गुरुवार, 30 अगस्त 2018

शत्रुघ्न जी महाराज का त्याग

भरत जी तो नंदिग्राम में रहते हैं, शत्रुघ्नलालजी महाराज उनके आदेश से राज्य संचालन करते हैं ।
एक एक दिन रात करते करते, भगवान को वनवास हुए तेरह वर्ष बीत गए ।
एक रात की बात है, कौशल्या जी को सोते में अपने महल की छत पर किसी के चलने की आहट सुनाई दी । नींद खुल गई । पूछा कौन है ?
मालूम पड़ा श्रुतिकीर्तिजी हैं । नीचे बुलाया गया ।
श्रुति, जो सबसे छोटी हैं, आईं, चरणों में प्रणाम कर खड़ी रह गईं ।
राममाता ने पूछा, श्रुति ! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही हो बिटिया ? क्या नींद नहीं आ रही ? शत्रुघ्न कहाँ है ?
श्रुति की आँखें भर आईं, माँ की छाती से चिपटी, गोद में सिमट गईं, बोलीं, माँ उन्हें तो देखे हुए तेरह वर्ष हो गए ।
उफ ! कौशल्या जी का कलेजा काँप गया ।
तुरंत आवाज लगी, सेवक दौड़े आए । आधी रात ही पालकी तैयार हुई, आज शत्रुघ्नजी की खोज होगी, माँ चलीं ।
आपको मालूम है शत्रुघ्नजी कहाँ मिले ?
अयोध्या के जिस दरवाजे के बाहर भरतजी नंदिग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं, उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला है, उसी शिला पर, अपनी बाँह का तकिया बनाकर लेटे मिले ।
माँ सिराहने बैठ गईं, बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्नजी ने आँखें खोलीं, माँ !
उठे, चरणों में गिरे, माँ ! आपने क्यों कष्ट किया ? मुझे बुलवा लिया होता ।
माँ ने कहा, शत्रुघ्न ! यहाँ क्यों ?
शत्रुघ्नजी की रुलाई फूट पड़ी, बोले- माँ ! भैया राम पिताजी की आज्ञा से वन चले गए, भैया लक्षमण भगवान के पीछे चले गए, भैया भरत भी नंदिग्राम में हैं, क्या ये महल, ये रथ, ये राजसी वस्त्र, विधाता ने मेरे ही लिए बनाए हैं ?
कौशल्याजी निरुत्तर रह गईं ।
देखो यह रामकथा है...
यह भोग की नहीं त्याग की कथा है, यहाँ त्याग की प्रतियोगिता चल रही है, और सभी प्रथम हैं, कोई पीछे नहीं रहा ।
चारो भाइयो का प्रेम और त्याग  एक दूसरे के प्रति अलौकिक है ।

भगवान शिव के 35 रहस्य

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 💐1. आदिनाथ शिव  💐
सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें 'आदिदेव' भी कहा जाता है। 'आदि' का अर्थ प्रारंभ। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम 'आदिश' भी है।
 💐 2. शिव के अस्त्र-शस्त्र  💐
शिव का धनुष पिनाक, चक्र भवरेंदु और सुदर्शन, अस्त्र पाशुपतास्त्र और शस्त्र त्रिशूल है। उक्त सभी का उन्होंने ही निर्माण किया था।
 💐 3. शिव का नाग  💐
शिव के गले में जो नाग लिपटा रहता है उसका नाम वासुकि है। वासुकि के बड़े भाई का नाम शेषनाग है।
 💐 4. शिव की अर्द्धांगिनी
शिव की पहली पत्नी सती ने ही अगले जन्म में पार्वती के रूप में जन्म लिया और वही उमा काली कहलाई।
 💐 5. शिव के पुत्र  💐
शिव के प्रमुख 6 पुत्र हैं- गणेश, कार्तिकेय, सुकेश, जलंधर, अयप्पा और भूमा। सभी के जन्म की कथा रोचक है।
 💐 6. शिव के शिष्य  💐
शिव के 7 शिष्य हैं जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है। इन ऋषियों ने ही शिव के ज्ञान को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया जिसके चलते भिन्न-भिन्न धर्म और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी। शिव के शिष्य हैं- बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे।
 💐 7. शिव के गण  💐
शिव के गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय प्रमुख हैं। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। शिवगण नंदी ने ही 'कामशास्त्र' की रचना की थी। 'कामशास्त्र' के आधार पर ही 'कामसूत्र' लिखा गया।
 💐 8. शिव पंचायत  💐
भगवान सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।
 💐 9. शिव के द्वारपाल  💐
नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल।
 💐 10. शिव पार्षद  💐
जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं।
 💐 11. सभी धर्मों का केंद्र शिव  💐
शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक ढूंढ सकते हैं। मुशरिक, यजीदी, साबिईन, सुबी, इब्राहीमी धर्मों में शिव के होने की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। शिव के शिष्यों से एक ऐसी परंपरा की शुरुआत हुई, जो आगे चलकर शैव, सिद्ध, नाथ, दिगंबर और सूफी संप्रदाय में विभक्त हो गई।
 💐 12. बौद्ध साहित्यके मर्मज्ञ अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान प्रोफेसर उपासक का मानना है कि शंकर ने ही बुद्ध के रूप में जन्म लिया था। उन्होंने पालि ग्रंथों में वर्णित 27 बुद्धों का उल्लेख करते हुए बताया कि इनमें बुद्ध के 3 नाम अतिप्राचीन हैं- तणंकर, शणंकर और मेघंकर।
 💐 13. देवता और असुर दोनों के प्रिय शिव  💐
भगवान शिव को देवों के साथ असुर, दानव, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, यक्ष आदि सभी पूजते हैं। वे रावण को भी वरदान देते हैं और राम को भी। उन्होंने भस्मासुर, शुक्राचार्य आदि कई असुरों को वरदान दिया था। शिव, सभी आदिवासी, वनवासी जाति, वर्ण, धर्म और समाज के सर्वोच्च देवता हैं।
 💐 14. शिव चिह्न  💐
वनवासी से लेकर सभी साधारण व्यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्द्ध चन्द्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं, हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं।
 💐 15. शिव की गुफा  💐
शिव ने भस्मासुर से बचने के लिए एक पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। दूसरी ओर भगवान शिव ने जहां पार्वती को अमृत ज्ञान दिया था वह गुफा 'अमरनाथ गुफा' के नाम से प्रसिद्ध है।
 💐 16. शिव के पैरों के निशान  💐
 💐 श्रीपद  💐 श्रीलंका में रतन द्वीप पहाड़ की चोटी पर स्थित श्रीपद नामक मंदिर में शिव के पैरों के निशान हैं। ये पदचिह्न 5 फुट 7 इंच लंबे और 2 फुट 6 इंच चौड़े हैं। इस स्थान को सिवानोलीपदम कहते हैं। कुछ लोग इसे आदम पीक कहते हैं।
 💐 रुद्र पद  💐 तमिलनाडु के नागपट्टीनम जिले के थिरुवेंगडू क्षेत्र में श्रीस्वेदारण्येश्वर का मंदिर में शिव के पदचिह्न हैं जिसे 'रुद्र पदम' कहा जाता है। इसके अलावा थिरुवन्नामलाई में भी एक स्थान पर शिव के पदचिह्न हैं।
 💐 तेजपुर  💐असम के तेजपुर में ब्रह्मपुत्र नदी के पास स्थित रुद्रपद मंदिर में शिव के दाएं पैर का निशान है।
 💐 जागेश्वर  💐 उत्तराखंड के अल्मोड़ा से 36 किलोमीटर दूर जागेश्वर मंदिर की पहाड़ी से लगभग साढ़े 4 किलोमीटर दूर जंगल में भीम के मंदिर के पास शिव के पदचिह्न हैं। पांडवों को दर्शन देने से बचने के लिए उन्होंने अपना एक पैर यहां और दूसरा कैलाश में रखा था।
 💐 रांची  💐झारखंड के रांची रेलवे स्टेशन से 7 किलोमीटर की दूरी पर 'रांची हिल' पर शिवजी के पैरों के निशान हैं। इस स्थान को 'पहाड़ी बाबा मंदिर' कहा जाता है।
 💐 17. शिव के अवतार  💐
वीरभद्र, पिप्पलाद, नंदी, भैरव, महेश, अश्वत्थामा, शरभावतार, गृहपति, दुर्वासा, हनुमान, वृषभ, यतिनाथ, कृष्णदर्शन, अवधूत, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, किरात, सुनटनर्तक, ब्रह्मचारी, यक्ष, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, द्विज, नतेश्वर आदि हुए हैं। वेदों में रुद्रों का जिक्र है। रुद्र 11 बताए जाते हैं- कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शंभू, चण्ड तथा भव।
 💐 18. शिव का विरोधाभासिक परिवार  💐
शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, जबकि शिव के गले में वासुकि नाग है। स्वभाव से मयूर और नाग आपस में दुश्मन हैं। इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि सांप मूषकभक्षी जीव है। पार्वती का वाहन शेर है, लेकिन शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। इस विरोधाभास या वैचारिक भिन्नता के बावजूद परिवार में एकता है।
19. तिब्बतस्थित कैलाश पर्वत पर उनका निवास है। जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है जो भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है।
20.शिव भक्त :ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवी-देवताओं सहित भगवान राम और कृष्ण भी शिव भक्त है। हरिवंश पुराण के अनुसार, कैलास पर्वत पर कृष्ण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। भगवान राम ने रामेश्वरम में शिवलिंग स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की थी।
21.शिव ध्यान :शिव की भक्ति हेतु शिव का ध्यान-पूजन किया जाता है। शिवलिंग को बिल्वपत्र चढ़ाकर शिवलिंग के समीप मंत्र जाप या ध्यान करने से मोक्ष का मार्ग पुष्ट होता है।
22.शिव मंत्र :दो ही शिव के मंत्र हैं पहला- ॐ नम: शिवाय। दूसरा महामृत्युंजय मंत्र- ॐ ह्रौं जू सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जू ह्रौं ॐ ॥ है।
23.शिव व्रत और त्योहार :सोमवार, प्रदोष और श्रावण मास में शिव व्रत रखे जाते हैं। शिवरात्रि और महाशिवरात्रि शिव का प्रमुख पर्व त्योहार है।
24.शिव प्रचारक :भगवान शंकर की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया। इसके अलावा वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, बाण, रावण, जय और विजय ने भी शैवपंथ का प्रचार किया। इस परंपरा में सबसे बड़ा नाम आदिगुरु भगवान दत्तात्रेय का आता है। दत्तात्रेय के बाद आदि शंकराचार्य, मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गुरुगोरखनाथ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
25.शिव महिमा :शिव ने कालकूट नामक विष पिया था जो अमृत मंथन के दौरान निकला था। शिव ने भस्मासुर जैसे कई असुरों को वरदान दिया था। शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। शिव ने गणेश और राजा दक्ष के सिर को जोड़ दिया था। ब्रह्मा द्वारा छल किए जाने पर शिव ने ब्रह्मा का पांचवां सिर काट दिया था।
26.शैव परम्परा :दसनामी, शाक्त, सिद्ध, दिगंबर, नाथ, लिंगायत, तमिल शैव, कालमुख शैव, कश्मीरी शैव, वीरशैव, नाग, लकुलीश, पाशुपत, कापालिक, कालदमन और महेश्वर सभी शैव परंपरा से हैं। चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी शिव की परंपरा से ही माने जाते हैं। भारत की असुर, रक्ष और आदिवासी जाति के आराध्य देव शिव ही हैं। शैव धर्म भारत के आदिवासियों का धर्म है।
27.शिव के प्रमुख नाम :शिव के वैसे तो अनेक नाम हैं जिनमें 108 नामों का उल्लेख पुराणों में मिलता है लेकिन यहां प्रचलित नाम जानें- महेश, नीलकंठ, महादेव, महाकाल, शंकर, पशुपतिनाथ, गंगाधर, नटराज, त्रिनेत्र, भोलेनाथ, आदिदेव, आदिनाथ, त्रियंबक, त्रिलोकेश, जटाशंकर, जगदीश, प्रलयंकर, विश्वनाथ, विश्वेश्वर, हर, शिवशंभु, भूतनाथ और रुद्र।
28.अमरनाथ के अमृत वचन :शिव ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। 'विज्ञान भैरव तंत्र' एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।
29.शिव ग्रंथ :वेद और उपनिषद सहित विज्ञान भैरव तंत्र, शिव पुराण और शिव संहिता में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है।
30.शिवलिंग :वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है, उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि। यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना है।
31.बारह ज्योतिर्लिंग :सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ॐकारेश्वर, वैद्यनाथ, भीमशंकर, रामेश्वर, नागेश्वर, विश्वनाथजी, त्र्यम्बकेश्वर, केदारनाथ, घृष्णेश्वर। ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में अनेकों मान्यताएं प्रचलित है। ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। जो शिवलिंग के बारह खंड हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है। दूसरी मान्यता अनुसार शिव पुराण के अनुसार प्राचीनकाल में आकाश से ज्योति पिंड पृथ्वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेकों उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। भारत में गिरे अनेकों पिंडों में से प्रमुख बारह पिंड को ही ज्योतिर्लिंग में शामिल किया गया।
32.शिव का दर्शन :शिव के जीवन और दर्शन को जो लोग यथार्थ दृष्टि से देखते हैं वे सही बुद्धि वाले और यथार्थ को पकड़ने वाले शिवभक्त हैं, क्योंकि शिव का दर्शन कहता है कि यथार्थ में जियो, वर्तमान में जियो, अपनी चित्तवृत्तियों से लड़ो मत, उन्हें अजनबी बनकर देखो और कल्पना का भी यथार्थ के लिए उपयोग करो। आइंस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कि कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
33.शिव और शंकर :शिव का नाम शंकर के साथ जोड़ा जाता है। लोग कहते हैं– शिव, शंकर, भोलेनाथ। इस तरह अनजाने ही कई लोग शिव और शंकर को एक ही सत्ता के दो नाम बताते हैं। असल में, दोनों की प्रतिमाएं अलग-अलग आकृति की हैं। शंकर को हमेशा तपस्वी रूप में दिखाया जाता है। कई जगह तो शंकर को शिवलिंग का ध्यान करते हुए दिखाया गया है। अत: शिव और शंकर दो अलग अलग सत्ताएं है। हालांकि शंकर को भी शिवरूप माना गया है। माना जाता है कि महेष (नंदी) और महाकाल भगवान शंकर के द्वारपाल हैं। रुद्र देवता शंकर की पंचायत के सदस्य हैं।
34.देवों के देव महादेव :देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं। वे राम को भी वरदान देते हैं और रावण को भी।

माद्री

पाण्डु की दो पत्नियां थीं - माद्री और कुंती| दोनों रूपवती और गुणवती थीं| दोनों के हृदय में धर्म और कर्तव्य के प्रति अत्यधिक निष्ठा थी| दोनों पाण्डु को अपने जीवन का सर्वस्व समझती थीं| दोनों में परस्पर बड़ा प्रेम था| माद्री अवस्था में कुछ बड़ी थी| अत: कुंती उसे अपनी बड़ी बहन समझती थी|

माद्री मद्र देश की राजकन्या थी| कुंती का जन्म शूरसेन प्रदेश में हुआ था| दोनों के जन्मस्थान में बहुत बड़ा अंतर था, किंतु दोनों ने अपने हृदय की विशालता और उदारता से उस अंतर को पाट दिया था| दोनों का पृथक-पृथक शरीर था, पृथक-पृथक नाम भी था, किंतु दोनों को शरीर एक प्राण थीं| दोनों में कभी भी अधिकार को लेकर विवाद उत्पन्न नहीं हुआ| पाण्डु चाहे जिसके भवन में रहें, दोनों सुखी और संतुष्ट रहती थीं|

पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों को समान रूप से प्यार करते थे| एक बार वेदव्यास जी ने पाण्डु से पूछा, राजन ! आप अपनी दोनों पत्नियों में किसे सबसे अधिक प्यार करते हैं?

पाण्डु ने उत्तर दिया, व्यास जी, मैं तो जानता ही नहीं कि मेरी दो पत्नियां हैं| मेरी दोनों पत्नियां एक समान हैं| इसलिए मैं क्या बताऊं कि मैं किसे सबसे अधिक प्यार करता हूं|

कुंती के गर्भ से तीन और माद्री के गर्भ से दो पुत्र पैदा हुए थे| कुंती के पुत्रों का नाम - युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन था| माद्री के पुत्रों का नाम था - नकुल और सहदेव| जिस प्रकार कुंती और माद्री में परस्पर प्रेम था, उसी प्रकार कुंती और माद्री के पुत्रों में भी परस्पर बड़ा प्रेम था| उनके प्रेम को देखकर कोई कह नहीं सकता था कि वे दो मांओं की संतानें हैं| वे निरंतर पांचों उंगलियों की भांति आपस में मिलजुलकर रहते थे|

पाण्डु अपने जीवन के अंतिम दिनों में एक अभिशाप के कारण पर्वत पर तप करने के लिए चले गए थे| साथ में उनकी दोनों पत्नियां और पुत्र भी थे| संयोग की बात, वहीं पाण्डु का स्वर्गवास हो गया|

पाण्डु के स्वर्गवास होने पर उनकी दोनों पत्नियों ने उनके साथ ही मर जाने का निश्चय किया| उन दिनों भारत की कर्तव्यप्रिय और धर्मशील स्त्री अपने पति की मृत्यु के पश्चात जीवित रहना पसंद नहीं करती थी| वह वैधव्य को जीवन का कलंक मानती थी| अत: पति के साथ ही साथ अपने अस्तित्व की रेखा को भी मिटा देती थी|

माद्री के साथ ही साथ जब कुंती भी पाण्डु के साथ मर जाने के लिए उद्यत हुई, तो माद्री चिंतित हो उठी| वह कुंती से बोली, बहन, मैं तुम्हारे धर्मपालन में विघ्न नहीं डाल रही हूं, किंतु तुम्हारा ध्यान एक ओर अवश्य खींचना चाहती हूं| मैं तुमसे उम्र में बड़ी हूं| अत: तुम्हारा ध्यान खींचना अपना कर्तव्य भी मानती हूं| स्वर्गवासी महाराज के पांच पुत्र हैं| तीन तुम्हारे गर्भ से पैदा हुए हैं और दो मेरे गर्भ से| अभी पांचों छोटी वय के हैं| यदि महाराज के साथ हम दोनों भी स्वर्ग चली जाएंगी तो, उनका पालन-पोषण कैसे होगा? माद्री कहते-कहते मौन हो गई| उसका गला रुंध-सा गया| वह कुछ क्षणों तक मौन रहकर पुन: बोली, तुमने मुझे सदा अपनी बड़ी बहन समझा है| मैं तुमसे अंचल फैलाकर भिक्षा मांग रही हूं| अपने लिए नहीं, स्वर्गवासी महाराज के पुत्रों के लिए| तुम अपने को जीवित रखो पुत्रों का पालन-पोषण करना भी बहुत बड़ा तप होता है| तुम्हारे द्वारा पालित और पोषित होकर पांचों राजकुमार जब बड़े होंगे, तो समाज और देश की सेवा करेंगे| तुम्हारा नाम अमिट हो जाएगा बहन|

कुंती ने जिस प्रकार सदा माद्री के सामने मस्तक झुकाया था, उसी प्रकार आज भी उसका मस्तक झुक गया| उसकी आंखें भर आईं| उसने आंखों के सागर के मोतियों को बिखेरते हुए कहा, बहन माद्री, तुम जो चाहती हो, मैं वही करूंगी|

माद्री साश्रुनयन पुन: बोली, कुंती मुझे तुम पर भरोसा है| मैं गंगा पर अविश्वास कर सकती हूं, पर तुम पर नहीं कर सकती| फिर भी बहन, मैं एक मां हूं| मैं अपने दो छोटे-छोटे पुत्रों को तुम्हारे ही भरोसे छोड़कर जा रही हूं| तुम इन्हें देखना| ये दोनों कभी भी यह नहीं समझने पाएं कि इनकी मां नहीं है|

कथन को समाप्त करते-करते माद्री के हृदय के टुकड़े गल-गलकर उसकी आंखों की राह से बहने लगे| कुंती ने कोई उत्तर नहीं दिया| वह माद्री के गिरते हुए आंसुओं को देखकर मूक-सी बन गई| वह माद्री की आंखों के मोतियों को बीन-बीनकर अपने अंचल में रखने लगी| उसने अपने पल्लू से माद्री की आंखों के आंसुओं को पोंछते हुए कहा, बहन माद्री, मैं प्राण दे दूंगी, पर तुम्हारे विश्वास के तार को टूटने नहीं दूंगी|

