बुधवार, 18 दिसंबर 2024

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है।

इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें_कुंभ_माननेवाले_व्यक्तिकी_चेष्टा- अप्रामाणिक, अशास्त्रीय और कपोल कल्पित है। 


कुम्भपर्व—


पृथ्वीपर कुम्भपर्व हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार तीर्थस्थानोंमें मनाये जाते हैं। 


ये चारों ही एकसे बढ़कर एक परम पवित्र तीर्थ हैं। 

इन चारों तीर्थोमें प्रत्येक लगभग बारह वर्षके बाद कुम्भपर्व होता है—


*गङ्गाद्वारे प्रयागे च धारागोदावरीतटे।*

*कुम्भाख्येयस्तु योगोऽयं प्रोच्यते शङ्करादिभिः॥*


*अर्थ—* गङ्गाद्वार (हरिद्वार), प्रयाग, धारानगरी (उज्जैन) और गोदावरी (नासिक) में शङ्करादि देवगणोंने *'कुम्भयोग'* कहा है।


*मुख्य_बारह_कुम्भपर्व—*


सागर मंथनके समय जब अमृतका कलश लेकर भगवान् धन्वंतरि निकले तो देवताओंके इशारे पर उनके हाथोंसे अमृतकलश छीनकर इंद्रपुत्र जयंत आकाशमें उड़ गया, उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्यके आदेशानुसार दैत्योंने अमृतका कलश जयंतसे छीन लिया।तत्पश्चातक अमृतकुंभपर अपना- अपना अधिकार जमानेके लिए देवों और दानवोंमें 12 दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। परस्पर इस मार- काटके समयमें पृथ्वीके चार स्थानों( प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक) पर अमृतकुंभ गिरा था, उस समय चंद्रमा, सूर्य और बृहस्पतिने अमृत कलशकी रक्षा की थी—


*देवानां द्वादशाहोभिर्मत्यैर्द्वादशवत्सरै:|*

*जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया॥*

 

*तत्राघनुत्तये नॄणां चत्वारो भुवि भारते।* 

*अष्टौ लोकान्तरे प्रोक्ता देवैर्गम्या न चेतरै:॥*

                           (स्कन्दपुराण)


*अर्थ—* अमृत प्राप्तिके लिए देव- दानवोंमें परस्पर 12 दिन पर्यंत निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओंके12 दिन मनुष्योंके 12 वर्षके तुल्य होते हैं। अतएव कुंभपर्व भी 12 होते हैं। उनमेंसे चार कुंभ पृथ्वीपर होते हैं और अवशिष्ट 8 कुंभ देवलोकमें होते हैं, जिन्हें देवता ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्योंकी वहां पहुंच नहीं है। 

जिस समयमें चंद्र, सूर्य तथा बृहस्पतिने कलशकी रक्षा की थी उस समयकी वर्तमान राशियोंपर रक्षा करने वाले चंद्र, सूर्य और गुरु ग्रह जब-जब आते हैं तब- तब कुंभपर्वका योग होता है अर्थात् जिस वर्ष जिस राशिपर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पतिका संयोग होता है उसी वर्ष उसी राशिके योगमें जहां-जहां अमृतकुंभसुधाबिंदु गिरा था वहां- वहां कुंभपर्व होता है।

 सामान्य रूपसे बृहस्पति 12 वर्षमें 12राशियोंका एक चक्र पूर्ण कर लेते हैं, कभी- कभी वक्री या अत्याचारी होनेके कारण 11वीं वर्षमें या तेरहवें वर्षमें बृहस्पति एक चक्कर लगा पाते हैं, इसलिए कुंभपर्वका समय भी 11, 12, 13 अथवा 14 वे वर्षमें भी हो सकता है।


*चारों_कुम्भपर्वोंके_शास्त्रोल्लिखित_मुख्य_स्नानदिन—*


*(१) हरिद्वारकुम्भ*

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*1 पद्मिनीनायके मेषे कुम्भराशिगते गुरौ।*

*गङ्गाद्वारे भवेद्योग: कुम्भनामा तदोत्तमः॥*

                           (स्कन्दपुराण)


*अर्थ—* जिस समय बृहस्पति कुम्भ राशिपर स्थित हो और सूर्य मेष राशिपर रहे, उस समय गङ्गाद्वार (हरिद्वार)-में कुम्भयोग होता है।


*2 वसन्ते विषुवे चैव घटे देवपुरोहिते।*

*गङ्गाद्वारे च कुम्भाख्यः सुधामेति नरो यतः।।*


*शाही_स्नान—*

हरिद्वारमें कुम्भके तीन मुख्य स्नान होते हैं। यहाँ कुम्भका प्रथम स्नान शिवरात्रिके दिन होता है। 

द्वितीय स्नान चैत्रकी अमावास्याको होता है।

तृतीय स्नान (प्रधान स्नान) चैत्रके अन्तमें अथवा वैशाखके प्रथम दिनमें अर्थात् जिस दिन बृहस्पति कुम्भ राशिपर और सूर्य मेष राशिपर हो उस दिन कुम्भस्नान होता है।


*(२) प्रयागकुम्भ*

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*1 मेषराशिं गते जीवे मकरे चन्द्रभास्करौ।*

*अमावास्या तदा योगः कुम्भाख्यस्तीर्थनायके॥*

                           (स्कन्दपुराण)


*अर्थ—* जिस समय बृहस्पति मेष राशिपर स्थित हो तथा चन्द्रमा और सूर्य मकर राशिपर हों तो उस समय तीर्थराज प्रयागमें कुम्भयोग होता है।


*2 मकरे दिवानाथे ह्यजगे बृहस्पतौ।*

*कुम्भयोगो भवेत्तत्र प्रयागे ह्यतिदुर्लभः॥*


*शाही_स्नान—*

प्रयागमें कुम्भके तीन स्नान होते हैं। यहाँ कुम्भका प्रथम स्नान मकरसंक्रान्ति (मेष राशिपर बृहस्पतिका संयोग होने)-से प्रारम्भ होता है।

द्वितीय स्नान (प्रधान स्नान) माघ कृष्णा मौनी अमावास्याको होता है। 

तृतीयस्नान माघ शुक्ला वसन्तपञ्चमीको होता है।


*(३) उज्जैनकुम्भ*

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*मेषराशिं गते सूर्ये सिंहराशौ बृहस्पतौ।*

*उज्जयिन्यां भवेत् कुम्भः सदा मुक्तिप्रदायकः॥*


*अर्थ—* जिस समय सूर्य मेष राशिपर हो और बृहस्पति सिंह राशिपर हो तो उस समय उज्जैनमें कुम्भयोग होता है।


*(४) नासिककुम्भ*

*(सिंहस्थकुम्भ—त्र्यम्बकेश्वर)*

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*सिंहराशिं गते सूर्ये सिंहराशौ बृहस्पतौ।*

*गोदावर्यां भवेत्कुम्भो भक्तिमुक्ति प्रदायक।।*


*अर्थ—* जिस समय सूर्य तथा बृहस्पति दोनों ही सिंह राशिपर हों तो उस समय नासिकमें मुक्तिप्रद कुम्भ होता है।


गोदावरीके रम्य तटपर स्थित नासिकमें कुम्भ मेला लगता है। इसके लिये सिंह राशिका बृहस्पति एवं सिंह राशिका सूर्य आवश्यक है।


 इस पर्वका स्नान भाद्रपदमें अमावास्या-तिथिको होता है। देवगुरु बृहस्पति जबतक विश्वात्मा सूर्यनारायणके साथ सिंह राशिमें रहते हैं तब तकका समय सिंहस्थ कहलाता है। इस सिंहस्थ कालमें श्रीनासिक तीर्थकी यात्रा, पवित्र गोदावरी नदीमें स्नान एवं त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिङ्गके दर्शनका बड़ा माहात्म्य है। यहीं पञ्चवटीमें भगवान् श्रीरामने वनवासका दीर्घकाल व्यतीत किया था।


उज्जैनका कुंभ और नासिकका कुंभ दोनों ही सिंहस्थ बृहस्पतिके समयपर होते हैं, इसलिए ये दोनों कुंभ 1 वर्षके मध्यमें ही कुछ महीनोंके अंतरालसे होते हैं। 


*कुम्भपर्वोंमें_स्नानमाहात्म्य—*


*तान्येव यः पुमान् योगे सोऽमृतत्वाय कल्पते।*

*देवा नमन्ति तत्रस्थान् यथा रङ्का धनाधिपान्॥*


*अर्थ—* जो मनुष्य कुम्भयोगमें स्नान करता है, वह अमृतत्व (मुक्ति) की प्राति करता है। जिस प्रकार दरिद्र मनुष्य सम्पत्तिशालीको नम्रतासे अभिवादन करता है, उसी प्रकार कुम्भपर्वमें स्नान करनेवाले मनुष्यको देवगण नमस्कार करते हैं।


*१.हरिद्वारस्नानकी_महिमा*


*कुम्भराशिं गते जीवे तथा मेषे गते रवौ।*

*हरिद्वारे कृतं स्नानं पुनरावृत्तिवर्जनम्॥*


*अर्थ—* कुम्भ राशिमें बृहस्पति हो तथा मेष राशिपर सूर्य हो तो हरिद्वारके कुम्भमें स्नान करनेसे मनुष्य पुनर्जन्मसे रहित हो जाता है।


*योऽस्मिन्क्षेत्रे स्नायात्कुम्भेज्येऽजगे रवौ।* 

*स तु स्याद्वाक्पतिः साक्षात्प्रभाकर इवापरः।।*


*अर्थ—* जो इस क्षेत्रमें बृहस्पतिके कुम्भ राशिपर और सूर्यके मेष राशिपर रहते समय स्नान करता है, वह साक्षात् बृहस्पति और दूसरे सूर्यके समान तेजस्वी होता है।


*सोमवारान्वितायां वा यस्यां कस्यामथापि वा।*

*अमायां च तथा माघे वैशाखे कार्तिकेऽपि वा।।*


*अर्थ—* सोमवती अमावास्यामें अथवा अन्य किसी भी अमावास्यामें एवं माघ, वैशाख तथा कार्तिकमासमें इस हरिद्वार तीर्थका दर्शन तथा स्नान आदिका बड़ा माहात्म्य है।


*ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे दशम्यां स्नानमात्रतः।*

*प्राप्यते परमं स्थानं दुर्लभं योगिनामपि॥*


*अर्थ—* ज्येष्ठके महीनेमें शुक्ल पक्षकी दशमी (गङ्गादशहरा, गङ्गाजन्म) के दिन केवल स्नान करनेसे परमधामकी प्राप्ति होती है, जो कि योगियोंको भी दुर्लभ है।


*स्वर्गद्वारेण तत् तुल्यं गङ्गाद्वार न संशयः।*

*तत्राभिषेक कुर्वीत कोटितीर्थे समाहितः॥*


*लभते पुण्डरीकं च कुलं चैव समुद्धरेत्।*

*तत्रैकरात्रिवासेन गोसहस्रफलं लभेत्॥*


*सप्तगङ्गे त्रिगङ्गे शक्रावर्ते तर्पयन्।*

*देवान् पितॄंश्च विधिवत् पुण्ये लोके महीयते॥*


*ततः कनखले स्नात्वा त्रिरात्रोपोषितो नरः।*

*अश्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं गच्छति॥*


*अर्थ—* हरिद्वार स्वर्गके द्वारके समान है। इसमें संशय नहीं है। वहाँ जो एकाग्र होकर कोटितीर्थमें स्नान करता है, उसे पुण्डरीकयज्ञका फल मिलता है तथा वह अपने कुलका उद्धार कर देता है। वहाँ एक रात निवास करने मात्रसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। सप्तगङ्गा, त्रिगङ्गा और शक्रावर्तमें विधिपूर्वक देवर्षि-पितृतर्पण करनेवाला पुण्यलोकमें प्रतिष्ठित होता है।

तदनन्तर कनखलमें स्नान करके तीन रात उपवास करे। ऐसा करनेवाला अश्वमेध-यज्ञका फल पाता है और स्वर्गगामी होता है।


*२. प्रयागस्नानकी_महिमा*


*सहस्रं कार्तिके स्नानं माघे स्नानशतानि च।*

*वैशाखे नर्मदा कोटिः कुम्भस्नानेन तत्फलम्॥*

                                  (स्कन्दपुराण)


*अर्थ—* कार्तिक महीनेमें एक हजार बार गङ्गामें स्नान करनेसे, माघमें सौ बार गङ्गामें स्नान करनेसे और वैशाखमें करोड़ बार नर्मदामें स्नान करनेसे जो फल होता है, वह प्रयागमें कुम्भपर्वपर केवल एक ही बार स्नान करनेसे प्राप्त होता है।


विष्णुपुराणमें_भी_कहा_गया_है—

*अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च।*

*लक्षं प्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नाननेन तत्फलम्॥*


*अर्थ—* हजार अश्वमेध-यज्ञ करनेसे, सौ वाजपेययज्ञ करनेसे और लाख बार पृथ्वीकी प्रदक्षिणा करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह फल केवल प्रयागके कुम्भके स्नानसे प्राप्त होता है।


*३. उज्जैनस्नानकी_महिमा*


*कुशस्थलीमहाक्षेत्रं योगिनां स्थानदुर्लभम्।*

*माधवे धवले पक्षे सिंहे जीवे अजे  रवौ।।*

  

*उज्जयिन्यां महायोगे स्नाने मोक्षमवाप्नुयात्॥*

                  (स्कन्दपु० अवन्तीखण्ड)


*अर्थ—* जब सूर्य मेष राशिपर और गुरु सिंह राशिपर स्थित हों तब वैशाख शुक्लपक्षमें योगियोंके लिए भी दुर्लभ शुभ कम्भके समयमें उज्जैनके शिप्रातीर्थमें स्नान करने मात्रसे मोक्षकी प्राप्ति होती है


अन्यत्र भी आया है-

*धारायां च तदा कुम्भो जायते खलु मुक्तिदः।*


*४.नासिकस्नानकी_महिमा*


*पष्टिवर्षसहस्राणि भागीरथ्यवगाहनम्।*

*सकृद् गोदावरीस्नानं सिंहस्थे च बृहस्पतौ॥*


*अर्थ—* जिस समय बृहस्पति सिंह राशिपर हो उस समय गोदावरीमें केवल एक बार स्नान करनेसे मनुष्य साठ हजार वर्षोंतक गङ्गास्नान करनेके सदृश पुण्य प्राप्त करता है।


ब्रह्मवैवर्तपुराणमें_लिखा_है—

*अश्वमेधफलं चैव लक्षगोदानजं फलम्।*

*प्राप्नोति स्नानमात्रेण गोदायां सिंहगे गुरौ॥*


*अर्थ—* जिस समय बृहस्पति सिंह राशिपर स्थित हो, उस समय गोदावरीमें केवल स्नानमात्रसे ही मनुष्य अश्वमेधयज्ञ करनेका तथा एक लक्ष गोदान करनेका पुण्य प्राप्त करता है।


ब्रह्माण्डपुराणमें_कहा_गया_है—

*यस्मिन् दिने गुरुर्याति सिंहराशौ महामते।*

*तस्मिन् दिने महापुण्यं नरः स्नानं समाचरेत्॥*


*यस्मिन् दिने सुरगुरुः सिंहराशिगतो भवेत्।*

*तस्मिंस्तु गौतमीस्नानं कोटिजन्माघनाशनम्॥*


*तीर्थानि नद्यश्च तथा समुद्रा:*

     *क्षेत्राण्यरण्यानि तथाऽऽश्रमाश्च।*

*वसन्ति सर्वाणि च वर्षमेकं*

    *गोदातटे सिंहगते सुरेज्ये॥*


*कुम्भपर्वके_आद्यप्रवर्तक_भगवान्_श्रीशंकराचार्य—*


जिस कुम्भपर्वका उल्लेख वेदों और पुराणोंमें मिलता है उसकी प्राचीनताके संबंधमें तो किसीको संदेह होनेका अवसर ही नहीं है।

किंतु यह बात अवश्य विचारणीय है कि कुम्भपर्वका धार्मिकरूपमें प्रचार- प्रसार करनेका श्रीगणेश किसने किया? इस विषयमें बहुत अन्वेषण करनेपर सिद्ध होता है कि कुंभको प्रवर्तित करने वाले भगवान् आद्यशंकराचार्य ही हैं। उन्होंने कुम्भपर्वके प्रचारकी व्यवस्था केवल धार्मिक संस्कृतिको सुदृढ़ करनेके लिए ही की थी। उन्हींके आदेशानुसार आज भी कुम्भपर्वके चारों सुप्रसिद्ध तीर्थोंमें सभी संप्रदायोंके साधु- महात्मागण देश- काल परिस्थितिके अनुरूप लोक कल्याणकी दृष्टिसे धर्मका प्रचार करते हैं जिससे समस्त मानव समाजका कल्याण होता है।

 भगवान् शंकराचार्यजीके प्रवर्तक होनेके कारण ही आज भी कुम्भपर्वका मेला मुख्यतः साधुओंका ही माना जाता है, वस्तुतः साधु मंडली ही कुम्भका जीवन है।


*पूर्णकुम्भ_और_अर्द्धकुम्भ—*


 हिंदू समाजमें प्राचीन कालसे ही कुंभपर्व मनानेकी प्रथा चली आ रही है हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चारों स्थानोंमें क्रमशः 12- 12 वर्षोंपर प्रायः पूर्णकुंभका मेला लगता है, जबकि हरिद्वार तथा प्रयागमें अर्द्धकुम्भपर्व भी मनाया जाता है। किंतु यह अर्द्धकुम्भपर्व उज्जैन और नासिकमें नहीं होता।

 अर्द्धकुम्भपर्वके प्रारंभ होनेके संबंधमें कुछ विद्वानोंका विचार है कि मुगलसाम्राज्यमें हिंदूधर्मपर जब अधिक कुठाराघात होने लगा उस समय चारों दिशाओंके शंकराचार्योंने हिंदू धर्मकी रक्षाके लिए हरिद्वार एवं प्रयागमें साधु- महात्माओं एवं बड़े-बड़े विद्वानोंको बुलाकर विचार विमर्श किया था, तभीसे हरिद्वार और प्रयागमें अर्द्धकुम्भ मेला होने लगा। शास्त्रोंमें जहां कुंभपर्वकी चर्चा प्राप्त है वहां पूर्णकुंभका ही उल्लेख मिलता है।


*हरिद्वारकुम्भपूर्व_वैष्णव_बैठक_वृन्दावन —*

वैष्णव संतोंने हरिद्वारकुंभमें जानेसे पूर्व एकत्रित होकर जानेके लिए बैठक रूपमें प्रारंभ किया था। इस वर्षमें भी श्रीवृंदावनमें वैष्णव बैठक है।

इसको कुंभ मानना सर्वथा अशास्त्रीय  है


*महाकुम्भपर्व_और_हमारे_कर्तव्य—*


1. कुम्भपर्वमें सम्मिलित होनेवाले प्रत्येक मनुष्यको चाहिये कि वह कुम्भपर्वस्थानमें जबतक रहे तबतक निष्कपट, सरलहृदय, स्वार्थरहित एवं धर्मपरायण होकर रहे।


2. ईश्वरमें श्रद्धाभक्ति रखना ही सुखशान्तिप्राप्तिका सच्चा साधन है। अतः उठते- बैठते, जागते-सोते, खाते-पीते सभी अवस्थाओंमें भगवान्का स्मरण करना चाहिये।


