शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

काल भैरव

🔴🍃#सर्व_रक्षक_भगवान🍃🔴
🌚🌗🍃#काल_भैरव🍃🌗🌚
🔵🌞🌿🌸🔺🌸🌿🌞🔵
#श्री_कालभैरवाष्टमी_पर_विशेष_यह_लेख
दसों दिशाओं से रक्षा करते हैं #श्री_कालभैरव।
मित्रो
श्री भैरव के अनेक रूप हैं जिसमें प्रमुख रूप से #बटुक_भैरव, #महाकाल_भैरव तथा #स्वर्णाकर्षण_भैरव प्रमुख हैं। जिस भैरव की पूजा करें उसी रूप के नाम का उच्चारण होना चाहिए। सभी भैरवों में बटुक भैरव उपासना का अधिक प्रचलन है। तांत्रिक ग्रंथों में अष्ट भैरव के नामों की प्रसिद्धि है। वे इस प्रकार हैं-
1. #असितांग_भैरव,
2. #चंड_भैरव,
3. #रूरू_भैरव,
4. #क्रोध_भैरव,
5. #उन्मत्त_भैरव,
6. #कपाल_भैरव,
7. #भीषण_भैरव
8. #संहार_भैरव।
क्षेत्रपाल व दण्डपाणि के नाम से भी इन्हें जाना जाता है।
#श्री_भैरव_से_काल_भी_भयभीत_रहता_है अत: उनका एक रूप'#काल_भैरव'के नाम से विख्यात हैं।
दुष्टों का दमन करने के कारण इन्हें"आमर्दक"कहा गया है।
#शिवजी_ने_भैरवजी_को_काशी_के_कोतवाल_पद_पर_प्रतिष्ठित_किया_है।
जिन व्यक्तियों की जन्म कुंडली में शनि, मंगल, राहु आदि पाप ग्रह अशुभ फलदायक हों, नीचगत अथवा शत्रु क्षेत्रीय हों। शनि की साढ़े-साती या ढैय्या से पीडित हों, तो वे व्यक्ति भैरव जयंती अथवा किसी माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी, रविवार, मंगलवार या बुधवार प्रारम्भ कर बटुक भैरव मूल मंत्र की एक माला (108 बार) का जाप प्रतिदिन रूद्राक्ष की माला से 41 दिन तक करें, अवश्य ही शुभ फलों की प्राप्ति होगी।
भगवान भैरव की महिमा अनेक शास्त्रों में मिलती है। भैरव जहाँ शिव के गण के रूप में जाने जाते हैं, वहीं वे दुर्गा के अनुचारी माने गए हैं। #भैरव_जी_की_सवारी_कुत्ता_है। चमेली फूल प्रिय होने के कारण उपासना में इसका विशेष महत्व है। साथ ही भैरव रात्रि के देवता माने जाते हैं और इनकी #आराधना_का_खास_समय_भी_मध्य_रात्रि_में_12_से_3_बजे_का_माना_जाता_है।
भैरव के नाम जप मात्र से मनुष्य को कई रोगों से मुक्ति मिलती है। वे #संतान_को_लंबी_उम्र_प्रदान_करते_है। अगर आप भूत-प्रेत बाधा, तांत्रिक क्रियाओं से परेशान है, तो आप शनिवार या मंगलवार कभी भी अपने घर में भैरव पाठ का वाचन कराने से समस्त कष्टों और परेशानियों से मुक्त हो सकते हैं।
जन्मकुंडली में अगर आप #मंगल_ग्रह_के_दोषों_से_परेशान_हैं_तो_भैरव_की_पूजा कराके पत्रिका के दोषों का निवारण आसानी से कर सकते है। राहु केतु के उपायों के लिए भी इनका पूजन करना अच्छा माना जाता है। #भैरव_की_पूजा_में_काली_उड़द_और_उड़द_से_बने_मिष्ठान्न इमरती, दही बड़े, दूध और मेवा का भोग लगाना लाभकारी है #इससे_भैरव_प्रसन्न_होते_है।
भैरव की पूजा-अर्चना करने से परिवार में सुख-शांति, समृद्धि के साथ-साथ स्वास्थ्य की रक्षा भी होती है। तंत्र के ये जाने-माने महान देवता #काशी_के_कोतवाल_माने_जाते_हैं। भैरव तंत्रोक्त, बटुक भैरव कवच, काल भैरव स्तोत्र, बटुक भैरव ब्रह्म कवच आदि का नियमित पाठ करने से अपनी अनेक समस्याओं का निदान कर सकते हैं। भैरव कवच से असामायिक मृत्यु से बचा जा सकता है।
खास तौर पर #कालभैरव_अष्टमी_पर_भैरव_के_दर्शन_करने_से_आपको_अशुभ_कर्मों_से_मुक्ति_मिल_सकती_है। भारत भर में कई परिवारों में #कुलदेवता_के_रूप_में भैरव की पूजा करने का विधान हैं। वैसे तो आम आदमी, शनि, कालिका माँ और काल भैरव का नाम सुनते ही घबराने लगते हैं, लेकिन सच्चे दिल से की गई इनकी आराधना आपके जीवन के रूप-रंग को बदल सकती है। ये सभी देवता आपको घबराने के लिए नहीं बल्कि आपको सुखी जीवन देने के लिए तत्पर रहते है बशर्ते आप सही रास्ते पर चलते रहे।
भैरव अपने भक्तों की सारी #मनोकामनाएँ_पूर्ण_करके उनके कर्म सिद्धि को अपने आशीर्वाद से नवाजते है। भैरव उपासना जल्दी फल देने के साथ-साथ क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त खत्म कर देती है। #शनि_या_राहु_से_पीडि़त_व्यक्ति_अगर_शनिवार_और_रविवार को काल भैरव के मंदिर में जाकर उनका दर्शन करें। तो उसके सारे कार्य सकुशल संपन्न हो जाते है।
एक बार #भगवान_शिव_के_क्रोधित_होने_पर_काल_भैरव_की_उत्पत्ति_हुई। काल भैरव ने ब्रह्माजी के उस मस्तक को अपने नाखून से काट दिया जिससे उन्होंने असमर्थता जताई। तब ब्रह्म हत्या को लेकर हुई आकाशवाणी के तहत ही भगवान काल भैरव काशी में स्थापित हो गए थे।
मध्यप्रदेश के उज्जैन में भी कालभैरव के ऐतिहासिक मंदिर है, जो बहुत महत्व का है। पुरानी धार्मिक मान्यता के अनुसार भगवान कालभैरव को यह वरदान है कि भगवान शिव की पूजा से पहले उनकी पूजा होगी। इसलिए उज्जैन दर्शन के समय कालभैरव के मंदिर जाना अनिवार्य है। तभी महाकाल की पूजा का लाभ आपको मिल पाता है।
!! #भैरव_साधना !!
मंत्र संग्रह पूर्व-पीठिका
मेरु-पृष्ठ पर सुखासीन, वरदा देवाधिदेव शंकर से !!
पूछा देवी पार्वती ने, अखिल विश्व-गुरु परमेश्वर से !
जन-जन के कल्याण हेतु, वह सर्व-सिद्धिदा मन्त्र बताएँ !!
जिससे सभी आपदाओं से साधक की रक्षा हो, वह सुख पाए !
शिव बोले, आपद्-उद्धारक मन्त्र, स्तोत्र मैं बतलाता,
देवि ! पाठ जप कर जिसका, है मानव सदा शान्ति-सुख पाता !!
*!! ध्यान !!*
*🌸🍃#सात्विकः-🍃🌸*
बाल-स्वरुप वटुक भैरव-स्फटिकोज्जवल-स्वरुप है जिनका,
घुँघराले केशों से सज्जित-गरिमा-युक्त रुप है जिनका,
दिव्य कलात्मक मणि-मय किंकिणि नूपुर से वे जो शोभित हैं !
भव्य-स्वरुप त्रिलोचन-धारी जिनसे पूर्ण-सृष्टि सुरभित है !
कर-कमलों में शूल-दण्ड-धारी का ध्यान-यजन करता हूँ !
रात्रि-दिवस उन ईश वटुक-भैरव का मैं वन्दन करता हूँ !!
*🔥💥#राजसिकः-💥🔥*
नवल उदीयमान-सविता-सम, भैरव का शरीर शोभित है,
रक्त-अंग-रागी, त्रैलोचन हैं जो, जिनका मुख हर्षित है !
नील-वर्ण-ग्रीवा में भूषण, रक्त-माल धारण करते हैं !
शूल, कपाल, अभय, वर-मुद्रा ले साधक का भय हरते हैं !
रक्त-वस्त्र बन्धूक-पुष्प-सा जिनका, जिनसे है जग सुरभित,
ध्यान करुँ उन भैरव का, जिनके केशों पर चन्द्र सुशोभित !!
*🌚🌗#तामसिकः-🌗🌚*
तन की कान्ति नील-पर्वत-सी, मुक्ता-माल, चन्द्र धारण कर,
पिंगल-वर्ण-नेत्रवाले वे ईश दिगम्बर, रुप भयंकर !
डमरु, खड्ग, अभय-मुद्रा, नर-मुण्ड, शुल वे धारण करते,
अंकुश, घण्टा, सर्प हस्त में लेकर साधक का भय हरते !
दिव्य-मणि-जटित किंकिणि, नूपुर आदि भूषणों से जो शोभित,
भीषण सन्त-पंक्ति-धारी भैरव हों मुझसे पूजित, अर्चित !!
*🔴🍂जय जय श्री कालभैरव🍂🔴*

गुरुवार, 29 नवंबर 2018

गरुड देव के बारे में रोचक रहस्य

गरुड़ देव के ये आठ रहस्य पढ़कर आप रह जायेंगे आश्चर्यचकित.....!!!!
 
गरूड़ भगवान के बारे में सभी जानते होंगे। यह भगवान विष्णु का वाहन हैं। भगवान गरूड़ को विनायक, गरुत्मत्, तार्क्ष्य, वैनतेय, नागान्तक, विष्णुरथ, खगेश्वर, सुपर्ण और पन्नगाशन नाम से भी जाना जाता है। गरूड़ हिन्दू धर्म के साथ ही बौद्ध धर्म में भी महत्वपूर्ण पक्षी माना गया है। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार गरूड़ को सुपर्ण (अच्छे पंख वाला) कहा गया है। जातक कथाओं में भी गरूड़ के बारे में कई कहानियां हैं।

माना जाता है कि गरूड़ की एक ऐसी प्रजाति थी, जो बुद्धिमान मानी जाती थी और उसका काम संदेश और व्यक्तियों को इधर से उधर ले जाना होता था। कहते हैं कि यह इतना विशालकाय पक्षी होता था जो कि अपनी चोंच से हाथी को उठाकर उड़ जाता था।

गरूढ़ जैसे ही दो पक्षी रामायण काल में भी थे जिन्हें जटायु और सम्पाती कहा जाता था। ये दोनों भी दंडकारण्य क्षेत्र में रहते विचरण करते रहते थे। इनके लिए दूरियों का कोई महत्व नहीं था। स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे इसीलिए यहां एक मंदिर है।

पक्षियों में गरुड़ को सबसे श्रेष्ठ माना गया है। यह समझदार और बुद्धिमान होने के साथ-साथ तेज गति से उड़ने की क्षमता रखता है। गिद्ध और गरुड़ में फर्क होता है। संपूर्ण भारत में गरुड़ का ज्यादा प्रचार और प्रसार किसलिए है यह जानना जरूरी है। गरुड़ के बारे में पुराणों में अनेक कथाएं मिलती है। रामायण में तो गरुड़ का सबसे महत्वपूर्ण पार्ट है।

आखिरकार भगवान विष्णु के वाहन गरूढ़ का क्या रहस्य है? क्यों हिन्दू में उनको विशेष महत्व दिया जाता है। क्या है उनके जन्म का रहस्य और कैसे वह एक पक्षी से भगवान बन गए।

पक्षी तीर्थ :  - चेन्नई से 60 किलोमीटर दूर एक तीर्थस्थल है जिसे 'पक्षी तीर्थ' कहा जाता है। यह तीर्थस्थल वेदगिरि पर्वत के ऊपर है। कई सदियों से दोपहर के वक्त गरूड़ का जोड़ा सुदूर आकाश से उतर आता है और फिर मंदिर के पुजारी द्वारा दिए गए खाद्यान्न को ग्रहण करके आकाश में लौट जाता है।

सैकड़ों लोग उनका दर्शन करने के लिए वहां पहले से ही उपस्थित रहते हैं। वहां के पुजारी के मुताबिक सतयुग में ब्रह्मा के 8 मानसपुत्र शिव के शाप से गरूड़ बन गए थे। उनमें से 2 सतयुग के अंत में, 2 त्रेता के अंत में, 2 द्वापर के अंत में शाप से मुक्त हो चुके हैं। कहा जाता है कि अब जो 2 बचे हैं, वे कलयुग के अंत में मुक्त होंगे।

गरुड़ हैं देव पक्षी :  - गरूड़ का जन्म सतयुग में हुआ था, लेकिन वे त्रेता और द्वापर में भी देखे गए थे। दक्ष प्रजापति की विनिता या विनता नामक कन्या का विवाह कश्यप ऋषि के साथ हुआ। विनिता ने प्रसव के दौरान दो अंडे दिए। एक से अरुण का और दूसरे से गरुढ़ का जन्म हुआ। अरुण तो सूर्य के रथ के सारथी बन गए तो गरुड़ ने भगवान विष्णु का वाहन होना स्वीकार किया।

सम्पाती और जटायु इन्हीं अरुण के पुत्र थे। बचपन में सम्पाती और जटायु ने सूर्य-मंडल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लंबी उड़ान भरी। सूर्य के असह्य तेज से व्याकुल होकर जटायु तो बीच से लौट आए, किंतु सम्पाती उड़ते ही गए। सूर्य के निकट पहुंचने पर सूर्य के ताप से सम्पाती के पंख जल गए और वे समुद्र तट पर गिरकर चेतनाशून्य हो गए। चन्द्रमा नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका उपचार किया और त्रेता में श्री सीताजी की खोज करने वाले वानरों के दर्शन से पुन: उनके पंख जमने का आशीर्वाद दिया।

सतयुग में देवताओं से युद्ध  :  - पुराणों में भगवान गरूड़ के पराक्रम के बारे में कई कथाओं का वर्णन मिलता है। कहते हैं कि उन्होंने देवताओं से युद्ध करके उनसे अमृत कलश छीन लिया था। दरअस्ल, ऋषि कश्यप की कई पत्नियां थीं जिनमें से दो वनिता और कद्रू थी। ये दोनों ही बहने थी, जो एक दूसरे से ईर्ष्या रखती थी।

दोनों के पुत्र नहीं थे तो पति कश्यप ने दोनों को पुत्र के लिए एक वरदान दे दिया। वनिता ने दो बलशाली पुत्र मांगे जबकि कद्रू ने हजार सर्प पुत्र रूप में मांगे जो कि अंडे के रूप में जन्म लेने वाले थे। सर्प होने के कारण कद्रू के हजार बेटे अंडे से उत्पन्न हुए और अपनी मां के कहे अनुसार काम करने लगे।

दोनों बहनों में शर्त लग गई थी कि जिसके पुत्र बलशाली होंगे हारने वाले को उसकी दासता स्वीकार करनी होगी। इधर सर्प ने जो जन्म ले लिया था लेकिन वनिता के अंडों से अभी कोई पुत्र नहीं निकला था। इसी जल्दबाजी में वनिता ने एक अंडे को पकने से पहले ही फोड़ दिया।

 अंडे से अर्धविकसित बच्चा निकला जिसका ऊपर का शरीर तो इंसानों जैसा था लेकिन नीचे का शरीर अर्धपक्व था। इसका नाम अरुण था।

अरुण ने अपनी मां से कहा कि 'पिता के कहने के बाद भी आपने धैर्य खो दिया और मेरे शरीर का विस्तार नहीं होने दिया। इसलिए मैं आपको श्राप देता हूं कि आपको अपना जीवन एक सेवक के तौर पर बिताना होगा। अगर दूसरे अंडे में से निकला उनका पुत्र उन्हें इस श्राप से मुक्त ना करवा सका तो वह आजीवन दासी बनकर रहेंगी।'

भय से विनता ने दूसरा अंडा नहीं फोड़ा और पुत्र के शाप देने के कारण शर्त हार गई और अपनी छोटी बहन की दासी बनकर रहने लगी। बहुत लंबे काल के बाद दूसरा अंडा फूटा और उसमें से विशालकाय गरुड़ निकाला जिसका मुख पक्षी की तरह और बाकी शरीर इंसानों की तरह था। हालांकि उनकी पसलियों से जुड़े उनके विशालकाय पंक्ष भी थे।

जब गरुड़ को यह पता चला कि उनकी माता तो उनकी ही बहन की दासी है और क्यों है यह भी पता चला, तो उन्होंने अपनी मौसी और सर्पों से इस दासत्व से मुक्ति के लिए उन्होंने शर्त पूछी।

सर्पो ने विनता की दासता की मुक्ति के लिए अमृत मंथन ने निकला अमृत मांग। अमृत लेने के लिए गरुड़ स्वर्ग लोक की तरफ तुरंत निकल पड़े। देवताओं ने अमृत की सुरक्षा के लिए तीन चरणों की सुरक्षा कर रखी थी, पहले चरण में आग की बड़े परदे बिछा ररखे थे।

