🥀🥀🥀...कलयुग वर्णन (उत्तरकाण्ड)...🥀🥀🥀
कलिमल ग्रसे धर्म सब
लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि
प्रगट किए बहु पंथ॥ 1क॥
कलियुग के पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया, सद्ग्रंथ लुप्त हो गए, दम्भियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर-करके बहुत से पंथ प्रकट कर दिए॥1(क)॥
भए लोग सब मोहबस
लोभ ग्रसे सुभ कर्म।
सुनु हरिजान ग्यान निधि
कहउँ कछुक कलिधर्म॥1 ख॥
सभी लोग मोह के वश हो गए, शुभ कर्मों को लोभ ने हड़प लिया। हे ज्ञान के भंडार! हे श्री हरि के वाहन! सुनिए, अब मैं कलि के कुछ धर्म कहता हूँ॥ (1ख)॥
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी।
श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन।
कोउ नहिं मान निगम अनुसासन॥
कलियुग में न वर्णधर्म रहता है, न चारों आश्रम रहते हैं। सब पुरुष-स्त्री वेद के विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों के बेचने वाले और राजा प्रजा को खा डालने वाले होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता॥2॥
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा।
पंडित सोइ जो गाल बजावा॥
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई।
ता कहुँ संत कहइ सब कोई॥3॥
जिसको जो अच्छा लग जाए, वही मार्ग है। जो डींग मारता है, वही पंडित है। जो मिथ्या आरंभ करता (आडंबर रचता) है और जो दंभ में रत है, उसी को सब कोई संत कहते हैं॥3॥
सोइ सयान जो परधन हारी।
जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥
जो कह झूँठ मसखरी जाना।
कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना॥4॥
जो (जिस किसी प्रकार से) दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान है। जो दंभ करता है, वही बड़ा आचारी है। जो झूठ बोलता है और हँसी-दिल्लगी करना जानता है, कलियुग में वही गुणवान कहा जाता है॥4॥
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी।
कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी॥
जाकें नख अरु जटा बिसाला।
सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥5॥
जो आचारहीन है और वेदमार्ग को छोड़े हुए है, कलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान् है। जिसके बड़े-बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएँ हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है॥5॥
असुभ बेष भूषन धरें
भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर
पूज्य ते कलिजुग माहिं॥6क॥
जो अमंगल वेष और अमंगल भूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-भक्ष्य (खाने योग्य और न खाने योग्य) सब कुछ खा लेते हैं वे ही योगी हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य हैं॥6 (क)॥
जे अपकारी चार
तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार तेइ
बकता कलिकाल महुँ॥6 ख॥
जिनके आचरण दूसरों का अपकार (अहित) करने वाले हैं, उन्हीं का बड़ा गौरव होता है और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं। जो मन, वचन और कर्म से लबार (झूठ बकने वाले) हैं, वे ही कलियुग में वक्ता माने जाते हैं॥6(ख)॥
नारि बिबस नर सकल गोसाईं।
नाचहिं नट मर्कट की नाईं॥
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना।
मेल जनेऊ लेहिं कुदाना॥7॥
हे गोसाईं! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बंदर की तरह (उनके नचाए) नाचते हैं। ब्राह्मणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं॥7॥
सब नर काम लोभ रत क्रोधी।
देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी॥
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी।
भजहिं नारि पर पुरुष अभागी॥8॥
सभी पुरुष काम और लोभ में तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवता, ब्राह्मण, वेद और संतों के विरोधी होते हैं। अभागिनी स्त्रियाँ गुणों के धाम सुंदर पति को छोड़कर पर पुरुष का सेवन करती हैं॥8॥
सौभागिनीं बिभूषन हीना।
बिधवन्ह के सिंगार नबीना॥
गुर सिष बधिर अंध का लेखा।
एक न सुनइ एक नहिं देखा॥9॥
सुहागिनी स्त्रियाँ तो आभूषणों से रहित होती हैं, पर विधवाओं के नित्य नए श्रृंगार होते हैं। शिष्य और गुरु में बहरे और अंधे का सा हिसाब होता है। एक (शिष्य) गुरु के उपदेश को सुनता नहीं, एक (गुरु) देखता नहीं (उसे ज्ञानदृष्टि) प्राप्त नहीं है)॥9॥
