रामायण के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग,सुमंत्र को दशरथजी के समय ही रघुवंश का भूत भविष्य ज्ञात था!!!!!!
श्रीराम राज्याभिषेक उपरान्त सखाओं के साथ बैठकर अनेक प्रकार की हास्य विनोदपूर्ण कथाएँ कहा करते थे। इन सखाओं के नाम थे-
विजयो मधुमत्तश्व काश्यपो मंगलः कुलः।
सूराजिः कालियो भद्रो दन्तवक्त्र सुमागधः॥
-वा.रा.,उत्तरकाण्ड, सर्ग 43। 2
विजय, मधुमत्त, काश्यप, मंगल, सुराजि, कालिय, भद्र, दन्तवक्त्र और सुमागध। भद्र से श्रीराम ने एक दिन पूछा कि सखा सही-सही बताओं कि मेरे बारे में पुरवासी कौन-कौन सी शुभ व अशुभ बाते कहते हैं। तब भद्र ने कहा कि-
हत्वा च रावणं संख्ये सीतामाहृत्य राघवः।
अमर्ष पृष्ठतः कृत्वा स्ववेश्म पुनरायत्॥ -वा.रा.,उत्तरकाण्ड, सर्ग 43।16
परन्तु एक बात खटकती है कि युद्ध में रावण को मारकर श्री रघुनाथजी सीता को अपने घर ले आये। उनके मन में सीता के चरित्र को लेकर रोष या अमर्ष नहीं हुआ। इस चर्चा के उपरान्त राम ने समस्त सुहृदयों से पूछा कि भद्र का यह कथन सत्य है? सभी सखाओं ने कहा कि भद्र का कथन सत्य है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है।
इसके पश्चात् मित्र मण्डली चली गई तथा श्रीराम ने तत्काल द्वारपाल को कहा कि तुम शीघ्र जाकर महाभाग भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न को मेरे पास बुला लाओ। द्वारपाल ने तीनों भाइयों को हाथ जोड़कर कहा कि प्रभो महाराज श्रीराम आपसे मिलना चाहते हैं। इतना सुनकर तीनों भाई श्रीराम के पास पहुँच गये।
श्रीराम बोले राजकुमारों! तुम लोग मेरे सर्वस्व हो। तुम्ही मेरे जीवन हो और तुम्हारे द्वारा सम्पादित इस राज्य का मैं पालन करता हूँ। तुम सभी शास्त्रों के ज्ञाता और बताये कर्त्तव्य का पालन करने वाले हो। इस समय मैं जो कार्य तुम्हारे सामने उपस्थित करने वाला हूँ उसका तुम सबको मिलकर सम्पादन करना होगा। श्रीराम ने कहा कि-
पौरापवादः सुमहांस्तथा जनपदस्य च।
वर्तते मयि ब्रीभत्सा सा मे मर्माणि कृन्तति॥
-वा.रा.,उत्तरकाण्ड, सर्ग 45।3
इस समय पुरवासियों और जनपद के लोगों में सीता के सम्बन्ध में महान अपवाद फैला हुआ है। मेरे प्रति भी उनका बड़ा घृणापूर्ण भाव है। उन सबकी वह घृणा मेरे मर्मस्थल को विदीर्ण किये देती है।
प्रत्ययार्थं ततः सीता विवेश ज्वलनं तदा।
त्य प्रत्यक्षं तव सौमित्रे देवानां हव्यवाहनः॥
अपापां मैथिलीमाह वायुश्चाकाशगोचरः।
चन्द्रादित्यौ च शंसते सुराणां संनिधौ पुरा॥
ऋणीणां चैव सर्वेषामपापां जनकात्मजाम्।।-वा.रा.,उत्तरकाण्ड, सर्ग 45।7-8
सुमित्रा कुमार लक्ष्मण! उस समय अपनी पवित्रता का विश्वास दिलाने के लिये सीता ने तुम्हारे समक्ष ही अग्नि में प्रवेश किया था और देवताओं के समक्ष स्वयं अग्निदेव ने उन्हें निर्दोष बताया था। आकाशचारी वायु, चन्द्रमा और सूर्य ने भी पहले देवताओं तथा समस्त ऋषियों के समीप जनकनन्दिनी को निष्पाप घोषित किया था। मेरी अन्तरात्मा भी यशस्विनी सीता को शुद्ध एवं निष्पाप समझती है, इसलिये मैं उन्हें लंका से अयोध्या लाया था।
