सोमवार, 24 सितंबर 2018

मेथी के फायदे

**1 महीने पीएं मेथी का पानी, शरीर के हर पार्ट में आएगा ये चमत्कारिक बदलाव*

🌼घर पर आसानी से मिल जाने वाली मेथी में इतने सारे गुण है कि आप सोच भी नहीं सकते है। यह सिर्फ एक मसाला नहीं है बल्कि एक ऐसी दवा है जिसमें हर बीमारी को खत्म करने का दम है। आइए आज हम आपको मेथी के पानी के कुछ चमत्कारिक तरीके बताते हैं।

*करें ये काम*

🌼एक पानी से भरा गिलास ले कर उसमें दो चम्‍मच मेथी दाना डाल कर रातभर के लिये भिगो दें। सुबह इस पानी को छानें और खाली पेट पी जाएं। रातभर मेथी भिगोने से पानी में एंटी इंफ्लेमेटरी और एंटी ऑक्‍सीडेंट गुण बढ जाते हैं। इससे शरीर की तमाम बीमारियां चुटकियों में खत्म हो जाती है। आइए आपको बताते है कि कौन सी है वो खतरनाक 7 बीमारियां जो भग जाएंगी इस पानी को पीने से।

*वजन होगा कम*

🌼यदि आप भिगोई हुई मेथी के साथ उसका पानी भी पियें तो आपको जबरदस्‍ती की भूख नहीं लगेगी। रोज एक महीने तक मेथी का पानी पीने से वजन कम करने में मदद मिलती है।

*गठिया रोग से बचाए*

🌼इसमें एंटीऑक्‍सीडेंट और एंटी इंफ्लेमेटरी गुण होने के नातेए मेथी का पानी गठिया से होने वाले दर्द में भी राहत दिलाती है।

*कोलेस्‍ट्रॉल लेवल घटाए*

🌼बहुत सारी स्‍टडीज़ में प्रूव हुआ है कि मेथी खाने से या उसका पानी पीने से शरीर से खराब कोलेस्‍ट्रॉल का लेवल कम होकर अच्‍छे कोलेस्‍ट्रॉल का लेवल बढ़ता है।

*ब्लड प्रेशर होगा कंट्रोल*

🌼मेथी में एक galactomannan नामक कम्‍पाउंड और पोटैशियम होता है। ये दो सामग्रियां आपके ब्‍लड प्रेशर को कंट्रोल करने में बड़ी ही सहायक होती हैं।

*कैंसर से बचाए*

🌼मेथी में ढेर सारा फाइबर होता है जो कि शरीर से विषैले तत्‍वों को निकाल फेंकती है और पेट के कैंसर से बचाती है।

*किडनी स्‍टोन*

🌼अगर आप भिगोई हुई मेथी का पानी 1 महीने तक हर सुबह खाली पेट पियेंगे आपकी किडनी से स्‍टोन जल्‍द ही निकल जाएंगे।

*मधुमेह*

🌼मेथी में galactomannan होता है जो कि एक बहुत जरुरी फाइबर कम्‍पाउंड है। इससे रक्‍त में शक्‍कर बड़ी ही धीमी गति से घुलती है। इस कारण से मधुमेह नहीं होता।

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शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

पूजा - पाठ में इतनी सावधानी जरूर बरतें

🌿🌸 अति महत्वपूर्ण बातें 🌸🌿

🌸1. घर में सेवा पूजा करने वाले जन भगवान के एक से अधिक स्वरूप की सेवा पूजा कर सकते हैं ।

🌸2. घर में दो शिवलिंग की पूजा ना करें तथा पूजा स्थान पर तीन गणेश जी नहीं रखें।

🌸3. शालिग्राम जी की बटिया जितनी छोटी हो उतनी ज्यादा फलदायक है।

🌸4. कुशा पवित्री के अभाव में स्वर्ण की अंगूठी धारण करके भी देव कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।

🌸5. मंगल कार्यो में कुमकुम का तिलक प्रशस्त माना जाता हैं।

🌸6.  पूजा में टूटे हुए अक्षत के टूकड़े नहीं चढ़ाना चाहिए।

🌸7. पानी, दूध, दही, घी आदि में अंगुली नही डालना चाहिए। इन्हें लोटा, चम्मच आदि से लेना चाहिए क्योंकि नख स्पर्श से वस्तु अपवित्र हो जाती है अतः यह वस्तुएँ देव पूजा के योग्य नहीं रहती हैं।

🌸8. तांबे के बरतन में दूध, दही या पंचामृत आदि नहीं डालना चाहिए क्योंकि वह मदिरा समान हो जाते हैं।

🌸9. आचमन तीन बार करने का विधान हैं। इससे त्रिदेव ब्रह्मा-विष्णु-महेश प्रसन्न होते हैं।

🌸10.  दाहिने कान का स्पर्श करने पर भी आचमन के तुल्य माना जाता है।

🌸11. कुशा के अग्रभाग से दवताओं पर जल नहीं छिड़के।

🌸12. देवताओं को अंगूठे से नहीं मले।

🌸13. चकले पर से चंदन कभी नहीं लगावें। उसे छोटी कटोरी या बांयी हथेली पर रखकर लगावें।

🌸15. पुष्पों को बाल्टी, लोटा, जल में डालकर फिर निकालकर नहीं चढ़ाना चाहिए।

🌸16. श्री भगवान के चरणों की चार बार, नाभि की दो बार, मुख की एक बार या तीन बार आरती उतारकर समस्त अंगों की सात बार आरती उतारें।

🌸17. श्री भगवान की आरती समयानुसार जो घंटा, नगारा, झांझर, थाली, घड़ावल, शंख इत्यादि बजते हैं उनकी ध्वनि से आसपास के वायुमण्डल के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। नाद ब्रह्मा होता हैं। नाद के समय एक स्वर से जो प्रतिध्वनि होती हैं उसमे असीम शक्ति होती हैं।

🌸18. लोहे के पात्र से श्री भगवान को नैवेद्य अपर्ण नहीं करें।

🌸19. हवन में अग्नि प्रज्वलित होने पर ही आहुति दें।

🌸20. समिधा अंगुठे से अधिक मोटी नहीं होनी चाहिए तथा दस अंगुल लम्बी होनी चाहिए।

🌸21. छाल रहित या कीड़े लगी हुई समिधा यज्ञ-कार्य में वर्जित हैं।

🌸22.  पंखे आदि से कभी हवन की अग्नि प्रज्वलित नहीं करें।

🌸23. मेरूहीन माला या मेरू का लंघन करके माला नहीं जपनी चाहिए।

🌸24.  माला, रूद्राक्ष, तुलसी एवं चंदन की उत्तम मानी गई हैं।

🌸25. माला को अनामिका (तीसरी अंगुली) पर रखकर मध्यमा (दूसरी अंगुली) से चलाना चाहिए।

🌸26.जप करते समय सिर पर हाथ या वस्त्र नहीं रखें।

🌸27. तिलक कराते समय सिर पर हाथ या वस्त्र रखना चाहिए।

🌸28. माला का पूजन करके ही जप करना चाहिए।

🌸29. ब्राह्मण को या द्विजाती को स्नान करके तिलक अवश्य लगाना चाहिए।

🌸30. जप करते हुए जल में स्थित व्यक्ति, दौड़ते हुए, शमशान से लौटते हुए व्यक्ति को नमस्कार करना वर्जित हैं।

🌸31.  बिना नमस्कार किए आशीर्वाद देना वर्जित हैं।

🌸32.  एक हाथ से प्रणाम नही करना चाहिए।

🌸33.  सोए हुए व्यक्ति का चरण स्पर्श नहीं करना चाहिए।

🌸34. बड़ों को प्रणाम करते समय उनके दाहिने पैर पर दाहिने हाथ से और उनके बांये पैर को बांये हाथ से छूकर प्रणाम करें।

🌸35. जप करते समय जीभ या होंठ को नहीं हिलाना चाहिए। इसे उपांशु जप कहते हैं। इसका फल सौगुणा फलदायक होता हैं।

🌸36. जप करते समय दाहिने हाथ को कपड़े या गौमुखी से ढककर रखना चाहिए।

🌸37. जप के बाद आसन के नीचे की भूमि को स्पर्श कर नेत्रों से लगाना चाहिए।

🌸38. संक्रान्ति, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, रविवार और सन्ध्या के समय तुलसी तोड़ना निषिद्ध हैं।

🌸39. दीपक से दीपक को नही जलाना चाहिए।

🌸40. यज्ञ, श्राद्ध आदि में काले तिल का प्रयोग करना चाहिए, सफेद तिल का नहीं।

🌸41. शनिवार को पीपल पर जल चढ़ाना चाहिए। पीपल की सात परिक्रमा करनी चाहिए। परिक्रमा करना श्रेष्ठ है, किन्तु रविवार को परिक्रमा नहीं करनी चाहिए।

🌸42. कूमड़ा-मतीरा-नारियल आदि को स्त्रियां नहीं तोड़े या चाकू आदि से नहीं काटें। यह उत्तम नही माना गया हैं।

🌸43. भोजन प्रसाद को लाघंना नहीं चाहिए।

🌸44.  देव प्रतिमा देखकर अवश्य प्रणाम करें।

🌸45. किसी को भी कोई वस्तु या दान-दक्षिणा दाहिने हाथ से देना चाहिए।

🌸46. एकादशी, अमावस्या, कृृष्ण चतुर्दशी, पूर्णिमा व्रत तथा श्राद्ध के दिन क्षौर-कर्म (दाढ़ी) नहीं बनाना चाहिए ।

🌸47. बिना यज्ञोपवित या शिखा बंधन के जो भी कार्य, कर्म किया जाता है, वह निष्फल हो जाता हैं।

🌸48. यदि शिखा नहीं हो तो स्थान को स्पर्श कर लेना चाहिए।

🌸49. शिवजी की जलहारी उत्तराभिमुख रखें ।

🌸50. शंकर जी को बिल्वपत्र, विष्णु जी को तुलसी, गणेश जी को दूर्वा, लक्ष्मी जी को कमल प्रिय हैं।

🌸51. शंकर जी को शिवरात्रि के सिवाय कुंुकुम नहीं चढ़ती।

🌸52. शिवजी को कुंद, विष्णु जी को धतूरा, देवी जी  को आक तथा मदार और सूर्य भगवानको तगर के फूल नहीं चढ़ावे।

🌸53 .अक्षत देवताओं को तीन बार तथा पितरों को एक बार धोकर चढ़ावंे।

🌸54. नये बिल्व पत्र नहीं मिले तो चढ़ाये हुए बिल्व पत्र धोकर फिर चढ़ाए जा सकते हैं।

🌸55. विष्णु भगवान को चांवल, गणेश जी  को तुलसी, दुर्गा जी और सूर्य नारायण  को बिल्व पत्र नहीं चढ़ावें।

🌸56. पत्र-पुष्प-फल का मुख नीचे करके नहीं चढ़ावें, जैसे उत्पन्न होते हों वैसे ही चढ़ावें।

🌸57.  किंतु बिल्वपत्र उलटा करके डंडी तोड़कर शंकर पर चढ़ावें।

🌸58. पान की डंडी का अग्रभाग तोड़कर चढ़ावें।

🌸59. सड़ा हुआ पान या पुष्प नहीं चढ़ावे।

🌸60. गणेश को तुलसी भाद्र शुक्ल चतुर्थी को चढ़ती हैं।

🌸61. पांच रात्रि तक कमल का फूल बासी नहीं होता है।

🌸62. दस रात्रि तक तुलसी पत्र बासी नहीं होते हैं।

🌸63. सभी धार्मिक कार्यो में पत्नी को दाहिने भाग में बिठाकर धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न करनी चाहिए।

🌸64. पूजन करनेवाला ललाट पर तिलक लगाकर ही पूजा करें।

🌸65. पूर्वाभिमुख बैठकर अपने बांयी ओर घंटा, धूप तथा दाहिनी ओर शंख, जलपात्र एवं पूजन सामग्री रखें।

देवयानी

 प्राचीनकाल में देवताओं और राक्षसों के कई युद्ध हुए। इन युद्धों में कभी देवता जीतते और कभी राक्षस। लेकिन एक समय ऐसा आया कि राक्षसों की शक्ति तेजी से बढ़ने लगी। इसका कारण था मृतसंजीवनी विद्या। राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य को भगवान शिव के आशीर्वाद से मृतसंजीवनी विद्या का ज्ञान मिल गया था। अब युद्ध में जो राक्षस मर जाते, शुक्राचार्य उन्हें फिर से जीवित कर देते।

देवताओं के लिए यह बड़ी समस्या बन गयी। क्या उपाय किया जाये? देवताओं के गुरु बृहस्पति भी इस विद्या से अनजान थे।  देवगुरु बृहस्पति को एक उपाय सूझा! उन्होंने अपने पुत्र कच से कहा कि वो जाकर गुरु शुक्राचार्य का शिष्य बन जाए और मृतसंजीवनी विद्या सीखने का प्रयास करे।  बृहस्पति जानते थे कि यह कार्य इतना आसान नहीं होगा। उन्होंने अपने पुत्र कच से कहा कि अगर वो किसी प्रकार शुक्राचार्य की सुन्दर पुत्री देवयानी को प्रभावित या आकर्षित कर लेता है तो संभवतः काम आसान हो जाये।

देवयानी और कच : - कच जाकर गुरु शुक्राचार्य का शिष्य बन गया। कच एक तेजस्वी युवक था। देवयानी कच को मन ही मन चाहने लगी पर यह बात उसने किसी से कही नही। इसी बीच राक्षसों को यह बात पता चल गयी कि देवगुरु का पुत्र कच शुक्राचार्य से शिक्षा ले रहा है। राक्षस समझ गये कि कच का उद्देश्य तो मृतसंजीवनी विद्या का ज्ञान पाना है। राक्षसों ने निर्णय लिया कि कच का जीवित रहना विनाशकारी हो सकता है अतः वो चुपचाप कच को मारने की योजना बनाने लगे।

एक दिन राक्षसों ने कच को पकड़कर उसका वध कर दिया। देवयानी ने जब यह जाना तो उसने रो-रोकर पिता से कच को पुनर्जीवित करने की याचना की। शुक्राचार्य देवयानी का कच के प्रति प्रेम समझ गये, हारकर उन्होंने कच को जीवित कर दिया। इस बात से राक्षस चिढ गये, उन्होंने कुछ दिन बाद पुनः कच को मृत्यु के घाट उतार दिया। लेकिन शुक्राचार्य भी क्या करते, पुत्री मोह में उन्हें पुनः कच को जीवित करना पड़ा।

अब तो राक्षस क्रोधित ही हो गये। उन्होंने सोचा जो भी हो जाये कच को रास्ते से हटाना ही होगा। उन्होंने तीसरी बार कच को मार डाला। इस बार राक्षसों ने चालाकी की, राक्षसों ने कच को मारकर उसके शरीर को जला दिया और राख को एक पेय में मिलाकर अपने गुरु शुक्राचार्य को ही पिला दिया। राक्षसों ने सोचा चलो अब तो छुट्टी हो गयी कच की, लेकिन देवयानी ?

देवयानी ने जब कच को कहीं न पाया तो वो समझ गयी कि क्या हुआ होगा? देवयानी ने पुनः अपने पिता शुक्राचार्य से विनती की कि वो कच का पता करें। शुक्राचार्य महान ऋषि थे। उन्होंने अपने तपोबल की शक्ति से कच का आवाहन किया तो उन्हें खुद के पेट से कच की आवाज़ आई। शुक्राचार्य दुविधा में पड़ गये, अगर वो कच को जीवित करते हैं तो वो स्वयं मर जायेंगे। अतः उन्होंने कच की आत्मा को मृतसंजीवनी का ज्ञान दे दिया। कच अपने गुरु शुक्राचार्य का पेट फाड़कर बाहर आ गया और शुक्राचार्य मर गये। कच ने मृतसंजीवनी विद्या का प्रयोग किया और गुरु शुक्राचार्य को जीवित कर दिया।

देवयानी और कच :- कच ने शुक्राचार्य को जीवित करके शिष्य के धर्म को निभाया अतः शुक्राचार्य ने कच को आशीर्वाद दिया। देवयानी कच को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई और उसने कच से विवाह करने की इच्छा जताई। जवाब में कच ने सत्य का उद्घाटन किया कि यहाँ आने का उसका उद्देश्य (मृतसंजीवनी विद्या का ज्ञान) तो पूरा हो चुका, अब वो वापस देवलोक जा रहा है। इसके साथ ही कच ने यह भी कहा कि चूंकि वो शुक्राचार्य के पेट से निकला है अतः शुक्राचार्य उसके पिता समान हुए. इस प्रकार देवयानी कच की बहन हुई इसलिए वो अपनी बहन से शादी कैसे कर सकता है।

देवयानी को इस बात से गहरा आघात पहुंचा। क्रोध और शोक में देवयानी ने कच को श्राप दिया कि वो कभी भी मृतसंजीवनी विद्या का प्रयोग नही कर पायेगा। कच इस बात से चकित रहा गया, चिढ़कर उसने भी देवयानी को श्राप दिया कि जो जिस भी व्यक्ति से विवाह करेगी उसका चरित्र अच्छा नहीं होगा।

देवयानी और शर्मिष्ठा : - कच के चले जाने के बाद देवयानी व्यथित मन से जीवन व्यतीत करने लगी। एक दिन देवयानी राजकुमारी शर्मिष्ठा के साथ वन में स्नान करने गयी। राजकुमारी शर्मिष्ठा असुर राजा वृषपर्वा की पुत्री थी। राजा वृषपर्वा गुरु शुक्राचार्य का बहुत सम्मान करते थे और उन्हें मुख्य सलाहकार नियुक्त किये थे। इसी कारण देवयानी और शर्मिष्ठा में पहचान और मित्रता थी।

जब लडकियाँ स्नान कर रही थीं तो जोर ही हवा चली, जिससे नदी के बाहर रखे उनके सूखे कपड़े इधर-उधर बिखरने लगे। जब देवयानी ने नदी से बाहर आकर कपड़े पहने तो गलती से उसने शर्मिष्ठा के वस्त्र पहन लिए। हवा की वजह से सब कपड़े आपस में मिल गये थे अतः देवयानी से यह भूल हो गयी।

शर्मिष्ठा ने जब यह देखा कि देवयानी ने उसके वस्त्र पहन लिए तो उसने चिढ़कर कहा – राजकुमारी के कपड़े पहनने से तुम राजकुमारी नहीं बन जाओगी, तुम्हारे पिता मेरे पिता के सेवक ही हैं तो तुम भी सेविका ही हो।

