र के रूप में हुआ था। उनकी माता एक गंधर्व कन्या थीं। 

 

सृष्टि के आदि में प्रथम कल्प के सतयुग में जामवन्तजी उत्पन्न हुए थे। जामवन्त ने अपने सामने ही वामन अवतार को देखा था। वे राजा बलि के काल में भी थे। राजा बलि से तीन पग धरती मांग कर भगवान वामन ने बलि को चिरंजीवी होने का वरदान देकर पाताल लोक का राजा बना दिया था। वामन अवतार के समय जामवन्तजी अपनी युववस्था में थे। जामवन्त को चिरं‍जीवियों में शामिल किया गया है जो कलियुग के अंत तक रहेंगे।


 तीसरा रहस्य,राम युग में जामवन्त : - त्रेतायुग में भी जामवन्त बूढ़े हो चले थे। राम के काल में उन्होंने भगवान राम की सहायता की थी। कहते हैं कि जामवन्तजी समुद्र को लांघने में सक्षम थे लेकिन त्रेतायुग में वह बूढ़े हो चले थे। इसीलिए उन्होंने हनुमानजी से इसके लिए विनती थी कि आप ही समुद्र लांघिये। वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड में जामवन्त का नाम विशेष उल्लेखनीय है। जब हनुमानजी अपनी शक्ति को भूल जाते हैं तो जामवन्तजी ही उनको याद दिलाते हैं।

 

जामवन्त के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥

तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥1॥

 

रामायण अनुसार वानर सेना में अंगद, सुग्रीव, परपंजद पनस, सुषेण (तारा के पिता), कुमुद, गवाक्ष, केसरी, शतबली, द्विविद, मैंद, हनुमान, नील, नल, शरभ, गवय लोग शामिल थे।

 

माना जाता है कि जामवन्तजी आकार-प्रकार में कुंभकर्ण से तनीक ही छोटे थे। जामवन्त को परम ज्ञानी और अनुभवी माना जाता था। उन्होंने ही हनुमानजी से हिमालय में प्राप्त होने वाली चार दुर्लभ औषधियों का वर्णन किया था जिसमें से एक संजीविनी थी।

 

मृत संजीवनी चैव विशल्यकरणीमपि।

सुवर्णकरणीं चैव सन्धानी च महौषधीम्‌॥- युद्धकाण्ड 74-33 

 

विशल्यकरणी (शरीर में घुसे अस्त्र निकालने वाली), सन्धानी (घाव भरने वाली), सुवर्णकरणी (त्वचा का रंग ठीक रखने वाली) और मृतसंजीवनी (पुनर्जीवन देने वाली)। 

 

 चौथा रहस्य जामवन्त का अहंकार : - राम-रावण के युद्ध में जामवन्तजी रामसेना के सेनापति थे। युद्ध की समाप्त‌ि के बाद जब भगवान राम विदा होकर अयोध्या लौटने लगे तो जामवन्तजी ने उनसे कहा कि प्रभु इतना बड़ा युद्ध हुआ मगर मुझे पसीने की एक बूंद तक नहीं गिरी, तो उस समय प्रभु श्रीराम मुस्कुरा दिए और चुप रह गए। श्रीराम समझ गए कि जामवन्तजी के भीतर अहंकार प्रवेश कर गया है।

 

जामवन्त ने कहा, प्रभु युद्ध में सबको लड़ने का अवसर मिला परंतु मुझे अपनी वीरता दिखाने का कोई अवसर नहीं मिला। मैं युद्ध में भाग नहीं ले सका और युद्ध करने की मेरी इच्छा मेरे मन में ही रह गई। उस समय भगवान ने जामवन्तजी से कहा, तुम्हारी ये इच्छा अवश्य पूर्ण होगी जब मैं अगला अवतार धारण करूंगा। तब तक तुम इसी स्‍थान पर रहकर तपस्या करो।

 

पांचवां रहस्य,द्वापर युग में जामवन्त : स्यमंतक मणि को इंद्रदेव धारण करते हैं। कहते हैं कि प्राचीनकाल में कोहिनूर को ही स्यमंतक मणि कहा जाता था। कई स्रोतों के अनुसार कोहिनूर हीरा लगभग 5,000 वर्ष पहले मिला था और यह प्राचीन संस्कृत इतिहास में लिखे अनुसार स्यमंतक मणि नाम से प्रसिद्ध रहा था। दुनिया के सभी हीरों का राजा है कोहिनूर हीरा। 


यह बहुत काल तक भारत के क्षत्रिय शासकों के पास रहा फिर यह मुगलों के हाथ लगा। इसके बाद अंग्रेजों ने इसे हासिल किया और अब यह हीरा ब्रिटेन के म्यूजियम में रखा है। हालांकि इसमें कितनी सच्चाई है कि कोहिनूर हीरा ही स्यमंतक मणि है? यह शोध का विषय हो सकता है। यह एक चमत्कारिक मणि है।

 

भगवान श्रीकृष्ण को इस मणि के लिए युद्ध करना पड़ा था। उन्होंने मणि के लिए नहीं बल्कि खुद पर लगे मणि चोरी के आरोप को असिद्ध करने के लिए जाम्बवंत से युद्ध करना पड़ा था। दरअसल, यह मणि भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा के पिता सत्राजित के पास थी और उन्हें यह मणि भगवान सूर्य ने दी थी।

 

सत्राजित ने यह मणि अपने देवघर में रखी थी। वहां से वह मणि पहनकर उनका भाई प्रसेनजित आखेट के लिए चला गया। जंगल में उसे और उसके घोड़े को एक सिंह ने मार दिया और मणि अपने पास रखी ली। सिंह के पास मणि देखकर जाम्बवंतजी ने सिंह को मारकर मणि उससे ले ली और उस मणि को लेकर वे अपनी गुफा में चले गए, जहां उन्होंने इसको खिलौने के रूप में अपने पुत्र को दे दी। इधर सत्राजित ने श्रीकृष्ण पर आरोप लगा दिया कि यह मणि उन्होंने चुराई है।

 

तब श्रीकृष्ण को यह मणि हासिल करने के लिए जाम्बवंतजी से युद्ध करना पड़ा। बाद में जाम्बवंत जब युद्ध में हारने लगे तब उन्होंने अपने प्रभु श्रीराम को पुकारा और उनकी पुकार सुनकर श्रीकृष्ण को अपने रामस्वरूप में आना पड़ा। तब जाम्बवंत ने समर्पण कर अपनी भूल स्वीकारी और उन्होंने मणि भी दी और श्रीकृष्ण से निवेदन किया कि आप मेरी पुत्री जाम्बवती से विवाह करें।

 

जाम्बवती-कृष्ण के संयोग से महाप्रतापी पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम साम्ब रखा गया। इस साम्ब के कारण ही कृष्ण कुल का नाश हो गया था। श्रीकृष्ण ने कहा कि कोई ब्रह्मचारी और संयमी व्यक्ति ही इस मणि को धरोहर के रूप में रखने का अधिकारी है अत: श्रीकृष्ण ने वह मणि अक्रूरजी को दे दी। उन्होंने कहा कि अक्रूर, इसे तुम ही अपने पास रखो। तुम जैसे पूर्ण संयमी के पास रहने में ही इस दिव्य मणि की शोभा है। श्रीकृष्ण की विनम्रता देखकर अक्रूर नतमस्तक हो उठे।

 

 छठा रहस्य,यहां युद्ध हुआ था श्रीकृष्ण से : - गुजरात के पोरबंदर से 17 किलोमीटर दूर राजकोट-पोरबंदर मार्ग पर एक गुफा पाई गई है जिसे जामवन्त की गुफा कहा जाता है। माना जाता है कि यह वही स्थान है जहां भगवान कृष्ण और जामवन्त के बीच युद्ध हुआ था। माना जाता है कि इस गुफा में दो सुरंग हैं। पहली सुरंग जानाघर जो जाती है और दूसरी द्वारिका के लिए।

 

 सातवां रहस्य,जामथुन नगरी : - माना जाता है कि जामथुन नामक नगरी जामवन्त ने बसाई थी। यह प्राचीन नगरी मध्यप्रदेश के रतलाम जिले में उत्तर-पूर्व में स्थित है। यहां एक गुफा मिली है जो जामवन्त का निवास स्थान माना जाता है।

 

बरेली की गुफा : - उत्तर प्रदेश के बरेली के पास जामगढ़ में भी एक प्राचीन गुफा है। माना जाता है कि जामवन्तजी यहां हजारों वर्ष रहे थे। बरेली से लगभग सोलह किलोमीटर दूर विंध्याचल की पहाड़ी पर पुराकाल से ही गणेश-जामवन्त की प्रतिमा स्थापित हैं, जिनके बारे में मान्यता है कि जामवन्तजी द्वारा स्थापित यह प्रतिमा प्रतिवर्ष एक तिल के बराबर बढ़ती जा रही है।

 

आठवां रहस्य : - जामवन्त तपोगुफा : जम्मू और कश्मीर के जम्मू नगर के पूर्वी छोर पर एक गुफा मंदिर बना हुआ है जिसे जामवन्त की तपोस्थली माना जाता है। इस गुफा में कई पीर-फकीरों और ऋषियों ने ज़्ह तपस्या की है इसलिए इसका नाम 'पीर खोह्' भी कहा जाता है। डोगरी भाषा में खोह् का अर्थ गुफा होता है।

 

पीर खोह् तक पहुंचने के लिए श्रद्धालु मुहल्ला पीर मिट्ठा के रास्ते गुफा तक जाते हैं। मंद‌िर की दीवारों पर देवी-देवताओं के मनमोहक चित्र उकेरे गए हैं। आंगन में श‌िव मंद‌िर के सामने पीर पूर्णनाथ और पीर स‌िंध‌िया की समाधिंया हैं। जामवन्त गुफा के साथ एक साधना कक्ष का निर्माण किया है जो तवी नदी के तट पर स्थित है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है।

अभिमन्यु

                          अभिमन्यु


अभिमन्यु अर्जुन का पुत्र था| श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा इनकी माता थी| यह बालक बड़ा होनहार था| अपने पिता के-से सारे गुण इसमें विद्यमान थे| स्वभाव का बड़ा क्रोधी था और डरना तो किसी से इसने जाना ही नहीं था| इसी निर्भयता और क्रोधी स्वभाव के कारण इसका नाम अभि (निर्भय) मन्यु (क्रोधी) 'अभिमन्यु' पड़ा था|


अर्जुन ने धनुर्वेद का सारा ज्ञान इसको दिया था| अन्य अस्त्र-शस्त्र चलाना भी इसने सीखा था| पराक्रम में यह किसी वीर से भी कम नहीं था| सोलह वर्ष की अवस्था में ही अच्छे-अच्छे सेनानियों को चुनौती देने की शक्ति और समार्थ्य इसमें थी| इसकी मुखाकृति और शरीर का डीलडौल भी असाधारण योद्धा का-सा था| वृषभ के समान ऊंचे और भरे हुए कंधे थे| उभरा वक्षस्थल था और आंखों में एक जोश था|


महाभारत का भीषण संग्राम छिड़ा हुआ था| पितामह धराशायी हो चुके थे| उनके पश्चात गुरु द्रोणाचार्य ने कौरवों का सेनापतित्व संभाला था| अर्जुन पूरे पराक्रम के साथ युद्ध कर रहा था| प्रचण्ड अग्नि के समान वह बाणों की वर्षा करके कौरव सेना को विचलित कर रहा था| द्रोणाचार्य कितना भी प्रयत्न करके अर्जुन के इस वेग को नहीं रोक पा रहे थे| कभी-कभी तो ऐसा लगता था, मानो पाण्डव कौरवों को कुछ ही क्षणों में परास्त कर डालेंगे| प्रात:काल युद्ध प्रारंभ हुआ| श्रीकृष्ण अपना पांचजन्य फूंकते, उसी क्षण अर्जुन के बाणों से कौरव सेना में हाहाकार मचने लगता| संध्या तक यही विनाश चलता रहता|