3. प्राणिमात्रमें गुणदोष स्वाभाविक होते हैं, इस दृष्टिसे स्वयं अपनेमें गुण और दोष

दोनोंकी कल्पना कर भूलकर भी दूसरेका दोष नहीं देखना चाहिये।


4. कुम्भतीर्थस्थलमें पहुँचकर यथानियम, यथाधिकार सबको दैनिक तीर्थस्नान, देवमन्दिरोंका दर्शन, सन्ध्योपासन, तर्पण, बलिवैश्वदेव, देवपूजन और वेदपुराणादिका स्वाध्याय करना चाहिये।


5. सर्वदा समस्त इन्द्रियोंको अपने वशमें रखते हुए क्रोधसे बचना चाहिये- *क्रोध: पापस्य कारणम्।*


6. यज्ञ-यागादि एवं ब्राह्मणोंको मुक्तहस्त होकर दान देना चाहिये।


7. नियत समयमें साधु-महात्मा एवं विद्वानोंके दर्शन और उनके सदुपदेशद्वारा अपने जीवनको पवित्र बनाना चाहिये।


8. खान-पान, रहन-सहन आदि सात्त्विक होना चाहिये।


9. एक समय फलाहार और एक समय अन्नाहार करना चाहिये।


10. तीर्थमें दान लेनेसे बचना चाहिये।


11. जिस तीर्थस्थानमें मनुष्य जाय, उसे वहाँके महत्त्वसे अवश्य परिचित होना चाहिये।


12. तीर्थमें यज्ञ-यागादि धर्मानुष्ठानोंके करने तथा भागवतादि पुराणोंके श्रवणका बहुत फल लिखा है। अतः यथाशक्ति सबको धार्मिक कार्यमें हाथ बँटाना चाहिये।


13. तीर्थस्थानमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान-इन नियमोंका पूर्णतया पालन करना चाहिये।


14. अपने इष्टदेवताका सर्वदा स्मरण करते रहना चाहिये।


15. तीर्थमें जाकर भूलकर भी किसीका अनिष्टचिन्तन नहीं करना चाहिये।


16. तीर्थस्थानमें यथासम्भव अपने ही अन्न और वस्त्रका उपभोग करना चाहिये।


17. कुम्भपर्वमें घृतपूर्ण कुम्भका  विद्वान् ब्राह्मणको दान करना चाहिये।


18. यथाशक्ति साधु-महात्माओं तथा ब्राह्मणोंको भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करना चाहिये।


19. कुम्भपर्वमें स्नान करते समय कुम्भके स्वरूपका ध्यान और कुम्भप्रार्थना तथा उस तीर्थकी प्रार्थना करके ही स्नान करना चाहिये।


20. कुम्भपर्वमें स्नान करनेके पूर्व कलश (कुम्भ)-मुद्रा दिखलाकर और उसमें अमृतकी भावना करके ही स्नान करना चाहिये।


21. कुम्भस्नानकी विधिमें जो कुछ त्रुटि हो जाए उसकी पूर्णताके लिए भगवान् श्रीहरिका स्मरण अवश्य करना चाहिए। 


नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव 🙏🙏

सोमवार, 16 दिसंबर 2024

देव उपासना में निषिद्ध वस्त्र

 देव उपासना में निषिद्ध वस्त्र

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“न स्यूते न दग्धेन पारक्येन विशेषतः । 

मूषिकोत्कीर्ण जीर्णेन कर्म कुर्याद्विचक्षणः ||महा भा०||)”


सिले हुए वस्त्र से , जले हुए वस्त्र से, विशेषकर दूसरे के वस्त्र से, चूहे से कटे हुए वस्त्र से धर्मकार्य नहीं करना चाहिए।


“(जीर्णं नीलं संधितं च पारक्यं मैथुने धृतम् । 

छिन्नाग्रमुपवस्त्रं च कुत्सितं धर्मतो विदुः ।। 

आचारादर्शे नृसिंहपुराणवचन)”


जीर्ण, नीला, सीला हुआ, दूसरे का, संभोगावस्था में पहना हुआ, जिसका तत्र भाग कटा हो एवं छोर रहित वस्त्र धर्मकी दृष्टि से धारण न करें,


“अहतं यन्त्र निर्मुक्तं वासः प्रोक्तं स्वयंभुवा । 

शस्तं तन् मांगलिक्येषु तावत् कालं न सर्वदा ||कश्यपः||”


यन्त्र(मील) से निकले हुए बने हुए वस्त्र को “अहत” वस्त्र माना हैं | वह यन्त्र से निकला हुआ कपड़ा विवाह आदि मांगलिक कार्य में उतने ही समय तक ठीक हैं, हमेशा के लिए नहीं।


“अन्यत्र यज्ञादौ तु इषद्धौतमिति ।

न_च_यज्ञादिकमपि #मांगलिक्यमेवेत्याशंकनीयम् । विवाहोत्सवादेरैहिकसुखस्याभ्युदयस्य च मांगलिकत्वात् । यज्ञोदेस्तु #धर्मरूपादृष्टफलदत्वेन मांगलिकत्वाभावात् ” ||मदन पारि० शातातपः ||”


म०पारि ग्रन्थ में शातातप नामक ऋषि की व्याख्या अहतवस्त्र का — अन्यत्र यज्ञादि अनुष्ठान में( प्रशस्त )नहीं , यज्ञादि कर्म तो अदृष्ट (अप्रत्यक्ष) फल देनेवाले हैं, इस कारण से वे मांगलिक कर्म में नहीं आते है, निष्कर्ष यह हैं कि विवाहादि मांगलिक कार्यों का प्रत्यक्ष संस्काररूपी फल हैं, ऐसा यज्ञादिकर्मों का दृष्ट फल नहीं ।


“( इषद्धौतमरजकादिना सकृद्धौतमिति नागदेवाह्निके व्याख्यातम् ||मदन पारि०| )— 


इषद्धौत का मतलब बिना धोबी के एकबार धुला वस्त्र।


”स्वयं धौतेन कर्त्तव्या क्रिया धर्म्या विपश्चिता । 

न तु तेजकधौतेन नोपभुक्तेन च क्वचित् ||

चतुर्वर्ग चिंता०वृद्धमनुवचन|| )”


विद्वान् कर्मकर्ता को स्वयं(ब्रह्मचारी स्वयं/ गृहस्थी स्वयं वा पत्नी द्वारा)धूले वस्त्र से धार्मिक क्रिया को सम्पन्न करे।


धोबी से धुले हुए एवं भोजन में पहने हुए या दूसरे के पहने हुए वस्त्र से कभी भी धार्मिक कर्म न करे।

शनिवार, 30 नवंबर 2024

मल-मूत्र त्याग के बाद शौच का महत्व

 *मलमूत्रशुक्रत्याग के बाद शास्त्र ने जल और मिट्टी से गुह्याङ्ग और हाथ-पैर की शुद्धि निश्चित्त की हैं उसमें पवित्रता होना ही मुख्यत्वे प्रयोजन हैं।*



 ऐसी शुद्धि साबुन शेम्पू सेनेटाईझर आदि से नहीं होती उपर से केमीकल अण्डे की जर्दी , प्राणियो की चरबी आदि से बने साबून-शेम्पू से तो अपवित्रता ही रहती हैं । 


हे आधुनिको ! ऐसी कोई वैज्ञानिकता नहीं हैं कि साबुनशेम्पू से शौचाचार करनेपर  शास्त्रीय अधिकारीत्व प्राप्त होता हो !


चरबी , वीर्य(रज), रक्त , मज्जा , मूत्र , विष्ठा , नासिकामल , कर्णमल , कफ , आँसु , आँखो के चीपडे़  और प्रस्वेद -- यह बारह मनुष्य के मल हैं  मनुस्मृति ५/१३५ , इसमें से प्रथम छह की शुद्धि जल और मिट्टी के संयोग से ही होती हैं ,दूसरे छहों की केवल जल से  वैसे भी शुद्ध्याशुद्धि विषय शास्त्र का हैं  "प्योर अथवा क्लिन " जैसा कोई शब्द हमारे शास्त्र में नहीं हैं । क्लिन का अर्थ होता हैं साफ करना साबुनशेम्पू  से सफाई करने पर धूला केमिकल युक्त जहरीला पानी  सुक्ष्मजीवों का नाशक हैं जबकि हमारे धर्मशास्त्र में मच्छर तक  जीवो पर हिंसाभाव नहीं हैं। 


मिट्टी में रहे अपराध नाशक गुण ->  


हे वसुन्धरे !  तुम्हारे उपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामनावतार में  भगवान विष्णुने भी तुम्हें अपने पैरों से नापा था  मृत्तिके मेरे किये हुए पूर्वसञ्चित पापो को हरे  इत्यादि ...


*"अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते  विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे। उद्धृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना।। मृत्तिके हर मे पापं यन्मया पूर्वसञ्चितम् ।।*

~~~~~= ⚛️अग्नि पुराण⚛️=~~~


कैसी मिट्टी चाहिये , कितनी , किसे  कहाँ कितनी बार मिट्टी लगाकर शौच करना आवश्यक हैं यह सब शास्त्र आज्ञा करते हैं और अक्कल के आधुनिक दुश्मनो ! आपके बहकावे में , आपके कहावें में हम क्यों आवे क्योंकि हम "मानव्यो हि प्रजाः " मनु की ही तो प्रजा हैं , दानव्यप्रजा नहीं हैं कि किसी के कहावे में आकर  अमेध्यपदार्थ को शरीरपर घीसडचूपड करा करे  ।


अकेला शौचाचार नहीं अपितु कौनसे द्रव्य , वस्त्र , पात्र, पदार्थ  की  शुद्धि कैसे की जाती हैं वह भी  स्मृतियों में उक्त हैं । मनुस्मृति अध्याय ५  / १०५ से  १४५  अवलोकनीय हैं।


विशेष - जो ब्राह्मण मल- मूत्रत्याग, शुक्रमोचनोपरांत अपने गृह्यसूत्रादि शास्त्रप्रोक्त संख्यानुसार जल और मिट्टी से शौचाचार नहीं करते उस विप्र को चाहे वेदविद् भी क्यों न हो उसे किसी भी प्रकार का काम्यदान न दिया जाय , शौचाचारशून्य, ब्रह्मचर्यादि व्रतभ्रष्ट वेदविहीन विप्र को अन्नदान करनेपर , स्वयं अन्नदेवता रुदनपूर्वक विचार करते हैं कि मैरे ऐसे कौनसे पाप हैं कि मैं इनके भाण्ड में आ गया । शौचाचारहीन , ब्रह्मसूत्रविहीन  विप्र के द्वारा किया हुआ होमहवन ,दान और तप आदि नष्ट हो जाते हैं --->

*नष्टशौचे व्रतभ्रष्टे विप्रे वेदविवर्जिते।* 

*रोदित्यन्नं दीयमानं किं मया दुष्कृतं कृतम्।। शौचहीनाश्च ये विप्रा न च यज्ञोपवीतिनः।*

*हुतं दत्तं तपस्तेषां नश्यत्यत्र न संशयः।।* 

~~~~= दानसागरे व्यासः=~~~


मृत्तिका के बिना शौच करनेवाला विप्र  सातदिन में बिना प्रायश्चित्त किये शूद्र के समान वेदादिकर्मो में अनधिकारी हो जाता हैं - >

*चतुर्वर्ग चिंतामणि प्रायश्चित्त खण्डे -- मृत्तिकाभिर्विना शौचं स्नानमुष्णोदकेन वै। कूपोदकेन सप्ताहं कृत्वा विप्रः स शूद्रवान्।।* ~~~~~~~~~~⚛️गौतम⚛️~~~~~~~~

*उष्णोदकेन सप्ताहं तथा कूपोदकेन च । मृत्तिकाभिर्विना शौचं तथा कूपोदकेन च। कृत्वा शौचादिकं विप्रः शूद्र एव न संशयः।।* ~~~~~~~~~⚛️जाबालिः⚛️~~~~~~~


अनधिकारी हुए इसलिये तो कहा हैं कि - शौचाचार में सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि त्रैवर्णिकद्विजो के द्विजत्व संरक्षण का मूल शौचाचार ही हैं। शौचाचार का पालन न करनेपर सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं -


*शौचे यत्नः सदा कार्यः*

        *शौचमूलो द्विजः स्मृतः।*

*शौचाचारविहीनस्य* 

       *समस्ता निष्फलाः क्रियाः।।* 

~~~~~~⚛️वाधूल स्मृति ⚛️~~~~~


और शौचादि के आचार आदि विप्रो को अपनी अपनी वेदशाखा के गृह्यसूत्र से ही मान्य हैं अन्यथा अनाचारी होते ही वेद भी पावन नहीं कर सकते ->


*कर्ममात्रं_स्वसूत्रशास्त्राद्*

            *आचारादि_प्रचोदितम्।।((लौगाक्षीस्मृतौ।।)) तथा च*


*स्वकल्पोक्तं परित्यज्य*    

             *योऽन्यकल्पोक्तमाचरेत्।*

*स्वाचारहीनोऽनाचारस्तं -*

              *- -- वेदा न पुनंति हि।।* 

[स्वकल्पोक्तं यथा गृह्यसूत्राद्युक्तम्]

=====~ मन्त्रभ्रान्तिहर सूत्र~======


आचरण का परित्याग करने से ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व विनाशोन्मुख हो जाता हैं - >


*अनभ्यासेन वेदानां आचारस्य च वर्जनात्।*

*आलस्यादन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्राञ्जिघांसति।।*

=====⚛️((( मनुः ५/४।।))⚛️=====

मंगलवार, 26 नवंबर 2024

चंद्रायण व्रत

 *चंद्रायण व्रत*

💐💐💐💐💐💐💐💐



चान्द्रायण व्रत के विधि विधान अनेक ग्रन्थों में मिलते हैं। विभिन्न शारीरिक और मानसिक स्थिति के व्यक्तियों लिए—विभिन्न पापों के प्रायश्चितों के लिए— आत्म-बल को विभिन्न दिशाओं में बढ़ाने के लिए शास्त्रकारों ने अनेक विधानों के चान्द्रायण व्रतों का उल्लेख किया है। देश-काल-पात्र के भेद से भी इस प्रकार के अन्तर बताये गये हैं। किसी युग में लोगों की शारीरिक स्थिति बहुत अच्छी होती थी, वे देर तक कठोर उपवास एवं तप साधन कर सकते थे। इसलिए उन परिस्थितियों को देखते हुए उस प्रकार के कठोर विधानों का बनाया जाना स्वाभाविक भी था। प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार कृच्छ और मृदु भेद से दो प्रकार के चान्द्रायण व्रत माने गये हैं। कृच्छ चान्द्रायण व्रत का विधान उन लोगों के लिए है जिनसे कोई बड़े पाप बन पड़े हैं, अथवा तीव्र तपश्चर्या कर सकने की सामर्थ्य जिनमें है। बहुत कर इनका उपयोग सतयुग आदि पूर्व युगों में होता था जब मनुष्य की सहन-शक्ति पर्याप्त थी।


मृदु चान्द्रायण-शारीरिक और मानसिक दुर्बलता वाले व्यक्ति यों के लिए है। इसे स्त्री-पुरुष, बाल, वृद्ध सभी कर सकते हैं। छोटे पापों के शमन और थोड़ा आत्म-बल बढ़ाने में भी इस व्रत से बहुत सहायता मिलती है। आरोग्य की दृष्टि से यह एक प्रभावशाली चिकित्सा का काम देता है। विशेषतया उदर रोगों के लिए यह चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करता है। मृदु चान्द्रायण को कई ग्रन्थों में शिशु चान्द्रायण भी कहा गया है क्योंकि वह कठोर चान्द्रायण की तुलना में बालक ही है।


स्कन्द पुराण में चान्द्रायण व्रत की चर्चा के संदर्भ में युधिष्ठिर और कृष्ण का संवाद मिलता है। युधिष्ठिर पूछते हैं :—


*चक्रायुध नमस्तेऽस्तु देवेश गरु णध्वज।*


*चान्द्रारण विधिं पुण्यमाख्याहि भगवन मम॥*


अर्थात्—”चक्रायुध और गरुणध्वज धारण करने वाले भगवान कृष्ण को नमस्कार करके युधिष्ठिर ने पवित्र चान्द्रायण व्रत का वर्णन करने की प्रार्थना की।”


भगवान ने इस महाव्रत का महात्म्य बताते हुए कहा—


*चान्द्रायणेन चीर्णेन यत् कृतं तेन दुष्कृतम्।*


*तत् सर्व तत्क्षणादेव भस्मी भवति काष्ठवत्॥*


अर्थात्—”चान्द्रायण व्रत करने से मनुष्य के किये हुए पाप उसी प्रकार दूर हो जाते हैं जैसे जलती हुई अग्नि में काष्ठ जल जाता है।”


*अनेक घोर पापानि उपपातक मेवच।*


*चान्द्रायर्णन नश्यन्ति वायुना पाँसवो यथा॥*


अर्थात् “अनेकों घोर पाप तथा सामान्य पाप चान्द्रायण व्रत से उसी प्रकार उड़ जाते हैं जैसे आँधी चलने पर धुलि के कण।”


कृच्छ चान्द्रायण के विधान-भाग का कुछ अंश इस प्रकार है :—


*शोधयेत् तु शरीरं स्वं पंचगव्येन मन्त्रितः।*


*स शिरः कृष्ण पक्षस्य तत् प्रकुर्वीत वापनम्।*


*शुक्ल वासाः शुचिर्भूखा मौञ्जों वन्धीत मेखलाम्*


*पलाश दण्डमादाय ब्रह्मचर्य व्रते स्थितः।*


*कृ तोपवासः पूर्व तु शुक्ल प्रतिपादे द्विजः।*


नदी संगम तीर्थेषु शुचौ देशे गृहेऽपिवा।


अर्थात्—”शरीर को (दश स्नान-विधान से) शुद्ध करें। अभिमन्त्रित करके पंचगव्य पीवे। सिर को मुँड़ाकर कृष्ण पक्ष में व्रत आरम्भ करे। श्वेत वस्त्र पहने, पवित्र रहे, कटि प्रवेश में मेखला (लँगोट) धारण किये रहें। पलास की लाठी लिये रहे और ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे। नदी के संगम, तीर्थ एवं पुष्प प्रदेशों में अथवा घर में रहकर भी शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा में चान्द्रायण व्रत आरम्भ करें।


*नदीं गत्वा विशुद्धात्मा सोमाय वरु णाय च।*


*आदित्याय नमस्कृत्वा ततः स्नायात् समाहितः।*


*उतीर्योदक माचम्य च स्थित्वा पूर्वतो मुखः।*


*प्राणायामं ततः कृत्वा पवित्रेरभिसेचनम्।*


*वीरघ्न मृषभं वापि तथा चाप्यधमर्वषम्।*


गायत्री मम देवीं या सावित्रीं वा जपेत् ततः।


अर्थात्—”शुद्ध मन से नदी में स्नान करे। सोम, वरुण और सूर्य को नमस्कार करें। पूर्व को मुख करके बैठे। आचमन, प्राणायाम, पवित्री कारण, अभिसिंचन, अधमर्षण आदि संध्या-कृत्यों को करता हुआ सावित्री-गायत्री का जप करें।”


*आधारा वाज्य भागो च प्रणवं व्याहतिस्तथा।*


*वारु णं चैव पञ्चैव हुत्वा सर्वान् यथा क्रमम्।*


*प्रणम्य धाग्निं सोमं च भस्य धृत्वा यथा विधि।*


“आधार होम, आज्य भाग, प्रणव, व्याहृति, वरुण आदि का विधिपूर्वक हवन करें और अग्नि तथा सोम को प्रणाम करके मस्तक पर भस्म धारण करें।”


*अंगुल्थग्रे स्थितं पिण्डं गायञ्याचाभिमन्त्रयेत्।*


*अंगुलीभिस्त्रिभि पिण्डं प्राश्नीयात् प्रां शुचिः।*


*यथा च वर्धते सोमो ह्रसते च यथा पुनः।*


तथा पिण्डाश्च वर्धन्ते ह्रसन्ते च दिने दिने।


अर्थात्—”तीन अँगुलियों पर आ सके इतना अन्न का पिण्ड गायत्री से अभिमन्त्रित करके पूर्व की ओर मुख करके खाये। जिस प्रकार कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा घटता है उसी प्रकार भोजन घटाये और शुक्ल पक्ष में जैसे चन्द्रमा बढ़ता है वैसे-वैसे बढ़ावे।


कृच्छ चान्द्रायण के चार भेद माने गये हैं। (1) पिपीलिका मध्य चान्द्रायण। (2) यव मध्य चान्द्रायण। (3) यति चान्द्रायण। (4) शिशु चान्द्रायण। इन चारों में ही 240 ग्रास भोजन एक महीने में करना पड़ता है। पिपीलिका मध्य चान्द्रायण वह है जिसमें पूर्णमासी का 15 ग्रास खाकर क्रमशः एक-एक ग्रास घटाते हैं और अमावस्या व प्रतिपदा को निराहार रहकर दोज से एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए पूर्णिमा को पुनः 15 ग्रासों पर जा पहुँचते हैं।


यव मध्य चान्द्रायण शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होता है। अमावस्या के दिन उपवास करके शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को एक ग्रास लेवे इसके पश्चात् पूर्णिमा तक एक-एक ग्रास बढ़ाता हुआ 15 ग्रास तक पहुँचे। इसके बाद कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से एक-एक ग्रास घटाते हुए अमावस्या को निराहार की स्थिति तक जा पहुँचे।


यति चान्द्रायण में मध्याह्न को प्रतिदिन आठ-आठ ग्रास खाता रहे। न किसी दिन कम करे न अधिक।


शिशु चान्द्रायण में प्रातः 4 ग्रास और सायंकाल 4 ग्रास खाए जाते हैं और यही क्रम नित्य रहता है।


इस प्रकार इन सभी कृच्छ चान्द्रायणों में एक महीने में 240 ग्रास भोजन किया जाता है। ग्रास के दो अर्थ किये गये हैं। वीद्धायन का कथन है—


*“पिण्डान् प्रकृति स्थात प्राश्नति”*


अर्थात्—साधारणतया मनुष्य जितना बड़ा ग्रास खाता है वही ग्रास का परिमाण है। महर्षि अत्रि ने इस संदर्भ में अपना मत भिन्न व्यक्त किया है। उनने लिखा है :—


*कुम्कुटाण्ड प्रमाणं स्याद् यावद् वास्य मुख विशेत्।*


*एतं ग्रासं विजानीयुः शुद्ध्यर्थे काय शोधनम्॥*


अर्थात्—”मुर्गी के अण्डे की बराबर ग्रास माना जाय अर्थात् जितना मुँह में समा सके उसे ग्रास कहा जाय।”


शास्त्रकारों ने जहाँ अनेक विधि-विधानों का वर्णन किया है वहाँ देश, काल, पात्र की परिस्थितियों का ध्यान रखने का भी निर्देश दिया है। कृच्छ चान्द्रायण व्रत की कुछ बातें ऐसी हैं जो आज की स्थिति में सर्वसाधारण के लिए उपयुक्त नहीं। सिर का मुण्डन कराना किसी समय साधारण बात रही होगी। आज कोई व्यक्ति समाज में इस प्रकार रहे तो उस पर व्यंग-बाण छोड़े जायेंगे और मूर्ख ठहराया जायगा। सधवा महिलाओं के लिए तो यह एक प्रकार से असम्भव ही होगा। इसी प्रकार पूरे भोजन में जितने ग्रासों की सीमा नियत है उतने मात्र से गुजारा भी कठिन है। जप तथा होम, दान आदि का जो विस्तृत वर्णन है, उतना भी सबसे नहीं निभ सकता। इसलिए वर्तमान परिस्थितियों में मृदु चान्द्रायण व्रत ही सर्वसाधारण के लिए उपयोगी हो सकता है।


मृदु चान्द्रायण करते हुए भी गायत्री पुरश्चरण करने से अन्तःकरण में सात्विकता एवं आत्म-बल की असाधारण वृद्धि होती देखी गई है। इस एक महीने की अवधि में मनोभूमि में आशाजनक परिवर्तन होता है। कुविचारों और कुकर्मों की ओर से मन में घृणा उत्पन्न होती है और भविष्य में शुद्ध जीवन व्यतीत करने की भावना स्वयमेव जागृत होने लगती हैं। पिछले किये हुए पापों के प्रति आत्म-ग्लानि और प्रायश्चित की आकाँक्षा जागृत होने से मनुष्य का अन्तरात्मा अपने को धिक्कारता है और जो हानि समाज को पहुँचाई है उसे उस रूप में ज्यों की त्यों न सही किसी दूसरी प्रकार से पूर्ण करने की योजना बनाता है। शरीर से कष्ट सहकर उपवास करना, मन से आत्म-निरीक्षण करते हुए अपनी भूलों को ढूँढ़ना, हटाना और जो अशुभ अब तक बन पड़ा है उसकी क्षतिपूर्ति के लिए किन्हीं पुण्य कर्मों का आयोजन करना यही चान्द्रायण व्रत का मूल आधार है। यदि आधार स्थिर रहे तो चान्द्रायण व्रत का पूरा-पूरा लाभ साधक को मिल सकता है, भले ही आहार तथा आकार सम्बन्धी विषयों में थोड़ी ढील भी रखी जाय। वृहद् चान्द्रायण का विधान कठिन और मृदु चान्द्रायण का सुगम है। स्थिति के अनुसार ही इनमें से एक का चुनाव करना चाहिए। आज की स्थिति मृदु चान्द्रायण की ही है पर उसमें भी भावनात्मक उत्कृष्टता बनी रहे तो प्रतिफल में कोई विशेष अन्तर नहीं आता।


विशेष... विशिष्ट विषय वस्तु अपने आचार्य पुरोहित या जिन्होने इस व्रत को किया हो उन्हीं का मार्गदर्शन लें।



  नारायण

🪷🌷🪷

                        🚩 हर हर महादेव 🚩


मंगलवार, 12 नवंबर 2024

सरल हवन विधि

 सरल हवन विधि 

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मित्रो, नवरात्र के अंत मे पूर्ण सिद्धि हेतु हवन की परंपरा रही है अतः यहां पर हम सरल, संक्षिप्त हवन की विधि प्रस्तुत कर रहे हैं। इसे अपनाकर लाभ लें। 


आवश्यक सामग्री :-


1. दशांग या हवन सामग्री , दुकान पर आपको मिल जाएगा. पंचमेवा, लोंग, कालीमिर्च, गूगल, लोबान, अगर-तगर, चंदन चूरा, काले तिल, जौ, अक्षत (साबुत चावल) , बूरा/गुड़ की शक्कर, घी, पीली सरसों, 


2. घी ( अच्छा वाला लें , भले कम लें , पूजा वाला घी न लें क्योंकि वह ऐसी चीजों से बनता है जिसे आपको खाने से दुकानदार मना करता है तो ऐसी चीज आप देवी को कैसे अर्पित कर सकते हैं )


3. कपूर आग जलाने के लिए .


4. एक नारियल गोला या सूखा नारियल पूर्णाहुति के लिए ,


★ हवनकुंड हो तो बढ़िया . 


★ हवनकुंड न हो तो गोल बर्तन मे कर सकते हैं .

फर्श गरम हो जाता है इसलिए नीचे ईंट , यमुना रेती रखें उसपर पात्र रखें.   


★ लकड़ी जमा लें और उसके नीचे में कपूर रखकर जला दें. हवनकुंड की अग्नि प्रज्जवलित हो जाए तो पहले घी की आहुतियां दी जाती हैं.


★ सात बार अग्नि देवता को आहुति दें और अपने हवन की पूर्णता की प्रार्थना करें


“ ॐ अग्नये स्वाहा “........7 घृत आहुति दें।


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इन मंत्रों से शुद्ध घी की आहुति दें-


ॐ प्रजापतये स्वाहा । इदं प्रजापतये न मम् ।


ॐ इन्द्राय स्वाहा । इदं इन्द्राय न मम् ।


ॐ अग्नये स्वाहा । इदं अग्नये न मम ।


ॐ सोमाय स्वाहा । इदं सोमाय न मम ।


ॐ भूः स्वाहा ।.........एक घृत आहुति

ॐ भुवः स्वाहा ।.......एक घृत आहुति

ॐ स्व: स्वाहा ।.......एक घृत आहुति

ॐ भूर्भुवः स्व: स्वाहा ।.......एक घृत आहुति


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अब इन मंत्रों से हवन सामग्री से आहूति दें


ऊं गं गणपतये नमः स्वाहा, ...... 3 आहुति दें। 


ऊं भ्रं अष्टभैरवाय नम: स्वाहा,......3 आहुति दें। 


ऊं गुं गुरुभ्यो नम: स्वाहा,......3 आहुति दें। 


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उसके बाद हवन सामग्री से हवन करें .


नवग्रह मंत्र :-


ऊँ घृणि सूर्याय नमः स्वाहा


ऊँ सों सोमाय नमः स्वाहा


ऊं अं अंगारकाय नमः स्वाहा


ऊँ बुं बुधाय नमः स्वाहा


ऊँ बृं बृहस्पतये नमः स्वाहा


ऊँ शुं शुक्राय नमः स्वाहा


ऊँ शं शनये नमः स्वाहा


ऊँ रां राहवे नमः स्वाहा


ऊँ कें केतवे नमः स्वाहा


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गायत्री मंत्र :-


ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् स्वाहा....3 आहुति दें।


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ऊं कुल देवताभ्यो नम: स्वाहा,......3 आहुति दें। 


ऊं स्थान देवताभ्यो नम: स्वाहा,......3 आहुति दें। 


ऊं वास्तु देवताभ्यो नम: स्वाहा,......3 आहुति दें। 


ऊं ग्राम देवताभ्यो नम: स्वाहा,......3 आहुति दें। 


ॐ सर्वेभ्यो गुरुभ्यो नमः स्वाहा ,......3 आहुति दें। 


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   ★ नीचे लिखे मंत्रों से भी 3-3आहुति दें। 


ऊं सरस्वती सहित ब्रह्माय नम: स्वाहा। 


ऊं लक्ष्मी सहित विष्णुवे नम: स्वाहा,


ऊं शक्ति सहित शिवाय नम: स्वाहा


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माता के नर्वाण मंत्र से 108 बार आहुतियां दे


ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै स्वाहा....... 108 आहुति ।


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हवन के बाद नारियल के गोले में कलावा बांध लें. चाकू से उसके ऊपर के भाग को काट लें. उसके मुंह में घी, हवन सामग्री, (ऐच्छीक पंचमेवा, जायफल, बूरा) आदि डाल दें.


पूर्ण आहुति मंत्र पढ़ते हुए उसे हवनकुंड की अग्नि में रख दें.


पूर्णाहुति मंत्र-


ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।


इसका अर्थ है :-


वह पराशक्ति या महामाया पूर्ण है , उसके द्वारा उत्पन्न यह जगत भी पूर्ण हूँ , उस पूर्ण स्वरूप से पूर्ण निकालने पर भी वह पूर्ण ही रहता है ।


वही पूर्णता मुझे भी प्राप्त हो और मेरे कार्य , अभीष्ट मे पूर्णता मिले ....  


इस मंत्र को कहते हुए पूर्ण आहुति देनी चाहिए.


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★ उसके बाद यथाशक्ति दक्षिणा माता के पास रख दें,


★ फिर आरती करें.


★ अंत मे क्षमा प्रार्थना करें.


★ माताजी को समर्पित दक्षिण किसी गरीब महिला या कन्या को दान मे दें ।


★★★ हवन के अंत मे हाथ न तो झटके और न झाड़े, साफ सूखे कपड़े से आराम से पोंछ लें। उस कपड़े को भी न झाड़े वरना सारा हवन कर्म व्यर्थ हो जाएगा। 


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शनिवार, 9 नवंबर 2024

मनुष्य को किस किस अवस्थाओं में भगवान विष्णु को किस किस नाम से स्मरण करना चाहिए।?

 मनुष्य को किस किस अवस्थाओं में भगवान विष्णु को किस किस नाम से स्मरण करना चाहिए।

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भगवान विष्णु के 16 नामों का एक छोटा श्लोक प्रस्तुत है।



औषधे चिंतयते विष्णुं, भोजन च जनार्दनम।

शयने पद्मनाभं च विवाहे च प्रजापतिं ॥

युद्धे चक्रधरं देवं प्रवासे च त्रिविक्रमं।

नारायणं तनु त्यागे श्रीधरं प्रिय संगमे ॥

दुःस्वप्ने स्मर गोविन्दं संकटे मधुसूदनम् ।

कानने नारसिंहं च पावके जलशायिनाम ॥

जल मध्ये वराहं च पर्वते रघुनन्दनम् ।

गमने वामनं चैव सर्व कार्येषु माधवम् ॥

षोडश एतानि नामानि प्रातरुत्थाय य: पठेत । 

सर्व पाप विनिर्मुक्ते, विष्णुलोके महियते ॥


(1) औषधि लेते समय विष्णु

(2) भोजन के समय - जनार्दन

(3) शयन करते समय - पद्मनाभ  

(4) विवाह के समय - प्रजापति