देवयानी एक अति सुन्दर युवती थी, राजकुमारी के वस्त्र पहनने से उसकी सुन्दरता और भी बढ़ गयी थी। शर्मिष्ठा भी रूपवती थी पर उसे देवयानी से स्त्रीस्वभाव वश जलन हुई। स्नान करके लौटते समय गुस्से और जलन से भरी शर्मिष्ठा ने देवयानी को एक सूखे कुँए में धकेल दिया और अपनी दसियों के साथ वापस नगर आ गयी।

कुँवा बहुत गहरा नहीं था अतः देवयानी बच तो गयी लेकिन वो उस कुवें से बाहर नही निकल पायी। गिरने से लगी चोट से कराहती देवयानी बचाव की गुहार लगने लगी। संयोगवश उसी जंगल में युवा राजा ययाति शिकार खेल रहे थे।  राजा ययाति महान प्रतापी राजा नहुष के पुत्र थे। जब ययाति कुवें के पास से गुजरे तो उन्होंने देवयानी की करुण पुकार सुनी। राजा ययाति ने देवयानी का हाथ पकड़कर,  कुवें से बाहर निकाल कर उसकी प्राण-रक्षा की।

देवयानी और ययाति :- राजा ययाति एक सुदर्शन पुरुष थे। उनके सुंदर व्यक्तित्व से देवयानी प्रभावित होकर बोली – आपने मेरा हाथ पकड़ा ही है तो अब छोड़िये नहीं, आप मुझे पत्नी रूप में स्वीकार कीजिये। ययाति भी देवयानी के रूप, यौवन पर मुग्ध थे। जब उन्हें पता चला कि देवयानी गुरु शुक्राचार्य की पुत्री है तो वो असमंजस में पड़ गये।  ययाति ने देवयानी से कहा कि यद्यपि वो देवयानी से विवाह करना चाहते हैं पर गुरु शुक्राचार्य को यह सम्बन्ध स्वीकार नहीं होगा। अतः मैं यह विवाह करने में असमर्थ हूँ। यह कहकर दुखी मन से राजा ययाति ने देवयानी से विदा ली।

जीवन में पुनः दूसरी बार देवयानी का तिरस्कार हुआ। अपमान, दुःख-शोक के सागर में डूबी देवयानी वहीँ कुँए के पास बैठकर रोने लगी। उधर जब शाम ढले देवयानी जंगल से वापस नहीं आई तो शुक्राचार्य को चिंता हुई। शुक्राचार्य देवयानी को खोजने निकल पड़े. वन में जब उन्हें देवयानी मिली तो उसकी हालत देखकर उन्हें बहुत दुःख हुआ। देवयानी के कपड़े गंदे, शरीर में चोट लगी और सुन्दर मुख अश्रुओं में डूबा हुआ था।

अपनी प्रिय पुत्री की यह दशा देखकर शुक्राचार्य बहुत दुखी हुए। उन्होंने देवयानी से पूछा कि उसकी इस दयनीय स्थिति के लिए कौन उत्तरदायी है। देवयानी ने राजकुमारी शर्मिष्ठा की बात बताई और कहा कि – राजकुमारी ने मुझे एक सेवक की पुत्री कहा और मेरा अपमान किया। मैं यहाँ से तब तक नहीं हिलूंगी, जब तक राजकुमारी शर्मिष्ठा मेरी दासी नहीं बन जाती। यह एक अवांक्षित इच्छा थी पर गुरु शुक्राचार्य इस स्थिति में अपनी प्रिय पुत्री को न कैसे कहते?

शुक्राचार्य ने राजा वृषपर्वा को संदेश भेजा कि वो उनके राज्य में वापस ही नहीं लौटेंगे अगर देवायनी के इच्छानुसार राजकुमारी शर्मिष्ठा देवयानी की सेविका नहीं बनी तो। राजा वृषपर्वा यह बात जानते थे कि गुरु शुक्राचार्य के बिना असुरों का पतन निश्चित था। राजकुमारी शर्मिष्ठा भी यह बात जानती थी। अतः अपने वंश और राक्षस जाति के लिए उसने आखिरकार देवायनी की सेविका बनना स्वीकार कर लिया।

देवयानी, शर्मिष्ठा और राजा ययाति : - दिन बीतने लगे, एक दिन देवयानी उसी वन में घूम रही थी कि पुनः उसकी मुलाकात राजा ययाति से हो गयी। देवयानी और ययाति दोनों एक दूसरे को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए। इस बार देवयानी ययाति को अपने साथ लेकर पिता शुक्राचार्य के पास पहुंची और ययाति से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की।  गुरु शुक्राचार्य ने देवयानी की इच्छा स्वीकार की पर उन्होंने ययाति के सामने शर्त रखी कि जीवन में कभी भी ययाति की वजह से देवयानी के आंख से एक भी अश्रु बहना नहीं चाहिए। ययाति ने यह शर्त सहर्ष मान ली अतः देवयानी और ययाति का विवाह हो गया।

देवयानी से विवाह के बाद राजा ययाति वापस अपने राज्य प्रतिष्ठानपुर (आधुनिक इलाहाबाद शहर) वापस लौट गये और आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। देवयानी के साथ सेविका राजकुमारी शर्मिष्ठा भी आई थी। दासी होने के बावजूद चूँकि शर्मिष्ठा एक राजकुमारी थी, अतः उसे भी रहने के लिए एक अच्छा महल दे दिया गया था.

एक दिन शर्मिष्ठा अपने उद्यान में घूम रही थी कि उसका सामना उधर से गुजरते राजा ययाति से हो गया। कच के श्राप का असर कहें या शर्मिष्ठा की सुन्दरता या विधि का खेल, राजा ययाति शर्मिष्ठा की सुन्दरता पर मोहित हो गये।

 शर्मिष्ठा भी ययाति की ओर आकर्षित थी। शर्मिष्ठा ने ययाति से विनती की कि वो उसकी भावनाओं का सम्मान करते हुए उससे विवाह कर लें। इच्छा तो ययाति की भी थी पर वो यह जानते थे कि देवयानी को पता चला तो बहुत क्रोधित होगी। देवयानी को कष्ट हुआ तो गुरु शुक्राचार्य का रोष ययाति पर टूटेगा।

शर्मिष्ठा ययाति से कहती है – राजधर्म के अनुसार यह बात जरा भी अनुचित नहीं कि एक राजा एक राजकुमारी से विवाह कर लें अगर दोनों के मन में एक ही भाव हो तो। हम दोनों के मन में एक ही भावना है इसलिए हमें निः संकोच विवाह कर लेना चाहिए। आखिरकार ययाति शर्मिष्ठा की बातों से निरुत्तर हो गये और दोनों ने गुपचुप गंधर्व विवाह कर लिया।

कुछ दिन बाद देवयानी गर्भवती हुई और उसके दो पुत्र हुए – यदु और तुर्वस्तु. उधर शर्मिष्ठा ने भी 3 पुत्रों को जन्म दिया – पुरु, अनु और द्रुह्यु. देवयानी को जब पता चला कि शर्मिष्ठा के पुत्रों के पिता ययाति हैं तो उसने यह बात शुक्राचार्य से बताई। क्रोधित शुक्राचार्य ने राजा ययाति को श्राप दे दिया कि वो तुरंत ही एक वृद्ध पुरुष बन जाये।

शुक्राचार्य का ययाति को श्राप :- देवयानी ने जब देखा कि उसका युवा, सुंदर पति अब एक कुरूप बूढ़ा व्यक्ति हो गया है तो उसे कष्ट हुआ।  देवयानी ने पिता शुक्राचार्य से विनती की कि वो अपना श्राप वापस ले लें। शुक्राचार्य बोले – मेरा श्राप तो वापस नही हो सकता, हाँ अगर ययाति का कोई पुत्र अपनी इच्छा से अपना यौवन ययाति को दे दे तो ययाति फिर से युवा हो जायेगा।

भोग में डूबे ययाति का मन यौवन के आनंद से भरा नहीं था। वो बड़े आत्मविश्वास से अपने बड़े पुत्र यदु के पास गया और यौवन देने की बात कही।  यदु ने ययाति को मना कर दिया। इसी प्रकार तुर्वस्तु, अनु, द्रुह्यु ने भी ययाति के आग्रह को ठुकरा दिया। अंत में ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु से याचना की,पुरु ने सहर्ष अपने पिता की बात मान ली और यौवन दे दिया।उसी पल ययाति पुनः युवा बन गये और पुरु एक वृद्ध व्यक्ति बन गया।

ययाति ने आनंदपूर्वक 100 साल तक यौवन का उपभोग किया। 100 वर्ष पूरे होने के बाद भी ययाति ने जब अपने को असंतुष्ट पाया तो वह सोच में पड़ गया। उसे समझ आया कि इच्छाओं का कोई अंत नहीं है, लाख मन की कर लो मगर फिर कोई नयी इच्छा पैदा हो जाती है। ऐसे कामनाओं के पीछे भागना व्यर्थ है। अतः ययाति ने अपने पुत्र पुरु के पास वापस जाकर उसे उसका यौवन वापस करने की सोची।

जब पुरु को अपने पिता ययाति की इच्छा पता चली तो उसने कहा – अपने पिता के आज्ञा का पालन तो मेरा कर्तव्य था, आप अगर चाहें तो कुछ समय और आनंद भोग करें, मुझे कोई कष्ट नही है। ययाति ने जब यह बात सुनी तो उन्हें बहुत ग्लानि हुई। ययाति पुरु की उदारता से बहुत प्रभावित हुए और सबसे छोटा होने के बावजूद उन्होंने पुरु को अपना उत्तराधिकारी घोषित का दिया।

ययाति ने पुरु को उसका यौवन वपस लौटा दिया। पुनः वृद्ध रूप में आकर ययाति देवयानी और शर्मिष्ठा के साथ राज्य छोड़कर वानप्रस्थ हो गये।आगे चलकर राजा ययाति के पाँचों पुत्रों ने 5 महानतम वंश का निर्माण किया।

राजा यदु – यदु वंश (यादव)
राजा तुर्वस्तु – यवन वंश (तुर्क)
राजा अनु – म्लेच्छ वंश (ग्रीक)
राजा द्रुह्यु – भोज वंश
राजा पुरु – पौरव वंश या कुरु वंश

बुधवार, 19 सितंबर 2018

पद्मा एकादशी

पद्मा एकादशी (20/09/2017 ब्रहस्पतिवार) व्रत कथा

(एकादशी व्रत की कथा पढ़ऩे वाले तथा श्रवण करने वालों को हजार अशवमेध यज्ञ के बराबर फल प्राप्त होता है)

युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! भाद्रपद शुक्ल एकादशी का क्या नाम है? इसकी विधि तथा इसका माहात्म्य कृपा करके कहिए। तब भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि इस पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष को देने वाली तथा सब पापों का नाश करने वाली, उत्तम वामन एकादशी का माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूँ तुम ध्यानपूर्वक सुनो।

यह पद्मा/परिवर्तिनी एकादशी जयंती एकादशी भी कहलाती है। इसका यज्ञ करने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। पापियों के पाप नाश करने के लिए इससे बढ़कर कोई उपाय नहीं। जो मनुष्य इस एकादशी के दिन मेरी (वामन रूप की) पूजा करता है, उससे तीनों लोक पूज्य होते हैं। अत: मोक्ष की इच्छा करने वाले मनुष्य इस व्रत को अवश्य करें।

जो कमलनयन भगवान का कमल से पूजन करते हैं, वे अवश्य भगवान के समीप जाते हैं। जिसने भाद्रपद शुक्ल एकादशी को व्रत और पूजन किया, उसने ब्रह्मा, विष्णु सहित तीनों लोकों का पूजन किया। अत: हरिवासर अर्थात एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए। इस दिन भगवान करवट लेते हैं, इसलिए इसको परिवर्तिनी एकादशी भी कहते हैं।

यह एकादशी जयंती एकादशी भी कहलाती है। इसका यज्ञ करने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। पापियों के पाप नाश करने के लिए इससे बढ़कर कोई उपाय नहीं। जो मनुष्य इस एकादशी के दिन मेरी (वामन रूप की) पूजा करता है, उससे तीनों लोक पूज्य होते हैं।

भगवान के वचन सुनकर युधिष्ठिर बोले कि भगवान! मुझे अतिसंदेह हो रहा है कि आप किस प्रकार सोते और करवट लेते हैं तथा किस तरह राजा बलि बलि को बाँधा और वामन रूप रखकर क्या-क्या लीलाएँ कीं? चातुर्मास के व्रत की क्या ‍विधि है तथा आपके शयन करने पर मनुष्य का क्या कर्तव्य है। सो आप मुझसे विस्तार से बताइए।

श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे राजन! अब आप सब पापों को नष्ट करने वाली कथा का श्रवण करें। त्रेतायुग में बलि नामक एक दैत्य था। वह मेरा परम भक्त था। विविध प्रकार के वेद सूक्तों से मेरा पूजन किया करता था और नित्य ही ब्राह्मणों का पूजन तथा यज्ञ के आयोजन करता था, लेकिन इंद्र से द्वेष के कारण उसने इंद्रलोक तथा सभी देवताओं को जीत लिया।

इस कारण सभी देवता एकत्र होकर सोच-विचारकर भगवान के पास गए। बृहस्पति सहित इंद्रादिक देवता प्रभु के निकट जाकर और नतमस्तक होकर वेद मंत्रों द्वारा भगवान का पूजन और स्तुति करने लगे। अत: मैंने वामन रूप धारण करके पाँचवाँ अवतार लिया और फिर अत्यंत तेजस्वी रूप से राजा बलि को जीत लिया।

इतनी वार्ता सुनकर राजा युधिष्ठिर बोले कि हे जनार्दन! आपने वामन रूप धारण करके उस महाबली दैत्य को किस प्रकार जीता? श्रीकृष्ण कहने लगे- मैंने (वामन रूपधारी ब्रह्मचारी) बलि से तीन पग भूमि की याचना करते हुए कहा- ये मुझको तीन लोक के समान है और हे राजन यह तुमको अवश्य ही देनी होगी।

राजा बलि ने इसे तुच्छ याचना समझकर तीन पग भूमि का संकल्प मुझको दे दिया और मैंने अपने त्रिविक्रम रूप को बढ़ाकर यहाँ तक कि भूलोक में पद, भुवर्लोक में जंघा, स्वर्गलोक में कमर, मह:लोक में पेट, जनलोक में हृदय, यमलोक में कंठ की स्थापना कर सत्यलोक में मुख, उसके ऊपर मस्तक स्थापित किया।

सूर्य, चंद्रमा आदि सब ग्रह गण, योग, नक्षत्र, इंद्रादिक देवता और शेष आदि सब नागगणों ने विविध प्रकार से वेद सूक्तों से प्रार्थना की। तब मैंने राजा बलि का हाथ पकड़कर कहा कि हे राजन! एक पद से पृथ्वी, दूसरे से स्वर्गलोक पूर्ण हो गए। अब तीसरा पग कहाँ रखूँ?

तब बलि ने अपना सिर झुका लिया और मैंने अपना पैर उसके मस्तक पर रख दिया जिससे मेरा वह भक्त पाताल को चला गया। फिर उसकी विनती और नम्रता को देखकर मैंने कहा कि हे बलि! मैं सदैव तुम्हारे निकट ही रहूँगा। विरोचन पुत्र बलि से कहने पर भाद्रपद शुक्ल एकादशी के दिन बलि के आश्रम पर मेरी मूर्ति स्थापित हुई।

इसी प्रकार दूसरी क्षीरसागर में शेषनाग के पष्ठ पर हुई! हे राजन! इस एकादशी को भगवान शयन करते हुए करवट लेते हैं, इसलिए तीनों लोकों के स्वामी भगवान विष्णु का उस दिन पूजन करना चाहिए। ताँबा, चाँदी, चावल और दही का दान करना उचित है। रात्रि को जागरण अवश्य करना चाहिए।

जो विधिपूर्वक इस एकादशी का व्रत करते हैं, वे सब पापों से मुक्त होकर स्वर्ग में जाकर चंद्रमा के समान प्रकाशित होते हैं और यश पाते हैं। जो पापनाशक इस कथा को पढ़ते या सुनते हैं, उनको हजार अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इति शुभम्

पद्मा (जलझूलनी) एकादशी

*20 सितम्बर 2018 वीरवार को  होगी श्री विष्णु के वामन रूप की पूजा*

*जानिए महत्व और पौराणिक व्रतकथा*

युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! भाद्रपद शुक्ल एकादशी का क्या नाम है? इसकी विधि तथा इसका माहात्म्य कृपा करके कहिए।

तब भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि इस पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष को देने वाली तथा सब पापों का नाश करने वाली, उत्तम वामन एकादशी का माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूं तुम ध्यानपूर्वक सुनो।

यह पद्मा/परिवर्तिनी एकादशी, जयंती और जलझूलनी एकादशी भी कहलाती है। इसका व्रत करने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। पापियों के पाप नाश करने के लिए इससे बढ़कर कोई उपाय नहीं। जो मनुष्य इस एकादशी के दिन मेरी (वामन रूप की) पूजा करता है, उससे तीनों लोक पूज्य होते हैं। अत: मोक्ष की इच्छा करने वाले मनुष्य इस व्रत को अवश्य करें।


जो कमलनयन भगवान का कमल से पूजन करते हैं, वे अवश्य भगवान के समीप जाते हैं। जिसने भाद्रपद शुक्ल एकादशी को व्रत और पूजन किया, उसने ब्रह्मा, विष्णु सहित तीनों लोकों का पूजन किया। अत: हरिवासर अर्थात एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए। इस दिन भगवान करवट लेते हैं, इसलिए इसको परिवर्तिनी एकादशी भी कहते हैं।

भगवान के वचन सुनकर युधिष्ठिर बोले कि भगवान! मुझे अतिसंदेह हो रहा है कि आप किस प्रकार सोते और करवट लेते हैं तथा किस तरह राजा बलि को बांधा और वामन रूप रखकर क्या-क्या लीलाएं कीं? चातुर्मास के व्रत की क्या विधि है तथा आपके शयन करने पर मनुष्य का क्या कर्तव्य है। सो आप मुझसे विस्तार से बताइए।


श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे राजन! अब आप सब पापों को नष्ट करने वाली कथा का श्रवण करें।

त्रेतायुग में बलि नामक एक दैत्य था। वह मेरा परम भक्त था। विविध प्रकार के वेद सूक्तों से मेरा पूजन किया करता था और नित्य ही ब्राह्मणों का पूजन तथा यज्ञ के आयोजन करता था, लेकिन इंद्र से द्वेष के कारण उसने इंद्रलोक तथा सभी देवताओं को जीत लिया।

इस कारण सभी देवता एकत्र होकर सोच-विचारकर भगवान के पास गए। बृहस्पति सहित इंद्रादिक देवता प्रभु के निकट जाकर और नतमस्तक होकर वेद मंत्रों द्वारा भगवान का पूजन और स्तुति करने लगे। अत: मैंने वामन रूप धारण करके पांचवां अवतार लिया और फिर अत्यंत तेजस्वी रूप से राजा बलि को जीत लिया।

इतनी वार्ता सुनकर राजा युधिष्ठिर बोले कि हे जनार्दन! आपने वामन रूप धारण करके उस महाबली दैत्य को किस प्रकार जीता?