दुर्योधन ने इससे चिंतित होकर गुरु द्रोणाचार्य से कहा, "हे आचार्य ! यदि पांडवों की इस गति को नहीं रोका गया, तो कौरव-सेना किसी भी क्षण विचलित होकर युद्धभूमि से भाग खड़ी होगी| अत: कोई ऐसा उपाय करिए, जिससे पांडवों की इस बढ़ती शक्ति को रोका जाए और अर्जुन के सारे प्रयत्नों को निष्फल किया जाए|"


दुर्योधन को इस प्रकार चिंतित देखकर गुरु द्रोणाचार्य ने किसी प्रकार अर्जुन को युद्धभूमि से हटा देने का उपाय सोचा| दुर्योधन के कहने से संशप्तकों ने कुरुक्षेत्र से दूर अर्जुन को युद्ध के लिए चुनौती दी| अर्जुन उनसे लड़ने को चला गया| उसके पीछे से द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना की और युधिष्ठिर के पास संवाद भिजवाया कि या तो पांडव आकर कौरव-सेना के इस चक्रव्यूह को तोड़ें यह अपनी पराजय स्वीकार करें|


जब संवाद युधिष्ठिर के पास पहुंचा तो वे बड़ी चिंता में पड़ गए, क्योंकि अर्जुन के सिवा चक्रव्यूह को तोड़ना कोई पाण्डव नहीं जानता था| अर्जुन बहुत दूर संशप्तकों से युद्ध कर रहा था| चक्रव्यूह तोड़ने में अपने आपको असमर्थ देखकर पांडवों के शिविर में त्राहि-त्राहि मच उठी| युधिष्ठिर, भीम, धृष्टद्युम्न आदि कितने ही पराक्रमी योद्धा थे, जो बड़े-से-बड़े पराक्रमी कौरव सेनानी को चुनौती दे सकते थे, लेकिन चक्रव्यूह तोड़ने का कौशल, किसी को भी नहीं आता था| वह ऐसा व्यूह था, जिसमें पहले तो घुसना और उसको तोड़ना ही मुश्किल था और फिर सफलतापूर्वक उसमें से बाहर निकलना तो और भी दुष्कर कार्य था| कौरव सेना के सभी प्रमुख महारथी उस चक्रव्यूह के द्वारों की रक्षा कर रहे थे|


जब सभी किंकर्तव्यविमूढ़ के सभा में बैठे हुए थे और अर्जुन के बिना, सिवाय इसके कि वे अपनी पराजय स्वीकार कर लें, कोई दूसरा उपाय उनको नहीं सूझ पड़ रहा था, अभिमन्यु वहां आया और सभी को गहन चिंता में डूबा हुआ पाकर युधिष्ठिर से पूछने लगा कि चिंता का क्या कारण है| युधिष्ठिर ने सारी बात बता दी| उसे सुनकर वह वीर बालक अपूर्व साहस के साथ बोला, "आर्य ! आप इसके लिए चिंता न करें| दुष्ट कौरवों का यह षड्यंत्र किसी प्रकार भी सफल नहीं हो सकेगा| यदि अर्जुन नहीं हैं, तो उनका वीर पुत्र अभिमन्यु तो यहां है| आप दुर्योधन की चुनौती स्वीकार कर लीजिए| मैं चक्रव्यूह तोड़ने के लिए जाऊंगा|"


अभिमन्यु की बात सुनकर सभी को आश्चर्य होने लगा| एक साथ सबकी नीचे झुकी हुई गरदनें ऊपर उठ गईं| फिर भी युधिष्ठिर ने इसे अभिमन्यु की नादानी ही समझा| उन्होंने पूछा, "बेटा ! तुम्हारे पिता अर्जुन के सिवा इनमें से कोई भी चक्रव्यूह भेदना नहीं जानता, फिर तुम कैसे इसका भेदन कर सकते हो? हाय ! आज अर्जुन होता तो यह अपमान न सहना पड़ता| संध्या काल तक भी वह गाण्डीवधन्वा नहीं आ सकेगा और पांडवों की यह सेना, जिसको लेकर वह प्रचण्ड वीर अभी तक युद्ध करता रहा है, अपने अस्त्र डालकर कौरवों से पराजय स्वीकार कर लेगी, हाय ! हाय क्रूर विधाता !"


यह कहकर युधिष्ठिर अधीर हो उठे| उसी क्षण अभिमन्यु ने सिंह की तरह गरजकर कहा, "आर्य ! आप मुझे बालक न समझें| मेरे रहते पाण्डवों का गौरव कभी नहीं मिट सकता| मैं चक्रव्यूह को भेदना जानता हूं| पिता ने मुझे चक्रव्यूह के भीतर घुसने की क्रिया तो बतला दी थी, लेकिन उससे बाहर निकलना नहीं बताया था| आप किसी प्रकार चिंता न करें| मैं अपने पराक्रम पर विश्वास करके चक्रव्यूह को तोडूंगा और उससे बाहर भी निकल आऊंगा| आप चुनौती स्वीकार कर लीजिए और युद्ध के लिए मुझे आज्ञा देकर शंख बजा दीजिए| उस दुर्योधन को संदेश भिजवा दीजिए कि वीर धनंजय का पुत्र अभिमन्यु उनकी सारी चाल को निष्फल करने के लिए आ रहा है|"


कितनी ही बार अभिमन्यु ने इसके लिए हठ किया| परिस्थिति भी कुछ ऐसी थी| युधिष्ठिर ने उसको आज्ञा दे दी| अभिमन्यु अपना धनुष लेकर युद्धभूमि की ओर चल दिया| उसकी रक्षा के लिए भीमसेन, धृष्टद्युम्न और सात्यकि चले|


चक्रव्यूह के पास पहुंचकर अभिमन्यु ने बाणों की वर्षा करना आरंभ कर दिया और शीघ्र ही अपने पराक्रम से उसने पहले द्वार को तोड़ दिया और वह तीर की-सी गति से व्यूह के अंदर घुस गया, लेकिन भीमसेन, सात्यकि और धृष्टद्युम्न उसके पीछे व्यूह में नहीं घुस पाए| उन्होंने कितना ही पराक्रम दिखाया, लेकिन जयद्रथ ने उनको रोक लिया और वहीं से अभिमन्यु अकेला रह गया| अर्जुन का वह वीर पुत्र अद्भुत योद्धा था| व्यूह के द्वार पर उसे अनेक योद्धाओं से भीषण युद्ध करना पड़ा था, लेकिन उसका पराक्रम प्रचण्ड अग्नि के समान था| जो कोई उसके सामने आता था, या तो धराशायी हो जाता या विचलित होकर भाग जाता था| इस तरह व्यूह के प्रत्येक द्वार को वह तोड़ना चला जा रहा था| कौरवों के महारथियों ने उस वीर बालक को दबाने का कितना ही प्रयत्न किया, लेकिन वे किसी प्रकार भी उसे अपने वश में नहीं कर पाए| उसके तीक्ष्ण बाणों की मार से व्याकुल होकर दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य से कहा, "हे आचार्य ! अर्जुन का यह वीर बालक चारों ओर विचर रहा है और हम कितना भी प्रयत्न करके इसकी भीषण गति को नहीं रोक पाते हैं| एक के बाद एक सभी द्वारों को इसने तोड़ दिया है| यह तो अर्जुन के समान ही युद्ध-कुशल और पराक्रमी निकला| अब तो पांडवों को किसी प्रकार पराजित नहीं किया जा सकता|"


इसी प्रकार कर्ण ने भी घबराकर द्रोणाचार्य से कहा, " हे गुरुदेव ! इस पराक्रमी बालक की गति देखकर तो मुझको भी आश्चर्य हो रहा है| इसके तीक्ष्ण बाण मेरे हृदय को व्याकुल कर रहे हैं| यह ठीक अपने पिता अर्जुन के समान ही है| यदि किसी प्रकार इसको न रोका गया तो हमारी यह चाल व्यर्थ चली जाएगी| अत: किसी तरह से इसको चक्रव्यूह से जीवित नहीं निकलने देना चाहिए|"


द्रोणाचार्य अभिमन्यु की वीरता देखकर कुछ क्षणों के लिए चिंता में डूबे रहे| अर्जुन के उस वीर पुत्र के कर्ण, दू:शासन आदि महारथियों को पराजित कर दिया था और राक्षस अलंबुश को युद्धभूमि से खदेड़कर बृहद्बल को तो जान से मार डाला था| दुर्योधन के सामने ही उसके बेटे लक्ष्मण को भी उसने मार डाला था| बड़े-बड़े शूरवीर खड़े देखते रह गए और वह प्रचण्ड अग्नि की लपट की तरह सबको भस्म करता हुआ चक्रव्यूह को तोड़कर अंदर घुस गया|


जब कौरवों के सारे प्रयत्न निष्फल चले गए तो उन्होंने छल से काम लेने की बात सोची| अलग-अलग लड़कर कोई भी महारथी अभिमन्यु से नहीं जीत सकता था, इसलिए उन्होंने मिलकर उस पर आक्रमण करने का निश्चय किया| कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा बृहद्बल (शकुनि का चचेरा भाई), कृतवर्मा और दुर्योधन आदि छ: महारथियों ने उसे घेर लिया और उस पर भीषण आक्रमण कर दिया| कर्ण ने अपने बाणों से उस बालक का धनुष काट डाला| भोज ने उसके घोड़ों को मार डाला और कृपाचार्य ने उसके पाश्र्व रक्षकों के प्राण ले लिए| इस तरह अभिमन्यु पूरी तरह निहत्था हो गया, लेकिन फिर भी जो कुछ उसके हाथ में आया उससे ही वह शत्रुओं को विचलित करने लगा| थोड़ी ही देर में उसके हाथ में एक गदा आ गई| उससे उसने कितने ही योद्धाओं को मार गिराया| दु:शासन का बेटा उसके सामने आया| घोर संग्राम हुआ| अकेला अभिमन्यु छ: के सामने क्या करता| महारथियों ने अपने बाणों से उसके शरीर को छेद दिया| अब वह लड़ते-लड़ते थक गया था| इसी समय दु:शासन के बेटे ने आकर उसके सिर पर गदा प्रहार किया, जिससे अर्जुन का वह वीर पुत्र उसी क्षण पृथ्वी पर गिर पड़ा और सदा के लिए पृथ्वी से उठ गया| उसके मरते ही कौरवों के दल में हर्षध्वनि उठने लगी| दुर्योधन और उसके सभी साथी इस निहत्थे बालक की मृत्यु पर फूले नहीं समाए| किसी को भी उसकी अन्याय से की गई हत्या पर तनिक भी खेद और पश्चाताप नहीं था|


जब अभिमन्यु की मृत्यु का समाचार पाण्डव-दल में पहुंचा तो युधिष्ठिर शोक से व्याकुल हो उठे| अर्जुन की अनुपस्थिति में उन्होंने उसके लाल को युद्धभूमि में भेज दिया था, अब उनके आने पर वे उसको क्या उत्तर देंगे, इसका संताप उनके हृदय को व्याकुल कर रहा था| भीम भी अपने भतीजे की मृत्यु पर रोने लगा| वीर अभिमन्यु की मृत्यु से पांडवों के पूरे शिविर में हाहाकार मच गया|


संशप्तकों से युद्ध समाप्त करके जब अर्जुन वापस आया तो वह दुखपूर्ण समाचार सुनकर मूर्च्छित हो उठा और अभिमन्यु के लिए आर्त्त स्वर से रुदन करने लगा| श्रीकृष्ण ने उसे काफी धैर्य बंधाया, लेकिन अर्जुन का संताप किसी प्रकार भी दूर नहीं हुआ| प्रतिशोध की आग उसके अंतर में धधकने लगी और जब तक जयद्रथ को मारकर उसने अपने बेटे के खून का बदला न ले लिया, तब तक उसको संतोष नहीं आया|