नरश्रेष्ठ बन्धुओं! मैं लोकनिन्दा के भय से अपने प्राणों को और तुम सबको भी त्याग सकता हूँ तो फिर सीता का त्यागना कौन बड़ी बात है? अतः लक्ष्मण! कल प्रातःकाल तुम सारथि सुमन्त्र के द्वारा संचालित रथ पर आरुढ़ हो सीता को भी उसी पर चढ़ाकर इस राज्य की सीमा से बाहर छोड़ दो।
गंगा के उस पार तमसा के तट पर महात्मा वाल्मीकि मुनि के दिव्य आश्रम के निकट निर्जन वन में छोड़कर लौट आओ। तुम सब भाइयों को मेरे चरणों और जीवन की शपथ है कि मेरे इस निर्णय के विरूद्ध कुछ न कहो। जो मेरी आज्ञा में बाधा उपस्थित करेगा वह सदा के लिये मेरा शत्रु होगा।
पूर्वमुक्तोऽहमनया गंगातीरेऽहमाश्रमान्।
पश्येयमिति तस्याश्च कामः संवर्त्यतामयम्। -वा.रा.,उत्तरकाण्ड, सर्ग 45। 23)
सीता ने पहले मुझसे कहा था कि मैं गंगातट पर ऋषियों के आश्रम देखना चाहती हूँ। अतः उनकी यह इच्छा भी पूर्ण की जाय। रात्रि बीती और सवेरा हुआ, तब लक्ष्मणजी ने अत्यन्त ही दुःख के साथ सुमंत्र से कहा -‘‘सारथे, एक उत्तम रथ में शीघ्रगामी घोड़ों को जोतो और उस रथ में सीताजी के लिये सुन्दर आसन बिछा दो। मैं महाराज की आज्ञा से सीतादेवी को महर्षियों के आश्रम पर पहुँचा दूँगा।
सुमंत्र लक्ष्मणजी की आज्ञानुसार उत्तम घोड़ो से जुता हुआ, सुखद शय्या से युक्त बिछावन वाला रथ ले आये। तत्पश्चात् लक्ष्मण राजमहल में सीताजी के पास जाकर बोले, देवि! आपने महाराज से मुनियों के आश्रमों पर जाने के लिये वर मांगा था और महाराज ने आपको आश्रम पर पहुँचाने के लिये प्रतिज्ञा की थी। अतः राजा की आज्ञा से शीघ्र ही गंगातट पर ऋषियों के सुन्दर आश्रमों तक चलूँगा एवं आपको वन में पहुँचाउँगा।
सीता हर्ष के साथ बहुमूल्य वस्त्र और नाना प्रकार के रत्न लेकर वन यात्रा पर चल पड़ी। लक्ष्मण से कहा कि ये सब बहुमूल्य वस्त्र आभूषण और नाना प्रकार के रत्न धन मैं मुनि-पत्नियों को दूँगी। सीता ने लक्ष्मण से कहा कि रथ पर चढ़ते ही मुझे नाना प्रकार के अपशकुन दिखाई दे रहे हैं। मेरी दांयी आँख फड़क रही है और शरीर में कम्प हो रहा है। तुम्हारे भाई तो कुशल है। गोमती के तट पर पहुँचकर एक रात्रि आश्रम में बिताई। पुनः प्रातःकाल लक्ष्मण सारथी से रथ जोत कर सीताजी को बैठाकर पापनाशिनी गंगा के तट पर पहुँच गये।
गंगातट पहुँच कर लक्ष्मण फूट-फूट कर रोने लगे, तब सीताजी अत्यन्त चिन्तित होकर उनसे बोली-लक्ष्मण यह क्या? तुम रोते क्यों हो? आज चिरकाल की मेरी अभिलाषा पूर्ण हुई और तुम इस हर्ष के अवसर पर दुःखी क्यों हो? मुझे गंगा के उस पार ले चलो और तपस्वी मुनियों के दर्शन कराओ। मैं उन्हें वस्त्र एवं आभूषण दूँगी। इसके उपरान्त महर्षियों का यथायोग्य अभिवादन कर एक रात ठहरकर हम पुनः अयोध्या लौट चलेंगे।
लक्ष्मण ने सीताजी का कथन सुनकर आँखें पोंछ ली और नाविकों को बुलाकर गंगा पार करने हेतु नाव पर बैठ गये। लक्ष्मणजी ने रथ सहित सुमंत्र को वहीं ठहरने के लिये कहा। तदनन्तर भागीरथी के तट पर पहुँचकर लक्ष्मण के नेत्रों में आँसू भर आये और सीताजी से हाथ जोड़कर बोले विदेहनन्दिनि!