हरइ सिष्य धन सोक न हरई।
सो गुर घोर नरक महुँ परई॥
मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं।
उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥10॥
जो गुरु शिष्य का धन हरण करता है, पर शोक नहीं हरण करता, वह घोर नरक में पड़ता है। माता-पिता बालकों को बुलाकर वही धर्म सिखलाते हैं, जिससे पेट भरे॥10॥
ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर
कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं
बिप्र गुर घात॥11॥
स्त्री-पुरुष ब्रह्मज्ञान के सिवा दूसरी बात नहीं करते, पर वे लोभवश कौड़ियों (बहुत थोड़े लाभ) के लिए ब्राह्मण और गुरु की हत्या कर डालते हैं॥11॥
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन
हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर
आँखि देखावहिं डाटि॥11॥
शूद्र ब्राह्मणों से विवाद करते हैं (और कहते हैं) कि हम क्या तुमसे कुछ कम हैं? जो ब्रह्म को जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है। (ऐसा कहकर) वे उन्हें डाँटकर आँखें दिखलाते हैं॥99 (ख)॥
पर त्रिय लंपट कपट सयाने।
मोह द्रोह ममता लपटाने॥
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर।
देखा मैं चरित्र कलिजुग कर॥12॥
जो पराई स्त्री में आसक्त, कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह और ममता में लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म और जीव को एक बताने वाले) ज्ञानी हैं। मैंने उस कलियुग का यह चरित्र देखा॥12॥
आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं।
जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं॥
कल्प कल्प भरि एक एक नरका।
परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका॥13॥
वे स्वयं तो नष्ट हुए ही रहते हैं, जो कहीं सन्मार्ग का प्रतिपालन करते हैं, उनको भी वे नष्ट कर देते हैं। जो तर्क करके वेद की निंदा करते हैं, वे लोग कल्प-कल्पभर एक-एक नरक में पड़े रहते हैं॥13॥
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा।
स्वपच किरात कोल कलवारा।
पनारि मुई गृह संपति नासी।
मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी॥14॥
तेली, कुम्हार, चाण्डाल, भील, कोल और कलवार आदि जो वर्ण में नीचे हैं, स्त्री के मरने पर अथवा घर की संपत्ति नष्ट हो जाने पर सिर मुँड़ाकर संन्यासी हो जाते हैं॥14॥
ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं।
उभय लोक निज हाथ नसावहिं॥
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी।
निराचार सठ बृषली स्वामी॥15॥
वे अपने को ब्राह्मणों से पुजवाते हैं और अपने ही हाथों दोनों लोक नष्ट करते हैं। ब्राह्मण अपढ़, लोभी, कामी, आचारहीन, मूर्ख और नीची जाति की व्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं॥15॥
सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना।
बैठि बरासन कहहिं पुराना॥
सब नर कल्पित करहिं अचारा।
जाइ न बरनि अनीति अपारा॥16॥
शूद्र नाना प्रकार के जप, तप और व्रत करते हैं तथा ऊँचे आसन (व्यास गद्दी) पर बैठकर पुराण कहते हैं। सब मनुष्य मनमाना आचरण करते हैं। अपार अनीति का वर्णन नहीं किया जा सकता॥16॥
भए बरन संकर कलि
भिन्न सेतु सब लोग।
करहिं पाप पावहिं दुख
भय रुज सोक बियोग॥17 क॥
कलियुग में सब लोग वर्णसंकर और मर्यादा से च्युत हो गए। वे पाप करते हैं और (उनके फलस्वरूप) दुःख, भय, रोग, शोक और (प्रिय वस्तु का) वियोग पाते हैं॥17(क)॥
श्रुति संमत हरि भक्ति पथ
संजुत बिरति बिबेक।
तेहिं न चलहिं नर मोह बस
कल्पहिं पंथ अनेक॥17 ख॥
वेद सम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है, मोहवश मनुष्य उस पर नहीं चलते और अनेकों नए-नए पंथों की कल्पना करते हैं॥17 (ख)॥
बहु दाम सँवारहिं धाम जती।
बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥
तपसी धनवंत दरिद्र गृही।
कलि कौतुक तात न जात कही॥18॥
संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती॥18॥
कुलवंति निकारहिं नारि सती।
गृह आनहिं चेरि निबेरि गती॥
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं।
अबलानन दीख नहीं जब लौं॥19॥
कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी चाल को छोड़कर घर में दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक स्त्री का मुँह नहीं दिखाई पड़ता॥19॥
ससुरारि पिआरि लगी जब तें।
रिपुरूप कुटुंब भए तब तें॥
नृप पाप परायन धर्म नहीं।
करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं॥20॥
जब से ससुराल प्यारी लगने लगी, तब से कुटुम्बी शत्रु रूप हो गए। राजा लोग पाप परायण हो गए, उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही (बिना अपराध) दंड देकर उसकी विडंबना (दुर्दशा) किया करते हैं॥20॥
धनवंत कुलीन मलीन अपी।
द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥
नहिं मान पुरान न बेदहि जो।
हरि सेवक संत सही कलि सो॥21॥
धनी लोग मलिन (नीच जाति के) होने पर भी कुलीन माने जाते हैं। द्विज का चिह्न जनेऊ मात्र रह गया और नंगे बदन रहना तपस्वी का। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं॥21॥
कबि बृंद उदार दुनी न सुनी।
गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी॥
कलि बारहिं बार दुकाल परै।
बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै॥22॥
कवियों के तो झुंड हो गए, पर दुनिया में उदार (कवियों का आश्रयदाता) सुनाई नहीं पड़ता। गुण में दोष लगाने वाले बहुत हैं, पर गुणी कोई भी नहीं। कलियुग में बार-बार अकाल पड़ते हैं। अन्न के बिना सब लोग दुःखी होकर मरते हैं॥22॥
सुनु खगेस कलि कपट
हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह मारादि मद
ब्यापि रहे ब्रह्मंड॥23 क॥
हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए कलियुग में कपट, हठ (दुराग्रह), दम्भ, द्वेष, पाखंड, मान, मोह और काम आदि (अर्थात् काम, क्रोध और लोभ) और मद ब्रह्माण्डभर में व्याप्त हो गए (छा गए)॥23 (क)॥
तामस धर्म करिहिं नर
जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनी
बए न जामहिं धान॥23 ख॥
मनुष्य जप, तप, यज्ञ, व्रत और दान आदि धर्म तामसी भाव से करने लगे। देवता (इंद्र) पृथ्वी पर जल नहीं बरसाते और बोया हुआ अन्न उगता नहीं॥23 (ख)॥
अबला कच भूषन भूरि छुधा।
धनहीन दुखी ममता बहुधा॥
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता।
मति थोरि कठोरि न कोमलता॥24॥
स्त्रियों के बाल ही भूषण हैं (उनके शरीर पर कोई आभूषण नहीं रह गया) और उनको भूख बहुत लगती है (अर्थात् वे सदा अतृप्त ही रहती हैं)। वे धनहीन और बहुत प्रकार की ममता होने के कारण दुःखी रहती हैं। वे मूर्ख सुख चाहती हैं, पर धर्म में उनका प्रेम नहीं है। बुद्धि थोड़ी है और कठोर है, उनमें कोमलता नहीं है॥24॥
नर पीड़ित रोग न भोग कहीं।
अभिमान बिरोध अकारनहीं॥
लघु जीवन संबदु पंच दसा।
कलपांत न नास गुमानु असा॥25॥
मनुष्य रोगों से पीड़ित हैं, भोग (सुख) कहीं नहीं है। बिना ही कारण अभिमान और विरोध करते हैं। दस-पाँच वर्ष का थोड़ा सा जीवन है, परंतु घमंड ऐसा है मानो कल्पांत (प्रलय) होने पर भी उनका नाश नहीं होगा॥25॥
कलिकाल बिहाल किए मनुजा।
नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा॥
नहिं तोष बिचार न सीतलता।
सब जाति कुजाति भए मगता॥26॥
कलिकाल ने मनुष्य को बेहाल (अस्त-व्यस्त) कर डाला। कोई बहिन-बेटी का भी विचार नहीं करता। (लोगों में) न संतोष है, न विवेक है और न शीतलता है। जाति, कुजाति सभी लोग भीख माँगने वाले हो गए॥26॥
इरिषा परुषाच्छर लोलुपता।
भरि पूरि रही समता बिगता॥
सब लोग बियोग बिसोक हए।
बरनाश्रम धर्म अचार गए॥27॥
ईर्षा (डाह), कडुवे वचन और लालच भरपूर हो रहे हैं, समता चली गई। सब लोग वियोग और विशेष शोक से मरे पड़े हैं। वर्णाश्रम धर्म के आचरण नष्ट हो गए॥27॥
दम दान दया नहिं जानपनी।
जड़ता परबंचनताति घनी॥
तनु पोषक नारि नरा सगरे।
परनिंदक जे जग मो बगरे॥28॥
इंद्रियों का दमन, दान, दया और समझदारी किसी में नहीं रही। मूर्खता और दूसरों को ठगना, यह बहुत अधिक बढ़ गया। स्त्री-पुरुष सभी शरीर के ही पालन-पोषण में लगे रहते हैं। जो पराई निंदा करने वाले हैं, जगत् में वे ही फैले हैं॥28॥
सुनु ब्यालारि काल कलि
मल अवगुन आगार।
गुनउ बहुत कलिजुग कर
बिनु प्रयास निस्तार॥29 क॥
हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, कलिकाल पाप और अवगुणों का घर है, किंतु कलियुग में एक गुण भी बड़ा है कि उसमें बिना ही परिश्रम भवबंधन से छुटकारा मिल जाता है॥29 (क)॥
कृतजुग त्रेताँ द्वापर
पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि
हरि नाम ते पावहिं लोग॥29 ख॥
सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान् के नाम से पा जाते हैं॥29(ख)॥
कृतजुग सब जोगी बिग्यानी।
करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं।
