*(((( श्री केशवाचार्य जी ))))*
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श्रीकृष्ण के पौत्र वज्रनाभ जी ने ब्रज में चार देवालय स्थापित किए थे। उनमें से एक है श्री हरिदेव जी। कालांतर मे मुग़ल आक्रमण के कारण यह विग्रह लुप्त हो गया था।
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श्री केशवाचार्य जी नाम के रसिक संत बिलछू कुंड पर भजन करते थे। "वृषभानु सुता श्री नंद सुवन" इस नाम का निरंतर जप करते थे।
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एक दिन भजन करते समय श्री ठाकुर जी ने उनके ध्यान मे प्रकट होकर कहा - मैने जिस स्वरूप से इंद्र के मान का मर्दन किया है और गिरराज पर्वत को अपनी कनिष्ठिका के अग्र भाग पर धारण किया, वह मेरा स्वरूप बिलछू कुंड के बगल वाले खेत के कुंए के पास विराजमान है। उसे आप प्रकट करो।
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श्री केशवाचार्य जी ने ठाकुर जी से पूछा की क्या आप अकेले है ? तो ठाकुर जी बोले - हां ! हम अकेले है।
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श्री केशवाचार्यजी बोले - तब तो आप वही पौढ़े रहो क्योंकि अकेले श्रीकृष्ण की सेवा हमे नही करनी। हमे तो श्री राधारानी के सहित ठाकुर जी चाहिए।
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ठाकुर जी बोले - अकेले क्यो नही चाहिए?
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श्री केशवाचार्यजी बोले - श्री राधारानी के बिना आपमे स्थिरता नही है। आप स्वभाव से चंचल है। हमने आपको प्राप्त किया और फिर आप छोड़ कर चले गए तो हमको रोना पड़ेगा।
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श्री राधारानी के नीलाम्बर से आपके पीताम्बर की गांठ बंधी रहेगी तो उस प्रेम की गांठ को तोड़कर आप कही जा नही पाएंगे।
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श्री ठाकुर जी बोले - जब हमने गिरिराज पर्वत धारण किया तब मैया बाबा बड़े व्याकुल हो गए।
उन्होंने सोचा की हमारा सात वर्ष के इतने छोटे लाला ने इतने बड़े गिरिराज पर्वत को धारण कर लिया है, कही इसके हाथ को कष्ट न हो जाये।
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उन्होंने अपने कुलपुरोहित महर्षि शांडिल्य के पास जाकर प्रार्थना की के ऐसा कुछ पूजा पाठ, उपाय करवा दो जिससे हमारे लाला मे शक्ति की कमी नही पड़े।
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महर्षि बोले की इनकी शक्ति तो श्री वृषभानुनंदिनी राधारानी है। इसका एक यही उपाय है की श्रीराधा जू को दिव्य सिंहासन पर अष्टसाखियो सहित लाल के सामने विराजमान हो जाए और लाला श्री राधा जू के दर्शन करता रहे तो इसमें शक्ति की कमी नही होगी।
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इनकी शक्ति सामने रहेगी तो कैसे शक्ति की कमी पड़ेगी।
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श्री नंदबाबा ने राधारानी का विधिवत पूजन करके सिंहासन पर विराजमान कराया। तो सात दिन और सात रात्रि तक राधारानी का दर्शन करते करते मैने अपने रोम रोम मे श्रीराधा तत्व को समाहित कर लिया है।
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यह मेरा हरिदेव स्वरूप श्री राधाभाव भावित स्वरूप है। एक प्राण दो देह का स्वरुप है।
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श्री केशवाचार्य जी बड़े प्रसन्न हुए। उस स्थान पर कुछ लोगो के साथ जाकर श्री केशवाचार्य जी ने खुदाई कराई।
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सूंदर श्रीविग्रह को देखकर सबने कहा की इसपर मेरा अधिकार है, किसी ने कहा की यह मेरी खेती की जमीन है इसको मैं रखूंगा, किसी ने कहा मै जमींदार हूँ मैं इसको रखूंगा।
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तब आकाशवाणी हुई की जो भी इस विग्रह को उठा पायेगा वही इसको रखे। सबने उठाने का प्रयास किया पर विग्रह जरा नही हिला।