माद्री ने पाण्डु के साथ ही अपने शरीर का त्याग कर दिया| कुंती पांचों पुत्रों को लेकर तप करने लगी, उन्हें पालने और पोसने में अपने को मिटाने लगी|

महाभारत के पृष्ठों से पता चलता है कि कुंती ने पांचों पुत्रों को समान प्यार देने में विधाता को भी पीछे छोड़ दिया था| विधाता ने हाथों और पैरों में पांच उंगलियां बनाई हैं जो परस्पर छोटी और बड़ी हैं, किंतु कुंती के प्रेम के हाथ की उंगलियां कभी भी छोटी-बड़ी नहीं हुईं| धन्य थी कुंती ! उसने माता के कर्तव्य का पालन जिस तरह किया उसके लिए जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम ही होगी| वह अपने कर्तव्य-पालन से ही अमर बन गई है| स्वर्ग की देवियों के आसन पर बैठने के योग्य बन गई है|

सोमवार, 27 अगस्त 2018

SugarCane गन्ने के फायदे

गन्ना (sugar cane) दिलाएगा इन 49 बीमारियों से राहत

गन्ने का परिचय-
आहार के 6 रसों में मधुर रस का विशेष महत्व है। गुड़, चीनी, शर्करा आदि मधुर (मीठे) पदार्थ गन्ने के रस से बनते हैं। गन्ने का मूल जन्म स्थान भारत है। हमारे देश में यह पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, दक्षिण भारत आदि प्रदेशों में अधिक मात्रा में उगाया जाता है। संसार के अन्य देशों में जावा, क्यूबा, मारीशस, वेस्टइण्डीज, पूर्वी अफ्रीका आदि देशों में बहुत अधिक मात्रा में गन्ने का उत्पादन किया जाता है। 1 साल में गन्ने की बुवाई तीन बार जनवरी-फरवरी, जून-जुलाई और अक्टूबर-नवम्बर में की जाती है। गन्ने को ईख या साठा भी कहते हैं।

वात एवं पित्त से जिनका वीर्य दूषित हो गया हो उनके लिए गन्ने का रस लाभप्रद है। गन्ने का रस पेशाब के अवरोध को खत्म करता है। यह गले के लिए भी हितकारी है। गन्ना शर्करा की तरह मधुर (मीठा) होता है। यह पुष्टिबल (ताकत) देने वाला और तृप्तदायक (प्यास) बुझाने वाला है।अम्लपित्त, थकान, मूत्रकृच्छ, भ्रम, जलन, प्यास और दुर्बलता में गन्ना का रस लाभप्रद है। पीलिया रोग में गन्ना बहुत ही लाभकारी होता है। पीलिया से पीड़ित रोगी को गन्ने को चूसकर सेवन करना चाहिए। इससे पेशाब खुलकर आता है और पीलिया में शीघ्र ही आराम मिलता है। गन्ने का रस चूसने से थकान दूर होती है। इसका रस स्त्रियों के स्तनों में दूध की वृद्धि करता है। यह शरीर को शक्तिशाली और बुद्धिमान बनाता है और वीर्य की वृद्धि करता है। जिन्हें थोड़ा सा ही परिश्रम करने से थकान हो जाती है। उनके लिए गन्ने का रस बहुत ही लाभकारी होता है। शरीर के किसी भी हिस्से में होने वाली जलन के लिए गन्ना लाभकारी होता है।

गन्ने का रस भोजन से पहले सेवन करने से पित्त का नाश होता है। यह बाद में खाने से वायु (गैस) तथा मन्दाग्नि (भूख) करता है। गन्ने का कोई भी हिस्सा व्यर्थ नहीं होता है। इसके जड़ के टुकड़े पशुओं को खिलाएं जाते हैं। सभी प्रकार के गन्ने का रस-पित्त को मिटाने वाला, बलप्रद, सेक्स शक्ति को बढ़ाने वाला, कफ को बढ़ाने वाला, रस तथा पाक में मीठा, चिकना, भारी, मूत्रवर्धक और शीतल है। कच्चा गन्ना कफ, भेद तथा प्रमेह उत्पन्न करता है। मध्यम गन्ना वायुनाशक, मधुर और पित्तनाशक है।

हानिकारक : ईख मधुर, ठण्डा तथा चिकना होता है। अत: मधुमेह, बुखार, सर्दी, मन्दाग्नि, त्वचा रोग और कृमि रोगों में छोटे बच्चों के लिए हितकारी नहीं है। इसके अलावा जिन लोगों को जुकाम, श्वास और खांसी की स्थायी तकलीफ बनी रहती है तथा जो कफ प्रकृति वाले व्यक्ति हो तो उन्हें गन्ने का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए।

विभिन्न रोगों में उपयोग :

1. पेट दर्द:

5 किलो गन्ने के रस को चिकनी मिट्टी के बर्तन में भरकर उसके मुंह को कपड़े में मिट्टी भरकर बंद कर देते हैं। 1 सप्ताह बाद इसे खोलकर रस को छानकर रख लें। फिर 1 महीने में इस रस में 3 ग्राम कालानमक मिलाकर मिश्रण बना लें। इसे 10 मिलीलीटर की मात्रा में गुनगुना करके पिलाने से पेट का दर्द शीघ्र ही दूर हो जाता है।
गुड़ के साथ अजवायन चूर्ण 2-4 ग्राम मिलाकर सेवन करने से तथा पथ्यपूर्वक रहने से 7 दिनों में रक्तज विकार विशेषकर पेट का दर्द ठीक हो जाता है।
2. अरुचि (भोजन की इच्छा) न होना: गन्ने के रस को आग या धूप में हल्का गर्म करके शीशी या चीनी मिट्टी के बर्तन के अन्दर भरकर रखें। इस रस का 7 दिनों के बाद सेवन करने से अरुचि नष्ट हो जाती है और भोजन पचने की क्रिया भी तेज हो जाती है। इस रस से कुल्ला करने से गला साफ हो जाता है। इस रस को 10 से 20 ग्राम तक ही सेवन करना चाहिए।



3. मूत्रकृच्छ (पेशाब करने में कष्ट या जलन होना):

गन्ने के ताजे रस को पीने से पेशाब खुलकर आता है एवं मूत्रसंबन्धी समस्त रोग दूर होते हैं।
40 से 60 ग्राम गन्ने के जड़ का काढ़ा रोगी को पिलाने से पेशाब की जलन समाप्त हो जाती है।
गन्ने के रस को पकाने के बाद जब रस आधा रह जाए तो ठण्डा होने पर उसमें चौथाई शहद मिलाकर मिट्टी के बर्तन में रख देते हैं या तो गन्ने का रस 120 ग्राम, गुड़ 10 ग्राम और शहद 20 ग्राम को एक साथ मिलाकर बर्तन में 2 महीने तक रखकर सिरका बना लेते हैं। इस सिरके को 10 से 20 ग्राम की मात्रा में पानी के साथ मिलाकर सेवन करने से बुखार की जलन और मूत्रकृच्छ (पेशाब की जलन) के रोग में लाभ होता है।
4. कास (खांसी): 1 किलो गन्ने के ताजे रस में, 250 ग्राम ताजा शुद्ध घी मिलाकर पकाते रहें जब घी की मात्रा शेष रह जाए तब 10 ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम सेवन करने से कास (खांसी) के रोग में बहुत लाभ होता है।

5. मन्थर ज्वर: गन्ने के 10 ग्राम रस में 30 ग्राम पानी मिलाकर हल्के हाथों से शरीर पर लगाने से चेचक, मसूरिका तथा मन्थर ज्वर दूर हो जाता है।

6. प्रतिश्याय (नजला-जुकाम): 10 ग्राम गुड़, 40 ग्राम दही, 3 ग्राम मिर्च का चूर्ण, तीनों को मिलाकर सुबह 3 दिन तक लेने से बिगड़ा हुआ सूखा जुकाम, नाक और मुंह से दुर्गन्ध आना, गला पक जाना, कास श्वासयुक्त प्रतिश्याय रोग नष्ट हो जाता है।

7. शक्तिवर्धक (ताकत को बढ़ाने वाला): गन्ना भोजन पचाता है और भरपूर शक्ति भी प्रदान करता है। यह शरीर को मोटा करता है तथा पेट की गर्मी तथा सीने की जलन को दूर करती है।

8. हिक्का (हिचकी):

थोडे़ से गुड़ को पानी में घोलकर और उसमें थोड़ी सी सोंठ को घिसकर रोगी के नाक के नथुने में डालने से हिक्का व सिर दर्द का रोग मिट जाता है।
केवल गन्ने के रस का सेवन 10-20 ग्राम की मात्रा में करने से हिक्का के रोग में लाभ प्राप्त होता है।
9. सिरदर्द: 10 ग्राम गुड़ और 6 ग्राम तिल को दूध के साथ पीसकर इसमें 6 ग्राम घी मिलाकर गर्म करके सेवन करने से सिर के दर्द में लाभ मिलता है।

10. गलगण्ड: 2 से 4 ग्राम हरड़ का चूर्ण खाकर ऊपर से गन्ने का रस पीने से गलगण्ड के रोग में लाभ प्राप्त होता है।

11. स्वरभंग (आवाज का बैठ जाना): गन्ने को गर्म राख में सेंककर चूसने से स्वरभंग (गला बैठने) के रोग में लाभ होता है।

12. श्वास: 3 से 6 ग्राम गुड़ को बराबर मात्रा में सरसों के तेल के साथ मिलाकर सेवन करने से श्वास में लाभ प्राप्त होता है।

13. स्तनों में दूध की वृद्धि: ईख की 5-10 ग्राम जड़ को पीसकर कांजी के साथ सेवन करने से स्त्री का दूध बढ़ता है।

14. रक्तातिसार (खूनी दस्त): गन्ने का रस और अनार का रस बराबर मात्रा में मिलाकर पीने से रक्तातिसार (खूनी दस्त) में लाभ होता है।

15. अग्निमान्द्य (अपच): गुड़ के साथ थोड़ा सा जीरा मिलाकर सेवन करने से अग्निमान्द्य, शीत और वात रोगों में लाभ मिलता है।

16. अश्मरी (पथरी):

अश्मरी (पथरी) को निकलने के बाद रोगी को गर्म पानी में बैठा दें और मूत्रवृद्धि के लिए गुड़ को दूध में मिलाकर कुछ गर्म पिला दें।
गन्ने को चूसते रहने से पथरी चूर-चूर होकर निकल जाती है। गन्ने का रस भी लाभदायक है।
17. वृक्कशूल (गुर्दे का दर्द): 11 ग्राम गुड़ और बुझा हुआ चूना 500 मिलीग्राम दोनों को एकसाथ पीसकर 2 गोलियां बना लें, पहले एक गोली गर्म पानी से दें। अगर गुर्दे का दर्द शांत न हो तो दूसरी गोली दें।

18. प्रदर रोग:

गुड़ की खाली बोरी जिसमें 2-3 साल तक गुड़ भरा रहा हो, उसे लेकर जला डाले और उसकी राख को छानकर रख लें। इस राख को रोजाना 3 ग्राम सेवन करने से श्वेत प्रदर और रक्तप्रदर कुछ ही दिनों में ठीक हो जाता है।
गन्ने का रस पीने से पित्तज प्रदर मिट जाता है।
19. वीर्यवृद्धि (धातु को बढ़ाने वाला): गुड़ को आंवलों के 2-4 ग्राम चूर्ण के साथ सेवन करने से वीर्यवृद्धि होती है तथा थकान, रक्तपित्त (खूनी पित्त), जलन, दर्द और मूत्रकृच्छ (पेशाब करने में कष्ट या जलन होना) आदि रोग नष्ट होते हैं।

20. कनखजूरा के काटने पर: कनखजूरा आदि जन्तुओं के काटने या चिपक जाने पर गुड़ को जलाकर लगाने से लाभ होता है।

21. विभिन्न रोगों में: 5 ग्राम गुड़ के साथ, 5 ग्राम अदरक या सोंठ या पीपल अथवा हरड़ इनमें से किसी भी एक चूर्ण को 10 ग्राम की मात्रा में मिलाकर सुबह-शाम गर्म दूध के साथ सेवन करने से सूजन, प्रतिश्याय (जुकाम), गले के रोग, मुंह के रोग, खांसी, श्वास, अरुचि, पीनस (नजला), जीर्ण ज्वर (पुराने बुखार में), बवासीर, संग्रहणी आदि रोग तथा कफवात जैसे दूसरे रोग भी दूर हो जाते हैं।

22. दाह (जलन): गुड़ को पानी में मिलाकर 25 बार कपड़े में छानकर पीने से दाह (जलन) शांत होती है। बुखार की गर्मी की शान्ति के लिए इसे पिलाया जाता है।

23. कंटक शूल (नुकीली चीजों के पैरों में गड़ जाने का दर्द): कांटा, पत्थर कांच आदि के पैरों में गड़ जाने पर गुड़ को आग पर रखकर गर्म-गर्म चिपका देने पर लाभ प्राप्त होता है।

24. नलवात पर: गुड़ को ताजे गाय के दूध में इतना मिलायें कि वह मीठा हो जाए और फिर खडे़-खड़े ही इसको पी लें। इसके बाद 3 घंटे बाद तक बैठना नहीं चाहिए। उसी समय लाभ मिलता है।

25. मुंह के छाले, आंखों की दृष्टि और बुखार में:

मिश्री के टुकड़े के साथ एक छोटा सा कत्थे का टुकड़ा मुंह में रखकर चूसते रहने से मुंह के छाले आदि में लाभ प्राप्त होता है।
मिश्री को पानी में घिसकर आंखों में लगाने से आंखों की सफाई होती है तथा दृष्टिमान्द्य (आंखों की रोशनी कम होने का रोग) दूर होता है।
मिश्री और घी मिले हुए दूध को पीने से ज्वर का वेग (बुखार) कम हो जाता है।
26. नकसीर (नाक से खून आना): गन्ने के रस की नस्य (नाक में डालने) देने से नकसीर में लाभ होता है।

27. कफ: पुराने गुड़ को अदरक के रस के साथ सेवन करने से कफ दूर होता है।

28. कब्ज: गन्ने के रस के साथ जौ की बाली पीसकर पीने से कोष्ठबद्धता (कब्ज) दूर होती है।

29. अफारा (पेट में गैस का होना): गन्ने के रस को पकाकर, ठण्डाकर पीने से अफारा का रोग मिटता है।

30. प्रसूता स्त्री के रोग: पुराना गुड़ प्रसूत सम्बन्धी रोगों को दूर करता है।

31. पित्त की गर्मी: गन्ने के रस में शहद मिलाकर पीने से पित्त से उत्पन्न गर्मी दूर होती है।

32. शरीर में आई कठोरता: भोजन के बीच में गुड़ का सेवन करने से शरीर में जड़ता आती है।

33. हृदय विकार: गुड़ की पपड़ी या गुड़ की बनी चीजें खाने से दिल मजबूत होता है।

34. अपच: भोजन के बाद गुड़ खाने से भोजन अच्छी तरह पचता है। 1 साल पुराना गुड़ नये गुड़ की तुलना में ज्यादा लाभकारी होता है।

35. वात रोग: पुराने गुड़ का सेवन हरड़ के साथ करने से पित्त नष्ट होता है और सोंठ के साथ करने से समस्त वात संबन्धी विकार दूर होते हैं।

36. आंखों की बीमारी: गर्मी के मौसम में गन्ने का रस पीने से आंखों की रोशनी बढ़ती है।

37. कुकर खांसी: 60 मिलीलीटर कच्ची मूली का रस गन्ने के रस में मिलाकर दिन में 2 बार पिलाने से कुकर खांसी में लाभ मिलता है।

38. सूखी खांसी:

1 गिलास गन्ने का रस रोजाना 2 बार पीने से सूखी खांसी में लाभ मिलता है।
गन्ने का रस पीने से सूखी खांसी में लाभ मिलता है और सीने की घरघराहट दूर हो जाती है।
39. वमन (उल्टी):

अगर गर्मी के कारण उल्टी हो रही हो तो 1 गिलास गन्ने के रस में 2 चम्मच असली शहद को मिलाकर थोड़ी-थोड़ी देर के बाद पिलाने से रोगी को आराम आ जाता है।
गन्ने के रस को ठण्डा करके पीने से उल्टी होना बंद हो जाती है।
40. अतिसार (दस्त):

गन्ने के रस में अनार के रस को मिलाकर पीने से लाभ मिलता है।
गन्ने का रस और अनार के रस मिलाकर लेने से खूनी अतिसार में लाभ मिलता है।
41. खूनी अतिसार: गन्ने के रस में अनार के रस को मिलाकर पीने से खूनी दस्त (रक्तातिसार) के रोगी का रोग दूर हो जाता है।

42. अम्लपित्त: गन्ने के रस को थोड़ा गर्म करके थोड़ा नींबू और अदरक का रस मिलाकर पीने से अफारा (गैस), बदहजमी की बीमारी दूर हो जाती है।

43. पेट के कीड़े: गन्ने के सिरके में 25 ग्राम कच्चे चने रात को भिगोकर सुबह छानकर पीने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।

44. नाखूनों का जख्म: पिसी हल्दी का चूर्ण गन्ने के गुड़ के साथ मिलाकर आग पर गर्म करके नाखूनों के जख्म पर बांधने से नाखून का जख्म जल्द ठीक होता है।

45. पीलिया का रोग:

गन्ने का रस पीना इस रोग की प्रमुख प्राकृतिक औशधि है। जब गन्ने का मौसम न हो तो चीनी का शर्बत नींबू डालकर पीयें।
1 गिलास गन्ने के रस में दो-चार चम्मच ताजे आंवले का रस 2-3 बार रोज पीने से पीलिया रोग ठीक हो जाता है।
गन्ने के टुकड़े करके रात के समय घर की छत पर ओस में रख दें और सुबह मंजन के बाद उन्हें चूसकर रस का सेवन करें। 4 दिन में ही कामला (पीलिया) के रोग में बहुत अधिक लाभ होगा।
गन्ने के शुद्ध ताजे रस के साथ जौ के सत्तू का सेवन करने से पाण्डु (पीलिया) रोग में लाभ मिलता है।
अमलतास का गूदा अल्पमात्रा में लेकर उसे गन्ने के रस के साथ 2-3 बार रोज सेवन करें।
गन्ने का रस, अनार का रस, आंवले का रस और शहद एकसाथ सेवन करने से पीलिया दूर हो जाता है और खून भी बढ़ता है।
जौ का सत्तू (जौ को रेत में भूनकर और पीसकर बनाया जाता है) खाकर ऊपर से गन्ने का रस पीयें। एक सप्ताह में पीलिया ठीक हो जाएगा। सुबह गन्ना भी चूसें। गन्ने का रस दिन में कई बार पीयें। तरल पदार्थ अधिक लें।
46. तुन्डिका शोथ (टांसिल): गन्ने के रस को गर्म करके उसके अन्दर थोड़ा सा दूध मिलाकर पीने से टांसिल की सूजन दूर हो जाती है।

47. कण्ठमाला: गन्ने के रस में हरड़ का चूर्ण मिलाकर खाने से कण्ठमाला (गले की गांठे) ठीक हो जाती हैं।

48. खून की कमी: गन्ने के रस में 5 ग्राम आंवले का रस और 5 ग्राम शहद मिलाकर पीने से खून की कमी दूर हो जाती है।

49. शरीर में ताकत बढ़ाना: गन्ना का रस रोजाना पीने से शरीर में खून बढ़ता है और खून बढ़ने से शरीर में ताकत आती है।

श्री कृष्ण का नाम मुरारी क्यों पड़ा।

श्री कृष्ण का नाम मुरारी क्यों पड़ा।

वामन पुराण व भागवत पुराण के दसवें स्कंध में मुरासुर नामक एक राक्षस की कथा वर्णित है। कश्यप प्रजापति के एक पुत्र था ‘मुर’ नामक राक्षस। एक बार देवता व दानवों के बीच भयंकर संग्राम हुआ। उस युद्ध में अनगिनत राक्षस वीर हताहत हुए। उस वीभत्स दृश्य को मुरासुर ने देखा। तभी से वह मृत्यु भय से व्याकुल रहने लगा। आखिर में उसने सोचा कि तपस्या करके मृत्यु पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। उसने कई वर्षो तक ब्रह्मा की घोर तपस्या की। ब्रह्मा उसके सामने प्रकट हुए और वर मांगने को कहा।