श्रीराम ने जो कार्य मुझे सौपा है वह मेरा बड़ा लोकनिन्दित कार्य होगा। सीताजी ने कहा कि मैं महाराज की शपथ दिलाकर पूछती हूँ कि जिस बात से तुम्हें संताप हो रहा है, वह सच-सच बताओगे। मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ। दुःखी लक्ष्मण ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से मुँह नीचा कर कहा-
श्रुत्वा परिषदो मध्ये ह्यपवादं सुदारुणम्।
पुरे जनपदे चैव त्वकृते जनकात्मजे॥ -वा.रा.,उत्तरकाण्ड, सर्ग 47।11
जनकनन्दिनी! नगर और जनपद में आपके विषय में भयंकर अपवाद फैला हुआ है, उसे राजसभा में सुनकर श्रीराम का हृदय संतृप्त हो उठा और वे मुझे सब बातें बताकर महल में चले गये। आप लंका में मेरे सामने निर्दोष सिद्ध हो चुकी हो तो भी महाराज ने लोकापवाद से डरकर आपको त्याग दिया है। देवी! आप अन्यथा न समझे मैं महाराज की आज्ञा तथा आपकी इच्छा समझकर आश्रमों के पास ले जाकर छोड़ दूँगा।
आप वाल्मीकिजी के चरणों की छाया में रहें। लक्ष्मणजी के कठोर वचन सुनकर सीताजी मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। दो घड़ी उपरान्त होश आने पर सीताजी बोली निश्चय ही विधाता ने मेरे शरीर को केवल दुःख भोगने के लिये रचा है। मैंने पूर्वजन्म में कौन-सा पाप किया था अथवा किसका स्त्री से बिछोह करवाया था? जो पवित्र आचरणवाली होने पर भी महाराज ने मुझे त्याग दिया है।
सीताजी ने लक्ष्मण से संदेशरूप में कहा कि तुम महाराज से कहना कि ‘‘वीर! आपने अपयश के डरकर ही मुझे त्यागा है। अतः लोगों में आपकी निन्दा हो रही है अथवा मेरे कारण जो अपवाद फैल रहा है, उसे दूर करना मेरा भी कर्त्तव्य है, क्योंकि मेरे परम् आश्रय आप ही हैं। लक्ष्मण मैं जीवन को अभी गंगाजी के जल में विसर्जित कर देती किन्तु इस समय ऐसा अभी नहीं कर सकूँगी, क्योंकि ऐसा करने से मेरे पतिदेव का राजवंश नष्ट हो जायेगा।
लक्ष्मणजी ने सीताजी का माथा टेककर प्रणाम किया तथा जोर से रोते-रोते परिक्रमा कर नाव पर चढ़ गये। शोक से संतप्त लक्ष्मण गंगाजी के उत्तरी तट पर जाकर अचेत से तथा उसी दशा में रथ पर चढ़ गये। सीताजी रो रही थीं, वहाँ से थोड़ी दूर पर ऋषियों के कुछ बालक थे। बालकों ने यह समाचार वाल्मीकिजी को सुनाया। वाल्मीकिजी बालकों सहित गंगातटवर्ती स्थान पर गये तथा मधुरवाणी में कहा पतिव्रते! तुम राजा दशरथ की पुत्रवधु, महाराज श्रीराम की रानी और मिथिला के राजा जनक की पुत्री हो।
तुम्हारा स्वागत है। जब तुम यहाँ आरही थी, तभी मुझे धर्मसमाधि के द्वारा इसका पता लग गया था। तुम्हारे परित्याग का जो सम्पूर्ण कारण है, उसे मैंने अपने मन से जान लिया है। तुम निष्पाप हो। यह मैंने पूर्व में ही दिव्य दृृष्टि से जान लिया है। इस प्रकार सीताजी वाल्मीकिजी के आश्रम में पहुँच गई।
लक्ष्मण सारथी सुमंत्र से बोले रघुनाथजी को सीता का जो नित्य वियोग प्राप्त हुआ है, इसमें मैं देव को ही कारण मानता हूँ, क्योंकि देव का विधान दुर्लङ्घ्य होता है। लक्ष्मणजी की कही हुई अनेक प्रकार की बातों को सुनकर बुद्धिमान सुमंत्र ने श्रद्धापूर्वक ये कहा-
न संतापस्त्वया कार्यः सौमित्रे मैथिलीं प्रति।
दृष्टमेतत् पुरा विप्रैः पितुस्ते लक्ष्मणाग्रतः॥ -वा.रा. उत्तरकाण्ड सर्ग 50।10