 दूसरे में घातक हथियारों की आपस में घर्षण करती दीवार थी और अंत में दो विषैले सर्पो का पहरा। वहां तक भी पहुंचाने से पहले देवताओं से मुकाबला करना था। गरुड़ सब से भीड़ गए और देवताओं को बिखेर दिया।

तब गरुड़ ने कई नदियों का जल मुख में ले पहले चरण की आग को बुझा दिया, अगले पथ में गरुड़ ने अपना रूप इतना छोटा कर लिया के कोई भी हथियार उनका कुछ न बिगाड़ सका और सांपों को अपने दोनों पंजो में पकड़कर उन्होंने अपने मुंह से अमृत कलश उठा लिया और धरती की ओर चल पड़े।

लेकिन तभी रास्ते में भगवान विष्णु प्रकट हुए और गरुड़ के मुंह में अमृत कलश होने के बाद भी उसके प्रति मन में लालच न होने से खुश होकर गरुड़ को वरदान दिया की वो आजीवन अमर हो जाएंगे। तब गरुड़ ने भी भगवान को एक वरदान मांगने के लिए बोला तो भगवान ने उन्हें अपनी सवारी बनने का वरदान मांगा।

 इंद्र ने भी गरुड़ को वरदान दिया की वो सांपों को भोजन रूप में खा सकेगा इस पर गरुड़ ने भी अमृत सकुशल वापसी का वादा किया।

अंत में गरुड़ ने सर्पों को अमृत सौंप दिया और भूमि पर रख कर कहा कि यह रहा अमृत कलश। मैंने यहां इसे लाने का अपना वादा पूरी किया और अब यह आपके सुपूर्द हुआ, लेकिन इसे पीने के आप सभी स्नान करें तो अच्छा होगा।

जब वे सभी सर्प स्नान करने गए तभी वहां अचानक से भगवान इंद्र पहुंचे और अमृत कलश को वापस ले गए। लेकिन कुछ बूंदे भूमि पर गिर गई जो घांस पर ठहर गई थी। सर्प उन बूंदों पर झपट पड़े, लेकिन उनके हाथ कुछ न लगा। इस तरह गरुड़ की शर्त भी पूरी हो गई और सर्पों को अमृत भी नहीं मिला।

त्रेता युग में :  - जब रावण के पुत्र मेघनाथ ने श्रीराम से युद्ध करते हुए श्रीराम को नागपाश से बांध दिया था, तब देवर्षि नारद के कहने पर गरूड़ ने नागपाश के समस्त नागों को खाकर श्रीराम को नागपाश के बंधन से मुक्त कर दिया था। भगवान राम के इस तरह नागपाश में बंध जाने पर श्रीराम के भगवान होने पर गरूड़ को संदेह हो गया था।

गरूड़ का संदेह दूर करने के लिए देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्माजी के पास भेज देते हैं। ब्रह्माजी उनको शंकरजी के पास भेज देते हैं। भगवान शंकर ने भी गरूड़ को उनका संदेह मिटाने के लिए काकभुशुण्डिजी नाम के एक कौवे के पास भेज दिया। अंत में काकभुशुण्डिजी ने राम के चरित्र की पवित्र कथा सुनाकर गरूड़ के संदेह को दूर किया।

लोमश ऋषि के शाप के चलते काकभुशुण्डि कौवा बन गए थे। लोमश ऋषि ने शाप से मु‍क्त होने के लिए उन्हें राम मंत्र और इच्छामृत्यु का वरदान दिया। कौवे के रूप में ही उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत किया। वाल्मीकि से पहले ही काकभुशुण्डि ने रामायण गरूड़ को सुना दी थी। इससे पूर्व हनुमानजी ने संपूर्ण रामायण पाठ लिखकर समुद्र में फेंक दी थी। वाल्मीकि श्रीराम के समकालीन थे और उन्होंने रामायण तब लिखी, जब रावण-वध के बाद राम का राज्याभिषेक हो चुका था।

हनुमानजी ने तोड़ दिया था गरुड़ का अभिमान !!!!!!!

भगवान श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार माना जाता है। विष्णु ने ही राम के रूप में अवतार लिया और विष्णु ने ही श्रीकृष्ण के रूप में। श्रीकृष्ण की 8 पत्नियां थीं- रुक्मणि, जाम्बवंती, सत्यभामा, कालिंदी, मित्रबिंदा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा। इसमें से सत्यभामा को अपनी सुंदरता और महारानी होने का घमंड हो चला था तो दूसरी ओर सुदर्शन चक्र खुद को सबसे शक्तिशाली समझता था और विष्णु वाहन गरूड़ को भी अपने सबसे तेज उड़ान भरने का घमंड था।

एक दिन श्रीकृष्ण अपनी द्वारिका में रानी सत्यभामा के साथ सिंहासन पर विराजमान थे और उनके निकट ही गरूड़ और सुदर्शन चक्र भी उनकी सेवा में विराजमान थे। बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने व्यंग्यपूर्ण लहजे में पूछा- हे प्रभु, आपने त्रेतायुग में राम के रूप में अवतार लिया था, सीता आपकी पत्नी थीं। क्या वे मुझसे भी ज्यादा सुंदर थीं?

भगवान सत्यभामा की बातों का जवाब देते उससे पहले ही गरूड़ ने कहा- भगवान क्या दुनिया में मुझसे भी ज्यादा तेज गति से कोई उड़ सकता है। तभी सुदर्शन से भी रहा नहीं गया और वह भी बोल उठा कि भगवान, मैंने बड़े-बड़े युद्धों में आपको विजयश्री दिलवाई है। क्या संसार में मुझसे भी शक्तिशाली कोई है? द्वारकाधीश समझ गए कि तीनों में अभिमान आ गया है। भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे और सोचने लगे कि इनका अहंकार कैसे नष्ट किया जाए, तभी उनको एक युक्ति सूझी...

भगवान मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। वे जान रहे थे कि उनके इन तीनों भक्तों को अहंकार हो गया है और इनका अहंकार नष्ट होने का समय आ गया है। ऐसा सोचकर उन्होंने गरूड़ से कहा कि हे गरूड़! तुम हनुमान के पास जाओ और कहना कि भगवान राम, माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। गरूड़ भगवान की आज्ञा लेकर हनुमान को लाने चले गए।

इधर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि देवी, आप सीता के रूप में तैयार हो जाएं और स्वयं द्वारकाधीश ने राम का रूप धारण कर लिया।

तब श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र को आज्ञा देते हुए कहा कि तुम महल के प्रवेश द्वार पर पहरा दो और ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई भी प्रवेश न करने पाए। सुदर्शन चक्र ने कहा, जो आज्ञा भगवान और भगवान की आज्ञा पाकर चक्र महल के प्रवेश द्वार पर तैनात हो गया।

गरूड़ ने हनुमान के पास पहुंचकर कहा कि हे वानरश्रेष्ठ! भगवान राम, माता सीता के साथ द्वारका में आपसे मिलने के लिए पधारे हैं। आपको बुला लाने की आज्ञा है। आप मेरे साथ चलिए। मैं आपको अपनी पीठ पर बैठाकर शीघ्र ही वहां ले जाऊंगा।

हनुमान ने विनयपूर्वक गरूड़ से कहा, आप चलिए बंधु, मैं आता हूं। गरूड़ ने सोचा, पता नहीं यह बूढ़ा वानर कब पहुंचेगा। खैर मुझे क्या कभी भी पहुंचे, मेरा कार्य तो पूरा हो गया। मैं भगवान के पास चलता हूं। यह सोचकर गरूड़ शीघ्रता से द्वारका की ओर उड़ चले।

लेकिन यह क्या? महल में पहुंचकर गरूड़ देखते हैं कि हनुमान तो उनसे पहले ही महल में प्रभु के सामने बैठे हैं। गरूड़ का सिर लज्जा से झुक गया। तभी श्रीराम के रूप में श्रीकृष्ण ने हनुमान से कहा कि पवनपुत्र तुम बिना आज्ञा के महल में कैसे प्रवेश कर गए? क्या तुम्हें किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं?

हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए सिर झुकाकर अपने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकालकर प्रभु के सामने रख दिया। हनुमान ने कहा कि प्रभु आपसे मिलने से मुझे क्या कोई रोक सकता है? इस चक्र ने रोकने का तनिक प्रयास किया था इसलिए इसे मुंह में रख मैं आपसे मिलने आ गया। मुझे क्षमा करें। भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे।

अंत में हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए श्रीराम से प्रश्न किया, हे प्रभु! मैं आपको तो पहचानता हूं आप ही श्रीकृष्ण के रूप में मेरे राम हैं, लेकिन आज आपने माता सीता के स्थान पर किस दासी को इतना सम्मान दे दिया कि वह आपके साथ सिंहासन पर विराजमान है।

अब रानी सत्यभामा का अहंकार भंग होने की बारी थी। उन्हें सुंदरता का अहंकार था, जो पलभर में चूर हो गया था। रानी सत्यभामा, सुदर्शन चक्र व गरूड़ तीनों का गर्व चूर-चूर हो गया था। वे भगवान की लीला समझ रहे थे। तीनों की आंखों से आंसू बहने लगे और वे भगवान के चरणों में झुक गए। भगवान ने अपने भक्तों के अंहकार को अपने भक्त हनुमान द्वारा ही दूर किया। अद्भुत लीला है प्रभु की।

गरूड़ घंटी का महत्व है :  - मंदिर के द्वार पर और विशेष स्थानों पर घंटी या घंटे लगाने का प्रचलन प्राचीन काल से ही रहा है। यह घंटे या घंटियां 4 प्रकार की होती हैं:- 1.गरूड़ घंटी, 2.द्वार घंटी, 3.हाथ घंटी और 4.घंटा।

1. गरूड़ घंटी : - गरूड़ घंटी छोटी-सी होती है जिसे एक हाथ से बजाया जा सकता है।

2. द्वार घंटी :  - यह द्वार पर लटकी होती है। यह बड़ी और छोटी दोनों ही आकार की होती है।

3. हाथ घंटी :  - पीतल की ठोस एक गोल प्लेट की तरह होती है जिसको लकड़ी के एक गद्दे से ठोककर बजाते हैं।

4. घंटा :  - यह बहुत बड़ा होता है। कम से कम 5 फुट लंबा और चौड़ा। इसको बजाने के बाद आवाज कई किलोमीटर तक चली जाती है।

हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख घरों में आपको गरूढ़ घंटी मिल जाएगी। हिन्दू और जैन घरों में तो यह विशेष तौर पर गरूड़ के आकार की ही होती है। छोटी और बड़ी सभी आकार की यह घंटी मिल जाएगी।

गरूड़ ध्वज :  - महाभारत में गरूड़ ध्वज था। प्राचीन मंदिरों के द्वार पर एक ओर गरूड़, तो दूसरी ओर हनुमानजी की मूर्ति आवेष्‍ठित की जाती रही है। घर में रखे मंदिर में गरूड़ घंटी और मंदिर के शिखर पर गरूड़ ध्वज होता है। 

गरुड़ भारत का धार्मिक और अमेरिका का राष्ट्रीय पक्षी है। भारत के इतिहास में स्वर्ण युग के रूप में जाना जाने वाले गुप्त शासकों का प्रतीक चिन्ह गरुड़ ही था। कर्नाटक के होयसल शासकों का भी प्रतीक गरुड़ था। गरुड़ इंडोनेशिया, थाईलैंड और मंगोलिया आदि में भी सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में लोकप्रिय है। इंडोनेसिया का राष्ट्रिय प्रतीक गरुड़ है। वहां की राष्ट्रिय एयरलाइन्स का नाम भी गरुड़ है। इंडोनेशिया की सेनाएं संयुक्त राष्ट्र मिशन पर गरुड़ नाम से जाती है। इंडोनेशिया पहले एक हिन्दू राष्ट्र ही था। थाईलैंड का शाही परिवार भी प्रतीक के रूप में गरुड़ का प्रयोग करता है। थाईलैंड के कई बौद्ध मंदिर में गरुड़ की मूर्तियाँ और चित्र बने हैं। मंगोलिया की राजधानी उलनबटोर का प्रतीक गरुड़ है।

गरूड़ पुराण :  - गरूड़ नाम से एक व्रत भी है। गरूड़ नाम से एक पुराण भी है। गरुण पुराण में, मृत्यु के पहले और बाद की स्थिति के बारे में बताया गया है। हिन्दू धर्मानुसार जब किसी के घर में किसी की मौत हो जाती है तो गरूड़ पुराण का पाठ रखा जाता है। गरूड़ पुराण में उन्नीस हजार श्लोक कहे जाते हैं, किन्तु वर्तमान समय में कुल सात हजार श्लोक ही उपलब्ध हैं।

गरूड़ पुराण में ज्ञान, धर्म, नीति, रहस्य, व्यावहारिक जीवन, आत्म, स्वर्ग, नर्क और अन्य लोकों का वर्णन मिलता है। इसमें भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार, निष्काम कर्म की महिमा के साथ यज्ञ, दान, तप तीर्थ आदि शुभ कर्मों में सर्व साधारणको प्रवृत्त करने के लिए अनेक लौकिक और पारलौकिक फलों का वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें आयुर्वेद, नीतिसार आदि विषयों के वर्णनके साथ मृत जीव के अन्तिम समय में किए जाने वाले कृत्यों का विस्तार से निरूपण किया गया है। आत्मज्ञान का विवेचन भी इसका मुख्य विषय हैl

बुधवार, 28 नवंबर 2018

हनुमान जी के पुत्र की रोचक कथा

हनुमान पुत्र मकरध्वज की कथा।
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पवनपुत्र हनुमान बाल-ब्रह्मचारी थे। लेकिन मकरध्वज को उनका पुत्र कहा जाता है।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार, लंका जलाते समय आग की तपिश के कारण हनुमानजी को बहुत पसीना आ रहा था। इसलिए लंका दहन के बाद जब उन्होंने अपनी पूँछ में लगी आग को बुझाने के लिए समुद्र में छलाँग लगाई तो उनके शरीर से पसीने के एक बड़ी-सी बूँद समुद्र में गिर पड़ी। उस समय एक बड़ी मछली ने भोजन समझ वह बूँद निगल ली। उसके उदर में जाकर वह बूँद एक शरीर में बदल गई।

एक दिन पाताल के असुरराज अहिरावण के सेवकों ने उस मछली को पकड़ लिया। जब वे उसका पेट चीर रहे थे तो उसमें से वानर की आकृति का एक मनुष्य निकला। वे उसे अहिरावण के पास ले गए। अहिरावण ने उसे पाताल पुरी का रक्षक नियुक्त कर दिया। यही वानर हनुमान पुत्र ‘मकरध्वज’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

जब राम-रावण युद्ध हो रहा था, तब रावण की आज्ञानुसार अहिरावण राम-लक्ष्मण का अपहरण कर उन्हें पाताल पुरी ले गया। उनके अपहरण से वानर सेना भयभीत व शोकाकुल हो गयी। लेकिन विभीषण ने यह भेद हनुमान के समक्ष प्रकट कर दिया। तब राम-लक्ष्मण की सहायता के लिए हनुमानजी पाताल पुरी पहुँचे।

जब उन्होंने पाताल के द्वार पर एक वानर को देखा तो वे आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने मकरध्वज से उसका परिचय पूछा। मकरध्वज अपना परिचय देते हुआ बोला-

“मैं हनुमान पुत्र मकरध्वज हूं और पातालपुरी का द्वारपाल हूँ।”

मकरध्वज की बात सुनकर हनुमान क्रोधित होकर बोले-

 “यह तुम क्या कह रहे हो? दुष्ट! मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ। फिर भला तुम मेरे पुत्र कैसे हो सकते हो?”

हनुमान का परिचय पाते ही मकरध्वज उनके चरणों में गिर गया और उन्हें प्रणाम कर अपनी उत्पत्ति की कथा सुनाई। हनुमानजी ने भी मान लिया कि वह उनका ही पुत्र है।

लेकिन यह कहकर कि वे अभी अपने श्रीराम और लक्ष्मण को लेने आए हैं, जैसे ही द्वार की ओर बढ़े वैसे ही मकरध्वज उनका मार्ग रोकते हुए बोला-

“पिताश्री! यह सत्य है कि मैं आपका पुत्र हूँ लेकिन अभी मैं अपने स्वामी की सेवा में हूँ। इसलिए आप अन्दर नहीं जा सकते।”

हनुमान ने मकरध्वज को अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास किया, किंतु वह द्वार से नहीं हटा।
 तब दोनों में घोर य़ुद्ध शुरु हो गया। देखते-ही-देखते हनुमानजी उसे अपनी पूँछ में बाँधकर पाताल में प्रवेश कर गए। हनुमान सीधे देवी मंदिर में पहुँचे जहाँ अहिरावण राम-लक्ष्मण की बलि देने वाला था।
 हनुमानजी को देखकर चामुंडा देवी पाताल लोक से प्रस्थान कर गईं। तब हनुमानजी देवी-रूप धारण करके वहाँ स्थापित हो गए।

कुछ देर के बाद अहिरावण वहाँ आया और पूजा अर्चना करके जैसे ही उसने राम-लक्ष्मण की बलि देने के लिए तलवार उठाई, वैसे ही भयंकर गर्जन करते हुए हनुमानजी प्रकट हो गए और उसी तलवार से अहिरावण का वध कर दिया।

उन्होंने राम-लक्ष्मण को बंधन मुक्त किया। तब श्रीराम ने पूछा-

“हनुमान! तुम्हारी पूँछ में यह कौन बँधा है?
बिल्कुल तुम्हारे समान ही लग रहा है।
इसे खोल दो।”

हनुमान ने मकरध्वज का परिचय देकर उसे बंधन मुक्त कर दिया। मकरध्वज ने श्रीराम के समक्ष सिर झुका लिया। तब श्रीराम ने मकरध्वज का राज्याभिषेक कर उसे पाताल का राजा घोषित कर दिया और कहा कि भविष्य में वह अपने पिता के समान दूसरों की सेवा करे।

यह सुनकर मकरध्वज ने तीनों को प्रणाम किया। तीनों उसे आशीर्वाद देकर वहाँ से प्रस्थान कर गए। इस प्रकार मकरध्वज हनुमान पुत्र कहलाए।

जय बजरंगबली
🌹🙏🌹🙏🌹🙏🌹🙏🙏🙏🙏🙏🙏🌹🌹🌹
*🚩🌹🙏🤲जय मां आंदि शंक्ती जयमहाकांल 🤲🚩*

मंगलवार, 27 नवंबर 2018

IFSC क्या है?