श्रीकृष्ण कहने लगे- मैंने (वामन रूपधारी ब्रह्मचारी) बलि से तीन पग भूमि की याचना करते हुए कहा- ये मुझको तीन लोक के समान है और हे राजन यह तुमको अवश्य ही देनी होगी।

राजा बलि ने इसे तुच्छ याचना समझकर तीन पग भूमि का संकल्प मुझको दे दिया और मैंने अपने त्रिविक्रम रूप को बढ़ाकर यहां तक कि भूलोक में पद, भुवर्लोक में जंघा, स्वर्गलोक में कमर, मह:लोक में पेट, जनलोक में हृदय, यमलोक में कंठ की स्थापना कर सत्यलोक में मुख, उसके ऊपर मस्तक स्थापित किया।


सूर्य, चंद्रमा आदि सब ग्रह गण, योग, नक्षत्र, इंद्रादिक देवता और शेष आदि सब नागगणों ने विविध प्रकार से वेद सूक्तों से प्रार्थना की। तब मैंने राजा बलि का हाथ पकड़कर कहा कि हे राजन! एक पद से पृथ्वी, दूसरे से स्वर्गलोक पूर्ण हो गए। अब तीसरा पग कहां रखूं?

तब बलि ने अपना सिर झुका लिया और मैंने अपना पैर उसके मस्तक पर रख दिया जिससे मेरा वह भक्त पाताल को चला गया। फिर उसकी विनती और नम्रता को देखकर मैंने कहा कि हे बलि! मैं सदैव तुम्हारे निकट ही रहूंगा। विरोचन पुत्र बलि से कहने पर भाद्रपद शुक्ल एकादशी के दिन बलि के आश्रम पर मेरी मूर्ति स्थापित हुई।

इसी प्रकार दूसरी क्षीरसागर में शेषनाग के पष्ठ पर हुई! हे राजन! इस एकादशी को भगवान शयन करते हुए करवट लेते हैं, इसलिए तीनों लोकों के स्वामी भगवान विष्णु का उस दिन पूजन करना चाहिए। इस दिन तांबा, चांदी, चावल और दही का दान करना उचित है। रात्रि को जागरण अवश्य करना चाहिए।

जो विधिपूर्वक इस एकादशी का व्रत करते हैं, वे सब पापों से मुक्त होकर स्वर्ग में जाकर चंद्रमा के समान प्रकाशित होते हैं और यश पाते हैं। जो पापनाशक इस कथा को पढ़ते या सुनते हैं, उनको हजार अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है।

मंगलवार, 18 सितंबर 2018

कलयुग वर्णन

🥀🥀🥀...कलयुग वर्णन (उत्तरकाण्ड)...🥀🥀🥀

कलिमल ग्रसे धर्म सब
लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि
प्रगट किए बहु पंथ॥ 1क॥

कलियुग के पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया, सद्ग्रंथ लुप्त हो गए, दम्भियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर-करके बहुत से पंथ प्रकट कर दिए॥1(क)॥

भए लोग सब मोहबस
लोभ ग्रसे सुभ कर्म।
सुनु हरिजान ग्यान निधि
कहउँ कछुक कलिधर्म॥1 ख॥

सभी लोग मोह के वश हो गए, शुभ कर्मों को लोभ ने हड़प लिया। हे ज्ञान के भंडार! हे श्री हरि के वाहन! सुनिए, अब मैं कलि के कुछ धर्म कहता हूँ॥ (1ख)॥

बरन धर्म नहिं आश्रम चारी।
श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन।
कोउ नहिं मान निगम अनुसासन॥

कलियुग में न वर्णधर्म रहता है, न चारों आश्रम रहते हैं। सब पुरुष-स्त्री वेद के विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों के बेचने वाले और राजा प्रजा को खा डालने वाले होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता॥2॥

मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा।
पंडित सोइ जो गाल बजावा॥
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई।
ता कहुँ संत कहइ सब कोई॥3॥
जिसको जो अच्छा लग जाए, वही मार्ग है। जो डींग मारता है, वही पंडित है। जो मिथ्या आरंभ करता (आडंबर रचता) है और जो दंभ में रत है, उसी को सब कोई संत कहते हैं॥3॥

सोइ सयान जो परधन हारी।
जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥
जो कह झूँठ मसखरी जाना।
कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना॥4॥
जो (जिस किसी प्रकार से) दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान है। जो दंभ करता है, वही बड़ा आचारी है। जो झूठ बोलता है और हँसी-दिल्लगी करना जानता है, कलियुग में वही गुणवान कहा जाता है॥4॥

निराचार जो श्रुति पथ त्यागी।
कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी॥
जाकें नख अरु जटा बिसाला।
सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥5॥
जो आचारहीन है और वेदमार्ग को छोड़े हुए है, कलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान्‌ है। जिसके बड़े-बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएँ हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है॥5॥

असुभ बेष भूषन धरें
भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर
पूज्य ते कलिजुग माहिं॥6क॥
जो अमंगल वेष और अमंगल भूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-भक्ष्य (खाने योग्य और न खाने योग्य) सब कुछ खा लेते हैं वे ही योगी हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य हैं॥6 (क)॥

जे अपकारी चार
तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार तेइ
बकता कलिकाल महुँ॥6 ख॥
जिनके आचरण दूसरों का अपकार (अहित) करने वाले हैं, उन्हीं का बड़ा गौरव होता है और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं। जो मन, वचन और कर्म से लबार (झूठ बकने वाले) हैं, वे ही कलियुग में वक्ता माने जाते हैं॥6(ख)॥

नारि बिबस नर सकल गोसाईं।
नाचहिं नट मर्कट की नाईं॥
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना।
मेल जनेऊ लेहिं कुदाना॥7॥
हे गोसाईं! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बंदर की तरह (उनके नचाए) नाचते हैं। ब्राह्मणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं॥7॥

सब नर काम लोभ रत क्रोधी।
देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी॥
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी।
भजहिं नारि पर पुरुष अभागी॥8॥
सभी पुरुष काम और लोभ में तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवता, ब्राह्मण, वेद और संतों के विरोधी होते हैं। अभागिनी स्त्रियाँ गुणों के धाम सुंदर पति को छोड़कर पर पुरुष का सेवन करती हैं॥8॥

सौभागिनीं बिभूषन हीना।
बिधवन्ह के सिंगार नबीना॥
गुर सिष बधिर अंध का लेखा।
एक न सुनइ एक नहिं देखा॥9॥
सुहागिनी स्त्रियाँ तो आभूषणों से रहित होती हैं, पर विधवाओं के नित्य नए श्रृंगार होते हैं। शिष्य और गुरु में बहरे और अंधे का सा हिसाब होता है। एक (शिष्य) गुरु के उपदेश को सुनता नहीं, एक (गुरु) देखता नहीं (उसे ज्ञानदृष्टि) प्राप्त नहीं है)॥9॥

हरइ सिष्य धन सोक न हरई।
सो गुर घोर नरक महुँ परई॥
मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं।
उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥10॥
जो गुरु शिष्य का धन हरण करता है, पर शोक नहीं हरण करता, वह घोर नरक में पड़ता है। माता-पिता बालकों को बुलाकर वही धर्म सिखलाते हैं, जिससे पेट भरे॥10॥

ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर
कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं
बिप्र गुर घात॥11॥

स्त्री-पुरुष ब्रह्मज्ञान के सिवा दूसरी बात नहीं करते, पर वे लोभवश कौड़ियों (बहुत थोड़े लाभ) के लिए ब्राह्मण और गुरु की हत्या कर डालते हैं॥11॥

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन
हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर
आँखि देखावहिं डाटि॥11॥

शूद्र ब्राह्मणों से विवाद करते हैं (और कहते हैं) कि हम क्या तुमसे कुछ कम हैं? जो ब्रह्म को जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है। (ऐसा कहकर) वे उन्हें डाँटकर आँखें दिखलाते हैं॥99 (ख)॥

पर त्रिय लंपट कपट सयाने।
मोह द्रोह ममता लपटाने॥
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर।
देखा मैं चरित्र कलिजुग कर॥12॥

जो पराई स्त्री में आसक्त, कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह और ममता में लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म और जीव को एक बताने वाले) ज्ञानी हैं। मैंने उस कलियुग का यह चरित्र देखा॥12॥

आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं।
जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं॥
कल्प कल्प भरि एक एक नरका।
परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका॥13॥

वे स्वयं तो नष्ट हुए ही रहते हैं, जो कहीं सन्मार्ग का प्रतिपालन करते हैं, उनको भी वे नष्ट कर देते हैं। जो तर्क करके वेद की निंदा करते हैं, वे लोग कल्प-कल्पभर एक-एक नरक में पड़े रहते हैं॥13॥

जे बरनाधम तेलि कुम्हारा।
स्वपच किरात कोल कलवारा।
पनारि मुई गृह संपति नासी।
मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी॥14॥

तेली, कुम्हार, चाण्डाल, भील, कोल और कलवार आदि जो वर्ण में नीचे हैं, स्त्री के मरने पर अथवा घर की संपत्ति नष्ट हो जाने पर सिर मुँड़ाकर संन्यासी हो जाते हैं॥14॥

ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं।
उभय लोक निज हाथ नसावहिं॥
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी।
निराचार सठ बृषली स्वामी॥15॥

वे अपने को ब्राह्मणों से पुजवाते हैं और अपने ही हाथों दोनों लोक नष्ट करते हैं। ब्राह्मण अपढ़, लोभी, कामी, आचारहीन, मूर्ख और नीची जाति की व्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं॥15॥

सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना।
बैठि बरासन कहहिं पुराना॥
सब नर कल्पित करहिं अचारा।
जाइ न बरनि अनीति अपारा॥16॥

शूद्र नाना प्रकार के जप, तप और व्रत करते हैं तथा ऊँचे आसन (व्यास गद्दी) पर बैठकर पुराण कहते हैं। सब मनुष्य मनमाना आचरण करते हैं। अपार अनीति का वर्णन नहीं किया जा सकता॥16॥

भए बरन संकर कलि
भिन्न सेतु सब लोग।
करहिं पाप पावहिं दुख
भय रुज सोक बियोग॥17 क॥

कलियुग में सब लोग वर्णसंकर और मर्यादा से च्युत हो गए। वे पाप करते हैं और (उनके फलस्वरूप) दुःख, भय, रोग, शोक और (प्रिय वस्तु का) वियोग पाते हैं॥17(क)॥

श्रुति संमत हरि भक्ति पथ
संजुत बिरति बिबेक।
तेहिं न चलहिं नर मोह बस
कल्पहिं पंथ अनेक॥17 ख॥

वेद सम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है, मोहवश मनुष्य उस पर नहीं चलते और अनेकों नए-नए पंथों की कल्पना करते हैं॥17 (ख)॥

बहु दाम सँवारहिं धाम जती।
बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥
तपसी धनवंत दरिद्र गृही।
कलि कौतुक तात न जात कही॥18॥

संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती॥18॥

कुलवंति निकारहिं नारि सती।
गृह आनहिं चेरि निबेरि गती॥
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं।
अबलानन दीख नहीं जब लौं॥19॥

कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी चाल को छोड़कर घर में दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक स्त्री का मुँह नहीं दिखाई पड़ता॥19॥

ससुरारि पिआरि लगी जब तें।
रिपुरूप कुटुंब भए तब तें॥
नृप पाप परायन धर्म नहीं।
करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं॥20॥

जब से ससुराल प्यारी लगने लगी, तब से कुटुम्बी शत्रु रूप हो गए। राजा लोग पाप परायण हो गए, उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही (बिना अपराध) दंड देकर उसकी विडंबना (दुर्दशा) किया करते हैं॥20॥

धनवंत कुलीन मलीन अपी।
द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥
नहिं मान पुरान न बेदहि जो।
हरि सेवक संत सही कलि सो॥21॥

धनी लोग मलिन (नीच जाति के) होने पर भी कुलीन माने जाते हैं। द्विज का चिह्न जनेऊ मात्र रह गया और नंगे बदन रहना तपस्वी का। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं॥21॥

कबि बृंद उदार दुनी न सुनी।
गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी॥
कलि बारहिं बार दुकाल परै।
बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै॥22॥

कवियों के तो झुंड हो गए, पर दुनिया में उदार (कवियों का आश्रयदाता) सुनाई नहीं पड़ता। गुण में दोष लगाने वाले बहुत हैं, पर गुणी कोई भी नहीं। कलियुग में बार-बार अकाल पड़ते हैं। अन्न के बिना सब लोग दुःखी होकर मरते हैं॥22॥

सुनु खगेस कलि कपट
हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह मारादि मद
ब्यापि रहे ब्रह्मंड॥23 क॥

हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए कलियुग में कपट, हठ (दुराग्रह), दम्भ, द्वेष, पाखंड, मान, मोह और काम आदि (अर्थात्‌ काम, क्रोध और लोभ) और मद ब्रह्माण्डभर में व्याप्त हो गए (छा गए)॥23 (क)॥

तामस धर्म करिहिं नर
जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनी
बए न जामहिं धान॥23 ख॥

मनुष्य जप, तप, यज्ञ, व्रत और दान आदि धर्म तामसी भाव से करने लगे। देवता (इंद्र) पृथ्वी पर जल नहीं बरसाते और बोया हुआ अन्न उगता नहीं॥23 (ख)॥

अबला कच भूषन भूरि छुधा।
धनहीन दुखी ममता बहुधा॥
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता।
मति थोरि कठोरि न कोमलता॥24॥

स्त्रियों के बाल ही भूषण हैं (उनके शरीर पर कोई आभूषण नहीं रह गया) और उनको भूख बहुत लगती है (अर्थात्‌ वे सदा अतृप्त ही रहती हैं)। वे धनहीन और बहुत प्रकार की ममता होने के कारण दुःखी रहती हैं। वे मूर्ख सुख चाहती हैं, पर धर्म में उनका प्रेम नहीं है। बुद्धि थोड़ी है और कठोर है, उनमें कोमलता नहीं है॥24॥

नर पीड़ित रोग न भोग कहीं।
अभिमान बिरोध अकारनहीं॥
लघु जीवन संबदु पंच दसा।
कलपांत न नास गुमानु असा॥25॥

मनुष्य रोगों से पीड़ित हैं, भोग (सुख) कहीं नहीं है। बिना ही कारण अभिमान और विरोध करते हैं। दस-पाँच वर्ष का थोड़ा सा जीवन है, परंतु घमंड ऐसा है मानो कल्पांत (प्रलय) होने पर भी उनका नाश नहीं होगा॥25॥

कलिकाल बिहाल किए मनुजा।
नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा॥
नहिं तोष बिचार न सीतलता।
सब जाति कुजाति भए मगता॥26॥

कलिकाल ने मनुष्य को बेहाल (अस्त-व्यस्त) कर डाला। कोई बहिन-बेटी का भी विचार नहीं करता। (लोगों में) न संतोष है, न विवेक है और न शीतलता है। जाति, कुजाति सभी लोग भीख माँगने वाले हो गए॥26॥

इरिषा परुषाच्छर लोलुपता।
भरि पूरि रही समता बिगता॥
सब लोग बियोग बिसोक हए।
बरनाश्रम धर्म अचार गए॥27॥

ईर्षा (डाह), कडुवे वचन और लालच भरपूर हो रहे हैं, समता चली गई। सब लोग वियोग और विशेष शोक से मरे पड़े हैं। वर्णाश्रम धर्म के आचरण नष्ट हो गए॥27॥

दम दान दया नहिं जानपनी।
जड़ता परबंचनताति घनी॥
तनु पोषक नारि नरा सगरे।
परनिंदक जे जग मो बगरे॥28॥

इंद्रियों का दमन, दान, दया और समझदारी किसी में नहीं रही। मूर्खता और दूसरों को ठगना, यह बहुत अधिक बढ़ गया। स्त्री-पुरुष सभी शरीर के ही पालन-पोषण में लगे रहते हैं। जो पराई निंदा करने वाले हैं, जगत्‌ में वे ही फैले हैं॥28॥

सुनु ब्यालारि काल कलि
मल अवगुन आगार।
गुनउ बहुत कलिजुग कर
बिनु प्रयास निस्तार॥29 क॥
हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, कलिकाल पाप और अवगुणों का घर है, किंतु कलियुग में एक गुण भी बड़ा है कि उसमें बिना ही परिश्रम भवबंधन से छुटकारा मिल जाता है॥29 (क)॥

कृतजुग त्रेताँ द्वापर
पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि
हरि नाम ते पावहिं लोग॥29 ख॥

सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान्‌ के नाम से पा जाते हैं॥29(ख)॥

कृतजुग सब जोगी बिग्यानी।
करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं।
प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥30॥

सत्ययुग में सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके सब प्राणी भवसागर से तर जाते हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सब कर्मों को प्रभु को समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं॥30॥

द्वापर करि रघुपति पद पूजा।
नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।
गावत नर पावहिं भव थाहा॥31॥

द्वापर में श्री रघुनाथजी के चरणों की पूजा करके मनुष्य संसार से तर जाते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है और कलियुग में तो केवल श्री हरि की गुणगाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं॥31॥

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना।
एक अधार राम गुन गाना॥
सब भरोस तजि जो भज रामहि।
प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥32॥

कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्री रामजी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्री रामजी को भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है,॥32॥

सोइ भव तर कछु संसय नाहीं।
नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं॥
कलि कर एक पुनीत प्रतापा।
मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥33॥

वही भवसागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है। कलियुग का एक पवित्र प्रताप (महिमा) है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं, पर (मानसिक) पाप नहीं होते॥34॥

कलिजुग सम जुग आन नहिं
जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल
भव तर बिनहिं प्रयास॥35 क॥

यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है, (क्योंकि) इस युग में श्री रामजी के निर्मल गुणसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार (रूपी समुद्र) से तर जाता है॥35 (क)॥

प्रगट चारि पद धर्म के
कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें
दान करइ कल्यान॥35 ख॥

धर्म के चार चरण (सत्य, दया, तप और दान) प्रसिद्ध हैं, जिनमें से कलि में एक (दान रूपी) चरण ही प्रधान है। जिस किसी प्रकार से भी दिए जाने पर दान कल्याण ही करता है॥35(ख)॥

नित जुग धर्म होहिं सब केरे।
हृदयँ राम माया के प्रेरे॥
सुद्ध सत्व समता बिग्याना।
कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना॥36॥

श्री रामजी की माया से प्रेरित होकर सबके हृदयों में सभी युगों के धर्म नित्य होते रहते हैं। शुद्ध सत्त्वगुण, समता, विज्ञान और मन का प्रसन्न होना, इसे सत्ययुग का प्रभाव जानें॥36॥

सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा।
सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा॥
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस।
द्वापर धर्म हरष भय मानस॥37॥

सत्त्वगुण अधिक हो, कुछ रजोगुण हो, कर्मों में प्रीति हो, सब प्रकार से सुख हो, यह त्रेता का धर्म है। रजोगुण बहुत हो, सत्त्वगुण बहुत ही थोड़ा हो, कुछ तमोगुण हो, मन में हर्ष और भय हो, यह द्वापर का धर्म है॥37॥

तामस बहुत रजोगुन थोरा।
कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा॥
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं।
तजि अधर्म रति धर्म कराहीं॥38॥

तमोगुण बहुत हो, रजोगुण थोड़ा हो, चारों ओर वैर-विरोध हो, यह कलियुग का प्रभाव है। पंडित लोग युगों के धर्म को मन में ज्ञान (पहचान) कर, अधर्म छोड़कर धर्म में प्रीति करते हैं॥38॥

काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही।
रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥
नट कृत बिकट कपट खगराया।
नट सेवकहि न ब्यापइ माया॥39॥

जिसका श्री रघुनाथजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है, उसको कालधर्म (युगधर्म) नहीं व्यापते। हे पक्षीराज! नट (बाजीगर) का किया हुआ कपट चरित्र (इंद्रजाल) देखने वालों के लिए बड़ा विकट (दुर्गम) होता है, पर नट के सेवक (जंभूरे) को उसकी माया नहीं व्यापती॥39॥

हरि माया कृत दोष गुन
बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब
अस बिचारि मन माहिं॥40 क॥
श्री हरि की माया के द्वारा रचे हुए दोष और गुण श्री हरि के भजन बिना नहीं जाते। मन में ऐसा विचार कर, सब कामनाओं को छोड़कर (निष्काम भाव से) श्री रामजी का भजन करना चाहिए॥40(क)॥

पितृपक्ष_विशेष

*पितृपक्ष  25  सितंम्बर से शुरूश्राद्ध कर्म: कब,*
 भारतीय शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि पितृगण पितृपक्ष में पृथ्वी पर आते हैं और 15 दिनों तक पृथ्वी पर रहने के बाद अपने लोक लौट जाते हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि पितृपक्ष के दौरान पितृ अपने परिजनों के आस-पास रहते हैं इसलिए इन दिनों कोई भी ऐसा काम नहीं करें जिससे पितृगण नाराज हों। पितरों को खुश रखने के लिए पितृ पक्ष में कुछ बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए। पितृ पक्ष के दौरान , जामाता, भांजा, मामा, गुरु, नाती को भोजन कराना चाहिए। इससे पितृगण अत्यंत प्रसन्न होते हैं भोजन करवाते समय भोजन का पात्र दोनों हाथों से पकड़कर लाना चाहिए अन्यथा भोजन का अंश राक्षस ग्रहण कर लेते हैं जिससे ब्राह्मणों द्वारा अन्न ग्रहण करने के बावजूद पितृगण भोजन का अंश ग्रहण नहीं करते हैं।
पितृ पक्ष में द्वार पर आने वाले किसी भी जीव-जंतु को मारना नहीं चाहिए बल्कि उनके योग्य भोजन का प्रबंध करना चाहिए। हर दिन भोजन बनने के बाद एक हिस्सा निकालकर गाय, कुत्ता, कौआ अथवा बिल्ली को देना चाहिए। मान्यता है कि इन्हें दिया गया भोजन सीधे पितरों को प्राप्त हो जाता है। शाम के समय घर के द्वार पर एक दीपक जलाकर पितृगणों का ध्यान करना चाहिए।

हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार जिस तिथि को जिसके पूर्वज गमन करते हैं, उसी तिथि को उनका श्राद्ध करना चाहिए। इस पक्ष में जो लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं, उनके समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं। जिन लोगों को अपने परिजनों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती, उनके लिए पितृ पक्ष में कुछ विशेष तिथियां भी निर्धारित की गई हैं, जिस दिन वे पितरों के निमित्त श्राद्ध कर सकते हैं।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा: इस तिथि को नाना-नानी के श्राद्ध के लिए सही बताया गया है। इस तिथि को श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। यदि नाना-नानी के परिवार में कोई श्राद्ध करने वाला न हो और उनकी मृत्युतिथि याद न हो, तो आप इस दिन उनका श्राद्ध कर सकते हैं। पंचमी: जिनकी मृत्यु अविवाहित स्थिति में हुई हो, उनका श्राद्ध इस तिथि को किया जाना चाहिए।
 नवमी: सौभाग्यवती यानि पति के रहते ही जिनकी मृत्यु हो गई हो, उन स्त्रियों का श्राद्ध नवमी को किया जाता है। यह तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम मानी गई है। इसलिए इसे मातृनवमी भी कहते हैं। मान्यता है कि इस तिथि पर श्राद्ध कर्म करने से कुल की सभी दिवंगत महिलाओं का श्राद्ध हो जाता है।

एकादशी और द्वादशी: एकादशी में वैष्णव संन्यासी का श्राद्ध करते हैं। अर्थात् इस तिथि को उन लोगों का श्राद्ध किए जाने का विधान है, जिन्होंने संन्यास लिया हो।
चतुर्दशी: इस तिथि में शस्त्र, आत्म-हत्या, विष और दुर्घटना यानि जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो उनका श्राद्ध किया जाता है जबकि बच्चों का श्राद्ध कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को करने के लिए कहा गया है।
सर्वपितृमोक्ष अमावस्या: किसी कारण से पितृपक्ष की अन्य तिथियों पर पितरों का श्राद्ध करने से चूक गए हैं या पितरों की तिथि याद नहीं है, तो इस तिथि पर सभी पितरों का श्राद्ध किया जा सकता है। शास्त्र अनुसार, इस दिन श्राद्ध करने से कुल के सभी पितरों का श्राद्ध हो जाता है। यही नहीं जिनका मरने पर संस्कार नहीं हुआ हो, उनका भी अमावस्या तिथि को ही श्राद्ध करना चाहिए। बाकी तो जिनकी जो तिथि हो, श्राद्धपक्ष में उसी तिथि पर श्राद्ध करना चाहिए। यही उचित भी है।

पिंडदान करने के लिए सफेद या पीले वस्त्र ही धारण करें। जो इस प्रकार श्राद्धादि कर्म संपन्न करते हैं, वे समस्त मनोरथों को प्राप्त करते हैं और अनंत काल तक स्वर्ग का उपभोग करते हैं। विशेष: श्राद्ध कर्म करने वालों को निम्न मंत्र तीन बार अवश्य पढ़ना चाहिए। यह मंत्र ब्रह्मा जी द्वारा रचित आयु, आरोग्य, धन, लक्ष्मी प्रदान करने वाला अमृतमंत्र है-
 *देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिश्च एव च। नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्युत !!*
(वायु पुराण) ।।
श्राद्ध सदैव दोपहर के समय ही करें। प्रातः एवं सायंकाल के समय श्राद्ध निषेध कहा गया है। हमारे धर्म-ग्रंथों में पितरों को देवताओं के समान संज्ञा दी गई है। ‘सिद्धांत शिरोमणि’ ग्रंथ के अनुसार चंद्रमा की ऊध्र्व कक्षा में पितृलोक है जहां पितृ रहते हैं। पितृ लोक को मनुष्य लोक से आंखों द्वारा नहीं देखा जा सकता। जीवात्मा जब इस स्थूल देह से पृथक होती है उस स्थिति को मृत्यु कहते हैं। यह भौतिक शरीर 27 तत्वों के संघात से बना है। स्थूल पंच महाभूतों एवं स्थूल कर्मेन्द्रियों को छोड़ने पर अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर भी 17 तत्वों से बना हुआ सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है।

हिंन्दु मान्यताओं के अनुसार एक वर्ष तक प्रायः सूक्ष्म जीव को नया शरीर नहीं मिलता। मोहवश वह सूक्ष्म जीव स्वजनों व घर के आसपास घूमता रहता है। श्राद्ध कार्य के अनुष्ठान से सूक्ष्म जीव को तृप्ति मिलती है इसीलिए श्राद्ध कर्म किया जाता है।

ऐसा कुछ भी नहीं है कि इस अनुष्ठान में जो भोजन खिलाया जाता है वही पदार्थ ज्यों का त्यों उसी आकार, वजन और परिमाण में मृतक पितरों को मिलता है। वास्तव में श्रद्धापूर्वक श्राद्ध में दिए गए भोजन का सूक्ष्म अंश परिणत होकर उसी अनुपात व मात्रा में प्राणी को मिलता है जिस योनि में वह प्राणी है।
पितृ लोक में गया हुआ प्राणी श्राद्ध में दिए हुए अन्न का स्वधा रूप में परिणत हुए को खाता है। यदि शुभ कर्म के कारण मर कर पिता देवता बन गया तो श्राद्ध में दिया हुआ अन्न उसे अमृत में परिणत होकर देवयोनि में प्राप्त होगा। गंधर्व बन गया हो तो वह अन्न अनेक भोगों के रूप में प्राप्त होता है। पशु बन जाने पर घास के रूप में परिवर्तित होकर प्राप्त होता है
*🔥🌺जय राम जी की🌺🔥*

सोमवार, 17 सितंबर 2018

भगवान शिव को भांग धतूरा क्यों चढाते हैं

       हे भोले नाथ! कुछ परम पाप पीड़ित एवं कलिकाल के प्रचंड ताप से उत्तप्त अधम भाग्य वाले निरीह एवं लाचार, मानव शरीर प्राप्त कुमार्ग गामी अपने अनेक प्रच्छन्न कुतर्को एवं मतिमन्दता के सहारे पौराणिक मान्यताओं एवं परम्पराओं को पाखण्ड एवं झूठी दन्त कथा बता कर भोली भाली जनता के बीच परम विद्वान के रूप में अपने आप को प्रस्तुत कर उच्च स्तरीय समाज सुधारक बता रहे हैं. तथा अपना स्थान नर्क के लिए सुरक्षित कर रहे हैं, उन्हें आप क्षमा करेगें। यद्यपि आप ने कहा है कि -

"जौं खल दंड करों नहि तोरा। भ्रष्ट होय श्रुति मारग मोरा।"

अर्थात हे खल! यदि मैं तुम्हारी खलता को दण्डित नहीं करता हूँ। तो श्रुति-उपनिषद् निर्धारित मेरा मार्ग या उत्तरदायित्व पथ भ्रष्ट हो जाएगा।

क्योकि सृष्टि में मेरी भूमिका पापियों को दण्डित करने की है।

कल्पारम्भ में जब सृष्टि रचना के चक्र में समुद्र से कुछ निर्माण कार्य के लिए आवश्यक उपादानो की आवश्यकता पड़ी तो समुद्र मंथन का सहारा लिया गया। उस समय समुद्र से चौदह रत्न निकले-

"श्री मणि रम्भा वारूणी अमिय शँख गजराज। कल्प वृक्ष धनु धेनु शशी धन्वन्तरि विष वाजि।

इसमें "विष" जब निकला तो उसकी भयंकर ज्वाला से पूरा संसार जलने लगा। चारो तरफ त्राहि त्राहि मच गई। देव-दानव, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, पशु-पक्षी आदि समस्त जीवधारी व्याकुल होकर तड़पने लगे। समस्त देवता व्याकुल होकर भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे। भगवान विष्णु ने उस ज्वाला से मुक्ति असंभव बताई। तब ब्रह्मादि सब देवता विष्णु भगवान के साथ सदाशिव भोले नाथ की शरण में पहुंचे। भोले नाथ शिव जी ने बताया कि जो कोई भी इस ज्वाला को धारण करेगा उसका प्राणांत सर्वथा सिद्ध है। क्योकि तामसी शक्ति भगवती भुवनेश्वरी के इस कराल रूप की महिमा को झुठलाया नहीं जा सकता। अतः सबसे पहले आदि देवी तथा समस्त चराचर में सामान रूप से व्याप्त भुवनेश्वरी की प्रार्थना कर उन्ही से कोई मार्ग ढूँढने को कहते हैं। सब देवता मिलकर माता आद्या देवी परम भगवती का स्मरण कर उनके अमोघ स्थान मणिद्वीप पहुँचे। स्थान के प्रभाव से सब देवताओं में से निरर्थक निर्वीर्यता (शक्ति के बिना शरीर निर्वीर्य होता है।) पुरुषत्व निकल गया तथा सभी शक्ति सम्पना (स्त्री रूप में) हो गए। सबने मिलकर माँ भगवती की स्तुति की-

"यदि हरिस्तव देवि विभावजस्तदनु पद्मज एव तवोद्भवः। किमहमत्र तवापि न सद्गुण: सकललोकविधौ चतुरा शिवे।

त्वमसि भू: सलिलं पवनस्तथा स्वमपि वह्निगुणश्चतथा पुनः।जननि तानि पुनः करणानि च त्वमसि बुद्धिमनोप्यथ हंकृतिः।

न च विदन्ति वदन्ति च ये अन्यथा हरिहराज कृतं निखिलं जगत। तव कृतास्त्रय एव सदैव ते विरचयन्ति जगत्सचराचरम।

अवनिवायुस्ववह्निजलादिभिः सविषयै: सगुणेश्च जगद्भवेत।----------------------------------------------------.

यदि न ते विषमा मतिरम्बिके कथामिदम बहुधा विहितं जगत। सचिवभूपतिभृत्यजनावृतम बहुधनैरधनैश्च समाकुलम।

तवगुणास्त्रय एव सदा क्षमाः प्रकटनावनसंहरणेषु वै। हरिहरद्रुहिणाश्च क्रमात्त्वया विरचितास्त्रिजगताम किल कारणं।

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जननि ते विधिना किल वंचिता: परिभवो विभवे परिकल्पितः। न तपसा न दमेन समाधिना न च तथा विहितै: क्रतुभिर्यथा।

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प्रथम जन्मनि चाधिगतो मया तदधुना नविभाति नवाक्षरः। कथय माम मनुमद्य भवार्णवाज्जननि तारय तारय तारके।"

(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध)

इस स्तुति से प्रसन्न होकर जगज्जननी माता आद्या शक्ति भुवनेश्वरी ने कहा कि -

"हे देवताओं! यद्यपि मेरा प्रभाव अमोघ है। वह कभी वृथा नहीं होगा। यह हलाहल मेरा तामसी रूप है। अतः जब इसे भगवान शिव धारण करेगें तो शक्ति रहित शिव नष्ट हो जायेगें। किन्तु मैं शिवा के रूप में उनके अन्दर विराजमान रहूंगी। अतः शक्ति के रूप में शिव सजीव रहेगें। अर्थात केवल शिव के रूप में शिव निश्चेष्ट रहेगें। विष के प्रभाव के कारण इनका चेत नशे में रहेगा। फिर भी उनके अन्दर मेरी शक्ति सचेष्ट एवं जागृत रहेगी। और भगवान शिव के इस उत्तप्त ताप के प्रभाव को न्यून करने के लिए देवभिषकद्वय (अश्विनीकुमार एवं सागर से निकले भिषकाचार्य -धन्वन्तरि) वानस्पतिक औषधियों से उनकी सुश्रुषा करते रहेगें।

यह परा भगवती का आदेश सुनकर भगवान सदाशिव ने तत्काल अपने शँख में उस कराल कालकूट स्वरुप हलाहल जघन्य विष को भरकर माता आद्या शक्ति जगत्प्रतिपालिका महादेवी भुवनेश्वरी का ह्रदय में ध्यान कर मुख में उतार लिया। किन्तु तबतक उनके ह्रदय में भगवती भुवनेश्वरी का वास हो चुका था। अतः वह विष कंठ से निचे ह्रदय की ओर नहीं जा सका। और कंठ में ही रुक गया। उस कराल विष के कारण भगवान शिव का कंठ जल कर नीला हो गया। तब से भगवान शिव का एक नाम "नीलकंठ" भी हो गया।

सारा संसार प्रसन्नता से भर गया। लगभग सबका पुनर्जन्म हुआ। विष के उग्र प्रभाव से सबको मुक्ति मिली। इधर जब उस विकराल ज़हर के अत्यंत तीक्ष्ण प्रभाव से भगवान सदाशिव व्याकुल हो गये। तब अश्विनीकुमारो ने चन्द्रमा को आदेश दिया कि तत्काल धन्वनतरि से अमृत लेकर भगवान शिव के सिर पर छिड़काव करें। चन्द्रमा ने अश्विनीकुमारो के आदेश पर धन्वन्तरि से अमृत ग्रहण किया। तभी से चन्द्रमा का नाम "सुधांशु" पड़ गया।कालान्तर में भगवान शिव के और ज्यादा सुख, शान्ति एवं प्रसन्नता के लिये सगर के वंशज भागीरथ के माध्यम से भगवान भोलेनाथ के शीश पर परम पावनी अमृत सलिला भगवती गंगा को आसीन कराया।

उसके बाद अश्विनीकुमारो ने

"उड्भ्रिंगस्वानिकरोप्ताङ्ग खँग विडंग अङ्ग विभूषितः।प्रचष्टधात्वादि सारँग धरो ललाटे प्रलिप्त रोषधानी च।"

अर्थात भाँग, धतूरा, विल्वपत्र, तुलसीपत्र, चन्दन, अभिरंग, वडालिक, सरप्ता, अलाकापत्र एवं भष्म का लेप कर भगवान शिव को शांत किया। तब भगवान शिव के नेत्र शांत एवं प्रसन्न मुद्रा में खिल उठे। उनका विष का आतप कम हुआ। और फिर सामान्य अवस्था को प्राप्त हुए। और तभी से भगवान शिव ने यह वरदान दिया कि जो मुझे इस प्रकार इन वानस्पतिक औषधियों से पूजित कर प्रसन्न करेगा उसे इच्छित वर प्राप्त होगा। तभी से भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा में भाँग, धतूरा आदि चढ़ाया जाता है।