मुरासुर ने प्रसन्न होकर कहा, भगवन! मुझ पर कृपा करके ऐसा वरदान दीजिए कि मैं जिसका भी स्पर्श करूं, चाहे वे मृत्यु भय से मुक्त ही क्यों न हों, उनकी तत्काल मृत्यु हो जाए। विधाता ने तथास्तु कहकर उसकी इच्छा पूरी कर दी। इसके बाद मुरासुर के अहंकार की कोई सीमा न रही। वह तीनों लोकों में निर्भय घूमने लगा। देवताओं को ललकार कर युद्ध की चुनौती देने लगा। लेकिन तीनों लोकों के लोग विधाता के वरदान से परिचित थे, इसलिए मुरासुर से युद्ध करने का साहस कोई नहीं करता था।

एक बार मुरासुर सुरपुरी अमरावती पहुंचा और जोर से अट्टहास करते हुए ताल ठोककर सुरपति इंद्र को युद्ध के लिए ललकारा। इंद्र भयभीत हो कहीं छुप गए। इस पर मुरासुर ने देवताओं की कायरता की उपेक्षा की और अमरावती नगर में राजपथों का चक्कर लगाने लगा। इसके बाद उसने इंद्र भवन के पास जाकर चुनौती दी, देवताओं के कायर सम्राट! तुम मेरे साथ युद्ध करो, नहीं तो मेरा आधिपत्य स्वीकार कर मेरे दास बन जाओ। मेरा दास बनना स्वीकार नहीं है तो अमरावती छोड़कर कहीं और चले जाओ।इंद्र प्राणों के भय से अमरपुरी को छोड़ भूलोक में चले गए। इस पर मुरासुर ने इंद्र सदन पर अधिकार कर लिया और ऐरावत व वज्रायुद्ध को अपने अधीन कर लिया। अब वह देवलोक में अमर सुख प्राप्त करते हुए वैभव से अपना समय बिताने लगा।

उधर, पृथ्वीलोक में पहुंचकर इंद्र ने कालिंदी नदी के दक्षिण किनारे अपना निवास बना लिया। उन्हीं दिनों सूर्यवंशी सम्राट रघु सरयू नदी के तट पर यज्ञ कर रहे थे। मुरासुर ऐरावत पर सवार होकर पृथ्वी लोक का भ्रमण करते हुए अयोध्या के पास पहुंचा। यज्ञ में देवताओं को संतुष्ट करने के लिए आहुति देते देख मुरासुर क्रोध में आ गया और यज्ञ वाटिका के पास जाकर बोला, हमारे शत्रु देवताओं की पूजा करते हो। मैं इसे सहन नहीं कर सकता। तुम इसी वक्त या तो यज्ञ बंद करो या मेरे साथ युद्ध करने के लिए तैयार हो जाओ।

यह कार्य में लीन महर्षि वशिष्ट ने मुरासुर की चुनौती सुनकर कहा, हे असुरपति, मानव-मात्र से युद्ध करके आप कौन-सा यश लूटनेवाले हैं? युद्ध तो समान शक्ति और सामथ्र्य रखनेवालों के साथ होता है। जो अजेय हैं, उनसे युद्ध कीजिए। आपका यश तीनों लोकों में फैल जाएगा। मृत्यु के देवता धर्मराज को युद्ध के लिए आमंत्रित कीजिए। वे किसी की परवाह नहीं करते और किसी को क्षमादान भी नहीं देते। यदि आप उनको पराजित कर सके तो समझ लीजिए कि आपने त्रिभुवन पर विजय पा ली है।

महर्षि वशिष्ट की बातें सुनकर मुरासुर उत्तेजित हो गया और वह सीधे यमलोक में घुस गया। उसने यमराज के पास युद्ध के लिए तैयार हो जाने का समाचार भेजा। यमजराज की मुरासुर को ब्रह्मा के लिए वरदान की बात सुन चुके थे, इसलिए उन्होंने डरकर बैकुंठ में जाकर विष्णु की शरण ली। विष्णु ने यमराज को समझाया, तुम एक काम करो, कोई युक्ति करके तुम मुरासुर को मेरे पास भेज दो फिर मैं उसे उचित सबक सिखाऊंगा।

विष्णु का आश्वासन पाकर यमराज यमपुरी पहुंचे। मुरासुर युद्ध के लिए तैयार होकर यमसभा के सामने पहुंचा और उसने आदेश दिया, “सुनो काल। तुम इसी क्षण से मारण होम को बंद करो। वरना मैं अभी तुम्हारा शरीर टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा।

यमराज भय कंपित हो विनयपूर्वक बोले, दानवराज! मैं आपके आदेश का पालन करने के लिए सदा तैयार रहूंगा लेकिन मैं क्या करूं? मुझे अपने प्रभु की आज्ञा का पालन करना पड़ता है। उनके आदेश का उल्लंघन मैं नहीं कर सकता। आप मुझे क्षमा करें।तुम्हारे प्रभु कौन हैं? वे कहां रहते हैं? मुरासुर ने गरजकर पूछा।उन्हें विष्णु कहते हैं। वे जगत के रक्षक हैं। क्षीर सागर में शयन किए रहते हैं। तो सुनो, मैं इसी वक्त तुम्हारे प्रभु के पास जाता हूं, लेकिन तुम्हें मैं सावधान कर देता हूं। मेरे लौटने तक तुम्हें किसी प्राणी का संहार नहीं करना चाहिए। समझे। दानवाधिपति! आप उनको पराजित कीजिए। यदि आप विजयी हुए तो मैं निश्चय ही आपके आदेश का पालन करूंगा। यमरोज ने उत्तर दिया।

मुरासुर विष्णु से लड़ने के लिए निकल पड़ा, लेकिन उस समय विष्णु के स्वरूप बने श्रीकृष्ण नरकासुर पर आक्रमण करने के लिए चले गए थे। यह समाचार मिलते ही मुरासुर नरकासुर की सहायता करने के लिए प्रागज्योतिषपुर पहुंचा। वहां जाकर मुरासुर ने प्रागज्योतिषपुर में चारों ओर रस्सों से नकर को कस दिया। श्रीकृष्ण ने उन रस्सों को काटकर अपने पांचजन्य का शंखनाद किया। शंख ध्वनि सुनकर मुरासुर चौंक उठा और कृष्ण से लड़ने के लिए युद्ध भूमि में आ पहुंचा। मुरासुर के पांच सिर थे। उसने कृष्ण को देखते ही क्रोध में आकर उस पर शूल का प्रहार किया। कृष्ण ने अपने खड्ग से शूल को काट डाला। इसके बाद दोनों के बीच घोर युद्ध हुआ। आखिर में कृष्ण ने रुष्ट हो मुरासुर पर अपने सुदर्शन चक्र का वार किया। एक ही वार में मुरासुर के पंचों सिर काटकर धरती पर लोटने लगे।

श्रीकृष्ण ने मुरासुर का संहार किया, इसलिए उस दिन से वे ‘मुरारी’ नाम से लोकप्रिय हुए।

शनिवार, 25 अगस्त 2018

जागृत महादेव

केदारनाथ  को  जागृत  महादेव  कहते  है , क्यो की :-

", दो मिनट की ये कहानी रौंगटे खड़े कर देगी "

एक बार एक शिव-भक्त अपने गांव से केदारनाथ धाम की यात्रा पर निकला। पहले यातायात की सुविधाएँ तो थी नहीं, वह पैदल ही निकल पड़ा। रास्ते में जो भी मिलता केदारनाथ का मार्ग पूछ लेता। मन में भगवान शिव का ध्यान करता रहता। चलते चलते उसको महीनो बीत गए। आखिरकार एक दिन वह केदार धाम पहुच ही गया। केदारनाथ में मंदिर के द्वार 6 महीने खुलते है और 6 महीने बंद रहते है। वह उस समय पर पहुचा जब मन्दिर के द्वार बंद हो रहे थे। पंडित जी को उसने बताया वह बहुत दूर से महीनो की यात्रा करके आया है। पंडित जी से प्रार्थना की - कृपा कर के दरवाजे खोलकर प्रभु के दर्शन करवा दीजिये । लेकिन वहां का तो नियम है एक बार बंद तो बंद। नियम तो नियम होता है। वह बहुत रोया। बार-बार भगवन शिव को याद किया कि प्रभु बस एक बार दर्शन करा दो। वह प्रार्थना कर रहा था सभी से, लेकिन किसी ने भी नही सुनी।
पंडित जी बोले अब यहाँ 6 महीने बाद आना, 6 महीने बाद यहा के दरवाजे खुलेंगे। यहाँ 6 महीने बर्फ और ढंड पड़ती है। और सभी जन वहा से चले गये। वह वही पर रोता रहा। रोते-रोते रात होने लगी चारो तरफ अँधेरा हो गया। लेकिन उसे विस्वास था अपने शिव पर कि वो जरुर कृपा करेगे। उसे बहुत भुख और प्यास भी लग रही थी। उसने किसी की आने की आहट सुनी। देखा एक सन्यासी बाबा उसकी ओर आ रहा है। वह सन्यासी बाबा उस के पास आया और पास में बैठ गया। पूछा - बेटा कहाँ से आये हो ? उस ने सारा हाल सुना दिया और बोला मेरा आना यहाँ पर व्यर्थ हो गया बाबा जी। बाबा जी ने उसे समझाया और खाना भी दिया। और फिर बहुत देर तक बाबा उससे बाते करते रहे। बाबा जी को उस पर दया आ गयी। वह बोले, बेटा मुझे लगता है, सुबह मन्दिर जरुर खुलेगा। तुम दर्शन जरुर करोगे।
बातों-बातों में इस भक्त को ना जाने कब नींद आ गयी। सूर्य के मद्धिम प्रकाश के साथ भक्त की आँख खुली। उसने इधर उधर बाबा को देखा, किन्तु वह कहीं नहीं थे । इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता उसने देखा पंडित जी आ रहे है अपनी पूरी मंडली के साथ। उस ने पंडित को प्रणाम किया और बोला - कल आप ने तो कहा था मन्दिर 6 महीने बाद खुलेगा ? और इस बीच कोई नहीं आएगा यहाँ, लेकिन आप तो सुबह ही आ गये। पंडित जी ने उसे गौर से देखा, पहचानने की कोशिश की और पुछा - तुम वही हो जो मंदिर का द्वार बंद होने पर आये थे ? जो मुझे मिले थे। 6 महीने होते ही वापस आ गए ! उस आदमी ने आश्चर्य से कहा - नही, मैं कहीं नहीं गया। कल ही तो आप मिले थे, रात में मैं यहीं सो गया था। मैं कहीं नहीं गया। पंडित जी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था।
उन्होंने कहा - लेकिन मैं तो 6 महीने पहले मंदिर बन्द करके गया था और आज 6 महीने बाद आया हूँ। तुम छः महीने तक यहाँ पर जिन्दा कैसे रह सकते हो ? पंडित जी और सारी मंडली हैरान थी। इतनी सर्दी में एक अकेला व्यक्ति कैसे छः महीने तक जिन्दा रह सकता है। तब उस भक्त ने उनको सन्यासी बाबा के मिलने और उसके साथ की गयी सारी बाते बता दी। कि एक सन्यासी आया था - लम्बा था, बढ़ी-बढ़ी जटाये, एक हाथ में त्रिशुल और एक हाथ में डमरू लिए, मृग-शाला पहने हुआ था। पंडित जी और सब लोग उसके चरणों में गिर गये। बोले, हमने तो जिंदगी लगा दी किन्तु प्रभु के दर्शन ना पा सके, सच्चे भक्त तो तुम हो। तुमने तो साक्षात भगवान शिव के दर्शन किये है। उन्होंने ही अपनी योग-माया से तुम्हारे 6 महीने को एक रात में परिवर्तित कर दिया। काल-खंड को छोटा कर दिया। यह सब तुम्हारे पवित्र मन, तुम्हारी श्रद्वा और विश्वास के कारण ही हुआ है। आपकी भक्ति को प्रणाम।

देवरहा बाबा

एक ऐसे संत जिसके पैरो के नीचे अपना सिर रखने नेता व अंग्रेज तक आते थे! परम पूज्य गुरदेव देवरहा बाबा ।

देवरहा बाबा का जन्म अज्ञात है। यहाँ तक कि उनकी सही उम्र का आकलन भी नहीं है। वह यूपी के देवरिया जिले के रहने वाले थे। मंगलवार, 19 जून सन् 1990 को योगिनी एकादशी के दिन अपना प्राण त्यागने वाले इस बाबा के जन्म के बारे में संशय है। कहा जाता है कि वह करीब 900 साल तक जिन्दा थे। (बाबा के संपूर्ण जीवन के बारे में अलग-अलग मत है, कुछ लोग उनका जीवन 250 साल तो कुछ लोग 500 साल मानते हैं.)

भारत के उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में एक योगी, सिद्ध महापुरुष एवं सन्तपुरुष थे देवरहा बाबा. डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद, महामना मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन, जैसी विभूतियों ने पूज्य देवरहा बाबा के समय-समय पर दर्शन कर अपने को कृतार्थ अनुभव किया था. पूज्य महर्षि पातंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग में पारंगत थे।

श्रद्धालुओं के कथनानुसार बाबा अपने पास आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से बड़े प्रेम से मिलते थे और सबको कुछ न कुछ प्रसाद अवश्य देते थे. प्रसाद देने के लिए बाबा अपना हाथ ऐसे ही मचान के खाली भाग में रखते थे और उनके हाथ में फल, मेवे या कुछ अन्य खाद्य पदार्थ आ जाते थे जबकि मचान पर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं रहती थी।

श्रद्धालुओं को कौतुहल होता था कि आखिर यह प्रसाद बाबा के हाथ में कहाँ से और कैसे आता है. जनश्रूति के मुताबिक, वह खेचरी मुद्रा की वजह से आवागमन से कहीं भी कभी भी चले जाते थे. उनके आस-पास उगने वाले बबूल के पेड़ों में कांटे नहीं होते थे. चारों तरफ सुंगध ही सुंगध होता था।

लोगों में विश्वास है कि बाबा जल पर चलते भी थे और अपने किसी भी गंतव्य स्थान पर जाने के लिए उन्होंने कभी भी सवारी नहीं की और ना ही उन्हें कभी किसी सवारी से कहीं जाते हुए देखा गया. बाबा हर साल कुंभ के समय प्रयाग आते थे।

 मार्कण्डेय सिंह के मुताबिक, वह किसी महिला के गर्भ से नहीं बल्कि पानी से अवतरित हुए थे. यमुना के किनारे वृन्दावन में वह 30 मिनट तक पानी में बिना सांस लिए रह सकते थे. उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी। खतरनाक जंगली जानवारों को वह पल भर में काबू कर लेते थे।

लोगों का मानना है कि बाबा को सब पता रहता था कि कब, कौन, कहाँ उनके बारे में चर्चा हुई. वह अवतारी व्यक्ति थे. उनका जीवन बहुत सरल और सौम्य था।वह फोटो कैमरे और टीवी जैसी चीजों को देख अचंभित रह जाते थे। वह उनसे अपनी फोटो लेने के लिए कहते थे, लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि उनका फोटो नहीं बनता था। वह नहीं चाहते तो रिवाल्वर से गोली नहीं चलती थी. उनका निर्जीव वस्तुओं पर नियंत्रण था।

अपनी उम्र, कठिन तप और सिद्धियों के बारे में देवरहा बाबा ने कभी भी कोई चमत्कारिक दावा नहीं किया, लेकिन उनके इर्द-गिर्द हर तरह के लोगों की भीड़ ऐसी भी रही जो हमेशा उनमें चमत्कार खोजते देखी गई।अत्यंत सहज, सरल और सुलभ बाबा के सानिध्य में जैसे वृक्ष, वनस्पति भी अपने को आश्वस्त अनुभव करते रहे. भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें अपने बचपन में देखा था।

 देश-दुनिया के महान लोग उनसे मिलने आते थे और विख्यात साधू-संतों का भी उनके आश्रम में समागम होता रहता था. उनसे जुड़ीं कई घटनाएं इस सिद्ध संत को मानवता, ज्ञान, तप और योग के लिए विख्यात बनाती हैं।

मुझे अच्छी तरह याद है और मैं वहाँ मौजूद भी था. कोई 1987 की बात होगी, जून का ही महीना था. वृंदावन में यमुना पार देवरहा बाबा का डेरा जमा हुआ था. अधिकारियों में अफरातफरी मची थी। प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बाबा के दर्शन करने आना था।प्रधानमंत्री के आगमन और यात्रा के लिए इलाके की मार्किंग कर ली गई।

आला अफसरों ने हैलीपैड बनाने के लिए वहां लगे एक बबूल के पेड़ की डाल काटने के निर्देश दिए. भनक लगते ही बाबा ने एक बड़े पुलिस अफसर को बुलाया और पूछा कि पेड़ को क्यों काटना चाहते हो? अफसर ने कहा, प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जरूरी है. बाबा बोले, तुम यहां अपने पीएम को लाओगे, उनकी प्रशंसा पाओगे, पीएम का नाम भी होगा कि वह साधु-संतों के पास जाता है, लेकिन इसका दंड तो बेचारे पेड़ को भुगतना पड़ेगा!

वह मुझसे इस बारे में पूछेगा तो मैं उसे क्या जवाब दूंगा? नही! यह पेड़ नहीं काटा जाएगा. अफसरों ने अपनी मजबूरी बताई कि यह दिल्ली से आए अफसरों का है, इसलिए इसे काटा ही जाएगा और फिर पूरा पेड़ तो नहीं कटना है, इसकी एक टहनी ही काटी जानी है, मगर बाबा जरा भी राजी नहीं हुए. उन्होंने कहा कि यह पेड़ होगा तुम्हारी निगाह में, मेरा तो यह सबसे पुराना साथी है, दिन रात मुझसे बतियाता है, यह पेड़ नहीं कट सकता।

इस घटनाक्रम से बाकी अफसरों की दुविधा बढ़ती जा रही थी, आखिर बाबा ने ही उन्हें तसल्ली दी और कहा कि घबड़ा मत, अब पीएम का कार्यक्रम टल जाएगा, तुम्हारे पीएम का कार्यक्रम मैं कैंसिल करा देता हूं. आश्चर्य कि दो घंटे बाद ही पीएम आफिस से रेडियोग्राम आ गया कि प्रोग्राम स्थगित हो गया है, कुछ हफ्तों बाद राजीव गांधी वहां आए, लेकिन पेड़ नहीं कटा. इसे क्या कहेंगे चमत्कार या संयोग.

बाबा की शरण में आने वाले कई विशिष्ट लोग थे. उनके भक्तों में जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री , इंदिरा गांधी जैसे चर्चित नेताओं के नाम हैं. उनके पास लोग हठयोग सीखने भी जाते थे. सुपात्र देखकर वह हठयोग की दसों मुद्राएं सिखाते थे. योग विद्या पर उनका गहन ज्ञान था. ध्यान, योग, प्राणायाम, त्राटक समाधि आदि पर वह गूढ़ विवेचन करते थे. कई बड़े सिद्ध सम्मेलनों में उन्हें बुलाया जाता, तो वह संबंधित विषयों पर अपनी प्रतिभा से सबको चकित कर देते।

 लोग यही सोचते कि इस बाबा ने इतना सब कब और कैसे जान लिया. ध्यान, प्रणायाम, समाधि की पद्धतियों के वह सिद्ध थे ही. धर्माचार्य, पंडित, तत्वज्ञानी, वेदांती उनसे कई तरह के संवाद करते थे. उन्होंने जीवन में लंबी लंबी साधनाएं कीं. जन कल्याण के लिए वृक्षों-वनस्पतियों के संरक्षण, पर्यावरण एवं वन्य जीवन के प्रति उनका अनुराग जग जाहिर था.