सुमित्रानन्दन! मिथिलेशकुमारी सीता के विषय में आपको संतप्त नहीं होना चाहिये। लक्ष्मण, यह बात ब्राह्मणों ने आपके पिताश्री के सामने ही जान ली थीं। उन दिनों दुर्वासाजी ने कहा था कि ‘‘श्रीराम निश्चय ही अधिक दुःख उठायेंगे। प्रायः उनका सौख्य छिन जायगा।
महाबाहु श्रीराम को शीघ्र ही अपने प्रियजनों से वियोग प्राप्त होगा। लक्ष्मणजी इतना ही नहीं श्रीराम दीर्घकाल बीतते-बीतते तुमको मिथिलेशकुमारी को तथा भरत और शत्रुघ्न को भी त्याग देंगे। इस प्रकार दुर्वासाजी ने जो बाते कहीं थी, उसे महाराज दशरथ ने तुमसे, शत्रुघ्न और भरतजी से भी कहने की मनाही कर दी थी।
दुर्वासा मुनि ने बड़े जनसमुदाय के समीप मेरे समक्ष तथा महर्षि वशिष्ठ के निकट यह बातें कही थीं। दुर्वासा मुनि की यह बात सुनकर दशरथजी ने मुझे यह बात नहीं करने को कहा था। यद्यपि पूर्वकाल में महाराज ने इस रहस्य को दूसरों के समक्ष प्रकट न करने का आदेश दिया था, तथापि आज मैं यह बात कहूँगा।
देव-विधान को लांघना बहुत कठिन है, जिससे यह दुःख और शोक प्राप्त हुआ है। भैया, तुम भी यह बात भरत एवं शत्रुघ्न के सामने मत कहना। सुमंत्रजी का यह गंभीर भाषण सुनकर लक्ष्मण ने कहा-आप जो बात सत्य है, अवश्य कहें, तब सुमंत्रजी दुर्वासाजी की कही बातें उन्हें सुनाने लगे।
अत्रि के पुत्र महामुनि दुर्वासा वशिष्ठजी के आश्रम पर रहकर चार महीने बिता रहे थे। एक दिन आपके पिता आश्रम पर अपने पुरोहित महात्मा वशिष्ठजी का दर्शन करने के लिये स्वयं ही गये। वशिष्ठजी के वामभाग में बैठे हुए एक महामुनि को उन्हें वहाँ देखा।
महाराज ने दोनों महर्षियों का विनयपूर्वक अभिवादन किया तथा उनके चरणों में बैठ गये। तदनन्तर किसी कथा के प्रसंग में महाराज ने हाथ जोड़कर के अत्रि के तपोधन पुत्र दुर्वासाजी से विनयपूर्वक पूछा-भगवन् मेरा वंश कितने समय तक चलेगा। मेरे राम व अन्य पुत्रों की आयु कितनी होगी? श्री राम के जो पुत्र होंगे उनकी आयु कितनी होगी? मेरे वंश की स्थिति बताईये
राजा दशरथ के वचन सुनकर दुर्वासाजी कहने लगे-प्राचीन काल की बात है कि एक बार देवासुर संग्राम में देवताओं से पीड़ित हुए दैत्यों ने महर्षि भृगु की पत्नी की शरण ली। भृगु पत्नी ने उस समय दैत्यों को अभय दान दिया और दैत्यों ने उनके आश्रम पर निर्भय होकर रहने लगे-
तथा परिग्रहीतांस्तान् दृष्ट्वा क्रुद्धः सुरेश्वरः।
चक्रेण शितधारेण भृगुपत्न्याः शिरोऽहरत्॥ -वा.रा. उत्तरकाण्ड सर्ग 51। 13
भृगु पत्नी ने दैत्यों को आश्रय दिया है, यह देखकर कुपित हुए देवेश्वर भगवान विष्णु ने तीखी धारवाले चक्र से उनका सिर काट लिया। भृगुजी ने क्रोधित हो भगवान विष्णु को शाप दिया-जनार्दन! मेरी पत्नी वध योग्य नहीं थी किन्तु आपने क्रोध से मूर्छित होकर उसका वध किया है इसलिये आपको मनुष्य लोक में जन्म लेना पड़ेगा और बहुत वर्षों तक आपको पत्नी वियोग कष्ट सहना पड़ेगा।
शाप देने के पश्चात् भृगुजी को पश्चात्ताप हुआ था। उन्होंने भगवान विष्णु की आराधना की। भगवान विष्णु ने तपस्या से सन्तुष्ट होकर भृगुजी से कहा कि-सम्पूर्ण जगत का प्रिय करने के लिये मैं इस शाप को ग्रहण करता हूँ। इस तरह पूर्व जन्म में विष्णु अवतार लेकर राम नाम से विख्यात आपके पुत्र हुए है।