रविवार, 16 सितंबर 2018

वाल्मीकि रामायण की कुछ रोचक और अनसुनी बातें

भगवान राम को समर्पित दो ग्रंथ मुख्यतः लिखे गए है एक तुलसीदास द्वारा रचित ‘श्री रामचरित मानस’ और दूसरा वाल्मीकि कृत ‘रामायण’। इनके अलावा भी कुछ अन्य ग्रन्थ लिखे गए है पर इन सब में वाल्मीकि कृत रामायण को सबसे सटीक और प्रामाणिक माना जाता है। लेकिन बहुत कम लोग जानते है की श्री रामचरित मानस और रामायण में कुछ बातें अलग है जबकि कुछ बातें ऐसी है जिनका वर्णन केवल वाल्मीकि कृत रामायण में है।  आज इस लेख में हम आपको वाल्मीकि कृत रामायण की कुछ ऐसी ही बातों के बारे में बताएँगे।

1- तुलसीदास द्वारा श्रीरामचरित मानस में वर्णन है कि भगवान श्रीराम ने सीता स्वयंवर में शिव धनुष को उठाया और प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया, जबकि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में सीता स्वयंवर का वर्णन नहीं है। रामायण के अनुसार भगवान राम व लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ मिथिला पहुंचे थे। विश्वामित्र ने ही राजा जनक से श्रीराम को वह शिवधनुष दिखाने के लिए कहा। तब भगवान श्रीराम ने खेल ही खेल में उस धनुष को उठा लिया और प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया। राजा जनक ने यह प्रण किया था कि जो भी इस शिव धनुष को उठा लेगा, उसी से वे अपनी पुत्री सीता का विवाह कर देंगे।

2- रामायण के अनुसार राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाया था। इस यज्ञ को मुख्य रूप से ऋषि ऋष्यश्रृंग ने संपन्न किया था। ऋष्यश्रृंग के पिता का नाम महर्षि विभाण्डक था। एक दिन जब वे नदी में स्नान कर रहे थे तब नदी में उनका वीर्यपात हो गया। उस जल को एक हिरणी ने पी लिया था, जिसके फलस्वरूप ऋषि ऋष्यश्रृंग का जन्म हुआ था।

3- विश्व विजय करने के लिए जब रावण स्वर्ग लोक पहुंचा तो उसे वहां रंभा नाम की अप्सरा दिखाई दी। अपनी वासना पूरी करने के लिए रावण ने उसे पकड़ लिया।

तब उस अप्सरा ने कहा कि आप मुझे इस तरह से स्पर्श न करें, मैं आपके बड़े भाई कुबेर के बेटे नलकुबेर के लिए आरक्षित हूं।

इसलिए मैं आपकी पुत्रवधू के समान हूं,  लेकिन रावण नहीं माना और उसने रंभा से दुराचार किया। यह बात जब नलकुबेर को पता चली तो उसने रावण को श्राप दिया कि आज के बाद रावण बिना किसी स्त्री की इच्छा के उसे स्पर्श करेगा तो उसका मस्तक सौ टुकड़ों में बंट जाएगा।

4- ये बात सभी जानते हैं कि लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा के नाक-कान काटे जाने से क्रोधित होकर ही रावण ने सीता का हरण किया था, लेकिन स्वयं शूर्पणखा ने भी रावण का सर्वनाश होने का श्राप दिया था। क्योंकि रावण की बहन शूर्पणखा के पति का नाम विद्युतजिव्ह था। वो कालकेय नाम के राजा का सेनापति था। रावण जब विश्वयुद्ध पर निकला तो कालकेय से उसका युद्ध हुआ। उस युद्ध में रावण ने विद्युतजिव्ह का वध कर दिया। तब शूर्पणखा ने मन ही मन रावण को श्राप दिया कि मेरे ही कारण तेरा सर्वनाश होगा।

5- श्रीरामचरित मानस के अनुसार सीता स्वयंवर के समय भगवान परशुराम वहां आए थे, जबकि रामायण के अनुसार सीता से विवाह के बाद जब श्रीराम पुन: अयोध्या लौट रहे थे, तब परशुराम वहां आए और उन्होंने श्रीराम से अपने  धनुष पर बाण चढ़ाने के लिए कहा। श्रीराम के द्वारा बाण चढ़ा देने पर परशुराम वहां से चले गए थे।

6- वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक बार रावण अपने पुष्पक विमान से कहीं जा रहा था, तभी उसे एक सुंदर स्त्री दिखाई दी, उसका नाम वेदवती था। वह भगवान विष्णु को पति रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही थी। रावण ने उसके बाल पकड़े और अपने साथ चलने को कहा। उस तपस्विनी ने उसी क्षण अपनी देह त्याग दी और रावण को श्राप दिया कि एक स्त्री के कारण ही तेरी मृत्यु होगी। उसी स्त्री ने दूसरे जन्म में सीता के रूप में जन्म लिया l
7- जिस समय भगवान श्रीराम वनवास गए, उस समय उनकी आयु लगभग 27 वर्ष की थी। राजा दशरथ श्रीराम को वनवास नहीं भेजना चाहते थे, लेकिन वे वचनबद्ध थे। जब श्रीराम को रोकने का कोई उपाय नहीं सूझा तो उन्होंने श्रीराम से यह भी कह दिया कि तुम मुझे बंदी बनाकर स्वयं राजा बन जाओ।

8- अपने पिता राजा दशरथ की मृत्यु का आभास भरत को पहले ही एक स्वप्न के माध्यम से हो गया था। सपने में भरत ने राजा दशरथ को काले वस्त्र पहने हुए देखा था। उनके ऊपर पीले रंग की स्त्रियां प्रहार कर रही थीं। सपने में राजा दशरथ लाल रंग के फूलों की माला पहने और लाल चंदन लगाए गधे जुते हुए रथ पर बैठकर तेजी से दक्षिण (यम की दिशा) की ओर जा रहे थे।

9- हिंदू धर्म में तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं की मान्यता है, जबकि रामायण के अरण्यकांड के चौदहवे सर्ग के चौदहवे श्लोक में सिर्फ तैंतीस देवता ही बताए गए हैं। उसके अनुसार बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनी कुमार, ये ही कुल तैंतीस देवता हैं।

10- रघुवंश में एक परम प्रतापी राजा हुए थे, जिनका नाम अनरण्य था। जब रावण विश्वविजय करने निकला तो राजा अनरण्य से उसका भयंकर युद्ध हुआ। उस युद्ध में राजा अनरण्य की मृत्यु हो गई, लेकिन मरने से पहले उन्होंने रावण को श्राप दिया कि मेरे ही वंश में उत्पन्न एक युवक तेरी मृत्यु का कारण बनेगा।

11- रावण जब विश्व विजय पर निकला तो वह यमलोक भी जा पहुंचा। वहां यमराज और रावण के बीच भयंकर युद्ध हुआ। जब यमराज ने रावण के प्राण लेने के लिए कालदण्ड का प्रयोग करना चाहा तो ब्रह्मा ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया क्योंकि किसी देवता द्वारा रावण का वध संभव नहीं था।

12- सीताहरण करते समय जटायु नामक गिद्ध ने रावण को रोकने का प्रयास किया था। रामायण के अनुसार जटायु के पिता अरुण बताए गए हैं। ये अरुण ही भगवान सूर्यदेव के रथ के सारथी हैं।

13- जिस दिन रावण सीता का हरण कर अपनी अशोक वाटिका में लाया। उसी रात को भगवान ब्रह्मा के कहने पर देवराज इंद्र माता सीता के लिए खीर लेकर आए, पहले देवराज ने अशोक वाटिका में उपस्थित सभी राक्षसों को मोहित कर सुला दिया। उसके बाद माता सीता को खीर अर्पित की, जिसके खाने से सीता की भूख-प्यास शांत हो गई।

14- जब भगवान राम और लक्ष्मण वन में सीता की खोज कर रहे थे। उस समय कबंध नामक राक्षस का राम-लक्ष्मण ने वध कर दिया। वास्तव में कबंध एक श्राप के कारण ऐसा हो गया था। जब श्रीराम ने उसके शरीर को अग्नि के हवाले किया तो वह श्राप से मुक्त हो गया। कबंध ने ही श्रीराम को सुग्रीव से मित्रता करने के लिए कहा था।

15-  श्रीरामचरितमानस के अनुसार समुद्र ने लंका जाने के लिए रास्ता नहीं दिया तो लक्ष्मण बहुत क्रोधित हो गए थे, जबकि वाल्मीकि रामायण में वर्णन है कि लक्ष्मण नहीं बल्कि भगवान श्रीराम समुद्र पर क्रोधित हुए थे और उन्होंने समुद्र को सुखा देने वाले बाण भी छोड़ दिए थे। तब लक्ष्मण व अन्य लोगों ने भगवान श्रीराम को समझाया था।

16- सभी जानते हैं कि समुद्र पर पुल का निर्माण नल और नील नामक वानरों ने किया था। क्योंकि उसे श्राप मिला था कि उसके द्वारा पानी में फेंकी गई वस्तु पानी में डूबेगी नहीं, जबकि वाल्मीकि रामायण के अनुसार नल देवताओं के शिल्पी (इंजीनियर) विश्वकर्मा के पुत्र थे और वह स्वयं भी शिल्पकला में निपुण था। अपनी इसी कला से उसने समुद्र पर सेतु का निर्माण किया था।

17- रामायण के अनुसार समुद्र पर पुल बनाने में पांच दिन का समय लगा। पहले दिन वानरों ने 14 योजन, दूसरे दिन 20 योजन, तीसरे दिन 21 योजन, चौथे दिन 22 योजन और पांचवे दिन 23 योजन पुल बनाया था। इस प्रकार कुल 100 योजन लंबाई का पुल समुद्र पर बनाया गया। यह पुल 10 योजन चौड़ा था। (एक योजन लगभग 13-16 किमी होता है)

18- एक बार रावण जब भगवान शंकर से मिलने कैलाश गया। वहां उसने नंदीजी को देखकर उनके स्वरूप की हंसी उड़ाई और उन्हें बंदर के समान मुख वाला कहा। तब नंदीजी ने रावण को श्राप दिया कि बंदरों के कारण ही तेरा सर्वनाश होगा।

19- रामायण के अनुसार जब रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कैलाश पर्वत उठा लिया तब माता पार्वती भयभीत हो गई थी और उन्होंने रावण को श्राप दिया था कि तेरी मृत्यु किसी स्त्री के कारण ही होगी।

20- जिस समय राम-रावण का अंतिम युद्ध चल रहा था, उस समय देवराज इंद्र ने अपना दिव्य रथ श्रीराम के लिए भेजा था। उस रथ में बैठकर ही भगवान श्रीराम ने रावण का वध किया था।

21- जब काफी समय तक राम-रावण का युद्ध चलता रहा तब अगस्त्य मुनि ने श्रीराम से आदित्य ह्रदय स्त्रोत का पाठ करने को कहा, जिसके प्रभाव से भगवान श्रीराम ने रावण का वध किया।

22- रामायण के अनुसार रावण जिस सोने की लंका में रहता था वह लंका पहले रावण के भाई कुबेर की थी। जब रावण ने विश्व विजय पर निकला तो उसने अपने भाई कुबेर को हराकर सोने की लंका तथा पुष्पक विमान पर अपना कब्जा कर लिया।

23- रावण ने अपनी पत्नी की बड़ी बहन माया के साथ भी छल किया था। माया के पति वैजयंतपुर के शंभर राजा थे। एक दिन रावण शंभर के यहां गया। वहां रावण ने माया को अपनी बातों में फंसा लिया। इस बात का पता लगते ही शंभर ने रावण को बंदी बना लिया। उसी समय शंभर पर राजा दशरथ ने आक्रमण कर दिया। उस युद्ध में शंभर की मृत्यु हो गई। जब माया सती होने लगी तो रावण ने उसे अपने साथ चलने को कहा। तब माया ने कहा कि तुमने वासनायुक्त मेरा सतित्व भंग करने का प्रयास किया इसलिए मेरे पति की मृत्यु हो गई, अत: तुम्हारी मृत्यु भी इसी कारण होगी।

24- रावण के पुत्र मेघनाद ने जब युद्ध में इंद्र को बंदी बना लिया तो ब्रह्माजी ने देवराज इंद्र को छोडऩे को कहा। इंद्र पर विजय प्राप्त करने के कारण ही मेघनाद इंद्रजीत के नाम से विख्यात हुआ।

25- वाल्मीकि रामायण में 24 हज़ार श्लोक, 500 उपखण्ड, तथा सात कांड है।

राजा मोरध्वज

*🌺🌺राजा  मोरध्वज की कथा🌺🌺*
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महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद अर्जुन को वहम हो गया की वो श्रीकृष्ण के सर्वश्रेष्ठ भक्त है, अर्जुन सोचते की कन्हैया ने मेरा रथ चलाया, मेरे साथ रहे इसलिए में भगवान का सर्वश्रेष्ठ भक्त हूँ। अर्जुन को क्या पता था की वो केवल भगवान के धर्म की स्थापना का जरिया था। फिर भगवान ने उसका गर्व तोड़ने के लिए उसे एक परीक्षा का गवाह बनाने के लिए अपने साथ ले गए।

श्रीकृष्ण और अर्जुन ने जोगियों का वेश बनाया और वन से एक शेर पकड़ा और पहुँच जाते है भगवान विष्णु के परम-भक्त राजा मोरध्वज के द्वार पर। राजा मोरध्वज बहुत ही दानी और आवभगत वाले थे अपने दर पे आये किसी को भी वो खाली हाथ और बिना भोज के जाने नहीं देते थे।

दो साधु एक सिंह के साथ दर पर आये है ये  जानकर राजा नंगे पांव दौड़के द्वार पर गए और भगवान के तेज से नतमस्तक हो आतिथ्य स्वीकार करने के लिए कहा। भगवान कृष्ण ने मोरध्वज से कहा की हम मेजबानी तब ही स्वीकार करेंगे जब राजा उनकी शर्त मानें, राजा ने जोश से कहा आप जो भी कहेंगे मैं तैयार हूँ।

भगवान कृष्ण ने कहा, हम तो ब्राह्मण है कुछ भी खिला देना पर ये सिंह नरभक्षी है, तुम अगर अपने इकलौते बेटे को अपने हाथों से मारकर इसे खिला सको तो ही हम तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार करेंगे। भगवान की शर्त सुन मोरध्वज के होश उड़ गए, फिर भी राजा अपना आतिथ्य-धर्म नहीं छोडना चाहता था। उसने भगवान से कहा प्रभु ! मुझे मंजूर है पर एक बार में अपनी पत्नी से पूछ लूँ ।

भगवान से आज्ञा पाकर राजा महल में गया तो राजा का उतरा हुआ मुख देख कर पतिव्रता रानी ने राजा से कारण पूछा। राजा ने जब सारा हाल बताया तो रानी के आँखों से अश्रु बह निकले। फिर भी  वो अभिमान से राजा से बोली की आपकी आन पर मैं अपने सैंकड़ों पुत्र कुर्बान कर सकती हूँ। आप साधुओ को आदरपूर्वक अंदर ले आइये।

अर्जुन ने भगवान से पूछा- माधव ! ये क्या माजरा है ? आप ने ये क्या मांग लिया ? कृष्ण बोले -अर्जुन तुम देखते जाओ और चुप रहो।
राजा तीनो को अंदर ले आये और भोजन की तैयारी शुरू की। भगवान को छप्पन भोग परोसा गया पर अर्जुन के गले से उत्तर नहीं रहा था। राजा ने स्वयं जाकर पुत्र को तैयार किया। पुत्र भी तीन साल का था नाम था रतन कँवर, वो भी मात पिता का भक्त था, उसने भी हँसते हँसते अपने प्राण दे दिए परंतु उफ़ ना की ।

राजा रानी ने अपने हाथो में आरी लेकर पुत्र के दो  टुकड़े किये और सिंह को परोस दिया। भगवान ने भोजन ग्रहण किया पर जब रानी ने पुत्र का आधा शरीर देखा तो वो आंसू रोक न पाई।  भगवान इस बात पर गुस्सा हो गए की लड़के का एक फाड़ कैसे बच गया? भगवान रुष्ट होकर जाने लगे तो राजा रानी रुकने की मिन्नतें करने लगे।

अर्जुन को अहसास हो गया था की भगवान मेरे ही गर्व को तोड़ने के लिए ये सब कर रहे है। वो स्वयं भगवान के पैरों में गिरकर विनती करने लगा और कहने लगा की आप ने मेरे झूठे मान को तोड़ दिया है। राजा रानी के बेटे को उनके ही हाथो से मरवा दिया और अब रूठ के जा रहे हो, ये उचित नही है। प्रभु ! मुझे माफ़ करो और भक्त का कल्याण करो।

तब केशव ने अर्जुन का घमंड टूटा जान रानी से कहा की वो अपने पुत्र को आवाज दे। रानी ने सोचा पुत्र तो मर चुका है, अब इसका क्या मतलब !! पर साधुओं की आज्ञा मानकर उसने पुत्र रतन कंवर को आवाज लगाई।

कुछ ही क्षणों में चमत्कार हो गया । मृत रतन कंवर जिसका शरीर शेर ने खा लिया था, वो हँसते हुए आकर अपनी माँ से लिपट गया। भगवान ने मोरध्वज और रानी को अपने विराट स्वरुप का दर्शन कराया। पूरे दरबार में वासुदेव कृष्ण की जय जय कार गूंजने लगी।

भगवान के दर्शन पाकर अपनी भक्ति सार्थक जान मोरध्वज की ऑंखें भर आई और वो बुरी तरह बिलखने लगे। भगवान ने वरदान मांगने को कहा तो राजा रानी ने कहा भगवान एक ही वर दो की अपने भक्त की ऐसी कठोर परीक्षा न ले, जैसी आप ने हमारी ली है। तथास्तु कहकर भगवान ने उसको आशीर्वाद दिया और पूरे परिवार को मोक्ष दिया।