देश में आपातकाल के बाद हुए चुनावों में जब इंदिरा गांधी हार गईं तो वह भी देवरहा बाबा से आशीर्वाद लेने गईं. उन्होंने अपने हाथ के पंजे से उन्हें आशीर्वाद दिया. वहां से वापस आने के बाद इंदिरा ने कांग्रेस का चुनाव चिह्न हाथ का पंजा निर्धारित कर दिया. इसके बाद 1980 में इंदिरा के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रचंड बहुमत प्राप्त किया और वह देश की प्रधानमंत्री बनीं।

 वहीं, यह भी मान्यता है कि इन्दिरा गांधी आपातकाल के समय कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती से आर्शीवाद लेने गयीं थी. वहां उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठाकर आर्शीवाद दिया और हाथ का पंजा पार्टी का चुनाव निशान बनाने को कहा।

बाबा महान योगी और सिद्ध संत थे. उनके चमत्कार हज़ारों लोगों को झंकृत करते रहे. आशीर्वाद देने का उनका ढंग निराला था. मचान पर बैठे-बैठे ही अपना पैर जिसके सिर पर रख दिया, वो धन्य हो गया. पेड़-पौधे भी उनसे बात करते थे. उनके आश्रम में बबूल तो थे, मगर कांटेविहीन. यही नहीं यह खुशबू भी बिखेरते थे।

उनके दर्शनों को प्रतिदिन विशाल जनसमूह उमड़ता था. बाबा भक्तों के मन की बात भी बिना बताए जान लेते थे. उन्होंने पूरा जीवन अन्न नहीं खाया. दूध व शहद पीकर जीवन गुजार दिया. श्रीफल का रस उन्हें बहुत पसंद था।

देवरहा बाबा को खेचरी मुद्रा पर सिद्धि थी जिस कारण वे अपनी भूख और आयु पर नियंत्रण प्राप्त कर लेते थे।

ख्याति इतनी कि जार्ज पंचम जब भारत आया तो अपने पूरे लाव लश्कर के साथ उनके दर्शन करने देवरिया जिले के दियारा इलाके में मइल गांव तक उनके आश्रम तक पहुंच गया. दरअसल, इंग्लैंड से रवाना होते समय उसने अपने भाई से पूछा था कि क्या वास्तव में इंडिया के साधु संत महान होते हैं।

प्रिंस फिलिप ने जवाब दिया- हां, कम से कम देवरहा बाबा से जरूर मिलना. यह सन 1911 की बात है. जार्ज पंचम की यह यात्रा तब विश्वयुद्ध के मंडरा रहे माहौल के चलते भारत के लोगों को बरतानिया हुकूमत के पक्ष में करने की थी. उससे हुई बातचीत बाबा ने अपने कुछ शिष्यों को बतायी भी थी, लेकिन कोई भी उस बारे में बातचीत करने को आज भी तैयार नहीं।

डाक्टर राजेंद्र प्रसाद तब रहे होंगे कोई दो-तीन साल के, जब अपने माता-पिता के साथ वे बाबा के यहां गये थे. बाबा देखते ही बोल पड़े-यह बच्चा तो राजा बनेगा. बाद में राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने बाबा को एक पत्र लिखकर कृतज्ञता प्रकट की और सन 54 के प्रयाग कुंभ में बाकायदा बाबा का सार्वजनिक पूजन भी किया।

बाबा देवरहा 30 मिनट तक पानी में बिना सांस लिए रह सकते थे. उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी. खतरनाक जंगली जानवरों को वह पल भर में काबू कर लेते थे.

उनके भक्त उन्हें दया का महासमुंदर बताते हैं. और अपनी यह सम्पत्ति बाबा ने मुक्त हस्तज लुटाई. जो भी आया, बाबा की भरपूर दया लेकर गया. वितरण में कोई विभेद नहीं. वर्षाजल की भांति बाबा का आशीर्वाद सब पर बरसा और खूब बरसा. मान्यता थी कि बाबा का आशीर्वाद हर मर्ज की दवाई है।

कहा जाता है कि बाबा देखते ही समझ जाते थे कि सामने वाले का सवाल क्या है. दिव्यदृष्ठि के साथ तेज नजर, कड़क आवाज, दिल खोल कर हंसना, खूब बतियाना बाबा की आदत थी. याददाश्त इतनी कि दशकों बाद भी मिले व्यक्ति को पहचान लेते और उसके दादा-परदादा तक का नाम व इतिहास तक बता देते, किसी तेज कम्प्युटर की तरह।

हां, बलिष्ठ कदकाठी भी थी. लेकिन देह त्याहगने के समय तक वे कमर से आधा झुक कर चलने लगे थे. उनका पूरा जीवन मचान में ही बीता. लकडी के चार खंभों पर टिकी मचान ही उनका महल था, जहां नीचे से ही लोग उनके दर्शन करते थे. मइल में वे साल में आठ महीना बिताते थे. कुछ दिन बनारस के रामनगर में गंगा के बीच, माघ में प्रयाग, फागुन में मथुरा के मठ के अलावा वे कुछ समय हिमालय में एकांतवास भी करते थे।

खुद कभी कुछ नहीं खाया, लेकिन भक्तनगण जो कुछ भी लेकर पहुंचे, उसे भक्तों पर ही बरसा दिया. उनका बताशा-मखाना हासिल करने के लिए सैकडों लोगों की भीड हर जगह जुटती थी. और फिर अचानक ११ जून १९९० को उन्होंने दर्शन देना बंद कर दिया।

लगा जैसे कुछ अनहोनी होने वाली है. मौसम तक का मिजाज बदल गया. यमुना की लहरें तक बेचैन होने लगीं. मचान पर बाबा त्रिबंध सिद्धासन पर बैठे ही रहे. डॉक्टरों की टीम ने थर्मामीटर पर देखा कि पारा अंतिम सीमा को तोड निकलने पर आमादा है.१९ तारीख को मंगलवार के दिन योगिनी एकादशी थी।

 आकाश में काले बादल छा गये, तेज आंधियां तूफान ले आयीं. यमुना जैसे समुंदर को मात करने पर उतावली थी. लहरों का उछाल बाबा की मचान तक पहुंचने लगा. और इन्हीं सबके बीच शाम चार बजे बाबा का शरीर स्पंदनरहित हो गया. भक्तों की अपार भीड भी प्रकृति के साथ हाहाकार करने लगी।

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

अठारह पुराण

१ ब्रह्मपुराण - १०००० श्लोक
२ पद्मपुराण - ५५००० श्लोक
३ विष्णुपुराण -२३००० श्लोक
४ वायुपुराण  - २४६०० श्लोक
५ श्रीमद्भागवत-१८००० श्लोक
६ भविष्यपुराण -१४५०० श्लोक
७ नारदीयपुराण -२५००० श्लोक
८ मार्कण्डेयपुराण-९००० श्लोक
९ अग्निपुराण    - १६००० श्लोक
१० ब्रह्मवैवर्तपुराण-१८००० श्लोक
११ लिङ्गपुराण।   - ११००० श्लोक
१२ वराहपुराण    - २४००० श्लोक
१३ स्कन्दपुराण   - ८१००० श्लोक
१४ वामनपुराण   - १०००० श्लोक
१५ कूर्मपुराण     - १७००० श्लोक
१६ मत्स्यपुराण   -१४००० श्लोक
१७ गरुड़पुराण   -१९००० श्लोक
१८ ब्रह्माण्डपुराण -१२१०० श्लोक

बुधवार, 22 अगस्त 2018

कामाख्या माता

कामाख्या मंदिर को हिंदुओं का सबसे पुराना मंदिर माना जाता है।

यह मंदिर असम के नीलांचल पहाड़ी पर स्थित है। यह 51 शक्ति पीठ में से सबसे पुराना मंदिर है, इस मंदिर में आपको कामाख्या देवी के अलावा कुछ अन्य देवियों के रूप भी देखने को मिलेंगे। इन देवियों में कमला, भैरवी, तारा, मतंगी, बगला मुखी, भुवनेश्वरी, धूमावती, छिन्नमस्ता और त्रिपुरा सुंदरी जैसी देवियां देखने को मिलेंगी।
इस आर्टिकल में हम आपको इस मंदिर से जुड़े कुछ ऐसे ही रहस्यों के बारे में बताएंगे, जिनके बारे में आपको अब तक कोई जानकारी नहीं होगी।

कामाख्या मंदिर के पीछे कहानी –
देवी सती राजा दक्ष की बेटी थी। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अपने पिता की अनुमति के बिना ही भगवान शिव से शादी कर ली थी। एक बार राजा ने एक विशाल यज्ञ किया, जिसमें उन्होंने सती और भगवान शिव के अलावा सभी देवी देवताओं को आमंत्रित किया था। सती अपने पिता के महल में गई, जहां राजा दक्ष ने भगवान शिव को सबके सामने अपमान किया। सती से पति का यह अपमान सहन ना हुआ और उन्होंने आयोजित यज्ञ में छलांग लगाकर अपनी जान दे दी। जब भगवान शिव को इस घटना के बारे में पता चला तो वह काफी गुस्सा हो गए और उन्होंने अपनी पत्नी के मृत शरीर को पकड़ कर तांडव नृत्य करना शुरू कर दिया, जो कि पूरे ब्रह्मांड को नष्ट करने लगा। पूरे ब्रह्मांड को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर के अंगों के 52 टुकड़ों में काट कर, इन टुकड़ों को धरती पर अलग-अलग जगह पर फेंक दिया। जहां-जहां यह टुकड़े गिरे, उस जगह को शक्ति पीठ के नाम से जाना जाने लगा। जिस जगह पर देवी का योनि हिस्सा गिरा, उसे कामाख्या नाम दे दिया गया।

मंदिर की अधूरी सीढ़ी के बारे में एक कहानी-
दूसरी कथा के अनुसार, एक नरक नाम का दानव, मां कामाख्या के आकर्षण और सुंदरता की तरफ आकर्षित हो गया। उस दानव को मां से प्यार हो गया और उसने मां को शादी का प्रस्ताव भेजा। देवी मां ने उसके सामने एक र्शत रखी कि अगर वह मंदिर की सीढ़ी का निर्माण नीचे से लेकर नीलांचल की पहाड़ी तक करता हैं, तो वह उससे शादी कर लेंगी। दानव ने इस शर्त को मान लिया और वह मंदिर के लिए सीढ़िया बनवाने लगा। उसका यह काम पूरा ही होने वाला था कि मां ने कहा कि वह उसके साथ एक चाल खेली और एक मुर्गा लेकर आई और उसे यह कहा कि सुबह होने पर आवाज करें। जब मुर्गा ने आवाज की तो दानव को लगा कि सुबह हो गई हैं, वह अपना काम आधा छोड़कर चला गया। जब नरक को यह पता लगा कि यह महज एक चाल थी तो वह बहुत गुस्सा हुआ और मुर्गे के पीछे भाग कर उसे मार डाला, जिस जगह पर मुर्गे को मारा उस जगह को कुकुराकटा के नाम से जाना जाने लगा। यह अधूरी सीढ़ी नरक ने बनाई थी, जिसे मेखेलउजा पथ के नाम से जाना जाता है।

क्यों कामाख्या देवी को “ब्लीडिंग देवी” के नाम से जाना जाता है –
देवी कामाख्या को ब्लीडिंग देवी के नाम से भी जाना जाता है। भक्तों का मानना है कि आषाढ़ के महीने में तीन दिनों के लिए मंदिर को बंद कर दिया जाता है, क्योंकि इन दिनों देवी माहवारी से ग्रस्त होती हैं। इसके बाद चौथे दिन मंदिर खुलता है और मंदिर के बाहर अंबुबच्ची मेला लगाया जाता है। लाखों श्रद्धालु और तीर्थयात्री दूर-दूर से इस विशाल महोत्सव में हिस्सा लेने के लिए आते हैं। इन दिनों मंदिर के पास बहने वाली ब्रह्मपुत्र नदी लाल रंग में बदल जाती है। इस बात के पीछे कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है कि इस नदी के पानी का रंग लाल क्यों होता है।

कामाख्या नाम क्यों?
ऐसा कहा जाता है कि प्यार के देवता कामदेव एक अभिशाप के कारण अपनी शक्ति और सत्ता खो देते है। यह वह जगह है, जहां पर भगवान को उनका प्यार और शक्ति वापस मिली और यहां पर कामाख्या देवी को स्थापित किया गया और उनकी पूजा की जाने लगी। कुछ लोगों के अनुसार यह वह जगह है जहां पर शिव और पार्वती का मिलन हुआ था, इस जगह को कामाख्या के नाम से जाना जाने लगा। कामा का अर्थ संस्कृत में प्यार करना माना जाता है।

कामाख्या मंदिर से जुड़े कुछ रहस्य-
आइए आज हम आपको कामाख्या मंदिर से जुड़े कुछ ऐसे रहस्यों के बारे में बताते हैं जिनके बारे में आपको शायद अब तक कोई जानकारी नहीं होगी।

 कामाख्या मंदिर को हिंदुओं का सबसे पुराना मंदिर माना जाता है। यह मंदिर असम में नीलांचल पहाड़ी पर स्थित है। यह 51 शक्ति पीठ में से सबसे पुराना मंदिर है। यह मंदिर समुद्र के स्तर से 800 फीट ऊपर गोवहाटी के पश्चिमी हिस्से में बनाया गया है। यह एक ऐसा मंदिर है, जहां पर किसी देवी की मूर्ति नहीं है। हालांकि मंदिर के गुफा के कोने में जिस जगह पूजा होती है, वह देवी की योनि के तराशे छवि की ही होती है। यह मंदिर 16 वीं सदी में नष्ट हो गया था। बाद में 17 वीं सदी में राजा नर नारायण ने इसे दोबारा बनवाया था, इस मंदिर को विशाल मान्यता प्राप्त है। मंदिर में तीन प्रमुख कक्ष होते हैं, जो कि पश्चिमी चैंबर का एक आयताकार और समकोण के आकार में है। लेकिन इसकी पूजा तीर्थयात्री द्वारा नहीं की जाती है। मध्य या दूसरा कक्ष वर्ग के आकार का होता है, और इसमें माता की एक छोटी सी मूर्ति भी है, जिसे बाद में जोड़ा गया था। इस मंदिर के दूसरे कक्ष को गर्भगृह के नाम से भी जाना जाता है। यह एक तरह की गुफा है, जहां पर कोई छवि नहीं होती, लेकिन एक प्राकृतिक भूमिगत वसंत होता है, जो कि योनि के आकार का छिद्र में प्रवाह होता है। रोजाना पूजा के अलावा इस मंदिर में साल भर में कई खास पूजा भी होती हैं, जैसे वंसती पूजा, दूर्गा पूजा, अम्बुबाची पूजा, पोहन बिया, मडानडियूल पूजा और मानासा पूजा।

सोमवार, 20 अगस्त 2018

ब्राह्मण वंशावली

सरयूपारीण ब्राहमणों के मुख्य गाँव :

गर्ग (शुक्ल- वंश)

गर्ग ऋषि के तेरह लडके बताये जाते है जिन्हें गर्ग गोत्रीय, पंच प्रवरीय, शुक्ल बंशज  कहा जाता है जो तेरह गांवों में बिभक्त हों गये थे| गांवों के नाम कुछ इस प्रकार है|

(१) मामखोर (२) खखाइज खोर  (३) भेंडी  (४) बकरूआं  (५) अकोलियाँ  (६) भरवलियाँ  (७) कनइल (८) मोढीफेकरा (९) मल्हीयन (१०) महसों (११) महुलियार (१२) बुद्धहट (१३) इसमे चार  गाँव का नाम आता है लखनौरा, मुंजीयड, भांदी, और नौवागाँव| ये सारे गाँव लगभग गोरखपुर, देवरियां और बस्ती में आज भी पाए जाते हैं|

उपगर्ग (शुक्ल-वंश)

उपगर्ग के छ: गाँव जो गर्ग ऋषि के अनुकरणीय थे कुछ इस प्रकार से हैं|

बरवां (२) चांदां (३) पिछौरां (४) कड़जहीं (५) सेदापार (६) दिक्षापार

यही मूलत: गाँव है जहाँ से शुक्ल बंश का उदय माना जाता है यहीं से लोग अन्यत्र भी जाकर शुक्ल     बंश का उत्थान कर रहें हैं यें सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं|

गौतम (मिश्र-वंश)

गौतम ऋषि के छ: पुत्र बताये जातें हैं जो इन छ: गांवों के वाशी थे|

(१) चंचाई (२) मधुबनी (३) चंपा (४) चंपारण (५) विडरा (६) भटीयारी

इन्ही छ: गांवों से गौतम गोत्रीय, त्रिप्रवरीय मिश्र वंश का उदय हुआ है, यहीं से अन्यत्र भी पलायन हुआ है ये सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं|

उप गौतम (मिश्र-वंश)

उप गौतम यानि गौतम के अनुकारक छ: गाँव इस प्रकार से हैं|

(१)  कालीडीहा (२) बहुडीह (३) वालेडीहा (४) भभयां (५) पतनाड़े  (६) कपीसा

इन गांवों से उप गौतम की उत्पत्ति  मानी जाति है|

वत्स गोत्र  ( मिश्र- वंश)

वत्स ऋषि के नौ पुत्र माने जाते हैं जो इन नौ गांवों में निवास करते थे|

(१) गाना (२) पयासी (३) हरियैया (४) नगहरा (५) अघइला (६) सेखुई (७) पीडहरा (८) राढ़ी (९) मकहडा

बताया जाता है की इनके वहा पांति का प्रचलन था अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है|

कौशिक गोत्र  (मिश्र-वंश)

तीन गांवों से इनकी उत्पत्ति बताई जाती है जो निम्न है|

(१) धर्मपुरा (२) सोगावरी (३) देशी

बशिष्ट गोत्र (मिश्र-वंश)

इनका निवास भी इन तीन गांवों में बताई जाती है|

(१) बट्टूपुर  मार्जनी (२) बढ़निया (३) खउसी

शांडिल्य गोत्र ( तिवारी,त्रिपाठी वंश)

शांडिल्य ऋषि के बारह पुत्र बताये जाते हैं जो इन बाह गांवों से प्रभुत्व रखते हैं|

(१) सांडी (२) सोहगौरा (३) संरयाँ  (४) श्रीजन (५) धतूरा (६) भगराइच (७) बलूआ (८) हरदी (९) झूडीयाँ (१०) उनवलियाँ (११) लोनापार (१२) कटियारी, लोनापार में लोनाखार, कानापार, छपरा भी समाहित है 

इन्ही बारह गांवों से आज चारों तरफ इनका विकास हुआ है, यें सरयूपारीण ब्राह्मण हैं| इनका गोत्र श्री मुख शांडिल्य त्रि प्रवर है, श्री मुख शांडिल्य में घरानों का प्रचलन है जिसमे  राम घराना, कृष्ण घराना, नाथ घराना, मणी घराना है, इन चारों का उदय, सोहगौरा गोरखपुर से है जहाँ आज भी इन चारों का अस्तित्व कायम है|

उप शांडिल्य ( तिवारी- त्रिपाठी, वंश)

इनके छ: गाँव बताये जाते हैं जी निम्नवत हैं|

(१) शीशवाँ (२) चौरीहाँ (३) चनरवटा (४) जोजिया (५) ढकरा (६) क़जरवटा

भार्गव गोत्र (तिवारी  या त्रिपाठी वंश)

भार्गव ऋषि के चार पुत्र बताये जाते हैं जिसमें  चार गांवों का उल्लेख मिलता है जो इस प्रकार है|

(१) सिंघनजोड़ी (२) सोताचक  (३) चेतियाँ  (४) मदनपुर

 भारद्वाज गोत्र (दुबे वंश)

भारद्वाज ऋषि के चार पुत्र बताये जाते हैं जिनकी उत्पत्ति इन चार गांवों से बताई जाती है|

(१) बड़गईयाँ (२) सरार (३) परहूँआ (४) गरयापार

कन्चनियाँ और लाठीयारी इन दो गांवों में दुबे घराना बताया जाता है जो वास्तव में गौतम मिश्र हैं लेकिन  इनके पिता क्रमश: उठातमनी और शंखमनी गौतम मिश्र थे परन्तु वासी (बस्ती) के राजा  बोधमल ने एक पोखरा खुदवाया जिसमे लट्ठा न चल पाया, राजा के कहने पर दोनों भाई मिल कर लट्ठे को चलाया जिसमे एक ने लट्ठे सोने वाला भाग पकड़ा तो दुसरें ने लाठी वाला भाग पकड़ा जिसमे कन्चनियाँ व लाठियारी का नाम पड़ा, दुबे की गददी होने से ये लोग दुबे कहलाने लगें|

सरार के दुबे के वहां पांति का प्रचलन रहा है अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है|

सावरण गोत्र ( पाण्डेय वंश)

सावरण ऋषि के तीन पुत्र बताये जाते हैं इनके वहां भी पांति का प्रचलन रहा है जिन्हें तीन के समकक्ष माना जाता है जिनके तीन गाँव निम्न हैं|