प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥30॥
सत्ययुग में सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके सब प्राणी भवसागर से तर जाते हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सब कर्मों को प्रभु को समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं॥30॥
द्वापर करि रघुपति पद पूजा।
नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।
गावत नर पावहिं भव थाहा॥31॥
द्वापर में श्री रघुनाथजी के चरणों की पूजा करके मनुष्य संसार से तर जाते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है और कलियुग में तो केवल श्री हरि की गुणगाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं॥31॥
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना।
एक अधार राम गुन गाना॥
सब भरोस तजि जो भज रामहि।
प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥32॥
कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्री रामजी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्री रामजी को भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है,॥32॥
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं।
नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं॥
कलि कर एक पुनीत प्रतापा।
मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥33॥
वही भवसागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है। कलियुग का एक पवित्र प्रताप (महिमा) है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं, पर (मानसिक) पाप नहीं होते॥34॥
कलिजुग सम जुग आन नहिं
जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल
भव तर बिनहिं प्रयास॥35 क॥
यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है, (क्योंकि) इस युग में श्री रामजी के निर्मल गुणसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार (रूपी समुद्र) से तर जाता है॥35 (क)॥
प्रगट चारि पद धर्म के
कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें
दान करइ कल्यान॥35 ख॥
धर्म के चार चरण (सत्य, दया, तप और दान) प्रसिद्ध हैं, जिनमें से कलि में एक (दान रूपी) चरण ही प्रधान है। जिस किसी प्रकार से भी दिए जाने पर दान कल्याण ही करता है॥35(ख)॥
नित जुग धर्म होहिं सब केरे।
हृदयँ राम माया के प्रेरे॥
सुद्ध सत्व समता बिग्याना।
कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना॥36॥
श्री रामजी की माया से प्रेरित होकर सबके हृदयों में सभी युगों के धर्म नित्य होते रहते हैं। शुद्ध सत्त्वगुण, समता, विज्ञान और मन का प्रसन्न होना, इसे सत्ययुग का प्रभाव जानें॥36॥
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा।
सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा॥
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस।
द्वापर धर्म हरष भय मानस॥37॥
सत्त्वगुण अधिक हो, कुछ रजोगुण हो, कर्मों में प्रीति हो, सब प्रकार से सुख हो, यह त्रेता का धर्म है। रजोगुण बहुत हो, सत्त्वगुण बहुत ही थोड़ा हो, कुछ तमोगुण हो, मन में हर्ष और भय हो, यह द्वापर का धर्म है॥37॥
तामस बहुत रजोगुन थोरा।
कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा॥
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं।
तजि अधर्म रति धर्म कराहीं॥38॥
तमोगुण बहुत हो, रजोगुण थोड़ा हो, चारों ओर वैर-विरोध हो, यह कलियुग का प्रभाव है। पंडित लोग युगों के धर्म को मन में ज्ञान (पहचान) कर, अधर्म छोड़कर धर्म में प्रीति करते हैं॥38॥
काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही।
रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥
नट कृत बिकट कपट खगराया।
नट सेवकहि न ब्यापइ माया॥39॥
जिसका श्री रघुनाथजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है, उसको कालधर्म (युगधर्म) नहीं व्यापते। हे पक्षीराज! नट (बाजीगर) का किया हुआ कपट चरित्र (इंद्रजाल) देखने वालों के लिए बड़ा विकट (दुर्गम) होता है, पर नट के सेवक (जंभूरे) को उसकी माया नहीं व्यापती॥39॥
हरि माया कृत दोष गुन
बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब
अस बिचारि मन माहिं॥40 क॥
श्री हरि की माया के द्वारा रचे हुए दोष और गुण श्री हरि के भजन बिना नहीं जाते। मन में ऐसा विचार कर, सब कामनाओं को छोड़कर (निष्काम भाव से) श्री रामजी का भजन करना चाहिए॥40(क)॥