भृगु के शाप से पत्नी वियोग हुआ। महामुनि ने दशरथजी को राजवंश की भूत और भविष्य की सारी बातें बतायी। दशरथजी दोनों मुनियों को प्रणाम कर घर लौटने लगे तथा मैंने सब बात सुनकर हृदय में धारण करली तथा किसी के समक्ष प्रकट नहीं की। लक्ष्मणजी मुनि के वचनानुसार श्रीराम के दो पुत्र होंगे तथा राम उनका अयोध्या से बाहर अभिषेक करेंगे।
सुमंत्र इस प्रकार दशरथजी के विश्वासपात्र मंत्री, सूत एवं मित्र थे। आज के युग में ऐसा मित्र कर्त्तव्यनिष्ठ, विश्वासपात्र मिलना दुर्लभ ही नहीं असंभव सा लगता है। सुमंत्रजी का दशरथजी के हित व परिवार में ऐसा मंत्री सौभाग्य की बात थी। सुमंत्रजी को श्रीराम के वंश का भूत भविष्य ज्ञात था।
श्रीराम राज्याभिषेक उपरान्त सखाओं के साथ बैठकर अनेक प्रकार की हास्य विनोदपूर्ण कथाएँ कहा करते थे। इन सखाओं के नाम थे-
विजयो मधुमत्तश्व काश्यपो मंगलः कुलः।
सूराजिः कालियो भद्रो दन्तवक्त्र सुमागधः॥
-वा.रा.,उत्तरकाण्ड, सर्ग 43। 2
विजय, मधुमत्त, काश्यप, मंगल, सुराजि, कालिय, भद्र, दन्तवक्त्र और सुमागध। भद्र से श्रीराम ने एक दिन पूछा कि सखा सही-सही बताओं कि मेरे बारे में पुरवासी कौन-कौन सी शुभ व अशुभ बाते कहते हैं। तब भद्र ने कहा कि-
हत्वा च रावणं संख्ये सीतामाहृत्य राघवः।
अमर्ष पृष्ठतः कृत्वा स्ववेश्म पुनरायत्॥ -वा.रा.,उत्तरकाण्ड, सर्ग 43।16
परन्तु एक बात खटकती है कि युद्ध में रावण को मारकर श्री रघुनाथजी सीता को अपने घर ले आये। उनके मन में सीता के चरित्र को लेकर रोष या अमर्ष नहीं हुआ। इस चर्चा के उपरान्त राम ने समस्त सुहृदयों से पूछा कि भद्र का यह कथन सत्य है? सभी सखाओं ने कहा कि भद्र का कथन सत्य है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है।
इसके पश्चात् मित्र मण्डली चली गई तथा श्रीराम ने तत्काल द्वारपाल को कहा कि तुम शीघ्र जाकर महाभाग भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न को मेरे पास बुला लाओ। द्वारपाल ने तीनों भाइयों को हाथ जोड़कर कहा कि प्रभो महाराज श्रीराम आपसे मिलना चाहते हैं। इतना सुनकर तीनों भाई श्रीराम के पास पहुँच गये।
श्रीराम बोले राजकुमारों! तुम लोग मेरे सर्वस्व हो। तुम्ही मेरे जीवन हो और तुम्हारे द्वारा सम्पादित इस राज्य का मैं पालन करता हूँ। तुम सभी शास्त्रों के ज्ञाता और बताये कर्त्तव्य का पालन करने वाले हो। इस समय मैं जो कार्य तुम्हारे सामने उपस्थित करने वाला हूँ उसका तुम सबको मिलकर सम्पादन करना होगा। श्रीराम ने कहा कि-
पौरापवादः सुमहांस्तथा जनपदस्य च।
वर्तते मयि ब्रीभत्सा सा मे मर्माणि कृन्तति॥
-वा.रा.,उत्तरकाण्ड, सर्ग 45।3
इस समय पुरवासियों और जनपद के लोगों में सीता के सम्बन्ध में महान अपवाद फैला हुआ है। मेरे प्रति भी उनका बड़ा घृणापूर्ण भाव है। उन सबकी वह घृणा मेरे मर्मस्थल को विदीर्ण किये देती है।
प्रत्ययार्थं ततः सीता विवेश ज्वलनं तदा।
त्य प्रत्यक्षं तव सौमित्रे देवानां हव्यवाहनः॥
अपापां मैथिलीमाह वायुश्चाकाशगोचरः।
चन्द्रादित्यौ च शंसते सुराणां संनिधौ पुरा॥
ऋणीणां चैव सर्वेषामपापां जनकात्मजाम्।।-वा.रा.,उत्तरकाण्ड, सर्ग 45।7-8
सुमित्रा कुमार लक्ष्मण! उस समय अपनी पवित्रता का विश्वास दिलाने के लिये सीता ने तुम्हारे समक्ष ही अग्नि में प्रवेश किया था और देवताओं के समक्ष स्वयं अग्निदेव ने उन्हें निर्दोष बताया था। आकाशचारी वायु, चन्द्रमा और सूर्य ने भी पहले देवताओं तथा समस्त ऋषियों के समीप जनकनन्दिनी को निष्पाप घोषित किया था। मेरी अन्तरात्मा भी यशस्विनी सीता को शुद्ध एवं निष्पाप समझती है, इसलिये मैं उन्हें लंका से अयोध्या लाया था।