श्रीकृष्ण को भी अभिमन्यु की मृत्यु पर कम दुख नहीं हुआ था, लेकिन वे तो योगी थी, बालकों की तरह रोना उन्हें नहीं आता था| प्रतिशोध की आग उनके अंदर भी जल रही थी| उन्होंने स्पष्ट कहा था कि अपने भांजे अभिमन्यु की मृत्यु का बदला लिए बिना वह नहीं मानेंगे|


अभिमन्यु की स्त्री का नाम उत्तरा था| वह मत्स्य-नरेश विराट की पुत्री थी| अज्ञातवास के समय अर्जुन विराट के यहां उत्तरा को नाचने-गाने की शिक्षा देते थे| बाद में विराट को सारा हाल मालूम हो गया था, इसलिए लोकापवाद के डर से वे अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन के सिवा किसी अन्य पुरुष के साथ नहीं करना चाहते थे| अर्जुन के स्वीकार न करने पर विराट ने उत्तरा का विवाह उसी के पुत्र अभिमन्यु के साथ कर दिया| इन दोनों का विवाह बाल्यावस्था में ही हो गया था| उस युग में बाल-विवाह की प्रथा तो इतनी प्रचलित नहीं थी, लेकिन विवाह के पीछे राजनीतिक कारण निहित था| पांडवों को इसके पश्चात मत्स्य-नरेश से हर प्रकार की सहायता मिल सकती थी|


अपने पति की मृत्यु पर उत्तरा शोक से पागल हो उठी थी| श्रीकृष्ण ने उसे कितना ही समझाया था, लकिन फिर भी कितने ही दिनों तक उसका रुदन एक क्षण को भी नहीं रुका था| वह उस समय गर्भवती थी| आततायी अश्त्थामा ने पांडवों के वंश को समूल नष्ट कर देने के लिए इस गर्भस्थ बालक पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया था, लेकिन श्रीकृष्ण ने उसे रोक लिया था और इस प्रकार श्रीकृष्ण ने ही पांडवों के कुल की रक्षा की| निश्चित अवधि के पश्चात उत्तरा के गर्भ से बालक का जन्म हुआ| चूंकि सभी कुछ क्षय हो जाने के पश्चात इस बालक का जन्म हुआ था, इसलिए इसका नाम परीक्षित रखा गया। यही पांडवों की वंश-परंपरा को आगे बढ़ाने वाला हुआ।

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

श्रीलड्डूगोपाल की पूजा की सरल विधि

 श्रीलड्डूगोपाल की पूजा की सरल विधि!!!!!!!!



‘योगी जिन्हें ‘आनन्द’ कहते हैं, ऋषि-मुनि ‘परमात्मा’ कहते हैं, संत ‘भगवान’ कहते हैं, उपनिषद् ‘ब्रह्म’ कहते हैं, वैष्णव ‘श्रीकृष्ण’ कहते हैं और माताएं व बहनें प्यार से ‘गोपाल’, ‘लाला’ ‘बालकृष्ण’ या ‘श्रीलड्डूगोपाल’ कहती हैं, वह एक ही तत्त्व है । ये सब अनेक नाम एक ही परब्रह्म के हैं।’


ब्रजमण्डल ही नहीं देश-विदेश के अधिकांश वैष्णवों के घर में भगवान श्रीकृष्ण का बालस्वरूप ‘श्रीलड्डूगोपाल’ या ‘गोपालजी’ के रूप में विराजमान है । स्त्रियां इनकी सेवा-लाड़-मनुहार गोपी या यशोदा के भाव से करती हैं, तो कई लोग श्रीलड्डूगोपाल की सेवा स्वामी, सखा, पुत्र या भाई के भाव से करते हैं ।


भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है—‘जो मेरी जिस रूप में आराधना या उपासना करता है, मैं भी उसे उसी रूप में उसी भाव से प्राप्त होता हूँ और उसे संतुष्ट कर देता हूँ।‘


भक्ति करने का अर्थ है भगवान की मूर्ति में, भगवान के मंत्र में मन को पिरो देना । भगवान के बालस्वरूप को घर में प्रतिष्ठित कर देने के बाद उन्हें घर का स्वामी मानते हुए घर का प्रत्येक काम उन्हीं की प्रसन्नता के लिए करना भक्ति है ।


मीराबाई के लिए कहा जाता है कि वह अपने गोपाल का सुन्दर श्रृंगार करतीं और उनके सम्मुख कीर्तन व नृत्य करती थीं । भगवान को श्रृंगार की जरुरत नहीं है । श्रृंगार से भगवान की शोभा नहीं बढ़ती वरन् आभूषणों की शोभा भगवान के पहनने से बढ़ती है । साधक जितने समय तक भगवान का श्रृंगार करता है उसकी आंखें व मन भगवान पर ही टिकी रहती हैं जिससे उसका मन शुद्ध होता है और भगवान से प्रेम बढ़ता है । बालकृष्ण के स्वरूप के श्रृंगार में आंखें फंस जाएं तो मनुष्य की नैया पार हो जाती है ।


विदुरजी और विदुरानी प्रतिदिन बालकृष्ण का तीन घंटे तक ध्यान फिर पुष्पों से श्रृंगार करते थे । वे विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करते हुए भगवान के श्रीचरणों में तुलसी अर्पित करते थे । कीर्तन से बालकृष्ण को प्रसन्न करके भगवान की कथा भगवान को ही सुनाते थे । बालकृष्ण का दर्शन करते हुए उनकी आंखों में आंसू बहने लगते व शरीर में रोमांच होने लगता था । इस प्रकार सेवा, ध्यान, जप, कीर्तन, कथा आदि में निमग्न रहकर वे मन को भगवान से दूर जाने ही नहीं देते थे । विदुर-विदुरानी की भक्ति से आकर्षित होकर द्वारिकानाथ उनके घर खिंचे चले आए व उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिए ।

श्रीलड्डूगोपाल की पूजा की सरल विधि

प्रभु सेवा को खरच न लागे ।

अपनों जन्म सुफल कर मूरख क्यों डरपे जो अभागे ।।

उदर भरन को करी रसोइ सोइ भोग धरे ।

महाप्रसाद होय घटे न किनको अपनो उदर भरे ।।

मीठो जल पीवन को लावे तामें झारी भरे ।

अंग ढांकनकूं चहिये कपड़ा तामें साज करे ।।

जो मन होय उदार तुमारो वैभव कछु बढ़ावो ।

नहिं तो मोरचंद्रिका गुंजा यह सिंगार धरावो ।।

अत्तर फूल फल जो कछु उत्तम प्रभु पहिलेहि धरावो ।

जो मन चले वस्तु उत्तम पे प्रभु को धर सब खावो ।।

कर सम्बन्ध स्वामी सेवक को चल मारग की रीति ।

पूरन प्रभु भाव के भूखे देखें अंतर की प्रीति ।।

यामें कहा घट जाय तिहारो घर की घर में रहिहे ।

वल्लभदास होय गति अपनी भलो भलो जग कहिहे।।


इस पद में यह बताया गया है कि ठाकुरजी (व्रज में श्रीलड्डूगोपाल को ठाकुरजी कहते हैं) की सेवा में कोई अलग से खर्च नहीं होता है । वे अभागे हैं जो खर्चे के डर से उनकी पूजा नहीं करते और अपना जन्म सफल करने से वंचित रह जाते हैं । घर के सदस्यों के लिए जो भोजन बने उसी से पहिले ठाकुरजी को भोग लगा दो, वह महाप्रसाद बन जाएगा किन्तु उसमें से एक किनका भी कम नहीं होगा । घर में अपने पीने के लिए जो जल है, उसी से ठाकुरजी के पीने के लिए झारी भर दो । 


अपने शरीर को ढकने के लिए आप वस्त्र लाते हैं, उसी से उनका पीताम्बर बना दो । यदि श्रद्धा और सामर्थ्य हो तो कुछ वैभव (सोना-चांदी के श्रृंगार) की वस्तुएं उनके लिए ले आओ, नहीं तो केवल मोरमुकुट और गुंजामाला से भी ठाकुरजी प्रसन्न हो जाते हैं । इत्र, फल-फूल घर में हों तो पहिले ठाकुरजी को अर्पण कर दो । अगर तुम्हारा मन कुछ अच्छा खाने को करे तो पहिले ठाकुरजी को अर्पण करके खाओ । ठाकुरजी के साथ स्वामी का सम्बन्ध रखते हुए उन्हीं के बताए मार्ग पर चलें । वे तो केवल भाव के भूखे हैं और साधक के मन के भाव ही देखते हैं । इस तरह ठाकुरजी की सेवा करने से कुछ घटता भी नहीं, सब कुछ घर का घर में ही रहता है और मनुष्य का लोक-परलोक दोनों सुधर जाते हैं ।


श्रीलड्डूगोपाल को प्रसन्न करने के विशेष उपाय!!!!!!


बालरूप श्रीलड्डूगोपाल से जैसा प्रेम आप करेंगें, उससे हजारगुना प्रेम वह आपके साथ करेंगे । जो श्रीलड्डूगोपाल की सेवा-ध्यान में तन्मय रहता है उसके ऊपर संसार के सुख-दु:ख का प्रभाव नहीं पड़ता है । उसके अनेक जन्मों के पाप एक ही जन्म में जल जाते हैं और दारिद्रय दूर होकर घर में स्थिर लक्ष्मी का वास होता है क्योंकि श्रीलड्डूगोपाल का एक नाम है—‘भक्तदारिद्रयदमनो’ । श्रीलड्डूगोपाल को प्रसन्न करने के लिए उनकी सेवा इस प्रकार कर—


—शंख में जल भरकर ‘ॐ नमो नारायणाय’ या ‘गोपीजनवल्लभाय नम:’ या ‘श्रीकृष्णाय नम:’ का उच्चारण करते हुए बालकृष्ण को नहलाना चाहिए । इससे मनुष्य के सारे पाप दूर हो जाते हैं।


—संभव हो तो प्रतिदिन अन्यथा द्वादशी और पूर्णिमा को श्रीलड्डूगोपाल को गाय के दूध से स्नान कराकर चंदन अर्पित करना चाहिए।


—स्कन्दपुराण के अनुसार प्रतिदिन प्रात:काल में जो श्रीलड्डूगोपाल को माखन-मिश्री, दूध-दही व तुलसी की मंजरियां, चंदन का इत्र व कमल का पुष्प अर्पण कर प्रसन्न करता है, वह इस लोक में समस्त वैभव प्राप्त करके मृत्यु के बाद उनके परम धाम को प्राप्त करता है।


—भगवान बालकृष्ण को श्यामा तुलसी की श्याम मंजरी अति प्रिय है।


—श्रीलड्डूगोपाल की सेवा करने वाले वैष्णव को गले में तुलसी की कण्ठी पहननी चाहिए । गले में तुलसी माला धारण करने का अर्थ है कि यह शरीर कृष्णार्पण कर दिया है, यह शरीर अब परमात्मा का हुआ ।


—श्रीलड्डूगोपाल को माखन-मिश्री अत्यन्त प्रिय है । माखन दूध का सारतत्त्व है । बालकृष्ण की सेवा करने वाले वैष्णव सार-भोगी बनते हैं।


—भगवान को अर्पित भोग की वस्तु में तुलसी रखते हैं, तब वह वस्तु कृष्णार्पण होती है । जिस घर में भगवान को भोग लगाया जाता है उस घर में लक्ष्मीजी और अन्नपूर्णा अखण्डरूप से विराजमान रहती हैं । उस पवित्र अन्न को खाने से मनुष्य की बुद्धि सात्विक रहती है और शरीर में रोग उत्पन्न नहीं होते हैं ।

 

—श्रीलड्डूगोपाल का प्रिय मन्त्र दामोदर-मन्त्र है—‘श्रीदामोदराय नम:’ । इस मन्त्र को दामोदरमास (कार्तिक मास) में करने से भगवान बालगोपाल शीघ्र ही प्रसन्न होकर सिद्धि प्रदान करते हैं । भगवान का कथन है कि अपने दामोदर नाम से मुझे ऐसी प्रसन्नता होती है जिसकी कहीं तुलना नहीं है ।