पशुपति नाथ मंदिर

पशुपतिनाथ मंदिर,क्या है इस लिंग की विशेषता??????

महज भौतिक सुख-सुविधाओं की ओर ध्यान ना देकर आध्यात्मिकता और मानव चेतना को समर्पित करते हुए किसी देश को बनाने की कल्पना पूरे विश्व में अनूठी है। ऐसा करने वाले देश शायद तिब्बत और नेपाल ही हैं।

नेपाल देश भले ही छोटा हो, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से यह खासा महत्वपूर्ण है। हालांकि अस्थिरता के कारण यह देश अपने आध्यात्मिक खजाने को संभाल नहीं पाया और अब इस पर आधुनिकता की परत चढ़ रही है:

नेपाल अध्यात्म की भूमि है और एक समय में यह जगह पूरी तरह से जिंदगी के आध्यात्मिक पहलुओं से जुड़ी हुई थी। दुर्भाग्य से इस देश को राजनैतिक और आर्थिकस्तर पर बेहद उठा-पटक और पतन का दौर देखना पड़ा। इसी वजह से वे अपने यहां हुए इस उम्दा काम को जो कई सौ सालों में हुआ था, सही तरह से सहेज कर नहीं रख पाए। जो हम आज देख रहे हैं, वे दरअसल बचे हुए अवशेष हैं। लेकिन जो कुछ भी बचा है, वह भी असाधारण है।

पशुपतिनाथ,तांत्रिक विद्या का सबसे प्रमुख मंदिर!!!!!!!

नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर को कुछ मायनों में तमाम मंदिरों में सबसे प्रमुख माना जाता है। ‘पशुपति’का अर्थ है – पशु मतलब ‘जीवन’और ‘पति’मतलब स्वामी या मालिक, यानी ‘जीवन का मालिक’ या ‘जीवन का देवता’। पशुपतिनाथ दरअसल चार चेहरों वाला लिंग हैं। पूर्व दिशा की ओर वाले मुख को तत्पुरुष और पश्चिम की ओर वाले मुख को सद्ज्योत कहते हैं। उत्तर दिशा की ओर देख रहा मुख वामवेद है, तो दक्षिण दिशा वाले मुख को अघोरा कहते हैं।

नेपाल अध्यात्म की भूमि है और एक समय में यह जगह पूरी तरह से जिंदगी के आध्यात्मिक पहलुओं से जुड़ी हुई थी। ये चारों चेहरे तंत्र-विद्या के चार बुनियादी सिद्धांत हैं। कुछ लोग ये भी मानते हैं कि चारों वेदों के बुनियादी सिद्धांत भी यहीं से निकले हैं। माना जाता है कि यह लिंग, वेद लिखे जाने से पहले ही स्थापित हो गया था और इससे कई पौराणिक कहानियां भी जुड़ी हुई हैं।

इनमें से एक कहानी इस तरह है- कुरुक्षेत्र की लड़ाई के बाद अपने ही बंधुओं की हत्या करने की वजह से पांडव बेहद दुखी थे। उन्होंने अपने भाइयों और सगे संबंधियों को मारा था। इसे गोत्र वध कहते हैं। उनको अपनी करनी का पछतावा था और वे खुद को अपराधी महसूस कर रहे थे। खुद को इस दोष से मुक्त कराने के लिए वे शिव की खोज में निकल पड़े।

लेकिन शिव नहीं चाहते थे कि जो जघन्य कांड उन्होंने किया है, उससे उनको इतनी आसानी से मुक्ति दे दी जाए। इसलिए पांडवों को अपने पास देखकर उन्होंने एक बैल का रूप धारण कर लिया और वहां से भागने की कोशिश करने लगे। लेकिन पांडवों को उनके भेद का पता चल गया और वे उनका पीछा करके उनको पकड़ने की कोशिश में लग गए। इस भागा दौड़ी के दौरान शिव जमीन में लुप्त हो गए और जब वह पुन: अवतरित हुए, तो उनके शरीर के टुकड़े अलग-अलग जगहों पर बिखर गए।

नेपाल की पूरी भौगोलिक स्थिति को इस्तेमाल करते हुए एक तांत्रिक शरीर की रचना की, ताकि वहां रहने वाले सभी लोग और हरेक प्राणी एक बड़े मकसद के साथ जिए।नेपाल के पशुपतिनाथ में उनका मस्तक गिरा था और तभी इस मंदिर को तमाम मंदिरों में सबसे खास माना जाता है। केदारनाथ में बैल का कूबड़ गिरा था।

बैल के आगे की दो टांगें तुंगनाथ में गिरीं। यह जगह केदार के रास्ते में पड़ता है। बैल का नाभि वाला हिस्सा हिमालय के भारतीय इलाके में गिरा। इस जगह को मध्य-महेश्वर कहा जाता है। यह एक बहुत ही शक्तिशाली मणिपूरक लिंग है। बैल के सींग जहां गिरे, उस जगह को कल्पनाथ कहते हैं। इस तरह उनके शरीर के अलग-अलग टुकड़े अलग-अलग जगहों पर मिले ।

पशुपतिनाथ,दो शरीरों के सिर की तरह है !!!!!

 उनके शरीर के टुकड़ों के इस तरह बिखरने का वर्णन कहीं न कहीं सात चक्रों से जुड़ा हुआ है। इन मंदिरों को इंसानी शरीर की तरह बनाया गया था। यह एक महान प्रयोग था- इसमें तांत्रिक संभावनाओं से भरपूर इंसान का एक बड़ा शरीर बनाने की कोशिश की गई थी। पशुपतिनाथ दो शरीरों का सिर है। एक शरीर दक्षिणी दिशा में हिमालय के भारतीय हिस्से की ओर है, दूसरा हिस्सा पश्चिमी दिशा की ओर है, जहां पूरे नेपाल को ही एक शरीर का ढांचा देने की कोशिश की गई थी। नेपाल को पांच चक्रों में बनाया गया था।

तंत्र,क्या है इसका वास्विक अर्थ?

इस तरह से उन्होंने नेपाल की पूरी भौगोलिक स्थिति को इस्तेमाल करते हुए एक तांत्रिक शरीर की रचना की, ताकि वहां रहने वाले सभी लोग और हरेक प्राणी एक बड़े लक्ष्य के साथ जिए। जब मैं तंत्र की बात करता हूं, तो मेरा मतलब स्वछंद यौन संबंधों से नहीं है। मेरा मतलब रस्मों, पूजा-पाठ के तरीकों या दूसरी बातों से भी नहीं है।

 दरअसल, मेरा मतलब जिंदगी को बनाने और मिटाने के विज्ञान से है। आप में से कइयों ने कुछ तांत्रिक तस्वीरें देखी होगी, जहां तंत्र-मंत्र करने वाले अपना सिर काटकर, उसे हाथ में लेकर चलते हैं। ये तस्वीर आपको यही बताने की कोशिश करते हैं कि तंत्र-मंत्र का अभ्यास करने वाला दरअसल जीवन देना और इसे नष्ट करना सीखता है। वह जीवन के एक रूप को दूसरा रूप दे सकता है।

क्यों दी जाती है नेपाल में बलि?

यही वजह है कि इस भूमि पर इतना बलि दी गई है। अगर आप यहां साल में कुछ खास मौकों पर आएं, तो इसी बलि की वजह से ही आपको काठमांडु की सड़के लाल रंग में रंगी नजर आएंगी। इसे जानवरों के अधिकारों से जोड़कर देखें, तो हो सकता है कि आप इसे पसंद न करें। लेकिन मैं आपको बताना चाहता हूं कि उन्हे आपकी बलि देने से भी गुरेज नहीं होगा। दरअसल, उनका मकसद ही बिल्कुल अलग है। वे जिंदगी के बारे में आपकी तरह से नहीं सोचते हैं। आज भी इस सभ्यता की सोच पूरी तरह परम मुक्ति की है।

भक्तपुर : ईश्वरत्व का अहसास हर कदम पर
यहां एक जगह पर आपको जरूर जाना चाहिए और वह है भक्तपुर। यहां अवशेषों से आपको जानने को मिलेगा कि कभी पूर्वी संस्कृति कैसी होती थी। भक्तपुर एक ऐसा शहर है, जिसे इस तरह तैयार किया गया था कि यहां आने वाले को हर कदम पर ईश्वरीय शक्ति का आभास हो। भक्तपुर का मतलब भी यही है। तभी तो यहां हर पड़ाव वास्तव में एक मंदिर है। यहां पानी पीने की जगह भी एक मंदिर है, साफ-सफाई की जगह भी एक मंदिर है और यहां तक कि बात करने की जगह भी एक मंदिर ही है।

पशुपतिनाथ दो शरीरों का सिर है। एक शरीर दक्षिणी दिशा में हिमालय के भारतीय हिस्से की ओर है, दूसरा हिस्सा पश्चिमी दिशा की ओर है, जहां पूरे नेपाल को ही एक शरीर का ढांचा देने की कोशिश की गई थी।

यानी जब हम भक्तपुर में जाते हैं, तब हम वक्त के 1100 साल पुराने दौर में होते हैं। और सोचिए, तब वक्त कैसा होता होगा- जब महिलाएं सिर्फ लाल रंग के वस्त्रों में होतीं थीं और पुरुष सफेद रंग पहना करते थे। लोग ईंटों की जिन इमारतों में रहते थे, वो आज भी खड़ी हैं। यहां कई लोग आज भी उन्हीं घरों में रहते हैं, जहां 1100 साल पहले उनके पूर्वज रहते थे।

हालांकि भक्तपुर अब कई तरीकों से नष्ट होने की कगार पर है, लेकिन आज भी यहां आने पर आपको अहसास होगा कि हजारों साल पहले के लोगों में कैसा जबर्दस्त सौंदर्य-बोध था। किसी भी चीज को सिर्फ खूबसूरती देने में कितनी मेहनत की थी उन लोगों ने। लेकिन आज कंक्रीट की आधुनिक इमारतों, बेतरतीब से लगे साइन बोर्ड, प्लास्टिक की बोतलों और प्लास्टिक से बने दूसरे सामानो का ढेर देखकर और भक्तपुर की पतली गलियों से शोर मचाते व धुआं उगलते वाहनों को गुजरते देखकर तो लगता है कि हम पावन व पवित्र से भ्रष्ट व अपवित्र की ओर जा रहे हैं।

महज भौतिक सुख-सुविधाओं की ओर ध्यान ना देकर आध्यात्मिकता और मानव चेतना को समर्पित करते हुए किसी देश को बनाने की कल्पना पूरे विश्व में अनूठी है। ऐसा करने वाले देश शायद तिब्बत और नेपाल ही हैं।

हालांकि भक्तपुर अब कई तरीकों से नष्ट होने की कगार पर है, लेकिन आज भी यहां आने पर आपको अहसास होगा कि हजारों साल पहले के लोगों में कैसा जबर्दस्त सौंदर्य-बोध था। वैसे, दोनों ही देशों ने सारी तकनीक भारत से हासिल की और इसी मकसद पर अपने राष्ट्रकी स्थापना की है।

 दुर्भाग्यवश, 20वीं सदी तक आते-आते लोगों के जीवन में चीजों की अहमियत नाटकीय रूप से बदल गई। इसी वजह से बड़े पैमाने पर पुराना काम धराशायी हो गया और मिट गया। लेकिन इन जगहों पर काफी कुछ ऐसा है, जिसे मिटाया नहीं जा सकता। लोग मठ और मंदिर तो गिरा सकते हैं, लेकिन पुराने काम के कुछ आयाम ऐसे भी हैं, जिनको कभी मिटाया नहीं जा सकता।

बदरीनाथ मंदिर का इतिहास

बद्रीनाथ मंदिर का इतिहास !
(HISTORY OF BADRINATH TEMPLE)

बद्रीनाथ या बद्रीनारायण मंदिर एक हिन्दू मंदिर है |  यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है , ये मंदिर भारत में उत्तराखंड में बद्रीनाथ शहर में स्थित है | बद्रीनाथ मंदिर , चारधाम और छोटा चारधाम तीर्थ स्थलों में से एक है |

बद्रीनाथ मंदिर का इतिहास और मान्यताये !

यह अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नर और नारायण नामक दो पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित है । ये पंच-बदरी में से एक बद्री हैं। उत्तराखंड में पंच बदरी, पंच केदार तथा पंच प्रयाग पौराणिक दृष्टि से तथा हिन्दू धर्म की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं | यह मंदिर भगवान विष्णु के रूप बद्रीनाथ को समर्पित है | ऋषिकेश से यह 214 किलोमीटर की दुरी पर उत्तर दिशा में स्थित है | बद्रीनाथ मंदिर शहर में मुख्य आकर्षण है | प्राचीन शैली में बना भगवान विष्णु का यह मंदिर बेहद विशाल है | इसकी ऊँचाई करीब 15 मीटर है | पौराणिक कथा के अनुसार , भगवान शंकर ने बद्रीनारायण की छवि एक काले पत्थर पर शालिग्राम के पत्थर के ऊपर अलकनंदा नदी में खोजी थी | वह मूल रूप से तप्त कुंड हॉट स्प्रिंग्स के पास एक गुफा में बना हुआ था |

बद्रीनाथ मंदिर का निर्माण (Establishment of Badrinath temple)

सोलहवीं सदी में गढ़वाल के राजा ने मूर्ति को उठवाकर वर्तमान बद्रीनाथ मंदिर में ले जाकर उसकी स्थापना करवा दी |
और यह भी माना जाता है कि आदि गुरु शंकराचार्य ने 8 वी सदी में मंदिर का निर्माण करवाया था |
शंकराचार्य की व्यवस्था के अनुसार मंदिर का पुजारी दक्षिण भारत के केरल राज्य से होता है |
यहाँ भगवान विष्णु का विशाल मंदिर है और पूरा मंदिर प्रकर्ति की गोद में स्थित है |

यह मंदिर तीन भागों में विभाजित है, गर्भगृह, दर्शनमण्डप और सभामण्डप ।बद्रीनाथ जी के मंदिर के अन्दर 15 मुर्तिया स्थापित है | साथ ही साथ मंदिर के अन्दर भगवान विष्णु की एक मीटर ऊँची काले पत्थर की प्रतिमा है | इस मंदिर को “धरती का वैकुण्ठ” भी कहा जाता है | बद्रीनाथ मंदिर में वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है |

लोककथा के अनुसार बद्रीनाथ मंदिर की स्थापना :-

पौराणिक कथा के अनुसार यह स्थान भगवान शिव भूमि( केदार भूमि ) के रूप में व्यवस्थित था | भगवान विष्णु अपने ध्यानयोग के लिए एक स्थान खोज रहे थे और उन्हें अलकनंदा के पास शिवभूमि का स्थान बहुत भा गया | उन्होंने वर्तमान चरणपादुका स्थल पर (नीलकंठ पर्वत के पास) ऋषि गंगा और अलकनंदा नदी के संगम के पास बालक रूप धारण किया और रोने लगे |
उनके रोने की आवाज़ सुनकर माता पार्वती और शिवजी उस बालक के पास आये |और उस बालक से पूछा कि तुम्हे क्या चाहिए | तो बालक ने ध्यानयोग करने के लिए शिवभूमि (केदार भूमि) का स्थान मांग लिया | इस तरह से रूप बदल कर भगवान विष्णु ने शिव पार्वती से शिवभूमि (केदार भूमि) को अपने ध्यानयोग करने हेतु प्राप्त कर लिया |यही पवित्र स्थान आज बद्रीविशाल के नाम से भी जाना जाता है |

बद्रीनाथ के अन्य धार्मिक स्थल :-
1. अलकनंदा के तट पर स्थित अद्भुत गर्म झरना जिसे ‘तप्त कुंड’ कहा जाता है।