नरश्रेष्ठ बन्धुओं! मैं लोकनिन्दा के भय से अपने प्राणों को और तुम सबको भी त्याग सकता हूँ तो फिर सीता का त्यागना कौन बड़ी बात है? अतः लक्ष्मण! कल प्रातःकाल तुम सारथि सुमन्त्र के द्वारा संचालित रथ पर आरुढ़ हो सीता को भी उसी पर चढ़ाकर इस राज्य की सीमा से बाहर छोड़ दो।
गंगा के उस पार तमसा के तट पर महात्मा वाल्मीकि मुनि के दिव्य आश्रम के निकट निर्जन वन में छोड़कर लौट आओ। तुम सब भाइयों को मेरे चरणों और जीवन की शपथ है कि मेरे इस निर्णय के विरूद्ध कुछ न कहो। जो मेरी आज्ञा में बाधा उपस्थित करेगा वह सदा के लिये मेरा शत्रु होगा।
पूर्वमुक्तोऽहमनया गंगातीरेऽहमाश्रमान्।
पश्येयमिति तस्याश्च कामः संवर्त्यतामयम्। -वा.रा.,उत्तरकाण्ड, सर्ग 45। 23)
सीता ने पहले मुझसे कहा था कि मैं गंगातट पर ऋषियों के आश्रम देखना चाहती हूँ। अतः उनकी यह इच्छा भी पूर्ण की जाय। रात्रि बीती और सवेरा हुआ, तब लक्ष्मणजी ने अत्यन्त ही दुःख के साथ सुमंत्र से कहा -‘‘सारथे, एक उत्तम रथ में शीघ्रगामी घोड़ों को जोतो और उस रथ में सीताजी के लिये सुन्दर आसन बिछा दो। मैं महाराज की आज्ञा से सीतादेवी को महर्षियों के आश्रम पर पहुँचा दूँगा।
सुमंत्र लक्ष्मणजी की आज्ञानुसार उत्तम घोड़ो से जुता हुआ, सुखद शय्या से युक्त बिछावन वाला रथ ले आये। तत्पश्चात् लक्ष्मण राजमहल में सीताजी के पास जाकर बोले, देवि! आपने महाराज से मुनियों के आश्रमों पर जाने के लिये वर मांगा था और महाराज ने आपको आश्रम पर पहुँचाने के लिये प्रतिज्ञा की थी। अतः राजा की आज्ञा से शीघ्र ही गंगातट पर ऋषियों के सुन्दर आश्रमों तक चलूँगा एवं आपको वन में पहुँचाउँगा।
सीता हर्ष के साथ बहुमूल्य वस्त्र और नाना प्रकार के रत्न लेकर वन यात्रा पर चल पड़ी। लक्ष्मण से कहा कि ये सब बहुमूल्य वस्त्र आभूषण और नाना प्रकार के रत्न धन मैं मुनि-पत्नियों को दूँगी। सीता ने लक्ष्मण से कहा कि रथ पर चढ़ते ही मुझे नाना प्रकार के अपशकुन दिखाई दे रहे हैं। मेरी दांयी आँख फड़क रही है और शरीर में कम्प हो रहा है। तुम्हारे भाई तो कुशल है। गोमती के तट पर पहुँचकर एक रात्रि आश्रम में बिताई। पुनः प्रातःकाल लक्ष्मण सारथी से रथ जोत कर सीताजी को बैठाकर पापनाशिनी गंगा के तट पर पहुँच गये।
गंगातट पहुँच कर लक्ष्मण फूट-फूट कर रोने लगे, तब सीताजी अत्यन्त चिन्तित होकर उनसे बोली-लक्ष्मण यह क्या? तुम रोते क्यों हो? आज चिरकाल की मेरी अभिलाषा पूर्ण हुई और तुम इस हर्ष के अवसर पर दुःखी क्यों हो? मुझे गंगा के उस पार ले चलो और तपस्वी मुनियों के दर्शन कराओ। मैं उन्हें वस्त्र एवं आभूषण दूँगी। इसके उपरान्त महर्षियों का यथायोग्य अभिवादन कर एक रात ठहरकर हम पुनः अयोध्या लौट चलेंगे।
लक्ष्मण ने सीताजी का कथन सुनकर आँखें पोंछ ली और नाविकों को बुलाकर गंगा पार करने हेतु नाव पर बैठ गये। लक्ष्मणजी ने रथ सहित सुमंत्र को वहीं ठहरने के लिये कहा। तदनन्तर भागीरथी के तट पर पहुँचकर लक्ष्मण के नेत्रों में आँसू भर आये और सीताजी से हाथ जोड़कर बोले विदेहनन्दिनि!