कलिमल ग्रसे धर्म सब
लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि
प्रगट किए बहु पंथ॥ 1क॥
कलियुग के पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया, सद्ग्रंथ लुप्त हो गए, दम्भियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर-करके बहुत से पंथ प्रकट कर दिए॥1(क)॥
भए लोग सब मोहबस
लोभ ग्रसे सुभ कर्म।
सुनु हरिजान ग्यान निधि
कहउँ कछुक कलिधर्म॥1 ख॥
सभी लोग मोह के वश हो गए, शुभ कर्मों को लोभ ने हड़प लिया। हे ज्ञान के भंडार! हे श्री हरि के वाहन! सुनिए, अब मैं कलि के कुछ धर्म कहता हूँ॥ (1ख)॥
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी।
श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन।
कोउ नहिं मान निगम अनुसासन॥
कलियुग में न वर्णधर्म रहता है, न चारों आश्रम रहते हैं। सब पुरुष-स्त्री वेद के विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों के बेचने वाले और राजा प्रजा को खा डालने वाले होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता॥2॥
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा।
पंडित सोइ जो गाल बजावा॥
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई।
ता कहुँ संत कहइ सब कोई॥3॥
जिसको जो अच्छा लग जाए, वही मार्ग है। जो डींग मारता है, वही पंडित है। जो मिथ्या आरंभ करता (आडंबर रचता) है और जो दंभ में रत है, उसी को सब कोई संत कहते हैं॥3॥
सोइ सयान जो परधन हारी।
जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥
जो कह झूँठ मसखरी जाना।
कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना॥4॥
जो (जिस किसी प्रकार से) दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान है। जो दंभ करता है, वही बड़ा आचारी है। जो झूठ बोलता है और हँसी-दिल्लगी करना जानता है, कलियुग में वही गुणवान कहा जाता है॥4॥
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी।
कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी॥
जाकें नख अरु जटा बिसाला।
सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥5॥
जो आचारहीन है और वेदमार्ग को छोड़े हुए है, कलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान् है। जिसके बड़े-बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएँ हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है॥5॥
असुभ बेष भूषन धरें
भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर
पूज्य ते कलिजुग माहिं॥6क॥
जो अमंगल वेष और अमंगल भूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-भक्ष्य (खाने योग्य और न खाने योग्य) सब कुछ खा लेते हैं वे ही योगी हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य हैं॥6 (क)॥
जे अपकारी चार
तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार तेइ
बकता कलिकाल महुँ॥6 ख॥
जिनके आचरण दूसरों का अपकार (अहित) करने वाले हैं, उन्हीं का बड़ा गौरव होता है और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं। जो मन, वचन और कर्म से लबार (झूठ बकने वाले) हैं, वे ही कलियुग में वक्ता माने जाते हैं॥6(ख)॥
नारि बिबस नर सकल गोसाईं।
नाचहिं नट मर्कट की नाईं॥
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना।
मेल जनेऊ लेहिं कुदाना॥7॥
हे गोसाईं! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बंदर की तरह (उनके नचाए) नाचते हैं। ब्राह्मणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं॥7॥
सब नर काम लोभ रत क्रोधी।
देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी॥
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी।
भजहिं नारि पर पुरुष अभागी॥8॥
सभी पुरुष काम और लोभ में तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवता, ब्राह्मण, वेद और संतों के विरोधी होते हैं। अभागिनी स्त्रियाँ गुणों के धाम सुंदर पति को छोड़कर पर पुरुष का सेवन करती हैं॥8॥
सौभागिनीं बिभूषन हीना।
बिधवन्ह के सिंगार नबीना॥
गुर सिष बधिर अंध का लेखा।
एक न सुनइ एक नहिं देखा॥9॥
सुहागिनी स्त्रियाँ तो आभूषणों से रहित होती हैं, पर विधवाओं के नित्य नए श्रृंगार होते हैं। शिष्य और गुरु में बहरे और अंधे का सा हिसाब होता है। एक (शिष्य) गुरु के उपदेश को सुनता नहीं, एक (गुरु) देखता नहीं (उसे ज्ञानदृष्टि) प्राप्त नहीं है)॥9॥
हरइ सिष्य धन सोक न हरई।
सो गुर घोर नरक महुँ परई॥
मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं।
उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥10॥
जो गुरु शिष्य का धन हरण करता है, पर शोक नहीं हरण करता, वह घोर नरक में पड़ता है। माता-पिता बालकों को बुलाकर वही धर्म सिखलाते हैं, जिससे पेट भरे॥10॥
ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर
कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं
बिप्र गुर घात॥11॥
स्त्री-पुरुष ब्रह्मज्ञान के सिवा दूसरी बात नहीं करते, पर वे लोभवश कौड़ियों (बहुत थोड़े लाभ) के लिए ब्राह्मण और गुरु की हत्या कर डालते हैं॥11॥
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन
हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर
आँखि देखावहिं डाटि॥11॥
शूद्र ब्राह्मणों से विवाद करते हैं (और कहते हैं) कि हम क्या तुमसे कुछ कम हैं? जो ब्रह्म को जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है। (ऐसा कहकर) वे उन्हें डाँटकर आँखें दिखलाते हैं॥99 (ख)॥
पर त्रिय लंपट कपट सयाने।
मोह द्रोह ममता लपटाने॥
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर।
देखा मैं चरित्र कलिजुग कर॥12॥
जो पराई स्त्री में आसक्त, कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह और ममता में लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म और जीव को एक बताने वाले) ज्ञानी हैं। मैंने उस कलियुग का यह चरित्र देखा॥12॥
आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं।
जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं॥
कल्प कल्प भरि एक एक नरका।
परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका॥13॥
वे स्वयं तो नष्ट हुए ही रहते हैं, जो कहीं सन्मार्ग का प्रतिपालन करते हैं, उनको भी वे नष्ट कर देते हैं। जो तर्क करके वेद की निंदा करते हैं, वे लोग कल्प-कल्पभर एक-एक नरक में पड़े रहते हैं॥13॥
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा।
स्वपच किरात कोल कलवारा।
पनारि मुई गृह संपति नासी।
मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी॥14॥
तेली, कुम्हार, चाण्डाल, भील, कोल और कलवार आदि जो वर्ण में नीचे हैं, स्त्री के मरने पर अथवा घर की संपत्ति नष्ट हो जाने पर सिर मुँड़ाकर संन्यासी हो जाते हैं॥14॥
ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं।
उभय लोक निज हाथ नसावहिं॥
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी।
निराचार सठ बृषली स्वामी॥15॥
वे अपने को ब्राह्मणों से पुजवाते हैं और अपने ही हाथों दोनों लोक नष्ट करते हैं। ब्राह्मण अपढ़, लोभी, कामी, आचारहीन, मूर्ख और नीची जाति की व्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं॥15॥
सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना।
बैठि बरासन कहहिं पुराना॥
सब नर कल्पित करहिं अचारा।
जाइ न बरनि अनीति अपारा॥16॥
शूद्र नाना प्रकार के जप, तप और व्रत करते हैं तथा ऊँचे आसन (व्यास गद्दी) पर बैठकर पुराण कहते हैं। सब मनुष्य मनमाना आचरण करते हैं। अपार अनीति का वर्णन नहीं किया जा सकता॥16॥
भए बरन संकर कलि
भिन्न सेतु सब लोग।
करहिं पाप पावहिं दुख
भय रुज सोक बियोग॥17 क॥
कलियुग में सब लोग वर्णसंकर और मर्यादा से च्युत हो गए। वे पाप करते हैं और (उनके फलस्वरूप) दुःख, भय, रोग, शोक और (प्रिय वस्तु का) वियोग पाते हैं॥17(क)॥
श्रुति संमत हरि भक्ति पथ
संजुत बिरति बिबेक।
तेहिं न चलहिं नर मोह बस
कल्पहिं पंथ अनेक॥17 ख॥
वेद सम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है, मोहवश मनुष्य उस पर नहीं चलते और अनेकों नए-नए पंथों की कल्पना करते हैं॥17 (ख)॥
बहु दाम सँवारहिं धाम जती।
बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥
तपसी धनवंत दरिद्र गृही।
कलि कौतुक तात न जात कही॥18॥
संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती॥18॥
कुलवंति निकारहिं नारि सती।
गृह आनहिं चेरि निबेरि गती॥
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं।
अबलानन दीख नहीं जब लौं॥19॥
कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी चाल को छोड़कर घर में दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक स्त्री का मुँह नहीं दिखाई पड़ता॥19॥
ससुरारि पिआरि लगी जब तें।
रिपुरूप कुटुंब भए तब तें॥
नृप पाप परायन धर्म नहीं।
करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं॥20॥
