हे भोले नाथ! कुछ परम पाप पीड़ित एवं कलिकाल के प्रचंड ताप से उत्तप्त अधम भाग्य वाले निरीह एवं लाचार, मानव शरीर प्राप्त कुमार्ग गामी अपने अनेक प्रच्छन्न कुतर्को एवं मतिमन्दता के सहारे पौराणिक मान्यताओं एवं परम्पराओं को पाखण्ड एवं झूठी दन्त कथा बता कर भोली भाली जनता के बीच परम विद्वान के रूप में अपने आप को प्रस्तुत कर उच्च स्तरीय समाज सुधारक बता रहे हैं. तथा अपना स्थान नर्क के लिए सुरक्षित कर रहे हैं, उन्हें आप क्षमा करेगें। यद्यपि आप ने कहा है कि -
"जौं खल दंड करों नहि तोरा। भ्रष्ट होय श्रुति मारग मोरा।"
अर्थात हे खल! यदि मैं तुम्हारी खलता को दण्डित नहीं करता हूँ। तो श्रुति-उपनिषद् निर्धारित मेरा मार्ग या उत्तरदायित्व पथ भ्रष्ट हो जाएगा।
क्योकि सृष्टि में मेरी भूमिका पापियों को दण्डित करने की है।
कल्पारम्भ में जब सृष्टि रचना के चक्र में समुद्र से कुछ निर्माण कार्य के लिए आवश्यक उपादानो की आवश्यकता पड़ी तो समुद्र मंथन का सहारा लिया गया। उस समय समुद्र से चौदह रत्न निकले-
"श्री मणि रम्भा वारूणी अमिय शँख गजराज। कल्प वृक्ष धनु धेनु शशी धन्वन्तरि विष वाजि।
इसमें "विष" जब निकला तो उसकी भयंकर ज्वाला से पूरा संसार जलने लगा। चारो तरफ त्राहि त्राहि मच गई। देव-दानव, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, पशु-पक्षी आदि समस्त जीवधारी व्याकुल होकर तड़पने लगे। समस्त देवता व्याकुल होकर भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे। भगवान विष्णु ने उस ज्वाला से मुक्ति असंभव बताई। तब ब्रह्मादि सब देवता विष्णु भगवान के साथ सदाशिव भोले नाथ की शरण में पहुंचे। भोले नाथ शिव जी ने बताया कि जो कोई भी इस ज्वाला को धारण करेगा उसका प्राणांत सर्वथा सिद्ध है। क्योकि तामसी शक्ति भगवती भुवनेश्वरी के इस कराल रूप की महिमा को झुठलाया नहीं जा सकता। अतः सबसे पहले आदि देवी तथा समस्त चराचर में सामान रूप से व्याप्त भुवनेश्वरी की प्रार्थना कर उन्ही से कोई मार्ग ढूँढने को कहते हैं। सब देवता मिलकर माता आद्या देवी परम भगवती का स्मरण कर उनके अमोघ स्थान मणिद्वीप पहुँचे। स्थान के प्रभाव से सब देवताओं में से निरर्थक निर्वीर्यता (शक्ति के बिना शरीर निर्वीर्य होता है।) पुरुषत्व निकल गया तथा सभी शक्ति सम्पना (स्त्री रूप में) हो गए। सबने मिलकर माँ भगवती की स्तुति की-
"यदि हरिस्तव देवि विभावजस्तदनु पद्मज एव तवोद्भवः। किमहमत्र तवापि न सद्गुण: सकललोकविधौ चतुरा शिवे।
त्वमसि भू: सलिलं पवनस्तथा स्वमपि वह्निगुणश्चतथा पुनः।जननि तानि पुनः करणानि च त्वमसि बुद्धिमनोप्यथ हंकृतिः।
न च विदन्ति वदन्ति च ये अन्यथा हरिहराज कृतं निखिलं जगत। तव कृतास्त्रय एव सदैव ते विरचयन्ति जगत्सचराचरम।
अवनिवायुस्ववह्निजलादिभिः सविषयै: सगुणेश्च जगद्भवेत।----------------------------------------------------.