—श्रीलड्डूगोपाल की पूजा करने वाले वैष्णवों को प्रतिदिन गोपालसहस्त्रनाम का पाठ करना चाहिए । इसके अतिरिक्त श्रीमद्भागवतपुराण के दशम स्कन्ध का प्रतिदिन पाठ (चाहे एक श्लोक का ही क्यों न हो) और गीता का पाठ भी बालकृष्ण को बहुत प्रिय है ।


—श्रीलड्डूगोपाल की प्रतिदिन प्रदक्षिणा व साष्टांग प्रणाम करने से भी उनकी कृपा शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है ।


—श्रीगोपालजी के सहस्त्रों नामों में से कुछ नाम हैं–’नित्योत्सवो नित्यसौख्यो, नित्यश्रीर्नित्यमंगल:।’ (श्रीगोपालसहस्त्रनाम)


अर्थात् वे नित्य उत्सवमय, सदा सुखसौख्यमय, शोभामय और मंगलमय हैं । श्रीकृष्ण के लिए माता यशोदा नित्य ही उत्सव मनाती थीं । बालकृष्ण ने जब पहली बार करवट ली तो उस दिन माता ने कटि-परिवर्तन उत्सव मनाया था और गरीब ग्वालों और गोपियों की पूजाकर उन्हें दान दिया था । इसी कारण व्रजमण्डल में भगवान श्रीकृष्ण के नित्य कोई-न-कोई उत्सव होते रहते हैं ।


घर में ठाकुरजी को प्रतिष्ठित करने के बाद जब भी संभव हो, उनकी प्रसन्नता के लिए उत्सव किए जाने चाहिए । उत्सव भगवान को स्मरण करने और जगत को भुलाने के लिए हैं । उत्सव के दिन भूख-प्यास भुलाई जाती है, देह का बोध भुलाया जाता है । उत्सव में धन गौण है, मन मुख्य है । विभिन्न उत्सवों पर भगवान को ऋतु अनुकूल सुन्दर पोशाक व श्रृंगार धारण कराकर दर्पण दिखाना चाहिए क्योंकि बालकृष्ण अपने रूप पर ही मोहित होकर रीझ जाते हैं । बच्चे की भांति उन्हें सुन्दर खिलौने—गाय, मोर, हंस, बतख, झुनझना, फिरकनी, गेंद-बल्ला, झूला आदि सजाकर प्रसन्न करना चाहिए ।


—श्रीलड्डूगोपाल को प्रतिदिन कोमल नर्म बिस्तर पर शयन करानी चाहिए ।


प्रेम-बंधन से ही बंधते हैं भगवान!!!!!!!!


यदि वैष्णव भगवान की अपेक्षा जगत से अधिक प्रेम करता है तो यह बात ठाकुरजी को नहीं सुहाती । वे सोचते हैं प्रेम करने योग्य मैं हूँ, यह मुझे क्यों नहीं भजता ? मनुष्य जब भगवान का नाम-जप-सेवा-अर्चना करता है, तो उन्हें उसके योगक्षेम की चिन्ता होती है । ‘मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं’—ऐसा भाव रखकर जो बालगोपाल की सेवा करते हैं तथा भगवान के सिवाय किसी और वस्तु की कामना नहीं करते हैं, उन्हें भगवान अपने स्वरूप का दर्शन कराकर अपने धाम में भेज देते हैं।




गुरुवार, 18 अगस्त 2022

गोपाल स्तुति

।।गोपाल स्तुति ।। 


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नमो विश्वस्वरूपाय विश्वस्थित्यन्तहेतवे।
विश्वेश्वराय विश्वाय गोविन्दाय नमो नमः॥१॥
 
नमो विज्ञानरूपाय परमानन्दरूपिणे।
कृष्णाय गोपीनाथाय गोविन्दाय नमो नमः॥२
 
नमः कमलनेत्राय नमः कमलमालिने।
नमः कमलनाभाय कमलापतये नमः॥३॥
 
बर्हापीडाभिरामाय रामायाकुण्ठमेधसे।
रमामानसहंसाय गोविन्दाय नमो नमः॥४॥
 
कंसवशविनाशाय केशिचाणूरघातिने।
कालिन्दीकूललीलाय लोलकुण्डलधारिणे॥५

वृषभध्वज-वन्द्याय पार्थसारथये नमः।
वेणुवादनशीलाय गोपालायाहिमर्दिने॥६॥
 
बल्लवीवदनाम्भोजमालिने नृत्यशालिने।
नमः प्रणतपालाय श्रीकृष्णाय नमो नमः॥७
 
नमः पापप्रणाशाय गोवर्धनधराय च।
पूतनाजीवितान्ताय तृणावर्तासुहारिणे॥८
 
निष्कलाय विमोहाय शुद्धायाशुद्धवैरिणे।
अद्वितीयाय महते श्रीकृष्णाय नमो नमः॥९॥
 
प्रसीद परमानन्द प्रसीद परमेश्वर।
आधि-व्याधि-भुजंगेन दष्ट मामुद्धर प्रभो॥१०
 
श्रीकृष्ण रुक्मिणीकान्त गोपीजनमनोहर।
संसारसागरे मग्नं मामुद्धर जगद्गुरो॥११॥
 
केशव क्लेशहरण नारायण जनार्दन।
गोविन्द परमानन्द मां समुद्धर माधव॥१२॥
 
॥ इत्याथर्वणे गोपालतापिन्युपनिषदन्तर्गता गोपालस्तुति समाप्त ॥


बुधवार, 17 अगस्त 2022

अथ श्री रुद्रकवचम्

 ॥ अथ श्री रुद्रकवचम् ॥



मनुष्य के बुरे कर्मों का फल रुद्र, यम, वरुण और नैऋति के माध्यम से मिलता है यदि जीवन में कष्ट अधिक हो तो महादेव से उदार / आशुतोष कौन हो सकता है? अतः इनका आश्रय परम् कल्याणकारक है। इसी श्रृंखला में "श्रीरूद्रकवच" प्रकाशित कर रहे हैं। 


विधिवत शिवलिंग पूजन करके रविवार या सोमवार या त्रयोदशी से आरम्भ करके नित्य 31 पाठ करते हुए 41 दिन में 1200 पाठ पूरे करें। किसी भी तरह के कष्ट में शांति अवश्य प्राप्त होगी। आगे इनके 11000 तक पाठ पूरा करनें का प्रयत्न करें, सब दुख दूर होंगे ; बशर्ते आप सदाचार का कड़ाई से पालन करें। प्याज, लहसुन, मछली, मद्य, मांस, अंडा, तम्बाकू सेवन पूर्णतः निषिद्ध है।


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ॐ अस्य श्री रुद्र कवच स्तोत्र महा मंत्रस्य

दूर्वासऋषिः अनुष्ठुप् छंदः त्र्यंबक रुद्रो देवता

ह्राम् बीजम् श्रीम् शक्तिः ह्रीम् कीलकम्

मम मनसोभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः

ह्रामित्यादिषड्बीजैः षडंगन्यासः ॥


          ॥ ध्यानम् ॥


शांतम् पद्मासनस्थम् शशिधरमकुटम्

पंचवक्त्रम् त्रिनेत्रम् शूलम् वज्रंच खड्गम्

परशुमभयदम् दक्षभागे महन्तम् ।

नागम् पाशम् च घंटाम् प्रळय हुतवहम्

सांकुशम् वामभागे नानालंकारयुक्तम्

स्फटिकमणिनिभम् पार्वतीशम् नमामि ॥


          ॥ दूर्वास उवाच ॥


प्रणम्य शिरसा देवम् स्वयंभु परमेश्वरम् ।

एकम् सर्वगतम् देवम् सर्वदेवमयम् विभुम् ।

रुद्र वर्म प्रवक्ष्यामि अंग प्राणस्य रक्षये ।

अहोरात्रमयम् देवम् रक्षार्थम् निर्मितम् पुरा ॥


रुद्रो मे जाग्रतः पातु पातु पार्श्वौहरस्तथा ।

शिरोमे ईश्वरः पातु ललाटम् नीललोहितः ।

नेत्रयोस्त्र्यंबकः पातु मुखम् पातु महेश्वरः ।

कर्णयोः पातु मे शंभुः नासिकायाम् सदाशिवः ।

वागीशः पातु मे जिह्वाम् ओष्ठौ पात्वंबिकापतिः ।

श्रीकण्ठः पातु मे ग्रीवाम् बाहो चैव पिनाकधृत् ।

हृदयम् मे महादेवः ईश्वरोव्यात् स्सनान्तरम् ।

नाभिम् कटिम् च वक्षश्च पातु सर्वम् उमापतिः ।

बाहुमध्यान्तरम् चैव सूक्ष्म रूपस्सदाशिवः ।

स्वरंरक्षतु मेश्वरो गात्राणि च यथा क्रमम्

वज्रम् च शक्तिदम् चैव पाशांकुशधरम् तथा ।

गण्डशूलधरान्नित्यम् रक्षतु त्रिदशेश्वरः ।

प्रस्तानेषु पदे चैव वृक्षमूले नदीतटे

संध्यायाम् राजभवने विरूपाक्षस्तु पातु माम् ।

शीतोष्णा दथकालेषु तुहिनद्रुमकंटके ।

निर्मनुष्ये समे मार्गे पाहि माम् वृषभध्वज ।

इत्येतद्द्रुद्रकवचम् पवित्रम् पापनाशनम् ।

महादेव प्रसादेन दूर्वास मुनिकल्पितम् ।

ममाख्यातम् समासेन नभयम् तेनविद्यते ।

प्राप्नोति परम आरोग्यम् पुण्यमायुष्यवर्धनम्

विद्यार्थी लभते विद्याम् धनार्थी लभते धनम् ।

कन्यार्थी लभते कन्याम् नभय विन्दते क्वचित् ।

अपुत्रो लभते पुत्रम् मोक्षार्थी मोक्ष माप्नुयात् ।

त्राहि त्राहि महादेव त्राहि त्राहि त्रयीमय ।

त्राहिमाम् पार्वतीनाथ त्राहिमाम् त्रिपुरंतक

पाशम् खट्वांग दिव्यास्त्रम् त्रिशूलम् रुद्रमेवच ।

नमस्करोमि देवेश त्राहिमाम् जगदीश्वर ।

शत्रु मध्ये सभामध्ये ग्राममध्ये गृहान्तरे ।

गमनेगमने चैव त्राहिमाम् भक्तवत्सल ।

त्वम् चित्वमादितश्चैव त्वम् बुद्धिस्त्वम् परायणम् ।

कर्मणामनसा चैव त्वंबुद्धिश्च यथा सदा ।

सर्व ज्वर भयम् छिन्दि सर्व शत्रून्निवक्त्याय ।

सर्व व्याधिनिवारणम् रुद्रलोकम् सगच्छति

रुद्रलोकम् सगच्छत्योन्नमः ॥


॥ इति स्कंदपुराणे दूर्वास प्रोक्तम् रुद्रकवचम् सम्पूर्णम् ॥

मंगलवार, 16 अगस्त 2022

हल षष्ठी विशेष

 हल चंदन षष्ठी 16 अगस्त मंगलवार विशेष

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व्रत महात्म्य विधि और कथा

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भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी बलराम जन्मोत्सव के रूप में देशभर में मनायी जाती है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार मान्यता है कि इस दिन भगवान शेषनाग ने द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई के रुप में अवतरित हुए थे। इस पर्व को हलषष्ठी एवं हरछठ के नाम से भी जाना जाता है। जैसा कि मान्यता है कि बलराम जी का मुख्य शस्त्र हल और मूसल हैं जिस कारण इन्हें हलधर कहा जाता है इन्हीं के नाम पर इस पर्व को हलषष्ठी के भी कहा जाता है। इस दिन बिना हल चले धरती से पैदा होने वाले अन्न, शाक भाजी आदि खाने का विशेष महत्व माना जाता है। गाय के दूध व दही के सेवन को भी इस दिन वर्जित माना जाता है। साथ ही संतान प्राप्ति के लिये विवाहिताएं व्रत भी रखती हैं। 