2. एक समतल चबूतरा जिसे ‘ब्रह्म कपाल’ कहा जाता है।

3. पौराणिक कथाओं में उल्लेखित एक ‘सांप’ शिला है |

4. शेषनाग की कथित छाप वाला एक शिलाखंड ‘शेषनेत्र’ है।

5. भगवान विष्णु के पैरों के निशान हैं- ‘चरणपादुका’ |

6. बद्रीनाथ से नजर आने वाला बर्फ़ से ढका ऊंचा शिखर नीलकंठ, जो ‘गढ़वाल क्वीन’ के नाम से जाना जाता है |

( बद्रीनाथ मंदिर का नाम बद्रीनाथ कैसे पडा )
इसके पीछे एक रोचक कथा है , यह कहते है कि एक बार देवी लक्ष्मी , भगवान विष्णु से रूठकर मायके चले गयी | तब भगवान विष्णु देवी लक्ष्मी को मनाने के लिए तपस्या करने लगे | जब देवी लक्ष्मी की नाराजगी दूर हुई | तो देवी लक्ष्मी भगवान विष्णु को ढूंढते हुए उस जगह पहुँच गई , जहाँ भगवान विष्णु तपस्या कर रहे थे | उस समय उस स्थान पर बदरी (बेड) का वन था | बेड के पेड़ में बैठकर भगवान विष्णु ने तपस्या की थी  इसलिए लक्ष्मी जी ने भगवान विष्णु को “बद्रीनाथ” नाम दिया |

बद्रीनाथ मंदिर की मान्यताये :-

1. बद्रीनाथ मंदिर की पौराणिक मान्यताओ  के अनुसार , जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हो रही थी , तो गंगा नदी 12 धाराओ में बट गयी |

इस लिए इस जगह पर मौजूद धारा अलकनंदा के नाम से प्रसिद्ध हुई |और इस जगह को भगवान विष्णु ने अपना निवास स्थान बनाया और यह स्थान बाद में “बद्रीनाथ” कहलाया |

2. बद्रीनाथ मंदिर की मान्यता यह भी है कि प्राचीन काल मे यह स्थान बेरो के पेड़ो से भरा हुआ करता था | इसलिए इस जगह का नाम बद्री वन पड़ गया | और यह भी कहा जाता है की इसी गुफा में ” वेदव्यास “ ने महाभारत लिखी थी और पांडवो के स्वर्ग जाने से पहले यह जगह उनका अंतिम पड़ाव था | जहाँ वे रुके थे |

3. बद्रीनाथ मंदिर के बारे में एक मुख्य कहावत है |

" जो जाऐ बद्री , वो ना आये ओदरी “ अर्थात जो व्यक्ति बद्रीनाथ के दर्शन कर लेता है |उसे माता के गर्भ में नहीं आना पड़ता है | मतलब दर्शन करने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है |

बद्रीनाथ मंदिर की मान्यता  यह है कि भगवान बद्रीनाथ के दर पर सभी श्रद्धालु की मनचाही इच्छा पूरी होती है |

4. बद्रीनाथ धाम की मान्यता यह है कि बद्रीनाथ में भगवान शिव जी को ब्रह्म हत्या से मुक्ति मिली थी |

इस घटना की याद “ब्रह्मकपाल” नाम  से जाना जाता है | ब्रह्मकपाल एक ऊँची शिला है | जहाँ पितरो का तर्पण,श्राद्ध किया जाता है | माना जाता है कि यहाँ श्राद्ध करने से पितरो को मुक्ति मिल जाती है |

5. इस जगह के बारे में यह भी कहते है कि इस जगह पर भगवान विष्णु के अंश नर और नारायण ने तपस्या की थी | नर अगले जन्म में अर्जुन और नारायण श्री कृष्ण के रूप में जन्मे थे |

HARI OM NAMO NARAYANA 🙏🙏

सोमवार, 26 नवंबर 2018

आठ_प्रकार_के_ब्राह्मण

🔯# 🔯🚩
श्रीराम! 
(स्कन्द पुराण के आधार पर.....)
      कलाप ग्राम निवासी  सुतनु जी नारद जी के बारह प्रश्नों में से "किन को आठ प्रकार के ब्राह्मणत्व का ज्ञान है" इस प्रश्न के परिप्रेक्ष में उत्तर देते हैं--
#अथ_ब्राह्मणभेदांस्तवष्टौ_विप्रावधारय।।
#मात्रश्च_ब्रारह्मणश्चैव_श्रोत्रियश्च_ततः_परम् ।
#अनूचनस्तथा_भ्रूणो_ऋषिकल्प_ऋषिमुनि:।।
#इत्येतेष्टौ_समुद्ष्टा_ब्राह्मणाः_प्रथमं_श्रुतौ।
#तेषां_परः_परः_श्रेष्ठो_विद्यावृत्तिविशेषतः।। (स्कन्द पु. महेश्वर खण्ड कुमा. ३/२८७-२२८९).
 विद्या  वंश व वृत्त की महिमा से ब्राह्मण आठ प्रकार के कहे गये हैं, और इन में से उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं।
१-मात्र, २-ब्राह्मण, ३-श्रोत्रिय, ४-अनूचान, ५- भ्रूण, ६- ऋषिकल्प, ७-ऋषि और ८-मुनि!
इन के लक्षण इस प्रकार हैं!
१-#मात्र :- जो ब्राह्मणों के कुल में उत्पन्न हुआ हो, किन्तु उनके गुणों से युक्त न हो, आचार और क्रिया से रहित हो, वह "मात्र" कहलाता है!
२-#ब्राह्मण :-जो वेदों में पारंगत हो, आचारवान हो, सरल-स्वभाव, शांतप्रकृति, एकांतसेवी, सत्यभाषी और दयालु हो वह " वह "ब्राह्मण" कहा जाता है!
३-#श्रोत्रिय : जो वेदों की एक शाखा छ: अंगों और श्रौत विधियों के सहित अध्ययन करके अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन, दान और प्रतिग्रह -इन छ: कर्मों में रत रहता हो, उस धर्मविद ब्रह्मण को "श्रोत्रिय" कहते हैं!
४-#अनूचान : जो ब्राह्मण वेदों और वेदांगों के तत्त्व को जाननेवाला, शुद्धात्मा, पाप रहित, शोत्रिय के गुणों से संपन्न, श्रेष्ठ और प्राज्ञ हो, उसे "अनूचान" कहा गया है!
५ #भ्रूण : जो अनूचान के गुणों से युक्त हो, नियमित रूप से यज्ञ और स्वाध्याय करने वाला, यज्ञ शेष का ही भोग करने वाला और जितेन्द्रिय हो उसे शिष्टजनों ने "भ्रूण" की संज्ञा दी है!
६- #ऋषिकल्प :- जो समस्त वैदिक और लौकिक ज्ञान प्राप्त करके आश्रम व्यवस्था का पालन करे, नित्य आत्मवशी रहे, उसे ज्ञानीजन "ऋषिकल्प" नामसे स्मरण किया है!
७-#ऋषि :-जो ब्राह्मण ऊर्ध्वरेता, अग्रासन का अधिकारी, नियत आहार करनेवाला, संशय रहित, शहप देने और अनुग्रह करने में समर्थ और सत्य-प्रतिज्ञा हो, उसे "ऋषि" की पदवी दी गयी है!
८-#मुनि :-जो कर्मों से निवृत्त, सम्पूर्ण तत्त्व का ज्ञाता, काम-क्रोध से रहित, ध्यानस्थ, निष्क्रिय और शान्त हो, मिट्टी और सोने में समभाव रखता हो, उसे "मुनि" के नाम से सम्मानित किया है! इस प्रकार ब्राह्मणों के आठ प्रकार ( भेद)  कहे गये हैं।
   इस प्रकार से वंश विद्या और वृत्त ( सदाचार) के द्वारा उत्कर्ष को प्राप्त #त्रिशुक्ल कहलाते हैं। ये ही यज्ञ आदि में पूजित  भी होते हैं।