यदि न ते विषमा मतिरम्बिके कथामिदम बहुधा विहितं जगत। सचिवभूपतिभृत्यजनावृतम बहुधनैरधनैश्च समाकुलम।
तवगुणास्त्रय एव सदा क्षमाः प्रकटनावनसंहरणेषु वै। हरिहरद्रुहिणाश्च क्रमात्त्वया विरचितास्त्रिजगताम किल कारणं।
------------------------------------------
जननि ते विधिना किल वंचिता: परिभवो विभवे परिकल्पितः। न तपसा न दमेन समाधिना न च तथा विहितै: क्रतुभिर्यथा।
-------------------------------
प्रथम जन्मनि चाधिगतो मया तदधुना नविभाति नवाक्षरः। कथय माम मनुमद्य भवार्णवाज्जननि तारय तारय तारके।"
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध)
इस स्तुति से प्रसन्न होकर जगज्जननी माता आद्या शक्ति भुवनेश्वरी ने कहा कि -
"हे देवताओं! यद्यपि मेरा प्रभाव अमोघ है। वह कभी वृथा नहीं होगा। यह हलाहल मेरा तामसी रूप है। अतः जब इसे भगवान शिव धारण करेगें तो शक्ति रहित शिव नष्ट हो जायेगें। किन्तु मैं शिवा के रूप में उनके अन्दर विराजमान रहूंगी। अतः शक्ति के रूप में शिव सजीव रहेगें। अर्थात केवल शिव के रूप में शिव निश्चेष्ट रहेगें। विष के प्रभाव के कारण इनका चेत नशे में रहेगा। फिर भी उनके अन्दर मेरी शक्ति सचेष्ट एवं जागृत रहेगी। और भगवान शिव के इस उत्तप्त ताप के प्रभाव को न्यून करने के लिए देवभिषकद्वय (अश्विनीकुमार एवं सागर से निकले भिषकाचार्य -धन्वन्तरि) वानस्पतिक औषधियों से उनकी सुश्रुषा करते रहेगें।
यह परा भगवती का आदेश सुनकर भगवान सदाशिव ने तत्काल अपने शँख में उस कराल कालकूट स्वरुप हलाहल जघन्य विष को भरकर माता आद्या शक्ति जगत्प्रतिपालिका महादेवी भुवनेश्वरी का ह्रदय में ध्यान कर मुख में उतार लिया। किन्तु तबतक उनके ह्रदय में भगवती भुवनेश्वरी का वास हो चुका था। अतः वह विष कंठ से निचे ह्रदय की ओर नहीं जा सका। और कंठ में ही रुक गया। उस कराल विष के कारण भगवान शिव का कंठ जल कर नीला हो गया। तब से भगवान शिव का एक नाम "नीलकंठ" भी हो गया।
सारा संसार प्रसन्नता से भर गया। लगभग सबका पुनर्जन्म हुआ। विष के उग्र प्रभाव से सबको मुक्ति मिली। इधर जब उस विकराल ज़हर के अत्यंत तीक्ष्ण प्रभाव से भगवान सदाशिव व्याकुल हो गये। तब अश्विनीकुमारो ने चन्द्रमा को आदेश दिया कि तत्काल धन्वनतरि से अमृत लेकर भगवान शिव के सिर पर छिड़काव करें। चन्द्रमा ने अश्विनीकुमारो के आदेश पर धन्वन्तरि से अमृत ग्रहण किया। तभी से चन्द्रमा का नाम "सुधांशु" पड़ गया।कालान्तर में भगवान शिव के और ज्यादा सुख, शान्ति एवं प्रसन्नता के लिये सगर के वंशज भागीरथ के माध्यम से भगवान भोलेनाथ के शीश पर परम पावनी अमृत सलिला भगवती गंगा को आसीन कराया।
उसके बाद अश्विनीकुमारो ने
"उड्भ्रिंगस्वानिकरोप्ताङ्ग खँग विडंग अङ्ग विभूषितः।प्रचष्टधात्वादि सारँग धरो ललाटे प्रलिप्त रोषधानी च।"
