सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

स्त्री भेद वर्णन

पहिले कहौं हस्तिनी नारी । हस्ती कै परकीरति सारी ॥
सिर औ पायँ सुभर गिउ छोटी । उर कै खीनि, लंक कै मोटी ॥
कुंभस्थल कुच,मद उर माहीं । गवन गयंद,ढाल जनु बाहीं ॥
दिस्टि न आवै आपन पीऊ । पुरुष पराएअ ऊपर जिऊ ॥
भोजन बहुत, बहुत रति चाऊ । अछवाई नहिं, थोर बनाऊ ॥
मद जस मंद बसाइ पसेऊ । औ बिसवासि छरै सब केऊ ॥
डर औ लाज न एकौ हिये । रहै जो राखे आँकुस दिये ॥
गज-गति चलै चहूँ दिसि, चितवै लाए चोख ।
कही हस्तिनी नारि यह, सब हस्तिन्ह के दोख ॥1॥
दूसरि कहौं संखिनी नारी । करै बहुत बल अलप-अहारी ॥
उर अति सुभर, खीन अति लंका । गरब भरी, मन करै न संका ॥
बहुत रोष, चाहै पिउ हना । आगे घाल न काहू गना ॥
अपनै अलंकार ओहि भावा । देखि न सकै सिंगार परावा ॥
सिंघ क चाल चलै डग ढीली । रोवाँ बहुत जाँघ औ फीली ॥
मोटि , माँसु रुचि भोजन तासू । औ मुख आव बिसायँध बासू ॥
दिस्टि, तिरहुडी, हेर न आगे । जनु मथवाह रहै सिर लागे ॥
सेज मिलत स्वामी कहँ लावै उर नखबान ।
जेहि गुन सबै सिंघ के सो संखिनि, सुलतान !॥2॥
तीसरि कहौं चित्रिनी नारी । महा चतुर रस-प्रेम पियारी ॥
रूप सुरूप, सिंगार सवाई । अछरी जैसि रहै अछवाई ॥
रोष न जानै, हँसता-मुखी । जेहि असि नारी कंत सो सुखी ॥
अपने पिउ कै जानै पूजा । एक पुरुष तजि आन न दूजा ॥
चंदबदनि, रँग कुमुदिनि गोरी । चाल सोहाइ हंस कै जोरी ॥
खीर खाँड रुचि, अलप अहारू । पान फूल तेहि अधिक पियारू ॥
पदमिनि चाहि घाटि दुइ करा । और सबै गुन ओहि निरमरा ॥
चित्रिनि जैस कुमुद-रँग सोइ बासना अंग ।
पदमिनि सब चंदन असि, भँवर फिरहिं तेहि संग ॥3॥
चौथी कहौं पदमिनी नारी । पदुम-गंध ससि देउ सँवारी ॥
पदमिनि जाति पदुम-रँग ओही । पदुम-बास, मधुकर सँग होहीं ॥
ना सुठि लाँबी, ना सुठि छोटी । ना सुठि पातरि, ना सुठि मोटी ॥
सोरह करा रंग ओहि बानी । सो, सुलतान !पदमिनी जानी ॥
दीरघ चारि, चारि लघु सोई । सुभर चारि, चहुँ खीनौ होई ॥
औ ससि-बदन देखि सब मोहा । बाल मराल चलत गति सोहा ॥
खीर अहार न कर सुकुवाँरी । पान फूल के रहै अधारी ॥
सोरह करा सँपूरन औ सोरहौ सिंगार ।
अब ओहि भाँति कहत हौं जस बरनै संसार ॥4॥
प्रथम केस दीरघ मन मोहै । औ दीरघ अँगुरी कर सोहै ॥
दीरघ नैन तीख तहँ देखा । दीरघ गीउ, कंठ तिनि रेखा ॥
पुनि लघु दसन होहिं जनु हीरा । औ लघु कुच उत्तंग जँभीरा ॥
लघु लिलाट छूइज परगासू । औ नाभी लघु, चंदन बासू ॥
नासिक खीन खरग कै धारा । खीन लंक जनु केहरि हारा ॥
खीन पेट जानहुँ नहिं आँता । खीन अधर बिद्रुम-रँग-राता ॥
सुभर कपोल, देख मुख सोभा । सुभर नितंब देखि मन लोभा ॥
सुभर कलाई अति बनी, सुभर जंघ, गज चाल ।
सोरह सिंगार बरनि कै , करहिं देवता लाल ॥5॥

(1) अछवाई = सफाई । बनाऊ = बनाव सिंगार । बसाइ = दुर्गंध करता है । चोख = चंचलता या नेत्र
(2) सुभर = भरा हुआ । चाहै पिउ हना = पति को कभी कभी मारने दौडती है । घाल न गना = कुछ नहीं समझती, पसंगे बराबर नहीं समझती । फीली = पिंडली । तरहुँडी = नीचा । हेर = देखती है । मथवाह = झालरदार पट्टी जो भडकनेवाले घोडों के मत्थे पर इसलिये बाँध दी जाती है जिसमें वे इधर उधर की वस्तु देख न सकें । जेहि गुन सबै सिंघ के = कवि ने शायद शंखिनी के स्थान पर `सिंघिनी' समझा है ।
(3) सवाई = अधिक । अछवाई = साफ, निखरी । चाहि = अपेक्षा, बनिस्बत । घाटि =घटकर । करा = कला । बासना = बास, महँक ।
(4) सुठि = खूब, बहुत । दीरघ चारि...होइ = ये सोलह श्रृंगार के विभाग हैं ।
(5) दीरघ = लंबे । तीख = तीखे । तिनि = तीन । केहरि हारा = सिंह ने हार कर दी । आँता = अँतडी । सुभर = भरे हुए । लाल = लालसा ।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पिशाच भाष्य