हिन्दू धर्म के अनुसार इस व्रत को करने वाले सभी लोगों की मनोकामनाएं पूरी होती है. मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण और राम भगवान विष्णु जी का स्वरूप है, और बलराम और लक्ष्मण शेषनाग का स्वरूप है. पौराणिक कथाओं के संदर्भ अनुसार एक बार भगवान विष्णु से शेष नाग नाराज हो गए और कहा की भगवान में आपके चरणों में रहता हूं, मुझे थोड़ा सा भी विश्राम नहीं मिलता. आप कुछ ऐसा करो के मुझे भी विश्राम मिले. तब भगवान विष्णु ने शेषनाग को वरदान दिया की आप द्वापर में मेरे बड़े भाई के रूप में जन्म लोगे, तब मैं आपसे छोटा रहूंगा।


हिन्दू धर्म के अनुसार मान्यता है कि त्रेता युग में भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण शेषनाग का अवतार थे, इसी प्रकार द्वापर में जब भगवान विष्णु पृथ्वी पर श्री कृष्ण अवतार में आए तो शेषनाग भी यहां उनके बड़े भाई के रूप में अवतरित हुए. शेषनाग कभी भी भगवान विष्णु के बिना नहीं रहते हैं, इसलिए वह प्रभु के हर अवतार के साथ स्वयं भी आते हैं. बलराम जयंती के दिन सौभाग्यवती स्त्रियां बलशाली पुत्र की कामना से व्रत रखती हैं, साथ ही भगवान बलराम से यह प्रार्थना की जाती है कि वो उन्हें अपने जैसा तेजस्वी पुत्र प्राप्त करें।


शक्ति के प्रतीक बलराम भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई थे, इन्हें आज्ञाकारी पुत्र, आदर्श भाई और एक आदर्श पति भी माना जाता है। श्री कृष्ण की लीलाएं इतनी महान हैं कि बलराम की ओर ध्यान बहुत कम जाता है। लेकिन श्री कृष्ण भी इन्हें बहुत मानते थे। इनका जन्म की कथा भी काफी रोमांचक है। मान्यता है कि ये मां देवकी के सातवें गर्भ थे, चूंकि देवकी की हर संतान पर कंस की कड़ी नजर थी इसलिये इनका बचना बहुत ही मुश्किल था ऐसें में देवकी के सातवें गर्भ गिरने की खबर फैल गई लेकिन असल में देवकी और वासुदेव के तप से देवकी का यह सत्व गर्भ वासुदेव की पहली पत्नी के गर्भ में प्रत्यापित हो चुका था। लेकिन उनके लिये संकट यह था कि पति तो कैद में हैं फिर ये गर्भवती कैसे हुई लोग तो सवाल पूछेंगें लोक निंदा से बचने के लिये जन्म के तुरंत बाद ही बलराम को नंद बाबा के यहां पालने के लिये भेज दिया गया था।

 

बलराम जी का विवाह 

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यह मान्यता है कि भगवान विष्णु ने जब-जब अवतार लिया उनके साथ शेषनाग ने भी अवतार लेकर उनकी सेवा की। इस तरह बलराम को भी शेषनाग का अवतार माना जाता है। लेकिन बलराम के विवाह का शेषनाग से क्या नाता है यह भी आपको बताते हैं। दरअसल गर्ग संहिता के अनुसार एक इनकी पत्नी रेवती की एक कहानी मिलती है जिसके अनुसार पूर्व जन्म में रेवती पृथ्वी के राजा मनु की पुत्री थी जिनका नाम था ज्योतिष्मती। एक दिन मनु ने अपनी बेटी से वर के बारे में पूछा कि उसे कैसा वर चाहिये इस पर ज्योतिष्मती बोली जो पूरी पृथ्वी पर सबसे शक्तिशाली हो। अब मनु ने बेटी की इच्छा इंद्र के सामने प्रकट करते हुए पूछा कि सबसे शक्तिशाली कौन है तो इंद्र का जवाब था कि वायु ही सबसे ताकतवर हो सकते हैं लेकिन वायु ने अपने को कमजोर बताते हुए पर्वत को खुद से बलशाली बताया फिर वे पर्वत के पास पंहुचे तो पर्वत ने पृथ्वी का नाम लिया और धरती से फिर बात शेषनाग तक पंहुची। फिर शेषनाग को पति के रुप में पाने के लिये ज्योतिष्मती ब्रह्मा जी के तप में लीन हो गईं। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने द्वापर में बलराम से शादी होने का वर दिया। द्वापर में ज्योतिष्मती ने राजा कुशस्थली के राजा (जिनका राज पाताल लोक में चलता था) कुडुम्बी के यहां जन्म लिया। बेटी के बड़ा होने पर कुडुम्बी ने ब्रह्मा जी से वर के लिये पूछा तो ब्रह्मा जी ने पूर्व जन्म का स्मरण कराया तब बलराम और रेवती का विवाह तय हुआ। लेकिन एक दिक्कत अब भी थी वह यह कि पाताल लोक की होने के कारण रेवती कद-काठी में बहुत लंबी-चौड़ी दिखती थी पृथ्वी लोक के सामान्य मनुष्यों के सामने तो वह दानव नजर आती। लेकिन हलधर ने अपने हल से रेवती के आकार को सामान्य कर दिया। जिसके बाद उन्होंनें सुख-पूर्वक जीवन व्यतीत किया।

 

बलराम और रेवती के दो पुत्र हुए जिनके नाम निश्त्थ और उल्मुक थे। एक पुत्री ने भी इनके यहां जन्म लिया जिसका नाम वत्सला रखा गया। माना जाता है कि श्राप के कारण दोनों भाई आपस में लड़कर ही मर गये। वत्सला का विवाह दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण के साथ तय हुआ था, लेकिन वत्सला अभिमन्यु से विवाह करना चाहती थी। तब घटोत्कच ने अपनी माया से वत्सला का विवाह अभिमन्यु से करवाया था।

 

बलराम जी के हल की कथा

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बलराम के हल के प्रयोग के संबंध में किवदंती के आधार पर दो कथाएं मिलती है। कहते हैं कि एक बार कौरव और बलराम के बीच किसी प्रकार का कोई खेल हुआ। इस खेल में बलरामजी जीत गए थे लेकिन कौरव यह मानने को ही नहीं तैयार थे। ऐसे में क्रोधित होकर बलरामजी ने अपने हल से हस्तिनापुर की संपूर्ण भूमि को खींचकर गंगा में डुबोने का प्रयास किया। तभी आकाशवाणी हुई की बलराम ही विजेता है। सभी ने सुना और इसे माना। इससे संतुष्ट होकर बलरामजी ने अपना हल रख दिया। तभी से वे हलधर के रूप में प्रसिद्ध हुए।


एक दूसरी कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी जाम्बवती का पुत्र साम्ब का दिल दुर्योधन और भानुमती की पुत्री लक्ष्मणा पर आ गया था और वे दोनों प्रेम करने लगे थे। दुर्योधन के पुत्र का नाम लक्ष्मण था और पुत्री का नाम लक्ष्मणा था। दुर्योधन अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के पुत्र से नहीं करना चाहता था। इसलिए एक दिन साम्ब ने लक्ष्मणा से गंधर्व विवाह कर लिया और लक्ष्मणा को अपने रथ में बैठाकर द्वारिका ले जाने लगा। जब यह बात कौरवों को पता चली तो कौरव अपनी पूरी सेना लेकर साम्ब से युद्ध करने आ पहुंचे।


कौरवों ने साम्ब को बंदी बना लिया। इसके बाद जब श्रीकृष्ण और बलराम को पता चला, तब बलराम हस्तिनापुर पहुंच गए। बलराम ने कौरवों से निवेदनपूर्वक कहा कि साम्ब को मुक्तकर उसे लक्ष्मणा के साथ विदा कर दें, लेकिन कौरवों ने बलराम की बात नहीं मानी।


ऐसे में बलराम का क्रोध जाग्रत हो गया। तब बलराम ने अपना रौद्र रूप प्रकट कर दिया। वे अपने हल से ही हस्तिनापुर की संपूर्ण धरती को खींचकर गंगा में डुबोने चल पड़े। यह देखकर कौरव भयभीत हो गए। संपूर्ण हस्तिनापुर में हाहाकार मच गया। सभी ने बलराम से माफी मांगी और तब साम्ब को लक्ष्मणा के साथ विदा कर दिया। बाद में द्वारिका में साम्ब और लक्ष्मणा का वैदिक रीति से विवाह संपन्न हुआ।


बलदेव (हल चंदन छठ) पूजा विधि

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कथा करने से पूर्व प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त हो जाएं।


पश्चात स्वच्छ वस्त्र धारण कर गोबर लाएं।


इस तालाब में झरबेरी, ताश तथा पलाश की एक-एक शाखा बांधकर बनाई गई 'हरछठ' को गाड़ दें।


तपश्चात इसकी पूजा करें।


पूजा में सतनाजा (चना, जौ, गेहूं, धान, अरहर, मक्का तथा मूंग) चढ़ाने के बाद धूल, हरी कजरियां, होली की राख, होली पर भूने हुए चने के होरहा तथा जौ की बालें चढ़ाएं।


हरछठ के समीप ही कोई आभूषण तथा हल्दी से रंगा कपड़ा भी रखें। बलदेव जी को नीला तथा कृष्ण जी को पीला वस्त्र पहनाये।


पूजन करने के बाद भैंस के दूध से बने मक्खन द्वारा हवन करें।


पश्चात कथा कहें अथवा सुनें।


ध्यान रखें कि इस दिन व्रती हल से जुते हुए अनाज और सब्जियों को न खाएं और गाय के दूध का सेवन भी न करें, इस दिन तिन्नी का चावल खाकर व्रत रखें


पूजा हो जाने के बाद गरीब बच्चों में पीली मिठाई बांटे.


हलषष्ठी की व्रतकथा निम्नानुसार है

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प्राचीन काल में एक ग्वालिन थी। उसका प्रसवकाल अत्यंत निकट था। एक ओर वह प्रसव से व्याकुल थी तो दूसरी ओर उसका मन गौ-रस (दूध-दही) बेचने में लगा हुआ था। उसने सोचा कि यदि प्रसव हो गया तो गौ-रस यूं ही पड़ा रह जाएगा। 


यह सोचकर उसने दूध-दही के घड़े सिर पर रखे और बेचने के लिए चल दी किन्तु कुछ दूर पहुंचने पर उसे असहनीय प्रसव पीड़ा हुई। वह एक झरबेरी की ओट में चली गई और वहां एक बच्चे को जन्म दिया।


वह बच्चे को वहीं छोड़कर पास के गांवों में दूध-दही बेचने चली गई। संयोग से उस दिन हल षष्ठी थी। गाय-भैंस के मिश्रित दूध को केवल भैंस का दूध बताकर उसने सीधे-सादे गांव वालों में बेच दिया।


उधर जिस झरबेरी के नीचे उसने बच्चे को छोड़ा था, उसके समीप ही खेत में एक किसान हल जोत रहा था। अचानक उसके बैल भड़क उठे और हल का फल शरीर में घुसने से वह बालक मर गया।


इस घटना से किसान बहुत दुखी हुआ, फिर भी उसने हिम्मत और धैर्य से काम लिया। उसने झरबेरी के कांटों से ही बच्चे के चिरे हुए पेट में टांके लगाए और उसे वहीं छोड़कर चला गया।


कुछ देर बाद ग्वालिन दूध बेचकर वहां आ पहुंची। बच्चे की ऐसी दशा देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि यह सब उसके पाप की सजा है। 