अर्थात भाँग, धतूरा, विल्वपत्र, तुलसीपत्र, चन्दन, अभिरंग, वडालिक, सरप्ता, अलाकापत्र एवं भष्म का लेप कर भगवान शिव को शांत किया। तब भगवान शिव के नेत्र शांत एवं प्रसन्न मुद्रा में खिल उठे। उनका विष का आतप कम हुआ। और फिर सामान्य अवस्था को प्राप्त हुए। और तभी से भगवान शिव ने यह वरदान दिया कि जो मुझे इस प्रकार इन वानस्पतिक औषधियों से पूजित कर प्रसन्न करेगा उसे इच्छित वर प्राप्त होगा। तभी से भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा में भाँग, धतूरा आदि चढ़ाया जाता है।
"जौं खल दंड करों नहि तोरा। भ्रष्ट होय श्रुति मारग मोरा।"
अर्थात हे खल! यदि मैं तुम्हारी खलता को दण्डित नहीं करता हूँ। तो श्रुति-उपनिषद् निर्धारित मेरा मार्ग या उत्तरदायित्व पथ भ्रष्ट हो जाएगा।
क्योकि सृष्टि में मेरी भूमिका पापियों को दण्डित करने की है।
कल्पारम्भ में जब सृष्टि रचना के चक्र में समुद्र से कुछ निर्माण कार्य के लिए आवश्यक उपादानो की आवश्यकता पड़ी तो समुद्र मंथन का सहारा लिया गया। उस समय समुद्र से चौदह रत्न निकले-
"श्री मणि रम्भा वारूणी अमिय शँख गजराज। कल्प वृक्ष धनु धेनु शशी धन्वन्तरि विष वाजि।
इसमें "विष" जब निकला तो उसकी भयंकर ज्वाला से पूरा संसार जलने लगा। चारो तरफ त्राहि त्राहि मच गई। देव-दानव, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, पशु-पक्षी आदि समस्त जीवधारी व्याकुल होकर तड़पने लगे। समस्त देवता व्याकुल होकर भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे। भगवान विष्णु ने उस ज्वाला से मुक्ति असंभव बताई। तब ब्रह्मादि सब देवता विष्णु भगवान के साथ सदाशिव भोले नाथ की शरण में पहुंचे। भोले नाथ शिव जी ने बताया कि जो कोई भी इस ज्वाला को धारण करेगा उसका प्राणांत सर्वथा सिद्ध है। क्योकि तामसी शक्ति भगवती भुवनेश्वरी के इस कराल रूप की महिमा को झुठलाया नहीं जा सकता। अतः सबसे पहले आदि देवी तथा समस्त चराचर में सामान रूप से व्याप्त भुवनेश्वरी की प्रार्थना कर उन्ही से कोई मार्ग ढूँढने को कहते हैं। सब देवता मिलकर माता आद्या देवी परम भगवती का स्मरण कर उनके अमोघ स्थान मणिद्वीप पहुँचे। स्थान के प्रभाव से सब देवताओं में से निरर्थक निर्वीर्यता (शक्ति के बिना शरीर निर्वीर्य होता है।) पुरुषत्व निकल गया तथा सभी शक्ति सम्पना (स्त्री रूप में) हो गए। सबने मिलकर माँ भगवती की स्तुति की-
"यदि हरिस्तव देवि विभावजस्तदनु पद्मज एव तवोद्भवः। किमहमत्र तवापि न सद्गुण: सकललोकविधौ चतुरा शिवे।
त्वमसि भू: सलिलं पवनस्तथा स्वमपि वह्निगुणश्चतथा पुनः।जननि तानि पुनः करणानि च त्वमसि बुद्धिमनोप्यथ हंकृतिः।
न च विदन्ति वदन्ति च ये अन्यथा हरिहराज कृतं निखिलं जगत। तव कृतास्त्रय एव सदैव ते विरचयन्ति जगत्सचराचरम।
अवनिवायुस्ववह्निजलादिभिः सविषयै: सगुणेश्च जगद्भवेत।----------------------------------------------------.