(5) युद्ध के समय चक्रधर

(6) यात्रा के समय त्रिविक्रम

(7) शरीर त्यागते समय - नारायण

(8) पत्नी के साथ - श्रीधर

(9) नींद में बुरे स्वप्न आते समय - गोविंद 

(10) संकट के समय - मधुसूदन 

(11) जंगल में संकट के समय - नृसिंह

(12) अग्नि के संकट के समय जलाशयी 

(13) जल में संकट के समय - वाराह

(14) पहाड़ पर संकट के समय - रघुनंदन

(15) गमन करते समय वामन

(16) अन्य सभी शेष कार्य करते समय - माधव


ॐ विष्णवै नमः

शुक्रवार, 8 नवंबर 2024

पंचमुखी क्यों हुए हनुमानजी

 *!!~"पंचमुखी क्यों हुए हनुमानजी,?"~!!*

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लंका में महा बलशाली मेघनाद के साथ बड़ा ही भीषण युद्ध चला, अंतत: मेघनाद मारा गया। रावण जो अब तक मद में चूर था राम सेना, खास तौर पर लक्ष्मण का पराक्रम सुनकर थोड़ा तनाव में आया। रावण को कुछ दुःखी देखकर रावण की मां कैकसी ने उसके पाताल में बसे दो भाइयों अहिरावण और महिरावण की याद दिलाई, रावण को याद आया कि यह दोनों तो उसके बचपन के मित्र रहे हैं।लंका का राजा बनने के बाद उनकी सुध ही नहीं रही थी। रावण यह भली प्रकार जानता था कि अहिरावण व महिरावण तंत्र-मंत्र के महा पंडित, जादू टोने के धनी और मां कामाक्षी के परम भक्त हैं। रावण ने उन्हें बुलावा भेजा और कहा कि वह अपने छल-बल-कौशल से श्री राम व लक्ष्मण का सफाया कर दे। यह बात दूतों के जरिए विभीषण को पता लग गयी। युद्ध में अहिरावण व महिरावण जैसे परम मायावी के शामिल होने से विभीषण चिंता में पड़ गए।विभीषण को लगा कि भगवान श्री राम और लक्ष्मण की सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी करनी पड़ेगी। इसके लिए उन्हें सबसे बेहतर लगा कि इसका जिम्मा परम वीर हनुमान जी को राम-लक्ष्मण को सौंप कर दिया जाए। साथ ही वे अपने भी निगरानी में लगे थे। राम-लक्ष्मण की कुटिया लंका में सुवेल पर्वत पर बनी थी। हनुमान जी ने भगवान श्री राम की कुटिया के चारों ओर एक सुरक्षा घेरा खींच दिया। कोई जादू टोना तंत्र-मंत्र का असर या मायावी राक्षस इसके भीतर नहीं घुस सकता था।अहिरावण और महिरावण श्री राम और लक्ष्मण को मारने उनकी कुटिया तक पहुंचे, पर इस सुरक्षा घेरे के आगे उनकी एक न चली, असफल रहे। ऐसे में उन्होंने एक चाल चली, महिरावण विभीषण का रूप धर के कुटिया में घुस गया। राम व लक्ष्मण पत्थर की सपाट शिलाओं पर गहरी नींद सो रहे थे। दोनों राक्षसों ने बिना आहट के शिला समेत दोनो भाइयों को उठा लिया और अपने निवास पाताल की ओर लेकर चल दिए। विभीषण लगातार सतर्क थे, उन्हें कुछ देर में ही पता चल गया कि कोई अनहोनी घट चुकी है। विभीषण को महिरावण पर शक था, उन्हें राम-लक्ष्मण की जान की चिंता सताने लगी।विभीषण ने हनुमान जी को महिरावण के बारे में बताते हुए कहा कि वे उसका पीछा करें। लंका में अपने रूप में घूमना राम भक्त हनुमान के लिए ठीक न था, सो उन्होंने पक्षी का रूप धारण कर लिया और पक्षी का रूप में ही निकुंभला नगर पहुंच गये। निकुंभला नगरी में पक्षी रूप धरे हनुमान जी ने कबूतर और कबूतरी को आपस में बतियाते सुना। कबूतर, कबूतरी से कह रहा था कि अब रावण की जीत पक्की है। अहिरावण व महिरावण राम-लक्ष्मण को बलि चढा देंगे, बस सारा युद्ध समाप्त।कबूतर की बातों से ही बजरंगबली को पता चला कि दोनों राक्षस राम लक्ष्मण को सोते में ही उठाकर कामाक्षी देवी को बलि चढाने पाताल लोक ले गये हैं। हनुमान जी वायु वेग से रसातल की और बढ़े और तुरंत वहां पहुंचे। हनुमान जी को रसातल के प्रवेश द्वार पर एक अद्भुत पहरेदार मिला। इसका आधा शरीर वानर का और आधा मछली का था, उसने हनुमान जी को पाताल में प्रवेश से रोक दिया। द्वारपाल हनुमान जी से बोला कि मुझ को परास्त किए बिना तुम्हारा भीतर जाना असंभव है। दोनों में लड़ाई ठन गयी। हनुमान जी की आशा के विपरीत यह बड़ा ही बलशाली और कुशल योद्धा निकला।दोनों ही बड़े बलशाली थे, दोनों में बहुत भयंकर युद्ध हुआ, परंतु वह बजरंगबली के आगे न टिक सका। आखिर कार हनुमान जी ने उसे हरा तो दिया पर उस द्वारपाल की प्रशंसा करने से नहीं रह सके। हनुमान जी ने उस वीर से पूछा कि हे वीर तुम अपना परिचय दो। तुम्हारा स्वरूप भी कुछ ऐसा है कि उससे कौतुहल हो रहा है। उस वीर ने उत्तर दिया- मैं हनुमान का पुत्र हूं और एक मछली से पैदा हुआ हूं, मेरा नाम है मकरध्वज। हनुमान जी ने यह सुना तो आश्चर्य में पड़ गए। वह वीर की बात सुनने लगे, मकरध्वज ने कहा- लंका दहन के बाद हनुमान जी समुद्र में अपनी अग्नि शांत करने पहुंचे, उनके शरीर से पसीने के रूप में तेज गिरा।उस समय मेरी मां ने आहार के लिए मुख खोला था। वह तेज मेरी माता ने अपने मुख में ले लिया और गर्भवती हो गई. उसी से मेरा जन्म हुआ है। हनुमान जी ने जब यह सुना तो मकरध्वज को बताया कि वह ही हनुमान हैं। मकरध्वज ने हनुमान जी के चरण स्पर्श किए और हनुमान जी ने भी अपने बेटे को गले लगा लिया और वहां आने का पूरा कारण बताया। उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि अपने पिता के स्वामी की रक्षा में सहायता करो। मकरध्वज ने हनुमान जी को बताया कि कुछ ही देर में राक्षस बलि के लिए आने वाले हैं। बेहतर होगा कि आप रूप बदल कर कामाक्षी के मंदिर में जा कर बैठ जाएं। उनको सारी पूजा झरोखे से करने को कहें!हनुमान जी ने पहले तो मधुमक्खी का वेश धरा और मां कामाक्षी के मंदिर में घुस गये। हनुमान जी ने मां कामाक्षी को नमस्कार कर सफलता की कामना की और फिर पूछा- हे मां क्या आप वास्तव में श्री राम जी और लक्ष्मण जी की बलि चाहती हैं ? हनुमान जी के इस प्रश्न पर मां कामाक्षी ने उत्तर दिया कि नहीं। मैं तो दुष्ट अहिरावण व महिरावण की बलि चाहती हूं। यह दोनों मेरे भक्त तो हैं पर अधर्मी और अत्याचारी भी हैं। आप अपने प्रयत्न करो. सफल रहोगे। मंदिर में पांच दीप जल रहे थे अलग-अलग दिशाओं और स्थान पर, मां ने कहा यह दीप अहिरावण ने मेरी प्रसन्नता के लिए जलाये हैं जिस दिन ये एक साथ बुझा दिए जा सकेंगे, उसका अंत सुनिश्चित हो सकेगा।इस बीच गाजे-बाजे का शोर सुनाई पड़ने लगा। अहिरावण, महिरावण बलि चढाने के लिए आ रहे थे। हनुमान जी ने अब मां कामाक्षी का रूप धरा। जब अहिरावण और महिरावण मंदिर में प्रवेश करने ही वाले थे कि हनुमान जी का महिला स्वर गूंजा। हनुमान जी बोले- मैं कामाक्षी देवी हूं और आज मेरी पूजा झरोखे से करो। झरोखे से पूजा आरंभ हुई ढेर सारा चढावा मां कामाक्षी को झरोखे से चढाया जाने लगा। अंत में बंधक बलि के रूप में राम लक्ष्मण को भी उसी से डाला गया. दोनों बंधन में बेहोश थे। हनुमान जी ने तुरंत उन्हें बंधन मुक्त किया। अब पाताल लोक से निकलने की बारी थी, पर उससे पहले मां कामाक्षी के सामने अहिरावण महिरावण की बलि देकर उनकी इच्छा पूरी करना और दोनों राक्षसों को उनके किए की सज़ा देना शेष था।अब हनुमान जी ने मकरध्वज को कहा कि वह अचेत अवस्था में लेटे हुए भगवान राम और लक्ष्मण का खास ख्याल रखे और उसके साथ मिलकर दोनों राक्षसों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। पर यह युद्ध आसान न था। अहिरावण और महिरावण बडी मुश्किल से मरते तो फिर पाँच पाँच के रूप में जिदां हो जाते। इस विकट स्थिति में मकरध्वज ने बताया कि अहिरावण की एक पत्नी नागकन्या है। अहिरावण उसे हर लाया है. वह उसे पसंद नहीं करती, पर मन मार के उसके साथ है, वह अहिरावण के राज जानती होगी। उससे उसकी मृ त्यु का उपाय पूछा जाये. आप उसके पास जाएं और सहायता मांगे।मकरध्वज ने राक्षसों को युद्ध में उलझाये रखा और उधर हनुमान अहिरावण की पत्नी के पास पहुंचे। नागकन्या से उन्होंने कहा कि यदि तुम अहिरावण के मृ त्यु का भेद बता दो तो हम उसे मारकर तुम्हें उसके चंगुल से मुक्ति दिला देंगे। अहिरावण की पत्नी ने कहा- मेरा नाम चित्रसेना है। मैं भगवान विष्णु की भक्त हूं। मेरे रूप पर अहिरावण मर मिटा और मेरा अपहरण कर यहां कैद किये हुए है, पर मैं उसे नहीं चाहती. लेकिन मैं अहिरावण का भेद तभी बताउंगी, जब मेरी इच्छा पूरी की जायेगी। हनुमान जी ने अहिरावण की पत्नी नागकन्या चित्रसेना से पूछा कि आप अहिरावण की मृत्यु का रहस्य बताने के बदले में क्या चाहती हैं ? आप मुझसे अपनी शर्त बताएं, मैं उसे जरूर मानूंगा।चित्रसेना ने कहा- दुर्भाग्य से अहिरावण जैसा असुर मुझे हर लाया. इससे मेरा जीवन खराब हो गया। मैं अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलना चाहती हूं. आप अगर मेरा विवाह श्री राम से कराने का वचन दें तो मैं अहिरावण के वध का रहस्य बताऊंगी। हनुमान जी सोच में पड़ गए. भगवान श्री राम तो एक पत्नी निष्ठ हैं. अपनी धर्म पत्नी देवी सीता को मुक्त कराने के लिए असुरों से युद्ध कर रहे हैं. वह किसी और से विवाह की बात तो कभी न स्वीकारेंगे. मैं कैसे वचन दे सकता हूं ? फिर सोचने लगे कि यदि समय पर उचित निर्णय न लिया तो स्वामी के प्राण ही संकट में हैं। असमंजस की स्थिति में बेचैन हनुमानजी ने ऐसी राह निकाली कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।हनुमान जी बोले- तुम्हारी शर्त स्वीकार है, पर हमारी भी एक शर्त है. यह विवाह तभी होगा, जब तुम्हारे साथ भगवान राम जिस पलंग पर आसीन होंगे, वह सही सलामत रहना चाहिए। यदि वह टूटा तो इसे अपशकुन मानकर वचन से पीछे हट जाऊंगा। जब महाकाय अहिरावण के बैठने से पलंग नहीं टूटता तो भला श्रीराम के बैठने से कैसे टूटेगा ! यह सोच कर चित्रसेना तैयार हो गयी. उसने अहिरावण समेत सभी राक्षसों के अंत का सारा भेद बता दिया। चित्रसेना ने कहा- दोनों राक्षसों के बचपन की बात है. इन दोनों के कुछ शरारती राक्षस मित्रों ने कहीं से एक भ्रामरी को पकड़ लिया. मनोरंजन के लिए वे उसे भ्रामरी को बार-बार काटों से छेड़ रहे थे।भ्रामरी साधारण भ्रामरी न थी. वह भी बहुत मायावी थी, किंतु किसी कारण वश वह पकड़ में आ गई थी. भ्रामरी की पीड़ा सुनकर अहिरावण और महिरावण को दया आ गई और अपने मित्रों से लड़ कर उसे छुड़ा दिया। मायावी भ्रामरी का पति भी अपनी पत्नी की पीड़ा सुनकर आया था. अपनी पत्नी की मुक्ति से प्रसन्न होकर उस भौंरे ने वचन दिया था कि तुम्हारे उपकार का बदला हम सभी भ्रमर जाति मिलकर चुकाएंगे। ये भौंरें अधिकतर उसके शयन कक्ष के पास रहते हैं. ये सब बड़ी भारी संख्या में हैं। दोनों राक्षसों को जब भी मारने का प्रयास हुआ है और ये मरने को हो जाते हैं तब भ्रमर उनके मुख में एक बूंद अमृत का डाल देते हैं।उस अमृत के कारण ये दोनों राक्षस मरकर भी जिंदा हो जाते हैं. इनके कई-कई रूप उसी अमृत के कारण हैं. इन्हें जितनी बार फिर से जीवन दिया गया उनके उतने नए रूप बन गए हैं. इसलिए आपको पहले इन भंवरों को मारना होगा। हनुमान जी रहस्य जानकर लौटे. मकरध्वज ने अहिरावण को युद्ध में उलझा रखा था. तो हनुमान जी ने भंवरों का खात्मा शुरू किया. वे आखिर हनुमान जी के सामने कहां तक टिकते। जब सारे भ्रमर खत्म हो गए और केवल एक बचा तो वह हनुमान जी के चरणों में लोट गया. उसने हनुमान जी से प्राण रक्षा की याचना की. हनुमान जी पसीज गए. उन्होंने उसे क्षमा करते हुए एक काम सौंपा।हनुमान जी बोले- मैं तुम्हें प्राण दान देता हूं पर इस शर्त पर कि तुम यहां से तुरंत चले जाओगे और अहिरावण की पत्नी के पलंग की पाटी में घुसकर जल्दी से जल्दी उसे पूरी तरह खोखला बना दोगे। भंवरा तत्काल चित्रसेना के पलंग की पाटी में घुसने के लिए प्रस्थान कर गया. इधर अहिरावण और महिरावण को अपने चमत्कार के लुप्त होने से बहुत अचरज हुआ पर उन्होंने मायावी युद्ध जारी रखा। भ्रमरों को हनुमान जी ने समाप्त कर दिया फिर भी हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों अहिरावण और महिरावण का अंत नहीं हो पा रहा था. यह देखकर हनुमान जी कुछ चिंतित हुए।फिर उन्हें कामाक्षी देवी का वचन याद आया. देवी ने बताया था कि अहिरावण की सिद्धि है कि जब पांचो दीपकों एक साथ बुझेंगे तभी वे नए-नए रूप धारण करने में असमर्थ होंगे और उनका वध हो सकेगा। हनुमान जी ने तत्काल पंचमुखी रूप धारण कर लिया. उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख। उसके बाद हनुमान जी ने अपने पांचों मुख द्वारा एक साथ पांचों दीपक बुझा दिए. अब उनके बार बार पैदा होने और लंबे समय तक जिंदा रहने की सारी आशंकायें समाप्त हो गयीं थी. हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों शीघ्र ही दोनों राक्षस मारे गये।इसके बाद उन्होंने श्री राम और लक्ष्मण जी की मूर्च्छा दूर करने के उपाय किए. दोनो भाई होश में आ गए. चित्रसेना भी वहां आ गई थी. हनुमान जी ने कहा- प्रभो ! अब आप अहिरावण और महिरावण के छल और बंधन से मुक्त हुए। पर इसके लिए हमें इस नागकन्या की सहायता लेनी पड़ी थी. अहिरावण इसे बल पूर्वक उठा लाया था. वह आपसे विवाह करना चाहती है. कृपया उससे विवाह कर अपने साथ ले चलें. इससे उसे भी मुक्ति मिलेगी। श्री राम हनुमान जी की बात सुनकर चकराए. इससे पहले कि वह कुछ कह पाते हनुमान जी ने ही कह दिया- भगवन आप तो मुक्तिदाता हैं. अहिरावण को मारने का भेद इसी ने बताया है. इसके बिना हम उसे मारकर आपको बचाने में सफल न हो पाते।कृपा निधान इसे भी मुक्ति मिलनी चाहिए. परंतु आप चिंता न करें. हम सबका जीवन बचाने वाले के प्रति बस इतना कीजिए कि आप बस इस पलंग पर बैठिए, बाकी का काम मैं संपन्न करवाता हूं। हनुमान जी इतनी तेजी से सारे कार्य करते जा रहे थे कि इससे श्री राम जी और लक्ष्मण जी दोनों चिंता में पड़ गये. वह कोई कदम उठाते कि तब तक हनुमान जी ने भगवान राम की बांह पकड़ ली। हनुमान जी ने भावावेश में प्रभु श्री राम की बांह पकड़ कर चित्रसेना के उस सजे-धजे विशाल पलंग पर बिठा दिया. श्री राम कुछ समझ पाते कि तभी पलंग की खोखली पाटी चरमरा कर टूट गयी।पलंग धराशायी हो गया. चित्रसेना भी जमीन पर आ गिरी. हनुमान जी हंस पड़े और फिर चित्रसेना से बोले- अब तुम्हारी शर्त तो पूरी हुई नहीं, इसलिए यह विवाह नहीं हो सकता. तुम मुक्त हो और हम तुम्हें तुम्हारे लोक भेजने का प्रबंध करते हैं। चित्रसेना समझ गयी कि उसके साथ छल हुआ है. उसने कहा कि उसके साथ छल हुआ है. मर्यादा पुरुषोत्तम के सेवक उनके सामने किसी के साथ छल करें, यह तो बहुत अनुचित है. मैं हनुमान को श्राप दूंगी। चित्रसेना हनुमान जी को श्राप देने ही जा ही रही थी कि श्री राम का सम्मोहन भंग हुआ. वह इस पूरे नाटक को समझ गये. उन्होंने चित्रसेना को समझाया- मैंने एक पत्नी धर्म से बंधे होने का संकल्प लिया है. इसलिए हनुमान जी को यह करना पड़ा. उन्हें क्षमा कर दो।क्रुद्ध चित्रसेना तो उनसे विवाह की जिद पकड़े बैठी थी. श्री राम ने कहा- मैं जब द्वापर में श्री कृष्ण अवतार लूंगा, तब तुम्हें सत्यभामा के रूप में अपनी पटरानी बनाउंगा. इससे वह मान गयी। हनुमान जी ने चित्रसेना को उसके पिता के पास पहुंचा दिया. चित्रसेना को प्रभु ने अगले जन्म में पत्नी बनाने का वरदान दिया था. भगवान विष्णु की पत्नी बनने की चाह में उसने स्वयं को अग्नि में भस्म कर लिया। श्री राम और लक्ष्मण, मकरध्वज और हनुमान जी सहित वापस लंका में सुवेल पर्वत पर लौट आये!


रविवार, 27 अक्टूबर 2024

रमा एकादशी विशेष

 रमा एकादशी विशेष

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रमा एकादशी कार्तिक माह की है, जिसका महत्व अधिक माना जाता हैं। यह एकादशी कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी हैं। इस वर्ष में रमा एकादशी व्रत आज 27 अक्टूबर रविवार के दिन स्मार्त (सन्यासी एवं गृहस्थ) एवं 28 अक्टूबर के दिन वैष्णव एवं निम्बार्क सम्प्रदाय द्वारा मनाई जाएगी। कार्तिक माह का विशेष महत्व होता है, इसलिए इस ग्यारस का महत्व भी अधिक माना जाता हैं।


क्यों कहते हैं इसे रमा एकादशी

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कार्तिक का महीना भगवान विष्णु को समर्पित होता है। हालांकि भगवान विष्णु इस समय शयन कर रहे होते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को ही वे चार मास बाद जागते हैं। लेकिन कृष्ण पक्ष में जितने भी त्यौहार आते हैं उनका संबंध किसी न किसी तरीके से माता लक्ष्मी से भी होता है। दिवाली पर तो विशेष रूप से लक्ष्मी पूजन तक किया जाता है। इसलिये माता लक्ष्मी की आराधना कार्तिक कृष्ण एकादशी से ही उनके उपवास से आरंभ हो जाती है। माता लक्ष्मी का एक अन्य नाम रमा भी होता है इसलिये इस एकादशी को रमा एकादशी भी कहा जाता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार जब युद्धिष्ठर ने भगवान श्री कृष्ण से कार्तिक मास की कृष्ण एकादशी के बारे में पूछा तो भगवन ने उन्हें बताया कि इस एकादशी को रमा एकादशी कहा जाता है। इसका व्रत करने से जीवन में सुख समृद्धि और अंत में बैकुंठ की प्राप्ति होती है।