(१) इन्द्रपुर (२) दिलीपपुर (३) रकहट (चमरूपट्टी)

सांकेत गोत्र (मलांव के पाण्डेय वंश)

सांकेत ऋषि के तीन पुत्र इन तीन गांवों से सम्बन्धित बताये जाते हैं|

(१) मलांव (२) नचइयाँ (३) चकसनियाँ

कश्यप गोत्र (त्रिफला के पाण्डेय वंश)

इन तीन गांवों से बताये जाते हैं|

(१) त्रिफला (२) मढ़रियाँ  (३) ढडमढीयाँ

ओझा वंश

इन तीन गांवों से बताये जाते हैं|

(१) करइली (२) खैरी (३) निपनियां

चौबे -चतुर्वेदी, वंश (कश्यप गोत्र)

इनके लिए तीन गांवों का उल्लेख मिलता है|

(१) वंदनडीह (२) बलूआ (३) बेलउजां

एक गाँव कुसहाँ का उल्लेख बताते है जो शायद उपाध्याय वंश का मालूम पड़ता है|

🌇ब्राह्मणों की वंशावली🌇
भविष्य पुराण के अनुसार ब्राह्मणों का इतिहास है की प्राचीन काल में महर्षि कश्यप के पुत्र कण्वय की आर्यावनी नाम की देव कन्या पत्नी हुई। ब्रम्हा की आज्ञा से
दोनों कुरुक्षेत्र वासनी
सरस्वती नदी के तट
पर गये और कण् व चतुर्वेदमय
सूक्तों में सरस्वती देवी की स्तुति करने लगे
एक वर्ष बीत जाने पर वह देवी प्रसन्न हो वहां आयीं और ब्राम्हणो की समृद्धि के लिये उन्हें
वरदान दिया ।
वर के प्रभाव कण्वय के आर्य बुद्धिवाले दस पुत्र हुए जिनका
क्रमानुसार नाम था -
उपाध्याय,
दीक्षित,
पाठक,
शुक्ला,
मिश्रा,
अग्निहोत्री,
दुबे,
तिवारी,
पाण्डेय,
और
चतुर्वेदी ।
इन लोगो का जैसा नाम था वैसा ही गुण। इन लोगो ने नत मस्तक हो सरस्वती देवी को प्रसन्न किया। बारह वर्ष की अवस्था वाले उन लोगो को भक्तवत्सला शारदा देवी ने
अपनी कन्याए प्रदान की।
वे क्रमशः
उपाध्यायी,
दीक्षिता,
पाठकी,
शुक्लिका,
मिश्राणी,
अग्निहोत्रिधी,
द्विवेदिनी,
तिवेदिनी
पाण्ड्यायनी,
और
चतुर्वेदिनी कहलायीं।
फिर उन कन्याआं के भी अपने-अपने पति से सोलह-सोलह पुत्र हुए हैं
वे सब गोत्रकार हुए जिनका नाम -
कष्यप,
भरद्वाज,
विश्वामित्र,
गौतम,
जमदग्रि,
वसिष्ठ,
वत्स,
गौतम,
पराशर,
गर्ग,
अत्रि,
भृगडत्र,
अंगिरा,
श्रंगी,
कात्याय,
और
याज्ञवल्क्य।
इन नामो से सोलह-सोलह पुत्र जाने जाते हैं।
मुख्य 10 प्रकार ब्राम्हणों ये हैं-
(1) तैलंगा,
(2) महार्राष्ट्रा,
(3) गुर्जर,
(4) द्रविड,
(5) कर्णटिका,
यह पांच "द्रविण" कहे जाते हैं, ये विन्ध्यांचल के दक्षिण में पाये जाते हैं|
तथा
विंध्यांचल के उत्तर में पाये जाने वाले या वास करने वाले ब्राम्हण
(1) सारस्वत,
(2) कान्यकुब्ज,
(3) गौड़,
(4) मैथिल,
(5) उत्कलये,
उत्तर के पंच गौड़ कहे जाते हैं।
वैसे ब्राम्हण अनेक हैं जिनका वर्णन आगे लिखा है।
ऐसी संख्या मुख्य 115 की है।
शाखा भेद अनेक हैं । इनके अलावा संकर जाति ब्राम्हण अनेक है ।
यहां मिली जुली उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हणों की नामावली 115 की दे रहा हूं।
जो एक से दो और 2 से 5 और 5 से 10 और 10 से 84 भेद हुए हैं,
फिर उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हण की संख्या शाखा भेद से 230 के
लगभग है |
तथा और भी शाखा भेद हुए हैं, जो लगभग 300 के करीब ब्राम्हण भेदों की संख्या का लेखा पाया गया है।
उत्तर व दक्षिणी ब्राम्हणां के भेद इस प्रकार है
81 ब्राम्हाणां की 31 शाखा कुल 115 ब्राम्हण संख्या, मुख्य है -
(1) गौड़ ब्राम्हण,
(2)गुजरगौड़ ब्राम्हण (मारवाड,मालवा)
(3) श्री गौड़ ब्राम्हण,
(4) गंगापुत्र गौडत्र ब्राम्हण,
(5) हरियाणा गौड़ ब्राम्हण,
(6) वशिष्ठ गौड़ ब्राम्हण,
(7) शोरथ गौड ब्राम्हण,
(8) दालभ्य गौड़ ब्राम्हण,
(9) सुखसेन गौड़ ब्राम्हण,
(10) भटनागर गौड़ ब्राम्हण,
(11) सूरजध्वज गौड ब्राम्हण(षोभर),
(12) मथुरा के चौबे ब्राम्हण,
(13) वाल्मीकि ब्राम्हण,
(14) रायकवाल ब्राम्हण,
(15) गोमित्र ब्राम्हण,
(16) दायमा ब्राम्हण,
(17) सारस्वत ब्राम्हण,
(18) मैथल ब्राम्हण,
(19) कान्यकुब्ज ब्राम्हण,
(20) उत्कल ब्राम्हण,
(21) सरवरिया ब्राम्हण,
(22) पराशर ब्राम्हण,
(23) सनोडिया या सनाड्य,
(24)मित्र गौड़ ब्राम्हण,
(25) कपिल ब्राम्हण,
(26) तलाजिये ब्राम्हण,
(27) खेटुवे ब्राम्हण,
(28) नारदी ब्राम्हण,
(29) चन्द्रसर ब्राम्हण,
(30)वलादरे ब्राम्हण,
(31) गयावाल ब्राम्हण,
(32) ओडये ब्राम्हण,
(33) आभीर ब्राम्हण,
(34) पल्लीवास ब्राम्हण,
(35) लेटवास ब्राम्हण,
(36) सोमपुरा ब्राम्हण,
(37) काबोद सिद्धि ब्राम्हण,
(38) नदोर्या ब्राम्हण,
(39) भारती ब्राम्हण,
(40) पुश्करर्णी ब्राम्हण,
(41) गरुड़ गलिया ब्राम्हण,
(42) भार्गव ब्राम्हण,
(43) नार्मदीय ब्राम्हण,
(44) नन्दवाण ब्राम्हण,
(45) मैत्रयणी ब्राम्हण,
(46) अभिल्ल ब्राम्हण,
(47) मध्यान्दिनीय ब्राम्हण,
(48) टोलक ब्राम्हण,
(49) श्रीमाली ब्राम्हण,
(50) पोरवाल बनिये ब्राम्हण,
(51) श्रीमाली वैष्य ब्राम्हण
(52) तांगड़ ब्राम्हण,
(53) सिंध ब्राम्हण,
(54) त्रिवेदी म्होड ब्राम्हण,
(55) इग्यर्शण ब्राम्हण,
(56) धनोजा म्होड ब्राम्हण,
(57) गौभुज ब्राम्हण,
(58) अट्टालजर ब्राम्हण,
(59) मधुकर ब्राम्हण,
(60) मंडलपुरवासी ब्राम्हण,
(61) खड़ायते ब्राम्हण,
(62) बाजरखेड़ा वाल ब्राम्हण,
(63) भीतरखेड़ा वाल ब्राम्हण,
(64) लाढवनिये ब्राम्हण,
(65) झारोला ब्राम्हण,
(66) अंतरदेवी ब्राम्हण,
(67) गालव ब्राम्हण,
(68) गिरनारे ब्राम्हण
सभी ब्राह्मण बंधुओ को मेरा नमस्कार बहुत दुर्लभ जानकारी है जरूर पढ़े। और समाज में शेयर करे हम क्या है
इस तरह ब्राह्मणों की उत्पत्ति और इतिहास के साथ इनका विस्तार अलग अलग राज्यो में हुआ और ये उस राज्य के ब्राह्मण कहलाये।
ब्राह्मण बिना धरती की कल्पना ही नहीं की जा सकती इसलिए ब्राह्मण होने पर गर्व करो और अपने कर्म और धर्म का पालन कर सनातन संस्कृति की रक्षा करें।

रविवार, 19 अगस्त 2018

भारत रत्न विजेताओं की लिस्ट

भारत रत्न विजेताओं की लिस्ट -

चन्द्रशेखर वेंकटरमन (1954)
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (1954)
सर्वेपल्लि राधाकृष्णन (1954)
भगवान दास (1955)
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या (1955)
जवाहरलाल नेहरू (1955)
गोविन्द बल्लभ पन्त (1957)
धोंडो केशव कर्वे (1958)
बिधान चंद्र रॉय (1961)
पुरुषोत्तम दास टंडन (1961)
राजेन्द्र प्रसाद (1962)
पांडुरंग वामन काणे (1963)
ज़ाकिर हुसैन (1963)
लालबहादुर शास्त्री (1966)
इन्दिरा गांधी (1971)
वी॰ वी॰ गिरि (1975)
के० कामराज (1976)
मदर टेरेसा (1980)
विनोबा भावे (1983)
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान (1987)
एम० जी० रामचन्द्रन (1988)
नेल्सन मंडेला (1990)
भीमराव अम्बेडकर (1990)
वल्लभ भाई पटेल (1991)
राजीव गांधी (1991)
मोरारजी देसाई (1991)
सत्यजित राय (1992)
अबुल कलाम आज़ाद (1992)
जहांगीर रतनजी दादाभाई टाटा (1992)
अरुणा आसफ अली (1997)
गुलज़ारीलाल नन्दा (1997)
ए॰ पी॰ जे॰ अब्दुल कलाम (1997)
एम॰ एस॰ सुब्बुलक्ष्मी (1998)
चिदम्बरम् सुब्रह्मण्यम् (1998)
अमर्त्य सेन (1999)
रवि शंकर (1999)
गोपीनाथ बोरदोलोई (1999)
जयप्रकाश नारायण (1999)
बिस्मिल्ला ख़ाँ (2001)
लता मंगेशकर (2001)
भीमसेन जोशी (2008)
सी॰ एन॰ आर॰ राव (2013)
अटल बिहारी वाजपेयी (2014)
मदनमोहन मालवीय (2014)
सचिन तेंदुलकर (2014)

मकोय के आयुर्वेदिक लाभ

मकोय के आयुर्वेदिक लाभ

(BLACK NIGHT) OR (NIGHT SHADE)

मकोय एक छोटा-सा पौधा है जो भारतवर्ष के छाया-युक्त स्थानों में हमेशा पाया जाता है। मकोय में पूरे वर्ष फूल और फल होते हैं।परिचय :

           मकोय एक छोटा-सा पौधा है जो भारतवर्ष के छाया-युक्त स्थानों में हमेशा पाया जाता है। मकोय में पूरे वर्ष फूल और फल होते हैं।

विभिन्न भाषाओ में नाम :

हिन्दी मकोय
संस्कृत काकमाची, रसायनवरा, काकिनी, सर्वतिक्ता
मराठी कुदा
गुजराती पीलुडी
बंगाली काकमाची, गुड़कामाई
अंग्रेजी ब्लाक नाईट ऑर नाईट पेड़, नाईट सीड
पंजाबी केचूमेच, मको
तेलगू काचि
कन्नड़ गारीकेसोप्पू
अरबी इनबुस्सा-लब
फारसी अंगूर, रोबाह
वैज्ञानिक नाम सोलनंम निर्गरूम
कुलनाम सोलनंस
रंग : कच्चे मकोय का रंग हरा होता है तथा ये पक जाने पर लाल, पीले और काले होते हैं।

स्वाद : कच्चे मकोय का स्वाद कड़वा और तीखा होता है। पका मकोय खट्टा-मीठा होता है।

स्वरूप : मकोय की शाखाएं एक-डेढ़ फुट तक ऊंची तथा शाखाओं पर उभरी हुई रेखाएं होती हैं। इसके पत्ते हरे, अण्डाकर या आयताकार, दन्तुर या खण्डित, 2-3 इंच लम्बे, एक-डेढ़ इंच तक चौडे़ होते हैं। फूल छोटे, सफेद वर्ण (रंग) के, फूल दंडों पर 3 से 8 के गुच्छों में नीचे झुके होते हैं। मकोय के फल छोटे, चिकने, गोलाकार अपरिक्व अवस्था में हरे रंग के और पकने पर नीले या बैंगनी रंग के, कभी-कभी पीले या लाल होते हैं। बीज छोटे, चिकने, पीले रंग के, बैंगन के बीजों की तरह होते हैं परन्तु बैंगन के बीजों से बहुत छोटे होते हैं। पकने पर फल मीठे लगते हैं।

स्वभाव : यह चिकना और गर्म होता है। इसकी पत्तियों में प्रोटीन 5.9 प्रतिशत, वसा खनिज 2.1 प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट 8.9 प्रतिशत पाया जाता है तथा प्रति 100 ग्राम मकोय में कैल्शियम लगभग 1 ग्राम का चौथा भाग, फास्फोरस लगभग 1 ग्राम का चौथा भाग, लोहा 20.5 मिलीग्राम होता है। इसके अतिरिक्त रिबोफ्लेबिन 0.59 मिलीग्राम, निकोटिनिक अम्ल 0.92 मिलीग्राम, विटामिन सी 0.11 मिलीग्राम तथा बी कैरोटिन 0.74 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम में होते हैं। कच्चे हरे फलों में चार स्टिरायड, एल्केलायड, सोलामर्जिन, सोलेसोनिन तथा ए. आर. बी. सोले नाइग्रीन होते हैं। इसके पके फलों में ग्लुकोज और फ्रक्टोज (15-20 प्रतिशत) तथा विटामिन `सी´ होते हैं तथा बीजों से एक हरे पीले रंग का तेल निकलता है।

दोषों को दूर करना : शहद, मकोय के गुणों को सुरक्षित रखकर दोषों को दूर करता है।

हानिकारक : बस्ति रोगों में मकोय का सेवन करना स्वास्थ्य के हानिकारक होता है। मकोय का अधिक सेवन मसाना (मूत्राशय) के लिए हानिकारक होता हैं।

तुलना : मकोय की तुलना काकनज से की जा सकती है।

गुण : मकोय वात, पित्त और कफनाशक होता है। यह सूजन, दर्द तथा व्रण शोथन (जख्म की सूजन) को दूर करता है तथा यकृत (लीवर) को उत्तेजना देने वाला, पित्तकारक और पाचक है। यह कफ, हिचकी और श्वास के रोगों को दूर करता है। इसके अलावा यह मूत्रल (मूत्र को बढ़ाने वाला), स्वेदजन (पसीना लाना वाला), कुष्ठ रोग, बुखार और विष को दूर करता है। मकोय कड़वा और पौष्टिक होता है। यकृत की क्रिया बिगड़ने से जो सूजन, बवासीर, अतिसार या कई प्रकार के त्वचा के रोग होते हैं, वे इसके सेवन से नष्ट हो जाते हैं। मकोय जुकाम (प्रतिश्याय), अरुचि, श्वास और खांसी (कास) को ठीक करने वाला तथा रक्तशोधक होता है।

विभिन्न रोगों में सहायक :

1. नींद का कम आना (अनिद्रा):

मकोय की जड़ों का 10 से 20 मिलीलीटर काढ़ा बनाकर उसमें थोड़ी मात्रा में गुड़ मिलाकर रोगी को पिलाने से नींद आने लगती है।
कच्चे सूत से मकोय की जड़ को माथे पर बांधें अथवा बिजौरा नींबू सिरहाने रखें तो नींद जल्दी आ जाती है।

2. आंखों के रोग:

पिल्ल रोग वालों की आंखों को ढककर, आंखों को इसके घी चुपड़े फलों की धूनी देने से कीड़े बाहर निकल आते हैं।

3. कान में दर्द होना:

नाक और कान के रोगों में मकोय के पत्तों का गर्म रस 2-2 बूंद कान में टपकाने से लाभ होता है।

4. मुंह के छाले:

 मकोय के 5 से 6 पत्तों को चबाने से मुंह और जीभ के छालों में आराम मिलता है।

5. दांतों के लिए:

 मकोय के पत्तों के रस में घी या तेल को बराबर मात्रा में मिलाकर दांतों की जगह पर लगाने से दांत बिना दर्द के निकल आते हैं।

6. हृदय रोग तथा जलोदर:

मकोय के पत्ते, फल और डालियों का रस निकालकर 2 से 6 मिलीलीटर तक की मात्रा में दिन में 2-3 बार रोगी को दें। इससे जलोदर (पेट में पानी भरना) और सभी प्रकार के हृदय रोग (दिल के रोग) मिट जाते हैं।

7. वमन (उल्टी):

मकोय के 10 से 15 मिलीलीटर रस में 125-250 मिलीग्राम सुहागा मिलाकर रोगी को पिलाने से वमन (उल्टी) बंद हो जाती है।

8. सब्जी:

 मकोय के पत्ते और कोमल शाखाओं की सब्जी बनायी जाती है। इसके पके फल खाने के काम आते हैं।

9. भोजन का न पचना (मंदाग्नि):

50-60 मिलीलीटर मकोय के काढ़े के सेवन से मंदाग्नि (भोजन का न पचना) मिटती है। इस काढ़े से आंखों को धोने से आंखों की रोशनी बढ़ती है।

10. यकृत (लीवर) की वृद्धि:

मकोय के पौधों का डेढ़ ग्राम रस नियमित रूप से रोगी को पिलाने से बहुत दिनों से बढ़ा हुआ जिगर कम हो जाता है। एक मिट्टी के बर्तन में मकोय का रस निकालकर इतना गर्म करें कि रस का रंग हरे से लाल या गुलाबी हो जाए। इसे रात को उबालकर सुबह ठंडा करके प्रयोग में लाना चाहिए।

11. प्लीहा (तिल्ली) वृद्धि:

50 से 60 मिलीलीटर मकोय के काढ़े में सेंधानमक तथा जीरा मिलाकर पीने से अथवा पके आम के रस को शहद में मिलाकर पीने से प्लीहा बढ़ने के रोग में लाभ मिलता है।

12. कामला (पीलिया):

मकोय के पत्तों के 50-60 मिलीलीटर काढ़े में शोरा और नौसादर की 4-6 बूंद डालकर सुबह-शाम रोगी को पिलाने से बड़ा हुआ यकृत (जिगर) ठीक हो जाता है। मकोय के 40 से 60 मिलीलीटर काढ़े में हल्दी का 2 से 5 ग्राम चूर्ण डालकर रोगी को पिलाने से पीलिया रोग में लाभ मिलता है।
मकोय के काढ़े में हल्दी का चूर्ण डालकर पीने से कामला (पीलिया) रोग में लाभ होता है।
मकोय का 4 चम्मच रस गुनगुना करके 1 सप्ताह तक पीने से पीलिया रोग में आराम आता है।

13. शोथ (सूजन):

शरीर के किसी भी अंग की सूजन के ऊपर मकोय के फलों का गर्म लेप करने से सूजन दूर हो जाती है।
मकोय, शतावरी, बथुआ शाक, सौवर्चल, इनको घी तथा मांसरस में भूनकर जिस रोगी को अनुकूल पड़ता हो, उसे सेवन करने के लिए देना चाहिए। भोजन कर लेने के बाद गाय, भैंस तथा बकरी का दूध पीने के लिए देना चाहिए। इससे शरीर के सभी अंगों की सूजन समाप्त हो जाती है।

14. वृक्क (गुर्दे) के विकार:

मकोय के रस को 10-15 मिलीलीटर रोजाना रोगी को पिलाने से विरेचन (दस्त) होता है और मूत्र में वृद्धि होती है। गुर्दे और मूत्राशय की शोथ (सूजन) एवं पीड़ा भी मिटती है।

15. कुष्ठ (कोढ़):