पिशाच भाष्य  पिशाच के द्वारा लिखे गए भाष्य को पिशाच भाष्य कहते है , अब यह पिशाच है कौन ? तो यह पिशाच है हनुमानजी तो हनुमानजी कैसे हो गये पिशाच ? जबकि भुत पिशाच निकट नहीं आवे ...तो भीमसेन को जो वरदान दिया था हनुमानजी ने महाभारत के अनुसार और भगवान् राम ही कृष्ण बनकर आए थे तो अर्जुन के ध्वज पर हनुमानजी का चित्र था वहाँ से किलकारी भी मारते थे हनुमानजी कपि ध्वज कहा गया है या नहीं और भगवान् वहां सारथि का काम कर रहे थे तब गीता भगवान् ने सुना दी तो हनुमानजी ने कहा महाराज आपकी कृपा से मैंने भी गीता सुन ली भगवान् ने कहा कहाँ पर बैठकर सुनी तो कहा ऊपर ध्वज पर बैठकर तो वक्ता नीचे श्रोता ऊपर कहा - जा पिशाच हो जा हनुमानजी ने कहा लोग तो मेरा नाम लेकर भुत पिशाच को भगाते है आपने मुझे ही पिशाच होने का शाप दे दिया भगवान् ने कहा - तूने भूल की ऊपर बैठकर गीता सुनी अब इस पर जब तू भाष्य लिखेगा तो पिशाच योनी से मुक्त हो जाएगा तो हमलोगों की परंपरा में जो आठ टिकाए है संस्कृत में उनमे एक पिशाच भाष्य भी है !

मनुष्य को किस किस अवस्थाओं में भगवान विष्णु को किस किस नाम से स्मरण करना चाहिए।?

 मनुष्य को किस किस अवस्थाओं में भगवान विष्णु को किस किस नाम से स्मरण करना चाहिए। 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ भगवान विष्णु के 16 नामों का एक छोटा श्लोक प्रस्तुत है। औषधे चिंतयते विष्णुं, भोजन च जनार्दनम। शयने पद्मनाभं च विवाहे च प्रजापतिं ॥ युद्धे चक्रधरं देवं प्रवासे च त्रिविक्रमं। नारायणं तनु त्यागे श्रीधरं प्रिय संगमे ॥ दुःस्वप्ने स्मर गोविन्दं संकटे मधुसूदनम् । कानने नारसिंहं च पावके जलशायिनाम ॥ जल मध्ये वराहं च पर्वते रघुनन्दनम् । गमने वामनं चैव सर्व कार्येषु माधवम् ॥ षोडश एतानि नामानि प्रातरुत्थाय य: पठेत ।  सर्व पाप विनिर्मुक्ते, विष्णुलोके महियते ॥ (1) औषधि लेते समय विष्णु (2) भोजन के समय - जनार्दन (3) शयन करते समय - पद्मनाभ   (4) विवाह के समय - प्रजापति (5) युद्ध के समय चक्रधर (6) यात्रा के समय त्रिविक्रम (7) शरीर त्यागते समय - नारायण (8) पत्नी के साथ - श्रीधर (9) नींद में बुरे स्वप्न आते समय - गोविंद  (10) संकट के समय - मधुसूदन  (11) जंगल में संकट के समय - नृसिंह (12) अग्नि के संकट के समय जलाशयी  (13) जल में संकट के समय - वाराह (14) पहाड़ पर ...

कार्तिक माहात्म्य (स्कनदपुराण के अनुसार)

 *कार्तिक माहात्म्य (स्कनदपुराण के अनुसार) अध्याय – ०३:--* *(कार्तिक व्रत एवं नियम)* *(१) ब्रह्मा जी कहते हैं - व्रत करने वाले पुरुष को उचित है कि वह सदा एक पहर रात बाकी रहते ही सोकर उठ जाय।*  *(२) फिर नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा भगवान् विष्णु की स्तुति करके दिन के कार्य का विचार करे।*  *(३) गाँव से नैर्ऋत्य कोण में जाकर विधिपूर्वक मल-मूत्र का त्याग करे। यज्ञोपवीत को दाहिने कान पर रखकर उत्तराभिमुख होकर बैठे।*  *(४) पृथ्वी पर तिनका बिछा दे और अपने मस्तक को वस्त्र से भलीभाँति ढक ले,*  *(५) मुख पर भी वस्त्र लपेट ले, अकेला रहे तथा साथ जल से भरा हुआ पात्र रखे।*  *(६) इस प्रकार दिन में मल-मूत्र का त्याग करे।*  *(७) यदि रात में करना हो तो दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके बैठे।*  *(८) मलत्याग के पश्चात् गुदा में पाँच (५) या सात (७) बार मिट्टी लगाकर धोवे, बायें हाथ में दस (१०) बार मिट्टी लगावे, फिर दोनों हाथों में सात (७) बार और दोनों पैरों में तीन (३) बार मिट्टी लगानी चाहिये। - यह गृहस्थ के लिये शौच का नियम बताया गया है।*  *(९) ब्रह्मचारी के लिये, इसस...