रमा एकादशी व्रत तिथि व शुभ मुहूर्त

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एकादशी तिथि प्रारम्भ 👉 27 अक्टूबर को प्रातः 05:27 से।

एकादशी तिथि समाप्त 👉 28 अक्टूबर को प्रातः 07:50.


27 अक्टूबर के दिन व्रत रखने वालो के लिये एकादशी व्रत पारण👉 28 अक्टूबर प्रातः 06:36 से 07:50 तक।


28 अक्टूबर के दिन व्रत रखने वालो के लिये एकादशी व्रत पारण👉 29 अक्टूबर , प्रातः 06 बजकर 27 मिनट से 08 बजकर 40 मिनट तक।


रमा एकादशी व्रत कथा

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धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! कार्तिक कृष्ण एकादशी का क्या नाम है? इसकी विधि क्या है? इसके करने से क्या फल मिलता है। सो आप विस्तारपूर्वक बताइए। भगवान श्रीकृष्ण बोले कि कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम रमा है। यह बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली है। इसका माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।


हे राजन! प्राचीनकाल में मुचुकुंद नाम का एक राजा था। उसकी इंद्र के साथ मित्रता थी और साथ ही यम, कुबेर, वरुण और विभीषण भी उसके मित्र थे। यह राजा बड़ा धर्मात्मा, विष्णुभक्त और न्याय के साथ राज करता था। उस राजा की एक कन्या थी, जिसका नाम चंद्रभागा था। उस कन्या का विवाह चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ था। एक समय वह शोभन ससुराल आया। उन्हीं दिनों जल्दी ही पुण्यदायिनी एकादशी (रमा) भी आने वाली थी।


जब व्रत का दिन समीप आ गया तो चंद्रभागा के मन में अत्यंत सोच उत्पन्न हुआ कि मेरे पति अत्यंत दुर्बल हैं और मेरे पिता की आज्ञा अति कठोर है। दशमी को राजा ने ढोल बजवाकर सारे राज्य में यह घोषणा करवा दी कि एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए। ढोल की घोषणा सुनते ही शोभन को अत्यंत चिंता हुई औ अपनी पत्नी से कहा कि हे प्रिये! अब क्या करना चाहिए, मैं किसी प्रकार भी भूख सहन नहीं कर सकूँगा। ऐसा उपाय बतलाओ कि जिससे मेरे प्राण बच सकें, अन्यथा मेरे प्राण अवश्य चले जाएँगे।


चंद्रभागा कहने लगी कि हे स्वामी! मेरे पिता के राज में एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं करता। हाथी, घोड़ा, ऊँट, बिल्ली, गौ आदि भी तृण, अन्न, जल आदि ग्रहण नहीं कर सकते, फिर मनुष्य का तो कहना ही क्या है। यदि आप भोजन करना चाहते हैं तो किसी दूसरे स्थान पर चले जाइए, क्योंकि यदि आप यहीं रहना चाहते हैं तो आपको अवश्य व्रत करना पड़ेगा। ऐसा सुनकर शोभन कहने लगा कि हे प्रिये! मैं अवश्य व्रत करूँगा, जो भाग्य में होगा, वह देखा जाएगा।


इस प्रकार से विचार कर शोभन ने व्रत रख लिया और वह भूख व प्यास से अत्यंत पीडि़त होने लगा। जब सूर्य नारायण अस्त हो गए और रात्रि को जागरण का समय आया जो वैष्णवों को अत्यंत हर्ष देने वाला था, परंतु शोभन के लिए अत्यंत दु:खदायी हुआ। प्रात:काल होते शोभन के प्राण निकल गए। तब राजा ने सुगंधित काष्ठ से उसका दाह संस्कार करवाया। परंतु चंद्रभागा ने अपने पिता की आज्ञा से अपने शरीर को दग्ध नहीं किया और शोभन की अंत्येष्टि क्रिया के बाद अपने पिता के घर में ही रहने लगी।


रमा एकादशी के प्रभाव से शोभन को मंदराचल पर्वत पर धन-धान्य से युक्त तथा शत्रुओं से रहित एक सुंदर देवपुर प्राप्त हुआ। वह अत्यंत सुंदर रत्न और वैदुर्यमणि जटित स्वर्ण के खंभों पर निर्मित अनेक प्रकार की स्फटिक मणियों से सुशोभित भवन में बहुमूल्य वस्त्राभूषणों तथा छत्र व चँवर से विभूषित, गंधर्व और अप्सराअओं से युक्त सिंहासन पर आरूढ़ ऐसा शोभायमान होता था मानो दूसरा इंद्र विराजमान हो।


एक समय मुचुकुंद नगर में रहने वाले एक सोम शर्मा नामक ब्राह्मण तीर्थयात्रा करता हुआ घूमता-घूमता उधर जा निकला और उसने शोभन को पहचान कर कि यह तो राजा का जमाई शोभन है, उसके निकट गया। शोभन भी उसे पहचान कर अपने आसन से उठकर उसके पास आया और प्रणामादि करके कुशल प्रश्न किया। ब्राह्मण ने कहा कि राजा मुचुकुंद और आपकी पत्नी कुशल से हैं। नगर में भी सब प्रकार से कुशल हैं, परंतु हे राजन! हमें आश्चर्य हो रहा है। आप अपना वृत्तांत कहिए कि ऐसा सुंदर नगर जो न कभी देखा, न सुना, आपको कैसे प्राप्त हुआ।


तब शोभन बोला कि कार्तिक कृष्ण की रमा एकादशी का व्रत करने से मुझे यह नगर प्राप्त हुआ, परंतु यह अस्थिर है। यह स्थिर हो जाए ऐसा उपाय कीजिए। ब्राह्मण कहने लगा कि हे राजन! यह स्थिर क्यों नहीं है और कैसे स्थिर हो सकता है आप बताइए, फिर मैं अवश्यमेव वह उपाय करूँगा। मेरी इस बात को आप मिथ्या न समझिए। शोभन ने कहा कि मैंने इस व्रत को श्रद्धारहित होकर किया है। अत: यह सब कुछ अस्थिर है। यदि आप मुचुकुंद की कन्या चंद्रभागा को यह सब वृत्तांत कहें तो यह स्थिर हो सकता है।


ऐसा सुनकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने अपने नगर लौटकर चंद्रभागा से सब वृत्तांत कह सुनाया। ब्राह्मण के वचन सुनकर चंद्रभागा बड़ी प्रसन्नता से ब्राह्मण से कहने लगी कि हे ब्राह्मण! ये सब बातें आपने प्रत्यक्ष देखी हैं या स्वप्न की बातें कर रहे हैं। ब्राह्मण कहने लगा कि हे पुत्री! मैंने महावन में तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा है। साथ ही किसी से विजय न हो ऐसा देवताओं के नगर के समान उनका नगर भी देखा है। उन्होंने यह भी कहा कि यह स्थिर नहीं है। जिस प्रकार वह स्थिर रह सके सो उपाय करना चाहिए।


चंद्रभागा कहने लगी हे विप्र! तुम मुझे वहाँ ले चलो, मुझे पतिदेव के दर्शन की तीव्र लालसा है। मैं अपने किए हुए पुण्य से उस नगर को स्थिर बना दूँगी। आप ऐसा कार्य कीजिए जिससे उनका हमारा संयोग हो क्योंकि वियोगी को मिला देना महान पु्ण्य है। सोम शर्मा यह बात सुनकर चंद्रभागा को लेकर मंदराचल पर्वत के समीप वामदेव ऋषि के आश्रम पर गया। वामदेवजी ने सारी बात सुनकर वेद मंत्रों के उच्चारण से चंद्रभागा का अभिषेक कर दिया। तब ऋषि के मंत्र के प्रभाव और एकादशी के व्रत से चंद्रभागा का शरीर दिव्य हो गया और वह दिव्य गति को प्राप्त हुई।


इसके बाद बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने पति के निकट गई। अपनी प्रिय पत्नी को आते देखकर शोभन अति प्रसन्न हुआ। और उसे बुलाकर अपनी बाईं तरफ बिठा लिया। चंद्रभागा कहने लगी कि हे प्राणनाथ! आप मेरे पुण्य को ग्रहण कीजिए। अपने पिता के घर जब मैं आठ वर्ष की थी तब से विधिपूर्वक एकादशी के व्रत को श्रद्धापूर्वक करती आ रही हूँ। इस पुण्य के प्रताप से आपका यह नगर स्थिर हो जाएगा तथा समस्त कर्मों से युक्त होकर प्रलय के अंत तक रहेगा। इस प्रकार चंद्रभागा ने दिव्य आभू‍षणों और वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने पति के साथ आनंदपूर्वक रहने लगी।


हे राजन! यह मैंने रमा एकादशी का माहात्म्य कहा है, जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं, उनके ब्रह्महत्यादि समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों की एका‍दशियाँ समान हैं, इनमें कोई भेदभाव नहीं है। दोनों समान फल देती हैं। जो मनुष्य इस माहात्म्य को पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे समस्त पापों से छूटकर विष्णुलोक को प्राप्त होता हैं। इति शुभम्। == उद्देश्य ==कार्तिक मास में तो प्रात: सूर्योदय से पूर्व उठने, स्नान करने और दानादि करने का विधान है। इसी कारण प्रात: उठकर केवल स्नान करने मात्र से ही मनुष्य को जहां कई हजार यज्ञ करने का फल मिलता है, वहीं इस मास में किए गए किसी भी व्रत का पुण्यफल हजारों गुणा अधिक है। रमा एकादशी व्रत में भगवान विष्णु के पूर्णावतार भगवान जी के केशव रूप की विधिवत धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प एवं मौसम के फलों से पूजा की जाती है।


व्रत में एक समय फलाहार करना चाहिए तथा अपना अधिक से अधिक समय प्रभु भक्ति एवं हरिनाम संकीर्तन में बिताना चाहिए। शास्त्रों में विष्णुप्रिया तुलसी की महिमा अधिक है इसलिए व्रत में तुलसी पूजन करना और तुलसी की परिक्रमा करना अति उत्तम है। ऐसा करने वाले भक्तों पर प्रभु अपार कृपा करते हैं जिससे उनकी सभी मनोकामनाएं सहज ही पूरी हो जाती हैं।


वैसे तो किसी भी व्रत में श्रद्धा और आस्था का होना अति आवश्यक है परंतु भगवान सदा ही अपने भक्तों के पापों का नाश करने वाले हैं इसलिए कोई भी भक्त यदि अनायास ही कोई शुभ कर्म करता है तो प्रभु उससे भी प्रसन्न होकर उसके किए पापों से उसे मुक्त करके उसका उद्धार कर देते हैं। जो भक्त प्रभु की भक्ति श्रद्धा और आस्था के साथ करते हैं उनके सभी कष्टों का निवारण प्रभु अवश्य करते हैं क्योंकि इस दिन किए गए पुण्य कर्म में श्रद्धा, भक्ति एवं आस्था से ही मनुष्य को स्थिर पुण्य फल की प्राप्ति हो सकेगी।


भगवान जगदीश्वर जी की आरती

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ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी! जय जगदीश हरे।

भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करे॥

 

जो ध्यावै फल पावै, दुख बिनसे मन का।

सुख-संपत्ति घर आवै, कष्ट मिटे तन का॥ ॐ जय…॥


मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूं किसकी।

तुम बिनु और न दूजा, आस करूं जिसकी॥ ॐ जय…॥

 

तुम पूरन परमात्मा, तुम अंतरयामी॥

पारब्रह्म परेमश्वर, तुम सबके स्वामी॥ ॐ जय…॥

 

तुम करुणा के सागर तुम पालनकर्ता।

मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥ ॐ जय…॥

 

तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।

किस विधि मिलूं दयामय! तुमको मैं कुमति॥ ॐ जय…॥

 

दीनबंधु दुखहर्ता, तुम ठाकुर मेरे।

अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे॥ ॐ जय…॥

 

विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।

श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा॥ ॐ जय…॥

 

तन-मन-धन और संपत्ति, सब कुछ है तेरा।

तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा॥ ॐ जय…॥

 

जगदीश्वरजी की आरती जो कोई नर गावे।

कहतत फल पावे॥ ॐ जय।।


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कार्तिक मास में तुलसी की महिमा

 कार्तिक मास में तुलसी की महिमा

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ब्रह्मा जी कहे हैं कि कार्तिक मास में जो भक्त प्रातः काल स्नान करके पवित्र हो कोमल तुलसी दल से भगवान् दामोदर की पूजा करते हैं, वह निश्चय ही मोक्ष पाते हैं। पूर्वकाल में भक्त विष्णुदास भक्तिपूर्वक तुलसी पूजन से शीघ्र ही भगवान् के धाम को चला गया और राजा चोल उसकी तुलना में गौण हो गए। तुलसी से भगवान् की पूजा, पाप का नाश और पुण्य की वृद्धि करने वाली है। अपनी लगाई हुई तुलसी जितना ही अपने मूल का विस्तार करती है, उतने ही सहस्रयुगों तक मनुष्य ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित रहता है। यदि कोई तुलसी संयुत जल में स्नान करता है तो वह पापमुक्त हो आनन्द का अनुभव करता है। जिसके घर में तुलसी का पौधा विद्यमान है, उसका घर तीर्थ के समान है, वहाँ यमराज के दूत नहीं जाते। जो मनुष्य तुलसी काष्ठ संयुक्त गंध धारण करता है, क्रियामाण पाप उसके शरीर का स्पर्श नहीं करते। जहाँ तुलसी वन की छाया हो वहीं पर पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध करना चाहिए। जिसके कान में, मुख में और मस्तक पर तुलसी का पत्ता दिखाई देता है, उसके ऊपर यमराज दृष्टि नहीं डाल सकते।


          प्राचीन काल में हरिमेधा और सुमेधा नामक दो ब्राह्मण थे। वह जाते-जाते किसी दुर्गम वन में परिश्रम से व्याकुल हो गए, वहाँ उन्होंने एक स्थान पर तुलसी दल देखा। सुमेधा ने तुलसी का महान् वन देखकर उसकी परिक्रमा की और भक्ति पूर्वक प्रणाम किया। यह देख हरिमेधा ने पूछा कि 'तुमने अन्य सभी देवताओं व तीर्थ-व्रतों के रहते तुलसी वन को प्रणाम क्यों किया ?' तो सुमेधा ने बताया कि 'प्राचीन काल में जब दुर्वासा के शाप से इन्द्र का ऐश्वर्य छिन गया तब देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया तो धनवंतरि रूप भगवान् श्री हरि और दिव्य औषधियाँ प्रकट हुईं। उन दिव्य औषधियों में मण्डलाकार तुलसी उत्पन्न हुई, जिसे ब्रह्मा आदि देवताओं ने श्री हरि को समर्पित किया और भगवान् ने उसे ग्रहण कर लिया। भगवान् नारायण संसार के रक्षक और तुलसी उनकी प्रियतमा है। इसलिए मैंने उन्हें प्रणाम किया है।'


          सुमेधा इस प्रकार कह ही रहे थे कि सूर्य के समान अत्यंत तेजस्वी विशाल विमान उनके निकट उतरा। उन दोनों के समक्ष वहाँ एक बरगद का वृक्ष गिर पड़ा और उसमें से दो दिव्य पुरुष प्रकट हुए। उन दोनों ने हरिमेधा और सुमेधा को प्रणाम किया। दोनों ब्राह्मणों ने उनसे पूछा कि आप कौन हैं ? तब उनमें से जो बड़ा था वह बोला, मेरा नाम आस्तिक है। एक दिन मैं नन्दन वन में पर्वत पर क्रीड़ा करने गया था तो देवांगनाओं ने मेरे साथ इच्छानुसार विहार किया। उस समय उन युवतियों के हार के मोती टूटकर तपस्या करते हुए लोमश ऋषि पर गिर पड़े। यह देखकर मुनि को क्रोध आया। उन्होंने सोचा कि स्त्रियाँ तो परतंत्र होती हैं। अत: यह उनका अपराध नहीं, दुराचारी आस्तिक ही शाप के योग्य है। ऐसा सोचकर उन्होंने मुझे शापित किया - "अरे तू ब्रह्म राक्षस होकर बरगद के पेड़ पर निवास कर।" जब मैंने विनती से उन्हें प्रसन्न किया तो उन्होंने शाप से मुक्ति की विधि सुनिश्चित कर दी कि जब तू किसी ब्राह्मण के मुख से तुलसी दल की महिमा सुनेगा तो तत्काल तुझे उत्तम मोक्ष प्राप्त होगा। इस प्रकार मुक्ति का शाप पाकर मैं चिरकाल से इस वट वृक्ष पर निवास कर रहा था। आज दैववश आपके दर्शन से मेरा छुटकारा हुआ है।


          तत्पश्चात् वे दोनों श्रेष्ठ ब्राह्मण परस्पर पुण्यमयी तुलसी की प्रशंसा करते हुए तीर्थ यात्रा को चल दिए। इसलिए भगवान् विष्णु को प्रसन्नता देने वाले इस कार्तिक मास में तुलसी की पूजा अवश्य करनी चाहिए।

                          

                  *तुलसी विवाह की विधि व महत्व*


कार्तिक शुक्ला नवमी को द्वापर युग का प्रारंभ हुआ था। इस तिथि को नवमी से एकादशी तक मनुष्य शास्त्रोक्त विधि से तुलसी विवाह का उत्सव करें तो उसे कन्यादान का फल होता है। पूर्वकाल में कनक की पुत्री किशोरी ने एकादशी के दिन संध्या के समय तुलसी की वैवाहिक विधि संपन्न की थी इससे वह वैधव्य दोष से मुक्त हो गई थी। अब तुलसी विवाह की विधि सुनिये-


एक तोला स्वर्ण की भगवान् विष्णु की प्रतिमा बनवाएँ या अपनी शक्ति के अनुसार आधे या चौथाई तोले की बनवाएँ अथवा यह भी न होने पर उसे अन्य धातुओं के सम्मिश्रण से ही बनवाएँ। फिर तुलसी और भगवान् विष्णु की प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा करके स्तुति आदि के द्वारा भगवान् को निन्द्रा से जगावें। फिर पुरुष सूक्त से व घोडशोपचार से पूजा करें। पहले देशकाल स्मरण करके गणेश पूजन करे, फिर पुण्याह वाचन करके वेद मंत्रों का उच्चारण करते हुए बाजे आदि की ध्वनि से भगवान् विष्णु की प्रतिमा को तुलसी के निकट लाकर रख दें। प्रतिमा को सुंदर वस्त्रों व अलंकारों सजाए रहें उसी समय भगवान् का आह्वान इस मंत्र से करें-


              आगच्छ भगवत् देव अर्चयिष्यामि केशव।

              तुभ्यं दासयामि तुलसीं सर्वकामप्रदो भव॥


अर्थात्-हे भगवान् केशव ! आइए देव, मैं आपकी पूजा करूँगा, आपकी सेवा में तुलसी को समर्पित करूँगा आप मेरे सब मनोरथों को पूर्ण करें।