श्रीराम ने जो कार्य मुझे सौपा है वह मेरा बड़ा लोकनिन्दित कार्य होगा। सीताजी ने कहा कि मैं महाराज की शपथ दिलाकर पूछती हूँ कि जिस बात से तुम्हें संताप हो रहा है, वह सच-सच बताओगे। मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ। दुःखी लक्ष्मण ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से मुँह नीचा कर कहा-
श्रुत्वा परिषदो मध्ये ह्यपवादं सुदारुणम्।
पुरे जनपदे चैव त्वकृते जनकात्मजे॥ -वा.रा.,उत्तरकाण्ड, सर्ग 47।11
जनकनन्दिनी! नगर और जनपद में आपके विषय में भयंकर अपवाद फैला हुआ है, उसे राजसभा में सुनकर श्रीराम का हृदय संतृप्त हो उठा और वे मुझे सब बातें बताकर महल में चले गये। आप लंका में मेरे सामने निर्दोष सिद्ध हो चुकी हो तो भी महाराज ने लोकापवाद से डरकर आपको त्याग दिया है। देवी! आप अन्यथा न समझे मैं महाराज की आज्ञा तथा आपकी इच्छा समझकर आश्रमों के पास ले जाकर छोड़ दूँगा।
आप वाल्मीकिजी के चरणों की छाया में रहें। लक्ष्मणजी के कठोर वचन सुनकर सीताजी मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। दो घड़ी उपरान्त होश आने पर सीताजी बोली निश्चय ही विधाता ने मेरे शरीर को केवल दुःख भोगने के लिये रचा है। मैंने पूर्वजन्म में कौन-सा पाप किया था अथवा किसका स्त्री से बिछोह करवाया था? जो पवित्र आचरणवाली होने पर भी महाराज ने मुझे त्याग दिया है।
सीताजी ने लक्ष्मण से संदेशरूप में कहा कि तुम महाराज से कहना कि ‘‘वीर! आपने अपयश के डरकर ही मुझे त्यागा है। अतः लोगों में आपकी निन्दा हो रही है अथवा मेरे कारण जो अपवाद फैल रहा है, उसे दूर करना मेरा भी कर्त्तव्य है, क्योंकि मेरे परम् आश्रय आप ही हैं। लक्ष्मण मैं जीवन को अभी गंगाजी के जल में विसर्जित कर देती किन्तु इस समय ऐसा अभी नहीं कर सकूँगी, क्योंकि ऐसा करने से मेरे पतिदेव का राजवंश नष्ट हो जायेगा।
लक्ष्मणजी ने सीताजी का माथा टेककर प्रणाम किया तथा जोर से रोते-रोते परिक्रमा कर नाव पर चढ़ गये। शोक से संतप्त लक्ष्मण गंगाजी के उत्तरी तट पर जाकर अचेत से तथा उसी दशा में रथ पर चढ़ गये। सीताजी रो रही थीं, वहाँ से थोड़ी दूर पर ऋषियों के कुछ बालक थे। बालकों ने यह समाचार वाल्मीकिजी को सुनाया। वाल्मीकिजी बालकों सहित गंगातटवर्ती स्थान पर गये तथा मधुरवाणी में कहा पतिव्रते! तुम राजा दशरथ की पुत्रवधु, महाराज श्रीराम की रानी और मिथिला के राजा जनक की पुत्री हो।
तुम्हारा स्वागत है। जब तुम यहाँ आरही थी, तभी मुझे धर्मसमाधि के द्वारा इसका पता लग गया था। तुम्हारे परित्याग का जो सम्पूर्ण कारण है, उसे मैंने अपने मन से जान लिया है। तुम निष्पाप हो। यह मैंने पूर्व में ही दिव्य दृृष्टि से जान लिया है। इस प्रकार सीताजी वाल्मीकिजी के आश्रम में पहुँच गई।
लक्ष्मण सारथी सुमंत्र से बोले रघुनाथजी को सीता का जो नित्य वियोग प्राप्त हुआ है, इसमें मैं देव को ही कारण मानता हूँ, क्योंकि देव का विधान दुर्लङ्घ्य होता है। लक्ष्मणजी की कही हुई अनेक प्रकार की बातों को सुनकर बुद्धिमान सुमंत्र ने श्रद्धापूर्वक ये कहा-
न संतापस्त्वया कार्यः सौमित्रे मैथिलीं प्रति।
दृष्टमेतत् पुरा विप्रैः पितुस्ते लक्ष्मणाग्रतः॥ -वा.रा. उत्तरकाण्ड सर्ग 50।10
सुमित्रानन्दन! मिथिलेशकुमारी सीता के विषय में आपको संतप्त नहीं होना चाहिये। लक्ष्मण, यह बात ब्राह्मणों ने आपके पिताश्री के सामने ही जान ली थीं। उन दिनों दुर्वासाजी ने कहा था कि ‘‘श्रीराम निश्चय ही अधिक दुःख उठायेंगे। प्रायः उनका सौख्य छिन जायगा।
