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॥ ॐ नमो नारायणाय अष्टाक्षरमाहात्म्यं ॥

शुक उवाच --
किं जपन् मुच्यते तात सततं विष्णुतत्परः ।
संसारदुःखात् सर्वेषां हिताय वद मे पितः ॥ १॥
व्यास उवाच --
अष्टाक्षरं प्रवक्ष्यामि मन्त्राणां मन्त्रमुत्तमम् ।
यं जपन् मुच्यते मर्त्यो जन्मसंसारबन्धनात् ॥ २॥
हृत्पुण्डरीकमध्यस्थं शङ्खचक्रगदाधरम् ।
एकाग्रमनसा ध्यात्वा विष्णुं कुर्याज्जपं द्विजः ॥ ३॥
एकान्ते निर्जनस्थाने विष्णवग्रे वा जलान्तिके ।
जपेदष्टाक्षरं मन्त्रं चित्ते विष्णुं निधाय वै ॥ ४॥
अष्टाक्षरस्य मन्त्रस्य ऋषिर्नारायणः स्वयम् ।
छन्दश्च दैवी गायत्री परमात्मा च देवता ॥ ५॥
शुक्लवर्णं च ॐकारं नकारं रक्तमुच्यते ।
मोकारं वर्णतः कृष्णं नाकारं रक्तमुच्यते ॥ ६॥
राकारं कुङ्कुमाभं तु यकारं पीतमुच्यते ।
णाकारमञ्जनाभं तु यकारं बहुवर्णकम् ॥ ७॥
ॐ नमो नारायणायेति मन्त्रः सर्वार्थसाधकः ।
भक्तानां जपतां तात स्वर्गमोक्षफलप्रदः ।
वेदानां प्रणवेनैष सिद्धो मन्त्रः सनातनः ॥ ८॥
सर्वपापहरः श्रीमान् सर्वमन्त्रेषु चोत्तमः ।
एनमष्टाक्षरं मन्त्रं जपन्नारायणं स्मरेत् ॥ ९॥
संध्यावसाने सततं सर्वपापैः प्रमुच्यते ।
एष एव परो मन्त्र एष एव परं तपः ॥ १०॥
एष एव परो मोक्ष एष स्वर्ग उदाहृतः ।
सर्ववेदरहस्येभ्यः सार एष समुद्धॄतः ॥ ११॥
विष्णुना वैष्णवानां हि हिताय मनुजां पुरा ।
एवं ज्ञात्वा ततो विप्रो ह्यष्टाक्षरमिमं स्मरेत् ॥ १२॥
स्नात्वा शुचिः शुचौ देशे जपेत् पापविशुद्धये ।
जपे दाने च होमे च गमने ध्यानपर्वसु ॥ १३॥
जपेन्नारायणं मन्त्रं कर्मपूर्वे परे तथा ।
जपेत्सहस्रं नियुतं शुचिर्भूत्वा समाहितः ॥ १४॥
मासि मासि तु द्वादश्यां विष्णुभक्तो द्विजोत्तमः ।
स्नात्वा शुचिर्जपेद्यस्तु नमो नारायणं शतम् ॥ १५॥
स गच्छेत् परमं देवं नारायणमनामयम् ।
गन्धपुष्पादिभिर्विष्णुमनेनाराध्य यो जपेत् ॥ १६॥
महापातकयुक्तोऽपि मुच्यते नात्र संशयः ।
हृदि कृत्वा हरिं देवं मन्त्रमेनं तु यो जपेत् ॥ १७॥
सर्वपापविशुद्धात्मा स गच्छेत् परमां गतिम् ।
प्रथमेन तु लक्षेण आत्मशुद्धिर्भविष्यति ॥ १८॥
द्वितीयेन तु लक्षेण मनुसिद्धिमवाप्नुयात् ।
तृतीयेन तु लक्षेण स्वर्गलोकमवाप्नुयात् ॥ १९॥
चतुर्थेन तु लक्षेण हरेः सामीप्यमाप्नुयात् ।
पञ्चमेन तु लक्षेण निर्मलं ज्ञानमाप्नुयात् ॥ २०॥
तथा षष्ठेन लक्षेण भवेद्विष्णौ स्थिरा मतिः ।
सप्तमेन तु लक्षेण स्वरूपं प्रतिपद्यते ॥ २१॥
अष्टमेन तु लक्षेण निर्वाणमधिगच्छति ।
स्वस्वधर्मसमायुक्तो जपं कुर्याद् द्विजोत्तमः ॥ २२॥
एतत् सिद्धिकरं मन्त्रमष्टाक्षरमतन्द्रितः ।
दुःस्वप्नासुरपैशाचा उरगा ब्रह्मराक्षसाः ॥ २३॥
जापिनं नोपसर्पन्ति चौरक्षुद्राधयस्तथा ।
एकाग्रमनसाव्यग्रो विष्णुभक्तो दृढव्रतः ॥ २४॥
जपेन्नारायणं मन्त्रमेतन्मृत्युभयापहम् ।
मन्त्राणां परमो मन्त्रो देवतानां च दैवतम् ॥ २५॥
गुह्यानां परमं गुह्यमोंकाराद्यक्षराष्टकम् ।
आयुष्यं धनपुत्रांश्च पशून् विद्यां महद्यशः ॥ २६॥
धर्मार्थकाममोक्षांश्च लभते च जपन्नरः ।
एतत् सत्यं च धर्म्यं च वेदश्रुतिनिदर्शनात् ॥ २७॥
एतत् सिद्धिकरं नृणां मन्त्ररूपं न संशयः ।
ऋषयः पितरो देवाः सिद्धास्त्वसुरराक्षसाः ॥ २८॥
एतदेव परं जप्त्वा परां सिद्धिमितो गताः ।
ज्ञात्वा यस्त्वात्मनः कालं शास्त्रान्तरविधानतः ।
अन्तकाले जपन्नेति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ २९॥
नारायणाय नम इत्ययमेव सत्यं
संसारघोरविषसंहरणाय मन्त्रः ।
श्रृण्वन्तु भव्यमतयो मुदितास्त्वरागा
उच्चैस्तरामुपदिशाम्यहमूर्ध्वबाहुः ॥ ३०॥
भूत्वोर्ध्वबाहुरद्याहं सत्यपूर्वं ब्रवीम्यहम् ।
हे पुत्र शिष्याः श्रृणुत न मन्त्रोऽष्टाक्षरात्परः ॥ ३१॥
सत्यं सत्यं पुनः सत्यमुत्क्षिप्य भुजमुच्यते ।
वेदाच्छास्त्रं परं नास्ति न देवः केशवात् परः ॥ ३२॥
आलोच्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ।
इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणः सदा ॥ ३३॥
इत्येतत् सकलं प्रोक्तं शिष्याणां तव पुण्यदम् ।
कथाश्च विविधाः प्रोक्ता मया भज जनार्दनम् ॥ ३४॥
अष्टाक्षरमिमं मन्त्रं सर्वदुःखविनाशनम् ।
जप पुत्र महाबुद्धे यदि सिद्धिमभीप्ससि ॥ ३५॥
इदं स्तवं व्यासमुखात्तु निस्सृतं
संध्यात्रये ये पुरुषाः पठन्ति ।
ते धौतपाण्डुरपटा इव राजहंसाः
संसारसागरमपेतभयास्तरन्ति ॥ ३६॥
इति श्रीनरसिंहपुराणे अष्टाक्षरमाहात्म्यं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥

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