शनिवार, 24 नवंबर 2018

शनिदेव महाराज

@ शनिदेव व देवराज इन्द्र का अहंकार @
देवताओं के राजा इंद्र के स्वभाव के विषय में भला कौन नहीं जानता। अंहकारी, दंभी और लोभी तो वह हैं ही, दूसरों की उन्नति देखकर जलना उनके स्वभाव की ख़ास विशेषता थी। दूसरे देवताओं को वह अपने से तुच्छ समझते थे। अपनी राजगद्दी के विषय में वह इतने आशंकित रहते थे कि जहाँ कहीं कोई ऋषि−मुनि तपस्या−साधना में बैठा नहीं कि उनकी रातों की नींद उड़ जाती थी कि कहीं कोई साधक भगवान विष्णु को खुश करके उनसे उनका इंद्रासन ही न मांग ले। रसिक इतने थे कि अधिकांश समय रंभा, मेनका और उर्वशी जैसी अप्सराओं के नृत्यों की महफिल सजाए रखते थे। भगवान भोले शंकर और ब्रह्मा जी उन्हें अक्सर समझाते रहते थे कि वे अपने स्वभाव को बदलें, लेकिन इंद्र पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता था।
एक बार नारद मुनि इंद्रपुरी गए। बातचीत होने लगी। नारद जी दूसरे देवताओं के महत्त्व और प्रभाव की चर्चा कर रहे थे। नारद जी बता रहे थे कि दूसरे देवता कितने श्रेष्ठ हैं। उनका अपने−अपने स्थान पर क्या−क्या महत्त्व है, किंतु इंद्र को ये सब बातें बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगी। दूसरों की महिमा और महत्त्व का बखान सुनकर वह चिढ़ गए और बोले, 'नारद! आख़िर मैं देवराज बनाया गया हूँ तो इसलिए न कि मैं ही सब देवताओं से श्रेष्ठ हूँ। फिर आप क्यों बार−बार दूसरों की प्रशंसा कर रहे हैं? मेरे सामने उनका बखान करना, एक तरह से मेरा अपमान करना ही है। क्या आप मेरा अपमान करना चाहते हैं?' नारद जी भी नारद जी ही थे। बिना किसी लाग−लपेट के साफ−साफ कहने वाले। उन्हें भला किसकी परवाह थी। वह तो ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे। अतः देवराज इंद्र की बातें सुनकर व्यंग्य से मुस्कराए और बोले, 'देवराज‍! आप मेरी बातों को अपना अपमान समझते हैं, यह बहुत बड़ी भूल है। वैसे भी, यदि आप सम्मान चाहते हैं, तो दूसरों का सम्मान करना सीखिए। प्रशंसा उसी को मिलती है जो दूसरों की प्रशंसा करता है। दूसरे देवताओं की निंदा करके और उनको तुच्छ समझकर आप सम्मान नहीं पा सकते। सामने वाले को आईने के समान समझना चाहिए। जैसे शीशे में टेढ़ा मुँह करके देखने पर मुँह टेढ़ा ही दिखाई देता है, उसी प्रकार सामने वाले प्राणी का अपमान करने पर अपमान ही मिलता है और सम्मान करने पर सम्मान। उसी प्रकार यदि सम्मान पाना हो तो सम्मान करना सीखो।' इंद्र को यह बात बुरी लगी। उन्होंने कहा, 'जब मैं राजा बनाया गया हूँ तो दूसरे देवताओं को मेरे सामने झुकना ही पड़ेगा। आख़िर राजा सर्वोपरि होता है।'
नारद जी ने कहा, 'यह आपकी भूल है। आप दूसरे देवताओं को अपनी प्रजा समझते हैं, जबकि वे आपकी प्रजा नहीं, आपके मित्र और साथी हैं। उनके साथ वैसा ही व्यवहार कीजिए जैसा साथी, मित्रों और सहयोगियों से किया जाता है। बड़प्पन का मद अंत में दुःखदायी होता है। यह कहावत तो आपने सुनी ही होगी कि घमंडी का सिर नीचा ही होता है।' 'इसमे घमंड वाली क्या बात है। मेरा प्रभाव दूसरों से अधिक है। मैं वर्षा का स्वामी हूँ। बिना मेरी आज्ञा के एक बूंद पानी नहीं बरस सकता।' अभिमानपूर्ण लहजे में इंद्र ने कहा, 'और जब पानी नहीं होगा तो धरती पर अकाल पड़ जाएगा। अन्न उत्पन्न नहीं होगा और सारी दुनिया भूख और प्यास से तड़प−तड़पकर मर जाएगी। देवता भी इसके प्रभाव से अछूते कहाँ रहेंगे।' 'आप ठीक कहते हैं।' नारद जी बोले, 'किंतु दूसरे देवताओं का महत्त्व भी कुछ कम नहीं। जिस प्रकार जीवन के लिए जल आवश्यक है, उसी प्रकार अन्य वस्तुओं का महत्त्व भी कुछ कम नहीं−वायु, अग्नि, प्रकाश, इनकी भी उतनी ही महत्ता है। कहने का तात्पर्य यह है कि वरुण देव, अग्नि देव, सूर्यदेव सभी देवता अपनी−अपनी शक्तियों के स्वामी हैं। सभी देवता कुछ−न−कुछ कर सकने में समर्थ हैं। आप उनसे मित्रता रखिए, तभी कल्याण है। नहीं तो किसी समय आपदा में पड़ जाएंगे। बिना सहयोगियों के राजकार्य नहीं चला करता।'
इंद्र ठठाकर हँस पड़े, 'अजी, जाइये भी! आप ठहरे महात्मा! शंख बजाने और मंजीरे पीटने के सिवा आप और क्या जानें? आप ब्राह्मण हैं, इसलिए इतना डरते हैं। मैं देवता हूँ−क्षत्रिय! मुझे किसका डर?' 'किसी दूसरे का डर चाहे न हो, मगर शनि का भय आपको पहले सताएगा। यदि कुशलता चाहते हो तो शनि देव से बचकर रहें। वह यदि एक बार कुपित हो जाएं तो सब कुछ तहस−नहस कर डालते हैं और जिसे अपनी कृपा का पात्र बना लें, उसके पौ बारह हो जाते हैं।' कहकर नारद जी चल पड़े। इंद्र का अभिमान उन्हें खटक गया था। नारद जी का काम था संसार भर के समाचार इधर से उधर पहुँचाना। यदि उन्हें उस जमाने का चलता−फिरता रेडियो कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी। असल में वे देशाटन के प्रेमी और बातूनी थे। इसलिए घूम−फिरकर अपना मन बहलाते थे। वैसे वे बड़े विद्वान और त्यागी महात्मा थे। तीसरे ही दिन नारद जी शनि लोक में जा पहुँचे। शनि देवता ने उनका स्वागत करते हुए कुशल समाचार पूछा। 'यूं तो सब कुशल मंगल है शनिदेव।' नारद जी ने कहा, 'मगर अपने इंद्रदेव कुछ ज़्यादा ही अहंकारी और घमंडी हो गए हैं। अपने सामने किसी को कुछ समझते ही नहीं।' कहते हुए उन्हें इंद्र से हुआ अपना पूरा वार्तालाप सुना दिया। इंद्र के अहंकार का पता पाकर शनिदेव ने कहा, 'आप चिंता न करें। अगले रविवार को बैकुंठ में सभा होगी। वहीं मैं इंद्र से मिलकर उन्हें समझा दूंगा। सारा अहंकार उसी दिन दूर हो जाएगा। अपने सामने दूसरों को तुच्छ समझना तो सचमुच बहुत बुरी बात है।' शनिदेव को भी इंद्र का अहंकार खटक गया। थोड़ी देर तक इधर−उधर की बातें होती रहीं, फिर नारद जी चले आए।
अगले रविवार को बैकुंठपुरी में देवताओं की सभा हुई। विष्णु उसके सभापति थे। सब देवता आए। उन्होंने अलग−अलग मसलों पर अपने−अपने विचार रखे। शाम होने पर सभा समाप्त हो गई। इसी अवसर पर अचानक शनिदेव और इंद्र देव का आमना−सामना हो गया। शनिदेव तो बड़ी नम्रता और सामान्य रूप से इंद्र से मिले, मगर इंद्र तो अपने ही अहंकार में चूर रहते थे। शनिदेव को देखते ही उन्हें नारद जी की याद आ गई कि शनिदेव से बचकर रहना। बस, उस बात के याद आते ही इंद्र का अहंकार जाग उठा और बिना किसी भूमिका के उन्होंने शनिदेव से कहा, 'शनि जी! सुना है आप किसी का कुछ भी कर सकते हैं। लेकिन मैं आपसे नहीं डरता। मैं देवराज हूँ। हर बात में आपसे बड़ा हूँ। मेरा आप कुछ नहीं कर सकते।' शनि को बातचीत का ढंग खटका। फिर भी उन्होंने अपने आप को संभालकर कहा, 'मैंने तो आपसे ऐसा कुछ भी नहीं कहा इंद्रराज जो आप इस प्रकार का रूखा व्यवहार मेरे साथ कर रहे हैं। फिर भी समय पर देखा जाएगा कि कौन कितने पानी में है। अभी से मैं क्या कहूँ।' 'समय पर क्या, अभी दिखाइए न! वह समय आप आज ही बुला लीजिए। मैं आपका सामर्थ्य देखना चाहता हूँ।' इंद्रदेव अड़ गए मानो व्यर्थ का झगड़ा मोल लेने की ठाने बैठे हों। किसी ने सच ही कहा है−'विनाशकाले विपरीत बुद्धि' अर्थात्, जब किसी पर बुरा वक़्त आना होता है तो उसकी बुद्धि ख़राब हो जाती है। वह उलटे−सीधे काम करके स्वयं को मुसीबतों और कठिनाइयों में धकेलने की चेष्ठा करता है।
'आप बड़े अहंकारी हैं, देवराज!'
'और आप दूसरों को धमकाया करते हैं। लेकिन मैं फिर कहता हूँ−इंद्र आपसे नहीं डरेगा।'
शनि देवता को क्रोध आ गया। उन्होंने गंभीर स्वर में कहा, 'देवराज! मैं आपसे विरोध नहीं बढ़ाना चाहता। फिर भी यदि आप अहंकार में चूर होकर दूसरों को अपमानित करना चाहते हैं, तो सुन लीजिए−कल आपको मेरा भय सताएगा। यहाँ तक कि आप खाना−पीना तक भूल जाएंगे। हो सके तो कल मेरी पकड़ से बचने का उपाय कीजिएगा।' कहकर शनिदेव तेजी से एक ओर चले गए। इंद्र ने फिर उसी तरह अपमान भरी हँसी हँसकर कहा, 'मैं भी देखता हूँ कि आप भी कितने पानी में हैं।' इसी प्रकार बड़बड़ाते हुए वह इंद्रलोक की तरफ प्रस्थान कर गए। उस रात इंद्र को बड़ा भयानक स्वप्न दिखाई दिया, जैसे कोई काला−कलूटा विकराल दैत्य मुँह फैलाए उन्हें निगल जाना चाहता हो। सवेरे नींद से उठकर उन्होंने सोचा, 'उस भयानक स्वप्न का क्या अर्थ हो सकता है? क्या पता, कि यह शनि की ही कोई करतूत हो। अवश्य ही वह आज मुझे कोई चोट पहुँचाने की चेष्ठा कर सकता है। इसलिए मुझे किसी ऐसी जगह छिप जाना चाहिए जहाँ वह मुझे ढूँढ़ ही न सके।' ऐसा विचार कर उन्होंने झटपट कपड़े बदलकर भिखारी का वेश बनाया और जंगल की ओर निकल गए। किसी को इस बात की भनक भी न पड़ने दी कि वह किस उद्देश्य से कहाँ और क्यों जा रहे हैं। यहाँ तक कि अपनी पत्नी इंद्राणी को भी उन्होंने इस संदर्भ में कुछ नहीं बताया। किसी को इस विषय में कुछ भी न बताने का कारण भी था। इंद्र को यह बात मालूम थी कि मेरे स्वभाव और व्यवहार से कई देवता रूठे रहते हैं। इसलिए उन्हें शंका हुई कि कहीं ऐसा न हो कि वे सब शनि की सहायता करने लगें। उस दशा में मैं अकेला हो जाऊँगा। बस, इस विचार के उठते ही उनका साहस छूट गया और वे भयभीत होकर जंगल के घने भाग में जा घुसे। अब तक एक पहर दिन चढ़ आया था। इंद्र ने सोचा−आख़िर जब शनि ने मुझे चुनौती दी है, तो मेरी खोज भी करेंगे। बिना मुझे खोजे तो वह मेरा कुछ बिगाड़ ही नहीं सकते, लेकिन मुझे खोजने में भी वह कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। उसके लिए भले ही उन्हें धरती−आकाश एक करना पड़े। अरे हाँ, आकाश के नाम पर ध्यान आया कि कहीं ऐसा न हो कि आकाश मार्ग से उड़ते हुए वह मुझे यहाँ देख लें। इसलिए किसी झाड़ी में छिपकर बैठना चाहिए। आस−पास झाड़ियाँ तो थीं, पर उनमें भी दिखाई देने की आशंका थी। हारकर इंद्र ने एक पुराने पेड़ की कोटर में शरण ली। पेड़ बहुत बड़ा था। उसका कोटर गुफ़ा जैसा चौड़ा और गहरा था। इंद्र उसी में छिपकर बैठ गए। उन्होंने सोचा− 'शनि देवता लाख सिर पटकें, मुझे किसी भी सूरत में अब नहीं खोज पाएंगे। चींटी को भी पता नहीं चल सकता कि मैं यहाँ छिपा बैठा हूँ। फिर शनि की तो बिसात ही क्या है। शनि का अहंकार आज ही मिट जाएगा। व्यर्थ ही उन्होंने सारे संसार को डरा रखा है।' उधर शनि देवता न कहीं आए, न कहीं गए । धमकी देने के समय उन्होंने केवल अपनी छाया भर इंद्र पर डाल दी थी, बस। वह अपना काम करते रहे। इंद्र कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं था। उन्हें अपनी शक्ति पर पूरा विश्वास था। वह जानते थे कि इंद्र चाहे जहाँ जाएं, मेरी छाया अपना प्रभाव अवश्य डालेगी और ऐसा हो भी रहा था। शनि के बिना कुछ किए−धरे इंद्र की शांति भंग हो चुकी थी। अपनी सुरक्षा के चक्कर में खाना तो क्या, उन्हें पानी पीने तक की सुध नहीं थी। बात केवल दिन भर की ही थी। जब सूरज डूब गया और रात आने लगी, तब इंद्र कोटर से बाहर निकले। चौकन्नी निगाहों से इधर−उधर देखा। कहीं कोई न था। समझ गए कि या तो शनिश्चर इधर आए ही नहीं, और अगर आए भी हांगे तो झख मारकर लौट गए होंगे। आख़िर मुझे खोजना इतना आसान कहाँ था। मेरी गंध तो हवा तक को नहीं मिली; शनि की क्या गिनती है। यही सब सोचते हुए इंद्र मन−ही−मन खुश हो रहे थे और होते भी क्यों नहीं, अपनी समझ के अनुसार तो उन्होंने शनिदेव को धोखा दे दिया था। अब तो उन्हें उस क्षण का इंतज़ार था कि कब शनिदेव से भेंट हो और वह उन्हें अपमानित करें। उनका उपहास उड़ाएँ।
अँधेरा बढ़ता जा रहा था। इंद्र ने अंगड़ाई लेकर देह को एक झटका दिया और जल्दी−जल्दी अपने इंद्रलोक की ओर चल दिए। दूसरे दिन सुबह ही उनका सामना शनिदेव से हो गया। शनिदेव उन्हें देखकर अर्थपूर्ण मुद्रा में मुस्कराए। इंद्रदेव उनकी मुस्कान में छिपे व्यंग्य को न समझ सके और विजय के मद में चूर होकर बोले, 'कहिए शनि देवता! कल का पूरा समय निकल गया और आप मेरा बाल भी बांका नहीं कर सके। अब तो कोई संदेह नहीं है कि मेरी शक्ति आपसे अधिक है?' शनि देवता ठठाकर हँस पड़े। शनिदेव को इस प्रकार हँसते देखकर इंद्रदेव झुंझला उठे और कुढ़कर बोले, 'आपको हँसी आ रही है। लेकिन आपकी जगह पर कोई दूसरा होता तो शरम के मारे मुँह छिपा लेता। आपने कल बड़े ताव से मुझे पकड़ लेने की चुनौती दी थी; लेकिन पकड़ना तो दूर, आप मुझे छू भी न सके। क्या यही आपका सामर्थ्य है? इसी के बल पर आप फूले−फूले फिरते हैं। दरअसल, नारद जैसे लोगों ने आपको बेवजह सिर चढ़ा रखा है और ये ही आपका नाम लेकर दूसरों को डराते रहते हैं। आपमें कितना बल है, यह मैं देख चुका हूँ।' शनि ने हँसते हुए उत्तर दिया, 'आप जैसे बुद्धिमान को कौन समझाए कि आप हारे और मैं जीता, फिर भी आप मुझे धिक्कार रहे हैं। जाकर किसी को यह सारी घटना सुनाइए, तब पता चलेगा कि आप कितने बुद्धिमान और साहसी हैं।' इंद्र ने आँखे निकाल कर पूछा, 'क्या कहा, मैं हार गया हूँ? कैसे? आप अपनी विजय का प्रमाण तो दीजिए। ख़ाली कह देने से क्या होता है। इस प्रकार तो मैं भी कह सकता हूँ कि विजय मेरी हुई है। कल का पूरा दिन निकल गया, आख़िर क्या बिगाड़ पाए आप मेरा? आप मेरा बाल तक बांका नहीं कर सके। पूरी तरह स्वस्थ और निश्चिंत आपके सामने खड़ा हूँ।' 'अगर ऐसी बात है तो सुनो−पहले परसों मेरे द्वारा कहे शब्दों पर गौर करिए......।' शनि ने कहा, 'मैंने कहा था कि कल आप खाना−पीना भूल जाएंगे। वही बात हुई। आप मेरे भय से पेड़ के कोटर में छिपे रहे। दिन भर न खाया, न पीया। आपने मारे भय के बाहर झांका तक नहीं। यह मेरी छाया का ही प्रभाव था जो मैंने आप पर उसी समय डाल दी थी जब परसों हमारी भेंट हुई थी। मुझमें इतनी शक्ति है कि स्वयं न जाकर अपनी छाया से ही किसी को पकड़ लेता हूँ। उसी छाया के प्रभाव से आप डरकर भागे और दिन भर बिना कुछ खाए−पिए कोटर में छिपे रहे। जिसे आप अपनी बुद्धिमानी समझते हैं, वह मेरा भय था। यदि भय न होता, तो राजभवन छोड़कर कोटर में जाकर छिपने का क्या कारण था? अरे, भय के मारे तो आपने अपनी पत्नी इंद्राणी को भी कुछ नहीं बताया। जरा सोचो कि जब मेरी छाया ने ही इतने कौतुक दिखा दिए तो यदि मैं प्रत्यक्ष रूप से कुपित हो जाता तो क्या होता?'
इंद्र का सिर नीचा हो गया। हाथ जोड़कर बोले, 'मेरा अहंकार दूर हो गया शनि देवता! सचमुच, आप मुझसे अधिक समर्थ और प्रभावशाली हैं। मुझे मेरी धृष्टता के लिए क्षमा करें। नारद जी ने सत्य ही कहा था, आप बड़े बलशाली हैं।' शनि देवता ने हँसकर इंद्र को गले से लगा लिया और बोले, 'महाराज इंद्र! घमंडी का सिर हमेशा नीचा होता है। इंसान हो या देवता, उसे कभी घमंड नहीं करना चाहिए।'

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

सत्य नारायण व्रत कथा

सत्यनारायण भगवान की कथा लोक में प्रचलित है। हिंदू धर्मावलंबियो के बीच सबसे प्रतिष्ठित व्रत कथा के रूप में भगवान विष्णु के सत्य स्वरूप की सत्यनारायण व्रत कथा है। कुछ लोग मनौती पूरी होने पर, कुछ अन्य नियमित रूप से इस कथा का आयोजन करते हैं। सत्यनारायण व्रतकथाके दो भाग हैं, व्रत-पूजा एवं कथा। सत्यनारायण व्रतकथा स्कंदपुराण के रेवाखंड से संकलित की गई है।

सत्य को नारायण (विष्णु के रूप में पूजना ही सत्यनारायण की पूजा है। इसका दूसरा अर्थ यह है कि संसार में एकमात्र नारायण ही सत्य हैं, बाकी सब माया है।

भगवान की पूजा कई रूपों में की जाती है, उनमें से उनका सत्यनारायण स्वरूप इस कथा में बताया गया है। इसके मूल पाठ में पाठांतर से लगभग 170 श्लोक संस्कृत भाषा में उपलब्ध है जो पांच अध्यायों में बंटे हुए हैं। इस कथा के दो प्रमुख विषय हैं- जिनमें एक है संकल्प को भूलना और दूसरा है प्रसाद का अपमान।

व्रत कथा के अलग-अलग अध्यायों में छोटी कहानियों के माध्यम से बताया गया है कि सत्य का पालन न करने पर किस तरह की परेशानियां आती है। इसलिए जीवन में सत्य व्रत का पालन पूरी निष्ठा और सुदृढ़ता के साथ करना चाहिए।

ऐसा न करने पर भगवान न केवल नाराज होते हैं अपितु दंड स्वरूप संपति और बंधु बांधवों के सुख से वंचित भी कर देते हैं। इस अर्थ में यह कथा लोक में सच्चाई की प्रतिष्ठा का लोकप्रिय और सर्वमान्य धार्मिक साहित्य हैं। प्रायः पूर्णमासी को इस कथा का परिवार में वाचन किया जाता है। अन्य पर्वों पर भी इस कथा को विधि विधान से करने का निर्देश दिया गया है।

इनकी पूजा में केले के पत्ते व फल के अलावा पंचामृत, पंचगव्य, सुपारी, पान, तिल, मोली, रोली, कुमकुम, दूर्वा की आवश्यकता होती जिनसे भगवान की पूजा होती है। सत्यनारायण की पूजा के लिए दूध, मधु, केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार किया जाता है जो भगवान को काफी पसंद है। इन्हें प्रसाद के तौर पर फल, मिष्टान्न के अलावा आटे को भून कर उसमें चीनी मिलाकर एक प्रसाद बनता है जिसे सत्तू कहा जाता है, उसका भी भोग लगता है।

सत्यनारायण व्रतकथा पुस्तिका के प्रथम अध्याय में यह बताया गया है कि सत्यनारायण भगवान की पूजा कैसे की जाय। संक्षेप में यह विधि निम्नलिखित है-

जो व्यक्ति सत्यनारायण की पूजा का संकल्प लेते हैं उन्हें दिन भर व्रत रखना चाहिए। पूजन स्थल को गाय के गोबर से पवित्र करके वहां एक अल्पना बनाएं और उस पर पूजा की चौकी रखें। इस चौकी के चारों पाये के पास केले का वृक्ष लगाएं। इस चौकी पर ठाकुर जी और श्री सत्यनारायण की प्रतिमा स्थापित करें।

 पूजा करते समय सबसे पहले गणपति की पूजा करें फिर इन्द्रादि दशदिक्पाल की और क्रमश: पंच लोकपाल, सीता सहित राम, लक्ष्मण की, राधा कृष्ण की। इनकी पूजा के पश्चात ठाकुर जी व सत्यनारायण की पूजा करें। इसके बाद लक्ष्मी माता की और अंत में महादेव और ब्रह्मा जी की पूजा करें।

पूजा के बाद सभी देवों की आरती करें और चरणामृत लेकर प्रसाद वितरण करें। पुरोहित जी को दक्षिणा एवं वस्त्र दे व भोजन कराएं। पुराहित जी के भोजन के पश्चात उनसे आशीर्वाद लेकर आप स्वयं भोजन करें।

कथा  : - सत्यनारायण व्रत कथा का पूरा सन्दर्भ यह है कि पुराकालमें शौनकादिऋषि नैमिषारण्य स्थित महर्षि सूत के आश्रम पर पहुंचे। ऋषिगण महर्षि सूत से प्रश्न करते हैं कि लौकिक कष्टमुक्ति, सांसारिक सुख समृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य की सिद्धि के लिए सरल उपाय क्या है? महर्षि सूत शौनकादिऋषियों को बताते हैं कि ऐसा ही प्रश्न नारद जी ने भगवान विष्णु से किया था।

भगवान विष्णु ने नारद जी को बताया कि लौकिक क्लेशमुक्ति, सांसारिक सुखसमृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य सिद्धि के लिए एक ही राजमार्ग है, वह है सत्यनारायण व्रत। सत्यनारायण का अर्थ है सत्याचरण, सत्याग्रह, सत्यनिष्ठा। संसार में सुखसमृद्धि की प्राप्ति सत्याचरणद्वारा ही संभव है। सत्य ही ईश्वर है। सत्याचरणका अर्थ है ईश्वराराधन, भगवत्पूजा।

कथा का प्रारंभ सूत जी द्वारा कथा सुनाने से होता है। नारद जी भगवान श्रीविष्णु के पास जाकर उनकी स्तुति करते हैं। स्तुति सुनने के अनन्तर भगवान श्रीविष्णु जी ने नारद जी से कहा- महाभाग! आप किस प्रयोजन से यहां आये हैं, आपके मन में क्या है? कहिये, वह सब कुछ मैं आपको बताउंगा।

नारद जी बोले - भगवन! मृत्युलोक में अपने पापकर्मों के द्वारा विभिन्न योनियों में उत्पन्न सभी लोग बहुत प्रकार के क्लेशों से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ! किस लघु उपाय से उनके कष्टों का निवारण हो सकेगा, यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा हो तो वह सब मैं सुनना चाहता हूं। उसे बतायें।

श्री भगवान ने कहा - हे वत्स! संसार के ऊपर अनुग्रह करने की इच्छा से आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस व्रत के करने से प्राणी मोह से मुक्त हो जाता है, उसे आपको बताता हूं, सुनें। हे वत्स! स्वर्ग और मृत्युलोक में दुर्लभ भगवान सत्यनारायण का एक महान पुण्यप्रद व्रत है। आपके स्नेह के कारण इस समय मैं उसे कह रहा हूं। अच्छी प्रकार विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण व्रत करके मनुष्य शीघ्र ही सुख प्राप्त कर परलोक में मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

भगवान की ऐसी वाणी सनुकर नारद मुनि ने कहा -प्रभो इस व्रत को करने का फल क्या है? इसका विधान क्या है? इस व्रत को किसने किया और इसे कब करना चाहिए? यह सब विस्तारपूर्वक बतलाइये।