वह सोचने लगी कि यदि मैंने झूठ बोलकर गाय का दूध न बेचा होता और गांव की स्त्रियों का धर्म भ्रष्ट न किया होता तो मेरे बच्चे की यह दशा न होती। अतः मुझे लौटकर सब बातें गांव वालों को बताकर प्रायश्चित करना चाहिए।


ऐसा निश्चय कर वह उस गांव में पहुंची, जहां उसने दूध-दही बेचा था। वह गली-गली घूमकर अपनी करतूत और उसके फलस्वरूप मिले दंड का बखान करने लगी। तब स्त्रियों ने स्वधर्म रक्षार्थ और उस पर रहम खाकर उसे क्षमा कर दिया और आशीर्वाद दिया।


बहुत-सी स्त्रियों द्वारा आशीर्वाद लेकर जब वह पुनः झरबेरी के नीचे पहुंची तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गई कि वहां उसका पुत्र जीवित अवस्था में पड़ा है। तभी उसने स्वार्थ के लिए झूठ बोलने को ब्रह्म हत्या के समान समझा और कभी झूठ न बोलने का प्रण कर लिया।


कथा के अंत में निम्न मंत्र से प्रार्थना करें

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गंगाद्वारे कुशावर्ते विल्वके नीलेपर्वते।

स्नात्वा कनखले देवि हरं लब्धवती पतिम्‌॥

ललिते सुभगे देवि-सुखसौभाग्य दायिनि।

अनन्तं देहि सौभाग्यं मह्यं, तुभ्यं नमो नमः॥


अर्थात्👉 हे देवी! आपने गंगा द्वार, कुशावर्त, विल्वक, नील पर्वत और कनखल तीर्थ में स्नान करके भगवान शंकर को पति के रूप में प्राप्त किया है। सुख और सौभाग्य देने वाली ललिता देवी आपको बारम्बार नमस्कार है, आप मुझे अचल सुहाग दीजिए।


बलदाऊ की आरती 

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कृष्ण कन्हैया को दादा भैया, अति प्रिय जाकी रोहिणी मैया


श्री वसुदेव पिता सौं जीजै…… बलदाऊ

 

नन्द को प्राण, यशोदा प्यारौ , तीन लोक सेवा में न्यारौ


कृष्ण सेवा में तन मन भीजै …..बलदाऊ

 

हलधर भैया, कृष्ण कन्हैया, दुष्टन के तुम नाश करैया


रेवती, वारुनी ब्याह रचीजे ….बलदाऊ

 

दाउदयाल बिरज के राजा, भंग पिए नित खाए खाजा


नील वस्त्र नित ही धर लीजे,……बलदाऊ

 

जो कोई बल की आरती गावे, निश्चित कृष्ण चरण राज पावे

बुद्धि, भक्ति  ‘गिरि’  नित-नित लीजे …..बलदाऊ


आरती के बाद श्री बलभद्र स्तोत्र और कवच का पाठ अवश्य करें।


बलदेव स्तोत्र

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दुर्योधन उवाच- स्‍तोत्र श्रीबलदेवस्‍य प्राडविपाक महामुने। वद मां कृपया साक्षात् सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।


प्राडविपाक उवाच- स्‍तवराजं तु रामस्‍य वेदव्‍यासकृतं शुभम्। सर्वसिद्धिप्रदं राजञ्श्रृणु कैवल्‍यदं नृणाम् ।।


देवादिदेव भगवन् कामपाल नमोऽस्‍तु ते। नमोऽनन्‍ताय शेषाय साक्षादरामाय ते नम: ।।


धराधराय पूर्णाय स्‍वधाम्ने सीरपाणये। सहस्‍त्रशिरसे नित्‍यं नम: संकर्षणाय ते ।।


रेवतीरमण त्‍वं वै बलदेवोऽच्‍युताग्रज। हलायुध प्रलम्बघ्न पाहि मां पुरुषोत्तम ।।

बलाय बलभद्राय तालांकाय नमो नम:। नीलाम्‍बराय गौराय रौहिणेयाय ते नम: ।।


धेनुकारिर्मुष्टिकारि: कूटारिर्बल्‍वलान्‍तक:। रुक्म्यरि: कूपकर्णारि: कुम्‍भाण्‍डारिस्‍त्‍वमेव हि ।।


कालिन्‍दीभेदनोऽसि त्‍वं हस्तिनापुरकर्षक:। द्विविदारिर्यादवेन्‍द्रो व्रजमण्‍डलारिस्‍त्‍वमेव हि ।।


कंसभ्रातृप्रह‍न्‍तासि तीर्थयात्राकर: प्रभु:। दुर्योधनगुरु: साक्षात् पाहि पा‍हि प्रभो त्‍वत: ।।


जय जयाच्‍युत देव परातपर स्‍वयमनन्‍त दिगन्‍तगतश्रुत। सुरमुनीन्‍द्रफणीन्‍द्रवराय ते मुसलिने बलिने हलिने नम: ।।


य: पठेत सततं स्‍तवनं नर: स तु हरे: परमं पदमाव्रजेत्। जगति सर्वबलं त्‍वरिमर्दनं भवति तस्‍य धनं स्‍वजनं धनम् ।।


श्रीबलदाऊ कवच

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दुर्योधन उवाच- गोपीभ्‍य: कवचं दत्तं गर्गाचार्येण धीमता। सर्वरक्षाकरं दिव्‍यं देहि मह्यं महामुने ।


प्राडविपाक उवाच- स्‍त्रात्‍वा जले क्षौमधर: कुशासन: पवित्रपाणि: कृतमन्‍त्रमार्जन: ।

स्‍मृत्‍वाथ नत्‍वा बलमच्‍युताग्रजं संधारयेद् वर्म समाहितो भवेत् ।।


गोलोकधामाधिपति: परेश्‍वर: परेषु मां पातु पवित्राकीर्तन: ।

भूमण्‍डलं सर्षपवद् विलक्ष्‍यते यन्‍मूर्ध्नि मां पातु स भूमिमण्‍डले ।।


सेनासु मां रक्षतु सीरपाणिर्युद्धे सदा रक्षतु मां हली च ।

दुर्गेषु चाव्‍यान्‍मुसली सदा मां वनेषु संकर्षण आदिदेव: ।।


कलिन्‍दजावेगहरो जलेषु नीलाम्‍बुरो रक्षतु मां सदाग्नौ ।

वायौ च रामाअवतु खे बलश्‍च महार्णवेअनन्‍तवपु: सदा माम् ।।


श्रीवसुदेवोअवतु पर्वतेषु सहस्‍त्रशीर्षा च महाविवादे ।

रोगेषु मां रक्षतु रौहिणेयो मां कामपालोऽवतु वा विपत्‍सु ।।


कामात् सदा रक्षतु धेनुकारि: क्रोधात् सदा मां द्विविदप्रहारी ।

लोभात् सदा रक्षतु बल्‍वलारिर्मोहात् सदा मां किल मागधारि: ।।


प्रात: सदा रक्षतु वृष्णिधुर्य: प्राह्णे सदा मां मथुरापुरेन्‍द्र: ।

मध्‍यंदिने गोपसख: प्रपातु स्‍वराट् पराह्णेऽस्‍तु मां सदैव ।।


सायं फणीन्‍द्रोऽवतु मां सदैव परात्‍परो रक्षतु मां प्रदोषे ।

पूर्णे निशीथे च दरन्तवीर्य: प्रत्यूषकालेऽवतु मां सदैव ।।


विदिक्षु मां रक्षतु रेवतीपतिर्दिक्षु प्रलम्‍बारिरधो यदूद्वह: ।।

ऊर्ध्‍वं सदा मां बलभद्र आरात् तथा समन्‍ताद् बलदेव एव हि ।।


अन्‍त: सदाव्‍यात् पुरुषोत्तमो बहिर्नागेन्‍द्रलीलोऽवतु मां महाबल: ।

सदान्‍तरात्‍मा च वसन् हरि: स्वयं प्रपातु पूर्ण: परमेश्‍वरो महान् ।।


देवासुराणां भ्‍यनाशनं च हुताशनं पापचयैन्‍धनानाम् ।

विनाशनं विघ्नघटस्‍य विद्धि सिद्धासनं वर्मवरं बलस्‍य ।।


हलषष्ठी शुभ मुहूर्त:

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षष्ठी तिथि 16 अगस्त 2022 दिन मंगलवार को रात्रि 8.18 बजे से आरम्भ होगी और 17 अगस्त को रात्रि 8.25 बजे तक रहेगी।


उद्यापन, मोखद्ध रात्रि 08 बजकर 18 के बाद होगा। चंद्रोदय रात्रि 10 बजकर 4 मिनट पर होगा।

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मंगलवार, 9 अगस्त 2022

क्या हुआ जब माता सीता पृथ्वी में समा गयीं

 क्या हुआ जब धरती में समा गईं सीता माता?


पहली बात तो यह कि माता सीता का धरती में समा जाने के प्रसंग पर मतभेद और विरोधाभाष है। पद्मपुराण की कथा में सीता धरती में नहीं समाई थीं बल्कि उन्होंने श्रीराम के साथ रहकर सिंहासन का सुख भोगा था और उन्होंने भी राम के साथ में जल समाधि ले ली थी।

 


वाल्मीकि रामायण के उत्तर कांड के अनुसार प्रभु श्रीराम के दरबार में लव और कुश राम कथा सुनाते हैं। सीता के त्याग और तपस्या का वृतान्त सुनकर भगवान राम ने अपने विशिष्ट दूत के द्वारा महर्षि वाल्मीकि के पास सन्देश भिजवाया, 'यदि सीता का चरित्र शुद्ध है और वे आपकी अनुमति ले यहां आकर जन समुदाय में अपनी शुद्धता प्रमाणित करें और मेरा कलंक दूर करने के लिए शपथ करें तो मैं उनका स्वागत करूंगा।'

 

यह संदेश सुनकर वाल्मीकि माता सीता को लेकर दरबार में उपस्थित हुए। काषायवस्त्रधारिणी सीता की दीन-हीन दशा देखकर वहां उपस्थित सभी लोगों का हृदय दुःख से भर आया और वे शोक से विकल हो आंसू बहाने लगे।


वाल्मीकि बोले, 'श्रीराम! मैं तुम्हें विश्‍वास दिलाता हूं कि सीता पवित्र और सती है। कुश और लव आपके ही पुत्र हैं। मैं कभी मिथ्याभाषण नहीं करता। यदि मेरा कथन मिथ्या हो तो मेरी सम्पूर्ण तपस्या निष्फल हो जाय। मेरी इस साक्षी के बाद सीता स्वयं शपथपूर्वक आपको अपनी निर्दोषिता का आश्‍वासन देंगीं।'


तत्पश्‍चात् श्रीराम सभी ऋषि-मुनियों, देवताओं और उपस्थित जनसमूह को लक्ष्य करके बोले, "हे मुनि एवं विज्ञजनों! मुझे महर्षि वाल्मीकि जी के कथन पर पूर्ण विश्‍वास है परन्तु यदि सीता स्वयं सबके समक्ष अपनी शुद्धता का पूर्ण विश्‍वास दें तो मुझे प्रसन्नता होगी।"

 

राम का कथन समाप्त होते ही सीता हाथ जोड़कर, नेत्र झुकाए बोलीं, "मैंने अपने जीवन में यदि श्रीरघुनाथजी के अतिरिक्‍त कभी किसी दूसरे पुरुष का चिन्तन न किया हो तो मेरी पवित्रता के प्रमाणस्वरूप भगवती पृथ्वी देवी अपनी गोद में मुझे स्थान दें।"

 

सीता के इस प्रकार शपथ लेते ही पृथ्वी फटी। उसमें से एक सिंहासन निकला। उसी के साथ पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी भी दिव्य रूप में प्रकट हुईं। उन्होंने दोनों भुजाएं बढ़ाकर स्वागतपूर्वक सीता को उठाया और प्रेम से सिंहासन पर बिठा लिया। देखते-देखते सीता सहित सिंहासन पृथ्वी में लुप्त हो गया। सारे दर्शक स्तब्ध से यह अभूतपूर्व दृश्य देखते रह गए।