काली मकोय की 20-30 ग्राम पत्तियों को पीसकर लेप लगाने से कोढ़ का रोग नष्ट हो जाता है।

16. लाल चट्टे:

 मकोय के रस को थोड़ी मात्रा में रोगी को देने से शरीर के बहुत दिनों के हुए लाल चट्टे मिट जाते हैं।

17. अंडकोष की सूजन:

मकोय के पत्ते गर्म करके अंडकोषों की सूजन पर तथा हाथ-पैरों की सूजन पर लगाने से लाभ होता है।

18. कब्ज:

मकोय का रस पीने से शौच खुलकर आती है।

19. वमन (उल्टी):

मकोय के रस में सुहागा मिलाकर पीने से उल्टी होना बंद हो जाती है।

20. कान की नयी सूजन:

 10 से 20 मिलीलीटर मकोय की डालियों और पत्तों के रस को शहद के साथ मिलाकर सुबह-शाम खाने से या इसके पत्तों की सब्जी बनाकर खाने से कान की सूजन में आराम आता है। इसके रस को कान की सूजन पर लगाने से भी जल्दी आराम आता है।

21. कान में कीड़ा पड़ जाना:

मकोय के पत्तों के रस को कान में डालने से कान में घुसा हुआ कीड़ा बाहर निकल आता है।

22. बवासीर (अर्श):

मकोय का रस पानी में मिलाकर रोजाना 3 बार पीने से खूनी बवासीर ठीक हो जाती है।

23. यकृत (जिगर) का रोग:

25 मिलीलीटर मकोय का रस हल्का गर्म करके यकृत (जिगर) के ऊपर लेप करें। इससे यकृत की वृद्धि (जिगर बढ़ना) रुक जाती है।
हरी मकोय का रस निकालकर 5 मिलीलीटर की मात्रा में 4-5 दिन सेवन करने से जिगर के रोग में लाभ होता है।
20 से 100 मिलीलीटर मकोय रस रोजाना तीन बार सेवन करने से जिगर की बीमारी और उदर रोग (पेट के रोगों) में लाभ होता है।
हरी मकोय का रस, गुलाब के फूल और अमलतास के गूदे को पीसकर यकृत (जिगर) पर लेप करने से यकृत वृद्धि (जिगर बढ़ना) रुक जाती है।

24. जलोदर (पेट में पानी भरना):

मकोय के पत्तों की सब्जी खाने से जलोदर (पेट में पानी भरना) का रोग दूर हो जाता है।
मकोय के पंचांग का चूर्ण 2 ग्राम से 8 ग्राम तक दिन में 1 से 2 बार रोगी को पानी के साथ देने से जलोदर (पेट में पानी भरना) समाप्त हो जाता है।

25. पेट का बढ़ना:

मकोय का रस 10 से 20 मिलीलीटर की मात्रा में सुबह-शाम सेवन करें। इससे बढ़ा हुआ पेट कम हो जाता है।

26. रक्तपित्त:

10 से 20 मिलीलीटर मकोय का रस सुबह-शाम पीने से मुंह से होने वाली खूनी की उल्टी दूर होती है।

27. एक्जिमा:

मकोय के रस में अंकोल के बीजों को पीसकर लगाने से एक्जिमा के चकते (निशान) समाप्त हो जाते हैं।

28. हृदय की आंतरिक और बाहय सूजन:

 10 ग्राम से 20 मिलीलीटर  मकोय के पत्तों का रस सुबह-सेवन करने से हृदय की आंतरिक एवं बाहरी सूजन में लाभ मिलता है।

29. सूखा रोग:

मकोय के पत्तों का रस रोजाना सुबह-शाम बच्चे को पिलाने से सूखा रोग (रिकेट्स) में लाभ होता है।

30. बच्चों के यकृत दोष:

20 मिलीलीटर मकोय का रस और 20 मिलीलीटर मूली के रस को मिलाकर रोजाना 2 बार बच्चे को पिलाने से यकृत (जिगर) के सभी प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं।

31. खून के रोग :

 10 से 20 मिलीलीटर मकोय का रस सुबह-शाम पीने से खून शुद्ध होता है। इसको पीने से पेट साफ होता है। जिससे शरीर का सारा जहर बाहर निकल जाता है। जिगर की क्रिया भी ठीक हो जाती है। खून साफ हो जाता है। त्वचा के सारे रोग ठीक हो जाते हैं। इसको पीने से पेशाब के साथ जहर भी बाहर आ जाता है। रोग अगर बहुत ज्यादा पुराना हो तो इसे खाने के साथ-साथ इसकी लकड़ी और पत्तों की सब्जी भी खिलाते हैं और पत्तों को पीसकर लेप करने से भी लाभ होता है।

32. बच्चों के रोग:

दांत के निकलते समय में बहुत दर्द होता हो तो हरी मकोय का पानी और गुलरोगन को गर्म करके उंगली से मसूढ़ों पर मलें और 1-2 बूंद तेल भी कान में डाल दें या संभालू की जड़ गले में बाधें।
मकोय के पत्तों का रस कान में डालने से `कान में घुसा हुआ कीड़ा´ मर जाता है।

33. गले के रोग:

मकोय, कालीजीरी, खड़िया मिट्टी को बराबर मात्रा में लेकर पीस लें और पानी में मिलाकर गले पर लेप करें इससे गले के रोग में आराम आता है।
सूखी मकोय, नीम के पत्ते और शहद को मिलाकर पानी में उबाल लें जब उबलते-उबलते पानी आधा रह जाये तब उस पानी को ठंडा करके उस पानी से कुल्ला करें। इससे गले का दर्द ठीक हो जाता है।

34: सूखी खुजली और चर्म रोग

त्वचा संबंधी रोग जैसे चर्म रोग और खुजली होने पर मकोय की पत्तियों  को पीसकर इसके पेस्ट का लेप लगाने से फायदा मिलता है। साथ ही आप मकोय के डंठलों की सब्जी भी खा सकते हैं।

35:पीलिया रोग में

पीलिया में मकोय का क्वाथ रोज पीने से यह रोग ठीक हो जाता है।

36:मुंह में छाले होने पर

यदि मुंह में छाले हो गए हों तो आप परेशान न हों। मकोय के चार पत्ते लें और उन्हें मुंह में चबाएं। इससे जल्दी ही आपके छाले ठीक हो जाते हैं।

37:चर्म रोग में

चर्म रोग की समस्या होने पर मकोय के रस को निकालें और उसकी अपनी त्वचा में मालिश करें।

38:खूनी बवासीर होने पर

खूनी बवासीर में मकोय के पत्तों का एकदम ताजा रस कम से कम दस ग्राम की मात्रा में पीयें।

39,:मूत्राशय और गुरदे की सूजन

रोज मकोय के पत्तों से बना रस दस मि ली पीने से गुरदे और मूत्राशय की सूजन ठीक होती है।

40:उल्टी की समस्या

यदि उल्टी लगातार हो रही हो तो सुहागा को मकोय के रस में मिलाकर सेवन करें। उल्टी बंद हो जाएगी।

41:बुखार होने  पर

बुखार होने पर आप मकोय का काड़ा बनाकर पीयें। इससे आपका बुखार जल्दी ठीक हो जाएगा।

42:चेचक रोग में

चेचक होने से चेहरे पर दाने निकल जाते हैं। यदि समय पर उपचार न मिलें तो यह चेहरे पर दाग छोड़ देते हैं। इसके उपचार के लिए मकोय से निकलने वाले क्वाथ को पीने से चेचक निकल जाती है।

43:त्वचा पर लाल चकते होना

त्वचा पर लाल चकते दूर करने के लिए मकोय के पत्तों का रस लगाना चाहिए।

44:खराब दांत बिना दर्द के निकालना

खराब दांतों को बिना दर्द के बाहर निकालने के लिए किसी भी तेल या घी में मकोय के पत्तों का रस मिलाकर मूसड़ों और दांतों पर लगाने से खराब दांत बाहर निकल जाता है।

45:कुत्ते के काटने पर

46:
कुत्ते के काटने के विष को खत्म करने के लिए मकोय का रस पी लेना चाहिए। इससे कुत्ते का विष उतर जाता है और घाव भी जल्दी भर जाता है।

47:नींद न आने की समस्या

जिन लोगों को नींद न आने की समस्या हो वे गुड़ के साथ मकोय की जड़ का रस मिलाकर रात को सोने से पहले सेवन करें।

48:चूहे का विष

चूहे का विष बहुत खतरनाक होता है। इस विष को खत्म करने में मकोय एक मात्र आयुवेर्दिक उपचार है। मकोय का रस निकालकर मालिश करने से चूहे का विष उतर जाता है।

पुत्रदा एकादशी

---------------------------- श्रावण पुत्रदा एकादशी --------------------------------------
इस वर्ष श्रावण शुक्ल पक्ष की एकादशी जिसे पुत्रदा एकादशी के नाम से जाना जाता है का  दिन बुधवार २२  अगस्त २०१८ Wednesday  the  22nd  August 2018 को व्रत रखा जा रहा है एवं पूजा की जा रही है I
श्रावण पुत्रदा एकादशी व्रत पूजन सामग्री:- (Puja Saamagree for shravana putrada Ekadashi Vrat)
∗ श्री विष्णु जी की मूर्ति
∗ वस्त्र
∗ पुष्प
∗ पुष्पमाला
∗ नारियल
∗ सुपारी
∗ अन्य ऋतुफल
∗ धूप
∗ दीप
∗ घी
∗ पंचामृत (दूध(कच्चा दूध),दही,घी,शहद और शक्कर का मिश्रण)
∗ अक्षत
∗ तुलसी दल
∗ चंदन
∗ मिष्ठान
श्रावण पुत्रदा एकादशी व्रत की विधि (Puja Method Of shravana putrada Ekadashi)
दशमी तिथि को सात्विक भोजन ग्रहण करें। ब्रह्मचर्य का पालन करें। एकादशी के दिन प्रात:काल उठकर नित्य क्रम कर स्नान कर लें। स्वच्छ वस्त्र धारण करें। पूजा गृह को शुद्ध कर लें। आसन पर बैठ जाये। अब हाथ में जल लेकर श्रावण पुत्रदा व्रत का संकल्प करें। देवदेवेश्वर भगवान विष्णु का पूजन करें। श्रावण पुत्रदा एकादशी व्रत की कथा सुने अथवा सुनाये। आरती करें। उपस्थित लोगों में प्रसाद वितरित करें। रात्रि जागरण करें। द्वादशी के दिन प्रात:काल उठकर स्नान करें। श्रीविष्णु भगवान की पूजा करें। ब्राह्मणों को भोजन करायें। उसके उपरांत स्वयं भोजन ग्रहण करें।
पुत्रदा एकादशी व्रत की कथा :---
श्री युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! श्रावण शुक्ल एकादशी का क्या नाम है? व्रत करने की विधि तथा इसका माहात्म्य कृपा करके कहिए। मधुसूदन कहने लगे कि इस एकादशी का नाम पुत्रदा है। अब आप शांतिपूर्वक इसकी कथा सुनिए। इसके सुनने मात्र से ही वायपेयी यज्ञ का फल मिलता है।
द्वापर युग के आरंभ में महिष्मति नाम की एक नगरी थी, जिसमें महीजित नाम का राजा राज्य करता था लेकिन पुत्रहीन होने के कारण राजा को राज्य सुखदायक नहीं लगता था। उसका मानना था कि जिसके संतान न हो, उसके लिए यह लोक और परलोक दोनों ही दु:खदायक होते हैं। पुत्र सुख की प्राप्ति के लिए राजा ने अनेक उपाय किए परंतु राजा को पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई।
वृद्धावस्था आती देखकर राजा ने प्रजा के प्रतिनिधियों को बुलाया और कहा- हे प्रजाजनों! मेरे खजाने में अन्याय से उपार्जन किया हुआ धन नहीं है। न मैंने कभी देवताओं तथा ब्राह्मणों का धन छीना है। किसी दूसरे की धरोहर भी मैंने नहीं ‍ली, प्रजा को पुत्र के समान पालता रहा। मैं अपराधियों को पुत्र तथा बाँधवों की तरह दंड देता रहा। कभी किसी से घृणा नहीं की। सबको समान माना है। सज्जनों की सदा पूजा करता हूँ। इस प्रकार धर्मयुक्त राज्य करते हुए भी मेरे पु‍त्र नहीं है। सो मैं अत्यंत दु:ख पा रहा हूँ, इसका क्या कारण है?
राजा महीजित की इस बात को विचारने के लिए मं‍त्री तथा प्रजा के प्रतिनिधि वन को गए। वहाँ बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के दर्शन किए। राजा की उत्तम कामना की पूर्ति के लिए किसी श्रेष्ठ तपस्वी मुनि को देखते-फिरते रहे।
एक आश्रम में उन्होंने एक अत्यंत वयोवृद्ध धर्म के ज्ञाता, बड़े तपस्वी, परमात्मा में मन लगाए हुए निराहार, जितेंद्रीय, जितात्मा, जितक्रोध, सनातन धर्म के गूढ़ तत्वों को जानने वाले, समस्त शास्त्रों के ज्ञाता महात्मा लोमश मुनि को देखा, जिनका कल्प के व्यतीत होने पर एक रोम गिरता था।
सबने जाकर ऋषि को प्रणाम किया। उन लोगों को देखकर मुनि ने पूछा कि आप लोग किस कारण से आए हैं? नि:संदेह मैं आप लोगों का हित करूँगा। मेरा जन्म केवल दूसरों के उपकार के लिए हुआ है, इसमें संदेह मत करो।
लोमश ऋषि के ऐसे वचन सुनकर सब लोग बोले- हे महर्षे! आप हमारी बात जानने में ब्रह्मा से भी अधिक समर्थ हैं। अत: आप हमारे इस संदेह को दूर कीजिए। महिष्मति पुरी का धर्मात्मा राजा महीजित प्रजा का पुत्र के समान पालन करता है। फिर भी वह पुत्रहीन होने के कारण दु:खी है।
उन लोगों ने आगे कहा कि हम लोग उसकी प्रजा हैं। अत: उसके दु:ख से हम भी दु:खी हैं। आपके दर्शन से हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारा यह संकट अवश्य दूर हो जाएगा क्योंकि महान पुरुषों के दर्शन मात्र से अनेक कष्ट दूर हो जाते हैं। अब आप कृपा करके राजा के पुत्र होने का उपाय बतलाएँ।
यह वार्ता सुनकर ऋषि ने थोड़ी देर के लिए नेत्र बंद किए और राजा के पूर्व जन्म का वृत्तांत जानकर कहने लगे कि यह राजा पूर्व जन्म में एक निर्धन वैश्य था। निर्धन होने के कारण इसने कई बुरे कर्म किए। यह एक गाँव से दूसरे गाँव व्यापार करने जाया करता था।
एक समय ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन मध्याह्न के समय वह जबकि वह दो दिन से भूखा-प्यासा था, एक जलाशय पर जल पीने गया। उसी स्थान पर एक तत्काल की ब्याही हुई प्यासी गौ जल पी रही थी।
राजा ने उस प्यासी गाय को जल पीते हुए हटा दिया और स्वयं जल पीने लगा, इसीलिए राजा को यह दु:ख सहना पड़ा। एकादशी के दिन भूखा रहने से वह राजा हुआ और प्यासी गौ को जल पीते हुए हटाने के कारण पुत्र वियोग का दु:ख सहना पड़ रहा है। ऐसा सुनकर सब लोग कहने लगे कि हे ऋषि! शास्त्रों में पापों का प्रायश्चित भी लिखा है। अत: जिस प्रकार राजा का यह पाप नष्ट हो जाए, आप ऐसा उपाय बताइए।
लोमश मुनि कहने लगे कि श्रावण शुक्ल पक्ष की एकादशी को जिसे पुत्रदा एकादशी भी कहते हैं, तुम सब लोग व्रत करो और रात्रि को जागरण करो तो इससे राजा का यह पूर्व जन्म का पाप अवश्य नष्ट हो जाएगा, साथ ही राजा को पुत्र की अवश्य प्राप्ति होगी।
लोमश ऋषि के ऐसे वचन सुनकर मंत्रियों सहित सारी प्रजा नगर को वापस लौट आई और जब श्रावण शुक्ल एकादशी आई तो ऋषि की आज्ञानुसार सबने पुत्रदा एकादशी का व्रत और जागरण किया।
इसके पश्चात द्वादशी के दिन इसके पुण्य का फल राजा को दिया गया। उस पुण्य के प्रभाव से रानी ने गर्भ धारण किया और प्रसवकाल समाप्त होने पर उसके एक बड़ा तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ।
इसलिए हे राजन! इस श्रावण शुक्ल एकादशी का नाम पुत्रदा पड़ा। अत: संतान सुख की इच्छा हासिल करने वाले इस व्रत को अवश्य करें। इसके माहात्म्य को सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है और इस लोक में में संतान सुख भोगकर परलोक में स्वर्ग को प्राप्त होता है।
श्रावण पुत्रदा एकादशी व्रत महात्म्य:- (Importance of shravana putrada Ekadashi) :-
यह श्रावण पुत्रदा एकादशी मनुष्य के सभी पापों को नष्ट करता है। इस एकादशी व्रत के पुण्य से मनुष्य को संतान की प्राप्ति होती है। अत: इस व्रत को संतान के इच्छुक मनुष्य को अवश्य करना चाहिये।
सभी वैष्णव भक्तो को "समस्त आहूजा परिवार" की और से "श्रावण पुत्रदा एकादशी" व्रत की सफलता के लिए अग्रिम मंगल कामनाये, आप सभी वैष्णव भक्तो की भक्ति सफल हो एवं जीवन उपरान्त मोक्ष की प्राप्ति हो I

On 23rd, Parana Time = 05:58 to 08:32
On Parana Day Dwadashi End Moment = 10:15
Ekadashi Tithi Begins = 05:16 on 21/Aug/2018
Ekadashi Tithi Ends = 07:40 on 22/Aug/2018

गुरुवार, 16 अगस्त 2018

अटल बिहारी वाजपायी

अमर हो गये
मरे नही हैं
कालकूट से
डरे नहीं हैं
सूरज अस्त नही होता है
बस आंखों से ओझल होता है
जन में रहेगे
जनमन मे रहेगे
अटल हर भारतीय के जीवन में रहेगे
#RIPVAjpayee 

बुधवार, 15 अगस्त 2018

आजादी?