          इस प्रकार आह्वान के बाद तीन-तीन बार अर्ध्य, पाद्य और विष्टर का उच्चारण करके इन्हें भी भगवान् को समर्पित कर दे। तत्पश्चात् काँसे के पात्र में दही, घी और शहद रखकर उसे कांसे के ढक्कन से ढककर भगवान् को अर्पण करते हुए इस प्रकार कहें- 'हे वासुदेव, आपको नमस्कार है। यह मधुपर्क ग्रहण कीजिए।' तब दोनों को एक-दूसरे के समक्ष रखकर मंगल पाठ करें। इस प्रकार गोधूलि बेला में जब भगवान् सूर्य कुछ-कुछ दिखाई दे रहे हों, तब कन्यादान का संकल्प करें और भगवान् से यह प्रार्थना करें- "आदि, मध्य और अंत से रहित त्रिभुवन प्रतिपालक परमेश्वर ! इस तुलसी को आप विवाह की विधि से ग्रहण करें। यह पार्वती के बीज से प्रकट हुई है, वृंदावन की भस्म में स्थित रही है तथा आदि, मध्य और अंत में शून्य है। आपको तुलसी अत्यंत प्रिय है अतः इसे मैं आपकी सेवा में अर्पित करता हूँ। मैंने जल के घड़ों से सींचकर और अन्य सभी प्रकार की सेवाएँ करके, अपनी पुत्री की भाँति इसे पाला-पोसा है, बढ़ाया है और आपकी तुलसी आपको ही दे रहा हूँ। हे प्रभो ! कृपा करके इसे ग्रहण करें।"


          इस प्रकार तुलसी का दान करके फिर उन दोनों (तुलसी और विष्णु) की पूजा करें। अगले दिन प्रातः काल में पुनः पूजा करें। अग्नि की स्थापना करके उसमें द्वादशाक्षर मंत्र से खीर, घी, मधु और तिल मिश्रित द्रव्य की 108 आहुति दें। आप चाहें तो आचार्य से होम की शेष पूजा करवा सकते हैं। तब भगवान् से प्रार्थना करके कहें- "प्रभो ! आपकी प्रसन्नता के लिए मैंने यह व्रत किया, इसमें जो कमी रह गई हो, वह आपके प्रसाद से पूर्णताः को प्राप्त हो जाए। अब आप तुलसी के साथ बैकुण्ठ धाम में पधारें। आप मेरे द्वारा की गई पूजा से सदा संतुष्ट रहकर मुझे कृतार्थ करें।"


          इस प्रकार तुलसी विवाह का परायण करके भोजन करें, और भोजन के बाद तुलसी के स्वत: गिरे हुए पत्तों को खाऐं, यह प्रसाद सब पापों से मुक्त होकर भगवान् के धाम को प्राप्त होता है। भोजन में आँवला और बेर का फल खाने से उच्छिष्ट-दोष मिट जाता है।

                         

                            *तुलसी दल चयन*


स्कन्द पुराण का वचन है कि जो हाथ पूजार्थ तुलसी चुनते हैं, वे धन्य हैं-


             तुलसी ये विचिन्वन्ति धन्यास्ते करपल्लवाः।


तुलसी का एक-एक पत्ता न तोड़कर पत्तियों के साथ अग्रभाग को तोड़ना चाहिए। तुलसी की मंजरी सब फूलों से बढ़कर मानी जाती है। मंजरी तोड़ते समय उसमें पत्तियों का रहना भी आवश्यक माना जाता है। निम्नलिखित मंत्र पढ़कर पूज्यभाव से पौधे को हिलाए बिना तुलसी के अग्रभाग को तोड़े। इससे पूजा का फल लाख गुना बढ़ जाता है।

                         

                        *तुलसी दल तोड़ने का मंत्र*


             तुलस्यमृतजन्मासि  सदा  त्वं  केशवप्रिया।

             चिनोमी  केशवस्यार्थे  वरदा  भव  शोभने॥

             त्वदङ्गसम्भवैः  पत्रैः  पूजयामि यथा हरिम्।

             तथा कुरु पवित्राङ्गि! कलौ मलविनाशिनि॥

                         

                   *तुलसी दल चयन में निषेध समय*


वैधृति और व्यतीपात-इन दो योगों में, मंगल, शुक्र और रवि, इन तीन वारों में, द्वादशी, अमावस्या एवं पूर्णिमा, इन तीन तिथियों में, संक्रान्ति और जननाशौच तथा मरणाशौच में तुलसीदल तोड़ना मना है। संक्रान्ति, अमावस्या, द्वादशी, रात्रि और दोनों संध्यायों में भी तुलसीदल न तोड़ें, किंतु तुलसी के बिना भगवान् पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती, अत: निषेध समय में तुलसी वृक्ष से स्वयं गिरी हुई पत्ती से पूजा करें (पहले दिन के पवित्र स्थान पर रखे हुए तुलसीदल से भी भगवान् की पूजा की जा सकती है)। शालिग्राम की पूजा  के लिए वर्जित तिथियों में भी तुलसी तोड़ी जा सकती है। बिना स्नान के और जूता पहनकर भी तुलसी न तोड़ें।

                                                 

।। "जय जय तुलसी माता" ।।

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कार्तिक माह महात्म्य – पांचवाँ अध्याय 

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प्रभु मुझे सहारा है तेरा, 

जग के पालनहार।

कार्तिक मास माहात्म की, 

कथा करूँ विस्तार।।


राजा पृथु बोले – हे नारद जी! आपने कार्तिक मास में स्नान का फल कहा, अब अन्य मासों में विधिपूर्वक स्नान करने की विधि, नियम और उद्यापन की विधि भी बतलाइये।


देवर्षि नारद ने कहा – हे राजन्! आप भगवान विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए हैं, अत: यह बात आपको ज्ञात ही है फिर भी आपको यथाचित विधान बतलाता हूँ.


आश्विन माह में शुक्लपक्ष की एकादशी से कार्तिक के व्रत करने चाहिए. ब्रह्ममुहूर्त में उठकर जल का पात्र लेकर गाँव से बाहर पूर्व अथवा उत्तर दिशा में जाना चाहिए. दिन में या सांयकाल में कान में जनेऊ चढ़ाकर पृथ्वी पर घास बिछाकर सिर को वस्त्र से ढककर मुंह को भली-भाँति बन्द कर के थूक व सांस को रोककर मल व मूत्र का त्याग करना चाहिए. तत्पश्चात मिट्टी व जल से भली-भाँति अपने गुप्ताँगों को धोना चाहिए. उसके बाद जो मनुष्य मुख शुद्धि नहीं करता, उसे किसी भी मन्त्र का फल प्राप्त नहीं होता है. अत: दाँत और जीभ को पूर्ण रूप से शुद्ध करना चाहिए और निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए दातुन तोड़नी चाहिए।


‘हे वनस्पतये! आप मुझे आयु, कीर्ति, तेज, प्रज्ञा, पशु, सम्पत्ति, महाज्ञान, बुद्धि और विद्या प्रदान करो’. इस प्रकार उच्चारण करके वृक्ष से बारह अंगुल की दांतुन ले, दूध वाले वृक्षों से दांतुन नहीं लेनी चाहिए. इसी प्रकार कपास, कांटेदार वृक्ष तथा जले हुए वृक्ष से भी दांतुन लेना मना है. जिससे उत्तम गन्ध आती हो और जिसकी टहनी कोमल हो, ऎसे ही वृक्ष से दन्तधावन ग्रहण करना चाहिए।


प्रतिपदा, अमावस्या, नवमी, छठी, रविवार को, चन्द्र तथा सूर्यग्रहण में दांतुन नहीं तोड़नी चाहिए. तत्पश्चात भली-भाँति स्नान कर के फूलमाला, चन्दन और पान आदि पूजा की सामग्री लेकर प्रसन्नचित्त व भक्तिपूर्वक शिवालय में जाकर सभी देवी-देवताओं की अर्ध्य, आचमनीय आदि वस्तुओं से पृथक-पृथक पूजा करके प्रार्थना एवं प्रणाम करना चाहिए फिर भक्तों के स्वर में स्वर मिलाकर श्रीहरि का कीर्तन करना चाहिए।


मन्दिर में जो गायक भगवान श्रीहरि का कीर्तन करने आये हों उनका माला, चन्दन, ताम्बूल आदि से पूजन करना चाहिए क्योंकि देवालयों में भगवान विष्णु को अपनी तपस्या, योग और दान द्वारा प्रसन्न करते थे परन्तु कलयुग में भगवद गुणगान को ही भगवान श्रीहरि को प्रसन्न करने का एकमात्र साधन माना गया है।


नारद जी राजा पृथु से बोले – हे राजन! एक बार मैंने भगवान से पूछा कि हे प्रभु! आप सबसे अधिक कहां निवास करते हैं? इसका उत्तर देते हुए भगवान ने कहा – हे नारद! मैं वैकुण्ठ या योगियों के हृदय में ही निवास नहीं करता अपितु जहां मेरे भक्त मेरा कीर्तन करते हैं, मैं वहां अवश्य निवास करता हूँ. जो मनुष्य चन्दन, माला आदि से मेरे भक्तों का पूजन करते हैं उनसे मेरी ऎसी प्रीति होती है जैसी कि मेरे पूजन से भी नहीं हो सकती।


नारद जी ने फिर कहा – शिरीष, धतूरा, गिरजा, चमेली, केसर, कन्दार और कटहल के फूलों व चावलों से भगवान विष्णु की पूजा नहीं करनी चाहिए. अढ़हल,कन्द, गिरीष, जूही, मालती और केवड़ा के पुष्पों से भगवान शंकर की पूजा नहीं करनी चाहिए. जिन देवताओं की पूजा में जो फूल निर्दिष्ट हैं उन्हीं से उनका पूजन करना चाहिए. पूजन समाप्ति के बाद भगवान से क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए. यथा – ‘हे सुरेश्वर, हे देव! न मैं मन्त्र जानता हूँ, न क्रिया, मैं भक्ति से भी हीन हूँ, मैंने जो कुछ भी आपकी पूजा की है उसे पूरा करें’।


ऎसी प्रार्थना करने के पश्चात साष्टांग प्रणाम कर के भगवद कीर्तन करना चाहिए। श्रीहरि की कथा सुननी चाहिए और प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।


जो मनुष्य उपरोक्त विधि के अनुसार कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करते हैं वह जगत के सभी सुखों को भोगते हुए अन्त में मुक्ति को प्राप्त करते हैं।



शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2024

मिलावट के जहर से ऐसे बचे जानिए आप भी

 मिलावट के जहर से ऐसे बचे जानिए आप भी


1. जीरा (Cumin seeds)


जीरे की परख करने के ल‍िए थोड़ा सा जीरा हाथ में लीजि‍ए और दोनों हथेल‍ियों के बीच रगड़‍िए। अगर हथेली में रंग छूटे तो समझ जाइए क‍ि जीरा म‍िलावटी है क्‍योंक‍ि जीरा रंग नही छोड़ता।


2. हींग (Hing)


हींग की गुणवत्‍ता जांचने के ल‍िए उसे पानी में घोल‍िए।


अगर घोल दूध‍िया रंग का हो जाए तो समझ‍िए क‍ि हींग असली है। दूसरा तरीका है हींग का एक टुकड़ा जीभ पर रखें अगर हींग असली होगी तो कड़वापन या चरपराहट का अहसास होगा।


3. लाल मि‍र्च पाउडर (Red chilli powder)


लाल म‍िर्च पाउडर में सबसे ज्‍यादा म‍िलावट की जाती है।


इसकी जांच करने के ल‍िए पाउडर को पानी में डालिए, अगर रंग पानी में घुले और बुरादा जैसा तैरने लगे तो मान ल‍ीज‍िए की म‍िर्च पाउडर नकली है।


4. सौंफ और धन‍िया (Fennel & Coriander)


इन द‍िनों मार्केट में ऐसी सौंफ और धन‍िया म‍िलता है जिस पर हरे रंग की पॉल‍िश होती है ये नकली पदार्थ होते हैं, इसकी जांच करने के ल‍िए धन‍िए में आयोडीन म‍िलाएं, अगर रंग काला हो जाए तो समझ जाइए क‍ि धन‍िया नकली है।


5. काली म‍िर्च (Black pepper)


काली म‍िर्च पपीते के बीज जैसी ही द‍िखती है इसल‍िए कई बार म‍िलावटी काली म‍िर्च में पपीते के बीज भी होते हैं।इसको परखने के ल‍िए एक ग‍िलास पानी में काली म‍िर्च के दानें डालें।अगर दानें तैरते हैं तो मतलब वो दानें पपीते के हैं और काली म‍िर्च असली नहीं है


6. शहद (Honey)


शहद में भी खूब म‍िलावट होती है।


शहद में चीनी म‍िला दी जाती है, इसकी गुणवत्‍ता जांचने के ल‍िए शहद की बूंदों को ग‍िलास में डालें, अगर शहद तली पर बैठ रहा है तो इसका मतलब वो असली है नहीं तो नकली है।


7. देसी घी (Ghee)


घी में म‍िलावट की जांच करने के लिए दो चम्‍मच हाइट्रोक्‍लोर‍िक एस‍िड और दो चम्‍मच चीनी लें और उसमें एक चम्‍मच घी म‍िलाएं। अगर म‍िश्रण लाल रंग का हो जाता है तो समझ जाइए क‍ि घी में म‍िलावट है।


8. दूध (Milk)


दूध में पानी, म‍िल्‍क पाउडर, कैम‍िकल की म‍िलावट की जाती है। जांच करने के ल‍िए दूध में उंगली डालकर बाहर न‍िकाल‍ लीज‍िए। अगर उंगली में दूध च‍िपकता है तो समझ जाइए दूध शुद्ध है। अगर दूध न च‍िपके तो मतलब दूध में म‍िलावट है।


9. चाय की पत्‍ती (Tea)


चाय की जांच करने के ल‍िए सफेद कागज को हल्‍का भ‍िगोकर उस पर चाय के दाने ब‍िखेर दीज‍िए। अगर कागज में रंग लग जाए तो समझ जाइए चाय नकली है क्‍योंक‍ि असली चाय की पत्‍ती ब‍िना गरम पानी के रंग नहीं छोड़ती।


10. कॉफी (Coffee)


कॉफी की शुद्धता जांचने के ल‍िए उसे पानी में घोल‍िए।


शुद्ध कॉफी पानी में घुल जाती है, अगर घुलने के बाद कॉफी तली में चिपक जाए तो वो नकली है।

Suhana Safar

सोमवार, 21 अक्टूबर 2024

कार्तिक माहात्म्य (स्कनदपुराण के अनुसार)

 *कार्तिक माहात्म्य (स्कनदपुराण के अनुसार) अध्याय – ०३:--*



*(कार्तिक व्रत एवं नियम)*


*(१) ब्रह्मा जी कहते हैं - व्रत करने वाले पुरुष को उचित है कि वह सदा एक पहर रात बाकी रहते ही सोकर उठ जाय।* 


*(२) फिर नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा भगवान् विष्णु की स्तुति करके दिन के कार्य का विचार करे।* 


*(३) गाँव से नैर्ऋत्य कोण में जाकर विधिपूर्वक मल-मूत्र का त्याग करे। यज्ञोपवीत को दाहिने कान पर रखकर उत्तराभिमुख होकर बैठे।* 


*(४) पृथ्वी पर तिनका बिछा दे और अपने मस्तक को वस्त्र से भलीभाँति ढक ले,* 


*(५) मुख पर भी वस्त्र लपेट ले, अकेला रहे तथा साथ जल से भरा हुआ पात्र रखे।* 


*(६) इस प्रकार दिन में मल-मूत्र का त्याग करे।* 


*(७) यदि रात में करना हो तो दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके बैठे।* 


*(८) मलत्याग के पश्चात् गुदा में पाँच (५) या सात (७) बार मिट्टी लगाकर धोवे, बायें हाथ में दस (१०) बार मिट्टी लगावे, फिर दोनों हाथों में सात (७) बार और दोनों पैरों में तीन (३) बार मिट्टी लगानी चाहिये। - यह गृहस्थ के लिये शौच का नियम बताया गया है।* 


*(९) ब्रह्मचारी के लिये, इससे दूगुना (२), वानप्रस्थ के लिये तीन (३) गुना और, संन्यासी के लिये चौगुना (४) शौच कहा गया है। यह दिन में शौच का नियम है।* 


*(१०) रात में इससे आधा ही पालन करे। यात्रा में गये हुए मनुष्य के लिये उससे भी आधे शौच का विधान है, तथा स्त्रियों और शूद्रों के लिये उससे भी आधा शौच बताया गया है। शौचकर्म से हीन पुरुष की समस्त क्रियाएँ निष्फल होती हैं।* 


*(११) तदनन्तर दाँत और जिह्वा की शुद्धि के लिये वृक्ष के पास जाकर यह मन्त्र पढ़े :--* 


"*आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च। ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते।"* 


*'हे वनस्पते ! आप मुझे आयु, बल, यश, तेज, सन्तति, पशु, धन, वैदिक ज्ञान, प्रज्ञा और धारणा शक्ति प्रदान करें।'* 


*(१२) ऐसा कहकर वृक्ष से बारह (१२) अंगुल की दाँतुन ले,*


*(१३) दूध वाले वृक्षों से दाँतुन नहीं लेनी चाहिये।* 


*(१४) इसी प्रकार कपास, काँटेदार वृक्ष, तथा जले हुए पेड़ से भी दाँतन लेना मना है।* 


*(१५) जिससे उत्तम गन्ध आती हो और जिसकी टहनी कोमल हो, ऐसे ही वृक्ष से दन्तधावन ग्रहण करना चाहिये।* 


*(१६) उपवास के दिन, नवमी, और षष्ठी तिथि को, श्राद्ध के दिन, रविवार को, ग्रहण में, प्रतिपदा को तथा अमावास्या को भी काष्ठ से दाँतन नहीं करनी चाहिये [*]।*


*[ ]  उपवासे नवम्यां च षष्ठयां श्राद्धदिने रवौ । ग्रहणे प्रतिपद्दशैं न कुर्यादन्तधावनम् ।।* (स्क० पु० वै० का० मा० ५। १५) 


*(१७) जिस दिन दाँतन का विधान नहीं है, उस दिन बारह (१२) कुल्ले कर लेने चाहिये।* 


*(१८) विधिपूर्वक दाँतों को शुद्ध करके मुँह को जल से धो डाले और भगवान् विष्णु के नामों का उच्चारण करते हुए दो घड़ी रात रहते ही स्नान के लिये जलाशय पर जाय।*


*(१९) कार्तिक के व्रत का पालन करने वाला पुरुष विधि से स्नान करे।* 


*(२०) फिर धोती निचोड़कर अपनी रुचि के अनुसार तिलक करे।*


*(२१) तत्पश्चात् अपनी शाखा के अनुकूल आह्निकसूत्र की बतायी हुई पद्धति से सन्ध्योपासन करे।* 


*(२२) जब तक सूर्योदय न हो जाय तब तक गायत्री मन्त्र का जप करता रहे। यह रात्रि के अन्त का कृत्य बताया गया है।* 


*(२३) अब दिन का कार्य बताया जाता है। सन्ध्योपासना के अन्त में विष्णुसहस्त्रनाम आदि का पाठ करे, फिर देवालय में आकर पूजन प्रारम्भ करे।* 


*(२४) भगवत्सम्बन्धी पदों के गान, कीर्तन और नृत्य आदि कार्यों में दिन का प्रथम प्रहर व्यतीत करे। तत्पश्चात् आधे पहर तक भली भाँति पुराण-कथा का श्रवण करे।* 


*(२५) उसके बाद पुराण बाँचने वाले विद्वान् की और तुलसी की पूजा करके मध्याह्न का कर्म करने के पश्चात् दाल के सिवा शेष अन्न का भोजन करे।* 


*(२६) बलिवैश्वदेव करके अतिथियों को भोजन करा कर जो मनुष्य स्वयं भोजन करता है, उसका वह भोजन केवल अमृत है। मुख शुद्धि के लिये तीर्थ* 


*(२७) जल (भगवच्चरणामृत) से तुलसी-भक्षण करे। फिर शेष दिन सांसारिक व्यवहार में व्यतीत करे।* 


*(२८) सायंकाल में पुन: भगवान् विष्णु के मन्दिर में जाय और सन्ध्या करके शक्ति के अनुसार दीपदान करे।* 


*(२९) भगवान् विष्णु को प्रणाम करके उनकी आरती उतारे और स्तोत्र पाठ आदि करते हुए प्रथम प्रहर में जागरण करे।*


*(३०) प्रथम प्रहर बीत जाने पर शयन करे।* 


*(३१) ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करे।* 


*(३२) इस प्रकार एक मास तक प्रतिदिन शास्त्रोक्त विधि का पालन करे। जो कार्तिकमास में उत्तम व्रत का पालन करता है, वह सब पापों से मुक्त हो भगवान् विष्णु के सालोक्य को प्राप्त होता है।* 


*(३३) कार्तिक मास आने पर निषिद्ध वस्तुओं का त्याग करना चाहिये। तेल लगाना, परान्न भोजन करना, तेल खाना, जिस में बहुत से बीज हों ऐसे फलों का सेवन तथा चावल और दाल - ये सभी कार्तिक मास में त्याज्य हैं।*


*(३४) लौकी, गाजर, बैगन, वनभंटा (ऊंटकटारा), बासी अन्न, भैंसीड़, मसूर, दुबारा भोजन, मदिरा, पराया अन्न, काँसी के पात्र में भोजन, छत्राक, काँजी, दुर्गन्धित पदार्थ, समुदाय (संस्था आदि) का अन्न, वेश्या का अन्न, ग्रामपुरोहित और शूद्र का अन्न और सूतक का अन्न - ये सभी त्याग देने योग्य हैं।*


