सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

ऋष्यशृंग

 ऋष्यशृंग कौन थे?????


ऋष्यश्रृंग ऋषि का वर्णन पुराणों एवं रामायण में आता है। ब्रह्मदेव के पौत्र महर्षि कश्यप के एक पुत्र थे विभाण्डक। वे स्वाभाव से बहुत उग्र और महान तपस्वी थे। एक बार उनके मन में आया कि वे ऐसी घोर तपस्या करें जैसी आज तक किसी और ने ना की हो। इसी कारण वे घोर तप में बैठे। उनकी तपस्या इतनी उग्र थी कि स्वर्गलोक भी तप्त हो गया।


 जब देवराज इंद्र ने देखा कि ऋषि विभाण्डक घोर तप कर रहे हैं तो उन्होंने उनकी तपस्या भंग करने के लिए कई अप्सराएं भेजी किन्तु वे उनका तप तोड़ने में असफल रहीं। तब इंद्र ने उर्वशी को विभाण्डक के पास भेजा। जब विभाण्डक ऋषि ने उर्वशी को देखा तो उसके सौंदर्य देखकर मुग्ध हो गए और उन्होंने उर्वशी के साथ संसर्ग किया जिससे उनकी तपस्या भंग हो गयी।


दोनों के संयोग से उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसके सर पर मृग की तरह सींघ (श्रृंग) था। उसी कारण उसका नाम "ऋष्यश्रृंग" रखा गया। इस विषय में एक और कथा मिलती है कि उर्वशी का सौंदर्य देख विभाण्डक का तेज स्खलित हो गया जिसे उन्होंने जल में बहा दिया। उस जल को एक मृग ने पिया जिससे वो गर्भवती हो गई और एक बालक को जन्म दिया। 


मृग की संतान होने के कारण उस बालक के सर पर उसी की भांति सींघ था जिससे उसका नाम ऋष्यश्रृंग पड़ा। इन्हे श्रृंगी ऋषि और एकश्रृंग के नाम से भी जाना जाता है। उधर पुत्र का जन्म होते ही उर्वशी का पृथ्वी पर कार्य संपन्न हो गया और वो वापस स्वर्गलोक चली गयी।


 विभाण्डक उर्वशी से अत्यंत प्रेम करते थे इसी कारण उन्हें उसके इस छल से असहनीय पीड़ा हुई और उनका विश्वास नारी जाति से उठ गया। उन्हें उर्वशी के छल से इतना धक्का लगा कि उन्हें स्त्री के नाम से भी घृणा होने लगी और उन्होंने ये निर्णय लिया कि वे अपने पुत्र पर स्त्री की छाया भी नहीं पड़ने देंगे।


वे ऋष्यश्रृंग के साथ एक घने अरण्य में चले गए और वहीँ उन्होंने अपने पुत्र का पालन-पोषण किया। वर्षों बीत गए, ऋष्यश्रृंग युवा हो गए किन्तु उन्होंने आज तक स्त्री का मुख भी नहीं देखा था अतः वे लिंगभेद से अनजान थे। अपने पुत्र के युवा होने पर विभाण्डक उन्हें आश्रम में ही रहने का निर्देश देकर पुनः तपस्या में रम गए। 


जिस अरण्य में वे थे वो अंगदेश की सीमा में पड़ता था। विभाण्डक के घोर तप के कारण अंगदेश में अकाल पड़ गया। अंगदेश के राजा रोमपाद, जिनका एक नाम चित्ररथ भी था इस विपत्ति से विचलित हो गए। उन्होंने देश भर से विद्वानों को बुलाया और उनसे पूछा कि इस असमय दुर्भिक्ष का क्या कारण है। तब उन्होंने बताया कि अंग की सीमा में ऋषि विभाण्डक घोर तप कर रहे हैं जिस कारण अंगदेश में दुर्भिक्ष आ गया है। 


किन्तु उनकी तपस्या को तोडा नहीं जा सकता अन्यथा वे क्रोध में आकर पूरे देश का नाश कर देंगे। इसपर रोमपाद ने पूछा कि फिर इस अकाल को समाप्त करने का क्या उपाय है? तब विद्वानों ने बताया कि अगर वे किसी प्रकार विभाण्डक के पुत्र ऋष्यश्रृंग को अंगदेश बुलाने में सफल हो गए तो उनके पिता की तपस्या टूट जाएगी और दुर्भिक्ष समाप्त हो जाएगा।


