शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

सरयू नदी

🌺विविधापतित पावनी सरयू नदी की महिमा🌺

भारत की प्राचीन नदियों में उत्तर प्रदेश के अयोध्या के निकट बहने वाली नदी के रूप में सरयू को देखा जाता है। घाघरा तथा शारदा नाम भी इसे ही कहा जाता है। यूं तो उत्तर में हिमालय के कैलाश मानसरोवर से इसका उद्गम माना जाता है, जो किसी प्राकृतिक या भौगोलिक कारणों से बाद में वहां से लुप्त हो जाती हैं। अब यह उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले के खैरीगढ़ रियासत की राजधानी रही ‘‘सिंगाही’’ के जंगल की एक विशाल झील से निकलकर गंगा के मैदानी भागों में बहने वाली नदी बन गई हैं। यह बलिया और छपरा के बीच गंगा नदी में मिल जाती हैं। हिमालय से निकलने पर नेपाल में यह काली नदी के नाम से जानी जाती हैं। यह उत्तराखंड और नेपाल की प्राकृतिक सीमांकन भी करती हैं। मैंदान पर उतरने पर ‘करनाली’ या ‘घाघरा’ आकर इसमें मिलती है। फिर इसका नाम सरयू हो जाता है। ज्यादातर ब्रिटिश मानचित्रकार इसे पूरे मार्ग पर्यन्त घाघरा या गोगरा नाम से पुकारते हैं। परम्परा तथा स्थानीयजन इसे सरयू या सरजू के नाम से उद्बोधन करते हैं। इसके अन्य नाम देविका व रामप्रिया भी है। इसकी पूरी लम्बाई 160 किमी है। उत्तर प्रदेश में भी यह  फैजाबाद तथा बस्ती जिले का सीमंाकन करती हैं। सरयू नदी की सहायक नदी अरिकावती (राप्ती) है। जो उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के बरहज नामक स्थान पर इसमें मिल जाती है। बलरामपुर, श्रावस्ती, बांसी व गोरखपुर आदि इसके तट पर ही बसे हैं। सरयू व राप्ती की अन्य सहायक नदियां कुवानो, मनोरमा, रामरेखा, आमी, कठिनइया तथा जाहन्वी आदि है। बहराइच, सीतापुर, गोंडा, फैजाबाद, अयोध्या, टाण्डा, राजेसुल्तानपुर, दोहरीघाट तथा बलिया आदि शहर सरयू तट पर ही स्थित हैं।

पौराणिक संदर्भः-

पुराणों में कहा गया है कि सरयू भगवान विष्णु के नेत्रों से प्रकट हुई हैं। आनन्द रामायण के यांत्र कांड में उल्लेख आया है कि प्राचीन काल में शंकासुर दैत्य ने वेद को चुराकर समुद्र में छिप गया था। तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारणकर दैत्य का वध किया था और ब्रह्माजी को वेद सौंपकर अपना वास्तविक स्वरूप धारण किया था। उस समय हर्ष के कारण विष्णु जी के आंखों से प्रेमाश्रु टपक पड़े थे। ब्रहमाजी ने उन प्रेमाश्रु को मानसरोवर में डालकर सुरक्षित कर लिया था। इस जल को महापराक्रमी वैवस्वत महाराज ने वाण के प्रहार से मानसरोवर से बाहर निकाला था। यही जल धारा सरयू के नाम से जानी जाने लगी। बाद में भगीरथ महाराज अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए गंगा जी को धरा पर लाये और उन्होंने ही गंगा व सरयू का संगम कराया था। इस प्रकार सरयू, घाघरा व शारदा का संगम तो हुआ ही हैं श्रीराम के पूर्वज भगीरथ ने गंगा व सरयू का संगम भी कराया था।

ऋग्वेद में कहा गया है कि सरयू नदी को यदु और तुर्वससु ने पार किया था। मत्स्यपुराण के 121वें अध्याय, वामनपुराण के 13वें अध्याय, ब्रह्मपुराणके 19वें अध्याय , वायुपुराण के 45वें अध्याय, पद्म पुराण के उत्तर खंड, बाल्मीकि रामायण के 24वें सर्ग ,पाणिनी के अष्टाध्यायी तथा कालिदास के रघुवंश में भारत के अन्य नदियों के साथ सरयू का उल्लेख आया है। इसके तट पर अनेक यज्ञ सम्पन्न हुए थे। महाभारत के अनुशासन पर्व, भीष्म पर्व ,अध्यात्म रामायण, श्रीमद्भागवत तथा कालिदास के रघुवंश में हिमालय के कैलाश मानसरोवर या ब्रह्मसर से इसका उद्गम बताया गया है। रघुवंश के अनुसार-