          ।। जय श्री कृष्णा ।।

शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

सरयू नदी

🌺विविधापतित पावनी सरयू नदी की महिमा🌺

भारत की प्राचीन नदियों में उत्तर प्रदेश के अयोध्या के निकट बहने वाली नदी के रूप में सरयू को देखा जाता है। घाघरा तथा शारदा नाम भी इसे ही कहा जाता है। यूं तो उत्तर में हिमालय के कैलाश मानसरोवर से इसका उद्गम माना जाता है, जो किसी प्राकृतिक या भौगोलिक कारणों से बाद में वहां से लुप्त हो जाती हैं। अब यह उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले के खैरीगढ़ रियासत की राजधानी रही ‘‘सिंगाही’’ के जंगल की एक विशाल झील से निकलकर गंगा के मैदानी भागों में बहने वाली नदी बन गई हैं। यह बलिया और छपरा के बीच गंगा नदी में मिल जाती हैं। हिमालय से निकलने पर नेपाल में यह काली नदी के नाम से जानी जाती हैं। यह उत्तराखंड और नेपाल की प्राकृतिक सीमांकन भी करती हैं। मैंदान पर उतरने पर ‘करनाली’ या ‘घाघरा’ आकर इसमें मिलती है। फिर इसका नाम सरयू हो जाता है। ज्यादातर ब्रिटिश मानचित्रकार इसे पूरे मार्ग पर्यन्त घाघरा या गोगरा नाम से पुकारते हैं। परम्परा तथा स्थानीयजन इसे सरयू या सरजू के नाम से उद्बोधन करते हैं। इसके अन्य नाम देविका व रामप्रिया भी है। इसकी पूरी लम्बाई 160 किमी है। उत्तर प्रदेश में भी यह  फैजाबाद तथा बस्ती जिले का सीमंाकन करती हैं। सरयू नदी की सहायक नदी अरिकावती (राप्ती) है। जो उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के बरहज नामक स्थान पर इसमें मिल जाती है। बलरामपुर, श्रावस्ती, बांसी व गोरखपुर आदि इसके तट पर ही बसे हैं। सरयू व राप्ती की अन्य सहायक नदियां कुवानो, मनोरमा, रामरेखा, आमी, कठिनइया तथा जाहन्वी आदि है। बहराइच, सीतापुर, गोंडा, फैजाबाद, अयोध्या, टाण्डा, राजेसुल्तानपुर, दोहरीघाट तथा बलिया आदि शहर सरयू तट पर ही स्थित हैं।

पौराणिक संदर्भः-

पुराणों में कहा गया है कि सरयू भगवान विष्णु के नेत्रों से प्रकट हुई हैं। आनन्द रामायण के यांत्र कांड में उल्लेख आया है कि प्राचीन काल में शंकासुर दैत्य ने वेद को चुराकर समुद्र में छिप गया था। तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारणकर दैत्य का वध किया था और ब्रह्माजी को वेद सौंपकर अपना वास्तविक स्वरूप धारण किया था। उस समय हर्ष के कारण विष्णु जी के आंखों से प्रेमाश्रु टपक पड़े थे। ब्रहमाजी ने उन प्रेमाश्रु को मानसरोवर में डालकर सुरक्षित कर लिया था। इस जल को महापराक्रमी वैवस्वत महाराज ने वाण के प्रहार से मानसरोवर से बाहर निकाला था। यही जल धारा सरयू के नाम से जानी जाने लगी। बाद में भगीरथ महाराज अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए गंगा जी को धरा पर लाये और उन्होंने ही गंगा व सरयू का संगम कराया था। इस प्रकार सरयू, घाघरा व शारदा का संगम तो हुआ ही हैं श्रीराम के पूर्वज भगीरथ ने गंगा व सरयू का संगम भी कराया था।

ऋग्वेद में कहा गया है कि सरयू नदी को यदु और तुर्वससु ने पार किया था। मत्स्यपुराण के 121वें अध्याय, वामनपुराण के 13वें अध्याय, ब्रह्मपुराणके 19वें अध्याय , वायुपुराण के 45वें अध्याय, पद्म पुराण के उत्तर खंड, बाल्मीकि रामायण के 24वें सर्ग ,पाणिनी के अष्टाध्यायी तथा कालिदास के रघुवंश में भारत के अन्य नदियों के साथ सरयू का उल्लेख आया है। इसके तट पर अनेक यज्ञ सम्पन्न हुए थे। महाभारत के अनुशासन पर्व, भीष्म पर्व ,अध्यात्म रामायण, श्रीमद्भागवत तथा कालिदास के रघुवंश में हिमालय के कैलाश मानसरोवर या ब्रह्मसर से इसका उद्गम बताया गया है। रघुवंश के अनुसार-

‘‘पयोधरैःपुण्यजनांगनानां निर्विष्टहेमाम्बुजरेणु यस्याः ब्राह्मांसरः कारणमाप्तवाचो बुद्धेरिवाव्यक्तमुदाहरन्ति।’’

इस उद्धरण से यह जान पड़ता है कि कालिदास के समय में परम्परागत रूप में इस तथ्य की जानकारी थी, यद्यपि किसी को तथ्यतः जानकारी नहीं भी हो सकती है। इसी को आधार लेकर गोस्वामी तुलसी दास जी ने सरयू का ‘‘मानसनन्दनी’’ कहा है। बौद्धग्रंथ मिलिन्दपन्हों में में सरयू को सरभू       (सरभ)कहा गया है। महान पुरातत्ववेत्ता जनरल कनिंघम ने अपने मानचित्र पर मेगास्थनीज द्वारा वर्णित सोलोमत्तिस नदी के रूप में इसे चिन्हित किया है। टालेमी आदि इसे सरोबेस नदी के रूप में लिख रखे हैं। हिमालय के मानसरोवर से पहले सरयू कौड़़याली नाम धारण करती है, फिर सरयू और बाद में घाघरा के रूप में जानी जाती है। यह बलिया और छपरा के पास गंगा में मिलती हैं। कालिदास ने सरयू एवं जाह्नवी (गंगा) के संगम को तीर्थ बताया है। यहां दशरथ के पिता अज ने बृद्धावस्था में प्राण त्याग दिये थे –

‘‘तीर्थे तोयव्यतिकरभवे जह्नुकन्यारव्यो देंहत्यागादमराणनालेखयमासाद्यः।’’

रामचरितमानस में कहा गया है –

‘‘अवधपुरी मम पुरी सुहावनि, दक्षिण दिश बह सरयू पावनि ।

रामायण काल में सरयू कोसल जनपद की प्रमुख नदी थी। यहां घना जंगल था। जहां शिकार के लिए जाते समय श्रवणकुमार की हत्या हो गई थी। ज्येष्ठ पूर्णिमा को सरयू जयन्ती मनायी जाती है।



ऐतिहासिकता तथा अस्तित्व को खतराः-

भगवान राम ने इसी नदी में अपनी जल समाधि लिया था। अयोध्या के पास से बहने के कारण इस नदी का विशेष महत्व है। इस नदी का अस्तित्व अब खतरे में है। यह अपना महत्व खोती जा रही है। लगातार होती छेड़छाड़ ,़ अवैध उत्खनन, नदियों में अपविष्ट सामग्री का विसर्जन, शवों का जलाया जाना तथा पारम्परिक जलचरों व वनस्पतियों का समाप्त होना- इसके अस्तित्व के प्रतिकूल लक्षण प्रतीत होते हैं। इसमें औषधीय व शोधक गुणों का निरन्तर ह्रास होता जा रहा है। बरसात के दिनों में यह भयंकर विनाश लीला करती हैं तो ग्रीष्म के दिनों में यह विल्कुल सूख सी जाती है। इसका जल सिंचाई परियोजनाओं द्वारा नहरो के माध्यम से फीडर पम्पों और बांधों द्वारा निकाला जाता है। उत्तराखण्ड के टनकपुर के पास बांध बनाकर शारदा नहर निकाली गयी है। यह भारत की सबसे बड़ी सिंचाई नहर परियोजना है। इसी प्रकार दोहरी घाट, बिल्थरा रोड, तथा राजेसुल्तानपुर आदि स्थानों से अनेक सरयू नहर परियोजनाओं के माध्यम से इसका भारी मात्रा में से भी जल का दोहन हो जाता है और प्रवाह निरन्तर कम होकर जलचर असुरक्षित हो जाते हैं। मछलियां ,कौवे, बगुले, हंस, कछुए तथा शिंशुमार ( सूॅंस )आदि प्रजातियां अब पूर्णतः विलुप्त होते जा रहे हैं। हमें जन जागृति तथा श्रद्धा के साथ इस विनाशलीला को स्वयं, समाज, राष्ट्र तथा सरकार द्वारा रोके जाने के सम्बन्ध में निरन्तर प्रयास करवाते रहना चाहिए। इससे भारतीय संस्कृति व विरासतों की रक्षा होगी तथा यह सुरक्षित अगली पीढ़ियों को मिल सकेगी।

बुधवार, 12 सितंबर 2018

स्यमंतक मणि की कथा

*🌹स्यमंतक मणि की कथा  (  गणेश चतुर्थी पर चन्द्र-दर्शन करने पर अभिशापित हुए मनुष्य को दोष-मुक्त करने वाली कथा )*

🌹श्रीमद्भागवत पुराण के दसवें स्कंध के अध्याय 56 और 57 में श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं,'' परीक्षित ! सत्राजित ने श्री कृष्ण पर मणि चोरी का झूठा कलंक लगाया था और फिर अपने उस अपराध का मार्जन करने के लिए उसने स्वयं स्यमंतक मणि सहित अपनी कन्या सत्यभामा भगवान श्री कृष्ण को सौंप दी। ''

🌹राजा परीक्षित ने पूछा," भगवन् ! सत्राजित ने भगवान श्री कृष्ण का क्या अपराध किया था ? उसे स्यमंतक मणि कहाँ से मिली ? और उसने अपनी कन्या श्री कृष्ण को क्यों सौंप दी ? ''

🌹श्री शुकदेव जी कहते हैं," परीक्षित ! सत्राजित भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। सूर्यदेव उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये। सूर्य भगवान ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमंतक मणि दी थी। सत्राजित उस दिव्य मणि को गले में धारण करके ऐसा चमकने लगा, मानों स्वयं सूर्यदेव ही हों ।

🌹जब सत्राजित द्वारका आया, तो अत्यंत तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके । दूर से ही उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेज से चौंधिया गईं। लोगों ने समझा कि कदाचित स्वयं भगवान सूर्य ही आ रहें हैं।

🌹उन लोगों ने भगवान श्री कृष्ण के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी । भगवान उस समय चौसर खेल रहे थे। लोगों ने कहा," हे शंख-चक्र-गदाधारी, नारायण! कमलनयन दामोदर ! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द ! देखिये, अपनी चमकीली किरणों से लोगों के नेत्रों को चौंधियाते हुए भगवान सूर्य आपके दर्शन करने आ रहे हैं। प्रभो ! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकी में आपकी प्राप्ति का मार्ग ढूंढते रहते हैं। आज आपको यदुवंश में छिपा जानकर सूर्य भगवान आपके दर्शन करने आ रहे हैं। "

🌹श्री शुकदेव जी कहते हैं," अंजान लोगों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान श्री कृष्ण हंसने लगे । उन्होंने कहा," यह तो सत्राजित है, जो मणि के प्रभाव से इतना चमक रहा है। "
इसके बाद सत्राजित अपने समृद्ध घर चला आया। घर पर उसके शुभ आगमन के उपलक्ष्य में मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों द्वारा स्यमंतक मणि को एक देवमंदिर में स्थापित करवा दिया। वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना दिया करती थी और जहां वह मणि पूजित होकर रहती थी, वहाँ महामारी, ग्रह -पीड़ा, सर्पभय, मानसिक एवं शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था।
एक बार भगवान श्री कृष्ण ने प्रसंगवश कहा," सत्राजित ! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो । पर वह इतना अर्थ-लोलुप था कि भगवान की आज्ञा का उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करते हुए भगवान श्री कृष्ण की बात को अस्वीकार कर दिया।

🌹श्री शुकदेव जी कहते हैं," एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमय मणि को अपने गले में धारण कर लिया और वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया। वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस दिव्य मणि को छीन लिया। वह सिंह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि मणि के लिए ॠक्षराज जाम्बवान् ने उस सिंह को मार डाला और उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चों को खेलने के लिए दे दी।

🌹अपने भाई प्रसेन के न लौटने पर उसके भाई सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। वह कहने लगा," बहुत संभव है कि श्री कृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो, क्योंकि वह मणि गले में डाल कर वन गया था। "

🌹सत्राजित की बात सुनकर लोग आपस में काना-फूंसी करने लगे। जब भगवान श्री कृष्ण ने यह सुना कि इस कलंक का टीका मेरे सिर लगाया जा रहा है, तब वह नगर के कुछ सभ्य पुरषों को साथ लेकर प्रसेन को ढूंढने वन में गये।

🌹वहाँ खोजते-खोजते लोगों ने देखा कि घोर जंगल में सिंह ने प्रसेन और उसके घोड़े को मार डाला है। जब वे लोग सिंह के पैरों के निशान देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगों ने यह भी देखा कि पर्वत पर रीछ ने सिंह को भी मार डाला है।

🌹भगवान श्री कृष्ण ने सब लोगों को गुफा के बाहर ही बैठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकार से भरी हुई ॠक्षराज की उस भयंकर गुफा में प्रवेश किया। भगवान ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि को बच्चों का खिलौना बना दिया गया है। वे उस मणि को हर लेने की इच्छा से बच्चों के पास जा खड़े हुए। उस गुफा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर बच्चों की दायीं भयभीत की भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट को सुनकर परम बली ॠक्षराज जाम्बवान क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये।

🌹श्री शुकदेव जी कहते हैं," उस समय जाम्बवान कुपित हो रहे थे और उन्हें भगवान की महिमा एवं प्रभाव का पता नहीं चला। उन्होंने भगवान को एक साधारण मनुष्य समझ लिया और अपने स्वामी भगवान श्री कृष्ण से युद्ध करने लगे। मणि के विजयाभिलाषी भगवान श्री कृष्ण और जाम्बवान आपस में घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार किया और फिर शिलाओं का उपयोग किया। तत्पश्चात वें दोनों वृक्ष उखाड़ कर एक-दूसरे पर फेंकने लगे । अन्त में इनमें बाहुयुद्ध होने लगा। वज्र प्रहार के समान कठोर घूँसों की चोट से जाम्बवान के शरीर की एक गाँठ टूट गई। उनका उत्साह जाता रहा। तब उन्होंने अत्यंत विस्मित-चकित होकर भगवान श्री कृष्ण से कहा," हे प्रभु ! मैं जान गया, आप ही समस्त प्राणियों के रक्षक, प्राण-पुरष भगवान हैं, आप ही सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा आदि को भी बनाने वाले हैं और आप अवश्य ही मेरे वही भगवान हैं, जिन्होंने अपने दिव्य बाणों से राक्षसों के सिर काट-काट कर पृथ्वी पर गिरा दिए। "

🌹जब जाम्बवान ने भगवान को पहचान लिया, तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने परम कल्याणकारी करकमल को जाम्बवान के शरीर पर फेर दिया और फिर कृपा से भरकर अत्यंत प्रेम से अपने भक्त जाम्बवान से कहने लगे कि हम इस मणि के लिए तुम्हारी गुफा में आये हैं और इस मणि के द्वारा मैं अपने ऊपर लगे झूठे कलंक को मिटाना चाहता हूँ। भगवान के ऐसा कहने पर जाम्बवान जी ने बड़े आनंद के साथ उनकी पूजा करने के लिए अपनी कन्या कुमारी जाम्बवती जी को मणि के साथ भगवान के श्री चरणों में समर्पित कर दिया।

🌹भगवान श्री कृष्ण जिन लोगों को गुफा के बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिन तक उनकी प्रतीक्षा की, पर जब उन्होंने देखा कि अब तक भगवान गुफा से नहीं निकलें, तो वह सब अत्यंत दुखी हो द्वारका वापिस लौट आए। वहाँ जब माता देवकी, रूक्मणि, वसुदेव जी सहित अन्य संबंधियों और कुटुम्बियों को पता चला, तो उन्हें बहुत शोक हुआ। सभी द्वारकावासी सत्राजित को भला-बुरा कहने लगे और भगवान श्री कृष्ण की प्राप्ति के लिए महामाया की शरण गए।

🌹महामाया उनकी उपासना से प्रसन्न होकर प्रकट हुईं और उन्हें आशीर्वाद दिया। उसी समय उनके बीच में मणि सहित अपनी नववधू जाम्बवती को लेकर प्रकट हो गये।

🌹तदनंतर भगवान ने सत्राजित को राजसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित को सौंप दी। अपने अपराध पर सत्राजित को। बड़ा पश्चाताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा। अब वह यही सोचता रहता कि मैं अपने अपराध का मार्जन कैसे करूँ  ? मैं ऐसा कौन सा कार्य करूँ कि लोग मुझे कोसे नहीं।

🌹उसने विचार किया कि अब मैं अपनी रमणियों में रत्न के समान पुत्री सत्यभामा और स्यमंतक मणि दोनों को ही श्री कृष्ण को दे दूँ, तो मेरे अपराध का अन्त हो सकता है, अन्य कोई उपाय नहीं है।

🌹सत्यभामा शील स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि गुणों से संपन्न थी। सत्राजित ने अपनी कन्या और स्यमंतक मणि दोनों को ले जाकर भगवान श्री कृष्ण को अर्पित कर दिया।
🌹भगवान ने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया और सत्राजित से कहा कि हम स्यमंतक मणि नहीं लेंगे। आप सूर्य भगवान के परम भक्त हैं, इसलिए वह आप ही के पास रहे । हम तो केवल उसके फल अर्थात् उससे निकले सोने के अधिकारी हैं, वही आप हमें दे दिया करें।

🌹कुछ ही समय बाद अक्रूर के कहने पर ऋतु वर्मा ने सत्राजित को मारकर मणि छीन ली। श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई बलराम के साथ उनसे युद्ध करने पहुंचे। युद्ध में जीत हासिल होने वाली थी कि ऋतु वर्मा ने मणि अक्रूर को दे दी और भाग निकला। श्रीकृष्ण ने युद्ध तो जीत लिया लेकिन मणि हासिल नहीं कर सके। जब बलराम ने उनसे मणि के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि मणि उनके पास नहीं। ऐसे में बलराम खिन्न होकर द्वारिका जाने की बजाय इंद्रप्रस्थ लौट गए।
उधर द्वारिका में फिर चर्चा फैल गई कि श्रीकृष्ण ने मणि के मोह में भाई का भी तिरस्कार कर दिया। मणि के चलते झूठे लांछनों से दुखी होकर श्रीकृष्ण सोचने लगे कि ऐसा क्यों हो रहा है।