बड़ी कीमत गयी चुकाई|
फिर हमने आजादी पाई||
आजादी?
गुलामी से कि अंग्रेजों से?
शोषण से? भ्रस्टाचार के थपेड़ों से?
सबको मिली आजादी?
सबको मिला अधिकार?
इस तथाकथित आजादी से
क्या सबका है सरोकार?
कुछ और ही है इसकी सच्चाई|
गोरों के बदले बस नौकरशाही आयी|
बड़ी कीमत गयी चुकाई |
फिर जाकर आजादी आई|

मंगलवार, 14 अगस्त 2018

दान करने के तरीके

🔯#शास्त्रीय_दान_विधि🔯🚩
श्रीराम!
     शास्त्रों में छोटे छोटे दानों का भी बहुत बड़ा महान् फल देखा जाता है। किन्तु कई ऐसे लोग हैं जो बहुत बड़े बड़े दान करते हैं, उन्हें महान् तो क्या लघु फल भी मिलता हुआ नहीं दीखता, वल्कि कभी कभी शङ्कट ग्रस्त देखे जाते हैं। इस प्रकार नास्तिकों को ही नहीं आस्तिक श्रद्धालुओं में भी शास्त्रीय दान आदि विधियों पर सन्देह उत्पन्न होना स्वाभाविक है।
      इसका समाधान इस प्रकार है-- अङ्ग रूपसे कही गईं शुद्ध द्रव्य, सुपात्र, सात्विक श्रद्धा, आदि शास्त्र-विधि पूर्वक जो दानादि दिए जाते हैं ,उन्हीं के ही फल शास्त्रों में कहे गए अनुसार प्राप्त होते हैं। उनके फल भी प्रायः जन्मान्तर में ही प्राप्त होते हैं।इसी जन्म में तो किसी अति उत्कृष्ट दान का ही फल प्राप्त होता है।
      दान आदि पुण्य करने वालों को भी जो अधिक शङ्कट प्राप्त होताे है, उसका कारण भी पूर्व जन्म के पाप होते हैं।
      शास्त्र कथित दान आदि का  उसी अनुरूप फल प्राप्त करने के लिये  निम्न विधियों का पालन अनिवार्य है--
#शुद्धद्रव्य :--न्याय से उपार्जित धन का दशवाँ हिस्सा ईश्वर की प्रशन्नता के लिए लगाना चाहिए--
#न्यायोपार्जितवित्तस्य_दशमांशेन_श्रीमता।
#कर्तव्यो_विनियोगश्च_ईश्वरप्रीत्यर्थहेतवे।।( स्कन्द.पु.१-१-१२-३२)।
        अन्याय से उपार्जित धन से जो दान आदि शुभ कर्म किये जाते हैं, उनसे न तो इस लोक में कीर्ति होती है और न ही परलोक में ही उसका कोई फल होता है।इस लिए न्यायोपार्जित धन से ही दानादि शुभ कर्म करने चाहिए।--
#अन्यायोपारजितेनैव_द्रव्येण_सुकृतं_कृतम्।
#न_कीर्तिरिहलोके_च_परलोके_च_तत्फलम् (देवीभाग.३-१२-८),(बृद्ध शातातप समृ.६२)।

#सुपात्र:---दानके मुख्य पात्र ब्राह्मण ही होते हैं।ब्राह्मण से भिन्न अन्य किसी को दिए गए दान को दान नहीं सहायता-सेवा ही कहा जा सकता है।मनु स्मृति आदि धर्मशास्त्रों में ब्राम्हण को ही मुख्य सुपात्र कहा गया है।
         ब्राह्मणों में भी जो वेद का विद्वान् , वैदिकधर्मका आचरण करने वाला ,अयाचक, असंग्रही,तपस्वी,आदि जितने अधिक गुणों से युक्त होता है , उसे दिया हुआ दान उतना ही अधिक फल देता है। इसी लिए महाभारत में ऐसे ही ब्राह्मणों को सभी उपायों से निमंत्रित करने का कथन किया है---
#कृशाय_कृतविद्याय_वृत्तिक्षीणाय_सीदते।
#अपहान्यात्क्षुधां_यस्तु_न_तेन_पुरुषः_सम:।।
#क्रियानियमितान्साधून्_पुत्रदारैश्च_कर्शितान्।
#अयाचमानान्कौन्तेय_सर्वोपायैर्निमन्त्रयेत्।।
*महा.अनु.प.५९-/११/१२)।

*#सुदेश :---प्रयागादि तीर्थों में मन्दिर आदि पुण्यस्थानों में गङ्गादि  पुण्यनदी-तटों में तथा वृन्दावन आदि पुण्य वनों में दान देने से सामान्य स्थलों में दान देने की अपेक्षा अनेकों गुना अधिक फल होता है--
*#प्रयागादितीर्थेषु_पुण्येष्वायतानेषु_च।
*#दत्वाक्षयमाप्नोति_नदीषु_वनेषु_च ।।(कूर्म.पु.२-२६-५४)।
          इसके आलावा जिस देश में जिस वस्तु का अभाव हो, वह देश तीर्थस्थान न होने पर भी उस देश में उस वस्तु का दान देना भी सुदेश में दान करना ही माना जाता है।

 #सुकाल:---वैशाख शुक्लतृतीया ( अक्षय तृतीया), कार्तिक शुक्ल नौमी(अक्षय नौमी) , आदि युगों की आरम्भ तिथियाँ,पूर्णिमा , अमावस्या,एकादशी कुम्भ, दक्षिणायन-उत्तरायणकी संधि,मास की संक्रान्ति विषुव योग, चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण, आदि शुभकाल, में दिया हुआ दान महान् फल देता है--
#अयने_विषुवे_चैव_ग्रहणे_चंद्रसूर्ययोः।
#संक्रादिकालेषु_दत्तं_भवति_चाक्षयम्।।( कूर्म.पु.२-२६-५२)।
        इसके अतिरिक्त जिस काल में जिसको जिस वस्तु की आवश्यकता हो(अभाव हो) ,उसे उस काल में उस वस्तु को देना भी शुभकाल ही होता है।
       वस्तुतः-- जिस काल में धन हो, श्रद्धा का उदय हो, दानकार्य में सहायक हो, सुपात्र की प्राप्ति हो, वह काल दान के लिए शुभकाल ही होता है ---
#वित्तं_श्रद्धा_सहायश्च_पात्रप्राप्तिस्तथैव_च।
#दानकालः_तदैवेह_कथितस्तत्वदर्शिभिः ।।( कूर्म पु. ४-१९३-४)।

      क्योंकि जीवन अनित्य होता है,कब मृत्यु हो जाए कोई ठिकाना नहीं है अतः ---
#यदा_वा_जायते_वित्तं_चित्तंश्रद्धा_समन्वितम्।
#तदैव_दानकालः_स्याद्यतोनित्यं_हि_जीवितम्।(भविष्य.पु. ४-१६३ -६)।
        इस प्रकार ऊपर कही बातों  पर ध्यान रखकर विधिपूर्वक सङ्कल्प  करके जो व्यक्ति दानादि शुभकर्म करता है उसका छोटा सा भी शुभकर्म  मेरु के समान महान् फल वाला होता है--
#यथोक्तं_कुरुते_यस्तु_विधिवत्_सुकृतं_नरः।
#स्वल्पं_मुनिवरश्रेष्ठ_मेरुतुल्यं_भवेत्_फलम्।।(पद्म.पु. ६-२२-१३)
         जो शास्त्रीय विधि का त्याग करके मेरु समान शुभ कर्म करता है , उसे अणु समान अति तुच्छ फल मिलता है---
#विधिहीनं_तु_यःकुर्यात्_सुकृतं_मेरुमात्रकम्।
#अनुमात्रं_तदाप्नोति_फलं_धर्मस्य_नारद।।(पद्म पु. ६-६२-१४)।
#विशेष:- ये उप

रविवार, 12 अगस्त 2018

योगिनी एकादशी

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🌹#योगिनी_एकादशी🌹
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🌹अलकापुरी नगर के राजा कुबेर भगवान शिव के अन्यय भक्त हैे। राजा कुबेर का एक हेममाली नाम का एक यक्ष सेवक था, जो नित्य प्रतिदिन राजा के पूजा के लिए फूल लाया करता था। उस यक्ष हेममाली की पत्नी अत्यधिक रूपवान थी, एक दिन वह यक्ष मानसरोवर से पूजा हेतु फूल लेकर आया, किन्तु कामासक्त होने के कारण वह फूल को वही रख अपनी पत्नी के साथ समय व्यतीत करने लगा। इधर राजा हेममाली का इंतजार करते हुए दोपहर हो गया।
🌹हेममाली के नहीं आने से राजा क्रोधित हो गये, और अपने अन्य सेवको को आदेश दिया, तुम जाकर पता लगाओं की हेममाली अभी तक फूल लेकर क्यों नहीं आया है। राजा का आदेश मान सेवक हेममाली के घर पहुचे। उन्होंने देखा हेममाली अपनी स्त्री के साथ है, सेवक वापस आकर यह संदेश राजा को दी। राजा कुबेर ने हेममाली को बुलाने की आज्ञा दी। राजा का संदेश मिलते ही वह यक्ष हेममाली डर से कापते हुए, राजा के दरबार पहुचा।
🌹राजा ने हेममाली से कहाॅ - अरे अधर्मी, तेरे कारण मेरे पूज्य देव भगवान शिव जी का अपमान हुआ है। मैं तुम्हें श्राप देता हॅू, कि तू स्त्री के वियोग में तड़प-तड़प कर मृत्युलोक में जाकर भी कोढ़ी का जीवन व्यतीत करेगा।
🌹राजा कुबेर के श्राप से वह यक्ष तत्क्षण ही स्वर्ग से गिर पृथ्वी पर आ गिरता है, और उसे कोढ़ हो जाता है। पृथ्वी पर आने के कारण उसका पत्नी से वियोग हो जाता है। स्वर्ग से पृथ्वी पर आने के कारण उसे अनेक प्रकार के कष्ट सहने पड़ते है, इस प्रकार वह यक्ष अनेक कष्टों को भोग अपने कुकर्मो को याद करते हुए हिमालय की तरफ चल पड़ता है। हिमालय की ओर चलते-चलते वह मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम में आ पहुचता है। वह यक्ष हेममाली ऋषि को देख प्रणाम कर उनके चरणों में गिर जाता है।
🌹हेममाली को देख ऋषि मार्कडेण्य कहते है - तूने कौन से निकृष्ट कर्म किये है, जिसके कारण तुम्हें कोढ़ जैसे भयानक रोग का कष्ट भोगना पड़ रहा है।
🌹ऋषि मार्कण्डेय के वचन सुन हेममाली कहता है - हे ऋषिवर मै राजा कुबेर का यक्ष सेवक था। मेरा नाम हेममाली है, मै प्रतिदिन भगवान शिव की पूजा हेतु राजा कुबेर के लिए मानसरोवर से पुष्प लाया करता था। परन्तु एक दिन मुझे अपनी पत्नी के साथ कामासक्त सुख में फसने के कारण मुझे समय का बोध नहीं रहा, और मैं दोपहर तक राजा के पूजा के लिए पुष्प नहीं पहुचा सका। इसलिए राजा ने मुझे स्त्री वियोग और मृत्युलोक में कोढ़ी होने का श्राप दिया। इसी कारण में इस पृथ्वी लोक पर इस भयंकर कोष्ट का भोग कर रहा हूॅ, हे ऋषिवर कृपा कर आप मुझे इस भयानक रोग मुक्ति हेतु कोई उपाय बताये जिससे मेरी मुक्ति हो।
🌹ऋषि मार्कण्डेय उस हेममाली की बात सुन कहते है - मैं तुम्हारे उद्धार हेतु एक व्रत बताता हूॅ। आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की योगिनी एकादशी का व्रत करने से तुम्हारे सारे पाप समाप्त हो जायेंगे।
🌹ऋषि मार्कण्डेय द्वारा बताए एकादशी का हेममाली ने विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उसके सारे पाप समाप्त हो गये और वह अपने पहले के स्वरूप को पुन प्राप्त कर अपनी स्त्री के साथ सुखपूर्वक जीवन यापन करने लगा।
🌹योगिनी एकादशी की कथा का फल अट्टीसी सहस्त्र ब्राम्हणों को भोजन कराने के बराबर है। इसके करने से सभी पाप समाप्त हो जाते है। परन्तु मनुष्यों को भी पूजा आदि धर्म के कार्य करने के समय मन में संयम सदैव रख केवल भगवान की सेवा में तत्पर होना चाहिए।
🌹🌹 !!जय श्री हरि!!🌹🌹
🌹🌹महादेव 💓🌿👣हर हर 👣🌿💓महादेव 🌹🌹

मानव जीवन के बीस दोष

*🍂🔺👦#मानव_जीवन_के🔺🍂*
 *💥🔥🌷#बीस_दोष💥🔥🌷*
📖 *महाभारत के अनुशासन पर्व में देवगुरु बृहृस्पति एवं धर्मराज युधिष्ठिर का संवाद आता है। धर्मराज युधिष्ठिर के पूछने पर धर्मशास्त्रज्ञ, संयममूर्ति, देवों से पूजित, देवगुरु बृहस्पतिजी जीव के दोषों एवं उनकी गति का वर्णन करते हुए कहते हैं-*

*1.जो ब्राह्मण चारों वेदों का अध्ययन करने के बाद भी मोहवश पतित व्यक्ति का दान लेता है, वह 15 वर्ष तक गधे की योनि में रहकर 7 वर्ष तक बैल बनता है। बैल का शरीर छूटने पर 3 मास तक ब्रह्मराक्षस होता है।*

*2.जो ब्राह्मण पतित पुरुष का यज्ञ कराता है, वह मरने के बाद 15 वर्ष कीड़ा बनता है। फिर 5 वर्ष गधा, 5 वर्ष शूकर, 5 वर्ष मुर्गा, 5 वर्ष सियार और 1 वर्ष कुत्ता होता है।*

*3.धर्मराज युधिष्ठिर हाथ जोड़कर नम्रता से प्रश्न करते हैं- “हे देवगुरु बृहस्पति जी ! जो शिष्य मूर्खतावश गुरु का अपराध करता है, गुरु हित चाहते हैं फिर भी गुरु की बात को महत्त्व नहीं देता है और अपने मान-अपमान को पकड़कर, गुरु के कहने का सीधा अर्थ नहीं लेता है उसकी क्या गति होती है ?”*

*बृहस्पति जी बोलेः “इस अपराध से वह मरने के बाद कुत्ते की योनि में जाता है और भौं-भौं करता रहता है, बकवास करता है। गुरु अपने हित की बात बतायें और वह सफाई देता है तो देता रहे… रात भर भौंकता रहे, ऐसी कुत्ते की योनि उसे मिलती है। उसके बाद राक्षस एवं गधे की योनि में भटकता है, फिर प्रेत-योनि में भटकता है। इस प्रकार अनेक कष्ट भुगतने के बाद उसे मनुष्य योनि मिलती है।”*

*4.जो शिष्य मूर्खतावश गुरु की बात का अनादर करता है उसको पशु योनि मिलती है और हिंसक मनुष्यों के बाण सहने पड़ते हैं। गुरु हित की बात करें और शिष्य न सुने तो फिर वह ऐसी पाशवी नीच योनियों में जायेगा कि दुःख-पीड़ा सहेगा, मरेगा-जन्मेगा और अन्य पशुओं से, शिकारियों से शोषित होगा….*

*5.जो पुत्र अपने माता-पिता का अनादर करता है वह भी मरने के बाद पहले 10 साल तक गधे का शरीर पाता है। फिर 1 साल तक घड़ियाल की योनि में रहने के बाद मानव-योनि का अवसर पाता है।*

*6.जिस पुत्र पर माता-पिता रुष्ट हों, उसकी क्या गति होती है ? वह मरकर 10 मास तक गधे की योनि में, 14 महीने तक कुत्ते की योनि में और 7 माह तक बिलाव की योनि में भटककर फिर मनुष्य होने का अवसर पाता है।*

*7.जो व्यक्ति माता-पिता को गाली देता है, तू कहकर बुलाता है – ‘ऐ बुढ़िया ! तू चुप रह। ऐ बुड्ढे ! तू चुप रह। तू क्या जाने ?’ ऐसा व्यक्ति मरने के बाद मैना बनता है।*

*8.जो माता-पिता को मारता है वह 10 वर्ष तक कछुआ होता है। वैसे तो कछुए की आयु लंबी होती है लेकिन वह 10 वर्ष तक कछुआ रहकर मर जाता है फिर 3 वर्ष तक साही और 6 महीने तक सर्प होता है।*

*9.जो किसी राजा का सेवक होते हुए भी मोहवश राजा के शत्रुओं की सेवा करता है अथवा जो गुरु का सेवक है लेकिन गुरु की सेवा के बहाने उनकी अवहेलना करके उनके उपदेश के विपरीत काम करता है, वह मरने के बाद 10 वर्ष तक वानर, 5 वर्ष चूहा और 6 महीने तक कुत्ता होकर फिर मनुष्य-शरीर को पाता है।*

*10.दूसरों की धरोहर हड़पने वाला मनुष्य यमलोक में जाता है और क्रमशः सौ योनियों में भ्रमण करके अंत में 15 वर्ष तक कीड़ा होता है।*

*11.जो दूसरों के दोष देखता है और एक दूसरे को चिढ़ाता रहता है वह हिरण की योनि में जन्म लेता है।*

*12.दूसरों से विश्वासघात करने वाला 8 वर्ष तक मछली की योनि में भटकता है, 4 मास तक मृग बनता है, 1 वर्ष तक बकरा होने के बाद कीड़े की योनि में जन्म लेता है। इस प्रकार की नीच योनियों को भोगने के बाद उसे मनुष्य योनि मिलती है।*

*13.जो अनाज चुराता है वह मरने के बाद पहले चूहा बनता है। फिर गोदाम में से अनाज चुराते रहो और बिल में ले जाओ….। चूहे की योनि के बाद सूअर की योनि पाता है। वह सुअर जन्म लेते ही रोग से मर जाता है। फिर 5 वर्ष तक कुत्ता होने के पश्चात मनुष्य जन्म पाता है।*

*14.परस्त्रीगमन का पाप करके मनुष्य क्रमशः भेड़िया, कुत्ता, सियार, गीध, साँप, कंक (सफेद चील) और बगुला होता है।*

*15.जो भाई की स्त्री के साथ व्यभिचार करता है, वह 1 वर्ष तक कोयल की योनि में पड़ा रहता है।*

*16.जो मित्र, गुरु और राजा की पत्नी के साथ कुकर्म करता है वह 5 वर्ष तक सुअर, 10 वर्ष तक भेड़िया, 5 वर्ष तक बिलाव, 10 वर्ष तक मुर्गा, 3 महीने तक चींटी और 14 महीने तक कीड़े की योनि में रहता है। ऐसे करते-कराते फिर मनुष्य योनि में आने का वह अवसर पाता है।*

*17.जो यज्ञ, दान अथवा विवाह के शुभ वातावरण में विघ्न डालता है वह 15 वर्ष तक कीड़े की योनि में जन्म लेता है।*

*18.बड़ा भाई पिता के समान होता है। जो बड़े भाई का अनादर करता है उसे मृत्यु के बाद 1 वर्ष तक क्रौंच पक्षी की योनि में रहना पड़ता है। फिर वह चीरक की जाति का पक्षी होता है, उसके बाद मनुष्य योनि में आता है।*

*19.जो कृतघ्न है अर्थात् किसी के द्वारा की गयी भलाई या उपकार को न मानने वाला, ऐसे व्यक्ति को यमलोक में बड़ी कठोर यातनाएँ मिलती हैं। उसके पश्चात 15 वर्ष तक कीड़े की योनि में जन्मता है। फिर पशुओं के गर्भ में आकर गर्भावस्था में ही मर जाता है। इस प्रकार सौ बार गर्भ की यंत्रणा भोगकर फिर तिर्यग (पक्षी) योनि में जन्म लेता है। इन योनियों में बहुत वर्षों तक दुःख भोगने के पश्चात वह फिर कछुआ होता है।*

*20.जो मानव विश्वासपूर्वक रखी हुई किसी की धरोहर को हड़प लेता है, वह मछली की योनि में जन्म पाता है। फिर मनुष्य बनता है लेकिन उसकी आयु बहुत कम होती है। मनुष्य तो बनता है, गर्भ की पीड़ा सहता है, बचपन की मारपीट सहता है और कुछ समझने की उम्र आती है तब तक तो मर जाता है। जैसे तुम्हारी मानवीय सृष्टि में 307 के केस की कितनी सज़ा…. पहले से निर्धारित है, ऐसे ही ईश्वरीय सृष्टि का कायदा भी पहले से ही बना-बनाया है। इन कर्मजन्य, भावजन्य, विचारजन्य, संगजन्य आदि दोषों से बचने का उपाय है-सत्संग एवं भगवन्नाम-जप, जिनसे अपनी मति-गति एवं कर्म ऊँचे बन जाते हैं और ईश्वरार्पण बुद्धि से किये गये सत्कर्म नैष्कर्म सिद्धि देकर ईश्वरप्राप्ति करा देते हैं। अतः बुद्धिमान मनुष्यों को चाहिए कि वे नीच कर्मों से बचें एवं ईश्वरीय आनंद ईश्वरीय सुख को पा लें और मुक्त हो जायें। नीच कर्मवाले निगुरे व्यक्ति नीच योनियों में भटकते हैं और सत्कर्म में रत सत्संगी-सन्मार्गी सत्पद को पाते हैं।*

*जिसके जीवन में सत्संग नहीं होगा, भगवन्नाम-जप नहीं होगा, जो सावधान नहीं होगा, वह, इन 20 दोषों में से किसी-न-किसी दोष का शिकार बन जायेगा। चाहे विश्वासघाती बने, चाहे कृतघ्नी बने, चाहे विघ्न डालने वाला बने, चाहे बड़े भाई का अनादर करने वाला बने, चाहे माता-पिता का अनादर करने वाला बने…. लेकिन ईश्वर के मार्ग पर चलने से भाई, माता-पिता, कुटुम्बी कोई भी रोके तो उनकी बात की अवहेलना करने से कोई पाप नहीं लगता है। इन 20 दोषों से बचने हेतु सत्शास्त्र का पठन-मनन और सच्चे संतों का सत्संग सर्वोपरि है।*
*🌸🍂#जय_राम_जी_की🍂🌸*

शनिवार, 4 अगस्त 2018

रामायण के अल्‍पज्ञात दुर्लभ प्रसंग

रामायण के अल्‍पज्ञात दुर्लभ प्रसंग,सुमंत्र को दशरथजी के समय ही रघुवंश का भूत भविष्‍य ज्ञात था!!!!!!

