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दान करने के तरीके

🔯#शास्त्रीय_दान_विधि🔯🚩
श्रीराम!
     शास्त्रों में छोटे छोटे दानों का भी बहुत बड़ा महान् फल देखा जाता है। किन्तु कई ऐसे लोग हैं जो बहुत बड़े बड़े दान करते हैं, उन्हें महान् तो क्या लघु फल भी मिलता हुआ नहीं दीखता, वल्कि कभी कभी शङ्कट ग्रस्त देखे जाते हैं। इस प्रकार नास्तिकों को ही नहीं आस्तिक श्रद्धालुओं में भी शास्त्रीय दान आदि विधियों पर सन्देह उत्पन्न होना स्वाभाविक है।
      इसका समाधान इस प्रकार है-- अङ्ग रूपसे कही गईं शुद्ध द्रव्य, सुपात्र, सात्विक श्रद्धा, आदि शास्त्र-विधि पूर्वक जो दानादि दिए जाते हैं ,उन्हीं के ही फल शास्त्रों में कहे गए अनुसार प्राप्त होते हैं। उनके फल भी प्रायः जन्मान्तर में ही प्राप्त होते हैं।इसी जन्म में तो किसी अति उत्कृष्ट दान का ही फल प्राप्त होता है।
      दान आदि पुण्य करने वालों को भी जो अधिक शङ्कट प्राप्त होताे है, उसका कारण भी पूर्व जन्म के पाप होते हैं।
      शास्त्र कथित दान आदि का  उसी अनुरूप फल प्राप्त करने के लिये  निम्न विधियों का पालन अनिवार्य है--
#शुद्धद्रव्य :--न्याय से उपार्जित धन का दशवाँ हिस्सा ईश्वर की प्रशन्नता के लिए लगाना चाहिए--
#न्यायोपार्जितवित्तस्य_दशमांशेन_श्रीमता।
#कर्तव्यो_विनियोगश्च_ईश्वरप्रीत्यर्थहेतवे।।( स्कन्द.पु.१-१-१२-३२)।
        अन्याय से उपार्जित धन से जो दान आदि शुभ कर्म किये जाते हैं, उनसे न तो इस लोक में कीर्ति होती है और न ही परलोक में ही उसका कोई फल होता है।इस लिए न्यायोपार्जित धन से ही दानादि शुभ कर्म करने चाहिए।--
#अन्यायोपारजितेनैव_द्रव्येण_सुकृतं_कृतम्।
#न_कीर्तिरिहलोके_च_परलोके_च_तत्फलम् (देवीभाग.३-१२-८),(बृद्ध शातातप समृ.६२)।

#सुपात्र:---दानके मुख्य पात्र ब्राह्मण ही होते हैं।ब्राह्मण से भिन्न अन्य किसी को दिए गए दान को दान नहीं सहायता-सेवा ही कहा जा सकता है।मनु स्मृति आदि धर्मशास्त्रों में ब्राम्हण को ही मुख्य सुपात्र कहा गया है।
         ब्राह्मणों में भी जो वेद का विद्वान् , वैदिकधर्मका आचरण करने वाला ,अयाचक, असंग्रही,तपस्वी,आदि जितने अधिक गुणों से युक्त होता है , उसे दिया हुआ दान उतना ही अधिक फल देता है। इसी लिए महाभारत में ऐसे ही ब्राह्मणों को सभी उपायों से निमंत्रित करने का कथन किया है---
#कृशाय_कृतविद्याय_वृत्तिक्षीणाय_सीदते।
#अपहान्यात्क्षुधां_यस्तु_न_तेन_पुरुषः_सम:।।
#क्रियानियमितान्साधून्_पुत्रदारैश्च_कर्शितान्।
#अयाचमानान्कौन्तेय_सर्वोपायैर्निमन्त्रयेत्।।
*महा.अनु.प.५९-/११/१२)।

*#सुदेश :---प्रयागादि तीर्थों में मन्दिर आदि पुण्यस्थानों में गङ्गादि  पुण्यनदी-तटों में तथा वृन्दावन आदि पुण्य वनों में दान देने से सामान्य स्थलों में दान देने की अपेक्षा अनेकों गुना अधिक फल होता है--
*#प्रयागादितीर्थेषु_पुण्येष्वायतानेषु_च।
*#दत्वाक्षयमाप्नोति_नदीषु_वनेषु_च ।।(कूर्म.पु.२-२६-५४)।
          इसके आलावा जिस देश में जिस वस्तु का अभाव हो, वह देश तीर्थस्थान न होने पर भी उस देश में उस वस्तु का दान देना भी सुदेश में दान करना ही माना जाता है।

 #सुकाल:---वैशाख शुक्लतृतीया ( अक्षय तृतीया), कार्तिक शुक्ल नौमी(अक्षय नौमी) , आदि युगों की आरम्भ तिथियाँ,पूर्णिमा , अमावस्या,एकादशी कुम्भ, दक्षिणायन-उत्तरायणकी संधि,मास की संक्रान्ति विषुव योग, चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण, आदि शुभकाल, में दिया हुआ दान महान् फल देता है--
#अयने_विषुवे_चैव_ग्रहणे_चंद्रसूर्ययोः।
#संक्रादिकालेषु_दत्तं_भवति_चाक्षयम्।।( कूर्म.पु.२-२६-५२)।
        इसके अतिरिक्त जिस काल में जिसको जिस वस्तु की आवश्यकता हो(अभाव हो) ,उसे उस काल में उस वस्तु को देना भी शुभकाल ही होता है।
       वस्तुतः-- जिस काल में धन हो, श्रद्धा का उदय हो, दानकार्य में सहायक हो, सुपात्र की प्राप्ति हो, वह काल दान के लिए शुभकाल ही होता है ---
#वित्तं_श्रद्धा_सहायश्च_पात्रप्राप्तिस्तथैव_च।
#दानकालः_तदैवेह_कथितस्तत्वदर्शिभिः ।।( कूर्म पु. ४-१९३-४)।

      क्योंकि जीवन अनित्य होता है,कब मृत्यु हो जाए कोई ठिकाना नहीं है अतः ---
#यदा_वा_जायते_वित्तं_चित्तंश्रद्धा_समन्वितम्।
#तदैव_दानकालः_स्याद्यतोनित्यं_हि_जीवितम्।(भविष्य.पु. ४-१६३ -६)।
        इस प्रकार ऊपर कही बातों  पर ध्यान रखकर विधिपूर्वक सङ्कल्प  करके जो व्यक्ति दानादि शुभकर्म करता है उसका छोटा सा भी शुभकर्म  मेरु के समान महान् फल वाला होता है--
#यथोक्तं_कुरुते_यस्तु_विधिवत्_सुकृतं_नरः।
#स्वल्पं_मुनिवरश्रेष्ठ_मेरुतुल्यं_भवेत्_फलम्।।(पद्म.पु. ६-२२-१३)
         जो शास्त्रीय विधि का त्याग करके मेरु समान शुभ कर्म करता है , उसे अणु समान अति तुच्छ फल मिलता है---
#विधिहीनं_तु_यःकुर्यात्_सुकृतं_मेरुमात्रकम्।
#अनुमात्रं_तदाप्नोति_फलं_धर्मस्य_नारद।।(पद्म पु. ६-६२-१४)।
#विशेष:- ये उप

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