 

इस सम्पूर्ण घटना से राम को बहुत दुःख हुआ। उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे। वे दुःखी होकर बोले, "मैं जानता हूं, मां वसुन्धरे! तुम ही सीता की सच्ची माता हो। राजा जनक ने हल जोतते हुए तुमसे ही सीता को पाया था, परन्तु तुम मेरी सीता को मुझे लौटा दो या मुझे भी अपनी गोद में समा लो।" श्रीराम को इस प्रकार विलाप करते देख ब्रह्मादि देवताओं ने उन्हें नाना प्रकार से सान्त्वना देकर समझाया।

 

इसके बाद अनेकों वर्षो तक राज्य करने के बाद राम जी भी भाइयों और कुछ अयोध्या वासियों समेत सरयू में उतरते गए और एक एक करके सब वैकुण्ठ पहुंच गए। इससे पूर्व उन्होंने लव को लवपुरी नगर में राज्य दिया जबकि कुश अयोध्या के राज सिंघासन सौंपा।

 

यह घटना इस प्रकार है। एक दिन काल तपस्वी के वेश में राजद्वार पर आया। उसने सन्देश भिजवाया कि मैं महर्षि अतिबल का दूत हूं और अत्यन्त आवश्यक कार्य से श्री रामचन्द्र जी से मिलना चाहता हूं। संदेश पाकर राजचन्द्रजी ने उसे तत्काल बुला भेजा और महर्षि अतिबल का सन्देश सनाने का आग्रह किया। यह सुनकर मुनिवेषधारी काल ने कहा, 'यह बात अत्यन्त गोपनीय है। यहां हम दोनों के अतिरिक्‍त कोई तीसरा व्यक्‍ति नहीं रहना चाहिए। मैं आपको इसी शर्त पर उनका संदेश दे सकता हूं कि यदि बातचीत के समय कोई व्यक्‍ति आ जाए तो आप उसका वध कर देंगे।'

 

श्रीराम ने काल की बात मानकर लक्ष्मण से कहा, "तुम इस समय द्वारपाल को विदा कर दो और स्वयं ड्यौढ़ी पर जाकर खड़े हो जाओ। ध्यान रहे, इन मुनि के जाने तक कोई यहां आने न पाए। जो भी आएगा, मेरे द्वारा मारा जाएगा।'

 

जब लक्ष्मण वहां से चले गए तो उन्होंने काल से महर्षि का सन्देश सुनाने के लिए कहा। उनकी बात सुनकर काल बोला, 'मैं आपकी माया द्वारा उत्पन्न आपका पुत्र काल हूं। ब्रह्मा जी ने कहलाया है कि आपने लोकों की रक्षा करने के लिए जो प्रतिज्ञा की थी वह पूरी हो गई। अब आपके स्वर्ग लौटने का समय हो गया है। वैसे आप अब भी यहां रहना चाहें तो आपकी इच्छा है।'

 

यह सुनकर श्रीराम ने कहा, "जब मेरा कार्य पूरा हो गया तो फिर मैं यहां रहकर क्या करूंगा? मैं शीघ्र ही अपने लोक को लौटूंगा।'

 

जब काल से रामचन्द्रजी वार्तालाप कर रहे थे, उसी समय द्वार पर महर्षि दुर्वासा रामचन्द्र से मिलने आए। वे लक्ष्मण से बोले, "मुझे तत्काल राघव से मिलना है। विलम्ब होने से मेरा काम बिगड़ जाएगा। इसलिए तुम उन्हें तत्काल मेरे आगमन की सूचना दो।'

 

लक्ष्मण बोले, "वे इस समय अत्यन्त व्यस्त हैं। आप मुझे आज्ञा दीजिए, जो भी कार्य हो मैं पूरा करूंगा। यदि उन्हीं से मिलना हो तो आपको दो घड़ी प्रतीक्षा करनी होगी।'

 

यह सुनते ही मुनि दुर्वासा का मुख क्रोध से तमतमा आया और बोले, "तुम अभी जाकर राघव को मेरे आगमन की सूचना दो। यदि तुम विलम्ब करोगे तो मैं शाप देकर समस्त रघुकुल और अयोध्या को अभी इसी क्षण भस्म कर दूंगा।'

 

ऋषि के क्रोधयुक्‍त वचन सुनकर लक्ष्मण सोचने लगे, चाहे मेरी मृत्यु हो जाए, रघुकुल का विनाश नहीं होना चाहिए। यह सोचकर उन्होंने रघुनाथजी के पास जाकर दुर्वासा के आगमन का समाचार जा सुनाया। रामचन्द्रजी काल को विदा कर महर्षि दुर्वासा के पास पहुंचे। उन्हें देखकर दुर्वासा ऋषि ने कहा, "रघुनन्दन! मैंने दीर्घकाल तक उपवास करके आज इसी क्षण अपना व्रत खोलने का निश्‍चय किया है। इसलिए तुम्हारे यहां जो भी भोजन तैयार हो तत्काल मंगाओ और श्रद्धापूर्वक मुझे खिलाओ।'

 

रामचन्द्र जी ने उन्हें सब प्रकार से सन्तुष्ट कर विदा किया। फिर वे काल को दिए गए वचन को स्मरण कर दुखी हो गए। राम दुखी देख लक्ष्मण बोले, "प्रभु! यह तो काल की गति है। आप दुखी न हों और निश्‍चिन्त होकर मेरा वध करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी करें।'

 

लक्ष्मण की बात सुनकर उन्होंने गुरु वसिष्ठ तथा मन्त्रियों को बुलाकर उन्हें सम्पूर्ण वृतान्त सुनाया। यह सुनकर वसिष्ठ जी बोले, "राघव! आप सबको शीघ्र ही यह संसार त्याग कर अपने-अपने लोकों को जाना है। इसका प्रारम्भ सीता के प्रस्थान से हो चुका है। इसलिए आप लक्ष्मण का परित्याग करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी करें। प्रतिज्ञा नष्ट होने से धर्म का लोप हो जाता है। साधु पुरुषों का त्याग करना उनके वध करने के समान ही होता है।'

 

गुरु वसिष्ठ की सम्मति मानकर श्री राम ने दुःखी मन से लक्ष्मण का परित्याग कर दिया। वहां से चलकर लक्ष्मण सरयू के तट पर आए। जल का आचमन कर हाथ जोड़, प्राणवायु को रोक, उन्होंने अपने प्राण विसर्जन कर दिए। इसके बाद श्रीराम भी जल समाधि लेने के लिए आतुर हुए और उन्होंने भरत को राज्य सौंपना चाहता लेकिन भरत ने इनकार कर दिया। भरत ने कहा मैं भी आपके साथ जाऊंगा। प्रजाजन भी कहने लगे कि हम सब भी आपके साथ चलेंगे।

 

कुछ क्षण विचार करके उन्होंने दक्षिण कौशल का राज्य कुश को और उत्तर कौशल का राज्य लव को सौंपकर उनका अभिषेक किया। कुश के लिए विन्ध्याचल के किनारे कुशावती और लव के लिये श्रावस्ती नगरों का निर्माण कराया फिर उन्हें अपनी-अपनी राजधानियों को जाने का आदेश दिया। 

 

इसके पश्‍चात् एक द्रुतगामी दूत भेजकर मधुपुरी से शत्रघ्न को बुलाया। दूत ने शत्रुघ्न को लक्ष्मण के त्याग, लव-कुश के अभिषेक आदि की सारी बातें भी बताईं। इस घोर कुलक्षयकारी वृतान्त को सुनकर शत्रुघ्न अवाक् रह गये। तदन्तर उन्होंने अपने दोनों पुत्रों सुबाहु और शत्रुघाती को अपना राज्य बांट दिया। उन्होंने सबाहु को मधुरा का और शत्रुघाती को विदिशा का राज्य सौंप तत्काल अयोध्या के लिए प्रस्थान किया। अयोध्या पहुंचकर वे बड़े भाई से बोले, 'मैं भी आपके साथ चलने के लिए तैयार होकर आ गया हूं।"

 

यह सुनकर वहां उपस्थित सुग्रीव, विभीषण भी प्रभु के साथ सरयू में जाने के लिए तैयार हो गए लेकिन श्रीरामचंद्र जी ने विभीषण को रोक दिया। विभीषण को कलियुग की संधि तक जीवित रहने का आदेश दिया।

 

अगले दिन प्रातःकाल होने पर धर्मप्रतिज्ञ श्री रामचन्द्रजी ने गुरु वसिष्ठ जी की आज्ञा से महाप्रस्थानोचित सविधि सब धर्मकृत्य किए। तत्पश्‍चात् पीताम्बर धारण कर हाथ में कुशा लिए राम ने वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ सरयू नदी की ओर प्रस्थान किया। नंगे पैर चलते हुए वे सरयू तट पहुंचे। उनके पीछे सारा नगर था। इस समस्त समुदाय में कोई भी दुःखी अथवा उदास नहीं था, बल्कि सभी इस प्रकार प्रफुल्लित थे जैसे छोटे बच्चे मनचाहा खिलौना पाने पर प्रसन्न होते हैं।  

 

श्रीरामचन्द्रजी ने सभी भाइयों और साथ में आए जनसमुदाय के साथ पैदल ही सरयू नदी में प्रवेश किया। अकाश में स्थित सभी देवता उनकी स्तुति का गान कर रहे थे। प्रभु के पीछे जिसने भी सरयू में डुबकी लगाई वहीं शरीर त्यागकर परमधाम का अधिकारी हो गया।

शनि देव

 शनिदेव की पौराणिक कथा और रहस्य 


प्रत्येक इंसान के जीवन मे उतार चढ़ाव लगे ही रहते है इनका मुख्य कारण पुर्व जन्म कृत कर्म ही होते है। ज्योतिषी मान्यताओं के अनुसार हमारे कर्मो के अनुसार ही ग्रह फल देते है। पौराणिक ग्रंथो में शनि देव को न्यायाधीध के रूप में दर्शाया गया है। शनि देव सदैव से जिज्ञासा का केंद्र रहे हैं।


 पौपौराणिक कथाओं के अनुसार शनिदेव कश्यप वंश की परंपरा में भगवान सूर्य की पत्नी छाया के पुत्र हैं। शनिदेव को सूर्य पुत्र के साथ साथ पितृ शत्रु भी कहा जाता है। शनिदेव के भाई-बहन मृत्यु देव यमराज, पवित्र नदी यमुना व क्रूर स्वभाव की भद्रा हैं।


 शनिदेव का विवाह चित्ररथ की बड़ी पुत्री से हुआ था। ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को शनिदेव का जन्म उत्सव मनाया जाता है। शनिदेव का जन्म स्थान सौराष्ट्र में शिंगणापुर माना गया है। हनुमान, भैरव, बुध व राहू को वे अपना मित्र मानते हैं। शनिदेव का वाहन गिद्ध है और उनका रथ लोहे का बना हुआ है। 


शनि देव के दस नाम: -  यम, बभ्रु, पिप्पलाश्रय, कोणस्थ, सौरि, शनैश्चर, कृष्ण, रोद्रान्तक, मंद, पिंगल।


 शनिदेव अपना शुभ प्रभाव विशेषतः कानून, राजनीति व अध्यात्म के विषयों में देते हैं। शनि के बुरे प्रभाव से गुर्दा रोग, डायबिटीज, मानसिक रोग, त्वचा रोग, वात रोग व कैंसर हो सकते है जिनसे राहत के लिये शनि की वस्तुओं का दान करना चाहिये।


 शनिदेव का रंग काला क्यों है?


जब शनिदेव अपनी माता छाया के गर्भ में थे, तब शिव भक्तिनी माता ने तेजस्वी पुत्र की कामना हेतु भगवान शिव की घोर तपस्या की जिस कारण धूप व गर्मी की तपन में शनि का रंग गर्भ में ही काला हो गया लेकिन मां के इसी तप ने शनिदेव को अपार शक्ति भी दी।


 शनि की गति अन्य ग्रहों से मंद क्यों है?