श्री भगवान ने कहा - यह सत्यनारायण व्रत दुख-शोक आदि का शमन करने वाला, धन-धान्य की वृद्धि करने वाला, सौभाग्य और संतान देने वाला तथा सर्वत्र विजय प्रदान करने वाला है। जिस-किसी भी दिन भक्ति और श्रद्धा से समन्वित होकर मनुष्य ब्राह्मणों और बन्धुबान्धवों के साथ धर्म में तत्पर होकर सायंकाल भगवान सत्यनारायण की पूजा करे। नैवेद्य के रूप में उत्तम कोटि के भोजनीय पदार्थ को सवाया मात्रा में भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिए। केले के फल, घी, दूध, गेहूं का चूर्ण अथवा गेहूं के चूर्ण के अभाव में साठी चावल का चूर्ण, शक्कर या गुड़ - यह सब भक्ष्य सामग्री सवाया मात्रा में एकत्र कर निवेदित करनी चाहिए।

बन्धु-बान्धवों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सुनकर ब्राह्मणों को दक्षिणा देनी चाहिए। तदनन्तर बन्धु-बान्धवों के साथ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। भक्तिपूर्वक प्रसाद ग्रहण करके नृत्य-गीत आदि का आयोजन करना चाहिए। तदनन्तर भगवान सत्यनारायण का स्मरण करते हुए अपने घर जाना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्यों की अभिलाषा अवश्य पूर्ण होती है। विशेष रूप से कलियुग में, पृथ्वीलोक में यह सबसे छोटा सा उपाय है।

दूसरा अध्याय : - श्रीसूतजी बोले - हे द्विजों! अब मैं पुनः पूर्वकाल में जिसने इस सत्यनारायण व्रत को किया था, उसे भलीभांति विस्तारपूर्वक कहूंगा। रमणीय काशी नामक नगर में कोई अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण रहता था। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह प्रतिदिन पृथ्वी पर भटकता रहता था। ब्राह्मण प्रिय भगवान ने उस दुखी ब्राह्मण को देखकर वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके उस द्विज से आदरपूर्वक पूछा - हे विप्र! प्रतिदिन अत्यन्त दुखी होकर तुम किसलिए पृथ्वीपर भ्रमण करते रहते हो। हे द्विजश्रेष्ठ! यह सब बतलाओ, मैं सुनना चाहता हूं।

ब्राह्मण बोला - प्रभो! मैं अत्यन्त दरिद्र ब्राह्मण हूं और भिक्षा के लिए ही पृथ्वी पर घूमा करता हूं। यदि मेरी इस दरिद्रता को दूर करने का आप कोई उपाय जानते हों तो कृपापूर्वक बतलाइये।

वृद्ध ब्राह्मण बोला - हे ब्राह्मणदेव! सत्यनारायण भगवान् विष्णु अभीष्ट फल को देने वाले हैं। हे विप्र! तुम उनका उत्तम व्रत करो, जिसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।

व्रत के विधान को भी ब्राह्मण से यत्नपूर्वक कहकर वृद्ध ब्राह्मणरूपधारी भगवान् विष्णु वहीं पर अन्तर्धान हो गये। ‘वृद्ध ब्राह्मण ने जैसा कहा है, उस व्रत को अच्छी प्रकार से वैसे ही करूंगा’ - यह सोचते हुए उस ब्राह्मण को रात में नींद नहीं आयी।

अगले दिन प्रातःकाल उठकर ‘सत्यनारायण का व्रत करूंगा’ ऐसा संकल्प करके वह ब्राह्मण भिक्षा के लिए चल पड़ा। उस दिन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत सा धन प्राप्त हुआ। उसी धन से उसने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान सत्यनारायण का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी दुखों से मुक्त होकर समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न हो गया। उस दिन से लेकर प्रत्येक महीने उसने यह व्रत किया। इस प्रकार भगवान् सत्यनारायण के इस व्रत को करके वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी पापों से मुक्त हो गया और उसने दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त किया।

हे विप्र! पृथ्वी पर जब भी कोई मनुष्य श्री सत्यनारायण का व्रत करेगा, उसी समय उसके समस्त दुख नष्ट हो जायेंगे। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार भगवान नारायण ने महात्मा नारदजी से जो कुछ कहा, मैंने वह सब आप लोगों से कह दिया, आगे अब और क्या कहूं?

हे मुने! इस पृथ्वी पर उस ब्राह्मण से सुने हुए इस व्रत को किसने किया? हम वह सब सुनना चाहते हैं, उस व्रत पर हमारी श्रद्धा हो रही है।

श्री सूत जी बोले - मुनियों! पृथ्वी पर जिसने यह व्रत किया, उसे आप लोग सुनें। एक बार वह द्विजश्रेष्ठ अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार बन्धु-बान्धवों तथा परिवारजनों के साथ व्रत करने के लिए उद्यत हुआ। इसी बीच एक लकड़हारा वहां आया और लकड़ी बाहर रखकर उस ब्राह्मण के घर गया। प्यास से व्याकुल वह उस ब्राह्मण को व्रत करता हुआ देख प्रणाम करके उससे बोला - प्रभो! आप यह क्या कर रहे हैं, इसके करने से किस फल की प्राप्ति होती है, विस्तारपूर्वक मुझसे कहिये।

विप्र ने कहा - यह सत्यनारायण का व्रत है, जो सभी मनोरथों को प्रदान करने वाला है। उसी के प्रभाव से मुझे यह सब महान धन-धान्य आदि प्राप्त हुआ है। जल पीकर तथा प्रसाद ग्रहण करके वह नगर चला गया। सत्यनारायण देव के लिए मन से ऐसा सोचने लगा कि ‘आज लकड़ी बेचने से जो धन प्राप्त होगा, उसी धन से भगवान सत्यनारायण का श्रेष्ठ व्रत करूंगा।’ इस प्रकार मन से चिन्तन करता हुआ लकड़ी को मस्तक पर रख कर उस सुन्दर नगर में गया, जहां धन-सम्पन्न लोग रहते थे। उस दिन उसने लकड़ी का दुगुना मूल्य प्राप्त किया।

इसके बाद प्रसन्न हृदय होकर वह पके हुए केले का फल, शर्करा, घी, दूध और गेहूं का चूर्ण सवाया मात्रा में लेकर अपने घर आया। तत्पश्चात उसने अपने बान्धवों को बुलाकर विधि-विधान से भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह धन-पुत्र से सम्पन्न हो गया और इस लोक में अनेक सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर अर्थात् बैकुण्ठलोक चला गया।

तीसरा अध्याय : - श्री सूतजी बोले - श्रेष्ठ मुनियों! अब मैं पुनः आगे की कथा कहूंगा, आप लोग सुनें। प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक राजा था। वह जितेन्द्रिय, सत्यवादी तथा अत्यन्त बुद्धिमान था। वह विद्वान राजा प्रतिदिन देवालय जाता और ब्राह्मणों को धन देकर सन्तुष्ट करता था। कमल के समान मुख वाली उसकी धर्मपत्नी शील, विनय एवं सौन्दर्य आदि गुणों से सम्पन्न तथा पतिपरायणा थी।

 राजा एक दिन अपनी धर्मपत्नी के साथ भद्रशीला नदी के तट पर श्रीसत्यनारायण का व्रत कर रहा था। उसी समय व्यापार के लिए अनेक प्रकार की पुष्कल धनराशि से सम्पन्न एक साधु नाम का बनिया वहां आया। भद्रशीला नदी के तट पर नाव को स्थापित कर वह राजा के समीप गया और राजा को उस व्रत में दीक्षित देखकर विनयपूर्वक पूछने लगा।

साधु ने कहा - राजन्! आप भक्तियुक्त चित्त से यह क्या कर रहे हैं? कृपया वह सब बताइये, इस समय मैं सुनना चाहता हूं।

राजा बोले - हे साधो! पुत्र आदि की प्राप्ति की कामना से अपने बन्धु-बान्धवों के साथ मैं अतुल तेज सम्पन्न भगवान् विष्णु का व्रत एवं पूजन कर रहा हूं।

राजा की बात सुनकर साधु ने आदरपूर्वक कहा - राजन् ! इस विषय में आप मुझे सब कुछ विस्तार से बतलाइये, आपके कथनानुसार मैं व्रत एवं पूजन करूंगा। मुझे भी संतति नहीं है। ‘इससे अवश्य ही संतति प्राप्त होगी।’ ऐसा विचार कर वह व्यापार से निवृत्त हो आनन्दपूर्वक अपने घर आया। उसने अपनी भार्या से संतति प्रदान करने वाले इस सत्यव्रत को विस्तार पूर्वक बताया तथा - ‘जब मुझे संतति प्राप्त होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा’ - इस प्रकार उस साधु ने अपनी भार्या लीलावती से कहा।

एक दिन उसकी लीलावती नाम की सती-साध्वी भार्या पति के साथ आनन्द चित्त से ऋतुकालीन धर्माचरण में प्रवृत्त हुई और भगवान् श्रीसत्यनारायण की कृपा से उसकी वह भार्या गर्भिणी हुई। दसवें महीने में उससे कन्यारत्न की उत्पत्ति हुई और वह शुक्लपक्ष के चन्द्रम की भांति दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। उस कन्या का ‘कलावती’ यह नाम रखा गया। इसके बाद एक दिन लीलावती ने अपने स्वामी से मधुर वाणी में कहा - आप पूर्व में संकल्पित श्री सत्यनारायण के व्रत को क्यों नहीं कर रहे हैं?

साधु बोला - ‘प्रिये! इसके विवाह के समय व्रत करूंगा।’ इस प्रकार अपनी पत्नी को भली-भांति आश्वस्त कर वह व्यापार करने के लिए नगर की ओर चला गया। इधर कन्या कलावती पिता के घर में बढ़ने लगी। तदनन्तर धर्मज्ञ साधु ने नगर में सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुई अपनी कन्या को विवाह योग्य देखकर आपस में मन्त्रणा करके ‘कन्या विवाह के लिए श्रेष्ठ वर का अन्वेषण करो’ - ऐसा दूत से कहकर शीघ्र ही उसे भेज दिया।

उसकी आज्ञा प्राप्त करके दूत कांचन नामक नगर में गया और वहां से एक वणिक का पुत्र लेकर आया। उस साधु ने उस वणिक के पुत्र को सुन्दर और गुणों से सम्पन्न देखकर अपनी जाति के लोगों तथा बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्टचित्त हो विधि-विधान से वणिकपुत्र के हाथ में कन्या का दान कर दिया।

उस समय वह साधु बनिया दुर्भाग्यवश भगवान् का वह उत्तम व्रत भूल गया। पूर्व संकल्प के अनुसार विवाह के समय में व्रत न करने के कारण भगवान उस पर रुष्ट हो गये। कुछ समय के पश्चात अपने व्यापारकर्म में कुशल वह साधु बनिया काल की प्रेरणा से अपने दामाद के साथ व्यापार करने के लिए समुद्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नामक सुन्दर नगर में गया और पअने श्रीसम्पन्न दामाद के साथ वहां व्यापार करने लगा। उसके बाद वे दोों राजा चन्द्रकेतु के रमणीय उस नगर में गये। उसी समय भगवान् श्रीसत्यनारायण ने उसे भ्रष्टप्रतिज्ञ देखकर ‘इसे दारुण, कठिन और महान् दुख प्राप्त होगा’ - यह शाप दे दिया।

एक दिन एक चोर राजा चन्द्रकेतु के धन को चुराकर वहीं आया, जहां दोनों वणिक स्थित थे। वह अपने पीछे दौड़ते हुए दूतों को देखकर भयभीतचित्त से धन वहीं छोड़कर शीघ्र ही छिप गया। इसके बाद राजा के दूत वहां आ गये जहां वह साधु वणिक था। वहां राजा के धन को देखकर वे दूत उन दोनों वणिकपुत्रों को बांधकर ले आये और हर्षपूर्वक दौड़ते हुए राजा से बोले - ‘प्रभो! हम दो चोर पकड़ लाए हैं, इन्हें देखकर आप आज्ञा दें’।

राजा की आज्ञा से दोनों शीघ्र ही दृढ़तापूर्वक बांधकर बिना विचार किये महान कारागार में डाल दिये गये। भगवान् सत्यदेव की माया से किसी ने उन दोनों की बात नहीं सुनी और राजा चन्द्रकेतु ने उन दोनों का धन भी ले लिया।

भगवान के शाप से वणिक के घर में उसकी भार्या भी अत्यन्त दुखित हो गयी और उनके घर में सारा-का-सारा जो धन था, वह चोर ने चुरा लिया। लीलावती शारीरिक तथा मानसिक पीड़ाओं से युक्त, भूख और प्यास से दुखी हो अन्न की चिन्ता से दर-दर भटकने लगी। कलावती कन्या भी भोजन के लिए इधर-उधर प्रतिदिन घूमने लगी। एक दिन भूख से पीडि़त कलावती एक ब्राह्मण के घर गयी। वहां जाकर उसने श्रीसत्यनारायण के व्रत-पूजन को देखा। वहां बैठकर उसने कथा सुनी और वरदान मांगा। उसके बाद प्रसाद ग्रहण करके वह कुछ रात होने पर घर गयी।

माता ने कलावती कन्या से प्रेमपूर्वक पूछा - पुत्री ! रात में तू कहां रुक गयी थी? तुम्हारे मन में क्या है? कलावती कन्या ने तुरन्त माता से कहा - मां! मैंने एक ब्राह्मण के घर में मनोरथ प्रदान करने वाला व्रत देखा है। कन्या की उस बात को सुनकर वह वणिक की भार्या व्रत करने को उद्यत हुई और प्रसन्न मन से उस साध्वी ने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान् श्रीसत्यनारायण का व्रत किया तथा इस प्रकार प्रार्थना की - ‘भगवन! आप हमारे पति एवं जामाता के अपराध को क्षमा करें। वे दोनों अपने घर शीघ्र आ जायं।

’ इस व्रत से भगवान सत्यनारायण पुनः संतुष्ट हो गये तथा उन्होंने नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को स्वप्न दिखाया और स्वप्न में कहा - ‘नृपश्रेष्ठ! प्रातः काल दोनों वणिकों को छोड़ दो और वह सारा धन भी दे दो, जो तुमने उनसे इस समय ले लिया है, अन्यथा राज्य, धन एवं पुत्रसहित तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा।’

राजा से स्वप्न में ऐसा कहकर भगवान सत्यनारायण अन्तर्धान हो गये। इसके बाद प्रातः काल राजा ने अपने सभासदों के साथ सभा में बैठकर अपना स्वप्न लोगों को बताया और कहा - ‘दोनों बंदी वणिकपुत्रों को शीघ्र ही मुक्त कर दो।’ राजा की ऐसी बात सुनकर वे राजपुरुष दोनों महाजनों को बन्धनमुक्त करके राजा के सामने लाकर विनयपूर्वक बोले - ‘महाराज! बेड़ी-बन्धन से मुक्त करके दोनों वणिक पुत्र लाये गये हैं।

इसके बाद दोनों महाजन नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को प्रणाम करके अपने पूर्व-वृतान्त का स्मरण करते हुए भयविह्वन हो गये और कुछ बोल न सके।

राजा ने वणिक पुत्रों को देखकर आदरपूर्वक कहा -‘आप लोगों को प्रारब्धवश यह महान दुख प्राप्त हुआ है, इस समय अब कोई भय नहीं है।’, ऐसा कहकर उनकी बेड़ी खुलवाकर क्षौरकर्म आदि कराया। राजा ने वस्त्र, अलंकार देकर उन दोनों वणिकपुत्रों को संतुष्ट किया तथा सामने बुलाकर वाणी द्वारा अत्यधिक आनन्दित किया।

 पहले जो धन लिया था, उसे दूना करके दिया, उसके बाद राजा ने पुनः उनसे कहा - ‘साधो! अब आप अपने घर को जायं।’ राजा को प्रणाम करके ‘आप की कृपा से हम जा रहे हैं।’ - ऐसा कहकर उन दोनों महावैश्यों ने अपने घर की ओर प्रस्थान किया।

चौथा अध्याय : - श्रीसूत जी बोले - साधु बनिया मंगलाचरण कर और ब्राह्मणों को धन देकर अपने नगर के लिए चल पड़ा। साधु के कुछ दूर जाने पर भगवान सत्यनारायण की उसकी सत्यता की परीक्षा के विषय में जिज्ञासा हुई - ‘साधो! तुम्हारी नाव में क्या भरा है?’ तब धन के मद में चूर दोनों महाजनों ने अवहेलनापूर्वक हंसते हुए कहा - ‘दण्डिन! क्यों पूछ रहे हो?