🌹तब नारद जी आए और उन्होंने कहा कि हे श्री कृष्ण ! आपने भाद्रपद में शुक्ल चतुर्थी की रात को चंद्रमा के दर्शन किये थे और इसी कारण आपको मिथ्या कलंक झेलना पड़ रहा हैं।
श्रीकृष्ण चंद्रमा के दर्शन कि बात विस्तार पूछने पर नारदजी ने श्रीकृष्ण को कलंक वाली यह कथा बताई थी-

🌹एक बार भगवान श्रीगणेश ब्रह्मलोक से होते हुए लौट रहे थे कि चंद्रमा को गणेशजी का स्थूल शरीर और गजमुख देखकर हंसी आ गई। गणेश जी को अपना यह अपमान सहन नहीं हुआ और उन्होंने चंद्रमा को शाप देते हुए कहा, "पापी तूने मेरा मजाक उड़ाया हैं। आज मैं तुझे शाप देता हूं कि जो भी तेरा मुख देखेगा, वह कलंकित हो जायेगा। "

🌹गणेशजी का शाप सुनकर चंद्रमा बहुत दुखी हुए क्योंकि इस प्रकार तो उन्हें सृष्टि में सर्वदा अशुभ होने की मान्यता प्राप्त हो जाएगी। गणेशजी के शाप वाली बात चंद्रमा ने समस्त देवताओं को बतायी तो सभी देवताओं को चिंता हुई और विचार विमर्श करने लगे कि चंद्रमा ही रात्रिकाल में पृथ्वी का आभूषण हैं तथा इसे देखे बिना पृथ्वी पर रात्रि का कोई काम पूरा नहीं हो सकता।

🌹अत: चंद्रमा को साथ लेकर सभी देवता ब्रह्माजी के पास पहुचें। देवताओं ने ब्रह्माजी को सारी घटना विस्तार से सुनाई। उनकी बातें सुनकर ब्रह्माजी बोले, " चंद्रमा तुमने सभी गणों के अराध्य देव शिव-पार्वती के पुत्र गणेश का अपमान किया हैं। यदि तुम गणेश के शाप से मुक्त होना चाहते हो तो श्रीगणेशजी का व्रत रखो। वे दयालु हैं, तुम्हें माफ कर देंगे। "

🌹चंद्रमा गणेशजी को प्रशन्न करने के लिये कठोर व्रत-तपस्या करने लगे। भगवान गणेश चंद्रमा की कठोर तपस्या से प्रसन्न हुए और कहा वर्षभर में केवल एक दिन भाद्रपद में शुक्ल चतुर्थी की रात्रि को जो तुम्हें देखेगा, उसे ही कोई मिथ्या कलंक लगेगा। बाकी दिन कुछ नहीं होगा। केवल एक ही दिन कलंक लगने की बात सुनकर चंद्रमा समेत सभी देवताओं ने राहत की सांस ली।

🌹उसी दिन से गणेश चतुर्थी यानि भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को चंद्र दर्शन निषेध माना गया है।
स्वयं श्रीकृष्ण जी ने भागवत ( स्कंध -10 के अध्याय 56 ) में इसे मिथ्याभिशाप कहकर मिथ्या कलंक का ही संकेत दिया है। स्कंद पुराण में भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं कहा है कि भादव के शुक्ल पक्ष के चन्द्र दर्शन मैंने गोखुर के जल में किए, जिसके फलस्वरूप मुझ पर मणि की चोरी का झूठा कलंक लगा-

*" मया भाद्रपदे शुक्लचतुर्थ्यां चंद्रदर्शनं गोष्पदाम्बुनि वै राजन् कृतं दिवमपश्यता " *

🌹देवर्षि नारदजी ने भी श्री कृष्ण को भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को चन्द्र दर्शन करने के फलस्वरूप व्यर्थ कलंक लगने की बात कही है-

*" त्वया भाद्रपदे शुक्लचतुर्थ्यां चन्द्रदर्शनम् । कृतं येनेह भगवन् वृथाशापमवाप्तवानम् ।। "*

🌹इसके अतिरिक्त श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी इस तिथि को चन्द्रमा के दर्शन ना किए जाने के संकेत दिए हैं-

*" सो परनारि लिलार गोसाईं । तजउ चौथि कै चंद की नाईं ।। "*

🌹यदि भूलवश इस तिथि को चन्द्र  दर्शन हो ही जायें
*विष्णु पुराण के अनुसार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चन्द्र दर्शन से कलंक लगने के शमन हेतु विष्णु पुराण में वर्णित स्यमंतक मणि का उल्लेख पढ़ने या सुनने से यह दोष समाप्त होता है।*

🌹अत: स्यमंतक मणि की ( ऊपर लिखी ) यह कथा गणेश चतुर्थी पर चन्द्र-दर्शन करने पर अभिशापित हुए मनुष्य को दोष-मुक्त करती है। 

शनिवार, 8 सितंबर 2018

छठी का दूध

*छठी के दूध  के बारे में सुना है???*
 *आज छठी है l*
छठिहार क्यूँ होता है,,,?ये बात हर कोई जानना चाहेगा,,क्यूंकि यदा कदा लोग ये सवाल उठाते रहते हैं,,,,
बात कन्हैया की जन्म पश्चात की है,,बडा ही मनोरम समय था हर तरफ संगीत और बधाई के गीत बज रहे थे,,सारा नन्द ग्राम फूलों से सजा हुआ था,,हो भी क्यों न ,,आज कान्हा का छठा दिन जो था,,परन्तु ये क्या ,कनहा तो जोर जोर से रोये जा रहा था,,,हर कोई लल्ला को चुप करने का प्रयास कर रहा था,,मगर सब विफल... देव गण भी  प्रभू की ये लीला देख अचंभित थे,,देवों ने ब्रह्मा जी से निराकरण के लिए कहा तो ब्रह्मा जी ने,,शक्ति स्वरूपणी महामाया को भेज दिया ,,,कान्हा को चुप करने के लिए,,ये सुनके
महामाया आनंदित हो गई इस कार्य को पाकर ,,,,और भांति भांति के रूप बदल कर लल्ला को चुप करने की प्रयास करने लगी ,,,कभी फूल बनती तो कभी पक्षी ,,,,कभी इधर जाती तो कभी उधर जाती,,,,लल्ला चुप ,,सबको शांति मिली,,,लेकिन लल्ला अपनी सर को कभी इधर तो कभी उधर क्यों कर रहा है,,,फिर खुद ही मुस्कुरा रहा है,,,दरअसल माया की माया सिर्फ प्रभू देख रहे थे और कोई नहीं,,,और फिर लल्ला रोने लगे,,,तो माया ने कहा की हे ब्रह्मा जी प्रभू को भूख लगी है,,,और मैया को दूध नहीं आ रहा,, यही है प्रभु की रोने का कारन,। फिर ब्रह्मा जी के आशीर्वाद से यसोदा को छाती में दर्द महसूस हुआ,,,देखा तो दूध टपक रहा है,,,मैया ने झट से कान्हा को गोद में उठाई और छाती से लगा ली ,,दूध मुह में जाते ही लल्ला चुप हो गए,,,देव मानव सब हर्षित हो गए,,,परन्तु माया गुमसुम हो गई..ब्रह्मा जी से ये छुपा ना रहा ,,,पूछा की क्या बात है?,,महामाया ने कहा की मुझे इसमें बड़ा आनंद आ रहा था,,ब्रह्मा जी ने मुस्कुराते हुए कहा ये बात है,,,आज से तुम छठी के रूप में हर बच्चे के छठे दिन पूजी जाओगी,,,साज सजावट और गीत संगीत से तुम्हारा स्वागत होगा,,और बिना किसी को दिखाई दिए हर बच्चे के साथ तुम आनंद कर पाओगी ,,,माया ने कहा की आपका बहुत बहुत धन्वाद प्रभु ,,चुकी आपके आशीर्वाद से यशोदा को दूध आया ,,,इसीलिए,,,छठी के दिन माँ के दूध पिने से बच्चे को वो दूध अमृत के सामान उपकारी हो और हर तरह के कष्ट को दूर करने वाली हो,ऐसा वर दें ,,,,तथास्तु ,,कह के ब्रह्मा जी अलक्षित हो गए,,,और तब से छठी पूजन (छठिहार)का प्रचलन है,,,और छठी के दूध का एक अलग महत्व है,द्वारा
....,,,,......,,,,,......आओ सखी आओ रे गीत छठी के गाओ रे....
......,,,,......,,,,..... नन्द के लाला की छठी धूम धाम से मनाओ रे .....
.....,,,,,.......,,,,,......माखन मिश्री का भोग लगाया .....
.........,,,,.......,,,,,.....अब कढ़ी चावल बनाओ रे आओ सही आओ रे......
....,,,,,......,,,,,....जशोदा माई प्रेम करे हम सब भी स्नेह करे प्रेम से ले ले बलिया कामना लल्ला की दीर्घायु की करे.....
......आओ सखी आओ रे गीत छठी के गाओ रे....
.....कृष्ण छठी की हार्दिक शुभ कामनाये.......

*जय श्रीराधे कृष्णा*
🌷🌻🌷🌻🌷🌻🌷

शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

हम पानी क्यों ना पीये खाना खाने के बाद

ये जानना बहुत जरुरी है.!

हम पानी क्यों ना पीये खाना खाने के बाद.!
क्या कारण है.?
हमने दाल खाई,
हमने सब्जी खाई,
हमने रोटी खाई,
हमने दही खाया,
लस्सी पी, दूध, दही, छाछ, लस्सी, फल आदि.!
ये सब कुछ भोजन के रूप मे हमने ग्रहण किया ये सब कुछ हमको उर्जा देता है और पेट उस उर्जा को आगे ट्रांसफर करता है.! पेट मे एक छोटा सा स्थान होता है जिसको हम हिंदी मे कहते है "अमाशय" उसी स्थान का संस्कृत नाम है "जठर"
उसी स्थान को अंग्रेजी मे कहते है "epigastrium" ये एक
थैली की तरह होता है और यह जठर हमारे शरीर मे सबसे
महत्वपूर्ण है क्योंकि सारा खाना सबसे पहले इसी मे आता है।
ये बहुत छोटा सा स्थान हैं इसमें अधिक से अधिक 350gms खाना आ सकता है.! हम कुछ भी खाते सब ये अमाशय मे आ जाता है.!

आमाशय मे अग्नि प्रदीप्त होती है उसी को कहते हे "जठराग्नि".!
ये जठराग्नि है वो अमाशय मे प्रदीप्त होने वाली आग है । ऐसे ही पेट मे होता है जेसे ही आपने खाना खाया की जठराग्नि प्रदीप्त हो गयी.. यह ऑटोमेटिक है,
जेसे ही अपने रोटी का पहला टुकड़ा मुँह मे डाला की इधर जठराग्नि प्रदीप्त हो गई.!
ये अग्नि तब तक जलती हे
जब तक खाना' पचता है |

अब अपने खाते ही
गटागट पानी पी लिया
और खूब ठंडा पानी पी लिया.

और कई लोग तो बोतल पे बोतल पी जाते है.!

अब जो आग (जठराग्नि) जल रही थी वो बुझ गयी.!
आग अगर बुझ गयी
.तो खाने की पचने की जो क्रिया है वो रुक गयी.!
You suffer from IBS,
Never CURABLE

अब हमेशा याद रखें खाना जाने पर हमारे पेट में दो ही क्रिया होती है, एक क्रिया है,
जिसको हम कहते हे,
"Digestion"
और दूसरी है "fermentation" फर्मेंटेशन का मतलब है,
सड़ना...! और
डायजेशन का मतलब हे
पचना.!

आयुर्वेद के हिसाब से आग जलेगी तो खाना पचेगा,
खाना पचेगा तो उससे रस बनेगा.! जो रस बनेगा
तो उसी रस से मांस, मज्जा, रक्त, वीर्य, हड्डिया, मल, मूत्र
और अस्थि बनेगा और सबसे अंत मे मेद बनेगा.!

ये तभी होगा
जब खाना पचेगा.!

यह सब हमें चाहिए. ये तो हुई खाना पचने की बात. अब जब खाना सड़ेगा तब क्या होगा..?

खाने के सड़ने पर सबसे पहला जहर जो बनता है वो हे यूरिक एसिड (uric acid)

कई बार आप डॉक्टर के पास जाकर कहते है की मुझे घुटने मे दर्द हो रहा है, मुझे कंधे-कमर मे दर्द हो रहा है तो डॉक्टर कहेगा आपका यूरिक एसिड बढ़ रहा है
आप ये दवा खाओ, वो दवा खाओ यूरिक एसिड कम करो|
और एक दूसरा उदाहरण खाना

जब खाना सड़ता है, तो यूरिक एसिड जेसा ही एक दूसरा विष बनता है जिसको हम कहते हे,
LDL (Low Density lipoprotine) माने खराब कोलेस्ट्रोल (cholesterol)

जब आप ब्लड प्रेशर(BP)
चेक कराने डॉक्टर के पास जाते हैं तो वो आपको कहता है (HIGH BP)

हाई-बीपी है आप पूछोगे...
कारण बताओ.?

तो वो कहेगा कोलेस्ट्रोल बहुत ज्यादा बढ़ा हुआ है |

आप ज्यादा पूछोगे की कोलेस्ट्रोल कौनसा बहुत है ?

तो वो आपको कहेगा
LDL बहुत है |

इससे भी ज्यादा खतरनाक एक  विष है वो है.... VLDL
(Very Low Density Lipoprotine)

ये भी कोलेस्ट्रॉल जेसा ही विष है। अगर VLDL बहुत बढ़ गया
तो आपको भगवान भी नहीं बचा सकता|

खाना सड़ने पर और जो जहर बनते है उसमे एक ओर विष है
जिसको अंग्रेजी मे हम कहते है triglycerides.!

जब भी डॉक्टर आपको कहे
की आपका "triglycerides" बढ़ा हुआ है तो समझ लीजिए
की आपके शरीर मे विष निर्माण हो रहा है | तो कोई यूरिक एसिड के नाम से कहे, कोई कोलेस्ट्रोल के नाम से कहे, कोई LDL -VLDL के नाम से कहे समझ लीजिए की ये विष हे
और ऐसे विष 103 है |

ये सभी विष तब बनते है
जब खाना सड़ता है |

मतलब समझ लीजिए किसी का कोलेस्ट्रोल बढ़ा हुआ है तो एक ही मिनिट मे ध्यान आना चाहिए
की खाना पच नहीं रहा है ,

कोई कहता है मेरा triglycerides बहुत बढ़ा
हुआ है तो एक ही मिनिट मे डायग्नोसिस कर लीजिए आप...! की आपका खाना
पच नहीं रहा है |

कोई कहता है मेरा यूरिक एसिड बढ़ा हुआ है तो एक ही मिनिट लगना चाहिए समझने मे की खाना पच नहीं रहा है |

क्योंकि खाना पचने पर इनमे से कोई भी जहर नहीं बनता.!

खाना पचने पर जो बनता है
वो है....मांस, मज्जा, रक्त, वीर्य, हड्डिया, मल, मूत्र, अस्थि.!
और खाना नहीं पचने पर बनता है....यूरिक एसिड, कोलेस्ट्रोल,
LDL-VLDL.!

और यही आपके शरीर को
रोगों का घर बनाते है.!

पेट मे बनने वाला यही जहर
जब ज्यादा बढ़कर खून मे आते है ! तो खून दिल की नाड़ियो मे से निकल नहीं पाता और रोज थोड़ा थोड़ा कचरा जो खून मे आया है इकट्ठा होता रहता है
और एक दिन नाड़ी को ब्लॉक कर देता है जिसे आप
heart attack कहते हैं.!

तो हमें जिंदगी मे ध्यान इस बात पर देना है की जो हम खा रहे हे
वो शरीर मे ठीक से पचना चाहिए और खाना ठीक से पचना चाहिए इसके लिए पेट मे
ठीक से आग (जठराग्नि) प्रदीप्त होनी ही चाहिए| क्योंकि बिना आग के खाना पचता नहीं हे
और खाना पकता भी नहीं है

महत्व की बात खाने को खाना नहीं खाने को पचाना है |

आपने क्या खाया कितना खाया
वो महत्व नहीं हे.!

खाना अच्छे से पचे इसके लिए वाणभट्ट जी ने सूत्र दिया.!

"भोजनान्ते विषं वारी"

(मतलब} खाना खाने के तुरंत बाद पानी पीना जहर पीने के बराबर है)

इसलिए खाने के तुरंत बाद पानी
कभी मत पिये..!

अब आपके मन मे सवाल आएगा कितनी देर तक नहीं पीना.? तो 1 घंटे 48 मिनट तक नहीं पीना !  अब आप कहेंगे
इसका क्या calculation हैं.?

बात ऐसी है....!

जब हम खाना खाते हैं तो जठराग्नि द्वारा सब एक दूसरे मे
मिक्स होता है और फिर खाना पेस्ट मे बदलता हैं.!

पेस्ट मे बदलने की क्रिया होने तक 1 घंटा 48 मिनट का समय लगता है ! उसके बाद जठराग्नि कम हो जाती है.!

(बुझती तो नहीं लेकिन बहुत धीमी हो जाती है)

पेस्ट बनने के बाद शरीर मे रस बनने की प्रक्रिया शुरू होती है !

तब हमारे शरीर को पानी की जरूरत होती हैं।

तब आप जितना इच्छा हो
उतना पानी पिये.!

जो बहुत मेहनती लोग है
(खेत मे हल चलाने वाले,
रिक्शा खीचने वाले,
पत्थर तोड़ने वाले)

उनको 1 घंटे के बाद ही रस बनने लगता है उनको  घंटे बाद
पानी पीना चाहिए !

अब आप कहेंगे खाना खाने के पहले कितने मिनट तक पानी पी सकते हैं.?

तो खाना खाने के 45 मिनट पहले तक आप पानी पी
सकते हैं !

अब आप पूछेंगे ये मिनट का calculation....?

बात ऐसी ही जब हम पानी पीते हैं तो वो शरीर के प्रत्येक अंग तक जाता है ! और अगर बच जाये तो 45 मिनट बाद मूत्र पिंड तक पहुंचता है.!

तो पानी - पीने से मूत्र पिंड तक आने का समय 45 मिनट का है !

तो आप खाना खाने से 45 मिनट पहले ही पाने पिये.!

इसका जरूर पालण करे..!

अधिक अधिक लोगो को बताएं.!
संग्राहक....        