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श्री केशवाचार्यजी ने जैसे ही उठाने का प्रयास किया वैसे ही श्रीठाकुर जी उनके हृदय से आ लगे। श्री हरदेवजी के विग्रह को श्री केशवाचार्य जी अपनी कुटिया में ले आये और उनकी सेवा पूजा करने लगे।
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श्री भक्तमाल मूल ग्रंथ मे श्री नाभादास जी वर्णन करते है -
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" नंदसुवन की छाप कबित केसव की नीको।"
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एक दिन संतो की मंडली श्री केशवाचार्य जी के स्थान पर आयी। श्री केशवाचार्य जी ने ठाकुर जी को भोग लगाया और संतो से प्रसाद पाने के लिए कहा।
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उस जमाने मे बड़ी मर्यादा का ध्यान रखा जाता था। संतो ने श्री केशवाचार्य जी से पूछा की क्या आपके पांचो संस्कार हो चुके है? (वैष्णवो मे पांच संस्कार होते है - ताप: पुण्ड्र: तथा नाम: मंत्रो माला च पंचम:।
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जिसमे एक संस्कार होता है कंधे-बाहू पर शंख चक्र की गर्म छाप अंकित करना)।
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श्री केशवाचार्य जी बोले - मेरे चार संस्कार तो हो गए परंतु ताप (छाप) संस्कार नही हुआ। संतो ने कहा तब तो हम यहां भोजन नही कर सकते।
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श्री केशवाचार्य जी को बड़ा दुख हुआ की संत प्रसाद पाए बिना वापस चले जायेंगे।
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श्री केशवाचार्य जी ने कहा - नाम में जिनकी निष्ठा है उन्हें अलग से छाप लेने की आवश्यकता नही है। उनके तो रोम रोम मे भगवन्नाम की छाप लग जाती है।
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यह बात सुनकर संत मंडली मे से एक संत ने कहा - बातो से कुछ नही होता है, प्रत्यक्ष अनुभव कराओ तो माने।
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श्री केशवाचार्य जी ने कहा - जो आज्ञा संत भगवान और अपने वस्त्र को उतार दिया। सभी ने दर्शन किया की उनके सारे शरीर पर 'वृषभानु सुता श्री नंद सुवन' यह नाम अंकित था।
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अब तो सारे संत मंडली ने श्री केशवाचार्य को दंडवत प्रणाम किया और बोले महाराज - वस्तुतः सच्ची छाप तो आपकी ही है।
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एक बार श्री हरिदेव जी ने खीरभोग आरोगने की इच्छा प्रकट करी।
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श्री केशवाचार्य जी ने कहा - प्रभु ! मेरे पास खीर की सामग्री का आभाव है और मेरा नियम है की मै किसी से याचना नही करता।
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श्री हरिदेव जी ने आमेर नरेश भगवान दास को स्वप्न मे सेवा करने का आदेश दिया। राजा ने श्री केशवाचार्यजी का दर्शन किया।
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मानसी गंगा के दक्षिण तट पर श्री हरिदेव जी के मंदिर का निर्माण कराया और सेवा के लिए धन व खेती दिया।
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एक दिन श्री ठाकुर जी ने श्रीकेशवाचार्य जी से कहा की मै तुम्हे एक आज्ञा प्रदान करता हूं, उसे तुम बिन उत्तर दिये स्वीकार कर लेना।
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जगन्नाथपुरी मे एक ब्राह्मण ने मेरी सेवा करके संतान की कामना की और प्रथम संतान मुझे ही अर्पण करने की प्रतिज्ञा की।
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उसके यहां प्रथम एक कन्या हुई। मैने उस ब्राह्मण को देकर कहा की गोवर्धन मे श्रीकेशवाचार्य जी के रूप में मैं ही विद्यमान हूं, अतः अपनी कन्या श्री केशवाचार्य जी को ही अर्पण करो।
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श्री केशवाचार्य जी का उस कन्या से विवाह हुआ और उनके दो पुत्र हुए - श्री परशुराम और श्री बालमुकुंद, जिनके साथ श्री हरिदेव जी खेलते थे और उनको भोग में कौन सी वस्तु आरोगने की इच्छा है यह भी बताते थे।
*जय जय श्री सीताराम*
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