तब रोमपाद ने अत्यंत सुन्दर देवदासियों को ऋष्यश्रृंग को बुलाने भेजा। जब ऋष्यश्रृंग ने उन सुन्दर स्त्रियों को देखा तो आचार्यचकित रह गए। उन्होंने ऐसा सौंदर्य और कोमल शरीर कभी नहीं देखा था। उन देवदासियों ने तरह-तरह से ऋष्यश्रृंग को रिझाना शुरू किया। उन स्त्रियों का स्पर्श पा ऋष्यश्रृंग को अपूर्व आनंद प्राप्त हुआ। 


तब वे सभी स्त्रियां उस जंगल से कुछ दूर नगर के पास बनें एक आश्रम में चली गयी। स्त्री का संसर्ग प्राप्त कर चुके ऋष्यश्रृंग को अब उनके बिना कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था इसीलिए वे भी उन्हें ढूंढते हुए उनके आश्रम में पहुँच गए। वहाँ सभी स्त्रियों ने उनकी खूब सेवा की और किसी प्रकार बहला-फुसला कर उन्हें नगर में ले गयी। 


ऋष्यश्रृंग के नगर पहुँचते ही वहाँ वर्षा हों लगी और दुर्भिक्ष समाप्त हो गया। इससे विभाण्डक ऋषि का तप टूटा और अपने पुत्र को आश्रम में ना पाकर वे क्रोध में भर कर अंगदेश की ओर चले।


 इधर जब रोमपाद को ये पता चला कि विभाण्डक क्रोध में उनके नगर में ही आ रहे हैं तो उन्होंने उससे पहले ही अपनी दत्तक पुत्री शांता, जो वास्तव में महाराज दशरथ और महारानी कौशल्या की पुत्री थी, का विवाह ऋष्यश्रृंग से करवा दिया। जब विभाण्डक ऋषि वहाँ पहुँचे तो शांता ने उनका स्वागत किया और उन्हें बताया कि वे उनकी पुत्रवधु हैं। 


शांता और ऋष्यश्रृंग को अपने समक्ष देख विभाण्डक का क्रोध शांत हो गया और वो अपने पुत्र और पुत्रवधु के साथ वापस अपने आश्रम लौट गए। 


जब दशरथ को ये पता चला कि उनकी पुत्री का विवाह हो गया है तो वे बड़े प्रसन्न हुए। किन्तु कोई पुत्र ना होने के कारण वे बड़े दुखी भी थे। जब उन्होंने अपनी ये व्यथा चित्ररथ को बताई तो उन्होंने कहा कि उनके जमाता ऋष्यश्रृंग अत्यंत तपस्वी है और वे अगर चाहें तो दशरथ पुत्र की प्राप्ति कर सकते हैं। 


तब उनके परामर्श पर दशरथ ऋष्यश्रृंग के पास गए और उनसे अपनी व्यथा कही। तब ऋष्यश्रृंग ने अयोध्या आकर "पुत्रेष्टि" यज्ञ संपन्न कराया जिससे शांता के छोटे भाइयों - श्रीराम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। जिस स्थान पर उन्होंने यज्ञ कराया था वो अयोध्या से करीब ३८ किलोमीटर दूर है जहाँ उनका और शांता का एक मंदिर भी है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पिशाच भाष्य

पिशाच भाष्य  पिशाच के द्वारा लिखे गए भाष्य को पिशाच भाष्य कहते है , अब यह पिशाच है कौन ? तो यह पिशाच है हनुमानजी तो हनुमानजी कैसे हो गये पिशाच ? जबकि भुत पिशाच निकट नहीं आवे ...तो भीमसेन को जो वरदान दिया था हनुमानजी ने महाभारत के अनुसार और भगवान् राम ही कृष्ण बनकर आए थे तो अर्जुन के ध्वज पर हनुमानजी का चित्र था वहाँ से किलकारी भी मारते थे हनुमानजी कपि ध्वज कहा गया है या नहीं और भगवान् वहां सारथि का काम कर रहे थे तब गीता भगवान् ने सुना दी तो हनुमानजी ने कहा महाराज आपकी कृपा से मैंने भी गीता सुन ली भगवान् ने कहा कहाँ पर बैठकर सुनी तो कहा ऊपर ध्वज पर बैठकर तो वक्ता नीचे श्रोता ऊपर कहा - जा पिशाच हो जा हनुमानजी ने कहा लोग तो मेरा नाम लेकर भुत पिशाच को भगाते है आपने मुझे ही पिशाच होने का शाप दे दिया भगवान् ने कहा - तूने भूल की ऊपर बैठकर गीता सुनी अब इस पर जब तू भाष्य लिखेगा तो पिशाच योनी से मुक्त हो जाएगा तो हमलोगों की परंपरा में जो आठ टिकाए है संस्कृत में उनमे एक पिशाच भाष्य भी है !