महाबाहु श्रीराम को शीघ्र ही अपने प्रियजनों से वियोग प्राप्त होगा। लक्ष्मणजी इतना ही नहीं श्रीराम दीर्घकाल बीतते-बीतते तुमको मिथिलेशकुमारी को तथा भरत और शत्रुघ्न को भी त्याग देंगे। इस प्रकार दुर्वासाजी ने जो बाते कहीं थी, उसे महाराज दशरथ ने तुमसे, शत्रुघ्न और भरतजी से भी कहने की मनाही कर दी थी।
दुर्वासा मुनि ने बड़े जनसमुदाय के समीप मेरे समक्ष तथा महर्षि वशिष्ठ के निकट यह बातें कही थीं। दुर्वासा मुनि की यह बात सुनकर दशरथजी ने मुझे यह बात नहीं करने को कहा था। यद्यपि पूर्वकाल में महाराज ने इस रहस्य को दूसरों के समक्ष प्रकट न करने का आदेश दिया था, तथापि आज मैं यह बात कहूँगा।
देव-विधान को लांघना बहुत कठिन है, जिससे यह दुःख और शोक प्राप्त हुआ है। भैया, तुम भी यह बात भरत एवं शत्रुघ्न के सामने मत कहना। सुमंत्रजी का यह गंभीर भाषण सुनकर लक्ष्मण ने कहा-आप जो बात सत्य है, अवश्य कहें, तब सुमंत्रजी दुर्वासाजी की कही बातें उन्हें सुनाने लगे।
अत्रि के पुत्र महामुनि दुर्वासा वशिष्ठजी के आश्रम पर रहकर चार महीने बिता रहे थे। एक दिन आपके पिता आश्रम पर अपने पुरोहित महात्मा वशिष्ठजी का दर्शन करने के लिये स्वयं ही गये। वशिष्ठजी के वामभाग में बैठे हुए एक महामुनि को उन्हें वहाँ देखा।
महाराज ने दोनों महर्षियों का विनयपूर्वक अभिवादन किया तथा उनके चरणों में बैठ गये। तदनन्तर किसी कथा के प्रसंग में महाराज ने हाथ जोड़कर के अत्रि के तपोधन पुत्र दुर्वासाजी से विनयपूर्वक पूछा-भगवन् मेरा वंश कितने समय तक चलेगा। मेरे राम व अन्य पुत्रों की आयु कितनी होगी? श्री राम के जो पुत्र होंगे उनकी आयु कितनी होगी? मेरे वंश की स्थिति बताईये
राजा दशरथ के वचन सुनकर दुर्वासाजी कहने लगे-प्राचीन काल की बात है कि एक बार देवासुर संग्राम में देवताओं से पीड़ित हुए दैत्यों ने महर्षि भृगु की पत्नी की शरण ली। भृगु पत्नी ने उस समय दैत्यों को अभय दान दिया और दैत्यों ने उनके आश्रम पर निर्भय होकर रहने लगे-
तथा परिग्रहीतांस्तान् दृष्ट्वा क्रुद्धः सुरेश्वरः।
चक्रेण शितधारेण भृगुपत्न्याः शिरोऽहरत्॥ -वा.रा. उत्तरकाण्ड सर्ग 51। 13
भृगु पत्नी ने दैत्यों को आश्रय दिया है, यह देखकर कुपित हुए देवेश्वर भगवान विष्णु ने तीखी धारवाले चक्र से उनका सिर काट लिया। भृगुजी ने क्रोधित हो भगवान विष्णु को शाप दिया-जनार्दन! मेरी पत्नी वध योग्य नहीं थी किन्तु आपने क्रोध से मूर्छित होकर उसका वध किया है इसलिये आपको मनुष्य लोक में जन्म लेना पड़ेगा और बहुत वर्षों तक आपको पत्नी वियोग कष्ट सहना पड़ेगा।
शाप देने के पश्चात् भृगुजी को पश्चात्ताप हुआ था। उन्होंने भगवान विष्णु की आराधना की। भगवान विष्णु ने तपस्या से सन्तुष्ट होकर भृगुजी से कहा कि-सम्पूर्ण जगत का प्रिय करने के लिये मैं इस शाप को ग्रहण करता हूँ। इस तरह पूर्व जन्म में विष्णु अवतार लेकर राम नाम से विख्यात आपके पुत्र हुए है।
भृगु के शाप से पत्नी वियोग हुआ। महामुनि ने दशरथजी को राजवंश की भूत और भविष्य की सारी बातें बतायी। दशरथजी दोनों मुनियों को प्रणाम कर घर लौटने लगे तथा मैंने सब बात सुनकर हृदय में धारण करली तथा किसी के समक्ष प्रकट नहीं की। लक्ष्मणजी मुनि के वचनानुसार श्रीराम के दो पुत्र होंगे तथा राम उनका अयोध्या से बाहर अभिषेक करेंगे।
सुमंत्र इस प्रकार दशरथजी के विश्वासपात्र मंत्री, सूत एवं मित्र थे। आज के युग में ऐसा मित्र कर्त्तव्यनिष्ठ, विश्वासपात्र मिलना दुर्लभ ही नहीं असंभव सा लगता है। सुमंत्रजी का दशरथजी के हित व परिवार में ऐसा मंत्री सौभाग्य की बात थी। सुमंत्रजी को श्रीराम के वंश का भूत भविष्य ज्ञात था।
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