श्रीराम राज्‍याभिषेक उपरान्‍त सखाओं के साथ बैठकर अनेक प्रकार की हास्‍य विनोदपूर्ण कथाएँ कहा करते थे। इन सखाओं के नाम थे-

विजयो मधुमत्तश्‍व काश्‍यपो मंगलः कुलः।
सूराजिः कालियो भद्रो दन्‍तवक्‍त्र सुमागधः॥
-वा.रा.,उत्तरकाण्‍ड, सर्ग 43। 2

विजय, मधुमत्त, काश्‍यप, मंगल, सुराजि, कालिय, भद्र, दन्‍तवक्‍त्र और सुमागध। भद्र से श्रीराम ने एक दिन पूछा कि सखा सही-सही बताओं कि मेरे बारे में पुरवासी कौन-कौन सी शुभ व अशुभ बाते कहते हैं। तब भद्र ने कहा कि-

हत्‍वा च रावणं संख्‍ये सीतामाहृत्‍य राघवः।
अमर्ष पृष्‍ठतः कृत्‍वा स्‍ववेश्‍म पुनरायत्‌॥ -वा.रा.,उत्तरकाण्‍ड, सर्ग 43।16

परन्‍तु एक बात खटकती है कि युद्ध में रावण को मारकर श्री रघुनाथजी सीता को अपने घर ले आये। उनके मन में सीता के चरित्र को लेकर रोष या अमर्ष नहीं हुआ। इस चर्चा के उपरान्‍त राम ने समस्‍त सुहृदयों से पूछा कि भद्र का यह कथन सत्‍य है? सभी सखाओं ने कहा कि भद्र का कथन सत्‍य है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है।

इसके पश्‍चात्‌ मित्र मण्‍डली चली गई तथा श्रीराम ने तत्‍काल द्वारपाल को कहा कि तुम शीघ्र जाकर महाभाग भरत, लक्ष्‍मण और शत्रुघ्‍न को मेरे पास बुला लाओ। द्वारपाल ने तीनों भाइयों को हाथ जोड़कर कहा कि प्रभो महाराज श्रीराम आपसे मिलना चाहते हैं। इतना सुनकर तीनों भाई श्रीराम के पास पहुँच गये।

 श्रीराम बोले राजकुमारों! तुम लोग मेरे सर्वस्‍व हो। तुम्‍ही मेरे जीवन हो और तुम्‍हारे द्वारा सम्‍पादित इस राज्‍य का मैं पालन करता हूँ। तुम सभी शास्‍त्रों के ज्ञाता और बताये कर्त्तव्‍य का पालन करने वाले हो। इस समय मैं जो कार्य तुम्‍हारे सामने उपस्‍थित करने वाला हूँ उसका तुम सबको मिलकर सम्‍पादन करना होगा। श्रीराम ने कहा कि-

पौरापवादः सुमहांस्‍तथा जनपदस्‍य च।
वर्तते मयि ब्रीभत्‍सा सा मे मर्माणि कृन्‍तति॥
-वा.रा.,उत्तरकाण्‍ड, सर्ग 45।3

इस समय पुरवासियों और जनपद के लोगों में सीता के सम्‍बन्‍ध में महान अपवाद फैला हुआ है। मेरे प्रति भी उनका बड़ा घृणापूर्ण भाव है। उन सबकी वह घृणा मेरे मर्मस्‍थल को विदीर्ण किये देती है।

प्रत्‍ययार्थं ततः सीता विवेश ज्‍वलनं तदा।
त्‍य प्रत्‍यक्षं तव सौमित्रे देवानां हव्‍यवाहनः॥
अपापां मैथिलीमाह वायुश्‍चाकाशगोचरः।
चन्‍द्रादित्‍यौ च शंसते सुराणां संनिधौ पुरा॥
ऋणीणां चैव सर्वेषामपापां जनकात्‍मजाम्‌।।-वा.रा.,उत्तरकाण्‍ड, सर्ग 45।7-8

सुमित्रा कुमार लक्ष्‍मण! उस समय अपनी पवित्रता का विश्‍वास दिलाने के लिये सीता ने तुम्‍हारे समक्ष ही अग्‍नि में प्रवेश किया था और देवताओं के समक्ष स्‍वयं अग्‍निदेव ने उन्‍हें निर्दोष बताया था। आकाशचारी वायु, चन्‍द्रमा और सूर्य ने भी पहले देवताओं तथा समस्‍त ऋषियों के समीप जनकनन्‍दिनी को निष्‍पाप घोषित किया था। मेरी अन्‍तरात्‍मा भी यशस्‍विनी सीता को शुद्ध एवं निष्‍पाप समझती है, इसलिये मैं उन्‍हें लंका से अयोध्‍या लाया था।

नरश्रेष्‍ठ बन्‍धुओं! मैं लोकनिन्‍दा के भय से अपने प्राणों को और तुम सबको भी त्‍याग सकता हूँ तो फिर सीता का त्‍यागना कौन बड़ी बात है? अतः लक्ष्‍मण! कल प्रातःकाल तुम सारथि सुमन्‍त्र के द्वारा संचालित रथ पर आरुढ़ हो सीता को भी उसी पर चढ़ाकर इस राज्‍य की सीमा से बाहर छोड़ दो।

 गंगा के उस पार तमसा के तट पर महात्‍मा वाल्‍मीकि मुनि के दिव्‍य आश्रम के निकट निर्जन वन में छोड़कर लौट आओ। तुम सब भाइयों को मेरे चरणों और जीवन की शपथ है कि मेरे इस निर्णय के विरूद्ध कुछ न कहो। जो मेरी आज्ञा में बाधा उपस्‍थित करेगा वह सदा के लिये मेरा शत्रु होगा।

पूर्वमुक्‍तोऽहमनया गंगातीरेऽहमाश्रमान्‌।
पश्‍येयमिति तस्‍याश्‍च कामः संवर्त्‍यतामयम्‌। -वा.रा.,उत्तरकाण्‍ड, सर्ग 45। 23)

सीता ने पहले मुझसे कहा था कि मैं गंगातट पर ऋषियों के आश्रम देखना चाहती हूँ। अतः उनकी यह इच्‍छा भी पूर्ण की जाय। रात्रि बीती और सवेरा हुआ, तब लक्ष्‍मणजी ने अत्‍यन्‍त ही दुःख के साथ सुमंत्र से कहा -‘‘सारथे, एक उत्तम रथ में शीघ्रगामी घोड़ों को जोतो और उस रथ में सीताजी के लिये सुन्‍दर आसन बिछा दो। मैं महाराज की आज्ञा से सीतादेवी को महर्षियों के आश्रम पर पहुँचा दूँगा।

 सुमंत्र लक्ष्‍मणजी की आज्ञानुसार उत्तम घोड़ो से जुता हुआ, सुखद शय्‍या से युक्‍त बिछावन वाला रथ ले आये। तत्‍पश्‍चात्‌ लक्ष्‍मण राजमहल में सीताजी के पास जाकर बोले, देवि! आपने महाराज से मुनियों के आश्रमों पर जाने के लिये वर मांगा था और महाराज ने आपको आश्रम पर पहुँचाने के लिये प्रतिज्ञा की थी। अतः राजा की आज्ञा से शीघ्र ही गंगातट पर ऋषियों के सुन्‍दर आश्रमों तक चलूँगा एवं आपको वन में पहुँचाउँगा।

सीता हर्ष के साथ बहुमूल्‍य वस्‍त्र और नाना प्रकार के रत्‍न लेकर वन यात्रा पर चल पड़ी। लक्ष्‍मण से कहा कि ये सब बहुमूल्‍य वस्‍त्र आभूषण और नाना प्रकार के रत्‍न धन मैं मुनि-पत्‍नियों को दूँगी। सीता ने लक्ष्‍मण से कहा कि रथ पर चढ़ते ही मुझे नाना प्रकार के अपशकुन दिखाई दे रहे हैं। मेरी दांयी आँख फड़क रही है और शरीर में कम्‍प हो रहा है। तुम्‍हारे भाई तो कुशल है। गोमती के तट पर पहुँचकर एक रात्रि आश्रम में बिताई। पुनः प्रातःकाल लक्ष्‍मण सारथी से रथ जोत कर सीताजी को बैठाकर पापनाशिनी गंगा के तट पर पहुँच गये।

गंगातट पहुँच कर लक्ष्‍मण फूट-फूट कर रोने लगे, तब सीताजी अत्‍यन्‍त चिन्‍तित होकर उनसे बोली-लक्ष्‍मण यह क्‍या? तुम रोते क्‍यों हो? आज चिरकाल की मेरी अभिलाषा पूर्ण हुई और तुम इस हर्ष के अवसर पर दुःखी क्‍यों हो? मुझे गंगा के उस पार ले चलो और तपस्‍वी मुनियों के दर्शन कराओ। मैं उन्‍हें वस्‍त्र एवं आभूषण दूँगी। इसके उपरान्‍त महर्षियों का यथायोग्‍य अभिवादन कर एक रात ठहरकर हम पुनः अयोध्‍या लौट चलेंगे।

लक्ष्‍मण ने सीताजी का कथन सुनकर आँखें पोंछ ली और नाविकों को बुलाकर गंगा पार करने हेतु नाव पर बैठ गये। लक्ष्‍मणजी ने रथ सहित सुमंत्र को वहीं ठहरने के लिये कहा। तदनन्‍तर भागीरथी के तट पर पहुँचकर लक्ष्‍मण के नेत्रों में आँसू भर आये और सीताजी से हाथ जोड़कर बोले विदेहनन्‍दिनि!

श्रीराम ने जो कार्य मुझे सौपा है वह मेरा बड़ा लोकनिन्‍दित कार्य होगा। सीताजी ने कहा कि मैं महाराज की शपथ दिलाकर पूछती हूँ कि जिस बात से तुम्‍हें संताप हो रहा है, वह सच-सच बताओगे। मैं तुम्‍हें आज्ञा देती हूँ। दुःखी लक्ष्‍मण ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से मुँह नीचा कर कहा-

श्रुत्‍वा परिषदो मध्‍ये ह्यपवादं सुदारुणम्‌।
पुरे जनपदे चैव त्‍वकृते जनकात्‍मजे॥ -वा.रा.,उत्तरकाण्‍ड, सर्ग 47।11

जनकनन्‍दिनी! नगर और जनपद में आपके विषय में भयंकर अपवाद फैला हुआ है, उसे राजसभा में सुनकर श्रीराम का हृदय संतृप्‍त हो उठा और वे मुझे सब बातें बताकर महल में चले गये। आप लंका में मेरे सामने निर्दोष सिद्ध हो चुकी हो तो भी महाराज ने लोकापवाद से डरकर आपको त्‍याग दिया है। देवी! आप अन्‍यथा न समझे मैं महाराज की आज्ञा तथा आपकी इच्‍छा समझकर आश्रमों के पास ले जाकर छोड़ दूँगा।

 आप वाल्‍मीकिजी के चरणों की छाया में रहें। लक्ष्‍मणजी के कठोर वचन सुनकर सीताजी मूर्छित होकर पृथ्‍वी पर गिर पड़ी। दो घड़ी उपरान्‍त होश आने पर सीताजी बोली निश्‍चय ही विधाता ने मेरे शरीर को केवल दुःख भोगने के लिये रचा है। मैंने पूर्वजन्‍म में कौन-सा पाप किया था अथवा किसका स्‍त्री से बिछोह करवाया था? जो पवित्र आचरणवाली होने पर भी महाराज ने मुझे त्‍याग दिया है।

सीताजी ने लक्ष्‍मण से संदेशरूप में कहा कि तुम महाराज से कहना कि ‘‘वीर! आपने अपयश के डरकर ही मुझे त्‍यागा है। अतः लोगों में आपकी निन्‍दा हो रही है अथवा मेरे कारण जो अपवाद फैल रहा है, उसे दूर करना मेरा भी कर्त्तव्‍य है, क्‍योंकि मेरे परम्‌ आश्रय आप ही हैं। लक्ष्‍मण मैं जीवन को अभी गंगाजी के जल में विसर्जित कर देती किन्‍तु इस समय ऐसा अभी नहीं कर सकूँगी, क्‍योंकि ऐसा करने से मेरे पतिदेव का राजवंश नष्‍ट हो जायेगा।

लक्ष्‍मणजी ने सीताजी का माथा टेककर प्रणाम किया तथा जोर से रोते-रोते परिक्रमा कर नाव पर चढ़ गये। शोक से संतप्‍त लक्ष्‍मण गंगाजी के उत्तरी तट पर जाकर अचेत से तथा उसी दशा में रथ पर चढ़ गये। सीताजी रो रही थीं, वहाँ से थोड़ी दूर पर ऋषियों के कुछ बालक थे। बालकों ने यह समाचार वाल्‍मीकिजी को सुनाया। वाल्‍मीकिजी बालकों सहित गंगातटवर्ती स्‍थान पर गये तथा मधुरवाणी में कहा पतिव्रते! तुम राजा दशरथ की पुत्रवधु, महाराज श्रीराम की रानी और मिथिला के राजा जनक की पुत्री हो।

 तुम्‍हारा स्‍वागत है। जब तुम यहाँ आरही थी, तभी मुझे धर्मसमाधि के द्वारा इसका पता लग गया था। तुम्‍हारे परित्‍याग का जो सम्‍पूर्ण कारण है, उसे मैंने अपने मन से जान लिया है। तुम निष्‍पाप हो। यह मैंने पूर्व में ही दिव्‍य दृृष्‍टि से जान लिया है। इस प्रकार सीताजी वाल्‍मीकिजी के आश्रम में पहुँच गई।

लक्ष्‍मण सारथी सुमंत्र से बोले रघुनाथजी को सीता का जो नित्‍य वियोग प्राप्‍त हुआ है, इसमें मैं देव को ही कारण मानता हूँ, क्‍योंकि देव का विधान दुर्लङ्‌घ्‌य होता है। लक्ष्‍मणजी की कही हुई अनेक प्रकार की बातों को सुनकर बुद्धिमान सुमंत्र ने श्रद्धापूर्वक ये कहा-

न संतापस्‍त्‍वया कार्यः सौमित्रे मैथिलीं प्रति।
दृष्‍टमेतत्‌ पुरा विप्रैः पितुस्‍ते लक्ष्‍मणाग्रतः॥ -वा.रा. उत्तरकाण्‍ड सर्ग 50।10

सुमित्रानन्‍दन! मिथिलेशकुमारी सीता के विषय में आपको संतप्‍त नहीं होना चाहिये। लक्ष्‍मण, यह बात ब्राह्मणों ने आपके पिताश्री के सामने ही जान ली थीं। उन दिनों दुर्वासाजी ने कहा था कि ‘‘श्रीराम निश्‍चय ही अधिक दुःख उठायेंगे। प्रायः उनका सौख्‍य छिन जायगा।

 महाबाहु श्रीराम को शीघ्र ही अपने प्रियजनों से वियोग प्राप्‍त होगा। लक्ष्‍मणजी इतना ही नहीं श्रीराम दीर्घकाल बीतते-बीतते तुमको मिथिलेशकुमारी को तथा भरत और शत्रुघ्‍न को भी त्‍याग देंगे। इस प्रकार दुर्वासाजी ने जो बाते कहीं थी, उसे महाराज दशरथ ने तुमसे, शत्रुघ्‍न और भरतजी से भी कहने की मनाही कर दी थी।

दुर्वासा मुनि ने बड़े जनसमुदाय के समीप मेरे समक्ष तथा महर्षि वशिष्‍ठ के निकट यह बातें कही थीं। दुर्वासा मुनि की यह बात सुनकर दशरथजी ने मुझे यह बात नहीं करने को कहा था। यद्यपि पूर्वकाल में महाराज ने इस रहस्‍य को दूसरों के समक्ष प्रकट न करने का आदेश दिया था, तथापि आज मैं यह बात कहूँगा।

 देव-विधान को लांघना बहुत कठिन है, जिससे यह दुःख और शोक प्राप्‍त हुआ है। भैया, तुम भी यह बात भरत एवं शत्रुघ्‍न के सामने मत कहना। सुमंत्रजी का यह गंभीर भाषण सुनकर लक्ष्‍मण ने कहा-आप जो बात सत्‍य है, अवश्‍य कहें, तब सुमंत्रजी दुर्वासाजी की कही बातें उन्‍हें सुनाने लगे।

अत्रि के पुत्र महामुनि दुर्वासा वशिष्‍ठजी के आश्रम पर रहकर चार महीने बिता रहे थे। एक दिन आपके पिता आश्रम पर अपने पुरोहित महात्‍मा वशिष्‍ठजी का दर्शन करने के लिये स्‍वयं ही गये। वशिष्‍ठजी के वामभाग में बैठे हुए एक महामुनि को उन्‍हें वहाँ देखा।

 महाराज ने दोनों महर्षियों का विनयपूर्वक अभिवादन किया तथा उनके चरणों में बैठ गये। तदनन्‍तर किसी कथा के प्रसंग में महाराज ने हाथ जोड़कर के अत्रि के तपोधन पुत्र दुर्वासाजी से विनयपूर्वक पूछा-भगवन्‌ मेरा वंश कितने समय तक चलेगा। मेरे राम व अन्‍य पुत्रों की आयु कितनी होगी? श्री राम के जो पुत्र होंगे उनकी आयु कितनी होगी? मेरे वंश की स्‍थिति बताईये

राजा दशरथ के वचन सुनकर दुर्वासाजी कहने लगे-प्राचीन काल की बात है कि एक बार देवासुर संग्राम में देवताओं से पीड़ित हुए दैत्‍यों ने महर्षि भृगु की पत्‍नी की शरण ली। भृगु पत्‍नी ने उस समय दैत्‍यों को अभय दान दिया और दैत्‍यों ने उनके आश्रम पर निर्भय होकर रहने लगे-

तथा परिग्रहीतांस्‍तान्‌ दृष्‍ट्‌वा क्रुद्धः सुरेश्‍वरः।
चक्रेण शितधारेण भृगुपत्‍न्‍याः शिरोऽहरत्‌॥ -वा.रा. उत्तरकाण्‍ड सर्ग 51। 13

भृगु पत्‍नी ने दैत्‍यों को आश्रय दिया है, यह देखकर कुपित हुए देवेश्‍वर भगवान विष्‍णु ने तीखी धारवाले चक्र से उनका सिर काट लिया। भृगुजी ने क्रोधित हो भगवान विष्‍णु को शाप दिया-जनार्दन! मेरी पत्‍नी वध योग्‍य नहीं थी किन्‍तु आपने क्रोध से मूर्छित होकर उसका वध किया है इसलिये आपको मनुष्‍य लोक में जन्‍म लेना पड़ेगा और बहुत वर्षों तक आपको पत्‍नी वियोग कष्‍ट सहना पड़ेगा।

शाप देने के पश्‍चात्‌ भृगुजी को पश्‍चात्ताप हुआ था। उन्‍होंने भगवान विष्‍णु की आराधना की। भगवान विष्‍णु ने तपस्‍या से सन्‍तुष्‍ट होकर भृगुजी से कहा कि-सम्‍पूर्ण जगत का प्रिय करने के लिये मैं इस शाप को ग्रहण करता हूँ। इस तरह पूर्व जन्‍म में विष्‍णु अवतार लेकर राम नाम से विख्‍यात आपके पुत्र हुए है।

 भृगु के शाप से पत्‍नी वियोग हुआ। महामुनि ने दशरथजी को राजवंश की भूत और भविष्‍य की सारी बातें बतायी। दशरथजी दोनों मुनियों को प्रणाम कर घर लौटने लगे तथा मैंने सब बात सुनकर हृदय में धारण करली तथा किसी के समक्ष प्रकट नहीं की। लक्ष्‍मणजी मुनि के वचनानुसार श्रीराम के दो पुत्र होंगे तथा राम उनका अयोध्‍या से बाहर अभिषेक करेंगे।

सुमंत्र इस प्रकार दशरथजी के विश्‍वासपात्र मंत्री, सूत एवं मित्र थे। आज के युग में ऐसा मित्र कर्त्तव्‍यनिष्‍ठ, विश्‍वासपात्र मिलना दुर्लभ ही नहीं असंभव सा लगता है। सुमंत्रजी का दशरथजी के हित व परिवार में ऐसा मंत्री सौभाग्‍य की बात थी। सुमंत्रजी को श्रीराम के वंश का भूत भविष्‍य ज्ञात था।

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