जब से ससुराल प्यारी लगने लगी, तब से कुटुम्बी शत्रु रूप हो गए। राजा लोग पाप परायण हो गए, उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही (बिना अपराध) दंड देकर उसकी विडंबना (दुर्दशा) किया करते हैं॥20॥
धनवंत कुलीन मलीन अपी।
द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥
नहिं मान पुरान न बेदहि जो।
हरि सेवक संत सही कलि सो॥21॥
धनी लोग मलिन (नीच जाति के) होने पर भी कुलीन माने जाते हैं। द्विज का चिह्न जनेऊ मात्र रह गया और नंगे बदन रहना तपस्वी का। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं॥21॥
कबि बृंद उदार दुनी न सुनी।
गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी॥
कलि बारहिं बार दुकाल परै।
बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै॥22॥
कवियों के तो झुंड हो गए, पर दुनिया में उदार (कवियों का आश्रयदाता) सुनाई नहीं पड़ता। गुण में दोष लगाने वाले बहुत हैं, पर गुणी कोई भी नहीं। कलियुग में बार-बार अकाल पड़ते हैं। अन्न के बिना सब लोग दुःखी होकर मरते हैं॥22॥
सुनु खगेस कलि कपट
हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह मारादि मद
ब्यापि रहे ब्रह्मंड॥23 क॥
हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए कलियुग में कपट, हठ (दुराग्रह), दम्भ, द्वेष, पाखंड, मान, मोह और काम आदि (अर्थात् काम, क्रोध और लोभ) और मद ब्रह्माण्डभर में व्याप्त हो गए (छा गए)॥23 (क)॥
तामस धर्म करिहिं नर
जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनी
बए न जामहिं धान॥23 ख॥
मनुष्य जप, तप, यज्ञ, व्रत और दान आदि धर्म तामसी भाव से करने लगे। देवता (इंद्र) पृथ्वी पर जल नहीं बरसाते और बोया हुआ अन्न उगता नहीं॥23 (ख)॥
अबला कच भूषन भूरि छुधा।
धनहीन दुखी ममता बहुधा॥
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता।
मति थोरि कठोरि न कोमलता॥24॥
स्त्रियों के बाल ही भूषण हैं (उनके शरीर पर कोई आभूषण नहीं रह गया) और उनको भूख बहुत लगती है (अर्थात् वे सदा अतृप्त ही रहती हैं)। वे धनहीन और बहुत प्रकार की ममता होने के कारण दुःखी रहती हैं। वे मूर्ख सुख चाहती हैं, पर धर्म में उनका प्रेम नहीं है। बुद्धि थोड़ी है और कठोर है, उनमें कोमलता नहीं है॥24॥
नर पीड़ित रोग न भोग कहीं।
अभिमान बिरोध अकारनहीं॥
लघु जीवन संबदु पंच दसा।
कलपांत न नास गुमानु असा॥25॥
मनुष्य रोगों से पीड़ित हैं, भोग (सुख) कहीं नहीं है। बिना ही कारण अभिमान और विरोध करते हैं। दस-पाँच वर्ष का थोड़ा सा जीवन है, परंतु घमंड ऐसा है मानो कल्पांत (प्रलय) होने पर भी उनका नाश नहीं होगा॥25॥
कलिकाल बिहाल किए मनुजा।
नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा॥
नहिं तोष बिचार न सीतलता।
सब जाति कुजाति भए मगता॥26॥
कलिकाल ने मनुष्य को बेहाल (अस्त-व्यस्त) कर डाला। कोई बहिन-बेटी का भी विचार नहीं करता। (लोगों में) न संतोष है, न विवेक है और न शीतलता है। जाति, कुजाति सभी लोग भीख माँगने वाले हो गए॥26॥
इरिषा परुषाच्छर लोलुपता।
भरि पूरि रही समता बिगता॥
सब लोग बियोग बिसोक हए।
बरनाश्रम धर्म अचार गए॥27॥
ईर्षा (डाह), कडुवे वचन और लालच भरपूर हो रहे हैं, समता चली गई। सब लोग वियोग और विशेष शोक से मरे पड़े हैं। वर्णाश्रम धर्म के आचरण नष्ट हो गए॥27॥
दम दान दया नहिं जानपनी।
जड़ता परबंचनताति घनी॥
तनु पोषक नारि नरा सगरे।
परनिंदक जे जग मो बगरे॥28॥
इंद्रियों का दमन, दान, दया और समझदारी किसी में नहीं रही। मूर्खता और दूसरों को ठगना, यह बहुत अधिक बढ़ गया। स्त्री-पुरुष सभी शरीर के ही पालन-पोषण में लगे रहते हैं। जो पराई निंदा करने वाले हैं, जगत् में वे ही फैले हैं॥28॥
सुनु ब्यालारि काल कलि
मल अवगुन आगार।
गुनउ बहुत कलिजुग कर
बिनु प्रयास निस्तार॥29 क॥
हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, कलिकाल पाप और अवगुणों का घर है, किंतु कलियुग में एक गुण भी बड़ा है कि उसमें बिना ही परिश्रम भवबंधन से छुटकारा मिल जाता है॥29 (क)॥
कृतजुग त्रेताँ द्वापर
पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि
हरि नाम ते पावहिं लोग॥29 ख॥
सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान् के नाम से पा जाते हैं॥29(ख)॥
कृतजुग सब जोगी बिग्यानी।
करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं।
प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥30॥