 क्या कुछ द्रव्य लेने की इच्छा है? हमारी नाव में तो लता और पत्ते आदि भरे हैं।’ ऐसी निष्ठुर वाणी सुनकर - ‘तुम्हारी बात सच हो जाय’ - ऐसा कहकर दण्डी संन्यासी को रूप धारण किये हुए भगवान कुछ दूर जाकर समुद्र के समीप बैठ गये।

दण्डी के चले जाने पर नित्यक्रिया करने के पश्चात उतराई हुई अर्थात जल में उपर की ओर उठी हुई नौका को देखकर साधु अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया और नाव में लता और पत्ते आदि देखकर मुर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। सचेत होने पर वणिकपुत्र चिन्तित हो गया। तब उसके दामाद ने इस प्रकार कहा - ‘आप शोक क्यों करते हैं? दण्डी ने शाप दे दिया है, इस स्थिति में वे ही चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं।

अतः उन्हीं की शरण में हम चलें, वहीं मन की इच्छा पूर्ण होगी।’ दामाद की बात सुनकर वह साधु बनिया उनके पास गया और वहां दण्डी को देखकर उसने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया तथा आदरपूर्वक कहने लगा - आपके सम्मुख मैंने जो कुछ कहा है, असत्यभाषण रूप अपराध किया है, आप मेरे उस अपराध को क्षमा करें - ऐसा कहकर बारम्बार प्रणाम करके वह महान शोक से आकुल हो गया।

दण्डी ने उसे रोता हुआ देखकर कहा - ‘हे मूर्ख! रोओ मत, मेरी बात सुनो। मेरी पूजा से उदासीन होने के कारण तथा मेरी आज्ञा से ही तुमने बारम्बार दुख प्राप्त किया है।’ भगवान की ऐसी वाणी सुनकर वह उनकी स्तुति करने लगा।

साधु ने कहा - ‘हे प्रभो! यह आश्चर्य की बात है कि आपकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मा आदि देवता भी आपके गुणों और रूपों को यथावत रूप से नहीं जान पाते, फिर मैं मूर्ख आपकी माया से मोहित होने के कारण कैसे जान सकता हूं! आप प्रसन्न हों। मैं अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार आपकी पूजा करूंगा। मैं आपकी शरण में आया हूं। मेरा जो नौका में स्थित पुराा धन था, उसकी तथा मेरी रक्षा करें।’ उस बनिया की भक्तियुक्त वाणी सुनकर भगवान जनार्दन संतुष्ट हो गये।

भगवान हरि उसे अभीष्ट वर प्रदान करके वहीं अन्तर्धान हो गये। उसके बाद वह साधु अपनी नौका में चढ़ा और उसे धन-धान्य से परिपूर्ण देखकर ‘भगवान सत्यदेव की कृपा से हमारा मनोरथ सफल हो गया’ - ऐसा कहकर स्वजनों के साथ उसने भगवान की विधिवत पूजा की। भगवान श्री सत्यनारायण की कृपा से वह आनन्द से परिपूर्ण हो गया और नाव को प्रयत्नपूर्वक संभालकर उसने अपने देश के लिए प्रस्थान किया। साधु बनिया ने अपने दामाद से कहा - ‘वह देखो मेरी रत्नपुरी नगरी दिखायी दे रही है’। इसके बाद उसने अपने धन के रक्षक दूत कोअपने आगमन का समाचार देने के लिए अपनी नगरी में भेजा।

उसके बाद उस दूत ने नगर में जाकर साधु की भार्या को देख हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा उसके लिए अभीष्ट बात कही -‘सेठ जी अपने दामाद तथा बन्धुवर्गों के साथ बहुत सारे धन-धान्य से सम्पन्न होकर नगर के निकट पधार गये हैं।’ दूत के मुख से यह बात सुनकर वह महान आनन्द से विह्वल हो गयी और उस साध्वी ने श्री सत्यनारायण की पूजा करके अपनी पुत्री से कहा -‘मैं साधु के दर्शन के लिए जा रही हूं, तुम शीघ्र आओ।’ माता का ऐसा वचन सुनकर व्रत को समाप्त करके प्रसाद का परित्याग कर वह कलावती भी अपने पति का दर्शन करने के लिए चल पड़ी। इससे भगवान सत्यनारायण रुष्ट हो गये और उन्होंने उसके पति को तथा नौका को धन के साथ हरण करके जल में डुबो दिया।

इसके बाद कलावती कन्या अपने पति को न देख महान शोक से रुदन करती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। नाव का अदर्शन तथा कन्या को अत्यन्त दुखी देख भयभीत मन से साधु बनिया से सोचा - यह क्या आश्चर्य हो गया? नाव का संचालन करने वाले भी सभी चिन्तित हो गये। तदनन्तर वह लीलावती भी कन्या को देखकर विह्वल हो गयी और अत्यन्त दुख से विलाप करती हुई अपने पति से इस प्रकार बोली -‘ अभी-अभी नौका के साथ वह कैसे अलक्षित हो गया, न जाने किस देवता की उपेक्षा से वह नौका हरण कर ली गयी अथवा श्रीसत्यनारायण का माहात्म्य कौन जान सकता है!’ ऐसा कहकर वह स्वजनों के साथ विलाप करने लगी और कलावती कन्या को गोद में लेकर रोने लगी।

कलावती कन्या भी अपने पति के नष्ट हो जाने पर दुखी हो गयी और पति की पादुका लेकर उनका अनुगमन करने के लिए उसने मन में निश्चय किया। कन्या के इस प्रकार के आचरण को देख भार्यासहित वह धर्मज्ञ साधु बनिया अत्यन्त शोक-संतप्त हो गया और सोचने लगा - या तो भगवान सत्यनारायण ने यह अपहरण किया है अथवा हम सभी भगवान सत्यदेव की माया से मोहित हो गये हैं। अपनी धन शक्ति के अनुसार मैं भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा करूंगा। सभी को बुलाकर इस प्रकार कहकर उसने अपने मन की इच्छा प्रकट की और बारम्बार भगवान सत्यदेव को दण्डवत प्रणाम किया।

इससे दीनों के परिपालक भगवान सत्यदेव प्रसन्न हो गये। भक्तवत्सल भगवान ने कृपापूर्वक कहा - ‘तुम्हारी कन्या प्रसाद छोड़कर अपने पति को देखने चली आयी है, निश्चय ही इसी कारण उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि घर जाकर प्रसाद ग्रहण करके वह पुनः आये तो हे साधु बनिया तुम्हारी पुत्री पति को प्राप्त करेगी, इसमें संशय नहीं।

कन्या कलावती भी आकाशमण्डल से ऐसी वाणी सुनकर शीघ्र ही घर गयी और उसने प्रसाद ग्रहण किया। पुनः आकर स्वजनों तथा अपने पति को देखा। तब कलावती कन्या ने अपने पिता से कहा - ‘अब तो घर चलें, विलम्ब क्यों कर रहे हैं?’ कन्या की वह बात सुनकर वणिकपुत्र संतुष्ट हो गया और विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण का पूजन करके धन तथा बन्धु-बान्धवों के साथ अपने घर गया।

 तदनन्तर पूर्णिमा तथा संक्रान्ति पर्वों पर भगवान सत्यनारायण का पूजन करते हुए इस लोक में सुख भोगकर अन्त में वह सत्यपुर बैकुण्ठलोक में चला गया।

पांचवा अध्याय : - श्रीसूत जी बोले - श्रेष्ठ मुनियों! अब इसके बाद मैं दूसरी कथा कहूंगा, आप लोग सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर तुंगध्वज नामक एक राजा था। उसने सत्यदेव के प्रसाद का परित्याग करके दुख प्राप्त किया। एक बाद वह वन में जाकर और वहां बहुत से पशुओं को मारकर वटवृक्ष के नीचे आया। वहां उसने देखा कि गोपगण बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा कर रहे हैं।

राजा यह देखकर भी अहंकारवश न तो वहां गया और न उसे भगवान सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। पूजन के बाद सभी गोपगण भगवान का प्रसाद राजा के समीप रखकर वहां से लौट आये और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसाद का परित्याग करने से बहुत दुख हुआ।

उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य ही भगवान सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है। इसलिए मुझे वहां जाना चाहिए जहां श्री सत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों के समीप गया और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा की। भगवान सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुआ।

श्रीसूत जी कहते हैं - जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्री सत्यनारायण के व्रत को करता है और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी भगवान की कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है, उसे भगवान सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है। दरिद्र धनवान हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धन से मुक्त हो जाता है, डरा हुआ व्यक्ति भय मुक्त हो जाता है - यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। इस लोक में वह सभी ईप्सित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को जाता है। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।

कलियुग में तो भगवान सत्यदेव की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। भगवान विष्णु को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं। कलियुग में सनातन भगवान विष्णु ही सत्यव्रत रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करने वाले होंगे। हे श्रेष्ठ मुनियों! जो व्यक्ति नित्य भगवान सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान सत्यारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। हे मुनीश्वरों! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान सत्यनारायण का व्रत किया था, उसके अगले जन्म का वृतान्त कहता हूं, आप लोग सुनें।

महान प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नाम के ब्राह्मण सत्यनारायण व्रत करने के प्रभाव से दूसे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। लकड़हारा भिल्ल गुहों का राजा हुआ और अगले जन्म में उसने भगवान श्रीराम की सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया। महाराज उल्कामुख दूसरे जन्म में राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरंगनाथजी की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया। इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में मोरध्वज नामक राजा हुआ। उसने आरे सेचीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान विष्णु को अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया।

महाराजा तुंगध्वज जन्मान्तर में स्वायम्भुव मनु हुए और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए। जो गोपगण थे, वे सब जन्मान्तर में व्रजमण्डल में निवास करने वाले गोप हुए और सभी राक्षसों का संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वत धाम गोलोक प्राप्त किया।

इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अन्तर्गत रेवाखण्ड में श्रीसत्यनारायणव्रत कथा का यह पांचवां अध्याय पूर्ण हुआ।

सत्यनारायण व्रत का अनुष्ठान करके मनुष्य सभी दु:खों से मुक्त हो जाता है।कलिकाल में सत्य की पूजा विशेष रूप से फलदायीहोती है सत्य के अनेक नाम हैं, यथा-सत्यनारायण, सत्यदेव। सनातन सत्यरूपीविष्णु भगवान कलियुग में अनेक रूप धारण करके लोगों को मनोवांछित फल देंगे।

गुरुवार, 22 नवंबर 2018

कार्तिक पूर्णिमा

कार्तिक पूर्णिमा के दिन विष्णु ने लिया था पहला मत्स्य अवतार,भगवान विष्णु के प्रथम अवतार मत्स्य अवतार की कथा !!!!!

विष्णु के भक्तों के लिए कार्तिकपूर्णिमा इसलिए खास है क्योंकि भगवान विष्णु का पहला अवतार इसी दिन हुआ था। प्रथम अवतार में भगवान विष्णु मत्स्य यानी मछली के रूप में थे। भगवान को यह अवतार वेदों की रक्षा, प्रलय के अंत तक सप्तऋषियों, अनाजों एवं राजा सत्यव्रत की रक्षा के लिए लेना पड़ा था। इससे सृष्टि का निर्माण कार्य फिर से आसान हुआ।

कल्पांत के पूर्व एक बार ब्रह्मा जी की असावधानी के कारण एक बहुत बड़े दैत्य ने वेदों को चुरा लिया था। उस दैत्य का नाम हयग्रीव था। वेदों को चुरा लिए जाने के कारण ज्ञान लुप्त हो गया।

चारों ओर अज्ञानता का अंधकार फैल गया और पाप तथा अधर्म का बोलबाला हो गया। तब भगवान ने धर्म की रक्षा के लिए मत्स्य धारण करके हयग्रीव का वध किया और वेदों की रक्षा की। भगवान ने मत्स्य का रूप किस प्रकार धारण किया। इसकी विस्मयकारिणी कथा इस प्रकार है।

कल्पांत के पूर्व एक पुण्यात्मा राजा तप कर रहा था। राजा का नाम सत्यव्रत था। सत्यव्रत पुण्यात्मा तो था ही, बड़े उदार ह्रदय का भी था। प्रभात का समय था। सूर्योदय हो चुका था।

 सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान कर रहा था। उसने स्नान करने के पश्चात जब तर्पण के लिए अंजलि में जल लिया, तो अंजलि में जल के साथ एक छोटी-सी मछली भी आ गई। सत्यव्रत ने मछली को नदी के जल में छोड़ दिया।

मछली बोली, 'राजन! जल के बड़े-बड़े जीव छोटे-छोटे जीवों को मारकर खा जाते हैं। अवश्य कोई बड़ा जीव मुझे भी मारकर खा जाएगा। कृपा करके मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।' सत्यव्रत के ह्रदय में दया उत्पन्न हो उठी। उसने मछली को जल से भरे हुए अपने कमंडलु में डाल लिया।

 आश्चर्य! एक रात में मछली का शरीर इतना बढ़ गया कि कमंडलु उसके रहने के लिए छोटा पड़ने लगा। दूसरे दिन मछली सत्यव्रत से बोली। 'राजन! मेरे रहने के लिए कोई दूसरा स्थान ढूंढ़िए, क्योंकि मेरा शरीर बढ़ गया है।

 मुझे घूमने-फिरने में बड़ा कष्ट होता है।' सत्यव्रत ने मछली को कमंडलु से निकालकर पानी से भरे हुए मटके में रख दिया। आश्चर्य! मछली का शरीर रात भर में ही मटके में इतना बढ़ गया कि मटका भी उसके रहने कि लिए छोटा पड़ गया।

 दूसरे दिन मछली पुनः सत्यव्रत से बोली, 'राजन, मेरे रहने के लिए कहीं और प्रबंध कीजिए, क्योंकि मटका भी मेरे रहने के लिए छोटा पड़ रहा है।' तब सत्यव्रत ने मछली को निकालकर एक सरोवर में डाल किया, किंतु सरोवर भी मछली के लिए छोटा पड़ गया।

 इसके बाद सत्यव्रत ने मछली को नदी में और फिर उसके बाद समुद्र में डाल किया। आश्चर्य! समुद्र में भी मछली का शरीर इतना अधिक बढ़ गया कि मछली के रहने के लिए वह छोटा पड़ गया। अतः मछली पुनः सत्यव्रत से बोली, 'राजन! यह समुद्र भी मेरे रहने के लिए उपयुक्त नहीं है। मेरे रहने की व्यवस्था कहीं और कीजिए।'

सत्यव्रत विस्मित हो उठा। उसने आज तक ऐसी मछली कभी नहीं देखी थी। वह विस्मय-भरे स्वर में बोला, 'मेरी बुद्धि को विस्मय के सागर में डुबो देने वाले आप कौन हैं? आपक का शरीर जिस गति से प्रतिदिन बढ़ता है, उसे दृष्टि में रखते हुए बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि आप अवश्य परमात्मा हैं। यदि यह बात सत्य है, तो कृपा करके बताइए के आपने मत्स्य का रूप क्यों धारण किया है?' सचमुच, वह भगवान श्रीहरि ही थे।

मत्स्य रूपधारी श्रीहरि ने उत्तर दिया, 'राजन! हयग्रीव नामक दैत्य ने वेदों को चुरा लिया है। जगत में चारों ओर अज्ञान और अधर्म का अंधकार फैला हुआ है। मैंने हयग्रीव को मारने के लिए ही मत्स्य का रूप धारण किया है। आज से सातवें दिन पृथ्वी प्रलय के चक्र में फिर जाएगी। समुद्र उमड़ उठेगा। भयानक वृष्टि होगी। सारी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी।

जल के अतिरिक्त कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होगा। आपके पास एक नाव पहुंचेगी, आप सभी अनाजों और औषधियों के बीजों को लेकर सप्तॠषियों के साथ नाव पर बैठ जाइएगा। मैं उसी समय आपको पुनः दिखाई पड़ूंगा और आपको आत्मतत्व का ज्ञान प्रदान करूंगा।

' सत्यव्रत उसी दिन से हरि का स्मरण करते हुए प्रलय की प्रतीक्षा करने लगे। सातवें दिन प्रलय का दृश्य उपस्थित हो उठा। उमड़कर अपनी सीमा से बाहर बहने लगा। भयानक वृष्टि होने लगी। थोड़ी ही देर में जल ही जल हो गया।

संपूर्ण पृथ्वी जल में समा गई। उसी समय एक नाव दिखाई पड़ी। सत्यव्रत सप्तॠषियों के साथ उस नाव पर बैठ गए, उन्होंने नाव के ऊपर संपूर्ण अनाजों और औषधियों के बीज भी भर लिए।

नाव प्रलय के सागर में तैरने लगी। प्रलय के उस सागर में उस नाव के अतिरिक्त कहीं भी कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। सहसा मत्स्यरूपी भगवान प्रलय के सागर में दिखाई पड़े।

 सत्यव्रत और सप्तर्षिगण मतस्य रूपी भगवान की प्रार्थना करने लगे,'हे प्रभो! आप ही सृष्टि के आदि हैं, आप ही पालक है और आप ही रक्षक ही हैं। दया करके हमें अपनी शरण में लीजिए, हमारी रक्षा कीजिए।

' सत्यव्रत और सप्तॠषियों की प्रार्थना पर मत्स्यरूपी भगवान प्रसन्न हो उठे। उन्होंने अपने वचन के अनुसार सत्यव्रत को आत्मज्ञान प्रदान किया, बताया,'सभी प्राणियों में मैं ही निवास करता हूं। न कोई ऊंच है, न नीच। सभी प्राणी एक समान हैं। जगत नश्वर है। नश्वर जगत में मेरे अतिरिक्त कहीं कुछ भी नहीं है। जो प्राणी मुझे सबमें देखता हुआ जीवन व्यतीत करता है, वह अंत में मुझमें ही मिल जाता है।'