*(३५) श्राद्ध का अन्न, रजस्वला का दिया हुआ अन्न, जननाशौच का अन्न और लसोड़े का फल - इन्हें कार्तिक व्रत का पालन करने वाला पुरुष अवश्य त्याग दे।*


*(३६) निषिद्ध पत्तलों में भोजन न करे। महुआ, केला, जामुन और पकड़ी - इनके पत्तों में भोजन करना चाहिये। कमल के पत्ते पर कदापि भोजन न करे।* 


*(३७) कार्तिक मास आने पर जो वनवासी मुनियों के अनुसार नियमित भोजन करता है, वह चक्रपाणि भगवान् विष्णु के परम धाम में जाता है। कार्तिक में प्रात:काल स्नान और भगवान् की पूजा करनी चाहिये। उस समय कथा श्रवण उत्तम माना गया है।*


*(३८) कार्तिक में केला और आँवले के फल का दान करे और शीत से कष्ट पाने वाले ब्राह्मण को कपड़ा दे।* 


*(३९) जो कार्तिक में भक्ति पूर्वक भगवान् विष्णु को तुलसी दल समर्पित करता है, वह संसार से मुक्त हो भगवान् विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है।* 


*(४०) श्रीहरि के परम प्रिय कार्तिकमास में जो नित्य गीता पाठ करता है, उसके पुण्यफल का वर्णन सैकड़ों वर्षों में भी नहीं किया जा सकता।* 


*(४१) जो श्रीमद्भागवत का भी श्रवण करता है वह सब पापों से मुक्त हो परम शान्ति को प्राप्त होता है [*]।*


*[ ] गीतापाठं तु यः कुर्यात् कार्तिके विष्णुवल्लभे । तस्य पुण्यफलं वक्तुं नालं वर्षशतैरपि । श्रीमद्भागवतस्यापि श्रवणं य: समाचरेत् ।सर्वपापविनिर्मुक्तः परं निर्वाणमृच्छति ।।* (स्क० पु. वै० का० मा० ६६ १९-२०) 


*(४२) जो कार्तिक की एकादशी को निराहार रहकर व्रत करता है, वह नि:सन्देह पूर्वजन्म के पापों से मुक्त हो जाता है।*


*(४३) जो कार्तिक में भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये दूसरे के अन्न का त्याग करता है, वह भगवान् विष्णु के प्रेम को भलीभाँति प्राप्त करता है।* 


*(४४) जो राह चल कर थके-माँदै और भोजन के समय पर घर पर आये हुए अतिथि का भक्तिपूर्वक पूजन करता है वह सहस्रों जन्मों के पाप का नाश कर डालता है।* 


*(४५) जो मूढ़ मानव वैष्णव महात्माओं की निन्दा करते हैं, वे अपने पितरों के साथ महारौरव नरक में गिरते हैं।* 


*(४६) जो भगवान् की और भगवद्भक्तों की निन्दा सुनते हुए भी वहाँ से दूर नहीं हट जाता वह भगवान् का प्रिय भक्त नहीं है।* 


*(४७) जो कार्तिकमास में भगवान् विष्णु की परिक्रमा करता है उसे पग-पग पर अश्वमेध-यज्ञ का फल प्राप्त होता है।* 


*(४८) जो कार्तिकमास में परायी स्त्री के साथ सङ्गम करता है, उसके पाप की शान्ति कैसे होगी, यह बताना असम्भव है।* 


*(४९) जिसके ललाट में तुलसी की मृत्तिका का तिलक दिखायी देता है, उसकी ओर देखने में यमराज भी समर्थ नहीं हैं; फिर उनके भयानक दूतों की तो बात ही क्या ?* 


*(५०) कार्तिक में भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये धर्म का अनुष्ठान करना चाहिये। मासव्रत की समाप्ति होने पर उस व्रत की पूर्णता के लिये श्रेष्ठ ब्राह्मण को दान देना चाहिये।* 


*(५१) जो कार्तिक में भगवान् विष्णु के मन्दिर में चूना आदि का लेप कराता है या तसवीर आदि लिखता है, वह भगवान् विष्णु के समीप आनन्द का अनुभव करता है।* 


*(५२) जो ब्राह्मण कार्तिकमास में गभस्तीश्वर के समीप शतरुद्री का जप करता है, उसके मन्त्र को सिद्धि होती है।* 


*(५३) जिन्होंने तीन (३) वर्षां तक काशी में रहकर भक्ति पूर्वक साङ्गोपाङ्ग कार्तिक वत का अनुष्ठान किया है, उन्हें सम्पत्ति, सन्तति, यश तथा धर्मबुद्धि को प्राप्ति के द्वारा इस लोक में ही उस व्रत का प्रत्यक्ष फल दिखायी देता है।* 


*(५४) कार्तिक में प्याज, शृंग (सिंघाड़ा), सेज, बेर, राई, नशीली वस्तु, चिउड़ा - इन सबका उपयोग न करे।* 


*(५५) कार्तिक का व्रत करने वाला मनुष्य देवता, वेद, ब्राह्मण, गुरु, गौ, व्रती, स्त्री, राजा और महात्माओं की निन्दा न करे।* 


*(५६) कार्तिक में केवल नरकचतुर्दशी (दिवाली के एक रोज पहले) को शरीर में तेल लगाना चाहिये। उसके सिवा और किसी दिन व्रती मनुष्य तेल न लगावे।* 


*(५७) नालिका, मूली, कुम्हड़ा, कैथ इनका भी त्याग करे।* 


*(५८) रजस्वला, चाण्डाल, म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मणद्वेषी और वेद-बहिष्कृत लोगों से व्रती मनुष्य बातचीत न करे।*


*जय जय श्री सीताराम*

*जय जय श्री राधेश्याम*


बुधवार, 18 सितंबर 2024

गजासुर का वध

 ((((((( महादेव का वरदान )))))))

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गज और असुर के संयोग से एक असुर का जन्म हुआ. उसका मुख गज जैसा होने के कारण उसे गजासुर कहा जाने लगा.

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गजासुर शिवजी का बड़ा भक्त था और शिवजी के बिना अपनी कल्पना ही नहीं करता था. उसकी भक्ति से भोले भंडारी गजासुर पर प्रसन्न हो गए वरदान मांगने को कहा.

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गजासुर ने कहा- प्रभु आपकी आराधना में कीट-पक्षियों द्वारा होने वाले विघ्न से मुक्ति चाहिए. इसलिए मेरे शरीर से हमेशा तेज अग्नि निकलती रहे जिससे कोई पास न आए और मैं निर्विघ्न आपकी अराधना करता रहूं.

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महादेव ने गजासुरो को उसका मनचाहा वरदान दे दिया. गजासुर फिर से शिवजी की साधना में लीन हो गया.

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हजारो साल के घोर तप से शिवजी फिर प्रकट हुए और कहा- तुम्हारे तप से प्रसन्न होकर मैंने मनचाहा वरदान दिया था. मैं फिर से प्रसन्न हूं बोलो अब क्या मांगते हो ?

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गजासुर कुछ इच्छा लेकर तो तप कर नहीं रहा था. उसे तो शिव आराधना के सिवा और कोई काम पसंद नहीं था. लेकिन प्रभु ने कहा कि वरदान मांगो तो वह सोचने लगा.

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गजासुर ने कहा- वैसे तो मैंने कुछ इच्छा रख कर तप नहीं किया लेकिन आप कुछ देना चाहते हैं तो आप कैलाश छोड़कर मेरे उदर (पेट) में ही निवास करें.

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भोले भंडारी गजासुर के पेट में समा गए. माता पार्वती ने उन्हें खोजना शुरू किया लेकिन वह कहीं मिले ही नहीं. उन्होंने विष्णुजी का स्मरण कर शिवजी का पता लगाने को कहा.

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श्रीहरि ने कहा- बहन आप दुखी न हों. भोले भंडारी से कोई कुछ भी मांग ले, दे देते हैं. वरदान स्वरूप वह गजासुर के उदर में वास कर रहे हैं.

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श्रीहरि ने एक लीला की. उन्होंने नंदी बैल को नृत्य का प्रशिक्षण दिया और फिर उसे खूब सजाने के बाद गजासुर के सामने जाकर नाचने को कहा.

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श्रीहरि स्वयं एक ग्वाले के रूप में आए औऱ बांसुरी बजाने लगे. बांसुरी की धुन पर नंदी ने ऐसा सुंदर नृत्य किया कि गजासुर बहुत प्रसन्न हो गया.

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उसने ग्वाला वेशधारी श्रीहरि से कहा- मैं तुम पर प्रसन्न हूं. इतने साल की साधना से मुझमें वैराग्य आ गया था. तुम दोनों ने मेरा मनोरंजन किया है. कोई वरदान मांग लो.

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श्रीहरि ने कहा- आप तो परम शिवभक्त हैं. शिवजी की कृपा से ऐसी कोई चीज नहीं जो आप हमें न दे सकें. किंतु मांगते हुए संकोच होता है कि कहीं आप मना न कर दें.

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श्रीहरि की तारीफ से गजासुर स्वयं को ईश्वर तुल्य ही समझने लगा था. उसने कहा- तुम मुझे साक्षात शिव समझ सकते हो. मेरे लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं. तुम्हें मनचाहा वरदान देने का वचन देता हूं.

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श्रीहरि ने फिर कहा- आप अपने वचन से पीछे तो न हटेंगे. गजासुर ने धर्म को साक्षी रखकर हामी भरी तो श्रीहरि ने उससे शिवजी को अपने उदर से मुक्त करने का वरदान मांगा.

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गजासुर वचनबद्ध था. वह समझ गया कि उसके पेट में बसे शिवजी का रहस्य जानने वाला यह रहस्य यह कोई साधारण ग्वाला नहीं हैं, जरूर स्वयं भगवान विष्णु आए हैं.

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उसने शिवजी को मुक्त किया और शिवजी से एक आखिरी वरदान मांगा. उसने कहा- प्रभु आपको उदर में लेने के पीछे किसी का अहित करने की मंशा नहीं थी.

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मैं तो बस इतना चाहता था कि आपके साथ मुझे भी स्मरण किया जाए. शरीर से आपका त्याग करने के बाद जीवन का कोई मोल नहीं रहा.

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इसलिए प्रभु मुझे वरदान दीजिए कि मेरे शरीर का कोई अंश हमेशा आपके साथ पूजित हो. शिवजी ने उसे वह वरदान दे दिया.

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श्रीहरि ने कहा- गजासुर तुम्हारी शिव भक्ति अद्भुत है. शिव आराधना में लगे रहो. समय आने पर तुम्हें ऐसा सम्मान मिलेगा जिसकी तुमने कल्पना भी नहीं की होगी.

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जब गणेशजी का शीश धड़ से अलग हुआ तो गजासुर के शीश को ही श्रीहरि काट लाए और गणपति के धड़ से जोड़कर जीवित किया था. इस तरह वह शिवजी के प्रिय पुत्र के रूप में प्रथम आराध्य हो गया।

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गुरुवार, 5 सितंबर 2024

शकुन शास्त्र के 12 सूत्र

 शकुन शास्त्र के 12 सूत्र 

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घर में हर छोटी वस्तु का अपना महत्व होता है। कभी-कभी बेकार समझी जाने वाली वस्तु भी घर में अपनी उपयोगिता सिद्ध कर देती है। गृहस्थी में रोजाना काम में आने वाली चीजों से भी शकुन-अपशकुन जुड़े होते हैं, जो जीवन में कई महत्वपूर्ण मोड़ लाते हैं। शकुन शुभ फल देते हैं, वहीं अपशकुन इंसान को आने वाले संकटों से सावधान करते हैं। हम आपको घर से जुड़ी वस्तुओं के शकुनों के बारे में बता रहे हैं।


1-दूध का शकुन

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सुबह-सुबह दूध को देखना शुभ कहा जाता है। दूध का उबलकर गिरना शुभ माना जाता है। इससे घर में सुख-शांति, संपत्ति, मान व वैभव की उन्नति होती है। दूध का बिखर जाना अपशकुन मानते हैं, जो किसी दुर्घटना का संकेत है। दूध को जान-बूझकर छलकाना अपशकुन माना जाता है , जो घर में कलह का कारण है।


2-दर्पण का शकुन

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हर घर में दर्पण का बहुत महत्व है। दर्पण से जुड़े कई शकुन-अपशकुन मनुष्य जीवन को कहीं न कहीं प्रभावित अवश्य करते हैं। दर्पण का हाथ से छूटकर टूट जाना अशुभ माना जाता है। एक वर्ष तक के बच्चे को दर्पण दिखाना अशुभ होता है। यदि कोई नव विवाहिता अपनी शादी का जोड़ा पहन कर श्रृंगार सहित खुद को टूटे दर्पण में देखती है तो भी अपशकुन होता है। तात्पर्य यह है कि दर्पण का टूटना हर दृष्टिकोण से अशुभ ही होता है। इसके लिए यदि दर्पण टूट जाए तो इसके टूटे हुए टुकड़ों को इकटठा करके बहते जल में डाल देने से संकट टल जाते हैं।


3-पैसे का शकुन

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आज के इस युग में पैसे को भगवान माना जाता है। जेब को खाली रखना अपशकुन मानते हैं। कहा जाता है कि पैसे को अपने कपड़ों की हर जेब में रखना चाहिए। कभी भी पर्स खाली नहीं रखना चाहिए।


4-चाकू का शकुन

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चाकू एक ऐसी वस्तु है, जिसके बिना किसी भी घर में काम नहीं चल सकता। इसकी जरूरत हर छोटे-छोटे कार्य में पड़ती है। इससे जुड़े भी अनेक शकुन-अपशकुन होते हैं। डाइनिंग टेबल पर छुरी-कांटे का क्रास करके रखना अशुभ मानते हैं, इसके कारण घर के सदस्यों में झगड़ा हो जाता है। मेज से चाकू का नीचे गिरना भी अशुभ होता है। नवजात शिशु के तकिए के नीचे चाकू रखना शुभ होता है तथा छोटे बच्चे के गले में छोटा सा चाकू डालना भी अच्छा होता है। इससे बच्चों की बुरी आत्माओं से रक्षा होती है व नींद में बच्चे रोते भी नहीं हैं। यदि कोई व्यक्ति आपको चाकू भेंट करे तो इसके बुरे प्रभाव से बचने के लिए एक सिक्का अवश्य दें।


5-झाडू का शकुन

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घर के एक कोने में पड़े हुए झाडू को घर की लक्ष्मी मानते हैं, क्योंकि यह दरिद्रता को घर से बाहर निकालता है। इससे भी कई शकुन व अपशकुन जुड़े हैं। दीपावली के त्यौहार पर नया झाडू घर में लाना लक्ष्मी जी के आगमन का शुभ शकुन है। नए घर में गृह प्रवेश से पूर्व नए झाडू का घर में लाना शुभ होता है। झाडू के ऊपर पांव रखना गलत समझा जाता है। यह माना जाता है कि व्यक्ति घर आई लक्ष्मी को ठुकरा रहा है। कोई छोटा बच्चा अचानक घर में झाडू लगाने लगे तो समझ लीजिए कि घर में कोई अवांछित मेहमान के आने का संकेत है। सूर्यास्त के बाद घर में झाडू लगाना अपशकुन होता है, क्योंकि यह व्यक्ति के दुर्भाग्य को निमंत्रण देता है।


6-बाल्टी का शकुन

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सुबह के समय यदि पानी या दूध से भरी बाल्टी दिखाई दे तो शुभ होता है। इससे मन में सोचे कार्य पूरे होते हैं। खाली बाल्टी देखना अपशकुन समझा जाता है, जो बने-बनाए कार्यों को बिगाड़ देता है। रात को खाली बाल्टी को प्रायः उल्टा करके रखना चाहिए एवं घर में एक बाल्टी को अवश्य भरकर रखें, ताकि सुबह उठकर घर के सदस्य उसे देख सकें।


7-लोहे का शकुन

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घर में लोहे का होना शुभ कहा जाता है। लोहे में एक शक्ति होती है, जो बुरी आत्माओं को घर से भगा देती है। पुराने व जंग लगे लोहे को घर में रखना अशुभ है। घर में लोहे का सामान साफ करके रखें।


8-हेयरपिन का शकुन

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हेयरपिन एक बहुत ही मामूली सी चीज है, परंतु इसका प्रभाव बड़ा आश्चर्यजनक होता है। यदि किसी व्यक्ति को राह में कोई हेयरपिन पड़ा मिल जाये तो समझो कि उसे कोई नया मित्र मिलने वाला है। वहीं यदि हेयर पिन खो जाये तो व्यक्ति के नए दुश्मन पैदा होने वाले हैं। हेयरपिन को घर में कहीं लटका दिया जाए तो यह अच्छे भाग्य का प्रतीक है।


9-काले वस्त्र का शकुन

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काले वस्त्र बहुत अशुभ माने जाते हैं। किसी व्यक्ति के घर से बाहर जाते समय यदि कोई आदमी काले वस्त्र पहने हुए दिखाई दे तो अपशकुन माना जाता है, जिसके बुरे प्रभाव से जाने वाले व्यक्ति की दुर्घटना हो सकती है। अतः ऐसे व्यक्ति को अपना जाना कुछ मिनट के लिए स्थगित कर देना चाहिए।


10-रुई का शकुन

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रूई का कोई टुकड़ा किसी व्यक्ति के कपड़ों पर चिपका मिले तो यह शुभ शकुन है। यह किसी शुभ समाचार आने का संकेत है या किसी प्रिय व्यक्ति के आने का संकेत है। कहा जाता है कि रूई का यह टुकड़ा व्यक्ति को किसी एक अक्षर के रूप में नजर आता है व यह अक्षर उस व्यक्ति के नाम का प्रथम अक्षर होता है, जहां से उस व्यक्ति के लिए शुभ संदेश या पत्र आ रहा है।


11-चाबियों का शकुन

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चाबियों का गुच्छा गृहिणी की संपूर्णता का प्रतीक है। यदि गृहिणी के पास चाबियों का कोई ऐसा गुच्छा है, जिस पर बार-बार साफ करने के बाद भी जंग चढ़ जाए तो यह एक अच्छा शकुन है। इसके फलस्वरूप घर का कोई रिश्तेदार अपनी जायदाद में से आपको कुछ देना चाहता है या आपके नाम से कुछ धन छोड़कर जाना चाहता है। चाबियों को बच्चे के तकिए के नीचे रखना भी अच्छा होता है, इससे बुरे स्वप्नों एवंबुंरी आत्माओं से बच्चे का बचाव होता है।


12-बटन का शकुन

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कभी-कभी कमीज़, कोट या अन्य कोई कपड़े का बटन गलत लग जाए तो अपशकुन होता है, जिसके अनुसार सीधे काम भी उल्टे पड़ जाएंगे। इसके दुष्प्रभाव से बचने के लिए कपड़े को उतारकर सही बटन लगाने के बाद पहनें। यदि रास्ते चलते आपको कोई बटन पड़ा मिल जाए तो यह आपको किसी नए मित्र से मिलवाएगा।