‘‘पयोधरैःपुण्यजनांगनानां निर्विष्टहेमाम्बुजरेणु यस्याः ब्राह्मांसरः कारणमाप्तवाचो बुद्धेरिवाव्यक्तमुदाहरन्ति।’’

इस उद्धरण से यह जान पड़ता है कि कालिदास के समय में परम्परागत रूप में इस तथ्य की जानकारी थी, यद्यपि किसी को तथ्यतः जानकारी नहीं भी हो सकती है। इसी को आधार लेकर गोस्वामी तुलसी दास जी ने सरयू का ‘‘मानसनन्दनी’’ कहा है। बौद्धग्रंथ मिलिन्दपन्हों में में सरयू को सरभू       (सरभ)कहा गया है। महान पुरातत्ववेत्ता जनरल कनिंघम ने अपने मानचित्र पर मेगास्थनीज द्वारा वर्णित सोलोमत्तिस नदी के रूप में इसे चिन्हित किया है। टालेमी आदि इसे सरोबेस नदी के रूप में लिख रखे हैं। हिमालय के मानसरोवर से पहले सरयू कौड़़याली नाम धारण करती है, फिर सरयू और बाद में घाघरा के रूप में जानी जाती है। यह बलिया और छपरा के पास गंगा में मिलती हैं। कालिदास ने सरयू एवं जाह्नवी (गंगा) के संगम को तीर्थ बताया है। यहां दशरथ के पिता अज ने बृद्धावस्था में प्राण त्याग दिये थे –

‘‘तीर्थे तोयव्यतिकरभवे जह्नुकन्यारव्यो देंहत्यागादमराणनालेखयमासाद्यः।’’

रामचरितमानस में कहा गया है –

‘‘अवधपुरी मम पुरी सुहावनि, दक्षिण दिश बह सरयू पावनि ।

रामायण काल में सरयू कोसल जनपद की प्रमुख नदी थी। यहां घना जंगल था। जहां शिकार के लिए जाते समय श्रवणकुमार की हत्या हो गई थी। ज्येष्ठ पूर्णिमा को सरयू जयन्ती मनायी जाती है।



ऐतिहासिकता तथा अस्तित्व को खतराः-

भगवान राम ने इसी नदी में अपनी जल समाधि लिया था। अयोध्या के पास से बहने के कारण इस नदी का विशेष महत्व है। इस नदी का अस्तित्व अब खतरे में है। यह अपना महत्व खोती जा रही है। लगातार होती छेड़छाड़ ,़ अवैध उत्खनन, नदियों में अपविष्ट सामग्री का विसर्जन, शवों का जलाया जाना तथा पारम्परिक जलचरों व वनस्पतियों का समाप्त होना- इसके अस्तित्व के प्रतिकूल लक्षण प्रतीत होते हैं। इसमें औषधीय व शोधक गुणों का निरन्तर ह्रास होता जा रहा है। बरसात के दिनों में यह भयंकर विनाश लीला करती हैं तो ग्रीष्म के दिनों में यह विल्कुल सूख सी जाती है। इसका जल सिंचाई परियोजनाओं द्वारा नहरो के माध्यम से फीडर पम्पों और बांधों द्वारा निकाला जाता है। उत्तराखण्ड के टनकपुर के पास बांध बनाकर शारदा नहर निकाली गयी है। यह भारत की सबसे बड़ी सिंचाई नहर परियोजना है। इसी प्रकार दोहरी घाट, बिल्थरा रोड, तथा राजेसुल्तानपुर आदि स्थानों से अनेक सरयू नहर परियोजनाओं के माध्यम से इसका भारी मात्रा में से भी जल का दोहन हो जाता है और प्रवाह निरन्तर कम होकर जलचर असुरक्षित हो जाते हैं। मछलियां ,कौवे, बगुले, हंस, कछुए तथा शिंशुमार ( सूॅंस )आदि प्रजातियां अब पूर्णतः विलुप्त होते जा रहे हैं। हमें जन जागृति तथा श्रद्धा के साथ इस विनाशलीला को स्वयं, समाज, राष्ट्र तथा सरकार द्वारा रोके जाने के सम्बन्ध में निरन्तर प्रयास करवाते रहना चाहिए। इससे भारतीय संस्कृति व विरासतों की रक्षा होगी तथा यह सुरक्षित अगली पीढ़ियों को मिल सकेगी।

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