क्यों होते है माला में 108 दाने

क्यों करते है मंत्र जाप के लिए माला का प्रयोग?
हिन्दू धर्म में हम मंत्र जप के लिए जिस माला का उपयोग करते है, उस माला में दानों की संख्या 108 होती है। शास्त्रों में इस संख्या 108 का अत्यधिक महत्व होता है । माला में 108 ही दाने क्यों होते हैं, इसके पीछे कई धार्मिक, ज्योतषिक और वैज्ञानिक मान्यताएं हैं।
आइए हम यहां जानते है ऐसी ही चार मान्यताओ के बारे में तथा साथ ही जानेंगे आखिर क्यों करना चाहिए मन्त्र जाप के लिए माला का प्रयोग।
सूर्य की एक-एक कला का प्रतीक होता है माला का एक-एक दाना
एक मान्यता के अनुसार माला के 108 दाने और सूर्य की कलाओं का गहरा संबंध है। एक वर्ष में सूर्य 216000 कलाएं बदलता है और वर्ष में दो बार अपनी स्थिति भी बदलता है। छह माह उत्तरायण रहता है और छह माह दक्षिणायन। अत: सूर्य छह माह की एक स्थिति में 108000 बार कलाएं बदलता है।
इसी संख्या 108000 से अंतिम तीन शून्य हटाकर माला के 108 मोती निर्धारित किए गए हैं। माला का एक-एक दाना सूर्य की एक-एक कला का प्रतीक है। सूर्य ही व्यक्ति को तेजस्वी बनाता है, समाज में मान-सम्मान दिलवाता है। सूर्य ही एकमात्र साक्षात दिखने वाले देवता हैं, इसी वजह से सूर्य की कलाओं के आधार पर दानों की संख्या 108 निर्धारित की गई है।
माला में 108 दाने रहते हैं। इस संबंध में शास्त्रों में दिया गया है कि…
षट्शतानि दिवारात्रौ सहस्राण्येकं विशांति।
एतत् संख्यान्तितं मंत्रं जीवो जपति सर्वदा।।
इस श्लोक के अनुसार एक पूर्ण रूप से स्वस्थ व्यक्ति दिनभर में जितनी बार सांस लेता है, उसी से माला के दानों की संख्या 108 का संबंध है।
सामान्यत: 24 घंटे में एक व्यक्ति करीब 21600 बार सांस लेता है। दिन के 24 घंटों में से 12 घंटे दैनिक कार्यों में व्यतीत हो जाते हैं और शेष 12 घंटों में व्यक्ति सांस लेता है 10800 बार।
इसी समय में देवी-देवताओं का ध्यान करना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार व्यक्ति को हर सांस पर यानी पूजन के लिए निर्धारित समय 12 घंटे में 10800 बार ईश्वर का ध्यान करना चाहिए,
लेकिन यह संभव नहीं हो पाता है।
इसीलिए 10800 बार सांस लेने की संख्या से अंतिम दो शून्य हटाकर जप के लिए 108 संख्या निर्धारित की गई है। इसी संख्या के आधार पर जप की माला में 108 दाने होते हैं।
108 के लिए ज्योतिष की मान्यता
ज्योतिष के अनुसार ब्रह्मांड को 12 भागों में विभाजित किया गया है। इन 12 भागों के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन हैं। इन 12 राशियों में नौ ग्रह सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु विचरण करते हैं। अत: ग्रहों की संख्या 9 का गुणा किया जाए राशियों की संख्या 12 में तो संख्या 108 प्राप्त हो जाती है।
माला के दानों की संख्या 108 संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करती है।
एक अन्य मान्यता के अनुसार ऋषियों ने में माला में 108 दाने रखने के पीछे ज्योतिषी कारण बताया है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कुल 27 नक्षत्र बताए गए हैं। हर नक्षत्र के 4 चरण होते हैं और 27 नक्षत्रों के कुल चरण 108 ही होते हैं। माला का एक-एक दाना नक्षत्र के एक-एक चरण का प्रतिनिधित्व करता है।
किसे कहते हैं सुमेरू
माला के दानों से मालूम हो जाता है कि मंत्र जप की कितनी संख्या हो गई है। जप की माला में सबसे ऊपर एक बड़ा दाना होता है जो कि सुमेरू कहलाता है। सुमेरू से ही जप की संख्या प्रारंभ होती है और यहीं पर खत्म भी। जब जप का एक चक्र पूर्ण होकर सुमेरू दाने तक पहुंच जाता है तब माला को पलटा लिया जाता है। सुमेरू को लांघना नहीं चाहिए।
जब भी मंत्र जप पूर्ण करें तो सुमेरू को माथे पर लगाकर नमन करना चाहिए। इससे जप का पूर्ण फल प्राप्त होता है*

कामदेव भगवान

कामदेव के तेरह तथ्य जानकर चौंक जाएंगे आप!!!!!
 
हिन्दू धर्म में कामदेव, कामसूत्र, कामशास्त्र और चार पुरुषर्थों में से एक काम की बहुत चर्चा होती है। खजुराहो में कामसूत्र से संबंधित कई मूर्तियां हैं। अब सवाल यह उठता है कि क्या काम का अर्थ सेक्स ही होता है? नहीं, काम का अर्थ होता है कार्य, कामना और कामेच्छा से। वह सारे कार्य जिससे जीवन आनंददायक, सुखी, शुभ और सुंदर बनता है काम के अंतर्गत ही आते हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

आपने कामदेव के बारे में सुना या पढ़ा होगा। पौराणिक काल की कई कहानियों में कामदेव का उल्लेख मिलता है। जितनी भी कहानियों में कामदेव के बारे में जहां कहीं भी उल्लेख हुआ है, उन्हें पढ़कर एक बात जो समझ में आती है वह यह कि कि कामदेव का संबंध प्रेम और कामेच्छा से है।

लेकिन असल में कामदेव हैं कौन? क्या वह एक काल्पनिक भाव है जो देव और ऋषियों को सताता रहता था या कि वह भी किसी देवता की तरह एक देवता थे?आजो जानते हैं कामदेव के बारे में 13 रहस्य...

कामदेव का परिवार :पौराणिक कथाओं के अनुसार कामदेव भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी के पुत्र हैं। उनका विवाह रति नाम की देवी से हुआ था, जो प्रेम और आकर्षण की देवी मानी जाती है। कुछ कथाओं में यह भी उल्लिखित है कि कामदेव स्वयं ब्रह्माजी के पुत्र हैं और इनका संबंध भगवान शिव से भी है। कुछ जगह पर धर्म की पत्नी श्रद्धा से इनका आविर्भाव हुआ माना जाता है।

प्रेम के देवता :जिस तरह पश्चिमी देशों में क्यूपिड और यूनानी देशों में इरोस को प्रेम का प्रतीक माना जाता है, उसी तरह हिन्दू धर्मग्रंथों में कामदेव को प्रेम और आकर्षण का देवता कहा जाता है।

कामदेव के अन्य नाम: 'रागवृंत', 'अनंग', 'कंदर्प', 'मनमथ', 'मनसिजा', 'मदन', 'रतिकांत', 'पुष्पवान' तथा 'पुष्पधंव' आदि कामदेव के प्रसिद्ध नाम हैं। कामदेव को अर्धदेव या गंधर्व भी कहा जाता है, जो स्वर्ग के वासियों में कामेच्छा उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी हैं। कहीं-कहीं कामदेव को यक्ष की संज्ञा भी दी गई है।

कामदेव का स्वरूप :कामदेव को सुनहरे पंखों से युक्त एक सुंदर नवयुवक की तरह प्रदर्शित किया गया है जिनके हाथ में धनुष और बाण हैं। ये तोते के रथ पर मकर (एक प्रकार की मछली) के चिह्न से अंकित लाल ध्वजा लगाकर विचरण करते हैं। वैसे कुछ शास्त्रों में हाथी पर बैठे हुए भी बताया गया है।

कामदेव के धनुष और बाण :उनका धनुष मिठास से भरे गन्ने का बना होता है जिसमें मधुमक्खियों के शहद की रस्सी लगी है। उनके धनुष का बाण अशोक के पेड़ के महकते फूलों के अलावा सफेद, नीले कमल, चमेली और आम के पेड़ पर लगने वाले फूलों से बने होते हैं।

कामदेव के पास मुख्यत:5 प्रकार के बाण हैं।कामदेव के 5 बाणों के नाम :1. मारण, 2. स्तम्भन, 3. जृम्भन, 4. शोषण, 5. उम्मादन (मन्मन्थ)।

मदन-कामदेव मंदिर :मदन-कामदेव मंदिर को 'असम का खजुराहो' के नाम से जाना जाता है। वहां की मैथुन-प्रतिमाएं मध्यप्रदेश के खजुराहो की याद दिलाती हैं। सेक्स के देवता कामदेव और उनकी पत्नी रति की कथा को आज भी ये जीवंत बना रही हैं। यह मंदिर घने जंगलों के भीतर पेड़ों से छुपा हुआ है। कहते हैं कि भगवान शंकर द्वारा तृतीय नेत्र खोलने पर भस्म हो गए कामदेव का इस स्थान पर पुनर्जन्म तथा उनकी पत्नी रति के साथ पुन: मिलन हुआ था।

कामदेव की ऋतु वसंत :वसंत पंचमी के दिन कामदेव की पूजा की जाती है। वसंत कामदेव का मित्र है इसलिए कामदेव का धनुष फूलों का बना हुआ है। इस धनुष की कमान स्वरविहीन होती है यानी जब कामदेव जब कमान से तीर छोड़ते हैं तो उसकी आवाज नहीं होती है।

कामदेव का एक नाम 'अनंग' है यानी बिना शरीर के ये प्राणियों में बसते हैं। एक नाम 'मार' है यानी यह इतने मारक हैं कि इनके बाणों का कोई कवच नहीं है। वसंत ऋतु को प्रेम की ही ऋतु माना जाता रहा है। इसमें फूलों के बाणों से आहत हृदय प्रेम से सराबोर हो जाता है।

यहां रहता है कामदेव का वास :
यौवनं स्त्री च पुष्पाणि सुवासानि महामते:।
गानं मधुरश्चैव मृदुलाण्डजशब्दक:।।
उद्यानानि वसन्तश्च सुवासाश्चन्दनादय:।
सङ्गो विषयसक्तानां नराणां गुह्यदर्शनम्।।
वायुर्मद: सुवासश्र्च वस्त्राण्यपि नवानि वै।
भूषणादिकमेवं ते देहा नाना कृता मया।।

मुद्गल पुराण के अनुसार कामदेव का वास यौवन, स्त्री, सुंदर फूल, गीत, पराग कण या फूलों का रस, पक्षियों की मीठी आवाज, सुंदर बाग-बगीचों, वसंत ऋ‍तु, चंदन, काम-वासनाओं में लिप्त मनुष्य की संगति, छुपे अंग, सुहानी और मंद हवा, रहने के सुंदर स्थान, आकर्षक वस्त्र और सुंदर आभूषण धारण किए शरीरों में रहता है। इसके अलावा कामदेव स्त्रियों के शरीर में भी वास करते हैं, खासतौर पर स्त्रियों के नयन, ललाट, भौंह और होठों पर इनका प्रभाव काफी रहता है।

1.कामदेव और शिव :जब भगवान शिव की पत्नी सती ने पति के अपमान से आहत और पिता के व्यवहार से क्रोधित होकर यज्ञ की अग्नि में आत्मदाह कर लिया था तब सती ने ही बाद में पार्वती के रूप में जन्म लिया। सती की मृत्यु के पश्चात भगवान शिव संसार के सभी बंधनों को तोड़कर, मोह-माया को पीछे छोड़कर तप में लीन हो गए। वे आंखें खोल ही नहीं रहे थे।

ऐसे में सभी देवों की अनुशंसा पर कामदेव ने उन पर अपना बाण चलाकर शिव के भीतर देवी पार्वती के लिए आकर्षण विकसित किया। शिव ने क्रोधित होकर जब आंखें खोलीं तो उससे कामदेव भस्म हो गए। हालांकि बाद में शिवजी ने उन्हें जीवनदान दे दिया था, लेकिन बगैर देह के।

श्रीकृष्ण और कामदेव :पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण को भी कामदेव ने अपने नियंत्रण में लाने का प्रयास किया था। कामदेव ने भगवान श्रीकृष्ण से यह शर्त लगाई कि वे उन्हें भी स्वर्ग की अप्सराओं से भी सुंदर गोपियों के प्रति आसक्त कर देंगे। श्रीकृष्ण ने कामदेव की सभी शर्त स्वीकार की और गोपियों संग रास भी रचाया लेकिन फिर भी उनके मन के भीतर एक भी क्षण के लिए वासना ने घर नहीं किया।

रति ने पाला कामदेव को पुत्र की तरह फिर उनसे कर लिया विवाह :जब शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया तब ये देख रति विलाप करने लगी तब जाकर शिव ने कामदेव के पुनः कृष्ण के पुत्र रूप में धरती पर जन्म लेने की बात बताई। शिव के कहे अनुसार भगवान श्रीकृष्ण और रुक्मणि को प्रद्युम्न नाम का पुत्र हुआ, जो कि कामदेव का ही अवतार था।

कहते हैं कि श्रीकृष्ण से दुश्मनी के चलते राक्षस शंभरासुर नवराज प्रद्युम्न का अपहरण करके ले गया और उसे समुद्र में फेंक आया। उस शिशु को एक मछली ने निगल लिया और वो मछली मछुआरों द्वारा पकड़ी जाने के बाद शंभरासुर के रसोई घर में ही पहुंच गई।

तब रति रसोई में काम करने वाली मायावती नाम की एक स्त्री का रूप धारण करके रसोईघर में पहुंच गई। वहां आई मछली को उसने ही काटा और उसमें से निकले बच्चे को मां के समान पाला-पोसा। जब वो बच्चा युवा हुआ तो उसे पूर्व जन्म की सारी याद दिलाई गई। इतना ही नहीं, सारी कलाएं भी सिखाईं तब प्रद्युम्न ने शंभरासुर का वध किया और फिर मायावती को ही अपनी पत्नी रूप में द्वारका ले आए।

भगवान ब्रह्मा ने दिया वरदान: पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय ब्रह्माजी प्रजा वृद्धि की कामना से ध्यानमग्न थे। उसी समय उनके अंश से तेजस्वी पुत्र काम उत्पन्न हुआ और कहने लगा कि मेरे लिए क्या आज्ञा है? तब ब्रह्माजी बोले कि मैंने सृष्टि उत्पन्न करने के लिए प्रजापतियों को उत्पन्न किया था किंतु वे सृष्टि रचना में समर्थ नहीं हुए इसलिए मैं तुम्हें इस कार्य की आज्ञा देता हूं। यह सुन कामदेव वहां से विदा होकर अदृश्य हो गए।

यह देख ब्रह्माजी क्रोधित हुए और शाप दे दिया कि तुमने मेरा वचन नहीं माना इसलिए तुम्हारा जल्दी ही नाश हो जाएगा। शाप सुनकर कामदेव भयभीत हो गए और हाथ जोड़कर ब्रह्माजी के समक्ष क्षमा मांगने लगे। कामदेव की अनुनय-विनय से ब्रह्माजी प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि मैं तुम्हें रहने के लिए 12 स्थान देता हूं- स्त्रियों के कटाक्ष, केश राशि, जंघा, वक्ष, नाभि, जंघमूल, अधर, कोयल की कूक, चांदनी, वर्षाकाल, चैत्र और वैशाख महीना। इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी ने कामदेव को पुष्प का धनुष और 5 बाण देकर विदा कर दिया।

ब्रह्माजी से मिले वरदान की सहायता से कामदेव तीनों लोकों में भ्रमण करने लगे और भूत, पिशाच, गंधर्व, यक्ष सभी को काम ने अपने वशीभूत कर लिया। फिर मछली का ध्वज लगाकर कामदेव अपनी पत्नी रति के साथ संसार के सभी प्राणियों को अपने वशीभूत करने बढ़े। इसी क्रम में वे शिवजी के पास पहुंचे। भगवान शिव तब तपस्या में लीन थे तभी कामदेव छोटे से जंतु का सूक्ष्म रूप लेकर कर्ण के छिद्र से भगवान शिव के शरीर में प्रवेश कर गए। इससे शिवजी का मन चंचल हो गया।

उन्होंने विचार धारण कर चित्त में देखा कि कामदेव उनके शरीर में स्थित है। इतने में ही इच्छा शरीर धारण करने वाले कामदेव भगवान शिव के शरीर से बाहर आ गए और आम के एक वृक्ष के नीचे जाकर खड़े हो गए। फिर उन्होंने शिवजी पर मोहन नामक बाण छोड़ा, जो शिवजी के हृदय पर जाकर लगा। इससे क्रोधित हो शिवजी ने अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से उन्हें भस्म कर दिया।

कामदेव को जलता देख उनकी पत्नी रति विलाप करने लगी। तभी आकाशवाणी हुई जिसमें रति को रुदन न करने और भगवान शिव की आराधना करने को कहा गया। फिर रति ने श्रद्धापूर्वक भगवान शंकर की प्रार्थना की।

रति की प्रार्थना से प्रसन्न हो शिवजी ने कहा कि कामदेव ने मेरे मन को विचलित किया था इसलिए मैंने इन्हें भस्म कर दिया। अब अगर ये अनंग रूप में महाकाल वन में जाकर शिवलिंग की आराधना करेंगे तो इनका उद्धार होगा।

तब कामदेव महाकाल वन आए और उन्होंने पूर्ण भक्तिभाव से शिवलिंग की उपासना की। उपासना के फलस्वरूप शिवजी ने प्रसन्न होकर कहा कि तुम अनंग, शरीर के बिन रहकर भी समर्थ रहोगे। कृष्णावतार के समय तुम रुक्मणि के गर्भ से जन्म लोगे और तुम्हारा नाम प्रद्युम्न होगा।

कामदेव मंत्र :कामदेव के बाण ही नहीं, उनका 'क्लीं मंत्र' भी विपरीत लिंग के व्यक्ति को आकर्षित करता है। कामदेव के इस मंत्र का नित्य दिन जाप करने से न सिर्फ आपका साथी आपके प्रति शारीरिक रूप से आकर्षित होगा बल्कि आपकी प्रशंसा करने के साथ-साथ वह आपको अपनी प्राथमिकता भी बना लेगा।

कहा जाता है कि प्राचीनकाल में वेश्याएं और नर्तकियां भी इस मंत्र का जाप करती थीं, क्योंकि वे अपने प्रशंसकों के आकर्षण को खोना नहीं चाहती थीं। ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र का लगातार जाप करते रहने की वजह से उनका आकर्षण, सौंदर्य और कांति बरकरार रहती थी।

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...