मनुष्य को किस किस अवस्थाओं में भगवान विष्णु को किस किस नाम से स्मरण करना चाहिए।?

 मनुष्य को किस किस अवस्थाओं में भगवान विष्णु को किस किस नाम से स्मरण करना चाहिए। 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ भगवान विष्णु के 16 नामों का एक छोटा श्लोक प्रस्तुत है। औषधे चिंतयते विष्णुं, भोजन च जनार्दनम। शयने पद्मनाभं च विवाहे च प्रजापतिं ॥ युद्धे चक्रधरं देवं प्रवासे च त्रिविक्रमं। नारायणं तनु त्यागे श्रीधरं प्रिय संगमे ॥ दुःस्वप्ने स्मर गोविन्दं संकटे मधुसूदनम् । कानने नारसिंहं च पावके जलशायिनाम ॥ जल मध्ये वराहं च पर्वते रघुनन्दनम् । गमने वामनं चैव सर्व कार्येषु माधवम् ॥ षोडश एतानि नामानि प्रातरुत्थाय य: पठेत ।  सर्व पाप विनिर्मुक्ते, विष्णुलोके महियते ॥ (1) औषधि लेते समय विष्णु (2) भोजन के समय - जनार्दन (3) शयन करते समय - पद्मनाभ   (4) विवाह के समय - प्रजापति (5) युद्ध के समय चक्रधर (6) यात्रा के समय त्रिविक्रम (7) शरीर त्यागते समय - नारायण (8) पत्नी के साथ - श्रीधर (9) नींद में बुरे स्वप्न आते समय - गोविंद  (10) संकट के समय - मधुसूदन  (11) जंगल में संकट के समय - नृसिंह (12) अग्नि के संकट के समय जलाशयी  (13) जल में संकट के समय - वाराह (14) पहाड़ पर ...

कार्तिक माहात्म्य (स्कनदपुराण के अनुसार)

 *कार्तिक माहात्म्य (स्कनदपुराण के अनुसार) अध्याय – ०३:--* *(कार्तिक व्रत एवं नियम)* *(१) ब्रह्मा जी कहते हैं - व्रत करने वाले पुरुष को उचित है कि वह सदा एक पहर रात बाकी रहते ही सोकर उठ जाय।*  *(२) फिर नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा भगवान् विष्णु की स्तुति करके दिन के कार्य का विचार करे।*  *(३) गाँव से नैर्ऋत्य कोण में जाकर विधिपूर्वक मल-मूत्र का त्याग करे। यज्ञोपवीत को दाहिने कान पर रखकर उत्तराभिमुख होकर बैठे।*  *(४) पृथ्वी पर तिनका बिछा दे और अपने मस्तक को वस्त्र से भलीभाँति ढक ले,*  *(५) मुख पर भी वस्त्र लपेट ले, अकेला रहे तथा साथ जल से भरा हुआ पात्र रखे।*  *(६) इस प्रकार दिन में मल-मूत्र का त्याग करे।*  *(७) यदि रात में करना हो तो दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके बैठे।*  *(८) मलत्याग के पश्चात् गुदा में पाँच (५) या सात (७) बार मिट्टी लगाकर धोवे, बायें हाथ में दस (१०) बार मिट्टी लगावे, फिर दोनों हाथों में सात (७) बार और दोनों पैरों में तीन (३) बार मिट्टी लगानी चाहिये। - यह गृहस्थ के लिये शौच का नियम बताया गया है।*  *(९) ब्रह्मचारी के लिये, इसस...