सत्ययुग में सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके सब प्राणी भवसागर से तर जाते हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सब कर्मों को प्रभु को समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं॥30॥
द्वापर करि रघुपति पद पूजा।
नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।
गावत नर पावहिं भव थाहा॥31॥
द्वापर में श्री रघुनाथजी के चरणों की पूजा करके मनुष्य संसार से तर जाते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है और कलियुग में तो केवल श्री हरि की गुणगाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं॥31॥
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना।
एक अधार राम गुन गाना॥
सब भरोस तजि जो भज रामहि।
प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥32॥
कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्री रामजी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्री रामजी को भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है,॥32॥
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं।
नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं॥
कलि कर एक पुनीत प्रतापा।
मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥33॥
वही भवसागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है। कलियुग का एक पवित्र प्रताप (महिमा) है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं, पर (मानसिक) पाप नहीं होते॥34॥
कलिजुग सम जुग आन नहिं
जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल
भव तर बिनहिं प्रयास॥35 क॥
यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है, (क्योंकि) इस युग में श्री रामजी के निर्मल गुणसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार (रूपी समुद्र) से तर जाता है॥35 (क)॥
प्रगट चारि पद धर्म के
कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें
दान करइ कल्यान॥35 ख॥
धर्म के चार चरण (सत्य, दया, तप और दान) प्रसिद्ध हैं, जिनमें से कलि में एक (दान रूपी) चरण ही प्रधान है। जिस किसी प्रकार से भी दिए जाने पर दान कल्याण ही करता है॥35(ख)॥
नित जुग धर्म होहिं सब केरे।
हृदयँ राम माया के प्रेरे॥
सुद्ध सत्व समता बिग्याना।
कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना॥36॥
श्री रामजी की माया से प्रेरित होकर सबके हृदयों में सभी युगों के धर्म नित्य होते रहते हैं। शुद्ध सत्त्वगुण, समता, विज्ञान और मन का प्रसन्न होना, इसे सत्ययुग का प्रभाव जानें॥36॥
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा।
सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा॥
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस।
द्वापर धर्म हरष भय मानस॥37॥
सत्त्वगुण अधिक हो, कुछ रजोगुण हो, कर्मों में प्रीति हो, सब प्रकार से सुख हो, यह त्रेता का धर्म है। रजोगुण बहुत हो, सत्त्वगुण बहुत ही थोड़ा हो, कुछ तमोगुण हो, मन में हर्ष और भय हो, यह द्वापर का धर्म है॥37॥
तामस बहुत रजोगुन थोरा।
कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा॥
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं।
तजि अधर्म रति धर्म कराहीं॥38॥
तमोगुण बहुत हो, रजोगुण थोड़ा हो, चारों ओर वैर-विरोध हो, यह कलियुग का प्रभाव है। पंडित लोग युगों के धर्म को मन में ज्ञान (पहचान) कर, अधर्म छोड़कर धर्म में प्रीति करते हैं॥38॥
काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही।
रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥
नट कृत बिकट कपट खगराया।
नट सेवकहि न ब्यापइ माया॥39॥
जिसका श्री रघुनाथजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है, उसको कालधर्म (युगधर्म) नहीं व्यापते। हे पक्षीराज! नट (बाजीगर) का किया हुआ कपट चरित्र (इंद्रजाल) देखने वालों के लिए बड़ा विकट (दुर्गम) होता है, पर नट के सेवक (जंभूरे) को उसकी माया नहीं व्यापती॥39॥
हरि माया कृत दोष गुन
बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब
अस बिचारि मन माहिं॥40 क॥
श्री हरि की माया के द्वारा रचे हुए दोष और गुण श्री हरि के भजन बिना नहीं जाते। मन में ऐसा विचार कर, सब कामनाओं को छोड़कर (निष्काम भाव से) श्री रामजी का भजन करना चाहिए॥40(क)॥
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