शनिवार, 24 अगस्त 2024

हल चंदन षष्ठी 24 अगस्त विशेष

 हल चंदन षष्ठी 24 अगस्त विशेष

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व्रत महात्म्य विधि और कथा

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भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी बलराम जन्मोत्सव के रूप में देशभर में मनायी जाती है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार मान्यता है कि इस दिन भगवान शेषनाग ने द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई के रुप में अवतरित हुए थे। इस पर्व को हलषष्ठी एवं हरछठ के नाम से भी जाना जाता है। जैसा कि मान्यता है कि बलराम जी का मुख्य शस्त्र हल और मूसल हैं जिस कारण इन्हें हलधर कहा जाता है इन्हीं के नाम पर इस पर्व को हलषष्ठी के भी कहा जाता है। इस दिन बिना हल चले धरती से पैदा होने वाले अन्न, शाक भाजी आदि खाने का विशेष महत्व माना जाता है। गाय के दूध व दही के सेवन को भी इस दिन वर्जित माना जाता है। साथ ही संतान प्राप्ति के लिये विवाहिताएं व्रत भी रखती हैं। 


हिन्दू धर्म के अनुसार इस व्रत को करने वाले सभी लोगों की मनोकामनाएं पूरी होती है. मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण और राम भगवान विष्णु जी का स्वरूप है, और बलराम और लक्ष्मण शेषनाग का स्वरूप है. पौराणिक कथाओं के संदर्भ अनुसार एक बार भगवान विष्णु से शेष नाग नाराज हो गए और कहा की भगवान में आपके चरणों में रहता हूं, मुझे थोड़ा सा भी विश्राम नहीं मिलता. आप कुछ ऐसा करो के मुझे भी विश्राम मिले. तब भगवान विष्णु ने शेषनाग को वरदान दिया की आप द्वापर में मेरे बड़े भाई के रूप में जन्म लोगे, तब मैं आपसे छोटा रहूंगा।


हिन्दू धर्म के अनुसार मान्यता है कि त्रेता युग में भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण शेषनाग का अवतार थे, इसी प्रकार द्वापर में जब भगवान विष्णु पृथ्वी पर श्री कृष्ण अवतार में आए तो शेषनाग भी यहां उनके बड़े भाई के रूप में अवतरित हुए. शेषनाग कभी भी भगवान विष्णु के बिना नहीं रहते हैं, इसलिए वह प्रभु के हर अवतार के साथ स्वयं भी आते हैं. बलराम जयंती के दिन सौभाग्यवती स्त्रियां बलशाली पुत्र की कामना से व्रत रखती हैं, साथ ही भगवान बलराम से यह प्रार्थना की जाती है कि वो उन्हें अपने जैसा तेजस्वी पुत्र प्राप्त करें।


शक्ति के प्रतीक बलराम भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई थे, इन्हें आज्ञाकारी पुत्र, आदर्श भाई और एक आदर्श पति भी माना जाता है। श्री कृष्ण की लीलाएं इतनी महान हैं कि बलराम की ओर ध्यान बहुत कम जाता है। लेकिन श्री कृष्ण भी इन्हें बहुत मानते थे। इनका जन्म की कथा भी काफी रोमांचक है। मान्यता है कि ये मां देवकी के सातवें गर्भ थे, चूंकि देवकी की हर संतान पर कंस की कड़ी नजर थी इसलिये इनका बचना बहुत ही मुश्किल था ऐसें में देवकी के सातवें गर्भ गिरने की खबर फैल गई लेकिन असल में देवकी और वासुदेव के तप से देवकी का यह सत्व गर्भ वासुदेव की पहली पत्नी के गर्भ में प्रत्यापित हो चुका था। लेकिन उनके लिये संकट यह था कि पति तो कैद में हैं फिर ये गर्भवती कैसे हुई लोग तो सवाल पूछेंगें लोक निंदा से बचने के लिये जन्म के तुरंत बाद ही बलराम को नंद बाबा के यहां पालने के लिये भेज दिया गया था।

 

बलराम जी का विवाह 

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यह मान्यता है कि भगवान विष्णु ने जब-जब अवतार लिया उनके साथ शेषनाग ने भी अवतार लेकर उनकी सेवा की। इस तरह बलराम को भी शेषनाग का अवतार माना जाता है। लेकिन बलराम के विवाह का शेषनाग से क्या नाता है यह भी आपको बताते हैं। दरअसल गर्ग संहिता के अनुसार एक इनकी पत्नी रेवती की एक कहानी मिलती है जिसके अनुसार पूर्व जन्म में रेवती पृथ्वी के राजा मनु की पुत्री थी जिनका नाम था ज्योतिष्मती। एक दिन मनु ने अपनी बेटी से वर के बारे में पूछा कि उसे कैसा वर चाहिये इस पर ज्योतिष्मती बोली जो पूरी पृथ्वी पर सबसे शक्तिशाली हो। अब मनु ने बेटी की इच्छा इंद्र के सामने प्रकट करते हुए पूछा कि सबसे शक्तिशाली कौन है तो इंद्र का जवाब था कि वायु ही सबसे ताकतवर हो सकते हैं लेकिन वायु ने अपने को कमजोर बताते हुए पर्वत को खुद से बलशाली बताया फिर वे पर्वत के पास पंहुचे तो पर्वत ने पृथ्वी का नाम लिया और धरती से फिर बात शेषनाग तक पंहुची। फिर शेषनाग को पति के रुप में पाने के लिये ज्योतिष्मती ब्रह्मा जी के तप में लीन हो गईं। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने द्वापर में बलराम से शादी होने का वर दिया। द्वापर में ज्योतिष्मती ने राजा कुशस्थली के राजा (जिनका राज पाताल लोक में चलता था) कुडुम्बी के यहां जन्म लिया। बेटी के बड़ा होने पर कुडुम्बी ने ब्रह्मा जी से वर के लिये पूछा तो ब्रह्मा जी ने पूर्व जन्म का स्मरण कराया तब बलराम और रेवती का विवाह तय हुआ। लेकिन एक दिक्कत अब भी थी वह यह कि पाताल लोक की होने के कारण रेवती कद-काठी में बहुत लंबी-चौड़ी दिखती थी पृथ्वी लोक के सामान्य मनुष्यों के सामने तो वह दानव नजर आती। लेकिन हलधर ने अपने हल से रेवती के आकार को सामान्य कर दिया। जिसके बाद उन्होंनें सुख-पूर्वक जीवन व्यतीत किया।

 

बलराम और रेवती के दो पुत्र हुए जिनके नाम निश्त्थ और उल्मुक थे। एक पुत्री ने भी इनके यहां जन्म लिया जिसका नाम वत्सला रखा गया। माना जाता है कि श्राप के कारण दोनों भाई आपस में लड़कर ही मर गये। वत्सला का विवाह दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण के साथ तय हुआ था, लेकिन वत्सला अभिमन्यु से विवाह करना चाहती थी। तब घटोत्कच ने अपनी माया से वत्सला का विवाह अभिमन्यु से करवाया था।

 

बलराम जी के हल की कथा

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बलराम के हल के प्रयोग के संबंध में किवदंती के आधार पर दो कथाएं मिलती है। कहते हैं कि एक बार कौरव और बलराम के बीच किसी प्रकार का कोई खेल हुआ। इस खेल में बलरामजी जीत गए थे लेकिन कौरव यह मानने को ही नहीं तैयार थे। ऐसे में क्रोधित होकर बलरामजी ने अपने हल से हस्तिनापुर की संपूर्ण भूमि को खींचकर गंगा में डुबोने का प्रयास किया। तभी आकाशवाणी हुई की बलराम ही विजेता है। सभी ने सुना और इसे माना। इससे संतुष्ट होकर बलरामजी ने अपना हल रख दिया। तभी से वे हलधर के रूप में प्रसिद्ध हुए।


एक दूसरी कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी जाम्बवती का पुत्र साम्ब का दिल दुर्योधन और भानुमती की पुत्री लक्ष्मणा पर आ गया था और वे दोनों प्रेम करने लगे थे। दुर्योधन के पुत्र का नाम लक्ष्मण था और पुत्री का नाम लक्ष्मणा था। दुर्योधन अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के पुत्र से नहीं करना चाहता था। इसलिए एक दिन साम्ब ने लक्ष्मणा से गंधर्व विवाह कर लिया और लक्ष्मणा को अपने रथ में बैठाकर द्वारिका ले जाने लगा। जब यह बात कौरवों को पता चली तो कौरव अपनी पूरी सेना लेकर साम्ब से युद्ध करने आ पहुंचे।


कौरवों ने साम्ब को बंदी बना लिया। इसके बाद जब श्रीकृष्ण और बलराम को पता चला, तब बलराम हस्तिनापुर पहुंच गए। बलराम ने कौरवों से निवेदनपूर्वक कहा कि साम्ब को मुक्तकर उसे लक्ष्मणा के साथ विदा कर दें, लेकिन कौरवों ने बलराम की बात नहीं मानी।


ऐसे में बलराम का क्रोध जाग्रत हो गया। तब बलराम ने अपना रौद्र रूप प्रकट कर दिया। वे अपने हल से ही हस्तिनापुर की संपूर्ण धरती को खींचकर गंगा में डुबोने चल पड़े। यह देखकर कौरव भयभीत हो गए। संपूर्ण हस्तिनापुर में हाहाकार मच गया। सभी ने बलराम से माफी मांगी और तब साम्ब को लक्ष्मणा के साथ विदा कर दिया। बाद में द्वारिका में साम्ब और लक्ष्मणा का वैदिक रीति से विवाह संपन्न हुआ।


बलदेव (हल चंदन छठ) पूजा विधि

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कथा करने से पूर्व प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त हो जाएं।


पश्चात स्वच्छ वस्त्र धारण कर गोबर लाएं।


इस तालाब में झरबेरी, ताश तथा पलाश की एक-एक शाखा बांधकर बनाई गई 'हरछठ' को गाड़ दें।


तपश्चात इसकी पूजा करें।


पूजा में सतनाजा (चना, जौ, गेहूं, धान, अरहर, मक्का तथा मूंग) चढ़ाने के बाद धूल, हरी कजरियां, होली की राख, होली पर भूने हुए चने के होरहा तथा जौ की बालें चढ़ाएं।


हरछठ के समीप ही कोई आभूषण तथा हल्दी से रंगा कपड़ा भी रखें। बलदेव जी को नीला तथा कृष्ण जी को पीला वस्त्र पहनाये।


पूजन करने के बाद भैंस के दूध से बने मक्खन द्वारा हवन करें।


पश्चात कथा कहें अथवा सुनें।


ध्यान रखें कि इस दिन व्रती हल से जुते हुए अनाज और सब्जियों को न खाएं और गाय के दूध का सेवन भी न करें, इस दिन तिन्नी का चावल खाकर व्रत रखें


पूजा हो जाने के बाद गरीब बच्चों में पीली मिठाई बांटे.


हलषष्ठी की व्रतकथा निम्नानुसार है

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प्राचीन काल में एक ग्वालिन थी। उसका प्रसवकाल अत्यंत निकट था। एक ओर वह प्रसव से व्याकुल थी तो दूसरी ओर उसका मन गौ-रस (दूध-दही) बेचने में लगा हुआ था। उसने सोचा कि यदि प्रसव हो गया तो गौ-रस यूं ही पड़ा रह जाएगा। 


यह सोचकर उसने दूध-दही के घड़े सिर पर रखे और बेचने के लिए चल दी किन्तु कुछ दूर पहुंचने पर उसे असहनीय प्रसव पीड़ा हुई। वह एक झरबेरी की ओट में चली गई और वहां एक बच्चे को जन्म दिया।


वह बच्चे को वहीं छोड़कर पास के गांवों में दूध-दही बेचने चली गई। संयोग से उस दिन हल षष्ठी थी। गाय-भैंस के मिश्रित दूध को केवल भैंस का दूध बताकर उसने सीधे-सादे गांव वालों में बेच दिया।


उधर जिस झरबेरी के नीचे उसने बच्चे को छोड़ा था, उसके समीप ही खेत में एक किसान हल जोत रहा था। अचानक उसके बैल भड़क उठे और हल का फल शरीर में घुसने से वह बालक मर गया।


इस घटना से किसान बहुत दुखी हुआ, फिर भी उसने हिम्मत और धैर्य से काम लिया। उसने झरबेरी के कांटों से ही बच्चे के चिरे हुए पेट में टांके लगाए और उसे वहीं छोड़कर चला गया।


कुछ देर बाद ग्वालिन दूध बेचकर वहां आ पहुंची। बच्चे की ऐसी दशा देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि यह सब उसके पाप की सजा है। 


वह सोचने लगी कि यदि मैंने झूठ बोलकर गाय का दूध न बेचा होता और गांव की स्त्रियों का धर्म भ्रष्ट न किया होता तो मेरे बच्चे की यह दशा न होती। अतः मुझे लौटकर सब बातें गांव वालों को बताकर प्रायश्चित करना चाहिए।


ऐसा निश्चय कर वह उस गांव में पहुंची, जहां उसने दूध-दही बेचा था। वह गली-गली घूमकर अपनी करतूत और उसके फलस्वरूप मिले दंड का बखान करने लगी। तब स्त्रियों ने स्वधर्म रक्षार्थ और उस पर रहम खाकर उसे क्षमा कर दिया और आशीर्वाद दिया।


बहुत-सी स्त्रियों द्वारा आशीर्वाद लेकर जब वह पुनः झरबेरी के नीचे पहुंची तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गई कि वहां उसका पुत्र जीवित अवस्था में पड़ा है। तभी उसने स्वार्थ के लिए झूठ बोलने को ब्रह्म हत्या के समान समझा और कभी झूठ न बोलने का प्रण कर लिया।


कथा के अंत में निम्न मंत्र से प्रार्थना करें

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गंगाद्वारे कुशावर्ते विल्वके नीलेपर्वते।

स्नात्वा कनखले देवि हरं लब्धवती पतिम्‌॥

ललिते सुभगे देवि-सुखसौभाग्य दायिनि।

अनन्तं देहि सौभाग्यं मह्यं, तुभ्यं नमो नमः॥


अर्थात्👉 हे देवी! आपने गंगा द्वार, कुशावर्त, विल्वक, नील पर्वत और कनखल तीर्थ में स्नान करके भगवान शंकर को पति के रूप में प्राप्त किया है। सुख और सौभाग्य देने वाली ललिता देवी आपको बारम्बार नमस्कार है, आप मुझे अचल सुहाग दीजिए।


बलदाऊ की आरती 

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कृष्ण कन्हैया को दादा भैया, अति प्रिय जाकी रोहिणी मैया


श्री वसुदेव पिता सौं जीजै…… बलदाऊ

 

नन्द को प्राण, यशोदा प्यारौ , तीन लोक सेवा में न्यारौ


कृष्ण सेवा में तन मन भीजै …..बलदाऊ

 

हलधर भैया, कृष्ण कन्हैया, दुष्टन के तुम नाश करैया


रेवती, वारुनी ब्याह रचीजे ….बलदाऊ

 

दाउदयाल बिरज के राजा, भंग पिए नित खाए खाजा


नील वस्त्र नित ही धर लीजे,……बलदाऊ

 

जो कोई बल की आरती गावे, निश्चित कृष्ण चरण राज पावे

बुद्धि, भक्ति ‘गिरि’ नित-नित लीजे …..बलदाऊ


आरती के बाद श्री बलभद्र स्तोत्र और कवच का पाठ अवश्य करें।


बलदेव स्तोत्र

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दुर्योधन उवाच- स्‍तोत्र श्रीबलदेवस्‍य प्राडविपाक महामुने। वद मां कृपया साक्षात् सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।


प्राडविपाक उवाच- स्‍तवराजं तु रामस्‍य वेदव्‍यासकृतं शुभम्। सर्वसिद्धिप्रदं राजञ्श्रृणु कैवल्‍यदं नृणाम् ।।


देवादिदेव भगवन् कामपाल नमोऽस्‍तु ते। नमोऽनन्‍ताय शेषाय साक्षादरामाय ते नम: ।।


धराधराय पूर्णाय स्‍वधाम्ने सीरपाणये। सहस्‍त्रशिरसे नित्‍यं नम: संकर्षणाय ते ।।


रेवतीरमण त्‍वं वै बलदेवोऽच्‍युताग्रज। हलायुध प्रलम्बघ्न पाहि मां पुरुषोत्तम ।।

बलाय बलभद्राय तालांकाय नमो नम:। नीलाम्‍बराय गौराय रौहिणेयाय ते नम: ।।


धेनुकारिर्मुष्टिकारि: कूटारिर्बल्‍वलान्‍तक:। रुक्म्यरि: कूपकर्णारि: कुम्‍भाण्‍डारिस्‍त्‍वमेव हि ।।


कालिन्‍दीभेदनोऽसि त्‍वं हस्तिनापुरकर्षक:। द्विविदारिर्यादवेन्‍द्रो व्रजमण्‍डलारिस्‍त्‍वमेव हि ।।


कंसभ्रातृप्रह‍न्‍तासि तीर्थयात्राकर: प्रभु:। दुर्योधनगुरु: साक्षात् पाहि पा‍हि प्रभो त्‍वत: ।।


जय जयाच्‍युत देव परातपर स्‍वयमनन्‍त दिगन्‍तगतश्रुत। सुरमुनीन्‍द्रफणीन्‍द्रवराय ते मुसलिने बलिने हलिने नम: ।।


य: पठेत सततं स्‍तवनं नर: स तु हरे: परमं पदमाव्रजेत्। जगति सर्वबलं त्‍वरिमर्दनं भवति तस्‍य धनं स्‍वजनं धनम् ।।


श्रीबलदाऊ कवच

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दुर्योधन उवाच- गोपीभ्‍य: कवचं दत्तं गर्गाचार्येण धीमता। सर्वरक्षाकरं दिव्‍यं देहि मह्यं महामुने ।


प्राडविपाक उवाच- स्‍त्रात्‍वा जले क्षौमधर: कुशासन: पवित्रपाणि: कृतमन्‍त्रमार्जन: ।

स्‍मृत्‍वाथ नत्‍वा बलमच्‍युताग्रजं संधारयेद् वर्म समाहितो भवेत् ।।


गोलोकधामाधिपति: परेश्‍वर: परेषु मां पातु पवित्राकीर्तन: ।

भूमण्‍डलं सर्षपवद् विलक्ष्‍यते यन्‍मूर्ध्नि मां पातु स भूमिमण्‍डले ।।


सेनासु मां रक्षतु सीरपाणिर्युद्धे सदा रक्षतु मां हली च ।

दुर्गेषु चाव्‍यान्‍मुसली सदा मां वनेषु संकर्षण आदिदेव: ।।


कलिन्‍दजावेगहरो जलेषु नीलाम्‍बुरो रक्षतु मां सदाग्नौ ।

वायौ च रामाअवतु खे बलश्‍च महार्णवेअनन्‍तवपु: सदा माम् ।।


श्रीवसुदेवोअवतु पर्वतेषु सहस्‍त्रशीर्षा च महाविवादे ।

रोगेषु मां रक्षतु रौहिणेयो मां कामपालोऽवतु वा विपत्‍सु ।।


कामात् सदा रक्षतु धेनुकारि: क्रोधात् सदा मां द्विविदप्रहारी ।

लोभात् सदा रक्षतु बल्‍वलारिर्मोहात् सदा मां किल मागधारि: ।।


प्रात: सदा रक्षतु वृष्णिधुर्य: प्राह्णे सदा मां मथुरापुरेन्‍द्र: ।

मध्‍यंदिने गोपसख: प्रपातु स्‍वराट् पराह्णेऽस्‍तु मां सदैव ।।


सायं फणीन्‍द्रोऽवतु मां सदैव परात्‍परो रक्षतु मां प्रदोषे ।

पूर्णे निशीथे च दरन्तवीर्य: प्रत्यूषकालेऽवतु मां सदैव ।।


विदिक्षु मां रक्षतु रेवतीपतिर्दिक्षु प्रलम्‍बारिरधो यदूद्वह: ।।

ऊर्ध्‍वं सदा मां बलभद्र आरात् तथा समन्‍ताद् बलदेव एव हि ।।


अन्‍त: सदाव्‍यात् पुरुषोत्तमो बहिर्नागेन्‍द्रलीलोऽवतु मां महाबल: ।

सदान्‍तरात्‍मा च वसन् हरि: स्वयं प्रपातु पूर्ण: परमेश्‍वरो महान् ।।


देवासुराणां भ्‍यनाशनं च हुताशनं पापचयैन्‍धनानाम् ।

विनाशनं विघ्नघटस्‍य विद्धि सिद्धासनं वर्मवरं बलस्‍य ।।


हलषष्ठी शुभ मुहूर्त:

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षष्ठी तिथि 24 अगस्त 2024 दिन शनिवार को प्रातः 07.51 बजे से आरम्भ होगी और 25 अगस्त को प्रातः 05.30 बजे तक रहेगी।


उद्यापन, मोखद्ध रात्रि 08 बजकर 16 के बाद होगा। चंद्रोदय रात्रि 09 बजकर 47 मिनट पर होगा।



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कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...