यदि न ते विषमा मतिरम्बिके कथामिदम बहुधा विहितं जगत। सचिवभूपतिभृत्यजनावृतम बहुधनैरधनैश्च समाकुलम।
तवगुणास्त्रय एव सदा क्षमाः प्रकटनावनसंहरणेषु वै। हरिहरद्रुहिणाश्च क्रमात्त्वया विरचितास्त्रिजगताम किल कारणं।
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जननि ते विधिना किल वंचिता: परिभवो विभवे परिकल्पितः। न तपसा न दमेन समाधिना न च तथा विहितै: क्रतुभिर्यथा।
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प्रथम जन्मनि चाधिगतो मया तदधुना नविभाति नवाक्षरः। कथय माम मनुमद्य भवार्णवाज्जननि तारय तारय तारके।"
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध)
इस स्तुति से प्रसन्न होकर जगज्जननी माता आद्या शक्ति भुवनेश्वरी ने कहा कि -
"हे देवताओं! यद्यपि मेरा प्रभाव अमोघ है। वह कभी वृथा नहीं होगा। यह हलाहल मेरा तामसी रूप है। अतः जब इसे भगवान शिव धारण करेगें तो शक्ति रहित शिव नष्ट हो जायेगें। किन्तु मैं शिवा के रूप में उनके अन्दर विराजमान रहूंगी। अतः शक्ति के रूप में शिव सजीव रहेगें। अर्थात केवल शिव के रूप में शिव निश्चेष्ट रहेगें। विष के प्रभाव के कारण इनका चेत नशे में रहेगा। फिर भी उनके अन्दर मेरी शक्ति सचेष्ट एवं जागृत रहेगी। और भगवान शिव के इस उत्तप्त ताप के प्रभाव को न्यून करने के लिए देवभिषकद्वय (अश्विनीकुमार एवं सागर से निकले भिषकाचार्य -धन्वन्तरि) वानस्पतिक औषधियों से उनकी सुश्रुषा करते रहेगें।
यह परा भगवती का आदेश सुनकर भगवान सदाशिव ने तत्काल अपने शँख में उस कराल कालकूट स्वरुप हलाहल जघन्य विष को भरकर माता आद्या शक्ति जगत्प्रतिपालिका महादेवी भुवनेश्वरी का ह्रदय में ध्यान कर मुख में उतार लिया। किन्तु तबतक उनके ह्रदय में भगवती भुवनेश्वरी का वास हो चुका था। अतः वह विष कंठ से निचे ह्रदय की ओर नहीं जा सका। और कंठ में ही रुक गया। उस कराल विष के कारण भगवान शिव का कंठ जल कर नीला हो गया। तब से भगवान शिव का एक नाम "नीलकंठ" भी हो गया।
सारा संसार प्रसन्नता से भर गया। लगभग सबका पुनर्जन्म हुआ। विष के उग्र प्रभाव से सबको मुक्ति मिली। इधर जब उस विकराल ज़हर के अत्यंत तीक्ष्ण प्रभाव से भगवान सदाशिव व्याकुल हो गये। तब अश्विनीकुमारो ने चन्द्रमा को आदेश दिया कि तत्काल धन्वनतरि से अमृत लेकर भगवान शिव के सिर पर छिड़काव करें। चन्द्रमा ने अश्विनीकुमारो के आदेश पर धन्वन्तरि से अमृत ग्रहण किया। तभी से चन्द्रमा का नाम "सुधांशु" पड़ गया।कालान्तर में भगवान शिव के और ज्यादा सुख, शान्ति एवं प्रसन्नता के लिये सगर के वंशज भागीरथ के माध्यम से भगवान भोलेनाथ के शीश पर परम पावनी अमृत सलिला भगवती गंगा को आसीन कराया।
उसके बाद अश्विनीकुमारो ने
"उड्भ्रिंगस्वानिकरोप्ताङ्ग खँग विडंग अङ्ग विभूषितः।प्रचष्टधात्वादि सारँग धरो ललाटे प्रलिप्त रोषधानी च।"
अर्थात भाँग, धतूरा, विल्वपत्र, तुलसीपत्र, चन्दन, अभिरंग, वडालिक, सरप्ता, अलाकापत्र एवं भष्म का लेप कर भगवान शिव को शांत किया। तब भगवान शिव के नेत्र शांत एवं प्रसन्न मुद्रा में खिल उठे। उनका विष का आतप कम हुआ। और फिर सामान्य अवस्था को प्राप्त हुए। और तभी से भगवान शिव ने यह वरदान दिया कि जो मुझे इस प्रकार इन वानस्पतिक औषधियों से पूजित कर प्रसन्न करेगा उसे इच्छित वर प्राप्त होगा। तभी से भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा में भाँग, धतूरा आदि चढ़ाया जाता है।
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