मत्स्य रूपी भगवान से आत्मज्ञान पाकर सत्यव्रत का जीवन धन्य हो उठा। वे जीते जी ही जीवन मुक्त हो गए। प्रलय का प्रकोप शांत होने पर मत्स्य रूपी भगवान ने हयग्रीव को मारकर, उससे वेद छीन लिए। भगवान ने ब्रह्माजी को पुनः वेद दे दिए।

इस प्रकार भगवान ने मत्स्यरूप धारण करके वेदों का उद्धार तो किया ही, संसार के प्राणियों का भी अमित कल्याण किया। भगवान इसी प्रकार समय-समय पर अवतरित होते हैं और सज्जनों तथा साधुओं का कल्याण करते हैं।

बुधवार, 21 नवंबर 2018

म्यचुअल फंड से लाभ

म्युचुअल फंड से लाभ


विवाह में देरी रुकावट को दूर करेगा यह अचूक उपाय, होगी झट मंगनी पट शादी


किसी भी जातक की कुंडली में कई ऐसे योग होते हैं जिनके कारण किसी भी लड़के या  लड़की के विवाह में अक्सर देरी होती है। तमाम कोशिशों के बावजूद यदि आपके बेटे या बेटी का विवाह नहीं हो पा रहा है और उसकी उम्र बढ़ती जा रही है

 तो आप ज्योतिष के तमाम उपाय अपना कर इस समस्या को दूर कर सकते हैं। वैदिक ज्योतिष में बताए गए सनातनी उपायों को करने से विवाह के मार्ग में आ रही बाधाएं दूर हो जाती हैं।

क्यों आती है विवाह में अड़चन
किसी भी जातक की कुंडली के सप्तम भाव से और नवांश कुंडली से जातक के विवाह के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।

 ज्योतिष के मुताबिक कुछ ऐसे योग होते हैं जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि विवाह होगा ही नहीं या फिर होगा तो बहुत विलंब से होगा अन्यथा विवाह में कष्ट होगा।

जैसे — सप्तम भाव का पीड़ित होना, सप्तमेश का पीड़ित होना, विवाह के कारक शुक्र का पीड़ित होना, कन्याओं की कुंडली में विवाह के कारक गुरु का पीड़ित होना, सप्तम भाव नवांश का पीड़ावान होना, मंगल की क्रूर युति पंचम या सप्तम भाव से होना,

मंगल का द्वादश भाव में मांगलिक दोष का निर्माण करना, कुंडली में वैधव्य योग होना आदि। कुंडली में विवाह संबंधी दोषों को अपनी राशि के अनुसार दूर करने का उपाय जानने के
क्यों आती है

विवाह में अड़चन
किसी भी जातक की कुंडली के सप्तम भाव से और नवांश कुंडली से जातक के विवाह के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। ज्योतिष के मुताबिक कुछ ऐसे योग होते हैं जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि विवाह होगा ही नहीं या फिर होगा तो बहुत विलंब से होगा अन्यथा विवाह में कष्ट होगा।

मेष
यदि इस राशि के जातक के विवाह में विलंब हो रहा हो तो जातक को तीन महीने स्वर्ण जल से स्नान करना चाहिए। स्वर्ण जल से तात्पर्य ऐसे जल से है जिसमे स्वर्ण को डुबोकर कुछ समय के बाद निकाला गया हो। यदि तीन महीने के बाद भी कार्य सिद्ध न हो तो शुक्र का उपाय विधि-विधान से करें।

वृषभ
यदि इस राशि के जातक के विवाह में विलंब हो रहा हो तो उसे तीन महीने लीलामृत का पाठ या फिर उसका श्रवण करना चाहिए। यदि इससे लाभ नहीं मिलता तो तीन महीने के बाद मंगल का उपाय विधि-विधान से करना चाहिए।

मिथुन
यदि इस राशि के जातक का विवाह तमाम प्रयासों के बावजूद न हो पा रहा हो तो उसे तीन महीने बृहस्पति की चीजों का दान, गिफ्ट आदि न तो देना चाहिए ओर न ही लेना चाहिए। यदि इस उपाय का लाभ न मिले तो गुरु का उपाय विधि-विधान से करें।

कर्क
कर्क राशि के जातक का विवाह यदि तमाम कोशिशों के बावजूद नहीं हो पा रहा हो और उसमें काफी अड़चनें आ रही हों तो उसे चार महीने तक हर महीने एक पीपल का पौधा लगाकर उसकी सेवा करना चाहिए। यदि इस उपाय से पूर्ण लाभ न मिले तो फिर शनिदेव का विधि-विधान से विशेष पूजन करवाना चाहिए।

सिंह
सिंह राशि के जातक को विवाह में देर हो रही समस्या से निजात पाने के लिए 13 बृहस्पतिवार का व्रत करना चाहिए। यदि 13 सप्ताह बाद भी इस उपाय का सकारात्मक परिणाम न मिले तो फिर शनिदेव का विधि-विधान से विशेष पूजन करवाना चाहिए।

कन्या
कन्या राशि के जातक विवाह में आ रही अड़चनों को दूर करने के लिए घर की दीवारों या जिस कमरे में रहते हैं, उस पर पीला रंग करवाएं। साथ ही गेंदे का लगाकर उसकी पूरी देखभाल करें। इस क्रिया को करने से चार महीने में सकारात्मक परिणाम मिलना चाहिए, यदि न मिले तो विधि-विधान से बृहस्पति की पूजा करवाएं।

तुला
तुला राशि के जातकों के विवाह में यदि बाधाएं आ रही हों और तमाम कोशिशों के बावजूद विवाह न हो पा रहा हो तो ऐसे जातक को दो महीने गरुण पुराण का पाठ करना चाहिए। यदि इस उपाय से लाभ न मिले तो मंगल देवता का विशेष पूजन करवाना चाहिए।

वृश्चिक
वृश्चिक राशि के जातक को विवाह संबंधी अड़चनों को दूर करने के लिए दत्त भगवान की तीन महीनें नियमित पूजा करना चाहिए। यदि इस उपाय से लाभ न मिले तो शुक्र का उपाय विधि-विधान से करना चाहिए।

धनु
यदि इस राशि के जातक के विवाह में दिक्कतें आ रही है तो उसे दो महीने तक हरवंश पुराण का पाठ करना चाहिए। इस उपाय से विवाह संबंधी मनोरथ पूर्ण होगी। यदि फिर भी लाभ न मिले तो बुध ग्रह की पूजा विधि-विधान से करें।

मकर
मकर राशि के जातक को विवाह संबंधी दिक्कतों को दूर करने के लिए प्रत्येक दिन बृहस्पति कवच का पाठ करना चाहिए। यदि इस उपाय से दो महीने में लाभ न मिले तो बृहस्पति देवता का विधि-विधान से पूजन करवाना चाहिए।

कुंभ
शीघ्र विवाह के लिए कुंभ राशि के जातकों को तीन महीने तक कुलगुरु स्मरणं का विधिवत पाठ करना है। यदि तीन महीने में इसका लाभ मिलता नजर न आए तो घर में एक हारण्य मणि की स्थापना कर उसकी विधि-विधान से पूजा करेंं

मीन
मीन राशि के जातकों को शीध्र विवाह के लिए 13 बृहस्पतिवार को श्री बृहस्पति अष्टोत्तर शत् नामावली का पाठ करना चाहिए।

अगर आपके घर मे लड्डू गोपाल जी है तो आप इस बातो का विशेष ध्यान रखे…

🌺 जय श्री कृष्णा 🌺

            🌷शुभ रात्रि वंदन जी 🌷

❤❤❤जय श्री राधेकृष्ण जी ❤❤❤



1 प्रथम तो यह बात मन में बैठाना बहुत आवश्यक है कि जिस भी घर में लड्डू गोपाल जी का प्रवेश हो जाता है वह घर लड्डू गोपाल जी का हो जाता है, इसलिए मेरा घर का भाव मन से समाप्त होना चाहिए अब वह लड्डू गोपाल जी का घर है।

2 दूसरी विशेष बात यह कि लड्डू गोपाल जी अब आपके परिवार के सदस्य है, सत्य तो यह है कि अब आपका परिवार लड्डू गोपाल जी का परिवार है। अतः लड्डू गोपाल जी को परिवार के एक सम्मानित सदस्य का स्थान प्रदान किया जाए।

3 परिवार के सदस्य की आवश्यक्ताओं के अनुसार ही लड्डू गोपाल जी की हर एक आवश्यकता का ध्यान रखा जाए।

4 एक विशेष बात यह कि लड्डू गोपाल जी किसी विशेष ताम झाम के नहीं आपके प्रेम और आपके भाव के भूखे हैं, अतः उनको जितना प्रेम जितना भाव अर्पित किया जाता है वह उतने आपके अपने होते हैं।

5 प्रति दिन प्रातः लड्डू जी को स्नान अवश्य कराएं, किन्तु स्नान कराने के लिए इस बात का विशेष ध्यान रखे कि जिस प्रकार घर का कोई सदस्य सर्दी में गर्म पानी व गर्मी में ठन्डे पानी से स्नान करता है, उसी प्रकार से लड्डू गोपाल जी के स्नान के लिए मौसम के अनुसार पानी का चयन करें। स्नान के बाद प्रति दिन धुले स्वस्छ वस्त्र पहनाएं।

6 जिस प्रकार आपको भूंख लगती है उसी प्रकार लड्डू गोपाल जी को भी भूंख लगती है अतः उनके भोजन का ध्यान रखे, भोजन के अतिरिक्त, सुबह का नाश्ता और शाम के चाय नाश्ते आदि का भी ध्यान रखे।

7 घर में कोई भी खाने की वस्तु आए लड्डू गोपाल जी को हिस्सा भी उसमे अवश्ये होना चाहिए।

8 प्रत्येक मौसम के अनुसार लड्डू गोपाल जी के लिए सर्दी गर्मी से बचाव का प्रबन्ध करना चाहिए, मौसम के अनुसार ही वस्त्र पहनाने चाहिएं।

9 लड्डू गोपाल जी को खिलौने बहुत प्रिये हैं उनके लिए खिलौने अवश्ये लेकर आएं और उनके साथ खेलें भी

10 समय समय पर लड्डू गोपाल जी को बाहर घुमाने भी अवश्य लेकर जाएं।

11 लड्डू गोपाल जी से कोई ना कोई नाता अवश्य कायम करें, चाहे वह भाई, पुत्र, मित्र, गुरु आदि कोई भी क्यों ना हो, जो भी नाता लड्डू गोपाल जी से बनाये उसको प्रेम और निष्ठा से निभाएं।

12 अपने लड्डू गोपाल जी को कोई प्यारा सा नाम अवश्य दें।

13 लड्डू गोपाल से प्रेम पूर्वक बाते करें, उनके साथ खेलें, जिस प्रकार घर के सदस्य को भोजन कराते हैं उसी प्रकार उनको भी प्रेम से भोजन कराएं। पहले लड्डू गोपाल को भोजन कराएँ उसके बाद स्वयं भोजन करें।

14 प्रतिदिन रात्री में लड्डू गोपाल जी को शयन अवश्य कराएं, जिस प्रकार एक छोटे बालक को प्रेम से सुलाते हैं उसी प्रकार से उनको भी सुलायें, थपथाएँ, लोरी सुनाएँ।

15 प्रतिदिन प्रातः प्रेम पूर्वक पुकार कर उनको जगाएं।

16 किसी भी घर में प्रवेश के साथ ही लड्डू गोपाल जी में प्राण प्रतिष्ठा हो जाती है इसलिए उनको मात्र प्रतीमा ना समझ कर घर के एक सदस्य के रूप में ही उनके साथ व्यवहार करें।

17 यूं तो प्रत्येक जन्माष्टमी पर लड्डू गोपाल जी की पूजा धूम-धाम से होती है, किन्तु यदि आपको वह तिथि पता है जिस दिन लड्डू गोपाल जी ने घर में प्रवेश किया तो उस तिथि को लड्डू गोपाल जी के जन्म दिन के रूप में मान कर प्रति वर्ष उस तिथि में उनका जन्म दिन अवश्य मनाएं , बच्चों को घर बुला कर उनके साथ लड्डू जी का जन्म दिन मनायें और बच्चों को खिलौने वितरित करें।

यूँ तो और भी बहुत से कार्य हैं जो भक्त अपनी श्रद्धा के अनुसार करते हैं, किन्तु यदि इन बातों पर ध्यान दिया जाए तो लड्डू गोपाल जी को सरलता से प्रसन्न किया जा सकता है।
सभी भक्त प्रेमी  जनों को जय श्रीराधे ...........🙏🌸

सोमवार, 19 नवंबर 2018

म्युचुअल फंड क्या है (पार्ट 3)

म्यचुअल फंड समझदार लोगों की टीम है जो पब्लिक से पैसा लेकर निवेश करती है तथा मुनाफा कमाती है और अपना कमीशन काटकर पब्लिक को वापस कर देती है 

रविवार, 18 नवंबर 2018

इन नौ तथ्यों को किसी गैर को न बतायें

आचार्य शुक्र के अनुसार इन नौ तथ्यों को किसी को नहीं बताना चाहिए |उनके अनुसार
श्लोक -आयुर्वित्तं गृहच्छिद्रं मंत्रमैथुनभेषजम्। दानमानापमानं च नवैतानि सुगोपयेतू।।
1. आयु 2. धन 3. घर के राज 4. मंत्र 5. मैथुन 6. औषधि 7.दान 8.सम्मान 9. अपमान

गुरुवार, 15 नवंबर 2018

देवशयनी एकादशी और तुलसी विवाह

कार्तिक महीने की देवउठनी एकादशी को पूरे चार महीने तक सोने के बाद जब भगवान विष्णु जागते हैं तो सबसे पहले तुलसी से विवाह करते हैं. भगवान विष्णु को तुलसी बहुत प्रिय हैं और केवल तुलसी दल अर्पित करके श्रीहरि को प्रसन्न किया जा सकता है. जो लोग तुलसी विवाह संपन्न कराते हैं, उनको वैवाहिक सुख मिलता है।鹿

राक्षस कन्या वृंदा को दिए एक आशीर्वाद के अनुसार, भगवान विष्णु ने वृंदा से विवाह करने के लिए शालिग्राम के अवतार में जन्म लिया. प्रबोधिनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु ने शालिग्राम के अवतार में तुलसी से विवाह किया था. इसीलिए हर साल प्रबोधिनी एकादशी को तुलसी पूजा की जाती है. आगे जानिए, वृंदा नाम की राक्षस कन्या कैसे बनी तुलसी और कैसे हुआ विष्णु के साथ तुलसी का विवाह..鹿

हिंदू धर्मग्रन्थों के अनुसार, वृंदा नाम की एक कन्या थी. वृंदा का विवाह समुद्र मंथन से उत्पन्न हुए जलंधर नाम के राक्षस से कर दिया गया. वृंदा भगवान विष्णु की भक्त के साथ एक पतिव्रता स्त्री थी जिसके कारण उसका पति जलंधर और भी शक्तिशाली हो गया।

यहां तक कि देवों के देव महादेव भी जलंधर को पराजित नहीं कर पा रहे थे. भगवान शिव समेत देवताओं ने जलंधर का नाश करने के लिए भगवान विष्णु से प्रार्थनी की. भगवान विष्णु ने जलंधर का भेष धारण किया और पहुंच गए वृंदा के पास।जब जलंधर ने वृंदा को स्वम् के जैसे दिखने वाले पुरुष को बात करते हुए देखा तो वो आगबबूला हो वृंदा को कुलटा कहा और पतिवृता वृंदा भी क्रुद्ध हो आशुरी कार्य करने लगी जिससे पतिव्रता स्त्री वृंदा की पवित्रता नष्ट कर दी.鹿

जब वृंदा की पवित्रता खत्म हो गई तो जालंधर की ताकत खत्म हो गई और भगवान शिव ने जालंधर को मार दिया. वृंदा को जब भगवान विष्णु की माया का पता चला तो वह क्रुद्ध हो गई और उन्हें भगवान विष्णु को काला पत्थर बनने (शालिग्राम पत्थर) श्राप दे दिया.
वृंदा ने भगवान विष्णु को श्राप दिया कि वह अपनी पत्नी से अलग हो जाएंगे. राम के अवतार में भगवान सीता माता से अलग होते हैं.
भगवान को पत्थर का होते देख सभी देवी-देवता में हाकाकार मच गया, फिर माता लक्ष्मी ने वृंदा से प्रार्थना की तब वृंदा ने जगत कल्याण के लिये अपना श्राप वापस ले लिया और खुद जलंधर के साथ सती हो गई.鹿

फिर उनकी राख से एक पौधा निकला जिसे भगवान विष्णु ने तुलसी नाम दिया और खुद के एक रुप को पत्थर में समाहित करते हुए कहा कि आज से तुलसी के बिना मैं प्रसाद स्वीकार नहीं करुंगा. इस पत्थर को शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा. कार्तिक महीने में तुलसी जी का शालिग्राम के साथ विवाह भी किया जाता है.
जो लोग तुलसी विवाह संपन्न कराते हैं, उनको वैवाहिक सुख मिलता है. देवोत्थान एकादशी पर केवल तुलसी विवाह ही नहीं होता है. इस व्रत के शुभ प्रभाव से शादी में आ रही सारी रुकावटें दूर होने लगती हैं और शुभ विवाह का योग जल्दी ही बन जाता है.鹿

️जय कन्हैया लाल की ️

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...