 शनि एक धीमी गति से चलने वाला ग्रह है। पुराणों में यह कहा गया है कि शनिदेव लंगड़ाकर चलते हैं जिस कारण उनकी गति धीमी है। उन्हें एक राशि को पार करने में लगभग ढा़ई वर्ष का समय लगता है। 


शनिदेव लंगड़ाकर क्यों चलते हैं?

इस विषय पर शास्त्रों में दो कथाएं प्रचलित हैं - - 


एक बार सूर्य देव का तेज सहन न कर पाने की वजह से उनकी पत्नी संज्ञा देवी ने अपने शरीर से अपने जैसी ही एक प्रतिमूर्ति तैयार की और उसका नाम स्वर्णा रखा। उसे आज्ञा दी कि तुम मेरी अनुपस्थिति में मेरी सारी संतानों की देखरेख करते हुये सूर्यदेव की सेवा करो और पत्नी सुख भोगो। ये आदेश देकर वह अपने पिता के घर चली गयी।


 स्वर्णा ने भी अपने आप को इस तरह ढाला कि सूर्यदेव भी यह रहस्य न जान सके। इस बीच सूर्यदेव से स्वर्णा को पांच पुत्र व दो पुत्रियां हुई। स्वर्णा अपने बच्चों पर अधिक और संज्ञा की संतानों पर कम ध्यान देने लगी। एक दिन संज्ञा के पुत्र शनि को तेज भूख लगी, तो उसने स्वर्णा से भोजन मांगा। तब स्वर्णा ने कहा कि अभी ठहरो, पहले मैं भगवान का भोग लगा लूं और तुम्हारे छोटे भाई बहनों को खाना खिला दूं, फिर तुम्हें भोजन दूंगी। 


यह सुन शनि को क्रोध आ गया और उसने माता को मारने के लिये अपना पैर उठाया तो स्वर्णा ने शनि को श्राप दे दिया कि तेरा पांव अभी टूट जाये। 


माता का श्राप सुनकर शनिदेव डरकर अपने पिता के पास गये और सारा किस्सा कह दिया। सूर्यदेव समझ गये कि कोई भी माता अपने बच्चे को इस तरह का श्राप नहीं दे सकती। तब सूर्यदेव ने क्रोध में आकर पूछा कि बताओ तुम कौन हो? 


सूर्य का तेज देखकर स्वर्णा घबरा गयी और सारी सच्चाई बता दी। तब सूर्य देव ने शनि को समझाया कि स्वर्णा तुम्हारी माता तो नहीं है परंतु मां के समान है। इसलिए उसका श्राप व्यर्थ तो नहीं होगा, परंतु यह उतना कठोर नहीं होगा कि टांग पूरी तरह से अलग हो जाये। हां, तुम आजीवन एक पांव से लंगड़ाकर चलते रहोगे। 


- रावण की पत्नी मंदोदरी जब गर्भवती हुई तो रावण ने अपराजय व दीर्घायु पुत्र की कामना से सभी ग्रहों को अपनी इच्छानुसार स्थापित कर लिया। सभी ग्रह भविष्य में होने वाली घटनाओं को लेकर चिंतित थे लेकिन रावण के भय से वहीं ठहरे रहे। 


जब रावण पुत्र मेघनाद का जन्म होने वाला था तो उसी समय शनिदेव ने स्थान परिवर्तन कर लिया जिसके कारण मेघनाद की दीर्घायु, अल्पायु में परिवर्तित हो गई। 


शनि की बदली हुई स्थिति को देखकर रावण अत्यन्त क्रोधित हुआ और उसने शनि के पैर में अपनी गदा से प्रहार किया जिसके कारण शनिदेव लंगडे़ हो गये।


 शनिदेव पर तेल क्यों चढ़ाया जाता है?


 आनन्द रामायण में लिखा है कि जब भगवान राम की सेना ने सागर सेतु बांध लिया था, तब राक्षस उन्हें हानि न पंहुचा सकें, उसके लिये पवनसुत हनुमान को उसकी देखभाल की जिम्मेदारी सौंपी गई। जब हनुमान जी शाम के समय राम के ध्यान में मग्न थे, तभी सूर्य पुत्र शनि ने अपना काला कुरुप चेहरा बनाकर क्रोधपूर्ण कहा- हे वानर, मैं देवताओं में शक्तिशाली शनि हूं। सुना है तुम बहुत बलशाली हो। आंखें खोलो और मेरे साथ युद्ध करो। 


इस पर हनुमान जी ने विनम्रता से कहा - इस समय मैं अपने प्रभु को याद कर रहा हूं। आप मेरी पूजा में विध्न मत डालिये। जब शनि देव लड़ने पर उतर ही आये तो हनुमान जी ने उन्हें अपनी पूंछ में लपेटना शुरु कर दिया। शनि देव उस बंधन से मुक्त न होकर पीड़ा से व्याकुल होने लगे। शनि के घमंड को तोड़ने के लिये हनुमान ने पत्थरों पर पूंछ को पटकना शुरु कर दिया जिससे शनिदेव लहुलुहान हो गये। 


तब शनिदेव ने दया की प्रार्थना की जिस पर हनुमान जी ने कहा - मैं तुम्हें तभी छोडू़गा जब तुम मुझे वचन दोगे कि श्री राम के भक्त को कभी परेशान नहीं करोगे। शनि ने गिड़गिड़ाकर कहा - मैं वचन देता हूं कि कभी भूलकर भी आपके और श्रीराम के भक्तों की राशि पर नहीं आऊंगा। 


तब हनुमान जी ने शनि को छोड़ दिया और उसके घावों पर लगाने के लिये जो तेल दिया तो उससे शनिदेव की सारी पीड़ा मिट गई। उसी दिन से शनिदेव को तेल चढ़ाया जाता है जिससे उनकी पीड़ा शांत होती है और वे प्रसन्न हो जाते हैं।


 शनिदेव की दृष्टि में क्रूरता क्यों है?


ब्रह्मपुराण में कहा गया है - बचपन से ही शनिदेव भगवान कृष्ण के परम भक्त थे। वयस्क होने पर उनके पिता ने चित्ररथ की कन्या से उनका विवाह कर दिया। एक रात उनकी पत्नी ऋतु स्नान करके पुत्र प्राप्ति की इच्छा से उनके पास पंहुची तो शनिदेव भगवान कृष्ण के ध्यान में मग्न थे। पत्नी प्रतीक्षा करके थक गई। उसका ऋतुकाल निष्फल हो गया। तब उसने क्रुद्ध होकर शनिदेव को श्राप दे दिया कि आज से जिसे तुम देख लोगे, वह नष्ट हो जायेगा। 


ध्यान टूटने पर शनिदेव ने अपनी पत्नी को मनाया लेकिन श्राप के प्रतिकार की शक्ति उसमें न थी। तभी से शनिदेव की दृष्टि को क्रूर माना जाने लगा और वे अपना सिर नीचा करके रहने लगे क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनकी दृष्टि के द्वारा किसी का अनावश्यक अनिष्ट हो।


 शनि को न्यायाधीश क्यांे कहते हैं?


 कहा गया है कि शनिदेव क्रूर ग्रह नहीं हैं, वे न्यायकर्ता हैं। व्यक्ति जब पाप करता है, वह लोभ, हवस, गुस्सा, मोह से प्रभावित होकर अन्याय, अत्याचार, दुराचार, अनाचार, पापाचार, व्याभिचार का सहारा लेता है तो शनिदेव उस व्यक्ति के जीवन में साढे़साती लाकर उसके पापों का हिसाब स्वयं कर देते हैं। 


लेकिन यदि साढे़साती के दौरान भी व्यक्ति सत्य को नहीं छोड़ते, दया और सुकर्म का सहारा लेते हैं, तब समय शुभता से व्यतीत करवा देते हैं। अतः शनिदेव अच्छे कर्मो के फलदाता है व बुरे कर्मों का दंड भी देते हैं जिस कारण से उन्हे न्यायधीश कहा जाता है।


 देवी लक्ष्मी के पूछने पर शनिदेव ने उन्हें बताया था कि परमपिता परमात्मा ने ही मुझे तीनो लोकों का न्यायाधीश नियुक्त किया हुआ है। 


शनिदेव काजल की डिबिया से क्यों प्रसन्न होते हैं?


 ज्योतिष ग्रंथों में कहा गया है कि शनि को काला रंग व लोहे की धातु अत्याधिक प्रिय है और वह जमीन, भूगर्भ, वीरान स्थल आदि का कारक ग्रह है। इसलिये किसी भी शनिवार को किसी सुनसान जगह पर काजल की लोहे की छोटी सी डिबिया को जमीन में गाड़ दें और बिना पीछे देखे घर लौट आयंे तो यह शनिदेव की अशुभता से बचने का सटीक व सरल उपाय है। 


दशरथ स्त्रोत से शनि प्रसन्न क्यों होते हैं?


 शास्त्रों में यह आख्यान मिलता है कि शनि के प्रकोप से अपने राज्य को घोर दुर्भिक्ष से बचाने के लिये राजा दशरथ उनसे मुकाबला करने पंहुचे तो उनका पुरुषार्थ देखकर शनिदेव ने उनसे वरदान मांगने को कहा। राजा दशरथ ने विधिवत स्तुति कर स्वरचित स्त्रोत से उन्हें प्रसन्न किया तो शनिदेव ने उन्हें वरदान दिया कि चतुर्थ व अष्टम ढैया होने पर ‘दशरथ स्त्रोत’ पढ़कर मेरे द्वारा दिये जाने वाले कष्टों से रक्षा की जा सकती है। 


कोकिला वन का शनिदेव मंदिर सिद्ध क्यों कहलाता है?


द्वापरयुग में बंसी बजाते हुये एक पैर पर खडे़ हुये भगवान श्रीकृष्ण ने शनिदेव की पूजा-अर्चना से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिये और कहा कि नंदगांव से सटा ‘कोकिला वन’ उनका वन है। जो इस वन की परिक्रमा करेगा और शनिदेव की पूजा करेगा, वह मेरी व शनिदेव दोनों की कृपा प्राप्त करेगा। इस कारण से कोकिलावन के शनिदेव मंदिर को सिद्ध मंदिर का दर्जा प्राप्त है।


 काशी विश्वनाथ मंदिर का शनिदेव से क्या संबंध है?


 स्कन्द पुराण में वृतांत है कि एक बार शनिदेव ने अपने पिता सूर्यदेव से कहा कि मैं ऐसा पद प्राप्त करना चाहता हूं जो आज तक किसी ने प्राप्त न किया हो, मेरी शक्ति आप से सात गुणा अधिक हो, मेरे वेग का सामना कोई देव-दानव-साधक आदि न कर पायें और मुझे मेरे आराध्य श्रीकृष्ण के दर्शन हों।


 शनिदेव की यह अभिलाषा सुन सूर्यदेव गदगद हुये और कहा कि मैं भी यही चाहता हूं कि मेरा पुत्र मुझसे भी अधिक महान हो, परंतु इसके लिये तुम्हें तप करना पडे़गा और तप करने के लिये तुम काशी चले जाओ, वहां भगवान शंकर का घनघोर तप करो और शिवलिंग की स्थापना कर भगवान शंकर से अपने मनवांछित फलों का आशीर्वाद लो। 


शनिदेव ने अपनी पिता की आज्ञानुसार वैसा ही किया और तप करने के बाद वर्तमान में भी मौजूद शिवलिंग की स्थापना की। इस प्रकार काशी विश्वनाथ मंदिर के स्थल पर शनिदेव को भगवान शंकर से आशीर्वाद के रुप में सर्वोपरि पद मिला। 


 जीवन के अच्छे समय में भी शनिदेव का गुणगान करो। आपातकाल में शनिदेव के दर्शन व दान करो। पीड़ादायक समय में शनिदेव की पूजा करो। दुखद प्रसंग में भी शनिदेव पर विश्वास रखो

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...